बन्दर के हाथ नारियल

 

बन्दर के हाथ नारियल

 

  बुद्धि नाम के डिवाइस का आदमी के हाथ लग जाना, एकदम से बन्दर के हाथ नारियल लगने जैसी बात है। सुनते हैं कि पश्चिम वाले एक विचारक ने मनुष्य को वानरी प्रगति का परिणाम बतलाया था। हो सकता है कि उसने अपने पूर्वजों के बावत ऐसा कयाश लगाया हो, क्योंकि हमारी संस्कृति के विकास का ऐसा कोई इतिहास कतई नहीं है। अकाट्य सत्य ये है कि हम तो मनु की सन्तति— मानव हैं। हमारे हिसाब से सृष्टि का क्रमिक विकास हुआ ही नहीं है अर्थात् हठात विकसित परिपूर्ण सृष्टि सृजित हुयी है— समग्र-सांगोपांग। फिर भी कभी-कभी औरों की बातों पर गौर करने का मन करता है। हालाँकि आजकल तो ज्यादातर लोगों का वाई डिफॉल्ट डी.एन.ए. ही करप्ट कर गया है, वो क्या कहते हैं—क्रॉसब्रीड-जेनेरेशन के कारण। और दुर्भाग्य ये है कि करप्ट को रीकवर करने वाली कोई डिवाइस अभी तक बन नहीं पाया है। मजे की बात है कि जिनका डी.एन.ए. जरा सुरक्षित है, उनका भी बुद्धि-विचार मेकाले वाली शिक्षा-नीति का शिकार होकर, वैसा ही वदशक्ल हो चुका है। उन्हें भला धर्म, नीति, नैतिकता, मानवता, प्रकृति आदि से कोई वास्ता नहीं रह गया है। यही कारण है कि काले अंग्रेजों को सिर्फ दौलत चाहिए, शोहरत चाहिए, खिताब चाहिए, मेडल-सेडल चाहिए। और इसे हासिल करने के लिए चाहे कुछ भी करना पड़े, करने को वो खुशी से राज़ी है। जरुरत पड़े तो गधे को बाप या कि बाप को गधा कहने में पल भर भी देर नहीं करने वाले हैं। डार्विन के विकासवाद पर वटेसरकाका की तीखी टिप्पणी बिना कॉमा-फुलस्टॉप के यहाँ तक दौड़ गयी, अतः मुझे उसपर थोड़ा ब्रेक लगाना जरुरी जान पड़ा।

 

दरअसल उनकी एक आदत है—बिना सोचे-विचारे, किसी भलेमानस के डी.एन.ए. पर ही सीधा सवाल दाग देते हैं। जहाँ तक मुझे जानकारी है, किसी के डी.एन.ए. पर उँगली उठाना न तो हमारे मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत आता है और न लोकतान्त्रिक कर्तव्यों के अन्दर ही। फिर भी अँगुली उठाने वाले उठाते ही हैं, उन्हें भला कौन रोके ! सीधे यों कहें कि यहाँ भी घपला— सार्थक-लोकहित सोच के मामले में भले ही लोग थोड़े पिछड़े हों, परन्तु निरर्थक वकवादी विचारधारा में बहने वालों की होड़ मची है। किसी पर कीचड़ उछालने में सभी माहिर हैं, भले ही कीचड़ धोने में यक़ीन कम है। एक और मजेदार बात ये है कि कुर्सी पर रहते हुए ज्यादा कुछ नजर नहीं आता। सिर्फ कुर्सी ही नजर आती है और कुर्सी-रक्षा ही एकमात्र कर्तव्य प्रतीत होता है, किन्तु कुर्सी खिसकते ही हबलटेलीस्कोप हाथ लग जाता है और दूर-दूर की कमियाँ-खामियाँ बिलकुल साफ नज़र आने लगती हैं।

मेरी ओर से जरा रुकने का संकेत पा, काका पल भर के लिए रुकने का प्रयास किए, किन्तु रुके नहीं। फिर चालू हो गए— अब पानी नथुनों में सीधे घुसने को बेताब है बबुआ ! मेरा तो इन नवाचारी विचारधारा वालों से मन एकदम भिन्ना गया है। विकास के नाम पर विनाश परोस रहे हैं ये ज्यादातर । कस्बों को नगर, नगर को महानगर बनाने के चक्कर में, जीरो लेन को फोरलेन-सिक्शलेन  में तबदील करने के कवायद में कृषि-योग्य भूमि का बंटाढार हो रहा है। गांव के गांव कंकरीटों के जंगल में बदले जा रहे हैं। प्राकृतिक हरियाली वाले असली जंगल लुप्त होते जा रहे हैं। टेबल पर सजे आर्टीफिशियल गुलदस्ते से लेकर आर्टीफिशियल गार्डेन तक देखने को मिल जाते हैं। पहाड़ जम़ीदोज़ हो रहे हैं दिन-ब-दिन। नदियाँ जहरीली हो रही हैं। उनका कलेवर भी सिमटता जा रहा है। कुदरती अगाह को बूझने-समझने को राज़ी नहीं, ज़लज़ले का आगाज़ करने में मशगूल हैं हम। शेषनाग के फन पर थिरकने वाली पृथ्वी अब बारुदों के ढेर पर ठिठकी खड़ी है। जल-प्रलय के दारुण दुःखों को भुला कर, अग्नि-प्रलय की पूरी तैयारी कर ली हमने। प्रकृति पर विजय पाने के चक्कर में मौसम-श्रृंखला को ही चौपट कर दिया है हमने। खून और पानी बहाने की होड़ में खून को ही पानी मान लिया है, जिसे बहने-बहाने में जरा भी हिचक-झिझक नहीं। पानी भले ही बीस रुपये लीटर हो, पर खून उससे भी सस्ता।

काका को फिर टोकना पड़ा—बात तो बिलकुल सही कह रहे हैं काका, किन्तु देश-दुनिया की वर्तमान हालात पर भी तो कुछ ध्यान दें— मेरा ये कहना था कि काका फुटबॉल की तरह उछल पड़े— अरे मूरख! देश दुनिया की वर्तमान हालात पर ही तो चिन्ता जता रहा हूँ। क्या होता जा रहा है मनु की सन्तानों को, बन्दर की सन्तानों के सामने एकदम से सरेन्डर मोड में आ गए हैं। अश्वत्थःसर्ववृक्षाणाम् का संदेश देने वाले देश में पीपल छोड़कर यूक्लिप्टस लगाये जा रहे हैं। तुलसी की जगह कैक्टस और क्रोटन लग रहे हैं। गो-पालन से ज्यादा अहमियत सूअर-मुर्गी पालन को मिल रहा है। गंगाजल की पवित्रता को तिलाँजलि देकर, अल्कोहल से सेनेटाइजेशन कर रहे हैं। देवदार-गुग्गुल-अगरु के यज्ञ-धूम से आप्लावित वातावरण को चिमनियों के धुँए से प्रदूषित किए हुए हैं। आयुर्वेद का गला घोंट कर, जहरीली रसायनों को शरीर में उढेले जा रहे हैं। अब मर रहे हैं ऑक्सीजन की कमी से तो उन्हें भला कौन बचावे?

मुझे फिर टोकना पड़ा— असामयिक मौतों पर आपको जरा भी हमदर्दी नहीं है काका !

काका ने सिर हिलाते हुए कहा— है, सहानुभूति भी और संवेदना भी। चिन्ता भी है, किन्तु मौत के सौदागरों को भला कौन समझावे? दवाइयों और ऑक्सीजन की वनावटी कमी करके, मिलावट और चोरवाजारी करके भीषण महामारी के इस विकट दौर में भी ये सौदागर और राजनैतिक चोंचलेबाज अपनी गन्दी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। अभी भी वक्त है बबुआ ! समझने-सम्भलने के लिए। अब भी नहीं समझे-सम्भले यदि तो प्रकृति खुद अपना इन्तजाम

 कर लेगी, इसे कोई रोक नहीं सकता।  

मैं मालथेज़ियम थ्योरी के प्राकृतिक सिद्धान्त पर विचार करने लगा— काका ठीक ही कह रहे हैं। चेतना तो हमें ही होगा, प्रकृति तो चेताने का अपना काम कर ही रही है। बुद्धी वाली डिवाइस को जरा ठीक से ऐडजस्ट करने का हुनर सीखना होगा। वानरी सेना के बन्दरबांट से सावधान रहना होगा।  

 

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