कर्णवेध संस्कार— परिचय और प्रयोग
कुछ दशकों से नवयुवकों में दायां
या बायां- कोई एक कान छेदवाने का मनमाना चलन हो गया है। उन्हें लगता है कि ये कोई
नया काम कर रहे हैं। जबकि पौराणिक कथाओं में हम पाते हैं कि देव-दानव सहित राजा-महाराजा
भी कानों में कुण्डलादि आभूषण धारण किया करते थे।
वस्तुतः कर्णवेध संस्कार सनातन
षोडशसंस्कारों का एक अंग है, जिसे समय पर (अपरिपक्वावस्था में ही) चूड़ाकरण
संस्कार के पश्चात् ही सम्पन्न कर लेना चाहिए। इस संस्कार हेतु बालक-बालिका का भेद
भी नहीं है। यानी दोनों का होना चाहिए। इसे तीन से पाँच वर्ष की अवस्था तक हो ही
जाना चाहिए। क्योंकि वय अधिक हो जाने पर, त्वचा पुष्ट हो जाने के कारण किंचित्
कष्टकर हो जाता है और छिद्र का सुरक्षित रहना भी संदिग्ध हो जाता है। कर्णवेध
संस्कार के अन्तर्गत ही नासिकावेध भी समाहित है। अन्तर इतना ही है कि नासिकावेध
सिर्फ कन्याओं के लिए है।
प्रसंगवश
यहाँ ये स्पष्ट कर दूँ कि कहीं-कहीं ऐसी भी परम्परा है कि जिन माताओं की सन्तानें
सूतिकागृह में ही दिवंगत हो जाती हैं, उनकी अगली सन्तान (पुत्र हो या पुत्री) नालछेदन
के समय ही धाय द्वारा सिर्फ नाक छेद दिया जाता है। इसे एक टोटका माना जाता है। किन्तु
इसका ये अर्थ नहीं कि आगे पुनः कर्णवेधसंस्कार नहीं करना है उनका। वो तो समय पर
किया ही जाना चाहिए।
कान और नाक के वेधन का
लोकपरम्परानुसार स्थान भेद है—कान की ललरी तथा ऊपरी हिस्से एवं नाक के ऊपरी हिस्से
सहित भीतरी छिद्र सीमन्तप्रदेश में वेधन
किया जाता है। अपने लोकाचार के अनुसार इसे सम्पन्न कराना चाहिए।
धर्मशास्त्र सहित आयुर्विज्ञान भी कर्ण-नासिका
वेधन का समर्थन करता है। इस सम्बन्ध में किंचित् ऋषि निर्देश प्रस्तुत हैं—
व्यासस्मृति १-१९—कृतचूडे च बाले च कर्णवेधो विधीयते ।।
गर्गाचार्य जी कहते हैं—कर्णवेधं
प्रशंसन्ति पुष्ट्यायुः श्रीविवृद्धये ।।
सुश्रुत संहिता सूत्रस्थान १६-३
में कहा गया है—
रक्षाभूषणनिमित्तं बालस्य कर्णौ विध्येते
। पूर्वं दक्षिण कुमारस्य, वामं कुमार्यां, ततः पिचुवर्ति प्रवेशयेत् ।।
कुमारतन्त्रम् में चक्रपाणि के वचन हैं— कर्णव्यधे
कृतो बालो न ग्रहैरभिभूयते । भूष्यतेऽस्य मुखं तस्मात् कार्यस्तत् कर्णयोर्व्यधः।।
उक्त
वक्तव्यों से कर्णवेधसंस्कार का औचित्य और महत्त्व स्पष्ट है कि वेधन से
ग्रहबाधादि सहित बालारिष्ट का शमन होता है, साथ ही स्वास्थ्य सम्बन्धी अन्य
समास्याओं का भी शमन होता है। ब्रह्मचर्य रक्षण सहित प्रजननसंस्थान के अनेक विघ्नों
का शमन होता है इस संस्कार से।
(कान-नाक आदि के इन स्थानों से
शरीर की कौन-कौन सी विशिष्ट नाडियाँ गमन करती है, इस विषय की विस्तृत जानकारी हेतु
मेरी पुस्तक नाड्योपचारतन्त्रम् का अवलोकन करना चाहिए। सूक्ष्म नाडीविज्ञान
में भी इनकी विशद चर्चा है।)
कर्णवेधसंस्कार
क्रम एवं समय संशय— गौतमस्मृति एवं विविध गृह्यसूत्रों में
जहाँ चालीस संस्कारों की चर्चा है, वहाँ भी क्रम एवं नाम भेद है। स्पष्ट रूप से व्यासस्मृति १। १३-१५ में ये क्रम
इस प्रकार है— गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च।
नामक्रियानिष्क्रमणोऽन्नाशनं
वपनंक्रिया।।
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः।
केशान्तं स्नानमुद्वाहो विवाहाऽग्नि
परिग्रहः।।
त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः
षोडशस्मृताः।।
अर्थात् – गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण,
निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह , आवसथ्याधान एवं
श्रौताधान ।
इस प्रकार चूड़ाकरण के बाद कर्णवेध की
बात आती है। किंचित् ऋषिमत से ऐसा भी निर्दिष्ट है— ततः जन्माहात एकादश/द्वादश दिने, ततः ६, ७, ८ मासि, ततः विषम वर्षे कर्णवेधः शुभः।
कर्णवेध हेतु मुहूर्त विचारक्रम
में श्रीरामदैवज्ञ महोदय विरचित मुहूर्तचिन्तामणि संस्कार प्रकरण २४-२५ में भी
इन्हीं विचारों की पुष्टि है — हित्वैतांश्चैत्रपौषमहरिशयनं
जन्ममासं च रिक्तां ,
युग्माब्दं जन्मतारामृतुमुनिवसुभिः सम्मिते मास्यथा वा।
जन्माहात्सूर्यभूयैः परिमितदिवसे ज्ञेज्यशुक्रेन्दुवारेऽ
थोजाब्दे विष्णुयुग्मादितिमृदुलघुभैः कर्णवेधः प्रशस्तः।।
(अर्थात चैत्र एवं पौष (खरमास), तिथिक्षय
वाले मास, हरिशयन वाले मास (आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी), जन्ममास,
रिक्तातिथि, समवर्ष, जन्मतारा—इन सबको छोड़कर छठे, सातवें वा आठवें महीने में अथवा
जन्म के बारहवें वा सोलहवें दिन में, बुध, गुरु, शुक्र, सोम वारों में, विषम
वर्षों में एवं श्रवण, धनिष्ठा, पुनर्वसु तथा मृदु-लघु संज्ञक नक्षत्रों में
कर्णवेध शुभ होता है। (मृदु संज्ञक नक्षत्र—मृगशिरा, रेवती, चित्रा और अनुराधा तथा
लघु संज्ञक नक्षत्र— हस्ता, अश्विनी, पुष्य और अभिजित् को कहते हैं)। वहीं आगे
पचीसवें श्लोक में लग्नशुद्धि की चर्चा करते हैं— संशुद्धे मृतिगमने
त्रिकोणकेन्द्रत्र्ययस्थैः शुभखचरैः कवीज्यलग्ने । पापाख्यैररिसह-जायगेहसंस्थैर्लग्नस्थे
त्रिदशगुरौ शुभावहः स्यात्।। (अष्टमभाव ग्रह रहित हो, केन्द्रत्रिकोण तथा ३सरे-११वें
स्थान में शुभग्रह हों, गुरु वा शुक्र की राशि लग्न में हो, पापग्रह ३,६,११ वें
स्थान में हों तो कर्णवेध श्रेष्ठ होता है।)
किसी भी शुभकार्य में ध्यान देने योग्य
किंचित् अन्य निर्देश भी आगे इसी प्रसंग में हैं — गीर्वाणाऽम्बुप्रतिष्ठा
परिणय दहनाधान गेहप्रवेशाश्चौलं राजाभिषेको व्रतमपि शुभदं नैव याम्यायने स्यात्।
नो वा बाल्यास्तवार्धे सुरगुरु सितयोर्नैव केतूदये स्यात् पक्षं वाऽर्धं च केचिञ्जहति
तमपरे यावदीक्षां तदुग्रे ।।२६।। (देवता-जलाशय आदि की प्रतिष्ठा, विवाह,
अग्न्याधान, गृहप्रवेश, मुण्डन, राज्याभिषेक, यज्ञोपवीतादि दक्षिणायन सूर्य
में न करे तथा गुरु-शुक्र के अस्त, बाल्य
और वृद्धावस्था में भी न करे। केतु के उदयकाल में श्रेष्ठ नहीं है। )
कर्णवेध संस्कार प्रयोग—
सर्वविध
प्रशस्त समय का चयन करके देश-काल-पात्र का विचार करते हुए, कर्णवेध संस्कार
सम्पन्न करना चाहिए। पूर्व चर्चित अन्यान्य संस्कारों की भाँति इसमें भी कर्मकाण्डीय
विधान लगभग समान होते हुए भी किंचित् संक्षिप्त है। संस्कार कार्य हेतु आचार्य के
अतिरिक्त कर्णवेधकर्म में निपुण व्यक्ति (लोकपरम्परानुसार स्वर्णकारादि) की भी
आवश्यकता है। सामान्य पूजन सामग्री सहित त्रिधातु—सोना, चांदी, तांबा में किसी एक
से निर्मित शलाका भी आवश्यक है, जिससे वेधन करके, किंचित् काल के लिए यथावत् छोड़
दिया जाता है। बाद में अपनी इच्छानुसार आभूषण धारण कराते हैं। पूजनकाल में नूतनवस्त्रालंकृत
बालक को माता की गोद में बैठा लेना चाहिए एवं पूजनोपरान्त कर्णवेध के समय उसके
हाथों में मिष्टान्न अवश्य दे दें।
पूजन का पूरा विधान यदि न कर सकें,
तो भी कम से कम गणेशाम्बिका पूजन अवश्य कर लेना चाहिए। (विस्तृत वा संक्षिप्त
पूजा विधान परिशिष्ट खण्ड में देखें) यहाँ सिर्फ कर्मकाण्डीय संकेत मात्र दिए
जा रहे हैं—
संकल्प— ऊँ अद्य....गोत्रः सपत्नीकः...शर्माऽहं....नाम्नः अस्य
कुमारस्य (मम पुत्रस्य) लेखनवाचनादिविपुलविद्याज्ञानप्राप्तये
श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं कर्णवेधाख्यं कर्म करिष्ये। तदपूर्वाङ्गत्वेन
स्वस्तिपुण्याहवाचनं गणपतिसहितगौर्यादिषोडशमातृकापूजनं (वसोर्धारापूजनमायुष्यमन्त्रजपं
साङ्ककल्पिकेन विधिना नान्दीश्राद्धं च करिष्ये। ) तत्रादौ कर्मणः
निर्विघ्नतासिद्ध्यर्थं गणेशाम्बिकयोः पूजनं च करिष्ये।
आंगिक पूजा सम्पन्न हो जाने के पश्चात्
कर्णछेदक निपुण व्यक्ति को समीप बुलाकर, स्वर्णादि निर्मित छेदक को पत्रावली में रखकर, जलसिंचन पूर्वक पंचोपचार
पूजन कर दें। तत्पश्चात् बालक का पिता निम्न मन्त्रों से बालक के दाहिने ( बालिका
के बांये) कान का प्रथम सिंचन करे। किंचित् मतान्तर से बालिका की क्रियाएं बिना
मन्त्र के ही होगीं। बालिकाओं का नासा छेदन भी साथ में ही कर दिया जाता है, जबकि
बालकों के लिए ये अनिवार्य नहीं है।
दाहिने
कान हेतु मन्त्र — ऊँ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः
। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाᳫसस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः । (यजुर्वेद २५-२१)
बायें कान
हेतु मन्त्र— ऊँ वक्ष्यन्तीवेदा गनीगन्ति कर्णं प्रियँ सखायं परिषस्वजाना ।
योषेव शिङ्के वितताधि धन्वञ्ज्या इयँ समने पारयन्ती ।। (यजुर्वेद २९-४०)
कर्णसिंचन के पश्चात् सुवासिनियों
द्वारा वेधस्थान को अलक्तक(आलता) से चिह्नित कर देना चाहिए। तत्पश्चात् छेदक उस
चिह्नित विन्दु पर कुशलतापूर्वक वेधन कर दे। वेधनोपरान्त उस स्थान को हरिद्रारंजित
अवश्य कर देना चाहिए। ध्यातव्य है कि हरिद्रा शुभद एवं कीटनाशक दोनों है।
हरिद्रालेप के पश्चात् किसी औषधि की आवश्यकता नहीं है। आगे भी दो-चार दिनों तक
हरिद्रालेपन करते रहना चाहिए छिद्रों पर।
इस प्रकार कर्णवेधनसंस्कार क्रिया समापन
क्रम में पुनः जलाक्षत लेकर दक्षिणा संकल्प करे, तत्पश्चात् आवाहित देवों का
विसर्जन करे।
विप्रभोजन एवं भूयसि दक्षिणादान संकल्प — ऊँ अद्य... कृतस्य कर्णवेधसंस्कार साङ्गतासिद्ध्यर्थं न्यूनातिरिक्तदोष-परिहारार्थञ्च नानानामगोत्रेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो भूयसीदक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृज्ये तथा च यथासंख्याकान् ब्राह्मणान् सदक्षिणाद्रव्यं भोजयिष्ये ।
विसर्जन—आवाहित
सभी देवों का मन्त्रोच्चारण सहित विसर्जन करें— यान्तु
देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्।
इष्टकामसमृद्ध्यर्थं
पुनरागमनाय च ।
।। ऊँ विष्णवे नमः ऊँ विष्णवे नमः ऊँ विष्णवे
नमः ।।
000--000
क्रमशः जारी......
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