अटेस्टेड वाइफःअभिप्रमाणित पत्नी
जो कहना चाहता हूँ, उससे
पहले, जो नहीं कहना चाहिए, उसे ही कह लूँ, क्योंकि आजकी दुनिया जरुरत से ज्यादा
होशियार है। बेवकूफ तो कहीं ढूंढ़े नहीं मिलेगे, मेरे सिवा । और चूँकि बेवकूफ हूँ,
इस कारण इसका खामियाज़ा भी आए दिन भुगतना पड़ता है, वो इस तरह जैसे अमेरिका के ‘न्यूड कॉलनी’ में कोई मूरख कपड़े पहने हुए पहुँच
जाए, तो उसे धक्के देकर निकाल ही दिया जायेगा न !
खैर, अब आप ये सवाल हमसे न
कीजियेगा कि स्कूल-कॉलेज के सर्टिफिकेट की तरह ये बीबीयाँ अटेस्टेड कब से होने
लगीं और इन्हें कौन का गज़िटेड अफसर अटेस्ट करता है।
मेरी व्यथा ये है कि
मैं पैनकार्ड, आधारकार्ड, वोटरकार्ड,
पासपोर्ट, वीज़ा वगैरह आलजाल कुछ रखता ही नहीं हूँ। पढ़ते समय आईडेन्टीकार्ड था।
अब बेरोजगारी में उसकी भी जरुरत न रही ।
और ये सब नहीं रखने का कारण
साफ है— किसी तरह गुजर-बसर करने वाले को इन्कमटैक्स की क्या परवाह ?
चोर-लुटेरों को वोट देना नहीं है, फिर वोटरकार्ड क्या करेंगे? घोटाला करके विदेश भागना नहीं है और न हनीमून ही मनाने जाना है, ऐसे में
पासपोर्ट-वीज़ा रखने का क्या तुक? और सबसे अहम बात ये कि जब
जीवन ही आधारहीन है—अगले क्षण का कुछ अतापता नहीं है, फिर आधारकार्ड का क्या
औचित्य?
किन्तु सौभाग्य से या कहें
दुर्भाग्य से पत्नी है यदि, तो उसका अभिप्रमाणित पर्ची होना जरुरी है पास में—ये
मुझे उस दिन पता चला।
अब यहाँ पत्नी होना
सौभाग्य-दुर्भाग्य की बात कह रहा हूँ, इस बावत भी आप हुज्ज़त न करें तो अच्छा है।
अरे भाई ! जिसको है वो अपने आप को कोस रहा है और जिसे नहीं है वो भी कोस ही रहा है
किसी को ।
खैर, फिज़ूल की बातों में
ज्यादा उलझाने से बेहतर है कि असली बात पर आ जाऊँ। औरंगाबाद जिले के दुलरुआ
स्टेशन, जिसे लोग पचहत्तर वर्षों के नामकरण के बाद भी पांवरगंज ही कहते हैं,
क्योंकि गुलामी वाली दुम टूटने का डर है, साथ ही पांमरसाहव की आत्मा को फिर से
धरती पर कहीं आना न पड़ जाए, इस बात की फ़िकर सताती हो—वजह जो भी हो। मैं तो हमेशा
इसे अनुग्रह नारायण रोड ही कहता हूँ, भले ही ये नाम थोड़ा टेढ़ा क्यों न हो ।
उसी स्टेशन पर पैसिन्जर
ट्रेन की दो टिकट लिए गाड़ी के इन्तजार में खड़ा था। वहाँ से दो स्टेशन बाद यानी
डेहरी में एक बीमार रिश्तेदार का आपात बुलावा था। जल्दी से जल्दी पहुँचना जरुरी
था। परिवार से मिलने की आतुरता हमसे ज्यादा मेरी श्रीमती जी को थी। संयोग से इसी
बीच दून एक्सप्रेस आ गयी, जो कि नियत समय से चार घंटे लेट थी। ट्रेनों का लेट चलना
‘इण्डिया’ में बिलकुल बुरा नहीं माना जाता। हर
रसूकदार लोगों के गांव के सामने चेनपुलिंग होगी तो लेट तो होना ही है न।
परिजन की चिन्ता या आतुरता या मूर्खता—जो भी
कहें, पैसिन्जर का टिकट लिए एक्सप्रेस में चढ़ गया—दो स्टेशन ही तो जाना है।
हालाँकि ऐसी बात मेरे जैसे मूरख ही सोचा करते हैं। राष्ट्रभक्त तो राष्ट्रीय
सम्पदा का उपयोग बेहिचक-बेझिझक कर लेते हैं। सुपरफास्ट या राजधानी में भी टिकट
लेने की ज़हमत नहीं उठाते—टी.टी.बाबू हैं न ।
और टीटी बाबू भी ऐसे देशभक्तों के स्वागत में सदा तत्पर रहते हैं। सीट की
कौन कहे, वर्थ भी चटाकसे एलॉट कर देंगे यदि गांधीजी की तस्वीर है जेब में।
राष्ट्रपिता को हमेशा जेब में रखे रहना इसीलिए जरुरी है समझदार नागरिक के लिए। कहीं
भी किसी महकमें में काम आसान कर देते हैं गांधीबाबा, जैसे भगवान भक्त का काम आसान
कर देते हैं।
गाड़ी अभी खुली ही थी कि टी.टी.बाबू
सिर पर सवार हो गए—आपका टिकट...कहाँ जाना है...कौन सा वर्थ है...स्लीपर में कैसे
घुस आए...?
मजे की बात ये है कि स्लीपर
खचाखच भरा हुआ था, फिर भी एक्सप्लानेशन मुझसे मांगा जा रहा था। मैंने दो पैसिन्जर
टिकट उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा—बस दो स्टेशन—डेहरी तक जाना है।
घबराती-हकलाती पत्नी ने कहा—
बहन का वेटा सख्त बीमार है। पैसेन्जर छः घंटे लेट थी...।
मेरे टिकट टी.टी.बाबू के हाथ
में थे और उनकी संदिग्ध-घृणापूर्ण आँखें कभी मेरी ओर, कभी पत्नी की ओर नुकीले भाले
सी चुभ रही थी। सिर से पैर तक, कभी मेरी ओर निहार रहे थे, तो कभी पत्नी के मुखड़े
पर चिपक जा रहे थे। कभी मेरी लम्बी दाढ़ी पर ठिठक रहे थे, तो कभी पत्नी की कमसीनी
उन्हें चौंका रही थी।
आप ज्यादा चौंकें नहीं इसलिए
मैं स्पष्ट कर दूँ कि अधिकारिक रूप से श्रीमती जी हमसे मात्र एक महीने दस दिन छोटी
हैं, किन्तु सदा षोडश वर्षीया पार्वती ने अपने जैसा ही बने रहने का आशीष दे रखा है
शायद इन्हें, जिसकी सजा पचपन वर्षों के वैवाहिक जीवन में मुझे कई बार भुगतनी पड़ी
है—अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग तरीके से। शहर-बाजार में भी साथ निकलता हूँ तो
संदिग्ध आँखें कोंचते रहती हैं।
दरअसल हमदोनों का स्वरूप और
परिधान बिलकुल मेल ही नहीं खाता—ये ओवर अन्डर एज़ और मैं ओवर ओवर एज़। ये बिना मेकअप के भी ब्यूटीशियन को रिझाने जैसी
और मैं दढ़ियल, सिर्फ धोती-चादर धारी।
ये ऋषिवेष ही संदेह के घेरे
में ला खड़ा करता रहा है हमेशा। लोगों को ये पता ही नहीं कि आर्यावर्त का असली
परिधान यही है। ऋषिवेष का अर्थ लोग साधु-सन्त-सन्यासी लगा लेते हैं। लोगों को ये
पता ही नहीं कि ऋषिपत्नियाँ भी हुआ करती थी।
खैर, अभी तो मैं अपनी पत्नी
के कारण बेपानी हो रहा हूँ। ट्रेन के डब्बे की खचाखच भीड़ का हर इन्सान बेताब हो
रहा था मुझे और मेरी पत्नी को देखने के लिए—
“ एक
लफंगा साधु एक कमसिन औरत को भगाए लिए जा रहा है” — आँधी की तरह बात बॉगी के पिछले
छोर तक पहुँच चुकी थी। आज जैसा ऍनरॉयड वाला जमाना होता तो वीडिओ रील बन कर वायरल
हो जाता।
ट्रेन तब तक सोननगर स्टेशन
पहुँच चुकी थी। सोननदी के उस पार डेहरी स्टेशन है—मेरा गन्तव्य।
टिकट को अपनी जेब में रखते
हुए टी.टी. गुर्राया— ‘बाना साधु का काम अऽऽसाधु
का...यही सब करते हो...चलो अभी बतलाता हूँ...। ’
गाड़ी डेहरी पहुँच गई।
तीन-चार खाकीवर्दी वाले पहले से वहाँ मौजूद थे। एक डाकिनी सी “खाकिनी” भी थी उनके साथ में। उसने लपक कर पत्नी का
हाथ पकड़ा और एक सिपाही ने मेरा । खसीटते हुए अंदाज में ट्रेन से नीचे खींच लिया
गया हमदोनों को।
रेंगती ट्रेन के दरवाजे पर
खड़ा टी.टी. अभी भी अपनी नुकीली आँखों से हमदोनों को बेध रहा था।
पत्नी बिलकुल घबरा गयी थी।
मेरा धैर्य और संयम टूटा जा रहा था। मन पर क्रोध का कब्जा हो आया था। दाँत पीसते हुए बोला—तुम लोग एलीयन
हो या इन्सान...इंडियन हो या फॉरनर...मैं भारत का एक ब्राह्मण...ये मेरा
ऋषिपरम्परा वाला वेषभूषा...ये मेरी पत्नी....क्या इसके लिए सर्टिफिकेट की जरुरत है?
डेहरी मेरी पुरानी जगह है।
सैंकड़ों नहीं, हजारों परिचित हैं। आठ-दस
तो रिश्तेदार ही हैं ।
प्लेटफॉर्म पर इकट्ठी हो आयी
भीड़ को चीरते कुछ लोग आगे आए—किसी ने बाबा कहा, किसी ने भैया, किसी ने मौसा, किसी
ने फूफा। एक लड़की आगे बढ़कर लिपट गयी पत्नी से— दीदी तू कने से फँस गेले?
और फिर मेरी ओर आँखें मटकाती
हुई बोली— “ कह
ही न कि अपन वेशभूषा बदलूँ...अब बुझाएल न कि दुनिया कईसन हेऽ।”
सालीसाहिबा की व्यंग्यात्मक
मुस्कान, झटकती ज़ुल्फें और मटकती आँखें खाकीवर्दी वालों से तो आज मेरी इज्जत बचा ली, किन्तु मेरी इस असाल्तन समस्या
का हल...?
पूरा शरीर काँप रहा था। सिर
फटा जा रहा था। हाईड्रोजन भरे गुब्बारे की
तरह शरीर सुदूर आकाश की ओर उड़ा जा रहा था। मैं अपने आप में बिलकुल नहीं था। कहाँ
था, कैसे था—ज्यादा कह भी नहीं सकता, क्योंकि अन्तर्वेदना अनुभूति जगत की चीज है,
अभिव्यक्ति की सीमा से परे वाले जगत की।
“जो हुआ सो
हुआ, चलिए यहाँ से, जहाँ के लिए निकले हैं।”— पत्नी ने कहा
सहानुभूति पूर्वक स्नेहिल हाथों से मेरा दाहिना हाथ पकड़कर। कुछ-कुछ उसी अन्जाज़ में जैसे पहले कभी मैं
पकड़ा था, विवाह मण्डप में उसका हाथ। किन्तु मेंहन्दी रचे कोमल हाथों का सुकोमल
स्पर्श आज मुझे कुछ और ही अहसास दे रहा था।
स्टेशन से बाहर आकर दो
रिक्शा लिया, एक पर दोनों बहनें बैठी और दूसरे पर मैं अकेला।
दो किलोमीटर के शहरी सफ़र के
बीच दिमाग में दो पंक्तियाँ प्रतिध्वनित होती रहीं —
भार्या
रूपवती शत्रुः पुत्रः शत्रुरपंडितः ।
ऋणकर्ता पिता शत्रुः माता च
व्यभिचारिणी।।
(रूपवती पत्नी शत्रु तुल्य है,
अनपढ़ पुत्र शत्रु तुल्य है, ऋणकर्ता पिता
शत्रु तुल्य है और व्यभिचारिणी माता शत्रु तुल्य है)
किस भले मानस ने,
किस परिस्थिति में, किस मनःस्थिति में,
किस घनीभूत अन्तर्वेदना की स्थिति में ये पंक्तियाँ कहीं होंगी—ये तो मुझे नहीं मालूम, किन्तु पंक्तियाँ हैं बिलकुल
अनमोल, मननीय और विचारणीय भी।
क्यों न हों। मैं तो इसका
भुक्तभोगी हूँ। एक नहीं, अनेक बार ऐसी अन्तर्वेदना से
सामना हुआ है, जिसे कदाचित व्यक्त भी नहीं किया जा सकता।
पिता अतिशय संस्कारी-सदाचारी,
माता की गरिमा-महिमा के बखान के लिए शब्द-मंजूषा रिक्त पड़ी है। सौभाग्य से पुत्र
भी अ-पंडित नहीं है। किन्तु भार्या !
एनाटॉमी,
फिजियोलॉजी, गायकोलॉजी, साइकोलॉजी आदि के
एक्सपर्ट भी चक्कर घिन्नी खा जाते हैं। साहित्य और कला वाले धोखा खाते रहते हैं,
तो कौन से आश्चर्य वाली बात है ! वो तो उबड़-खाबड़ चाँद को भी
खूबसूरती का सबसे सटीक मापदण्ड माने बैठे हैं। भला हो उन डार्विनवादी बन्दर के
वंशजों का, जिन्होंने हमारी ही धरोहर—वेद-पुराणों को लूटपाट कर नये-नये सिद्धान्त
गढ़े और मनु के वंशजों को नये सिरे से ‘सांयन्स’ पढ़ाया और तब
जाकर भेद खुला की खूबसूरती का मिश़ाल चाँद कितना भोंड़ा है। क्या हिम्मत है किसी
की जो किसी गोरण्डी को चन्द्रमुखी कह कर सम्बोधित करे !
खैर, हम भारतियों को तो अपनी
गर्दभी बीबीयों को भी चन्द्रमुखी सम्बोधित करने की विवशता है। क्यों कि हमारा
सोशलसांयन्स इतना डेवेलप नहीं हुआ है अभी। खुदा न खास्ते फिजिक्स वाले मान भी
जाएं, किन्तु साहित्य वाले कतई नहीं
मानेंगे चाँद की इस बेईज्जती को।
किन्तु मैं आज की अपनी इस
बेईज्जती को कैसे विसार दूँ?—यक्ष प्रश्न बना
हुआ है।
मैं पहले ही बता चुका हूँ कि
हमउम्र हैं हमदोनों —चन्द महीनों का
फासला है सिर्फ,
किन्तु आला लगाते, नब्ज देखते डॉक्टरसा’ब भी
सीधे पन्द्रह-बीस साल की डंडी मार देते हैं। मैं भी मन ही मन मुस्कुरा कर,अपने
भाग्य पर इठला कर, श्रीमती जी का चेहरा देखते रह जाता हूँ, मानों
पहली बार किसी ने मुझे उनके सौन्दर्य से परिचय कराया हो।
यहाँ तक की बात तो बड़ी
अच्छी लगती है। इठलाने वाली, इतराने वाली,
किन्तु ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ सुना है न आपने ! सैकरीन बहुत मीठा होता है, इतना
मीठा कि जीभ पर रखने पर तीतापन का अहसास कराता है। वर्फ ढंढ़ा होता है, किन्तु उसमें से भाप निकलते रहता है। वर्फ से प्यास बुझायी नहीं जा सकती, पीने के लिए तो नॉर्मलवाटर ही चाहिए।
खैर,
बात कर रहा था भार्या रूपवती शत्रुः की। श्रीमतीजी के रूप-सौन्दर्य
और कमसीनी ने कई बार मुझे भारी चक्कर में डाल दिया है। प्राणप्रिया तो मेरी शत्रु कदापि नहीं हो सकती, किन्तु उनका जानलेवा सौन्दर्य मेरे साथ आए दिन शत्रुता कर ही गुजरता है। आज
की शत्रुता तो जन्म क्या जमान्तरों में भी भूलने वाली नहीं है।
इस अन्तर्वेदना को व्यक्त
करूँ भी तो कैसे? कहूँ भी तो किससे? सुनने वाला भी हँसेगा, चुटकी लेगा। नतीजन, होता ये है कि घुमक्कड़ी प्रधान युग में भी मैं कहीं घूमना-फिरना पसन्द
नहीं करता। ठूँठ-बाँड़ अकेले जाने में अच्छा नहीं लगता और साथ निकलकर ज़हमत मोल
लेने की साहस नहीं ।
किन्तु मेरी इस अन्तर्वेदना
से श्रीमती जी भी अवगत नहीं हैं। अवगत कराने का दुस्साहस भी किया कभी तो, उन्हें विश्वास नहीं। उनकी नजरों में मैं महा मन्हूश हूँ, कंजूस तो हूँ ही। हालाँकि इस जघन्य आरोप लगाने वाली श्रीमतीजी को इतना तो
समझ होना ही चाहिए था कि जो आदमी बाकी चीजों पर मनमानी पैसे खरच सकता है, वो भला बाहर जाकर, साथ घूमने से क्यों इतना परहेज
करता है?
दरअसल हमलोग की जोड़ी ही
बड़ी अटपटी है—मेरी नजर में नहीं,
दुनिया वालों की नजर में। देखते ही संदेह
के घेरे में आ जाता हूँ। और आप जानते ही है कि सत्य को सत्य साबित करने में बहुत
दिक्कत होती है। ज्यादातर सत्य पराजित ही होता है। ‘सत्यमेव जयते’ तो ‘स्लोगन’ भर है। ये बात दिगर है कि कभी-कभी बबूल के
बगीचे में भी आम मिल जाए।
चिन्ता और चिन्तन की घनेरी काली बदली के बीच पुरानी यादों का प्यारा चाँद चमकता नजर आया, जिससे थोड़ी राहत महसूस हुआ— कुछ-कुछ ऐसी ही घटना एक और इनसान के साथ घटित हुई थी। राज्य के जानेमाने एक वयोवृद्ध साहित्यकार के साथ अब से काफी पहले राज्य की राजधानी पटने के बहुचर्चित पार्क—हार्डिंगपार्क में एक अजीब दुर्घटना घट गयी थी। जी हाँ दुर्घटना ही कहेंगे, क्योंकि उन महानुभाव के साथ मेरी सहानुभूति होनी चाहिए—दुखिया का दुख दुखिया ही जान सकता है।
रसिक साहित्यकार महोदय ने
पचास की वय में पसीस वाली से दूसरी शादी रचायी थी और उसके साथ हार्डिंगपार्क के
बेंच पर बैठ कर गोलगप्पे खा रहे थे। तभी किसी मनचले ने चुहलबाजी कर दी । बवाल मचा,
पुलिस पहुँची तो युगलजोड़ी संदेह के घेरे में जा फँसी। खैरियत था कि कोतवाल उन
साहित्यकार बन्धु का फैन निकला। मामला रफा-दफा हो गया, जैसे आज साली साहिबा मेरा
मामला सलटा दी। किन्तु....
किन्तु कब तक... मेरे यक्ष-प्रश्न
का उत्तर युधिष्ठिर कब देंगें?
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नोट--ये कोरी कल्पना नहीं,बल्कि भोगा हुआ यथार्थ है.....
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