हाईब्रीड बाबा

 

हाईब्रीड बाबा 

 विदित हो कि स्वनाम धन्य शास्त्री जी इधर कई वर्षों से कहीं गायब थे। लोग अपनी-अपनी बुद्धि, विचार, भाव, समझ और अनुमान के आधार पर उनके गायब होने की वजह और जगह तय कर रहे थे। जाकि रही भावना जैसीके आधार पर, विन्ध्यगिरि की कन्दराओं से लेकर लालघर की शलाकाओं के बीच कहीं भी वो हो सकते हैं। स्वजन-प्रियजन ये माने बैठे थे कि वर्तमान सांसारिक माहौल उन्हें रास नहीं आ रहा था, इसलिए कहीं गुमनाम होकर साधना रत हो गए हैं, जबकि दुर्बुद्धियों को पक्का यकीन है कि कहीं कुछ कांड करके कानून के गिरफ्त में आ गए हैं। वैसे भी आजकल प्रायः दुर्जनों के पास तर्क और प्रमाण ज्यादा हुआ करता है। क्योंकि वे गुनने-समझने, सोचने-विचारने का काम कम करते हैं और कहने-बोलने, चीखने-चिल्लाने में ज्यादा यकीन रखते हैं।

किन्तु आज तड़के ही सबके मुँह पर तमाचा मारने वाले अन्दाज में अचानक प्रकट हो गए शास्त्रीजी। प्रकट भी हुए तो गांव के बाहर पुराने वाले भूतहा पीपल के चबूतरे पर गमछा विछाए घोड़ा बेंच कर सोए हुए रूप में।

लोटा लेकर पेट हल्का करने की हड़बड़ी में लपक कर जाते हुए भगलुवा ने सबसे पहले उन्हें देखा तो, तम्बाकू से प्रेशर बनाये बिना ही पेट खाली हो गया वहीं पीपल के पास ही और लोटा पटककर सरपट भागा गांव की ओर चीखते-चिल्लाते हुए— शास्त्रीजी का भूत...शास्त्रीजी का भूत...।  

घड़ीभर के अन्दर ही, गांव ही नहीं, इलाका आ जुटा भूतहा पीपल के पास, इस उत्सुकता से कि शास्त्रीजी सच में हैं या उनका भूत भटक रहा है। क्योंकि इलाके में प्रसिद्धि इस बात की है कि भूतहा पीपल के आसपास तो कोई जिन्दा इन्सान क्षण भर भी टिक ही नहीं सकता, फिर चबूतरे पर चढ़कर चैन से खर्राटे भला कैसे ले सकता है कोई !

मज़में के खुसुर-फुसुर से शास्त्रीजी की नींद खुली तो वीरान मैदान का नज़ारा देख चौंक उठे। सदा दूर दृष्टि रखने वाले शास्त्रीजी को मामला समझते देर न लगी और चट अपने अनोखे-अजूबे अन्दाज में आ गए, जिससे गांव वाले जरा भी परिचित न थे। नाखून से  चबूतरे की थोड़ी सी मिट्टी कुरेदे और आसपास घिरे लोगों को दोनों हाथ ऊपर उठाकर, आहूत करने लगे — आ जाओ मेरे बच्चे ! आ जाओ ।  ले लो ये करिश्मायी मिट्टी...तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी हो जायेगी...मनमाफिक जीवनसाथी मिलेगा...बांझों की गोद भरेगी... बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा... आई.ए.एस.- आई.पी.एस. तो फस्ट अटेम्ट में ही निकल जायेगा...संसद की सरकती कुर्सी भी पुस्तैनी धरोहर की तरह लब्ध होगा... मुखियागिरी और दादागिरी तो चुटकी का खेल है...बस इस मिट्टी को तकिए के नीचे रख कर तीन रात टांगे ऊपर करके सोना है...और पूरे परहेज से रहना है....तीन रात ब्रह्मा वाली रात नहीं है...बदल लो अपना किस्मत...चूके तो पछताए ।

पहले तो लोग जरा डरे-सहमें, आपस में कानाफूसी भी हुई, किन्तु जब किसी एक ने लपक कर मिट्टी ग्रहण कर ली हिम्मत करके, फिर क्या कहना।

 ऍनरायडी जमाने में दोपहर होते-होते लाखों की भीड़ आ जुटी। हुज़ूम जुटता रहा और चबूतरे की मिट्टी शास्त्रीजी की मुट्ठी से गुजरती हुई, श्रद्धालुओं और आस्थावानों की मुट्ठी में सरकती रही ।

क्यों न सरके, चुटकी भर मिट्ठी संसार की सारी आकांक्षाओं-मनोकामनाओं को पूरी करने की करिश्मा वाली जो ठहरी। अभी कुछ दशक पहले ही तो कोनीवायो प्रोडक्ट नाम से एक विदेशी कम्पनी ने सभी रोगों के इलाज के दावे के साथ करोड़ों का रोजगार किया था एक तथाकथित जादुई मिट्टी बेंच कर । और जब विदेशी मिट्टी में ये गुण हो सकता है, तो अपने गांव की मिट्टी पर क्योंकर संदेह किया जा सकता है ! और उससे से बड़ी बात ये है कि अपने ही गांव के चिरपरिचित शास्त्रीजी के सिद्ध हाथों से बाँटी जा रही है ये मिट्ठी।

भीड़ हो जहाँ, चमत्कार हो जहाँ, दरबार हो जहाँ—टी.आर.पी. की आश तो बननी ही बननी है न ! ऐसे में दरसाऊ मीडिया और छपाऊ मीडिया भला क्यों चूके ! उनके बीच भी होड़ लग गई फस्ट बाईट कवरिंग की। और यकीन मानिए, होड़ की तोड़ में खाकी वर्दी भला पीछे क्यों रहे। उसकी भी तो निजी तमन्नाएं हैं न हाड़-मांस वाला शरीर होने के नाते। चोरी-डकैती-मर्डर, बाढ़-भूकम्प आदि की आधिकारिक सूचना भले ही उसे देर से मिलती हो, चमत्कारी बाबाओं की सूचना रखने में वो भला क्यों देर करे !

भीड़ का लाभ उठाते हुए, लाईट-कैमरे के घेरे में शास्त्रीजी तनकर खड़े हो गए। मुट्ठी में भरी मिट्टी को सामने की ओर तिरस्कार पूर्वक उछालते हुए, दाँत पीसते हुए बोले — “ इस भीड़ में कोई आदमी भी है या सब के सब गधे ही हो...या कि निरे ऊल्लू...शक्ल तो तुम सबकी आदमी वाली ही लग रही है, वेषभूषा-बातचित से पढ़ुए जैसा भी लग रहे हो। किन्तु अक्ल नाम की चीज उधार में भी मिली होती यदि तो यकीन मानों, ये दुर्गति नहीं होती। तुम सब पढ़े-लिखे मूरख हो। पढ़े-लिखे लोग ज्यादा सशंकित हुआ करते हैं, ज्यादा डरे हुए होते हैं। अकूत-अवांछित कामनाओं की भूख ने तुम्हें अन्धा बना दिया है। सत्व-सीता बुद्धि को अहंकारी रावण ने हर लिया है। बुद्धि विहीन विक्षिप्त हो गए हो तुमसब। मृगमरीचिका को ही दरिया  माने बैठे हो। तुम्हारे जैसे मूर्खों की जमात ने ही बहुरूपिए बाबाओं को जन्म दिया है, समाज में पनाह दिया है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और कर्मयोग उपदेशक कृष्ण वाले आर्यावर्त में तुम जैसे कर्महीन-बुद्धिहीन भिखमंगों की भीड़ इकट्ठी हो गई है। तुम्हें सबकुछ समुचित कर्म किए बिना ही चाहिए। धर्म, अर्थ, काम यहाँ तक कि  मोक्ष भी मुफ्त में ही चाहिए तुम्हें।  

अरे मूर्खाधिराजों ! कर्म करो, सत्कर्म करो, सत्संग करो। कुसंग को ही सत्संग न समझलो। कुकर्म न करो। कुसंग तो कदापि न करो। विधाता की दी हुई अनमोल बुद्धि का जरा सही उपयोग कर लिया करो और गाँठ बाँध लो मेरी इन बातों का। सच्चे  सिद्ध, सन्त, स्वामी भीड़ से सदा परे रहने की चेष्टा करते हैं। छिपे रहते हैं। छिपाए रहते हैं स्वयं को । और जो कहीं भीड़ में नजर आए, भीड़ की चाहत हो जिसे, समझ लो कि वो सिद्ध, सन्त, स्वामी कुछ भी नहीं है। वह केवल आडम्बरी है, ढ़ोंगी है, फरेबी है, जालसाज़ है, कुमार्गी है, कामी है, भोगी है...। उसकी नजरें तुम्हारी किसी न किसी चीज पर टिकी हुई है। तुम्हारे जिश्म पर टिकी है...तुम्हारी दौलत पर टिकी है...तुम्हारी संस्कृति पर टिकी है...। कुछ न कुछ छीनने आया है वह तुमसे । कुछ हड़पने आया है तुम्हारे बीच। वह तुम्हारी कमजोरियों के पल-पल का हिसाब ले रहा है। तुम्हारी नादानियों का लाभ ले रहा है। तुम्हारे भोलेपन को भँजा रहा है। हनुमान को फँसाने की ताक में बैठा बहुरूपिया  कालनेमि है वह। सीता को लुभाने वाला स्वर्णमृग है वह। राम को भरमाने वाला मारीच है वह।

अतः भेडों की तरह भीड़ का हिस्सा न बनो। अपने भीतर के हनुमान को जगाओ, गरदनियाँ पछाड़ मारो कालनेमियों को। राम को जगाओ, रावणों का संहार करो। कृष्ण को गुहराओ, शकुनियों का नाश करो। और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि हाईब्रीड बाबाओं के झाँसे में न आओ। इनके चरणों में न लोटो। धक्के देकर इन्हें मंचों से नीचे का रास्ता दिखाओ।

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