मॉडर्न
व्यासपीठ
आनेवाले
कलिकाल की बुद्धिहीनता-शक्तिहीनता को ध्यान में रखते हुए, श्रुति-स्मृति-परम्परा
की भावी दुर्बलता पर विचार करते हुए, ज्ञान के सम्यक् न्यास हेतु महर्षि व्यास की
उत्पत्ति हुई द्वापर-कलि के संध्याकाल में और लगभग यहीं से प्रारम्भ हुई हमारी पुस्तकीय
परम्परा। मूर्खाधिराज मेकालेवादियों की मन्द बुद्धि और समझ के अनुसार, ऐसा नहीं है
कि पहले हमें लिखना नहीं आता था, लेखन-सामग्री नहीं थी हमारे पास, प्रत्युत
लेखनी-पुस्तकी-विधा को हमने प्रश्रय ही नहीं दिया कभी, क्योंकि हमारी मेघा इतनी
प्रखर थी कि आवश्यकता ही नहीं थी लेखनी की। सिद्ध गुरू प्रदत्त श्रुति-स्मृति
परम्परा ही इतनी सुदृढ़ थी कि किसी वाह्य उपकरण की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती
थी। हमारे पास तन्त्र और योग की ऐसी विकसित विधियाँ थी कि आज के मॉडर्न डिवाईस की
तरह एक मेमोरीकार्ड से दूसरे मेमोरीकार्ड में सहज ही डाटा ट्रान्सफर हो जाता था, जब
कभी गुरू की कृपा हो जाती थी। पौराणिक गुरुकुल परम्परा में ऐसे सैंकड़ों उदाहरण
भरे पड़े हैं।
दुर्भाग्यवश
या कहें कलिकालवशात विगत पाँच हजार एक सौ पैतीस वर्षों में शनैः-शनैः ये सब लुप्त
होती गई। लुटेरे मुगलों की बरबरता और गोरन्ड म्लेच्छों की कुटिलता ने भारतवर्ष की
संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट करने में कोई कसर न छोड़ी। रही-सही संस्कृति को हम स्वयं
ध्वस्त करने को विकल हैं, म्लेच्छ आचरण के प्रभाव में आकर। संस्कारहीनता कूटकूट कर
भर गई है। गुरुकुल समाप्त हो गए हैं प्रायः। मेकाले के वंशजों की ऊत्तुंग
अट्टालिकाएँ कुकुरमुत्ते सी पसर गई हैं चारोंओर। जहाँ शिक्षा के नाम पर सिर्फ
अशिक्षा परोसी जाती है। टाई से लेकर जूते तक वहाँ उपलब्ध हैं जबरन। यानी ज्ञान
छोड़कर बाकी सबकुछ मिल सकता है वहाँ। और उसकी ही भारी कीमत देकर हम इठला रहे हैं। इतरा
रहे हैं।
श्रीकृष्णद्वैपायन
महर्षि व्यास के तिरोभाव के पश्चात् समयानुसार उनकी परम्परा के आधार पर ही
व्यासपीठ न्यस्त हुआ था। इस महिमामय उच्चासन पर विराजकर भारतीय संस्कृति और ज्ञान
का उद्बोधन हुआ करता था। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष यानी जीवनोपयोगी सभी बातों के
साथ-साथ जीवनोत्तर लक्ष्य की बातें भी सिखलायी जाती थी— निर्विकारभाव से,
निःस्वार्थभाव से। उन दिनों व्यासपीठ की अपने आप में बड़ी गरिमा थी। बहुत सम्मान
था। कोई ऐरा-गैरा-नथुखैरा व्यासपीठ का अधिकारी कदापि नहीं हो सकता।
किन्तु
दुर्भाग्य
! व्यासपीठ अब योग्यता का प्रतीक नहीं, बल्कि आडम्बर, कलाबाजी और
नौटंकी का नमूना बन कर रहा गया है। अति अयोग्य, निकृष्ट, संस्कारहीन, पतित, हत्यारे,
लुटेरे, चोर, पॉकेटमार, जुआरी, शराबी, इश्कबाज, रंडीबाज सब के सब आ बैठे हैं
व्यासपीठ पर। पावन व्यासपीठ अब नट-नगाड़े, भाँड़-भेड़ुओं का ऐश़गाह बनकर रह गया
है।
विडम्बना
ये है कि हम ऐसे मूर्ख और ज़ाहिल हैं कि योग्यता पर विचार करने के वजाय, बाहरी
आडम्बर पर आकृष्ट होते हैं। पीठासीन व्यास का न तो हम वय देखते हैं, न योग्यता और
न उसकी वाणी का संयम-संतुलन। कुछ भी बके जा रहा है व्यासपीठ पर बैठ कर, कुछ भी
सुनाए जा रहा है मंचासीन होकर और हम मुग्ध होकर, सुने जा रहे हैं।
अभी
हाल में ही एक प्रियजन के आमन्त्रण पर श्रीमद्भागवत सप्ताह के आयोजन में उपस्थित
होना पड़ा। आमतौर पर हमें इस तरह के यज्ञ, प्रवचन, कथा, सप्ताह-श्रवण आदि में
विशेष अभिरूचि नहीं है। एकान्त-चिन्तन, अध्ययन, मनन आदि ही अधिक प्रीतिकर लगता है।
किन्तु स्वजनों के आग्रह को ठुकराना भी पारिवारिक और सामाजिक विचार से अच्छा नहीं
कहा जा सकता। अतः उपस्थित होना ही उचित लगा।
व्यासपीठ
की नौटंकियों के बारे में बहुत कुछ सुनते-गुनते आया था, किन्तु करीब से
देखने-समझने का मेरा ये पहला और शायद आँखिरी अवसर था। भव्य पंडाल में सुख-सुविधा
के सभी आधुनिक संसाधन-उपकरणादि उपलब्ध थे। डी.जे. के डेढ़-दो सौ डेशीबल वाले कर्कश
स्वर के बिना तो आजकल कोई सामान्य भजन-कीर्तन भी पहुँचता ही नहीं है भगवान के पास।
एक सौ आठ भोंपुओं के बिना श्रीमद्भागवत सप्ताह यज्ञ कैसे सम्पन्न हो सकता है भला ! सुबह से देर रात तक भोंपू बजते रहते । आयोजक को तो मजा आ ही रहा था।
घरवाले भी उनके आनन्दरस में लगभग सराबोर हो ही रहे थे, किन्तु पता नहीं अभागे
पड़ोसियों की क्या दशा होगी ! उनकी सुधी लेने वाला भला कौन है !
कोई
दस फुट ऊँचे असली और नकली फूलों से अलंकृत मंच पर सारे सौन्दर्य प्रसाधनों से
सुसज्जित, गले
में पुष्पमालाओं का बोझ थामें एक अदना सा छोरा व्यासपीठ पर दांत चिहारते हुए आसीन
था। सुनने में आया कि श्रीकृष्णधाम वृन्दावन से आए हैं महाराज जी। दिल्ली वाले ‘धार्मिक इवेन्ट मैनेजर’ फलाने पंडतजी ने बड़ी अनुनय
के बाद भेजा है इन्हें। बहुत अच्छा कथावाचन करते हैं। तीन लाख इनकी दक्षिणा है,
किन्तु परिचित होने के कारण सवालाख में ही मान गए।
कथास्थल
का वातावरण आधुनिक बदबूदार नकली इत्र-फुलेल से आप्लावित था। व्यासपीठ से
अपेक्षाकृत कुछ नीचे विशाल गद्दी पर चार-पाँच साजिंदे अपने-अपने शोरगुल उपकरणों के
साथ खींसें निपोरते हुए नजर आए। अल्ट्रामॉडर्न स्टाईल छुछुंदरकट बाल-दाढ़ी वाले सहयोगियों
का मरकट मुखड़ा और थोबड़ा व्यासजी की तुलना में थोड़ा कम सजावट वाला था। शायद
व्यासजी ने ज्यादा फेशपाउडर खुद ही इस्तेमाल कर लिया था और बची-खुची डिबिया उन
बेचारों के हाथ लगी हो—जैसा कि मुझे लगा। व्यासपीठ
और साजिंदा-मंच के बीच में सिंहासननुमा एक और गद्दी लगी हुई थी, जिसके आगे बनावटी
फूलों से सजी छोटी चौकी पर व्यासपन्ना वाला नहीं, बल्कि सजिल्द श्रीमद्भागवत की
पुस्तक अधखुली पड़ी थी, जिसके पन्ने बीच-बीच में मौका देखकर सह श्रीमान व्यासजी पलट दे रहे थे। गर्दभस्वर में तथाकथित संगीत
गूँज रहा था। सभी साजिंदे भी गर्दभराग में रेंक रहे थे। मजे की बात है कि सामने
बैठा स्रोतासमूह मस्ती में झूम रहा था। कुछ विशेष भक्त अपने हाथ ऊपर उठा-उठाकर, व्यासजी
की हस्त भंगिमानुसार बीच-बीच में नाच-कूद भी रहे थे। कथा-स्थल का माहौल कुछ ऐसा था मानों सबने भाँग पी रखी है !
शुद्ध
घी में बने मिष्टान्न और फलों का ठूँसमठूँस अल्पाहार लेने के बाद, चाय-कॉपी-कोल्डड्रिंक
के दो-चार दौर निपटाकर, करीब नौ-साढ़े नौ बजे से कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। ‘अनुस्वारं देतं संस्कृतं होतं’
और ‘हाथ हिलातं
बैदिकं कहलातं’ वाले अन्दाज में घंटे-डेढ़ घंटे तक
आडम्बरी चित्रपट पूजन का क्रम चला। फिर ढाई-तीन
घंटे की नाच-गान-नौटंकी के बाद मध्यान्तरी आयी।
डायनिंग
टेबल पर जम कर फरमायशी भोजन लिया गया। फिर दो-ढाई घंटे का विश्राम, गमशप, फोटोशूट,
सेल्फी, रील आदि का सत्र चला। इनमें वालाओं और महिलाओं का विशेष योगदान रहा। सायं
आरती वन्दन के साथ कथावाचन यानी मोहक प्रवचन प्रारम्भ हुआ। घिसी-पिटी कथाएं (रहस्य,
व्याख्या और विमर्श का नामोनिशान नहीं), बीच-बीच में फिल्मी पैरोडी वाले भजन,
भोजपुरिया द्वैअर्थक गीतों का तड़का भी लगता। कथाप्रसंगानुसार या कुछ
दृश्य जबरन आरोपित करके भी, किंचित् कृष्णलीलाओं
का समावेश भी हुआ करता, जिसमें लीला कम, गिफ्ट और चढ़वा का विशेष ध्यान रखा जाता था। और अन्त में मंगलआरती के साथ
तत्दिवसीय कार्यक्रम की समाप्ति होती। पुनः सुस्वादु शुद्ध घी में तली मैदे की
पूड़ियाँ, दो-तीन सब्जियाँ, स्लाद और मधुर मिष्टान्न युक्त रात्रि-भोजन और फिर
गपशप का दूसरा दौर— नये रील-सेल्फी के साथ। यही क्रम था, यही रूटीन था लगभग रोज का।
मेजवान-यजमान
ने मौका पाकर मुझसे मेरी राय जाननी चाही, जिसमें स्वतन्त्र राय की गुंजायश कम, बाहबाही
सुनने की आशा अधिक थी। मैं उनके सम्मान में मुस्कुरा कर कहा— भाईजी !
व्यक्तिगत व्यवस्था तो आपकी काबिले तारीफ है। स्वागत-सत्कार में आपने
जरा भी कोताही नहीं की है। मनोरंजन तो भरपूर हो रहा है, किन्तु वृन्दावनी स्वर में
श्रीमद्भागवत के श्लोक सुनने को मेरे कान तड़पते ही रह गए । मैंने तो सुना है कि
श्रीमद्भागवत सप्ताह यज्ञ कलिकाल का सर्वोत्तम यज्ञ है। श्रमसाध्य, अर्थसाध्य और
समयसाध्य तीनों है ये। श्रीकृष्ण का हृदय कहे जाने वाले श्रीमद्भागवत सप्ताह-वाचन
में विद्वानों की भी परीक्षा हो जाती है। विशेषकर पंचमस्कन्ध का जिस दिन क्रम आता
है, वो सर्वाधिक दुरूह होता है। विद्वान संस्कृतज्ञ कथा मर्मज्ञ को नित्य
साप्ताहिक पाठवाचन में छः-सात घंटे, किसी दिन तो नौ घंटे भी लग जाते
हैं सही विधि से पाठ करने में। और यहाँ तो नाच-गान-नौटंकी में ही ज्यादा समय
व्यतीत हुआ। मूल पाठ कब-कैसे-किसके द्वारा किया जा रहा था?
उन्होंने
मेरी नासमझी पर हँस कर कहा—“ अरे बाबू ! तुमने
ध्यान नहीं दिया? मूल पाठ तो अखण्ड-अनवरत चल ही रहा था, वो जो दूसरे सिंहासन पर व्यासजी के
सहयोगी बैठे हुए थे, उनके द्वारा। बड़े व्यासजी को समय कहाँ मिलता है कि वो पाठ
परायण करें। छोटेवाले व्यासजी का भी ग्यारह हजार दक्षिणा है।”
उनसे
पूछना तो उचित नहीं लगा कि आपने पाठ सुना कब? फलतः सिर्फ अपना माथा ठोंक कर रह गया।
सच
तो ये है कि श्रीमद्भागवत सप्ताह श्रवण की बात कही गई है शास्त्रों में। नित्य
पाठ के अन्त में स्वतन्त्र रूप से सहयोगी द्वारा किंचित् कथा-प्रवचन आदि हो जाए तो
अति उत्तम। न भी हो तो कोई हर्ज नहीं। मुख्य यजमान दम्पति के अतिरिक्त अन्यान्य घर-परिवार,
इष्ट-मित्र सभी मनोयोग पूर्वक पाठ-श्रवण करते हैं। अन्तिम दिन पूर्णाहुति यज्ञ और
भंडारे के साथ व्यासपीठ को सम्मानित करके, विसर्जन और विदाई होती है—यही शास्त्र
सम्मत विधान है। मनमाने समय पर सप्ताह-श्रवण होना भी नहीं चाहिए। और इसकी विधि
जानने के लिए अन्यत्र जाने की आवश्यकता भी नहीं है। मूल पुस्तक में ही स्पष्ट है
सबकुछ।
किन्तु
कटु सत्य ये है कि सुयोग्य सप्ताह-वाचक विरले ही मिलते हैं और धैर्यवान सप्ताह-स्रोता
भी। कुटिल बाजारवाद के दौर में वृन्दावन में बाकायदा व्यासपीठ प्रशिक्षण केन्द्र
चल रहे हैं, जहाँ रंगरूट बाबा तैयार किए जाते हैं—सप्ताह-दस दिनों की ट्रेनिंग में।
वृदावन के नाम का ठप्पा लग गया यदि तो समझो कृष्णकथाविशारद हो गए। इसी तरह अयोध्या
के ठप्पे से रामकथा पारंगत । बाकी यज्ञ-याग-कर्मकाण्ड के लिए तो बनारसी बाबा बाजार
है ही। उनसे भला कौन पंगा लेना चाहेगा। हर क्षेत्र में बाबाओं की अपनी-अपनी मण्डलियाँ
हैं। गुटबाजी है। महानगरों में बैठे, नादनुमा तोंद पर हाथ फेरते, इवेन्ट मैनेजमेंट
वाले दलाल इनके नियोक्ता हुआ करते हैं। इनके बदौलत ही तथाकथित धर्म की कालाबाजारी
कलिकाल में भरपूर फलफूल रहा है।
क्यों
न फैले, पवित्र व्यासपीठ पर आसीन होकर नौटंकी करने करने वाले बहुरूपिए बाबाओं की फौज
है, विशेषकर तीर्थस्थलों में—उन तीर्थस्थलों में जो अब प्रायः पर्यटनस्थल बन चुके
हैं । पुराने धर्मशालाओं को नेस्तनाबूद कर फाईवस्टार होटलों में तबदील कर दिया गया
है।
एक
ओर बाबाओं की मण्डली है तो दूसरी ओर मूर्ख-जाहिल यजमानों की भीड़ । मोटी दक्षिणा
और भरपूर चढ़ावा पाकर बाबा भी खुश और कार्यक्रम का फोटोशूट-वीडियोग्राफी कराकर,
सोशलमीडिया में शेयर करके यजमान भी प्रफुल्लित।
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