न्याय
व्यवस्था के राहु-केतु
वटेसरभाई आज न जाने क्यों बहुत क्रोधित हैं। हालाँकि इस
कदर गुस्सा उन्हें आता नहीं है, खिन्नता भले आ जाए। बिना आवाज लगाए, बिना कुँडी
खटखटाए, दालान-ड्योढ़ी सब पारकर, सीधे आँगन में आ घुसे, तुलसीचौरा के चारों ओर
चक्कर लगाते हुए, इन्कलाबी अन्दाज में चिल्लाते हुए — “ सत्यमेव जयते...सत्यमेव जयते...यतो धर्मस्ततो जयः...यतो धर्मस्ततो जयः... ”— सीधे मेरे कमरे में दाखिल हुए और हाथ में पकड़े जंगिआये
हुए त्रिशूल को ठसाक के जमीन में गाड़ते हुए, कड़क कर पूछे — “कुछ खबर भी
है देश-दुनिया की या यूँ ही मिमियाते रहते हो?”
मैं हक्का-बक्का उनका मुँह देखने लगा। किन्तु मेरे मुँह
पर देखे बिना वे चीखते रहे — “सत्य और धर्म कब जीता है और जीत कर भी कौन सा तीर मार
लिया? अठारह अक्षौहिणी सेना स्वाहाकर, भीष्म-द्रोण
से लेकर अभिमन्यु और कर्ण सरीखे बीरों की लहू से पुता हस्तिनापुर हासिल करके क्या
पा लिया पांडवों ने ? और
सच पूछो तो कुछ-कुछ वैसा ही हाल आज भी है—सत्य सिसक
रहा है, धर्म किंचित् ग्रन्थों के पन्नों में दुबका पड़ा है। जरा सोचो— सत्य-धर्म
को जीत जाने से सत्यवती को क्या मिला, गांधारी को क्या मिला, कुन्ती और द्रौपदी ने
ही क्या पा लिया और सत्यमेव जयते को स्लोगन बना लेने से भारतवासियों को क्या
मिला पिछले सात दशकों में ?
”
ये आप क्या कह रहे हैं वटेसरभाई? यदायदा
हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ... कृष्ण का यही उद्देश्य था न ? और इसमे वे
सफल हुए।
दांत पीसते हुए वटेसरभाई बोले — “ और
हमारा उद्देश्य था न्यायालय की कुर्सी की ऊपरी दीवार में टंगे हुए स्लोगन को टकटकी
लगाए देखते रहना कि कब न्याय मिलेगा इस पीठिका से...! बकरी
की टांग तोड़ने का मामला भी तेरह वर्षों तक खिंचाता है और यदि औकात वाले हो तो दो
बजे रात को भी स्पेशल बेंच बैठ जाता है, यही सत्यमेव जयते है तुम्हारा ? ”
वटेसरभाई की अँगार उगलती
आँखों का सामना किए वगैर, नजरें नीची किए, हाथ जोड़कर बोला— जहाँ तक मुझे पता है— “ सत्यमेव
जयते
”
(सत्यमेव जयति) (सत्यम् एव जयते) सत्य ही जीतता है / सत्य की ही जीत होती है। पुण्यभूमि भारतवर्ष का
राष्ट्रीय आदर्श वाक्य है यह, जिसे राष्ट्रीय
चिह्न (अशोक स्तम्भ) के नीचे देवनागरी लिपि में अंकित किया गया है। मूलतः यह मुण्डकोपनिषद
(३.१.६) के बहुचर्चित मन्त्र का अंश मात्र है। सम्पूर्ण मन्त्र है — सत्यमेव
जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र
तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥
(सत्य
ही जय को प्राप्त होता है, मिथ्या नहीं। सत्य से देवयानमार्ग का विस्तार होता है, जिसके
द्वारा आप्तकाम ऋषिलोग (जिनकी सारी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हैं) उस पद को प्राप्त
होते हैं, जहाँ सत्य का परम निधान (भण्डार)विद्यमान होता है ।)
'सत्यमेव जयते' को राष्ट्रीयपटल पर लाने और उसका
प्रचार-प्रसार करने में स्वनाम धन्य महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी की
महत्वपूर्ण भूमिका रही। ध्यातव्य है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद ५१ए
के तहत यह सुनिश्चित किया गया है कि चार शेरों वाली मूर्ति के प्रतीक चिह्न के
नीचे "सत्यमेव जयते" अनिवार्य रूप से लिखा जाना चाहिए।
इसके
ही समकक्ष एक और ध्येय वाक्य है— “यतो
धर्मस्ततो जयः” महाभारत का सम्पूर्ण श्लोक है— धर्मेण हन्यते व्याधिः हन्यन्ते वै तथा ग्रहाः। धर्मेण
हन्यते शत्रुः यतो धर्मस्ततो जयः॥ ( धर्म से रोग दूर होता है, धर्म से ग्रहों
का हरण होता है, धर्म से शत्रु का नाश होता है। जहाँ धर्म है, वहीं जय
है।)
अनुनयपूर्ण मेरा लम्बा व्याख्यान सुन कर वटेसरभाई का गुस्सा
थोड़ा ठंढ़ा पड़ा। सिर हिलाते हुए कहने लगे — “
किन्तु तुम्हें ये भी पता होना चाहिए कि इन दोनों ध्येयवाक्यों के बीच कुछ दशकों
से भीतर-भीतर ही जोरदार तनातनी चल रही है राजनैतिक गलियारों में। ये वही गलियारा
है, जहाँ संविधान के मूल ढाँचे (प्रियम्बल) से भी छेड़छाड़ करने में शर्म नहीं आयी
नालायकों को। लम्बी खींचतान और बारम्बार की अमान्यता के बावजूद धर्मनिर्पेक्षता
जैसे जाहिल शब्द को धोखे से या कहें जबरन ढूँस दिया गया संविधान की निर्मल काया में
घुन के कीड़े की तरह। और घुन का कीड़ा अपना धर्म बखूबी निभा रहा है । गौरतलब है कि कीड़ा जब
संविधान की काया में ही घुसा दिया गया, फिर आजू-बाजू को भी नष्ट-भ्रष्ट करेगा ही न
! संविधान के
गर्भ से ही तो बाकी सारे नियम-कानून निकलते हैं न । नियमतः संविधान को एक नागरिक
के नाते बहुत आदरणीय माना जाना चाहिए, जबकि ऐसा है नहीं , क्योंकि जिस संविधान पर
हम इतना नाज रखते हैं, वो वैसा है ही नहीं, जैसा कि हमें समझाया गया है। कुटिल
गोरण्ड शासकों द्वारा बनाए गए G.I.R.1935 को ही झाड़पोंछ कर अपना संविधान मान लिया गया है। ईश्वर
भला करें उन महान विभूतियों का जिन्होंने जी-जान लगा दी इसे सही तरीके से
झाड़ने-पोंछने में, अन्यथा देश के बाप-चाचाओं की चलती तो वे सीधे के सीधे “व्रिटिश
डायपर”
को
रेडीमेड संविधान स्वीकार कर लेते । हालाँकि अंग्रेजों का पोथड़ा वही पुराना वाला
ही है, थोड़ा परफ्यूम छिड़क दिया गया है। एक से एक मूर्खतापूर्ण, कुटिलतापूर्ण, खतरनाक
बातें भरी हुई हैं इसमें। इस अन्याय की पिटारी से समता, एकरसता और न्याय की आश ही
फिज़ूल है। चल-अचल सम्पत्ति की तो बात ही दूर, उसपर तो म्लेच्छमंडली कभी भी पताका
फहरा ही सकती है। तुम्हारे बीबी-बच्चे भी हाथ से निकलते जा रहे हैं। उनपर भी
साधिकार दावा नहीं कर सकते। उन्हें भी हर तरह से फुसलाने-बरगलाने में लगे हैं ये हैट
और टोपी वाले। ”
मैंने विनम्रता से पूछा—आँखिर किया क्या जाए वटेसरभाई?
आँखें
तरेरकर, सिर हिलाते हुए उन्होंने कहा — “ करना तो बहुत कुछ है बबुआ ! किन्तु
श्रीगणेश करना होगा उस पोथड़े से ही। उस बजबजाते-गन्धाते व्रिटिशडायपर को ले
जाकर सुदूर महासागर में दफन करना होगा और स्वतन्त्र भारतवर्ष का, अखण्ड आर्यावर्त
का अपना सनातनी संविधान पुनर्स्थापित करना होगा। मैं ये नहीं कहता कि ऐयाशी राजतन्त्र
की स्थापना कर दो। वो तो छद्मरूप से अभी भी जिन्दा ही है। क्यों कहूँगा भला ! हमारे महाराजाधिराज शकुन्तला
नन्दन भरत ने तो स्वयं ही लोकतन्त्र की स्थापना की थी, अपने अयोग्य पुत्रों के स्थान
पर भारद्वाजपुत्र को सिंहासन पर बिठाकर। एक बात ध्यान में रखो बबुआ, वर्तमान की
बहुत बड़ी खामी है — धर्म का व्यापारीकरण और राजनीति का अपराधीकरण और जड़ में है
न्यायिक लुँजपुँज व्यवस्था।
कानून बनाने वाले जबतक अपराध-जगत से पैदा होते रहेंगे, तबतक स्वच्छ कानून बन ही
कैसे पायेगा? कहने
को तो कानून के हाथ बड़े लम्बे होते हैं, किन्तु उनकी पकड़ में
सिर्फ निरीह नागरिक ही आते हैं। खीरे का चोर तो रंगेहाथ पकड़ा जाता हैं, हीरे का
चोर छिटक जाता है हमेशा, क्योंकि वो बदले में हीरे का
हार पहनाने की औकात रखता है। आवेशवश,
संयोगवश, लाचारीवश ‘ हो
गए ’ जुर्म का अपराधी
दण्डभागी हो जाता है, जबकि पेशेवर अपराधी कानूनी जाल में इत्तफाक से वैसे ही कभी फँस जाता
है, जैसे बबूल के पेड़ के नीचे कभी आम मिल जाए। और एक बात पर ध्यान दिया है तूने
कभी... चाँदी का चारा खाकर, गाछ उगलते, पागुर करते काले मोटे भैंसों के बदौलत ही
ये सब होता है। मुझे समझ नहीं आता, वादी-प्रतिवादी के बीच इनकी महती भूमिका क्यों मान्य
है ! हमारे पारम्परिक राजतन्त्र
में वादी-प्रतिवादी की बातें सीधे-सीधे सुनी-समझी जाती थी। राजा अपने न्याय-विधि-विशेषज्ञों
से परामर्श करके, त्वरित न्याय देता था। । और अब—दोनों पक्ष के दो पेशेवर भैंसे
आपस में टकराने का नाटक करते हैं। रस्सी और खूँटे की मजबूती के हिसाब से दोनों उछल-कूद
करते हैं न्यायाधीश के सामने और दशहरे-दीपावली की लम्बी छुट्टियाँ मनाने वाला जाहिल
न्यायाधीश रामजन्म का सबूत माँगता है, जिसे ढूढ़ने-जुटाने में पाँच सौ साल लग जाते
हैं। अरे मूरख !
तुम
न्यायपीठिका पर आसीन हो। तुम स्वयं न्यायविद हो। फिर ये भैंसों की टकराव क्यों, तारीख
पर तारीख क्यों?
वादी-प्रतिवादी
की परस्पर बातें खुद सुनो, जरुरत हो तो अपने सहयोगियों से पड़ताल कराओ। अकेले नहीं
तो दो-चार अपने स्तर के न्यायविशेषज्ञों से भी मशविरा कर लो। और अपनी बुद्धि से
निर्णय सुनाओ।”
हामी
भरते हुए मैंने कहा—हाँ, हाँ वटेसरभाई !
ये
‘ वैरिस्टरी
वैक्टीरिया ’ तो अंग्रेजों की ही देन है न । उन
दिनों की तो सबसे महत्त्वपूर्ण डिग्री होती थी । हर कोई इसे लेने को आतुर रहता था,
झूठ को सच और सच को झूठ साबित करने की इस अनमोल डिग्री को । मुझे भी ऐसा ही लगता है कि
वादी-प्रतिवादी के बीच की ये कड़ी उखाड़ फेंकी जाए यदि, तो त्वरित न्याय की कुछ
आशा बन सकती है, अन्यथा सिर्फ कानून में परिवर्तन या
सुधार करने मात्र से क्या होना है ?
हाँ,
कानून कठोर तो होना ही चाहिए, ताकि अपराधी भयभीत हो। लुँजपुँज ‘मोटर वाइकिल ऐक्ट ’ की
तरह नहीं कि जानबूझ कर या दुश्मनी से भी गाडी से कुचल दो तो हत्या का केश न बने। और
हाँ, न्यायपीठिका
को और पुख्ता किया जाना चाहिए, ‘अंकल जज’
वाली परिपाटी खतम की जाए। आरक्षण रहित
स्वतन्त्र प्रतियोगिता हो न्यायविदों की और विधायिका के लिए भी कुछ ऐसी ही कठोर
व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि अँगूठाछाप या खून के छींटेदार कुर्ते वाले, राष्ट्र के
पवित्र लोकमन्दिर को प्रदूषित न कर सकें।
मेरी बातें वटेसर भाई को बहुत प्रीतिकर लगीं। लपक कर मेरी
पीठ थपथपाते हुए बोले— “ न्याय व्यवस्था के इन राहु-केतु को निरस्त करने की
जरुरत है। कार्य करने वाला, हाथ-पैरों वाला धड़ कहीं और, आँख-कान-नाक-जीभ-दिमाग रखने वाला सिर कहीं और—ऐसे में कल्याण कदापि
सम्भव नहीं है। गिने चुने वरिष्ठ अधिवक्ता हों न्यायपीठ के सहयोग के लिए, न कि
न्यायपीठ को भरमाने के लिए और अपना उल्लू सीधा करने के लिए। अधिवक्ता,
वकील, वैरिस्टर बकबक करने वाले झूठ के पिटारी , गिद्धों की कोई जरुरत नहीं है
न्यायालय में भीड़ लगाये रखने की। हालाँकि गिद्ध तो बहुत थोड़े ही होते हैं,
ज्यादातर तो कौए और बाज ही नजर आते हैं, जिनके बदबूदार कोट की धुलाई का खर्चा भी दिन
भर कचहरी अगोरने से नहीं निकलता। ”
यानी कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि राष्ठ्र की
कुण्डली में कुण्डली मारे बैठे राहु-केतु की शमन-शान्ति आवश्यक है। बाकी को तो
प्रबुद्ध जनता-जनार्दन की सूर्य रश्मियाँ स्वयं सम्भाल ही लेगी।
---00---
Comments
Post a Comment