“ब्राह्मण” — ये है कौन !

 

          ब्राह्मण— ये है कौन !

 विवाह कराने के लिए ब्राह्मण, श्राद्ध कराने के लिए ब्राह्मण, पैर पूजने के लिए ब्राह्मण, पूजा कराने के लिए ब्राह्मण, ग्रह-शान्ति के लिए ब्राह्मण, ग्रह-दान-तुला-दान-छाया-दान लेने के लिए ब्राह्मण, हत्या-भोज खाने के लिए भी ब्राह्मण...यहाँ तक कि गाली और उलाहना सुनने के लिए भी ब्राह्मण ही चाहिए।

आँखिर इन सबके लिए ब्राह्मण ही क्यों चाहिए? कोई और क्यों नहीं ? कोई न कोई विशेष बात तो जरुर है इस ब्राह्मण पद या कहें शब्द में, जिसके लिए इतनी मारामारी है समाज में।

तुलसीबाबा तो कह कर निकल गए—पूजहिं विप्र शील गुण हीना...। हालाँकि ये भी कहे हैं—पंडित वही जो गाल बजावा...। मनुमहाराज के नाम पर एक अलग सूत्र पकड़ाया हुआ है लोगों को — जन्मना जायते शूद्रः,संस्कारात्द्विज उच्यते... ।

संयोग से जो ब्राह्मण कुल में जन्म पा गए हैं, वो तुलसीबाबा वाली पहली बात को पकड़े बैठे हैं—शील-गुण-संस्कार की उन्हें आवश्यकता ही नहीं लग रही है, क्योंकि इस नियम के अनुसार तो हीरे का टुकड़ा भी हीरा ही रहेगा और कोयले का कण भी कोयला ही कहलायेगा न !  ब्राह्मण कुल में जन्म ले लिए, इतना ही काफी है। आचार-संस्कार से क्या मतलब !

और दुर्योग से जो ब्राह्मण कुल में नहीं जन्म ले पाये हैं, वो वेचारे तुलसीबाबा वाले दूसरे सिद्धान्त पर अमल करने में लगे हुए हैं, क्योंकि जन्म लेना भले अपने हाथ में न हो, बहुरूपिया बाबा बनना तो अपने हाथ में है न !

ऐसे में मनुमहाराज वाला सिद्धान्त तुलसीबाबा वाले दूसरे सिद्धान्तवादियों के लिए विशेष सहयोगी हो जाता है।

और तथाकथित बुद्धिमान समाज की स्थिति ये है कि अपनी-अपनी सोच-समझ-पहुँच के अनुसार निर्णय ले रहा है। निर्णय लेने का सार्वभौम सिद्धान्त है — जहाँ भीड़ हो, वहीं भीड़ लगाओ... कुछ तो खास होगा ही भीड़ में, तभी तो भीड़ है।

किन्तु जो व्यक्ति थोड़ा भी समझ रखता है, स्वयं को भीड़ का हिस्सा नहीं बनाना चाहता, वह सोचने-विचारने को विवश हो जाता है — ब्राह्मण— ये है कौन ! जन्म लेने वाला या कर्म करने वाला या दोनों ? या कि दोनों ही नहीं !

जिज्ञासा जटिल है। प्रश्न कठिन है। अतः उत्तर भी कठिन वा जटिल ही होगा।

 विविध ग्रन्थ अपने-अपने हिसाब से ब्राह्मण शब्द की व्युत्पत्ति, निरुक्ति और व्याख्या करते हैं, जिनमें अद्भुत और सारगर्भित है— वज्रसूचिकोपनिषद् । नाम भी बड़ा रोचक है—वज्र यानी हीरा, सूचिका यानी सूई। वज्र का अर्थ कठोर भी होता है। वज्रसूचिका यानी अति तीक्ष्ण सूई भी कह सकते हैं। इस उपनिषद् की काया अति लघु है। विषय-प्रवेश से विषय-समापन तक मात्र सूत्र हैं इसमें। अन्यान्य उपनिषदों की भाँति इसकी शैली भी प्रश्नोत्तर संवाद जैसी ही है, किन्तु प्रश्नकर्ता और समाधानकर्ता का परिचय स्पष्ट नहीं है। अतः इसे आत्मचिन्तन वा आत्माभिव्यक्ति शैली कह सकते हैं।

 ऊँ वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि शास्त्रमज्ञानभेदनम्से प्रारम्भ होकर सच्चिदानन्दमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदित्युपनिषत् पर समापन हो गया है इस उपनिषद् का ।

ऋषि कहते हैं— ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्ण हैं, जिनमें ब्राह्मण ही श्रेष्ठ है—ऐसा वेद-स्मृति आदि के वचन हैं। ऐसे में जिज्ञासा सहज है कि ब्राह्मण है कौन? ब्राह्मण कहते किसे हैं ? क्या वह जीव है ? क्या वह शरीर है ? क्या वह जाति विशेष है ? क्या वह कर्म विशेष है? क्या वह ज्ञान विशेष है ? या कि केवल धर्माचरण विशेष है?

अब उक्त प्रश्नों के समुचित तर्कसंगत, बुद्धिग्राह्य उत्तर की खोज (चिन्तन) करें तो पाते हैं कि ब्राह्मण वह जीव  मात्र नहीं हो सकता, क्योंकि भूत-वर्तमान-भविष्य में अनेक जीव थे, हैं और होंगे । उन सबका स्वरूप भी एक समान है। एक जीव होते हुए भी स्वकर्मानुसार जन्म होता है। समस्त शरीरों में जीवों में एकत्व रहता है। अतः सिर्फ जीव होने के नाते ब्राह्मण कैसे कहा जा सकता है?

तो क्या यह शरीर ब्राह्मण है ? ऐसा भी तो नहीं है, क्योंकि सभी मानवी शरीर एक समान है। सभी पञ्चभौतिक है। जरा-मरणादि, धर्म-अधर्मादि, शारीरिक वर्ण—गौर, श्याम आदि साम्यता है सबमें। ब्राह्मण शरीर ही यदि पिता है तो उसके शरीर-दाहोपरान्त ब्रह्महत्या दोष लगना चाहिए था। किन्तु ऐसा होता नहीं है।

तो क्या जाति (ज्ञाति) ब्राह्मण है ? ऐसा भी तो नहीं है। विभिन्न जातियों और जन्तुओं में अनेक ऋषियों का जन्म हुआ है। यथा—मृगी से श्रृंगी ऋषि, कुश से कौशिक ऋषि, जम्बूक से जाम्बूक ऋषि, वल्मीक से वाल्मीकि ऋषि, धीवरी मत्स्यगन्धा से महर्षि वेदव्यास, शशक से गौतम ऋषि, उर्वशी से ब्रह्मर्षि वशिष्ठ, कुम्भ से अगस्त्य ऋषि आदि उत्पन्न हुए हैं। इससे सिद्ध होता है कि ब्राह्मण किसी जाति विशेष का नाम नहीं हो सकता।

तो क्या ज्ञान को ब्राह्मण कहा जाए ? ऐसा भी तो नहीं है। क्योंकि क्षत्रिय कुल जात विदेह राजा जनक परमार्थ दर्शन के अद्भुत ज्ञाता हुए हैं । अस्तु, ज्ञान को ब्राह्मण नहीं मान सकते।

तो क्या कर्म को ब्राह्मण कहा जाए ? किन्तु ये भी तर्कसंगत नहीं लगता। क्योंकि क्रियमाण, संचित, प्रारब्धादि कर्म से अभिप्रेरित व्यक्ति क्रिया करता है, अतः कर्म को ब्राह्मण कैसे मान लिया जाए !

तो क्या धर्म को ब्राह्मण कहा जाए? किन्तु ये तो और भी सुनिश्चित नहीं है। धर्म वस्तुतः है क्या ? मूलतः हम धर्म कहें किसे? इसे समझना तो और कठिन है। अतः सिर्फ धर्म को ब्राह्मण कदापि नहीं माना जा सकता।

तर्हि को ब्राह्मणो नाम—तब ब्राह्मण कहें किसे?

ब्राह्मण उसे कहेंगे जो द्वैतभाव से युक्त न हो। जाति, गुण, क्रियादि समस्त दोषों से सर्वथा मुक्त हो। सत्य, ज्ञान, आनन्द स्वरूप स्वयं निर्विकल्प स्थिति में सदा रहने वाला हो। अनन्त कल्पों के आधार रूप, समस्त प्राणी-पदार्थों के अन्त में भी निवास करने वाला हो, वाह्याभ्यन्तर आकाशवत् संव्याप्ति हो जिसकी, हाथ पर रखे आंवलाफल की भाँति आत्मा का साक्षात्कार हो जिसे, शम-दम, राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मत्सर, आशा-तृष्णा, दम्भ-अहंकारादि समस्त भावों से रहित हो यानी सर्वथा विशुद्ध चित्त हो जिसका—वही ब्राह्मण है। ऐसी ही श्रुति-स्मृति-पुराणादि का संकेत है। उक्त लक्षणों-गुणों-भावों से ही ब्राह्मणत्व  सिद्ध होता है। आत्मा ही सत्-चित्-आनन्द स्वरूप अद्वितीय है। यानी ब्रह्मभाव सम्पन्न ही ब्राह्मण है—यही उपनिषद् का मत है। अस्तु ।।

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