आउट डेटेड आचार्यजी

 

आउट डेटेड आचार्यजी

 

आचार्यजी के नाम-धाम का खुलासा बहुत जरुरी नहीं लग रहा है क्योंकि आसपास के जानने वाले लोग उन्हें अच्छी तरह जानते हैं और दूर-दराज के न जानने वाले लोग न ही जाने उनके बारे में तो क्या फर्क पड़ना है आचार्यजी के लिए। सच तो ये है कि जो व्यक्ति स्वयं को स्वयं से भी छिपाए रखने की चेष्टारत रहे हमेशा, उसके बारे में सार्वजनिक रूप से खुलकर कुछ कहना-बतलाना उचित नहीं। वैसे भी नाम-धाम में क्या रखा है, काम और परिणाम अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण हुआ करते हैं संसार में और संसार से परे भी।

आचार्यजी के परिचय के सम्बन्ध में बस आप इतना ही जान लें कि जब से होश सम्भाला, आचार्यजी को देख रहा हूँ। शनैःशनैः उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचित होता रहा हूँ। चुस्त-दुरुस्त, साफ-सुथरे, नियम-संयम, धर्म-कर्म को सिर्फ तोतारट जानने वाले नहीं, बल्कि गुननेवाले, जीनेवाले व्यक्तित्व के धनी आचार्यजी का स्मरण मात्र ही पुलकित कर जाता है मन-प्राण को। वेद-वेदांग, धर्मशास्त्र पुराणादि का सिर्फ सैद्धान्तिक  ज्ञान ही नहीं, अपितु व्यावहारिक प्रयोग में भी निष्णात हैं आचार्चजी। लौकिक-व्यावहारिक कर्मकाण्ड पर भी अद्भुत पकड़ है आचार्यजी की। यथाकदा अवसर मिलते ही कुछ कहने-सिखाने-बताने के लिए तत्पर हो जाते। कोई दुराव-छिपाव नहीं। किन्तु उनकी अधिकांश बातें मेरी मन्द बुद्धि में समाती ही नहीं। समा भी जाए कभी, तो विवेक की कसौटी पर चढ़ने को राजी नहीं। वचकाने या कहें मूर्खतापूर्ण बुद्धि-विलास में उलझ कर रह जाया करें।

आचार्यजी अकसर कहा करते — सभी उपनिषदों का सारश्रीमद्भगवद्गीता कोई रेशमी चादर नहीं है बबुआ, जिसे बाजार से खरीद कर कंधे पर डाल लिया जाए। तोतारट  गीता  का परायण किसी काम का नहीं। गीता को गुनो और गीता में जीओ, गीता के लिए जीओ और गीता को जीओइसी तरह वैदिक-पौराणिक कर्मकाण्ड कोई  बाहरी  कोरम  भर नहीं है, बल्कि भोग से मोक्ष के बीच या कहो गृहस्थाश्रम से संन्यासाश्रम के बीच का महत्वपूर्ण सेतु है। किन्तु चिन्ताजनक बात ये है कि प्रायः लोग कर्मकाण्ड को या तो अथ और इति मान लेते हैं या बिलकुल व्यर्थ समझ लेते हैं। इसी भाँति गीता को अन्यान्य पुस्तकों की तरह समझ लेते हैं। पाठ करके सन्तुष्ट हो जाते हैं। 

वय के दूसरे पड़ाव के करीब आचार्यजी की बातें कुछ-कुछ समझ में आने लगीं। और जैसे-जैसे समझ आने लगी, उनके प्रति श्रद्धा और बलवती होती गई।

पिछली बार जब उनसे मिला तो बड़े खिन्न और उदास से लगे। पहले वाली चमक बिलकुल नहीं थी उनके मुखमण्डल पर और न किसी के आने-मिलने पर उठनेवाली ललक और बातों में चहक ही । प्रणाम-पाती के बाद औपचारिकतावश स्वास्थ्य के बारे में पूछा मैंने, जिसके उत्तर में धीरे से गर्दन हिलाकर, हाथ का इशारा किए बैठने के लिए — मेरा क्या पूछते हो, अपना कहो। कैसे हो, कहाँ से आ रहे हो इस भरी दोपहरी में, सब कुशल-मंगल तो है न? 

पास में विछी चटाई पर बैठते हुए, मैंने कहा— आपके आशीर्वाद और ईश्वर की कृपा से सबकुछ ठीक-ठाक ही है। बहन के विवाह के लिए इधर-उधर चक्कर लगा रहा हूँ, कई वर्षों से। बात कहीं बन न रही है। द्रौपदी जैसे सबकुछ एकत्र पाने की कामना रखती थी अपने वर में, उसी भाँति आज कल लड़केवालों को साराकुछ एक कन्या में ही मिलने की कामना रहती है। तगड़ा दहेज, ऊँची शिक्षा, ऊँचा पद, रूप-गुण और घरेलू कार्य कुशलता—सबकुछ चाहिए एक ही साथ। किसी एक में भी जरा भी समझौता करने को राजी नहीं होते। ऊपर से , वैवाहिक आडम्बर का सारा खर्चा लड़की वालों से ही वसूलना चाहते हैं। फेहरिस्त भी रोज नया आकार लेते रहता है।

मेरी बातों पर हामी भरते हुए आचार्यजी कहने लगे — “ ऐसा नहीं है बबुआ !  अपने-अपने अन्दाज में बीमारी दोनों तरफ है। कुल-गोत्र, आचार-विचार गया भाँड़ में। मोटा पैकेज दोनों देखते हैं। आडम्बर दोनों दिखाते हैं। और इतना ही नहीं, लड़की वालों की सबसे मजेदार ख्वाहिश होती है कि एकाकी-स्वतन्त्र जीवन हो—पति-पत्नी का, यानी सास-ननद-गोतनी वाली संयुक्त परिवारिक जिम्मेवारी बिलकुल न हो। अंग्रेजियत के दुष्प्रभाव से, सनातन के दुर्भाग्य से संयुक्त परिवार अब अंगुलियों पर गिनने को भी नहीं रहे। सनातन धर्म का अतिपावन संस्कार— विवाह  अब संस्कार रह ही नहीं गया है। उत्सव-समारोह भी कहना उचित नहीं लगता। इष्ट-मित्र गिफ्ट-लिफाफों के मोलपर, मौज-मस्ती पिकनिक मनाते हैं और आयोजकद्वय फोटोशूट-विडियोग्राफी यानी चश्मदीद गवाही में समझौता करते हैं। कुल मिलाकर एक अति सामान्य समझौता भर है आज का विवाह। जैसे व्यापार में दो पक्षों के बीच समझौता होता है न, उसी तरह दो व्यक्ति या कहो दो परिवारों के बीच समझौता है विवाह में भी। समझौते की शर्तें जबतक निभी, निभायी गई, नहीं निभी तो अगला कदम—तलाक तक पहुँचा देता है। न्याय बहादुर कुछ दिनों तक दौड़ाते हैं और फिर मुहर लगा देते हैं। उन्हें ये भी नहीं पता है कि विवाहसंस्कार में विपरीत क्रिया हो ही नहीं सकती। कोर्ट मैरेज में डायवोर्स हो सकता है, निकाह में तलाक हो सकता है, किन्तु विवाहसंस्कार में ये सम्भव ही नहीं। इसकी कोई शास्त्रीय व्यवस्था नहीं है। ये एक मान्त्रिक बन्धन है, जिसके मोक्षण का मन्त्र और विधान ही नहीं है शास्त्रों में... ।

आचार्यजी की बातों में बीच में कुछ कहने का अवसर बहुत कम ही मिलता है, सुनना ही अधिक प्रीतीकर लगता है। अतः सुनता रहा। वे कहते रहे — ... वैवाहिक सम्बन्ध निभ नहीं रहे हैं, टूटकर बिखर जा रहे हैं, इसके पीछे सिर्फ आधुनिक सोच और रहन-सहन ही कारण नहीं है, बल्कि सनातनी कर्मकाण्ड का निरन्तर लोप भी कारण है। मकान की नींव ही मजबूत नहीं होगी, तो उसे टिके रहने की कितनी आश ! बीज ही कमजोर, मिट्टी ही अनुर्बर, रख-रखाव ही बेढंगा, तो पौधे की प्रगति  की आशा ही कैसी? अर्थप्रधान युग में अर्थोपार्जन के चक्कर में लोग अपने मूलस्थान को लगभग त्याग चुके हैं। विसार चुके हैं अपनी कुल-परम्परा और कुलदेवता आदि को। आपार्टमेंटी सभ्यता में न तो उनके पास आसमान है अपना और न अपनी जमीन। यानी बेसिर-पैर का आदमी जैसा। ऐसे में कहाँ लम्बे-ऊँचे हरी बाँस का मण्डप, कहाँ मिट्टी, कहाँ मृदाहरण? वैवाहिक कर्मकाण्ड और लौकिक रश्में चाहकर भी निभाने मुश्किल हैं।  बड़े-बड़े होटलों में आहनफानन में रश्मों की खानापूरी भर होती है सिर्फ। बने-बनाये लोहे या अल्युमिनियम के मण्डप, प्लास्टिक के फूलों से सजा दिए गए, फोटो-वीडियोशूट हो गया, काम पूरा हो गया। दरअसल हम कर्मकाण्ड और सनातन रीति-रिवाजों का तत्व और महत्त्व ही नहीं समझ रहे हैं। वारात निकालने के नामपर सड़क जाम कर नाचने-कूदने में तो समय की बरबादी नहीं लगती, किन्तु कर्मकाण्डीय विधि-विधान को शॉर्ट से शॉर्ट करने की जोर जरुर रहती है दोनों पक्ष से। नचनियाँ-बजनियाँ की फिजूलखर्ची में पैसे पानी की तरह बहाने में कोई उज्र नहीं, किन्तु योग्य कर्मकाण्डी को समुचित दक्षिणा देने में सारी शाहखर्ची की हवा निकल जाती है। लोगों की इसी भोंड़ी मानसिकता का लाभ उठा रहे हैं आजकल के रंगरुटाचार्य लोग। अब तो बाकायदा संगीतमय शादी का लुफ्त लिया जा रहा है नवधनाढ्य समाज में और उनके देखा-देखी मध्यम वर्गीय लोग भी पगलाए हुए हैं। योग्य कर्मकाण्डी ब्राह्मण के नाम पर पाँच-सात की जमात में नये वाले आचार्यजी चला करते हैं आजकल बहुरूपियों सा बाना बनाये हुए। चार-पाँच घंटे की नौटंकी होती है और मोटी दक्षिणा उगाही कर ले जाते हैं। इसमें किसी को किसी तरह की परेशानी भी नहीं होती, जबकि पारम्परिक कर्मकाण्डी योग्य आचार्य को इस भीषण मंहगाई के जमाने में भी ग्यारह सौ मिलना मुश्किल होता है। सच में जाहिलों को मूर्ख बनाना बहुत आसान है। हाँ, मूर्ख बनाने का तरीका एकदम अस्ट्रा मॉडर्न होना चाहिए और ये नये वाले धनपशु तो अब्बल दर्जे के जाहिल होते ही हैं। इनमें सिर्फ धन का मद है, जो अफीम, गाँजे, हेरोईन और शराब के नशे से भी कहीं अधिक धातक है समाज के लिए। सच पूछो तो ये मीठा जहर है समाज के लिए, जो धीरे-धीरे हमारे रगों में पैठता जा रहा है। हमारी संस्कृति का विनाश करने पर तुला है...।

मैं मौन, सुनता जा रहा था। आचार्यजी कहे जा रहे थे— अभी दो दिनों पहले की बात है। एक वारात में वरपक्ष से आचारजी करने गया था। द्वारपूजा-जनवासपूजा आदि प्रारम्भिक कृत्य सम्पन्न हुए यथोचित वैदिक विधान से । उधर वाले रंगरूट आचार्यों का समूह मुंह ताकते रहा। कभी-कभी कोई शब्द टुबुक देता, कभी हाथ ऊपर-नीचे हिला देता। मैंने टोका— वैदिक हस्त-स्वर का ज्ञान न हो तो प्रयोग नहीं करना चाहिए। इससे अनिष्ट होता है। उचित है कि पौराणिक मन्त्रों का, पौराणिक शैली से ही काम चला लिया जाए। शास्त्र विरुद्ध करना कदापि कल्याणकारी नहीं।  उस समय तो मेरे कहने पर सब चुप रहे। किन्तु विवाह मण्डप में पूरी तैयारी से आ जुटे दो-चार और रंगरूटों को लेकर। वैवाहिक महासंकल्प तो आजकल शायद ही कहीं प्रयोग होता है। सामान्य विवाह-पद्धतियों में मिलता भी नहीं। मैंने जैसे ही प्रारम्भ किया, सबके सब एक स्वर से चिल्ला उठे — देखो ! देखो !! ये बुढ़वा सठिआ गया है। शादी-विवाह से मांगलिक अवसर पर श्राद्ध का मन्त्र बोल रहा है...। शोर सुनते ही, संसद में विरोधी दल के शोर-शराबे की तरह विवाह मण्डप में हचचल मच गया। असली बात तो किसी के पल्ले पड़ नहीं रही थी। चुप रहने में भी बेईज्जती लग रही थी। अतः यजमान भी अपने पक्ष के बहुरूपिए आचार्यां की टोली का समर्थन करने लगे। मजे की बात ये कि वरपक्ष यानी हमारे पक्ष से भी किसी ने रोका-टोका नहीं। दरअसल उनकी समझ से भी परे था आउटडेटेड हो चुका महासंकल्पवाक्य।

ये तो बहुत गलत हुआ आयार्य जी आपके साथ। सच में सच का साथ देने के लिए भी सत्य का ज्ञान तो होना ही चाहिए। फिर भी मानवता के नाते ही सही, अपने पक्ष को तो बीचबचाव करना ही चाहिए था—मेरे कहने पर आचार्यजी ने सिर हिलाते हुए कहा— बीच-बचाव तो दूर, एक ने  धीरे से कहा दूसरे को कुरेद कर— हमलोग तो जानते थे कि आचार्यजी बहुत ज्ञानी है। इलाके में डगडगाए रहते हैं, आज बनारसी आचार्यों से पाला पड़ गया तो सब भेद खुल गया...।मुझे लगा कि अब इन गधों के बीच क्षणभर भी टिके रहना महापाप है। गधों से वाद-विवाद करना तो घोर मूर्खता है। आँखिर सच्चाई का निर्णय इन मूर्खों की जमात में करेगा भी कौन? चुपचाप अपना झोला उठाया और चल दिया वहाँ से। किसी ने कुछ कहा भी नहीं। 

किन्तु इससे तो और भी मन बढ़ गया दुष्टों का—मेरे कहने पर आचार्यजी ने कहा— उनका मन बढ़े या घटे, किया ही क्या जाए, समझ नहीं आता। हालाँकि ये सही है कि विद्वानों का मौन ही मूर्खों के लिए टॉनिक बनता जा रहा है। किन्तु आँखिर ये अकेला आउटडेटेड आचार्य भला कर ही क्या सकता है? पश्चिम का दुष्प्रभाव या कहो म्लेच्छों की सुनियोजित साजिश, कलिकाल का प्रभाव है बबुआ ! कर्मकाण्ड का लोप तो होना ही है। कबतक चलाओगे सतयुगिया विधि-विधान? किन्तु ये न भूलो—सत्य और सनातन कभी मरता नहीं। लोप भले ही हो जाए। और लोप का अर्थ नष्ट कदापि नहीं होता। अवसर आने पर फिर पूर्व रूप ग्रहण कर ही लेता है। बस, समय की प्रतीक्षा करो। ईश्वर से प्रार्थना करो—म्लेच्छराज के नाश के लिए।

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