मूत्र-विसर्जन-आचार-संहिता
टीकधारीबाबा
से जो लोग परिचित हैं, उन्हें भलीभाँति मालूम है कि वे कितने ईमानदार, उदार, विचारवान,
दयावान, गुणवान और सदाचारी हैं। भले ही वे ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, किन्तु
बौद्धिक क्षमता, चतुराई और प्रत्युत्पन्नमतित्व में अच्छे-अच्छे पढ़ुओं को भी पछाड़
मारते हैं। नियम-कानून के भी बिलकुल पक्के । नैतिक मूल्यों पर एकदम चौबीस कैरेट
सोने जैसे खरे उतरने वाले टीकधारीबाबा विशुद्ध भारतीय परिधान वाले हैं। धोती-कुरता
के अलावे आजतक किसी अन्य परिधान में उन्हें किसी ने देखा नहीं है। कुलीन, सनातनी संस्कारी
होने के कारण म्लेच्छ वेष की सदा उन्होंने निन्दा की है। घर में रहने पर वस दो
अंगोछा—एक कमर में लिपटा हुआ और दूसरा कंधे पर। बाहर के लिए भी वस धोती-कुरता की
मात्र इकलौती जोड़ी और कभी-कभी एक चादर भी—खासकर यात्रा यदि लम्बी हुई । उनकी
हाजिरजवाबी से कायल गांव-इलाके के लोग आदर से उन्हें वीरबल या देवन मिसिर कह कर
पुकारते हैं। हाथ भर लम्बी, आचार्य चाणक्य की तरह बारहों मास खुली रहने वाली
चुटिया के कारण उनका टीकधारी नाम सार्थक है ही। और इन तीन-तीन विशिष्ट गुणबोधक
नामों के बोझ तले बाप-दादे का धरा हुआ असली नाम कहीं दब कर रह गया है। मुझे भी पता
नहीं है कि उनका असली नाम क्या है। पूछने पर कभी बताते भी नहीं। उन्हें डर लगता है
कि असली नाम जानकर कोई दुष्ट टोना-टोटका न कर दे। क्योंकि टोने-टोटके में उन्हें
पूरा विश्वास है।
खैर,
ये सब बातें तो इसलिए बतलानी पड़ गयी, ताकि अनजान लोग भी जान जायें। हालाँकि इस
परिचय-प्रशस्ति की उन्हें जरा भी कामना नहीं रहती। स्वयं और अपने गुणों को आजकल के नाम के भुक्खड़ों
वाले अन्दाज में सोशलमीडिया पर मुर्गी के दानों की तरह बिखेरना उन्हें भाता नहीं ।
किन्तु सूरज की रौशनी को बादलों से कहाँ तक ढका जा सकता है, सोचने वाली बात है ।
आए दिन कुछ न कुछ ऐसा घटित हो ही जाता है कि टीकधारीबाबा चर्चा के विषय बन जाते
हैं कुछ दिनों के लिए। और एक घटना पुरानी होती नहीं कि दूसरी घटित हो जाती है। कुछ
मिलाकर कह सकते हैं कि वे हमेशा-हमेशा चर्चा में बने ही रहते हैं। और ऐसा भी नहीं
कि ‘ब्रेकिंग न्यूज’ या ‘अखवार का
हेडलाइन ’ बनने के लिए नेताओं की तरह ऊलजुलूल बयानबाजी करते
फिरते हैं।
उदाहरण
के लिए उनके साथ घटित अभी हाल वाली दुर्घटना का ही जिक्र किए देते हैं। आप खुद समझ
लेगें कि इस चर्चा के लिए वे स्वयं लालायित थे या लोगों को मसाला मिल गया
टीकधारीबाबा पर चर्चा करने के लिए !
आदतन
वे यात्राएँ बहुत कम करते हैं। करनी भी हो तो ‘भारत जोड़ो’ अभियान की तरह पदयात्रा पर निकल
पड़ते हैं— साल में एकाध दफा । किन्तु चाटूकार अमला-फैला के साथ नहीं, बल्कि
बिलकुल अकेले ही। हाँ, कभी-कभी सायकिल इस्तेमाल जरुर कर लेते हैं, खासकर जब ससुराल
की यात्रा हो। वैसे भी ये सायकिल ससुराल से ही मिली हुई है उन्हें, इस कारण उसका
सम्मान पूर्वक उपयोग तो होना ही चाहिए न !
सौभाग्य
से या कहें दुर्भाग्य से, उस दिन गांव का लगौंटिया सखा भगेड़ना मिल गया। वह बनारस
जा रहा था गंगास्नान के लिए अपने पूरे परिवार के साथ और टीकधारीबाबा को बीमार अपनी
सासुमाँ को देखने जाना था, जो महीने भर से बनारस के किसी अस्पताल में ही भर्ती थी।
संयोग अच्छा जान, चल पड़े भगेड़ना के साथ ही ठूँठमठूस आसनसोल-वाराणसी पैसेन्जर
ट्रेन में सवार होकर।
आप
जानते ही हैं कि मेल-एक्सप्रेस ट्रेनों के सामने पैसेन्जर ट्रेनों का वही स्थान है
हमारे यहाँ, जैसाकि जनता के चुनिन्दे प्रतिनिधियों के सामने आम जनता का है। और अब
तो ‘वन्देभारत’ जैसी VVIP
ट्रेनों का जमाना आ गया है। ऐसे में मेल-एक्सप्रेस भी दो कौड़ी के
हो गए हैं। आप जानते ही हैं कि नेताओं की गाड़ियों का काफिला कारण-अकारण जब सड़कों
से निकलता है तो घंटे-दो घंटे ट्रैफिक बदहाल हो जाता है। आम जनता को अपनी स्थिति
और औकात उसी समय पता चलता है। फायरब्रिगेड हो या ऐम्बुलेन्स, हों-हों करते उब जाता
है, रोगी मर जाता है, बिल्डिंगें स्वाहा हो जाती हैं, किन्तु अन्धे-बहरे-जाहिल
नेताओं के कानों तक सायरन की कर्कश आवाज या मृतक के परिजनों की चीत्कार नहीं
पहुँचती । चुँकि इस कुव्यवस्था पर कोई आचार संहिता नहीं है हमारे यहाँ। और बन भी
जाए यदि तो उसका पालन कितना कौन करेगा !
आसनलोल-वाराणसी
पैसेन्जर जैसी सैंकड़ो ट्रेनें चलती हैं, जिनका स्वाभाविक कुल सफर दस-बारह-चौदह
घंटों का होता है, जो कि डेड़गुने या दुगने समय में प्रायः पूरी होती है। मजे की
बात ये है कि किसी अति बुद्धिमान अफसर या नेता ने स्वच्छ भारत अभियान के मद्देनजर,
इन ट्रेनों में पहले से बने बनाये शौचालय को लॉक करा दिया है। वैसे भी ऐसे ट्रेनों
में कोई वी.आई.पी. तो सफर करते नहीं और आम लोगों को जरुरत भर खाना ही नहीं मिलता,
फिर पैखाने की क्या जरुरत ! हाँ, पानी से पेट
भरने पर पेशाब तो करना ही पड़ता है । किन्तु ट्रेन में पेशाबखाना भी नदारथ होगा तो
इसका परिणाम क्या होगा—आप खुद समझ सकते हैं।
किसी
भी स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही खटाखट शुरु हो जाते हैं लोग जलधार प्रवाह करने में,
जिसको जिधर जगह दिखी। मर्द तो अपना काम चला लेते हैं, किन्तु महिलाओं पर क्या
बीतती है—वे ही समझ सकती हैं। हालाँकि वे भी लाचारी में कुछ न कुछ रास्ता निकाल ही
लेती हैं।
ये
बात तो आपको पता ही होगी कि हमारे यहाँ कुत्ते की तरह टाँग उठाकर जहाँ-तहाँ मूत्रत्याग
करने की परम्परा सी है। ‘यहाँ पेशाब करना
सख्त मना है’—जहाँ लिखा होता है, वहीं लोग ज्यादातर
पेशाब करते हैं। कुछ दूरदर्शी लोग यहाँ तक लिख देते हैं दीवारों पर — ‘देखो, देखो कुत्ता मूत रहा है ’ , किन्तु
प्रबुद्ध-मनश्वी-निर्विकार भारतवासी ऐसी छोटी-छोटी बातों पर ध्यान बिलकुल ही नहीं
देते और अपना काम निकालने में मस्त रहते हैं।
मुझे
लगता है कि ‘मूत्र-विसर्जन की श्वान-परम्परा’ को हमारे मौलिक अधिकारों में शामिल होना चाहिए था, किन्तु संयोगवश हमारे
संविधान निर्माता आरक्षण और धर्मनिर्पेक्षता जैसे अहम मुद्दों में ही उलझे रह गए, नतीजन
इस महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार से वंचित होना पड़ गया हमें । हो सकता है अगले चुनावों
में कोई होनहार दबंग जनसेवक मनमाफिक भरपूर साथियों के साथ चुन कर आ जाए विधायिका
में और खटाखट संविधान संशोधन वाला करिश्मा दिखला कर जनता को राहत दे दें !
खैर,
अभी तक तो आम लोगों में चर्चा है कि ‘ अच्छी नीनी
आए ’ जैसा विज्ञापन देने वाली किसी विदेशी
कम्पनी ने रेलमंत्रालय को मोटी दक्षिणा दी है ट्रेनों में शौचालयों को लॉक कराने
के लिए । गाड़ियों में पेशावखाना-पैखाना की सुविधा यदि नहीं होगी तो ‘ बेबी डायपर ’ के
साथ-साथ ‘एडल्ट डायपर’ की भी भरपूर विक्री होगी, जैसे
पेयजल की सुविधा नहीं रहने पर विसलरी बोतलों की बिक्री होती है। हालाँकि दुनिया के
होनहार वैज्ञानिकों की कृपा इसी भाँति बनी रही यदि तो बहुत जल्द ही ऑक्सीजन
सिलेन्टर की भी विक्री बढ़ेगी, जैसा कि कोरोनाकाल में हुआ था ।
खैर,
अभी इन बातों के पचड़े में पड़ना मेरा उद्देश्य नहीं है। हम बात कर रहे थे--उस दिन
घटित घटना की जो टीकधारीबाबा को कुछ दिनों के लिए फिर से ‘सेलेब्रेटी’ बना दिया ।
इस
रेलवेलाइन के यात्रियों को तो पता ही है कि गया से वाराणसी पहुँचने में सात-आठ
घंटे लगने ही लगने हैं। विवाह सम्पन्न हो जाने के बाद, समधीजी को जैसे साइड में सन्ट
कर दिया जाता है, उसी तरह पैसेन्जर ट्रेनों को वाराणसी निकट आ जाने के कारण
मुगलसराय स्टेशन पर कहीं लूपलाइन में सन्ट कर दिया गया तो रात्रि-विश्राम-व्यय भी
टिकट- मूल्य से ही निपट जाता है।
उस
दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। लागातार लेट चल रही आसनसोल वाराणसी पैसेन्जर शाम साढ़े चार
बजे गया जंक्शन से खुली और रास्ते में नियमित विश्राम लेते हुए रात करीब साढ़ेबारह
बजे मुगलसराय जंक्शन पहुँची । दो घंटे के विश्राम के बाद भी, वहाँ से आगे बढ़ने की
उम्मीद न देख, टीकधारीबाबा और उनकी टोली ने निर्णय लिया कि सड़कयात्रा का भी लाभ
ले ही लिया जाए । अतः सभी उतर गए वहीं ।
बाकी
लोग तो बीच-बीच में मौका देख अन्य स्टेशनों पर मूत्र विसर्जन क्रिया सम्पन्न करते
ही रहे थे, किन्तु रेलयात्रा का ज्यादा अनुभव न होने, ट्रेन खुलने और रास्ते में
छूट जाने के भय से टीकधारी बाबा बीच में कहीं उतरे ही नहीं । नतीजन धोती गीला होने
का नौबत आ गया । ट्रेन से उतरते ही चट से बैठ गए बॉगी से सट कर प्लेटफॉर्म पर ही ।
अभी
ठीक से निवृत्त भी नहीं हो पाए थे कि सादे लिबास में एक रेलकर्मचारी आकर गर्दन
पकड़ लिया । अचकचाए हक्केबक्के टीकधारी
बाबा तपाक से उठ खड़े हुए या कहें उदण्ड कर्मचारी ने खींच कर खड़ा कर दिया उन्हें।
पुलिस-प्रशासन
को तो संवैधानिक छूट मिला हुआ है ही दुर्व्यवहार और गाली-गलौज का। उसे उम्र और
स्थिति से क्या वास्ता ! सूटेड-बूटेड होते तो हो सकता
है थोड़ी कम बदतमीज़ी होती, किन्तु धोती वाले के साथ भला क्यों इन्साफी !
अच्छा
मुल्ला फँसा है, जान कर दो-तीन वर्दीवाले भी जा जुटे, जैसे जलेबी पर बिन बुलायी
मक्खियाँ आ जुटती हैं। घबराया-डरा-सहमा भगेड़ना भी बगल में आ खड़ा हुआ।
वर्दीधारियों के बीच आँखों ही आँखों में कुछ संवाद हुए और तब एक ने कड़क कर पूछा—
“ कहाँ जाना है बुढ़ऊ ! कहाँ के रहने वाले हो ? लगता है एकदम देहाती भुच्चड़ गँवारे हो। पहली बार ट्रेन में चढ़े हो क्या? ये जो तुमने प्लेटफॉरम गन्दा किया
इसे कौन साफ करेगा- तुम्हारी अम्माँ ? ”
आगे
लपक कर दूसरे वर्दीधारी ने टीकधारीबाबा की कलाई पकड़ी और झटका देते हुए बोला— “ इस गदहे से ज्यादा बतियाना तौहीनी है हमारी। सीधे ऑफिस में ले चलो । चार
फटाका लगायेंगे चूत्तड़ पर और पाँच सौ रुपये जुर्माना भी कसेंगे...। ”
उनमें
एक कुछ भलेमानस सा लगा या हो सकता है भलमनसी ओढ़े हुए हो । उसने कहा — “ नहीं, नहीं। बूढ़े हैं बेचारे। नियम-कानून पता नहीं होगा। ऑफिस में ले जाकर
मारपीठ करना अच्छा नहीं। यहीं जुर्माना वसूलकर छोड़ दो। ”
बुद्धिमान
टीकधारीबाबा को उन सबके हावभाव देख, ये समझते देर न लगी कि ये कितने कर्मठ और
ईमानदार रेलकर्मचारी हैं। पल भर में ही सोच-समझ लिए कि इन भूरे कुत्तों से कैसे
निपटा जाए।
आँखें
मटका कर कुछ इशारा करते हुए, भगेड़ना को आवाज देकर समीप बुलाए और बोले— “ मेरे पास तो इतनी नगदी है नहीं भगेड़न भाई। दस-बीस रुपये से काम चलना
नहीं है। तुम्हारे पास भी तो नगद पचास रुपये ही बचे थे न टिकट कटाने के बाद। एक
काम करो न भगेड़न बाबू ! थोड़ी मदद करो। तुम तो वो टीप-टाप
वाला काम जानते ही हो। अरे, वो क्या कहते हैं, आजकल लोग— ‘डिजीटल इण्डिया’ , ‘डिजीटल
पेमेन्ट’...। ”
टीकधारीबाबा
की दूरगामी सोच पर वर्दीवाले जरा सहमें। उन्हें लगा कि ये बुढ़ऊ तो सारा बँटाढार
कर रहा है। बना-बनाया खेल बिगाड़ रहा है। अतः अगला चुग्गा फेंका— “
ज्यादा चतुराई न दिखाओ बुढ़ऊ ! तुम लोग आठ जन
हो, सफर पर निकले हो और किसी के पास इतनी नगदी नहीं है कि पाँच सौ रुपये जुर्माना
भर सको? हजार-पाँच सौ तो आजकल जेब में रख कर लोग सब्जी लेने
निकलते हैं। जैसे भी हो, मिला-जुला कर पाँच सौ निकालो और जल्दी से जुर्माना भरो।
हमें और भी ड्यूटी बजानी है। एक तुम्हीं को लेकर इतना टाईम वेस्ट नहीं करेंगे। ”
भगेड़ना
ने गिड़गिड़ाते हुए कहा — “ जुर्मनवाँ का
रसीदवा तो दोगे न साहब? देखते हैं, मलकिनियाँ के पास शायद
कुछ नगदी निकल जाए। ”
सिपाही
ने आँखें तरेरते हुए कड़क कर कहा— “ काबिलियती न दिखाओ
ज्यादा । नहीं तो दूँगा चार बेंत तुम्हें भी। हरामखोर, पाजी कहीं का। जुर्माने का
रसीद माँग रहा है। लग रहा है कि जमीन-जायदाद की लिखा-पढ़ी हो रही है, जो केवाला के
बिना कामे नहीं चलेगा। ”
टीकधारीबाबा
तैश में आ गए। आँखें तरेर कर भगेड़ना को डपट कर बोले— “ अरे मूरख ! तू जानता नहीं— जबसे प्रधानमंत्री जी ने
आग्रह किया है देश वासियों से कि जहाँ तक हो सके डिजिटल पेमेंट किया करो। नगदी का
कारोबार कम हो। लेन-देन में पारदर्शिता आए। तब से मैं तो एकदम संकल्प ले लिया हूँ—सौ-पचास
रुपये से अधिक का नगदी काम बिलकुल नहीं
करने का । ”
टीकधारीबाबा
की कड़कदार आवाज सुन आसपास भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी । नगदी निकलने की आश छोड़,
सिपाही निराश हो गए, तभी एक ने अन्तिम पाशा फेंका— “ ये ऐसे नहीं
मानेगा। रातभर हवालात में भूखा-प्यासा बन्द रखूँगा और कल कोर्ट में पेश करुँगा..।”
सिपाही
की बात सुनकर भगेड़न और उसके परिवार घबरा उठे, किन्तु टीकधारीबाबा पर इस अन्तिम
हथियार का भी कोई असर न दिखा। बल्कि आवाज थोड़ी कड़कदार-दमदार हो गयी— “ कोर्टपेशी तो बाद में करना सिपाहीजी। यहाँ मुगलसराय में तो आपके DRM भी बैठते हैं न। वहीं ले चलें हमें। रही बात शिकायत और जुर्माने की। तो
मुझे भी शिकायत दर्ज करानी है। स्टेशन मास्टर तो सुनने से रहा और शिकायत पेटी तो
कभी खोली ही नहीं जाती। रेलव्यवस्था से मुझे कई सवाल करने हैं। ‘आपकी यात्रा मंगलमय हो ’—टिकट पर लिखा होता है,
किन्तु मंगलमय होने की व्यवस्था कितनी दुरुस्त है ये जगजाहिर है। सही-सलामत जीवित
लौट आए तो समझो जीवन सफल हो गया। सुखमय यात्रा ऐसी कि ए.सी., स्लीपर और रिजर्वेशन
वाले डब्बे में भी धक्का-मुक्की...वर्थ से चार गुना वेटिंग बुकिंग...अब एक और नया
नियम—वेटिंग अलाऊ नहीं स्लीपर में। कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार का स्वर्णपदक विजेता बनने
की होड़ में है हमारा रेल विभाग । और हाँ, असली सवाल तो मैं भूल ही रहा हूँ—ये
कुत्ते-गदहे जैसा ‘ खड़े-खड़े मूतैया ’ वाला पेशाबखाना तो बना दिए हो वेटिंगरूम में, किन्तु धोती वाले के बारे
में भी कभी सोचा— वो वेचारा कैसे-कहाँ बैठकर मूत्र-विसर्जन करे ? स्टैंडिंग यूरीनल के वेसिन में नाक रगड़ते वहीं बैठे या स्टेशनमास्टर के
चेम्बर में जाकर सीधे मेज पर मूत दे...?
“
मेरा विचार ये है कि रेलविभाग को मूत्र-विसर्जन-आचार-संहिता
बनाने पर यथाशीघ्र विचार करना चाहिए। अन्यथा मेरे जैसा विशुद्ध भारतीय इसी भाँति
बेइज्जत होता रहेगा और तुम्हारे जैसा भ्रष्ट सिपाही इसी तरह से निराश होते रहेगा
नगदी-दक्षिणा न मिलने पर। अच्छा तो अब, जयरामजी। ”—कहते हुए
टीकधारीबाबा ने एक झटके में कलाई छुड़ा कर, भीड़ को धकियाते हुए मस्त चाल से आगे
निकल गए। लोग मुँह देखते रह गए।
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