परित्याग के मृदु-कटु अनुभव
श्रीकृष्ण
के वचनानुसार त्रिगुणात्मिका सृष्टि में त्याग भी सात्विक-राजस-तामस तीन गुणों
वाला होता है यानी तीन प्रकार का होता है—त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः
सम्प्रकीर्तितः । त्याग की महिमा श्रीमद्भगवत्गीता में कई स्थानों पर बतलायी
गई है। यथा— त्यागाच्छान्तिरन्तरम्...।
सर्वकर्मफलत्यागं...। इत्यादि ।
हमें
लगता है कि मानव-जीवन दुःखों का अम्बार है। वस्तुतः नकारात्मक विचारों के सघन
कुहासे में सकारात्मक सुखानुभूति प्रायः लुप्त-गुप्त सी हो जाती है। ऐसा इसलिए होता
है क्योंकि हम प्रायः अवांछित-अनावश्यक चीजों (देश, काल, पात्र, भाव, विचारादि) को
अकारण ही, जाने-अनजाने जकड़े-पकड़े बैठे होते हैं। नश्वर-अनश्वर का सम्यक् भेद
ज्ञात नहीं होता ।
सत्य
और असत्य की पहचान और समझ भी इन्हीं में एक है। इस मामले में भ्रम और विभ्रम दोनों
का शिकार हम प्रायः होते रहते हैं।
हमने
ये दान किया...ये जप किया...ये तप किया...। यदि ये...ये की सूची बनी रह जाती है
संसार को जताने-बताने-दिखाने के लिए तो त्याग कहाँ हुआ ! वास्तविक
शान्ति और आनन्द तो तब लब्ध हो सकता है, जब त्याग के बोध का भी त्याग हो जाए।
अस्तु
! अभी यहाँ किसी गम्भीर औपनिषदिक
वा दार्शनिक विवेचना में जाना मेरा अभीष्ट नहीं है, बल्कि दो-एक घटनाओं की चर्चा कर,
कथ्य को स्पष्ट करने का प्रयास भर है ।
पहली
घटना सुनी हुई है और दूसरी भोगी हुई ।
माताजी
का द्विरागमन कराकर पिताजी अपने गाँव आ रहे थे। जिस तरह आजकल लोग मोटरसायकिल, मोटरकार
आदि रखते हैं, उन दिनों लोग अपनी औकात के मुताबिक हाथी, घोड़ा, डोली, पालकी, बैलगाड़ी
इत्यादि रखा करते थे। घोड़े वाले इक्के-बग्गी का भी चलन था। मध्यम श्रेणी के लोग
बैलगाड़ी जरुर रखते थे। मेरे यहाँ घोड़ा और बैलगाड़ी दोनों हुआ करता था। दादाजी
ज्यादातर घोड़े पर ही चलते थे। द्विरागमन बैलगाड़ी से हुआ था। अपना ही बनिहार
(खेती करने वाला) गड़िवानी कर रहा था। प्रायः पुरुष बैलगाड़ी के पीछे-पीछे पैदल
चलते थे और वाँस की कनैल या कमाँची के सहारे रंग-विरंगे ओहार लगे बैलगाड़ी में अन्दर
दुल्हन बैठी होती थी।
ससुराल
से काफी आगे निकल जाने पर पिताजी ने गाड़ीवान को अपनी जगह से हटाकर, स्वयं गाड़ी
हाँकने लगे। सहबाला ‘मोड’ में छोटे चाचा भी थे साथ में
। वो भी अग्रज की अनुमति से गाड़ी पर सवार हो गए—नवेली भाभी की सन्निकटता के लोभ
में। उन दिनों की भाभियाँ अब से कहीं अधिक रसीली तो जरुर होती थी, किन्तु आजकल
जैसी फटीली बिलकुल नहीं। मन की तरंगे मन के भीतर ही उमड़ती-घुमड़ती-गूँजती-टकराती मान-मर्यादा
के सींकचों में कैद रह जाया करती थीं। ससुराली पीली धोती, ठसकदार-चमकदार मलमल का
कुर्ता और गले में कामदार लाल गमछा, मन में उमड़ती नवविवाहित की उत्ताल तरंगें—दोनों
भाइयों की लगभग यही दशा रही होगी। आजकल जैसी सिनेमायी फूहड़ गानों का तो उन दिनों
चलन ही नहीं था, किन्तु रसिक-लुभावने लोकगीतों की दरिद्रता भी नहीं थी। ‘उनषोडशवर्ष
के राजीव लोचन राम थे...’ की तरह इस
कलियुगी राम-लखन
की जोड़ी भी लगभग ऐसी ही थी। पिताजी सत्रहवें वर्ष में थे, तो चाचाजी उनसे डेड़-दो
साल कम।
छोटे
चाचाजी ने अपनी जाँघों को ही तबला बनाया और पिताजी ने सिर में किसानकट गमछा लपेटकर,
एक रसीले लोकगीत की तान छेड़ी । और फिर गीतों का सिलसिला ऐसा चला कि गाँव की सरहद
में प्रवेश का भान भी न रहा।
मन
की मदहोशी और तरंगों की तान तो तब टूटी जब अचानक छोटे चाचाजी ने पिताजी की पीठ में
चिकोटी काटी और हाथ उठाकर, सामने की ओर इशारा किया— “ देख भाई ! मंझिला चाचा आऊ मंझिला भाई दूनों
आवइत हथू एनहीं, लगइत हे कि अगनूर बजार जाइत हथू...। ”
पिताजी
अभी सोचते-सम्भलते कि तभी पेड़ों की झुरमुट से बाहर निकलकर, पगडंड़ी छोड़ गाड़ी की
लीक पर सामने आ गए दोनों सज्जन—दादाजी और मंझले चाचाजी।
सामने
आकर, बैलगाड़ी का जुआठ दोनों हाथों से जकड़कर, दाँत पीसते हुए चीखे— “करीमना कहाँ मर गेलऊऽ,
जे तूँ गाड़ीवानी करैत हेंऽऽ
...सब होएल तो अब येही रह गेल बाकी तोरा ला...रंगरुटवन वोला लाल गमछा माथा में
लपेट के हाथ में बैल के पगहा...पंडितन वोला चौबन्दी छोड़के भाँड़-भँड़ुअन वोला
मलमलिया कुरता...लाज-लेहाज सब धोइएके बहा देलऽ
सोन में...। ”
गाड़ी
के पीछे बाँगड़ थामें चलता हुआ करीमना दादाजी की आवाज सुनकर, हाथ जोड़े गिड़गिड़ाते
हुए आगे आया—
“ हमर इमें कोई कसूर ना हे बाबा ! हम तो दूनों बबुअन से कहते हलिअइन
कि पंडीजी खिसिअतथू बैलगाड़ी हाँके ला, बाकी इ सुनबे ना कएलन हमर बात...। ”
डाट-डपट-फटकार कर दादाजी चले गए आगानूर
बाजार की ओर। दुल्हन लिए दोनों भाई घर आए। दोनों का मुँह लटका हुआ देख बाबाअईआ (दादी)
ने कई सवाल किया, किन्तु किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया। क्या कहते आँखिर !
छोटे चाचाजी के लिए तो बात आयी-गई हो गई, किन्तु पिताजी
के लिए दादाजी के वे शब्द ‘शब्दभेदीवाण’ हो गए, जो श्रवणकुमार की छाती में सीधे जा घुसे दशरथ की
वाणों की भाँति ।
दो-तीन दिन गुजरे द्विरागमन के । बिना किसी से कुछ
कहे-बोले, चौथे दिन अचानक नापित बुलाए, मुण्डन कराए और गृहस्थ-संन्यासी का श्वेत-धवल-धौत
धारण कर लिए । कहीं बाहर जाकर किसी से गुरुदीक्षा तो नहीं लिए, किन्तु किसी गुप्त
विधान से दीक्षित होकर, निम्बार्कसम्प्रदाय का तिलक धारण करते रहे आजीवन।
नित्य सहस्र गायत्री सहित कई अन्य वैष्णवी साधनाओं में रत, आडम्बर रहित, अत्यन्त
सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत हुआ।
और वहीं दूसरी ओर मैं, मेरा जीवन !
उनकी जीवन-चर्या—त्यागाच्छान्तिरन्तरम्...वाले
उक्त तपोमूर्ति की रहस्यमयी साधना और सांसारिक क्रियाकलापों को जानने-समझने का
भरपूर प्रयास किया, किन्तु ठीक से समझ न पाया । यदा-कदा की जिज्ञासा भी जिज्ञासा
ही रह जाती, समाधान न मिला कभी ।
‘आत्मावैजायते
पुत्रः’ के गूढ़ार्थों में न जाकर,
संक्षेपतः इतना ही कह सकता हूँ कि पिता को पुत्र से जो अकथ्य अपेक्षाएँ थी, शायद
वो अपूरित ही रही। संयुक्त पारिवारिक अशान्ति और ग्रामीण दुर्नीतिक माहौल से बचाने
के लिए पिताजी ने पुत्रमोह त्यागकर सुदूर पूर्वांचल भेज दिया मुझे एक रिस्तेदार के
अभिभावकत्व में, किन्तु ‘नेपाल में भी कपाल साथ जाता है’
वाली उक्ति को चरितार्थ करता होनहार पुत्र को मनोनुकूल होने न दिया। महत्वाकाँक्षी
पिता का, उनकी नजरों में महाअयोग्य पुत्र न अंग्रेजियत ओढ़ पाया और न सनातनी ही
रहा । सिर पर ‘ टीनेजरी
’ वाला भूत...मन की बैचैनी...तन की छटपटाहट ... कर्त्तव्याकर्त्तव्य
का बोध नदारथ। सीमित व्यवस्था, असीम छलांग...। मॉडर्न फैशन से बेइन्तहा लगाव । हालाँकि
कोई दुर्व्यसन नहीं, खाने-घूमने का शौक भी नहीं, किन्तु सजने-संवरने-पहनने-ओढ़ने
का जवाब नहीं । धर्मभीरु होकर भी, धर्म-कर्म से खास लगाव नहीं। घर-परिवार-समाज की
दृष्टि से सामयिक, परन्तु खुद के हिसाब से बिलकुल असामयिक दाम्पत्य जीवन की जिम्मेवारी
और रही-सही कसर पूरी कर रहा था शनि की महादशा और साढ़ेसाती का संयोग । कुम्भस्थ
सप्तमस्थ चन्द्रमा के कुपित दोषों से बालबाल बच रहा था, फिर भी जीवन अस्त-व्यस्त
होकर रह गया था। शनि महाराज ने भरपूर उठा-पटक में कोई कसर न छोड़ी । मान-अपमान का षडरसीय
स्वाद भरपूर चखने का अवसर मिला । शारीरिक रूप से कोई रोग-व्याधि तो नहीं, किन्तु
मानसिक क्लेश का पारावार नहीं । बेरोजगारी के वृश्चिक-दंश की तड़प अलग से...।
सूट-बूट-टाई के वगैर बाजार न निकलने की
मानसिकता वाले की एक दिन ऐसी स्थिति आयी शनि कोपवश कि साधारण पैंट-शर्ट भी नहीं था
पास में। पायजामा-कुरता भी जीर्ण-शीर्ण स्थिति में ।
एक
दिन ऐसा हुआ कि दोहरी धोती की लुँगी और मच्छरदानी बनी गंजी पहने देखकर चाचाससुर जी
को दया आयी शायद । दूसरे ही दिन धोबी का
धुला कुर्ता-गंजी लिए हाजिर हो गए— “ हमरो
तनख्वाह तीन महीना से ना मिलल हे । तबतक एकरे से काम चलाऊँ पहुनाजी... । ”
‘शब्दभेदीवाण’ का
सामना वर्षों बाद एकबार फिर हुआ । उस दिन पिता ने किया था, आज पुत्र ने
किया सामना ।
मस्तिष्क में विजली कौंधी—आँखिर इन वस्त्रों के प्रति
व्यामोह क्यों... वस्त्र की उपादेयता सिर्फ और सिर्फ इतनी ही है कि तन की लाज रखे
और मौसम की मार से शरीर को सुरक्षित ।
बाकी सब तो सिर्फ दिखावे के लिए हैं... नश्वर शरीर को अनश्वर माने बैठे,
सजाने-संवारने की मूर्खता मात्र...।
बनावटी मुस्कुराहट के साथ चाचाससुरजी का व्यवहृत उपहार
अस्वीकार कर दिया । अगले क्षण, शरीर पर चढ़ी बैठी अधफटी गंजी को भी नोचकर तार-तार
कर दिया । और फिर पिताजी की तरह ही धोती-चादर में ही रहने की आदत बन गई। अब तो
बत्तीसवाँ वर्ष भी गुजर गया, आगे भी गुजर ही जायेगा।
एक ही मानसिक झटके ने श्रीमद्भगवत्गीता का बारहवाँ
अध्याय घोंट कर पिला दिया, वो अध्याय जिसे वचपन से रटा रहे थे, समझा रहे थे
पिताजी।
किन्तु श्रीकृष्ण के वचनानुसार क्या इसे सात्विकत्याग की
श्रेणी में रख सकता हूँ?
कदापि
नहीं । श्मशानवैराग्य या कि आतुरवैराग्य वैराग्य सा दिखते हुए भी कदापि
वैराग्य नहीं कहा जा सकता ।
माता-पिता-पत्नी
से लड़-झगड़ कर लोग संन्यास धारण कर लेते हैं। मगर वो सिर्फ संन्यास का चोला भर
होता है, असली संन्यास कहाँ उतर पाता है जीवनभर ! वो तो
विरले भाग्यवानों को ही लब्ध हो पाता है सिर्फ। सामान्य भगोडुओं द्वारा एक झटके
में तथाकथित गृहत्याग भले हो जाता है, चीवर-चिमटा-जटा-जूट-चन्दन-त्रिपुण्ड वाला
बाना तो बन जाता है, किन्तु छोटे से घर के बदले बड़े मठ-मन्दिर की तलाश शुरु हो
जाती है, एक पत्नी के त्याग के बदले अनेक रमणियों के आलिंगन की ललक लग जाती है और
फिर आदत भी बन जाती है ।
सच
कहें तो त्याग-तपस्या बहुत ही कठिन कार्य है। सम्यक् ब्रह्मचर्य और संन्यास सधना
तो और भी कठिन है। कहने वाले ने बहुत सोच-समझकर अनुभवपूर्ण बातें कही हैं— अश्वलम्भं
गवालम्भं संन्यासं पलपैत्रिकम् ।
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