प्रोमोटेड
पंडिताईन:डिमोटेड पंडित
कुछ
जख्म ऐसे होते हैं, जो ठीक हो जाने पर भी समय-समय पर आजीवन पीड़ा देते रहते हैं । हालाँकि
बाहरी गहरे जख्म भी तो ठीक हो जाने के बावजूद चमड़ी पर अपना निशान छोड़ ही जाते
हैं । मॉडर्न प्लास्टिक सर्जरी बाहरी निशानों को मिटाने में भले ही सक्षम हो, किन्तु
भीतर वाले गहरे अदृश्य निशानों को मिटाने वाली सर्जरी अभी तक विकसित नहीं हुई है।
आगे भगवान जाने
!
तथाकथित
कुल-दीपक बबुआ गिरीशानन्द की करनी भी कुछ ऐसी ही है। कुछ लोग उसे कुलबोरनबबुआ भी
कहते हैं। और ये विशेष विशेषण सुन कर गिरीशानन्द दाँत निपोरता है, यानी उसे अच्छा
लगता है अपना ये उपनाम सुनना। क्योंकि कभी किसीने इस सम्बोधन पर विरोध प्रदर्शन
नहीं सुना उसके मुँह से।
‘बाढ़े पूत पिता के धरमे, खेती बाढ़े अपने करमे’—पता
नहीं किस भावदशा में किस महानुभाव के मुखारविन्द से ये उक्ति निकली होगी और कितनी
चरितार्थ हुई समाज में ! किन्तु कभी-कभी प्रमाण सहित दिख
जाता है— ‘पूत के पांव पलने
में ही पहचान में आ जाते हैं’ वाली लोकोक्ति ।
इलाके
के जानेमाने शिवभक्त गिरधारीलालजी को भला कौन नहीं जानता
! सुदूर वृन्दावन से टिकारीराज में स-सम्मान आमन्त्रित-पूजित महान पंडित
गिरधारीलालजी के बारे में लोग कहा करते हैं कि एक बार देर रात राजमहल से विदा होकर, अपने शिवोत्तर जागीर वाले
गाँव—शिवराजपुरी जाते समय, नदी पार करते, रास्ता भटक गए। काफी देर तक इधर-उधर भटकते
रहे— दान-दक्षिणा में मिले सामानों का भारी बोझ लिए अपने कंधे पर ।
इसी
बीच अचानक एक भील के वेष में भूतभावन भगवान भोलेनाथ मिल गए और उनकी गठरी अपने सिर
पर लाद कर, घर के दरवाजे तक छोड़ गए...।
कथाप्रसंग
से आप भी अवगत होंगे—श्रीकृष्ण प्रेरित पाशुपतास्त्र आकांक्षी अर्जुन को महाभारतयुद्ध
की तैयारी क्रम में किरात वेष में भोलेनाथ के साथ युद्ध करना पड़ा था। इस घटना को महाकवि
भारवि ने अपने महाकाव्य ‘किरातार्जुनीयम्’ में बड़े ललित ढंग से चित्रित किया है। किन्तु ‘अर्थगौरव’ के लिए विशेष रूप से याद किए जाने वाले महाकवि भारवि के चरण-रज भी मुझपर
नहीं पड़ा है, ऐसे में ‘किरातगिरधारी’
या ‘गिरधारीकिरात’ संवाद वाली घटना पर
मैं भला क्या कह-लिख सकता हूँ !
भोलेनाथ
की लीला बड़ी विचित्र हुआ करती है, इसलिए इसके विषय में कुछ कहना ज्यादती होगी, किन्तु
मेरी उदण्डता कहें या मूर्खता या अनास्था, पंडित गिरधारीलाल वाली उक्त लोक-चर्चा
कभी भी जँची-पची नहीं मुझे, क्योंकि मैं अन्धश्रद्धा-विश्वास का अनुयायी बिलकुल
नहीं हूँ, भले ही कोई नास्तिकता की उपाधि क्यों न दे दे ।
खैर,
जो भी हो, भोलेनाथ ने अपने भक्त की मजदूरी
की हो या न की हो, किन्तु मैं तो उस
तथाकथित शिवभक्त गिरधारीलाल की मजबूरी और कमजोरी दोनों से भलीभाँति परिचित हूँ ।
व्याहता
धर्मपत्नी असमय में ही विधुर बनाकर चली गई थी एक नवजात बालिका के भरण-पोषण का
दायित्व सौंप कर, जिसके लालन-पालन में ही विधुर गिरधारीलाल के जीवन का अनमोल समय निकल गया । संयोग
से अपने ही विद्यालय में एक योग्य कुलीन शिष्य मिल गया, जिसके हाथ आसन्न
सौभाग्यकांक्षिणी पुत्री का हाथ सौंप कर, स्वयं वृन्दावन का रास्ता नापने निकल
पड़े।
किन्तु
वृन्दावन का रास्ता उतना सरल-सहज-निर्बाध तो है नहीं, जितना लोग समझ लेते हैं।
गृहस्थी का सहज-पावन बोझ, जो सम्भाल नहीं सकता, वह कामचोर भगोड़ू भला सधुवै और संन्यास
क्या सम्भालेगा !
पंडित
गिरधारीलाल के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। वृन्दावन की कुँज-गलियों में महीनों भटकने
पर भी, कहीं कोई गोपांगना दिखी-मिली नहीं, तब निराश होकर, निकल पड़े वहाँ से गोड्डा-बहराईच
की ओर। संयोग से वहाँ जाते ही एक मन्दिर में पुजारी का पद मिल गया, फलतः कई
समस्याएँ एक साथ सुलझ गई। यहाँ तक कि महीना लगते-लगते जीवन की सबसे विकट समस्या का
भी हल निकल आया—मन्दिर में झाड़ू-पोंछा लगाने वाली तीन बच्चों की माँ ही भा गई और
वो भी परम त्यागिनी का बीड़ा उठाने को तत्पर। और तब, हुआ ये कि अमावस के अन्धेरे का
लाभ लेकर, निकल भागे मन्दिरी-जंजाल से । तीन बच्चों को छोड़ने के लिए कोई माँ राजी
हो यदि, तो अदने से पुजारी-पद का त्याग करने में भला क्यों देर !
यहाँ-वहाँ
ठौर जुटाने के चक्कर में घूमते-भटकते अन्ततः हिम्मत जुटाते, तीन महीने बाद पैत्रिक
गाँव पहुँचे— ‘ प्रोमोटेड पंडिताईन ’ के
साथ । उम्रदराजों ने नाँक-भौं सिकोड़े ‘पंडित डिमोशन’ पर, हमउम्रों ने चटकारे लिए ‘नैकी भऊजी’ से गले मिलकर, युवाओं में
जोश जागा—पंडित गिरधारीलाल के ‘मॉडर्न
रोड मैप’ देखकर, गाँव की दादी-काकियों ने छौंका लगाया अपने
अन्दाज में — ‘कुत्तो
पोंसहे ऽ
अदमी तो मुँह-नाक देख के...इऽ मुँहझौंसा गिरधरिया मुँह करखिओ लगैलक तो सूखल कुँइआँ
में कूद के...’।
हालाँकि सप्ताह-दस
दिनों के चौपाल-चर्चों के बाद बात आयी-गयी हो गई । दरअसल कुछ मामलों में हमारा
समाज बड़ा ही सहनशील है। भले ही उस सहनशीलता का भारी खामियाज़ा क्यों न उठाना पड़े
।
उसी
प्रोमोटेड पंडिताईन यानी नैकी भऊजी यानी सूखल कुँइआँ के कीच-काद से साल भर बाद
जन्मा बबुआ गिरीशानन्द उर्फ कुलबोरना । मजे की बात ये है कि कुलबोरना का असली वाप
कौन है, ये प्रोमोटेड पंडिताईन भी दावे के साथ नहीं कह सकती। ऐसे में बेचारे डिमोटेड
पंडित भला क्या कहते !
समय सनसनाते हुए निकल गया। कुलबोरना दस-बारह साल का हो गया। पंडित गिरधारीलाल की जुगाड़ू गृहस्थी लाचारी
वाले अन्दाज में खिंचती-घिसटती-चलती रही—दौड़ने का भला सवाल ही कहाँ था ! सारा दिन
गुजर जाता गाँव-जेवार के यजमानों के चक्कर में। देर शाम, कभी देर रात, लगन-विवाह के
मौसम में पूरी रात बाद भोर में वापसी होती, तब तक प्रमोटेड पंडिताईन के चहेतों की
मण्डली अपने-अपने घर का रास्ता नाप चुकी होती। संयोग से एक दिन पुँचली को ‘धर्मपत्नी’ या कहें ‘अर्द्धांगिनी’ माने बैठे पंडित
गिरधारीलाल पातिव्रत्य का पाठ पढ़ाने बैठ गए। और यही उनके जीवन की सबसे बड़ी चूक
हुई।
अगली ही रात छाती पर सवार होकर, ‘थायमेट’
का घोल जबरन उढ़ेल दिया गया अभागे गिरधारीलाल की हलक में। भोर होने से पहले ही
बुढ़ऊ टें बोल गए। ‘राम नाम सत्य है’ के झूठे शोरशराबे के साथ आनन-फानन
में भरारीघाट पहुँचाया गया प्रोमोटेड पंडिताईन के भविष्य पर निगाहें गड़ाये, लपकती
लार वाले करीबी शागिर्दों द्वारा । इधर साक्षात कलयुगी धर्मपत्नी श्राद्धकर्म की
जहमत छोड़, ‘आबा-झाबा,
गड़ुआ-झँपोंली’ के साथ पलायन कर गईं इलाका छोड़कर ।
बेचारे मनचले शागिर्दों की लार हलक में ही सूख गई।
गिरधारीपुत्र
गिरीशानन्द अब सच में अनाथ हो गया । हालाँकि वो सनाथ था ही कहाँ ! पहले तीन
बच्चों को त्यागने में जिस माँ को पल भर भी नहीं लगे थे, उसके लिए इस चौथे की क्या
चिन्ता ! और
रही बात बाप की, तो जिसके वपनकर्ता की ही सही पहचान न हो, उसके लिए ‘अनसटिफायड’ बाप भला क्यों सोचे-विचारे ! हालाँकि सुनते हैं कि ‘वर्थ सर्टिफिकेट’ की तरह ‘बाप
सर्टिफिकेट’ भी सांयन्स वाले देने लगे हैं आजकल।
और मौके का लाभ उठाने वाले उठा भी रहे हैं इस जेनेटिक सर्टिफिकेट का । खबरों से
रू-ब-रू रहने वाले जानते ही होंगे कि अभी कुछ वर्षों पहले ही एक जाने-माने नेताजी
को बड़ा महंगा पड़ा था ये सर्टिफिकेट वाली टेक्नोलॉजी।
खैर,
कुलबोरना को इसमें कोई अभिरूचि नहीं थी और न आवश्यकता ही। उसका खुद का वजूद है इस
कर्म बहुल धरती पर—इतना ही काफी था उसके लिए। श्रीमद्भागवत वाले गोकर्णभ्राता धुँधकारी
की तरह प्रेतलोकगामी गिरधारीलाल की पाँच-सात बीघा जमीन का अब निरंकुश वारिस था
कुलबोरना । कायदे से चलने पर सामान्य जीवनयापन के लिए, इतना कम नहीं है और बेकायदे
वाले के लिए तो करोड़ों-अरबों भी कम पड़ जाएँ।
पापाचार-अनाचार
बहुल इस घोर कलिकाल में भी धर्म-ईमान का सर्वथा लोप नहीं हुआ है अभी। गाँव के ही
एक दयावान ने, जो गिरधारीलाल के खेती-बारी का काम सम्भालता था, कुलबोरना को अपने
संरक्षण में ले लिया । गाँव के सरकारी स्कूल में नाम भी लिखवा दिया। अपने बच्चों
की तरह मान-आदर भी देने लगा।
समय
के पंख निकले। कुलबोरना हाईस्कूल की चारदीवारी लाँघ कर बाहर जाने का ख्वाब देखने
लगा। इसी बीच पड़ोसी गाँव के एक पंडितजी
की नजर कुलबोरना पर गड़ गई। जेवारी होने के चलते, सबकुछ जानते-समझते हुए भी अपनी
कन्या से आसानी से उद्धार होने के स्वार्थ में असमय ही उसे हथियाने का प्रयास करने
लगे ।
भविष्य
संवारने के प्रलोभन में वर्तमान को ही कैद कर लिए पंडितजी—अपनी इकलौती दुहिता को
दहेज रहित विदा करके। पास-पड़ोस, गांव-जेवार परिचितों ने बहुत भला-बुरा कहा,
किन्तु स्वार्थ में अन्धे पंडितजी पर कुछ भी असर नहीं हुआ। अपने हाज़िरजवाबी वाले
अन्दाज में ‘खेत और बीज’ की
पहेली बुझाते रहे लोगों को।
किन्तु जहाँ न जमीन सही हो और न बीज—उसमें उगने वाले पौधे और उसमें लगने वाले फल का कितना भरोसा !
आगे की पढ़ाई के लिए पंडितजी ने जामाता को राजधानी में
अपने एक यजमान के यहाँ मुफ्त में कोठरी दिलवा दी और कॉलेज में नाम भी लिखवा दिया।
किन्तु कुलबोरना अपने प्रचलित नाम की सार्थकता सिद्ध करने में जुट गया ।
गाँव-देहात से एकाएक महानगर में पांव धरते ही कुलबोरना
की अकल चकराने लगी। गाँव में छोड़ आए नवविवाहिता की याद में शहरी तितलियों का
चक्कर लगाने लगा। ‘हीरोइनों’ की
खोज में ‘हेरोईन’ की लत भी
लग गई। चिलम-गाँजा-भाँग तो पैतृक परिपाटी थी ही। किताबों के पन्ने शायद ही पलटे
जाते, किन्तु ‘साहब-बीबी-गुलाम’ पलटे बिना चैन नहीं। कुल मिलाकर कहें तो साल लगते-लगते
ही कुलबोरना काफी तरक्की कर गया अपने नए अभ्यास में। गल्ली-मुहल्ले से बाहर
निकलकर, शहर का डॉन बनने का ख्वाब भी देखने लगा।
समय सरकता रहा।
पूरे दो वर्षों बाद अचानक एक दिन, बिना किसी पूर्व सूचना
के, कुलबोरना अपने पैतृक गाँव पहुँचा। आँखें बिछायी विरहिणी की आँखों में खुशी के
आँसू छलक आए और अगले ही पल वो दौड़कर लिपट पड़ी अपने प्राणप्यारे से, जब उसने कहा
कि अब वो इसके बिना एक पल भी अकेला नहीं रह सकता। अगली सुबह ही निकल जाना है
राजधानी के लिए। दिल की रानी तो राजधानी
में ही रहेगी अब—सुन कर बड़ा ही अचम्भा लगा था उस अभागी को।
जी हाँ, अभागी ही तो थी। पंडिताई का चोला ओढ़े पिता ने न
खेत का विचार किया और न बीज का—ये सब फालतू बकवास हैं—कहकर, टाल दिया था—कुल-खानदान
का विचार । कुलबोरना की होनहारी सामने थी— विवाह के बाद पूरे चौबीस महीने
पलक-पाँवड़े बिछाये बैठी रही— छप्पर के बाँस-खपड़े गिनती रातें बिताती रही। किन्तु
आज अचानक शायद उसका सोया हुआ सौभाग्य जागा है—ऋषि कण्व पालिता शकुन्तला की तरह
कुमारदुष्यन्त उसे लेने आया है—ये सोच कर तैयारी में लग गई।
तैयारी क्या-कितना !
सीमेंट की बोरी की, घर में सिला हुआ दो झोला—एक में कुछ
कपड़े-लत्ते और दूसरे में चूड़ा, सत्तू, निमकी, ठेकुआँ...। यही तो असबाब था उसका
लम्बे सफर के लिए। चाह तो थी बहुत कुछ रख लेने की, किन्तु तथाकथित होनहार
प्राणप्यारे ने ज्यादा कुछ बोझ लेने से मना कर दिया— अरे पगली ! गाँव-देहात
से कहीं लाख दर्जे अच्छी चीजें मिलती हैं वहाँ शहरों में...।
उमंगों की तरंगों में हिचकोले खाती दूसरे ही दिन अनजान-अजूबे
शहर में दाखिल हुई ।
‘ लाख दर्जे
अच्छी चीजें मिलती हैं वहाँ शहरों में...’ की जगह भनभनाते
पहलवान-पहलवान मच्छरों वाले घुप्प अन्धेरे कमरे में, गन्धाती फटी गेंदरी पर
बैठाकर, प्राणवल्लभ चले गए, ये कहकर कि किवाड़ अन्दर से बन्द कर लेना...खाने-पीने
के कुछ जरुरी सामान लेकर आता हूँ...।
प्राणप्यारी वाट देखती रही—घंटे...दो घंटे...चार घंटे...यहाँ
तक कि भोर होने को आयी । कमरे में कमरे के सिवा कुछ नहीं—पानी-पैखाना भी नदारथ। बाहर
मजबूत लोहे की ग्रील वाला छोटा सा वरामदा, जिसमें पड़ा पुराना जंगिआया अलीगढ़ी
बड़ा सा ताला। आसपास से कहीं कोई टोह भी नहीं—एकदम सुनसान सा इलाका।
भूख-प्यास और यात्रा की थकान के बीच न जाने कब आँखें लग
गई। अचानक सांकल की खड़खड़ाहट से आँखें खुली। भिड़काए हुए कमरे के किवाड़ों को
खोलकर, बाहर झाँकी। दुपट्टे से बँधी ताली से वरामदे के ग्रील का ताला खोलकर, अन्दर
हाँफती-काँपती एक महिला ने प्रवेश किया। उसने बगल में एक बुर्का दबा रखा था। खुद
भी बुर्के में ही थी।
कलाई जकड़ती हुई बोली— “गिरीशानन्द
की बीबी तुम ही हो न...जल्दी से इस बुर्के को पहन लो। आज़ान का वक्त होने वाला
है...जल्दी से निकल चलते हैं इस कैदखाने से...।”
पल भर में ही कई अनकही-अनहोनी बातें कौंध गई जेहन में। प्यारभरी
बातों के बजाए, लम्बे सफर के सन्नाटे...कमरे का एकान्त...भूख-प्यास से थरथराती
देह...भाँय-भाँय करती झनझनाती रात...सोचने-विचारने का वक्त नहीं था—दोनों के पास।
पतली पगडंडी पर अन्धेरे में कुछ दूर चलने के बाद, चौड़ी
सड़क दिखी। किन्तु सहचरी बुर्केवाली सड़क पार कर, घने झुरमुटों में घुस गई। कोई आध
घंटे के गुमसुम सफर के बाद उसने मुँह खोला— “ तुम्हारे भर्तार
ने मेरे शौहर के साथ जूआ खेलते हुए तुम्हें दाँव पर लगाकर हार गया । तुम्हें
इसीलिए गांव से लाया गया है। सबेरा होते ही दोनों आयेंगे और तुम्हें ले जाकर मंडी
में बेंचने का जुगाड़ करेंगे बम्बई के दलाल के हाथों। इनलोगों का बड़ा सा गिरोह
है, विदेशों में लड़कियाँ सप्लाई करते हैं...मैं तो रोज पिटती हूँ, फिर भी लत नहीं
छोड़ती। मौका मिलते ही किसी न किसी को भगा देती हूँ इन कमीनों के चंगुल से...। ”
बातें करते वे दोनों एक कस्बायी बसस्टैंड पर आ चुके थे।
बुर्केवाली ने अपने वटुए से पाँच सौ के पाँच नोट निकालकर, उसकी ओर बढ़ाती हुई, कान
से मुँह सटाती हुई आहिस्ते से बोली —“ ये सफेद
वाली बस तुम्हें सीधे दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँचा देगी। और वहाँ से आगे का रास्ता
तो तुम समझ ही रही होगी। ना भी समझ आवे, तो भी कलकत्ते जाने वाली कोई भी गाड़ी में
बैठ जाना । वे सारी गाड़ियाँ तुम्हारे इलाके से होकर ही गुजरती हैं। रास्ते में
टी.टी.तंग करे, तो सीधे मुँहमाँगी रकम देकर उससे छुटकारा लेना...। ”
अभी वो कुछ और कहती, किन्तु बस का भोंपू बजने लगा था और खलासी
रेंकने लगा था—जल्दी करो...जल्दी करो...बस खुलने वाली है।
बुर्केवाली बेपहचान फरिश्ता चली गई बस के गेट पर छोड़कर।
जल्दबाजी में वो उसके गले भी नहीं लग सकी। मन ही मन उसे दुआएं देती रही अभागी।
बस खुल गई। दिल्ली भी आ ही जायेगी, कुछ देर में, किन्तु
उसकी मंजिल...? सही-सलामत गाँव पहुँच भी गई तो क्या होगा...? —सोच सोचकर
सर चकराने लगा था। मन का एक टुकड़ा यमुना में छलांग लगाने को धकिया रहा था, तो
दूसरा रेलवे लाईन पर सोजाने को उकसा रहा था, किन्तु अनपढ़ माता की एक पुरानी सीख
ने उसे हिम्मत दी—जिन्दगी से भागे कामचोर मूरख आत्मघात की बात करते हैं, जिन्दगी
को एक खेल समझना विरले को ही आता है। जीवन को जो नाटक समझ कर जी लिया, वही असली
इन्सान है...बाकी सब जन्म लेने और मरने वाले जीव-जन्तु...।
कलयुगी द्रौपदी ने न अपने जुआरी पति की आस देखी और न
संसार के संवेदनविहीन अँधे-गूँगे लोगों की परवाह की। यहाँ तक कि वस्त्रावतारी
श्रीकृष्ण की भी गुहार नहीं लगाई। किन्तु हाँ, श्रीकृष्ण की कर्म-प्रेरणा को
अंगीकार उसने अवश्य किया।
इस घटना ने उस अभागी को हिम्मतवर बना दिया। सीधे अपने
गाँव पहुँची। खेती-बारी देखने वाले सहयोगी को सारा किस्सा सुनायी और जीवन के बाकी
हिस्से गुजारने में जुट गई—घूँघटवाली गंवई बहू से रणचण्डी बन कर।
00000
Comments
Post a Comment