हड़बड़ियाजी के साथ संगम-स्नान
हवा
बनी हुई है अभी पुण्य लूटने की, तो विचार आया कि क्यों न मैं भी इस लूट का हिस्सा
बन ही जाऊँ। ऐसा अवसर रोज-रोज थोड़े जो आता है।
किन्तु
जोश में शायद कुछ गलत कह रहा हूँ। क्योंकि अवसर कहीं सातवें आसमान से तो आता नहीं
है। वर्ष-मास-दिन-तिथि-मुहूर्त की प्रतीक्षा भी नहीं करता। कुछ खासमखासों का विचार
बन जाता है जब, तब अवसर बना दिया जाता है या कहें बन जाता है—सभा, सम्मेलन, उद्घाटन,
शिलान्यास, प्राणप्रतिष्ठा, कुम्भ, अर्द्धकुम्भ, महाकुम्भ—अवसर तो बनाने से ही बनता है न !
मजे
की बात है कि बनाने पर बना हुआ ऐसा हर अवसर अपने आपमें ऐतिहासिक और ‘न भूतो न भविष्यति’ वाला ही होता है, वशर्ते कि
दुनिया को रिझाने वाली मीडिया को, रिझाने का हुनर आता हो। और आप जानते ही हैं कि
मीडिया को रिझाने के लिए ज्यादा कुछ करने की जरुरत नहीं है। वह तो रीझी हुई है
पहले से ही चाँदी की खनक पर। तुम अपनी औकात दिखाओ, मीडिया अपनी औकात दिखा देगी।
हालाँकि
बजबजाते कीड़ों वाले इस ‘चौथे पाये’ के बावत ज्यादा कुछ क्या कहना—वेश्या की पहुँच तो ‘पहुँचे से पहुँची’ तक होती है न ! वो सटने को उकसाती है, तुम सटने को अकुलाते हो। वेश्या के पास परमात्मा
वाली आँख होती है, मीडिया के पास कैमरे वाली आँख। और आँख तो फिर आँख ही है न—नारी
नयनसर काहू न लागा—तुलसीबाबा बहुत पहले ही अगाह कर गए हैं आँखों के बावत । इन
दोनों तरह की आँखों के व्यामोह से बच गए यदि तो सन्तत्व घर बैठे ही सिद्ध हो
जायेगा। किसी तीर्थ-सेवन की जरुरत ही नहीं पड़ेगी।
हालाँकि
ये कहकर मैं महान तीर्थों की अवहेलना नहीं कर रहा हूँ। सनातन तीर्थस्थल परम वन्दनीय
हैं, सेवनीय हैं—वशर्ते कि उनका तीर्थत्व यथावत हो। बाजारवादियों और पाँखण्डियों से
बचा हो।
आप
जानते ही हैं कि बात अब पहले वाली बिलकुल नहीं रह गई है। पहले, तीर्थयात्रा बड़े
सौभाग्य से यानी पूर्व पुण्यों के फलिभूत होने पर ही हो पाती थी। तीर्थयात्रा अपने
आप में बड़ी तपस्या थी। यात्राएँ बहुत कष्टसाध्य होती थी। साधन-सुविधाओं का बिलकुल
अभाव था। फिर भी हिम्मत जुटा कर, बड़े लगन और जतन से लोग तीर्थयात्राएं सम्पन्न
करते थे, बहुत सतर्कता से। कहीं कोई जाने-अनजाने अपराध न हो जाए। किसी का अनिष्ट न
हो जाय। यम-नियम की दसों सीढ़ियों का ध्यान रखा जाता था—कहीं किसी सीढ़ी पर कोई
चूक न हो जाए। कोई फिसलन न हो जाए।
किन्तु
अब?
अब
लगभग सभी तीर्थस्थल अत्याधुनिक साधन-सुविधा सम्पन्न पर्यटनस्थल बन चुके हैं। स्वेच्छा
सहयोग राशि वाली धर्मशालाएँ पाइवस्टार होटलों में तबदील हो चुकी हैं। कुछ जो नहीं
बदल पायी हैं, उनकी भी जोर-शोर से तैयारी चल रही है। कुम्भ-मलमास मेले में भी अत्याधुनिक
टेन्ट-सीटियाँ वसायी जाती हैं। ‘पर्यटन’ अब एक अच्छा-खासा व्यवसाय का रूप ले लिया है। ‘सेवा’ का मौलिक अर्थ और भाव बदल गया है। लोग भी तीर्थयात्रा के पावन उद्देश्य
और भाव से नहीं निकलते, बल्कि पिकनिक मनाने निकलते हैं। मौज-मस्ती करने निकलते
हैं। ऐसे में घर से भी बेहतर सुविधा की तलाश तो होगी ही न ! और
मनमाफिक सुविधा चाहिए, तो सुविधा पाने की मनमानी कीमत भी चुकानी ही होगी। बहुरूपिये
‘कालनेमी’ ठगने निकलते हैं, अन्धभक्त
और अकूत कामनाओं के भिखारी ठगाने की होड़ में रहते हैं। भेड़ की खाल में भेडियों
की भरमार दिखती है। असली-नकली की पहचान मुश्किल हो गई है।
खैर,
किसी को कोसते रहने या अपने आप में कुण्ठित होते रहने से कहीं अच्छा है कि मौका
मिला है तो हड़बड़ियाजी का साथ दे ही दूँ इस बार संगम-स्नान-यात्रा में।
हमलोगों
की नियत ट्रेन छूट गई महज दो मिनट के लिए। मैं तो आधे घंटे से स्टेशन पर इन्तजार
कर रहा था, किन्तु हड़बड़ियाजी की अपनी दुपहिया ट्रेन समय पर पहुँची नहीं, इस कारण
मुझे भी सामने खड़ी ट्रेन की खिड़कियाँ झाँकते उन्हें कोसते, भुनभुनाते खड़ा रहना
पड़ा, क्योंकि टिकट भी उन्हीं की जेब में थी।
उधर
ट्रेन प्लेटफॉर्म छोड़ी, इधर हड़बड़ियाजी प्लेटफॉर्म पर दाखिल हुए अफसोस करते हुए—
“ धत्तेरे की...अब क्या करें...क्या कहें...आधा घंटा तो खैनी के चुनौटिए
खोजने में लग गया...। ”
मैं
भलीभाँति जानता हूँ कि हड़बडियाजी खैनी-तम्बाकू के सख्त विरोधी हैं। हो न हो, उनके
साढूभाई पधार गए हों, जिनके होठ खैनी से कभी खाली ही नहीं रहते। दुर्भाग्य से रिस्ते
में बड़े हैं और बात श्रीमती के बहनोई की है, इसलिए विरोध का सवाल भी नहीं उठता।
मैंने देखा कि हड़बड़ियाजी दोनों पैर में दो तरह
के चप्पल डाले हुए हैं—डिजाइन तो दोनों का एक ही जैसा है, किन्तु रंग में फर्क है।
मुझे पता है कि इन्हें कलर-व्लाइडिंग की पुरानी समस्या है। जाहिर है कि हड़बड़ी
में हड़बडियाजी ने साढूभाई वाला चप्पल ही डाल लिया एक पैर में। किन्तु इसपर कुछ
कहना मुनासिब न लगा मुझे।
आधे
घंटे बाद अगली ट्रेन में धक्कामुक्की खाते सवार हुए। प्रयागराज स्टेशन पहुँचते-पहुँचते
दोपहर के बारह बज गए। भीषण गर्मी, भूख-प्यास की अकुलाहट अलग। किसी निश्चित ठौर की तलाश में हड़बड़ियाजी
ने अपने परिचितों को फोन लगाना चाहा, किन्तु जेब में हाथ डालकर पुनः पुरानी आवाज
निकालने लगे— “धत्तेरे की... साढ़ुभाई के खैनी के चुनौटी के चक्कर में फोनवों तो घरहीं
छूट गया...अब क्या करें...। किराए की शहरी जिन्दगी में पता नहीं कौन कहाँ मिलेगा।
किसीका डेरवो नहीं इयाद है। फोन होता तो पूछपाछ भी करता...। ”
स्टेशन
से बाहर निकले। सड़क पार करते ही, सामने एक रबड़ी वाले की दुकान नजर आयी।
हड़बड़ियाजी के मुँह में पानी भर आया— “ चलो पहले रबड़ी खाएँ...बहुत मशहूर है यहाँ की रबड़ी। मिजाज तर हो, फिर
ठौर-ठिकाने की तलाश होगी। ”
छाठ
रुपये वाला एक-एक कुल्हड़ दोनों के हाथों में थमाते हुए दुकानदार ने कहा— “
खुल्ले पैसे देने होंगे...यहाँ ज्यादातर लोग पाँच सौ का नोट भुनाने
चले आते हैं...। ”
जी
चाहा कि रबड़ी भरा कुल्हड़ उसके मुँह पर दे मारूँ, किन्तु तभी ध्यान आया, शास्त्र
कहते हैं कि तीर्थयात्रा में नियम-संयम रखना बहुत जरुरी होता है। ‘कम खाओ और गम खाओ’ की सीख बूढ़े-बुजुर्ग दिया
करते हैं। किन्तु आजकल लोग दोनों काम ठीक उल्टे अन्दाज में करते हैं—गाड़ी में
बैठते ही भुक्खड़ों की तरह खाना शुरु कर देते हैं और बात-बात में किसी से उलझने भी
लगते है।
संयम
भी ऐसे ही बेवक्त परीक्षा लेने लगता है—कहाँ-कहाँ आदमी संयम वर्ते...।
त्रिपाल
की आड़ में खड़े होकर, काठ के चम्मचे से चखने के अंदाज में थोड़ा सा रबड़ी मुँह
में डाला। लगा कि सिर घूम गया। जीब ऐंठ सी गई। ऐसा सु-स्वादु रबड़ी अबसे पहले कभी
नहीं चखा था। मशहूर रबड़ी दुकान का ये हाल है ! मक्खियाँ
भिनभिनाती नाली में थूक फेंकते हुए, रबड़ी का कुल्हड़ सामने की मेज पर पटक दिया—इसे
उठा ले जाओ, बिलकुल खाने लायक नहीं है।
किन्तु
मेरे कहने का कोई असर नहीं हुआ तोंदैले दुकानदार पर। उसकी नजर हड़बड़ियाजी पर थी, जो
बडे चाव से रबड़ी खाकर,कुल्हड़ चाट रहे थे और बगलें झाँक रहे थे, मानों तृप्ति
नहीं हुई है।
“
क्यों तुम्हें अच्छा नहीं लगा...एकदम स्पेशल वाला जीभ है...। मैं तो
जब कभी भी इलाहाबाद आता हूँ, इस दुकान का रबड़ी जरुर खाता हूँ। ” — कहते हुए मेरा कुल्हड़ भी उठा कर पलक झपकते साफ कर दिए। जीभ स्पेशल मेरा
है या उनका— मैं मन ही मन सोचने लगा। दुकानदार भी अपनी मूँछ सहलाते हुए शायद यही
सोच रहा था।
मशहूर
रबड़ी दुकान से बाहर आकर ऑटोरिक्शा लिया और पहुँच गए किले के समीप। वहाँ से संगम
का रास्ता पकड़ते ही नाव वालों का पूछ-पाछ शुरु हो गया। अस्सी रुपये में तय करके
एक नाव लिया, जो सीधे संगमतट पर पहुँचा दिया।
तटपर
चारों ओर रस्सियों से सुरक्षित पंडों की दुकानें सजी थी। दूसरी ओर पानी की गहराई
अधिक होने के कारण बरसाती मेढकों की की तरह टर्राते पंडे अगाह कर रहे थे—रस्सियों से
सुरक्षित क्षेत्र में आकर स्नान करने के लिए। किन्तु इस सुरक्षित संगम स्नान के
लिए उन्हें प्रतिव्यक्ति अस्सी रुपये देने होंगे—यानी प्राकृतिक धरोहर—संगमतट को
भी दुकान बना लिया है इन लोगों ने। तीर्थ के प्रति श्रद्धा-आस्था को जोरदार ठेस
लगी। मन झल्ला उठा उनकी इस धाँघली से। हड़बड़ियाजी ने बतलाया कि नाववालों के साथ
पंडों की मिलीभगत है यहाँ। बिना पूजा-दक्षिणा के स्नान नहीं कर सकते।
मनमार
कर आगे बढ़ा। कंधे पर का झोला उतारते हुए हड़बड़ियाजी ने फिर अपनी तकियाकलाम
दुहरायी— “ धत्तेरे की...झोलवो हम अपना वोला घरहीं छोड़ दिए...ये तो श्रीमतीजी वाला
झोलवा है, जिसमें उनके ही कपड़े हैं...अब नहाऊँ तो कैसे...? ”
हड़बडियाजी
गलहथिया मारे नाव पर ही बैठे रह गए। जेब से अस्सी रुपये निकालकर, पंडायनमःस्वाहा
किया और कमर भर पानी में उतर कर डुबकियाँ लगाने लगा। एक मुच्छैल पंडे ने आवाज
लगायी—जल्दी करो...और भी लोग पीछे हैं नम्बर में...। जाहिर है कि अस्सी रुपये में
अस्सी डुबकी लगाने की अनुमति नहीं है पंडागुण्डा से।
दस
रुपये में एक डब्बा खरीदकर, त्रिवेणी का जल भरा और उसी नाव से फिर वापस आ गया किले
के समीप। भीषण गर्मी और भूख के मारे जी घबरा रहा था। हड़बड़ियाजी के साथ समीप के
ही एक वैष्णव भोजनालय में पहुँच गया। अस्सी रुपये वाला दुम यहाँ भी लटका था—भरपेट शुद्ध
शाकाहारी भोजन मात्र अस्सी रुपये में।
हड़बडियाजी
ने घुसते ही अगाह किया— “ मेरा तो डिजिटल
ट्रांजेक्शन वाला हथियारवे घरे रह गया...जेब में नगदी हिसाबे से है...घर वापस भी
तो चलना है न...। ”
जाहिर
है कि भोजन का नगद बिल भी हमें ही भरना है। हड़बड़ियाजी का फोन और दोस्तों के नाम-पते
वाली डायरी बैग में ही रह गई। ऐसे में घूमने-फिरने-रहने-खाने का कोई विकल्प नहीं। संगम
स्नान का अकेला पुण्य लूट ही लिया। अतः अब सीधे स्टेशन चलने में ही भलाई है।
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