स्वतन्त्रता
दिवस की कड़वी जलेबी
पाँच
किलो वाले पोलीबैग में गर्दन तक जलेबियाँ भरे, सोढ़नदासजी मेरे घर में ऐन दोपहर के
वक्त दाखिल हुए, जब मैं भोजन से निवृत्त होकर, जरा आराम फ़रमाने के मूड में था। ऐसे
में थोड़ी झुँझलाहट तो हुई, किन्तु चेहरे पर आने से पहले ही उसे डपटकर, मॉर्डन
मुस्कान वाला मुखौटा ओढ़ लिया।
बड़ी
विचित्र है दुनिया की स्थिति। कई तरह के मुखौटे रखने होते हैं, अन्यथा बात-बात पर
बे-पानी होने का नौबत आ जाए। काश ! ब्रह्माजी से कभी
मुलाकात होती तो कहता कि अपने जैसा ही हम इन्सानों को भी चेहरे का ‘मल्टीसेट’ दे
देते।
सोढ़नदासजी
अन्दर आकर, कोने में अपनी छड़ी खड़ी किए और हाथ का पोलीबैग मेज पर रखकर, चौकी पर
पसर गए— “ बहुत थक गया हूँ बबुआ ! सुबह से आठ-दस झंडोत्तोलन
में भाग लेना पड़ा। किसे ना कहूँ...सब तो अपने ही हैं...।”
मैंने
गौर किया कि जलेबियों पर मक्खियोँ की जमात भिनभिना रही है, जैसे राशन की दुकानों
पर दो रुपये किलो चावल-गेहूँ लेने वाले गुत्थमगुत्था होते रहते हैं। मुफ्त की
चीजों पर मुँह मारने की लत ऐसी ही होती है, चाहे मक्खियाँ हो या इन्सान। मुफ्तखोर
की दावेदारी भी बड़ी मजबूत और सघन होती है—निश्चित ही मक्खियों की संख्या जलेबियों
से कई गुना अधिक थी। पोलीबैग में एक-दो हड्डे भी घुसे बैठे थे, जो आराम से
जलेबियों का रसपान कर रहे थे। बेचारी मक्खियाँ तो ऊपर-ऊपर भी भिनभिना रही थी, उन्हें
कहाँ हिम्मत हड्डों से सामना करने की। असली तर माल तो हड्डे-बर्रे ही मारते हैं, छोटी
मक्खियाँ तो सिर्फ मौके-बेमौके भिनभिनाने का काम करती हैं।
पोलीबैग
को टेबल पर से उठाकर मेरी ओर बढ़ाते हुए सोढ़नदासजी ने कहा—“
इन हड्डों को बाहर करो और इच्छा हो तो इसमें से कुछ जलेबियाँ तुम भी
रख लो बबुआ ! बाकी को मुहल्ले के बच्चों में बाँट दूँगा। राष्ट्रीयपर्व
की राष्ट्रीय मिठाई है। आज के दिन इसे खाना और बाँटना ही नहीं, मुफ्त में मिलना भी
बड़ा सौभाग्य माना जाता है । पिज्जा-वर्गर को भूल कर आज लोग जलेबियाँ खाते हैं।
तिरंगा फहराते हैं, जयहिन्द का नारा लगाते हैं, जलेबियाँ खाते हैं और गप-शप करते घर
जाते हैं। फिर कोई राष्ट्रीय त्योहार आये, तो इन दोनों को याद करते हैं। बाकी दिन
न राष्ट्र न राष्ट्रीयता...।”
कुछ
जलेबियाँ घर भी ले जाइये, बीबी-बच्चों को खिलाइये—मैं कह ही रहा था कि हाथ मटकाते
हुए बोले—
“ हमें सिर्फ एक गिलास ठंढा पानी पिला दो। ये जलेबियाँ मुझे न जाने
क्यों बड़ी कड़वी लगती हैं। 14अगस्त की रात मैं शायद ही चैन
से सो पाता हूँ कभी। पुराने जख़्म ताजे होकर रिसने लगते हैं। इसी मनहूस दिन को
भारतमाता की दोनों बाजुएँ काटी गई थी और आधी रात को स्वतन्त्रता-समझौते पर
हस्ताक्षर हुए थे। उत्साहित लोगों ने जमकर जश्न भी मनाया था लहूलुहान स्वतन्त्रता
का और ये सिलसिला कुछ दिनों तक जारी भी रहा था—लाशों से भरी रेलगाड़ियाँ आती रही
थी। मुझे तो आज भी इन जलेबियों से लहु की बू आती है। मिठास कम, कड़वाहट ज्यादा
लगती है। तथाकथित स्वतन्त्रता तो मिली, किन्तु इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। शताब्दियों
के संघर्ष-त्याग और बलिदान को विसार-दरकिनार कर , असली बलिदानियों को ‘बैकफुट’ पर डाल दिया गया और सींकचों की आड़ में
कबाब-शबाब का लुफ़्त उठाने वाले सत्तर वर्षो तक मोस्ट हाई लाईटेड रहे। हालाँकि अब थोड़ी-थोड़ी राहत मिली है। इधर
चन्द वर्षों से कुछ-कुछ लग रहा है कि हम स्वतन्त्रता की ओर अग्रेसित हो रहे हैं...।
”
गिलास
का पानी हलक में उतार कर सोढ़नूकाका फिर कहने लगे— “ ये कैसी
स्वतन्त्रता है बबुआ ! कि 95%वाला
मेरिटलिस्ट से आउट हो जाता है और 40%वाला मेरिटोरियस बनकर
कुर्सियाँ डटाता है? ये कैसी स्वतन्त्रता
है बबुआ ! कि एक ओर जाति मिटाओ की बात करते हैं और दूसरी ओर
जाति प्रमाण-पत्र भी निर्गत करते हैं ? हमविस्तर होने के लिए
जाति नहीं पूछते, किन्तु सरकारी नौकरी में जातिगत वरीयता है ! समुचित विकास के नाम पर महज दस वर्षों का भुलावा देकर, स्वतन्त्रता के आठवीं
दशक में भी आरक्षण की नशीली-जहरीली पुड़िया गटकने को विवश हैं देशवासी। नेता कितना
हूँ नालायक क्यों न हो, अँगुली भी रंगवायेंगे जाति-विचार करके ही। ये कैसी स्वतन्त्रता
है बबुआ ! कि हिन्दूराष्ट्र बनाने की कवायद तो खूब कर रहे हैं,
परन्तु गोवंश का वध रुक नहीं रहा है ?
गोमांस-निर्यात-अनुबन्ध को अभी भी निरस्त करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं ? ये कैसी स्वतन्त्रता है बबुआ ! कि गायों के देश में
कुत्तों की वकालत हो रही है? स्वर्णक्षीरी देशी गायों की नस्ल नेस्तनाबूद हो
रही हैं और हाईब्रीड गाएँ और उससे भी हाईब्रीड कुत्ते पनाह पा रहे हैं? ये कैसी स्वतन्त्रता है बबुआ ! कि कर्नल पुरोहित जैसे
राष्ट्र-शुभेच्छु को कारागार में ढूँस दिया जाता है? ये कैसी
स्वतन्त्रता है बबुआ !
कि जनरल रावत का विमान ऐन वक्त पर दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है? ये कैसी स्वतन्त्रता है बबुआ ! कि रात दो बजे कर्मनिष्ट पत्रकार को पाँचवीं
मंजिल से नीचे फेंक दिया जाता है और दिल के दौरे की खबर छाप दी जाती है। लोकतन्त्र
का चौथा खम्भा—स्वच्छ-स्वतन्त्र पत्रकारिता कलात्मक ‘चाटूकारिता’ के लिबास में ग्राउण्डजीरो का रिपोर्ट पेश कर रहा है! ये कैसी स्वतन्त्रता है बबुआ ! कि अँगूठेछाप को सलामी IAS-IPS दागता हो ! फाइल ढोने
वाले के लिए डिग्री और फाइल पर साइन करने वाले के लिए ककहरा भर !! राष्ट्रहित को ताक पर रखकर, वोटबैंक के खातिर करोड़ों घुसपैठियों को सहज
ही नागरिकता से नवाज़ा जाता है और असली नागरिक अपनी जली-कच्ची लिट्टी को सहेज भी
नहीं पा रहा है ! ये कैसी स्वतन्त्रता है बबुआ ! कि तथाकथित ‘धार्मिक न्यास बोर्ड’ का विषधर
नाग फन फैलाए हमारे मठों और मन्दिरों में बैठा, आस्थावानों की आस्था को ठेंगा
दिखाकर, उनके द्वारा दिए गए दान को गैरजिम्मेदाराना अन्दाज़ में हड़पकर ऐरेगैरों
को लुटा रहा है। ये कैसी स्वतन्त्रता है बबुआ ! जहाँ ‘सत्यमेव जयते’ का स्लोगन लगाए, न्याय तिजोरियों में
बन्द है, क्यों कि झबरे कुत्तों की मोटी खुराक आम नागरिक जुटा नहीं पाता। टैक्स-पेयर
को चूस-चूसकर बड़े-बड़े अस्पताल तो बनाये जा रहे हैं, आधुनिक मशीनें भी लगायी जा
रही हैं, किन्तु प्रॉपर ऑपरेटर या कहें
समुचित व्यवस्था के अभाव में सारी मशीनें
कुछ दिनों बाद कबाड़ी के यहाँ ट्रान्सफर हो जाती हैं। और बेचारा आम आदमी
कुकुरमुत्तों की तरह चहुँ ओर पसरे प्राइवेट नर्सिंगहोम के जोंकों और भेड़ियों का
शिकार बनने को विवश है। शिक्षा माफिया भी अपने चरम पर है। उनकी बिल्डिगें रोज ऊँची
और ऊँची होती जा रही हैं और सरकारी स्कूल
गोरक्षिणी में तबदील होते जा रहे हैं। मजे की बात है कि सरकारी ‘माट’साब’ को पढ़ाना छोड़ बाकी
सब काम करना है...।’ ”
मैं कुछ कहना चाहता था, किन्तु सोढ़नदासजी का LP रेकॉर्ड रूके तब न। वे कहे जा रहे थे— “ आर्यावर्त में शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय—ये तीनों निःशुल्क हुआ करते थे। ‘इण्डिया’ में मेकाले के वंशजों ने शिक्षा को सर्वोत्तम व्यापार बना दिया। ABCD सीखने में दो-चार लाख न लगे तो शिक्षा कैसी ! औषध-दान उत्तम दान की श्रेणी में था। चरक-सुश्रुत-वाग्भट्ट का गला घोंटकर बैक्ट्रीयोलॉजिस्टों ने वायरस की तरह चहुँओर अपना साम्राज्य फैला दिया, जहाँ मुर्दे को भी ‘वेन्टीलेटर’ पर रखकर महीनों उगाही की जाती है। रही बात न्याय-व्यवस्था की... न्याय देना तो राज-धर्म है न। राजा का कर्तव्य है न । उसके लिए किसी तरह का शुल्क क्यों और ये ‘ऑक्फोर्डी प्रोडक्ट’ का झाँव-झाँव क्यों? इनका क्या काम है न्यायालय में? बनी बात को बिगाड़ना, साधारण बात को भी उलझाकर रखना, समय बरबाद करना, न्यायाधीश को भी भ्रमित और गुमराह करना। और ये तथाकथित न्याय संहिताएँ—अरे बबुआ ! कानून की मोटी-मोटी किताबें इसके लिखने वाले को ही ठीक से समझ नहीं आयी तो भला पढ़ने और सुनने वाले को क्योंकर समझ आयेगी ! और उससे भी मजेदार बात—45 डिग्री वाले देश में 0 डिग्री वाला ड्रेसकोड अभी तक बदला नहीं जा सका, उस न्यायालय से हम कितनी आशा रख सकते हैं सत्य और न्याय की ! ”
जरा दम लेते हुए सोढ़नदास जी ने कहा— “ हमारी स्वतन्त्रता के अठहत्तर वर्ष पूरे हो गए यानी 79वें.वर्ष में प्रवेश हो गया। हाँ, एक बात की स्वतन्त्रता जरुर अनुभव करते होओगे बबुआ ! जब, जिसे, जितना मन हो गरिया सकते हो—बोलने की पूरी आजादी है। आलोचना का सही अर्थ जाने बगैर, आलोचना की पूरी छूट है। सड़कजाम, धरना-प्रदर्शन, तोड़-फोड़, आगजनी करने की पूरी छूट है। अगर तुम्हारे ऊपर किसी चाटूकार या लफंगे का वरदहस्त हो या किसी समूह विशेष से वास्ता रखते हो तो, तुम्हारे ऊपर किसी तरह का अंकुश नहीं लगाया जा सकता—बेचारा कानून तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता । परिवार-समाज का बोझ, निकम्मा, निठल्ला, अनपढ़, गँवार, लफंगा मार-धाड़, चोरी-चण्डाली कुछ भी करके किसी तरह का छोटा-मोटा चुनाव जीतने की भी कूबत रखते हो यदि तो दो-चार उड़ान में बड़ा नेता बन जा सकते हो। और ये नेतागिरी ही तो लोकतन्त्र की रीड़ है। रीड़ में मालिश करते रहो। रीड़ की मालिश करते रहो। जलेबियाँ मिलती रहेंगी।”
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