मूर्खता के बाड़े में विद्वत्ता की कब्र

 

           मूर्खता के बाड़े में विद्वत्ता की कब्र

आज मुँहअन्धेरे ही आँखें खुल गई, बजह-बेवजह टोक-टाक करते रहनेवाली श्रीमतीजी के लिपएलार्म के  वगैर ही, तो मन के भीतरी वातावरण में छतिवन के सुगन्धित फूलों की खुशबू तैर गई। लगा कि कोई बहुत बड़ा खिताब जीत लिया आज।

अभी इस आनन्द को सहेज़ने की कोशिश में ही था कि देवीजी का फ़रमान आया— आज बेड टी का इन्तज़ाम नहीं है। दूध बिल्ली पी गई है रात में ही...।

ज़ाहिर है कि या तो बाहर जाकर पैकेट वाला दूध लाऊँ या नौ बजे तक ग्वाले का इन्तज़ार करूँ।

नौ बजने में चार घंटे देर है। ऐसे में बेहतर लगा कि इसी बहाने मॉडर्न स्टाइल वाला मॉर्निंगवाक का लाभ ले लूँ।

मिल्कबूथ भी तो साढ़ेपाँच बजे के पहले खुलता नहीं, इसलिए शुद्ध हवाखोरी के ख्याल से सड़क की ओर जाने के बजाय फल्गु की ओर निकल गया। संयोग से इस साल बारिश अच्छी हुई है, इस कारण फल्गु का रेत बिलकुल साफ-सुथरा है। यह भी संयोग ही है कि अभी तक किसी समझदार नागरिक या नगरनिगम की कृपा नहीं हुई है, जो यहाँ-वहाँ कूड़ों का ढेर लगा दे प्रकृति के लावारिस रेत पर। किन्तु हाँ, चुँकि बालू बिलकुल साफ-सुथरा है, इसलिए आसपास के लोग निजी निर्माण कार्य के लिए बोरियों में धुआँधार भराई कर रहे हैं। आसपास की प्राकृतिक सम्पदा पर जनसमुदाय का स्वत्वाधिकार हुआ करता है, खासकर तबतक जबतक किसी नेता या छुटभैयों की कृपादृष्टि का प्रकोप न हो। जंगल, नदियाँ, पहाड़ आदि तो खासकर जनसेवकों के लिए सुरक्षित रखी गई हैं न प्रकृति द्वारा ! राष्ट्र बेचने में तो बहुत तिकड़म करना होता है, फिर भी सफलता नहीं मिलती, जबकि प्राकृतिक सम्पदा लूटना-बेचना ज्यादा आसान है। यही कारण है कि इन सबका राष्ट्रीयकरण बहुत पहले ही कर दिया गया था एक दूरदर्शिनी द्वारा।

खैर, मेरे जैसे अदने आदमी को इनसब गहरी बातों में बेजा भेज़ा खपाने का क्या तुक है—ध्यान आते ही,कदम थोड़े तेज हो गए। किन्तु बामुश्किल फर्लांग भर आगे बढ़ा था, तभी बायीं ओर नयी पुलिया से आगे कुछ कोलाहल सुनाई पड़ा। उत्सुकतावश कदम उधर ही बढ़ चले। नजदीक पहुँचने पर उत्सुकता आश्चर्य में बदल गई। कौतूहल का वजह था—सोढ़नदासजी का असमय-अप्रत्याशित दर्शन ।

चार-पाँच मजदूरों और छोटी वाली मुँहनोचवा मशीन द्वारा (जिसे पढ़े-लिखे लोग जे.सी.बी. कहते हैं) फल्गु के रेत पर बड़ा सा तालाबनुमा गड्ढा बनाने का काम चल रहा था। आठ-दस मजदूर उस खोदे जा रहे गड्ढे के चारों ओर कटीली बाड़ लगाने के जुगाड़ में लगे हुए थे।  और मजेदार बात ये कि इन सबको लीडकर रहे थे— स्वनाम धन्य सोढ़नदासजी।

पास पहुँचते ही, मेरी आँखों के कौतूहलपूर्ण सवाल का बिना पूछे ही जवाब दिया उन्होंने— विद्वानों के लिए कब्र का इन्तज़ाम कर रहा हूँ बबुआ ! और उधर देखो, वो कटीड़ी-नुकीली बाड़ लगायी जा रही है, जहाँ मूर्खों का 24x7 पहरा रहेगा, ताकि भूल-चूक से भी कोई विद्वान बाहर न निकल भागे।  तुम सुने ही होओगे कि पिछले साल ही कई विद्वान कब्र से भी निकल भागे थे। और हाँ, ये नियम और सिलसिला किसी भी पर्व-त्योहार से महीने भर पहले से  ही लागू कर दिया जायेगा। इतना ही नहीं, दो महीने पहले से ही सबके मोबाइल जप्त कर लिए जायेंगे, क्योंकि नये तो नये, पुराने वाले खूसट बुढ़ऊ भी धुआँधार मोबाइल इस्तेमाल कर रहे है—रात-रात भर जाग कर। जिनकी बीबियाँ ऐन जवानी में ही छोड़कर चली गई हैं उनकी विद्वत्ता से उबिया कर, उन्हें तो थोड़ी माफी भी है, किन्तु बुढ़ापे में भी जिन्हें पत्नी-सुख का लाभ विधाता ने स्पेशल ग्रेस में  दे रखा है, वो तो कतई माफी के लायक नहीं हैं। और हाँ, फल्गु के आसपास जैमर लगाने के लिए भी संचारमंत्रालय से आग्रह किया गया है। क्योंकि कोई-कोई मनोरोगी सठिआये विद्वान लंगोट में भी मोबाईल छिपा कर रखते पाये गए हैं। कुछ तो ऐसे भी होते हैं, जो पेड चैनलों पर एडभान्स इन्टरव्यू रेकॉर्ड करा देते हैं। सोशलमीडिया पर भरोसेमन्द-दीवाना-ज़ाहिल समाज तंग आ चुका है इनकी हरकतों से...।

सार्वजनिक संचार माध्यम पर जैमर लगने से पहले सोढ़नदासजी की ननस्टॉप बातों पर जैमर लगाना, मुझे जरूरी लगा, इसलिए टोकना पड़ा—सोढ़नूकाका !  आप कह रहे हैं कि विद्वानों के लिए कब्र का इन्तज़ाम कर रहे हैं, यानी आप अपने लिए भी कब्र खुदवा रहे हैं?

       काले बदसूरत होठों पर लाली लगाकर खूबसूरत दिखाने वाले अन्दाज में होठों पर फीकी मुस्कान का लेप लगाते हुए काकू बोले—अरे बबुआ! मैं भला कब से विद्वान हो गया ! वो तो कहो कि पूर्वजों का आशीर्वाद और ईश्वर की कृपा का प्रभाव है कि विद्वानों की मण्डली में भी धकिया कर घुस जाता हूँ। या कहें, कन्वेंटीप्रोडक्ट लोग विद्वान मान लेने को विवश हो जाते हैं कभी-कभी, क्योंकि उनके पास गूगलबाबा के अलावे और कुछ प्रमाणिक हथियार तो है नहीं । पाणिनी-पतञ्जलि का मुँह नहीं देखे तो व्यास की बातें क्या खाक पल्ले पड़ेगीं उन्हें ! पूर्वजों का संजोया पुराना पोथी-पतरा कबाड़ीवाले को देकर ड्राईंगरूम को सजा लिए हैं एक्वॉयरियम रखकर। ऐसे में मुझ जैसा अल्पज्ञ भी कभी-कभी विद्वान मान लिया जाता है। दरअसल बात जब विशुद्ध विद्वत्ता की होती है, शास्त्रीय श्लोकों का गूढार्थ निकालकर, विवेकपूर्ण निर्णय की होती है तो गुगलियों की गाड़ी फँसने लगती है या कहो जानने-समझने-पचाने में हाज़मा बिगड़ने लगता है। जिस निर्णयसिन्धु और धर्मसिन्धु को लोग निर्णयात्मक शास्त्र माने बैठे हैं, क्या वास्तव में वो अन्तिम सत्य की तरह विशुद्ध निर्णय है ?  कदापि नहीं । वस्तुतः वह तो विभिन्न आर्ष सिद्धान्तों और मतों का संग्रह मात्र है, जिसे पढ़कर, विचारकर, अपनी विवेकवती बुद्धि से सही समीचीन निर्णय पर पहुँचना होता है। सत-असत की विवेकवती बुद्धि को पण्डा कहते हैं और ये क्षमता हो जिसमें  वही पण्डित कहलाने योग्य है, बाकी तो सब टीक-टीकाधारी पंडी जी हैं। सनातनियों के पग-पग का, पल-पल का दिशानिर्देशक पञ्चांग तो साहूकारों का बही-खाता बन गया है। सोचनेवाली बात है कि सभी साहूकारों का बही-खाता एक जैसे हिसाब वाला भला कैसे हो सकता है ...कोई नई बात नहीं हुई तो नया खाता कैसे हुआ? सभी पंचांग जब एक ही मूहूर्त की बात करेंगे, तो अलग-अलग पंचांग छापने-बेचने का औचित्य क्या...घर में रखी चार घड़ियाँ जब एक ही समय बताये तो चार घड़ी रखने से फायदा क्या...है न विचारणीय बात? ”

            मैं फिर टोकना चाहा, किन्तु काकू का एल. पी. रेकॉर्ड रूका नहीं। बोलते ही रहे— ...हर क्षेत्रीय अपने-अपने पंचांग बना लिए हैं, सुविधानुसार अपनी-अपनी पूजा-पद्धतियाँ बना ली हैं। सैधान्तिक टकराव और मतभेद की बात आती है, तब क्षेत्रीय परम्परा का ढाल आड़े आ जाता है। मजेदार बात ये है कि रुद्राभिषेक का रॉक-पॉप धुनवाला बम्बईया स्टाइल सुनकर तो भोलेनाथ पितामहेश्वर और मार्कण्डेय मन्दिर छोड़कर, अज्ञातवास में कब के जा चुके हैं। गया से गयाजी कहलाने की होड़ वाली विष्णुनगरी के विद्वानों द्वारा प्रचारित गयाश्राद्ध की अधुनातन पद्धति के कर्मकाण्ड से घबराकर कितने ही पितृगण कोमा में चले गए और जो थोड़े होशोहवास में बचे रहे वो बेचारे धर्मराज के दरबार में जाकर अर्जी लगाये कि उन्हें आगामी महाप्रलय पर्यन्त महा विकराल रौरवनरक में ही क्यों न छोड़ दें, किन्तु पितृपक्ष का पिण्डदान ग्रहण करके मुक्त होने हेतु गया जाने की अनुमति कदापि न दे। यहाँ तक कि यमदूतों ने यमराज से निवेदन किया है कि रिभाइज्ड वारण्ट इशू करें, ताकि जल्दी से जल्दी सभी पाखण्डियों को यमलोक का दर्शन कराया जा सके। किन्तु दूसरी ओर विष्णु के कनिष्ट पुत्र कलियुग ने अपनी पूरी मण्डली के साथ जाकर शेषशायी विष्णु का क्षीरसागर में ही घेराव कर लिया है। उसका कहना है कि कलिकाल के पाँच हजार से अधिक वर्ष व्यतीत हो जाने के वावजूद धर्म का डंका क्यों बज रहा है अभी भी आर्यावर्त में...। कुल मिलाकर कहें तो सभी ऊर्ध्वलोकों में त्राहि-त्राहि मची हुई है। त्रिदेवों की गुप्त आपात बैठक बुलायी गई है, जिसमें किसी पत्रकार के प्रवेश की अनुमति नहीं है। अटकलें लगायी जा रही है कि भारतवर्ष में फिर से इमर्जेंसी न लागू हो जाय...।

            सोढ़नदासजी के आज के इस लेबर-लीडिंग-प्लान का राज़ अब खुलने लगा था मेरी समझदानी में कि क्यों तत्पर हैं फल्गु की रेत पर मूर्खों की पहरेदारी में विद्वानों का कब्र खोदवाने के लिए।

     सोढ़नदासजी अभी भी बके जा रहे थे। मन की भड़ास निकाले जा रहे थे—  ...समय बहुत खराब है बबुआ ! जमाना बहुत बदल चुका है। लम्बा उबाऊ कर्मकाण्ड न यजमान के बस में है और न पेशेवर पण्डितों के बस में ही। सोचने वाली बात है कि पैतींस-चालीस वर्षों तक ब्रह्मचर्य का लिहाफ ओढ़े  या  लीव इन रिलेशनसिप में रहने वालियों को हरितालिकाव्रत के शुद्ध मुहूर्त के चक्कर में पड़ने का क्या प्रयोजन?  मालाडीन और सेफ 72 के जमाने में  पेट फड़वाकर एकाध बच्चे पैदाकर, आया-बाया से लालन-पालन करवाकर, कॉन्वेटी बनाकर विदेशी बनाने वालों के लिए वंश-विस्तार के प्रतीक नोनी के साग और सतपुतिया झिंगी वाले जिऊतियाव्रत के शुभ मुहूर्त के पचड़े में पड़ने की क्या जरुरत है?  गोरण्डों और कुरबों के हिमायतियों के सिर पर आर्यावर्त का आधुनिक मुकुट रखाता देखकर, असली राष्ट्रप्रहरी जिस तरह गुमनामी का जीवन गुजार दिया लम्बे समय तक, उसी भाँति सच्चे साधकों और विद्वानों को भी जहाँ तक हो सके गुमनामी का जीवन व्यतीत करना चाहिए , क्योंकि अब उनकी आवश्यकता नहीं है समाज को। मूर्खों की जमात में मुँहकरखी लगा लेने की जरुरत है उन्हें। उपदेश सुनना नहीं है किसी को, क्योंकि उपदेश देना स्वयं सीख लिए हैं लोग चैट जीपीटी से। अतः कुण्डित रहने से अच्छा है, कब्र में छिप जाना। मनस्वी लोग अब तीर्थाटन और तीर्थवास भी नहीं कर सकते। क्योंकि तीर्थस्थल तो पिकनिक स्पॉट बन चुके हैं, जहाँ राजनैतिक सन्तों का वर्चस्व है। सच बोलने के लिए मुँह खोलोगे तो मुँहकी खाओगे...बेईज्जत होओगे...ठगे जाओगे। ठगे इसलिए जाओगे क्यों कि तुमने ठगना सीखा नहीं, झूठ-फरेब सीखा नहीं, आडम्बर अपनाया नहीं...। किन्तु हाँ, एक निरापद उपाय है—अपनी झोपड़ी को ही वृन्दावन बनाने से भला कौन रोक सकता है ! एकान्त गुमनामी में रहते हुए, कण-कण व्यापी श्रीकृष्ण के दर्शन के योग्य अपनी आँखों को बनाने की आवश्यकता है। इसीलिए आवाहन करता हूँ—आ जाओ मेरे साथ इसी कब्र में।

                           000--000

Comments