एक सूचना


एक सूचना        
    प्रिय बन्धुओं,
         सर्व प्रथम आपके मनोरंजन के लिये मैं अपना सर्वाधिक प्रिय उपन्यास- निरामय प्रस्तुत करने जा रहा हूँ।इस उपन्यास की भी अपनी दर्दभरी दास्तां है।मैं पहले उसे ही सुना लूँ।
         सन् १९८४ ई., नीरस होरहे जन्मस्थली को मन मसोसते हुये त्याग कर,अर्थाभाव की वैशाखी टेकते,पास के ही एक नगर में रोजगार की तलाश में निकल पड़ा।रूपये के अवमूल्यन के साथ-साथ विश्वविद्यालय की उपाधियों का भी ऐसी चिन्ताजनक अवमूल्यन हो गया है- उस समय ही पता चला।स्नातक से अधिक तो अंगूठा छाप कमा रहा है।अन्तर यही कि एक डेली ढोरहा है,और दूसरा कलम और फाइलें।आखिर करता क्या।मन मसोस कर घर से निकला था,और उससे भी अधिक मायूसी से स्वीकारना पड़ा- एक बेकरी की अति सामान्य सी बाबूगिरी- महज तीन सौ रूपल्लों के लिए।भोजन-आवास की चिन्ता न थी,अतः इतना भी अच्छा ही लगा- ना मामा से काना मामा तो बहुत ही अच्छा होता है। कुछ पैसे नयी-नवेली के क्रीम-पाउडर के लिए निकल आयेंगे। और असली बात तो यह है कि कागज,कलम,और स्याही का खर्चा निकलेगा। प्रकाशकों के यहाँ दौड़-धूप भले न हो पायेगा,पर ‘स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’ - में तो कोई कोताही नहीं करनी पड़ेगी।अतः सहर्ष स्वीकार कर लिया- बेकरी की सुपरवाईजरी।अंग्रेजी के इन शब्दों में कितना शाहीपना है-हम गुलाम मानसिकता वालों के लिए ! काम है- देख-रेख।प्रतिदिन लगभग एक बोरी मैदा, पांच-दस किलो चीनी,थोड़ा डालडा-और इतने ही के ‘रुपान्तरण’ का हिसाब रखना।हाँ, यह भी ध्यान रखना कि झुनियां झाड़ू लगाते वक्त दो-चार करेला-विस्कुट अपने मुंह में न धर ले।रामदहिन अंगोछे में लपेट कर ब्रेड-बन एक्सपोर्ट न कर दे।और इतने का ही मैं सुपरवाईजर था। कुल मिला कर, मेरे पास पर्याप्त समय था।अतः बहुत दिनों से दिमाग में खाँव-खाँव करते घटनाक्रमों को सजा देने में जुट गया।विषय-वस्तु पुराना पका-पकाया था।बस ‘निरामय’ की थाली में परोस देना था।सो लगभग पन्द्रह दिनों में पूरा हो गया।और महीने भर में संशोधन भी।और फिर ‘फेयरीकरण’। तीन-चार महीने बाद ‘निरामय’ व्याकुल होने लगा बाहर निकलने को।
    नियोजक से आग्रह पूर्वक महीने भर का समय ले लिया,और विश्वास पूर्वक कुछ अग्रिम नगद नारायण।और निकल पड़ा- ‘दुहिता के वरान्वेषण ’ में।सोचा सबसे पहले गुरुदेव का आशीष ले लूँ- पटना चल कर।
    गुरुदेव उन दिनों पटना वि.वि. के कुलपति पद से अवकाश ग्रहण कर चुके थे।उनकी महति कृपा हुयी मुझ पर,और निरामय पर भी।सप्ताह भर बाद पुनः जब मिलने गया, तब एक छोटी सी टिप्पणी के साथ निरामय की पांडुलिपि सौंपते हुए आचार्यश्री ने मेरा पीठ ठोंका।‘शतसैया के दोहरे,अरु नावक के तीर,देखन में छोटो लगे,घाव करे गम्भीर’- जैसी उनकी टिप्पणी और स्नेह भरे शब्द- मुझ सरीखे नवसिखुए लेखक के अहंकार को बलिष्ठ करने के लिए काफी थे।मुझे भी विश्वास हो आया कि मैं भी कुछ हो गया हूँ।
    राँची,सासाराम,आरा,गया आदि के विद्वानों के आशीर्वचन सहेजते हुए,पहुँच गया लखनऊ- शिवानी मौसी से मिलने।किन्तु वे सोवियत संघ के दौरे पर निकली हुयी थीं।अतः आगे बढ़ गया। राजधानी देखने का कुतूहल सवार हुआ। और फिर बहुत कुछ दीखा महानगरी में- रातों-रात लेखक बनने वाले भी दिखे, और रचनाओं की चोली नोचते-खसोटते प्रकाशक भी।एक ‘श्रीमान’ ने तो यहाँ तक सुझाव दे डाला कि ऐसे आप आजीवन भटकते रह जायेंगे।बस दो ही रास्ते हैं-प्रकाशन व्यय में हिस्सेदारी या फिर ‘नाम’ का मोह त्याग।कहें तो मैं मुंहमांगी रकम दे दूं..अभी...नगद...सोचिये मत...पछताइयेगा...।
    और सच में मुझे ठेस लगी।सपने टूटे-बिखरे।हकीकत की दुनियाँ इतनी घिनौनी होगी- सोचा भी न था।विद्वानों ने ‘रचना’ को ‘दुहिता’ कहा है- ‘काव्यः कुर्वन्ति कविनाः,रसाः जानन्ति पाठकाः।दुहिता कुच-गुप्तांगाः जामाता वेत्तिः पिताश्च ना।।’ अरे! दुहिता हो कि दौहित्र,पुत्री हो या पुत्र- एक गरीब वाप यह जानते हुए भी कि मैं इसका सही लालन-पालन नहीं कर सकता,क्या उसे बेचने को राजी हो सकेगा ? निरामय को बेचने के नाम से ही मेरा हृदय ऐंठ गया।वापस चला आया लखनऊ।शिवानी मौसी आ चुकी थी।उनसे आषीश लिया और सुझाव भी। लखनऊ,
दिल्ली-मेरठ तो नहीं है।फिर भी ‘आत्माराम’ हैं वहाँ।मौसी के सुझावानुसार उनसे मिला।उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया,किन्तु एक शर्त के साथ- ‘मेरा एक नया प्रकाशन जल्दी ही शुरु होने वाला है।नय़े प्रकाशन से नये लेखक का स्वागत करुँगा।’ और फिर, निरामय अगले दस-ग्यारह वर्षों तक उनकी आलमीरे में कैद सिसकता रहा।१९९८ई. में किसी तरह मुक्ति दिला पाया- यह कह कर कि मेरा विचार इसमें कुछ संशोधन करने का हो रहा है।इस बीच कुछ फिल्म और सीरियल वाले भी सम्पर्क में आए-गए।पर बात कुछ बनी नहीं।
    इस लम्बे अन्तराल में समय बहुत तेजी से आगे बढ़ा।कम्प्यूटर और इन्टरनेट ने बड़ी सहजता से पूरी दुनियाँ को जोड़ दिया।सोशलमीडिया ने निशुल्क
ब्लागिंग की सुविधा देकर मुझ सरीखे सामान्य जन के लिए दुनियाँ का द्वार खोल दिया।अब प्रकाशकों के दरवाजे खटखटाने से बेहतर है, सोशलमीडिया की सुनहरी खिड़की से दुनियाँ को देख लेना।
    माता-पिता को सभी बच्चे प्रिय होते हैं।फिर भी उनमें कोई, अकारण खुद को अपनी ओर अधिक आकर्षित कर लेता है।निरामय ने भी कुछ ऐसा ही किया है।निरामय में ‘मैं’ कितना हूँ,मुझमें निरामय कितना है- मैं खुद भी तय नहीं कर पाता हूँ।अब इसका निर्णय भी आप ही करेंगे।
    पोस्टिंग की सुविधा से इसे कई खण्डों में बांट कर डालना पड़ रहा है।आशा है आप सुधीपाठकों का सहर्ष सहयोग सदा मिलेगा।
बस,आज इतना ही।
                 कमलेश पुण्यार्क

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