साक्षात्कार
निरामय के दर्पण में मेरे अक्श से साक्षात्कार का शायद प्रथम अवसर है आपके लिए।‘शायद’ इस कारण कहना पड़ रहा है,क्यों कि
यह मेरी पहली रचना नहीं है।आप चौंकेंगे इस बात पर, परन्तु कहानियों के क्रम में एक सौ पचासवीं,
एवं उपन्यास श्रृंखला की सातवीं कड़ी है।
भोजन वस्त्र और आवास,ये ही तीन
मौलिक आवश्यकता कही गयी है-
मानव के लिए, किन्तु एक चौथी आवश्यकता भी जुड़ गयी,मेरी जिन्दगी में - लेखन। या यूँ कहें कि अब एक आदत बन गयी है,वैसी ही आदत जो एक शराबी को शराब की होती है।नित्यप्रति वह
सोचा करता है कि कल से इस बला को त्याग दूँगा,क्यों कि यह घाटे का सौदा है। हाँ घाटे का ही।किन्तु उसका वह सुनहरा कल
कभी नहीं आता। मेरा कल भी अभी तक नहींआया है।
ऊपर शेखी वघारी गयी लम्बी श्रृंखला की कौन सी कड़ी,किसके हाथ लगी,किस रूप
में लगी- मैं कुछ कह नहीं सकता,क्यों कि
परिस्थिति ने थप्पड़ मार कर विलग कर दिया उन रचनाओं को मुझसे।प्रायः रचनाओं को
परिचित-अपरिचित लेखक एवं प्रकाशक सी सुरसरिता में प्रवाहित कर दिया कुन्ती के
कानीन कर्ण की तरह।
लम्बाई,चौड़ाई और ऊँचाई
के साथ ‘काल भी एक आयाम है, यह बाद में ज्ञात
हुआ विज्ञों को। उसी प्रकार काल की महत्ता बहुत बाद में समझ सका मैं भी। और तब अतीत के सीप
से अनुभूतियों की मुक्ताओं को चुन-चुन कर लेखनी की सूई के सहारे अपनी बेतरतीव
रचनाओं को क्रमबद्धता के धागे में पिरोना प्रारम्भ किया।उन्हीं प्रयासों का क्षुद्र प्रतिफल है- निरामय ।
अतीत- वास्तव में अतीत है,जो मोती की तरह निस्कलुष, सुन्दर और पवित्र है। किन्तु मेरी अनुभूतियों के अनमोल मोती आपको
भी मोती ही लगेंगे,या सीप-घोंघा,
मैं कह नहीं सकता। परन्तु जिज्ञासा जरूर है,जानने की।
‘निरामय’-शून्य अपने आप
में परिपूर्ण है।फिर भी शून्य का अस्तित्त्व ही क्या? अतः कुछ पाठक इसे शायद अपूर्ण ही समझें। निरामय के अध्ययन के
बाद हो सकता है,उन जिज्ञासु
पाठकों के मस्तिष्क में अनेकानेक प्रश्न उदित हों। पता नहीं उनकी तृषा को तृप्त कर पाने में कहाँ तक सक्षम हूँ मैं
,फिर भी यदि उनकी चाह रही जानने की- कमल के
अतीत के बाद उसके भविष्य की ,तो उनके सामने मैं फिर एक बार अपना क्षुद्र प्रदर्शन करुँगा- पुनर्भव को लेकर।आप हँसेंगे मेरे इस वक्तव्य पर,मेरी धृष्टता पर। कहेंगे आप कि उजड़े अतीत और रसशून्य वर्तमान
का भविष्य ही क्या हो सकता है?
मैंने भी यही सोचा था।परन्तु कालचक्र की अवाध परिक्रमा ने मीना और शक्ति
को पुनः ला खड़ा कर दिया संसार के रंग-मंच पर,तब मेरी भी आँखें चौंधिया गयी,और वाध्य हो गया मैं ‘‘पुनर्भव की रचना के लिए कलम उठाने को।
उन्हीं नायिकाओं की तरह, मानों निरामय के अवसान के कुछ काल बाद मेरा भी पुनर्भव हो गया।
मैं फिर एक बार आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि ‘निरामय’ अपने आप
में सम्यक् रूप से पूर्ण है।निरामय अलग है।अकेला है।स्वतन्त्र है।फिर भी संश्लिष्ट
है, पुनर्भव
से।पुनर्भव भी अपनी जगह पर पूर्ण और स्वतन्त्र है।फिर भी ‘फिर भी’ है।अतः इस धारणा को मन में न लावें कि निरामय के रूप में कोई अधूरी कहानी
सुना रहा हूँ,यही बात पुनर्भव
के साथ भी लागू है।आप चाहें तो दोनों पढ़ कर एक बार अपनी राय कायम करें,अथवा किसी एक को ही पढ़ कर संतुष्ट हो सकते हैं।किन्तु हाँ,अपने उस तृप्ति-महोदधि का एकाध क्षुद्र बूंद,अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप मुझे देना न भूलेंगे, ऐसी मेरी आशा है और आकांक्षा भी।
वस,आज इतना
ही।पुनर्मिलन की प्रतीक्षा में ......
कमलेश पुण्यार्क
श्रावणी,विक्रमाब्द 2041,
11अगस्त 1984 ई.
मैनपुरा, चन्दा, कलेर, गया(सम्प्रति अरवल) विहार(भारत)
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