निरामयः भाग दो
परन्तु वह हो न सका जो बेचारा सोच
रहा था।हमलोग भोजन कर ही रहे थे कि
चाचाजी स्नान करके बाहर आ गए, ‘क्यों बेटे! कैसा रहा शक्ति
का स्वागत?’
पिता की आवाज सुन कर शक्ति भीतर रसोई में चली गई थी,उनके लिए भोजन परोसने।इधर हमदोनों भोजन समाप्त कर रूमाल से
हांथ पोंछ रहे थे।
वसन्त उठकर वहीं बगल के ड्राईंगरूम में जाकर सोफे पर पसर गया था।लम्बी डकार लेते हुए बोला, ‘ वाकयी आज शक्ति ने बहुत खिला दिया।अब घर जाना भी मुश्किल जान पड़ता है।’
‘तो क्या आराम फरमाने की सोच रहे हो जनाब?स्कूल जाने का इरादा सही में नहीं है क्या?’- मैंने
अकबका कर वसन्त से पूछा।
पिद्दी सा मुंह बिचका कर वसन्त ने कहा था- ‘ घड़ी देखो,अब क्या तुम्हारा
स्कूल ग्यारह बजे से लगेगा? इतना कह कर उठा और कूलर ऑन कर
फिर पसर गया सोफे पर।मैं मन ही मन घबड़ा रहा था, डेरे पर
चाचाजी क्या सोच रहे होंगे।
करीब घंटे भर विश्राम करने के बाद हमदोनों चल पड़े थे वापस अपने-अपने
वसेरे की ओर। देवकान्त चाचा भी कॉलेज जाने को तैयार हो गए थे।आज उनका क्लास बारह
बजे से है।फिर हमें आने को आमन्त्रित
करते हुए बोले, ‘ बेटा इसे अपना ही घर समझना।जब समय
मिले चले आया करो। हाँ,याद रखना- परसों
रविवार है न? दोपहर भोजन
तुमलोगों का यहीं होगा।उस दिन जरा इत्मिनान से
तुमसे बातें होंगी।तुम ज्योतिष और हस्तरेखा जानते ही हो।जरा मेरे पूरे परिवार का
जन्म पत्र विचार करना है।’
तीसरे दिन यानी रविवार को वसन्त जल्दी ही आ गया था,मेरे डेरे पर।उसे तो जल्दबाजी थी शक्ति के घर पहुँचने की।चलते
वक्त चाचाजी से बोला था,‘आज हमदोनों को देवकान्त चाचा के यहाँ जाना है।वापसी में देर हो सकती है।’
पूर्व समयानुसार उस दिन भी साढ़े आठ बजे हमदोनों पहुँच गए थे छावडि़या
निवास,शक्ति के डेरे पर।रास्ते भर वसन्त
चुटकियाँ लेते रहा था- ‘आज तो बड़ी तैयारी से आए होगे राजज्योतिषी कमल जी? क्यों कि
आज एक लब्ध प्रतिष्ठित प्राध्यापक श्री देवकान्त भट्टजी के यहाँ से सादर-सनुनय आमन्त्रण है,उनके पारिवारिक ज्योतिषी एवं तान्त्रिक श्री श्री 1008 कमल भट्टजी को।’
‘क्या बकते हो फिजूल की बातें? जा रहे हो तुम अपनी प्रेयसी के घर।लड्डू फूट रहे हैं- तुम्हारे दिल में।मैं तो एक बहाना हूँ।’- मैंने जरा झल्लाते हुए कहा।
उदास सा चेहरा बना कर वसन्त ने बड़े भोलेपन से कहा, ‘हाँ यार,कह लो।कह लो जितना कहना है। लम्बे अरसे से आँखें बिछाए हूँ मैं,और हांथ में हांथ थाम कर आँखों में आँखें डालकर आँख सेंकोगे
तुम।’
‘फिर वही बकबक।हाथ चाचाजी का देखना है,न कि...।’ मैं कह ही रहा था कि
उसने बीच में ही टांग अड़ा दी- ‘क्या याद नहीं है तुम्हें, आते वक्त चाचाजी ने क्या कहा था? पूरे परिवार का भविष्य विचारना है। तो वह क्या इस दायरे से
बाहर है? नहीं न? साथ ही मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि उसे भविष्य विचार पर कितना भरोसा
है।उसका बस चले तो फुटपाथी तोताछाप पंडितों के आगे भी हाथ पसारते चले।फिर तुम तो जा रहे हो उसके घर
महामहोपाध्याय राज ज्योतिषी बन कर....।’
वसन्त अभी न जाने कब तक बकता चला जाता,कि लिफ्ट ऊपर पांचवीं मंजिल पर आकर ठहर गई।हमदोनों उतर कर सीधे देवकान्तजी के कमरे की ओर चल दिए।
वहाँ बैठक खाने में बैठे देवकान्त
चाचाजी कबसे हमदोनों की राह देख रहे थे।हमलोगों पर नजर पड़ते ही बोले- ‘आओ बैठो जल्दी से।शक्ति
कब से प्रतीक्षा कर रही है।पकौडि़याँ भी ठंढी हो रही है।’- और फिर भीतर की ओर गर्दन घुमाकर आवाज लगाए
थे -‘शक्ति बेटे! ये लोग आगए हैं।’
‘अरेऽरेऽरे! इतना कष्ट करने की क्या आवश्यकता थी? हमलोग नास्ता
वगैरह से निश्चिन्त हो कर आए हैं।’- हमदोनों एक साथ ही बोल उठे।
‘वाह! यह भी कोई बात हुई,शक्ति कितने शौक से तुमलोगों के लिए नास्ता बनायी है -बादाम की पकौडि़याँ और नारियल की
चटनी, और तुम कहते हो कि नास्ता कर के आया हूँ?’- अन्दर से आती
हुयी चाची ने कहा।
वसन्त के कान से अपना मुंह सटाते हुए मैंने आहिस्ते से कहा,
‘लाख नास्ता कर आए हो, पर शक्ति के हाथों
की बनी पकौडि़याँ क्या प्लेट भी खा जाएगा वसन्त।’- जिसे सुन कर धीरे से मुस्कुराते हुए, जोर से चिकोटी काट खाया मेरे गाल पर।
शक्ति नास्ता लेकर आ गई थी।चाचाजी ने पान का बीड़ा मुंह में सम्हाला और
हमदोनों ने अपने-अपने आसन ग्रहण किए।शक्ति दो प्लेटों में भरपूर नास्ता रख कर चली गई।चाचीजी के एक इशारे पर ही वसन्त टूट पड़ा,चुरमुरी पकौडि़यों पर,मानों दुश्मन की फौज पर राष्ट्रभक्त सेना टूट पड़ी हो।
थोड़ी देर में हमलोग जब चाय-नास्ते से निश्चिन्त हो चुके,तब चाचाजी चित्रगुप्त के रोजनामचे की तरह अपने परिवार का
जन्म-पत्र निकाल कर मेरे सामने फैला दिए।मेरा तो माथा ठनका, देखकर उस भारी भरकम रजिस्टर को,जिसमें
एक-एक कर बड़े करीने से उनके परिवार के सभी सदस्यों की जन्मपत्री बनाई हुई थी।
सोचने लगा था मैं, क्या सचमुच इन्होंने प्रकाण्ड ज्योतिषी ही समझ लिया है मुझे? कहाँ मैं चौदह-पन्द्रह का छोकड़ा,और कहाँ
यह विधाता की सी जन्मपत्री।क्या बता पाऊँगा? क्या कह पाऊँगा,इसे
देख कर? बस इतना ही तो,जो इसके निर्माता ने गणित चक्रों के बाद थोड़ा बहुत फलित भी
लिख छोड़ा है, उसे ही तो मात्र
पढ़कर अपने शब्दों में कह सुनाऊँगा।अतः कुछ टालने के विचार से बोला- ‘गणित के साथ-साथ कुछ फलित
तो लिखा ही हुआ है- कुछ हिन्दी, कुछ संस्कृत में।मैं समझता हूँ, यह तो मुझसे अधिक आप स्वयं ही पढ़कर समझ
सकते हैं।मैं क्या इतना महान
ज्योतिषी हो गया जो आप महानुभावों के सामने
अपनी थोथी राग अलापूँ। रही बात हस्तरेखा की,सो जहाँ तक समझ
पाऊँगा, विधाता-लिखित इस दुरूह लिपि को,यथासम्भव प्रयास करूँगा स्पष्ट करने का।वास्तव में अभी मेरा अनुभव और ज्ञान ही क्या है- इस गहन विद्या का।शायद प्रशान्त
महासागर का एकाध बूँद ग्रहण कर पाया होऊँ, वह भी पूर्वजों के प्रसाद स्वरूप,और आप महानुभावों के आशीष से।’
‘कोई बात नहीं कमल बेटे! जो भी थोड़ा-बहुत जानते हो सो ही बतलाओ।कुछ भी हो,उन सड़क छाप ढोंगियों से तो अच्छा ही बता पाओगे।’- बड़े प्यार से कही थी चाची, और पास ही
सोफे पर बैठ, अपनी हथेली पसार दी थी, यह कहती हुई - ‘ सबसे पहले मेरा हाथ देखो,मरूँगी सुहागिन ही न?’
‘यह क्या कह रही हो चाची जी! अभी आपको बहुत काम करने को पड़े हैं।चुनु-मुनु
को पढ़ाना-लिखना है,फिर शक्ति की शादी
भी तो....।’- बीच में ही टपकते हुए कहा था वसन्त ने।अन्तिम शब्द ‘शादी’ कहते हुए वह खुद ही झेंप गया था।शक्ति लजाकर भीतर भाग गयी थी।
‘नहीं बेटे, मेरे कहने का
मतलब यह है कि मरना तो एक दिन है ही,पर इनसे पहले मर जाती तब न अच्छा होता।हर भारतीय नारी
की यही अरमान होती है।’- चाची ने कहा था,और उनकी हथेली
थाम कर मैं गम्भीर चिन्तन में निमग्न हो गया था।
फिर पलभर में ही उघाड़ कर रख दिया था- उनके
भूत-वर्तमान-भविष्य को एक पेशेवर ज्योतिषी की तरह।न जाने उनमें कितनी बातें
सही थी,कितनी गलत; पर गौर से मेरी बातों को सुनती हुई चाची कुछ गम्भीर अवश्य हो गयी थी।कुछ देर
ठहर कर बोली- ‘अच्छा,अब जरा अपने चाचा का हाथ देखो। पता नहीं इनकी कैसी ग्रह-दशा चल रही है,जो हमेशा
बीमार-बीमार से ही रहा करते हैं।’ और खुद से ही खींच कर उनका हाथ मेरे सामने टेबल पर रख दी थी।
‘दिखलाइए न अपना
हाथ,सोच क्या रहे हैं?’
‘कुछ तो नहीं सोच रहा हूँ।’- के लघुत्तर के साथ चाचाजी ने अपना हाथ सरका कर मुझसे और समीप कर दिया; किन्तु
अन्यमनस्क से ही बने रहे।पिछले तीन दिनों पूर्व चाचाजी के चेहरे पर जो चमक मैंने देखा था,जो अब से
कुछ देर पूर्व तक भी विद्यमान था,न जाने क्यों
किस अज्ञात कारण से अचानक ही गायब हो गया था।
मैं सोचने लगा था कि
कहीं ऐसा कुछ उटपटांग तो नहीं बक गया मैं चाची के हाथ देख कर, जो
स्नेहिल चाचाजी को इतना प्रभावित कर गया।
‘क्यों कमल बेटे! तुम क्या सोचने लगे? देखो न इनका हाथ।’- चाची ने उकसाया था मुझे।उनके कहने पर मैं मानों नींद से जग पड़ा।
‘ऐं ऽ हाँ, देख रहा हूँ।देख रहा हूँ।’- कहता हुआ,सामने पड़ी
चाचाजी की हथेली पर अपनी दृष्टि जमा दिया था।
सूर्य से लेकर नेपच्यून-प्लूटो ग्रहों तक,मेष से मीन राशियों तक छोटी-बड़ी हर रेखाओं का गहन
अध्ययन-चिंतन काफी देर तक करता रहा था।भय भी हो रहा था कि कहीं कोई गलत बात मुंह से न निकल जाए और पहले से ही खिन्न चाचाजी को और भी
हतोत्साहित न कर जाए।
हालाकि
लाख ढूढ़ने पर भी कोई विशेष ग्रह स्थिति या रेखा मुझे न नजर आयी थी।हाँ,कुछ खास लक्षण अवश्य मिले थे-
हृदय रोग के।उसे भी मैं अपेक्षाकृत सामान्य बनाकर ही कहा था।
फिर एक के बाद एक प्रश्न- कभी चाचा,कभी चाची,कभी वसन्त,करते जा रहे थे।यथासम्भव मैं उनके प्रत्येक प्रश्नों का उत्तर भी देता जा रहा था।इस प्रकार
लगभग दो घंटे गुजर गए।घड़ी पर निगाह
डालते हुए देवकान्त चाचाजी ने कहा था- ‘पौने ग्यारह बज गए।’
फिर शक्ति को आवाज लगाए,जो
प्रारम्भ में ही वसन्त के मुंह से अपनी
शादी वाली बात सुन कर शरमा कर अन्दर जा चुकी थी। ‘शक्ति बेटे! एक
बार और चाय चल जाती तो मजा आता।’
उनकी बात अभी पूरी भी न हो पायी थी कि उधर से एक अपरिचित नवयौवना,हल्का सा घूंघट
काढ़े हाथों में चाय की ट्रे लिए कमरे में प्रवेश की।
हम चारो के सामने चाय की प्याली रख कर वापस मुड़ना ही चाही थी कि चाची ने
कहा, ‘आओ बहू, जरा तुम
भी अपना हाथ दिखा लो।’ और भाभी का हाथ पकड़ कर अपने बगल में बैठा ली थी।चाय का प्याला उठा,होठों से
लगाती हुई चाची ने पुनः कहा-‘बड़ी ही सुशील है।भगवान ऐसी ही बहु सबको दे।आज के जमाने
में सास-बहु के रिस्ते कितने कटु हो गए हैं।’
‘हो क्या गए हैं, आज? प्रायः हर जमाने
में ऐसी ही बात रही है,कभी कम
कभी ज्यादा । बहू घर में आयी नहीं कि सासुजी का राग अलापना शुरु
हो गया।दोष तो दोनों पक्ष में कुछ न कुछ होता
है।’- चाची की बातों का जवाब चाचा ने दिया था।
आखिर कुछ कारण भी तो होता ही है।कहीं होता है दहेज का मामला,तो कहीं होता है बहू का स्वभाव और स्वास्थ्य।पर
भगवान की कृपा कहो कि मेरी बहू के साथ ऐसी कोई बात नहीं है।बेचारा
बाप असमय में ही चल बसा था,बिन ब्याही बेटी को छोड़ कर।बड़े भाई ने शादी की।पिता की तरह पालन-पोषण किया था उसी ने। दहेज
भी बिन मांगे मुंह मांगा दिया।साथ ही बहू का स्वभाव तो साक्षात लक्ष्मी सा ही है।’- चाची अपनी भोली बहू की सराहना करते अघा नहीं रही थी।
‘अब देखो न आज कल के लड़कों को,यदि उनके
अध्ययन काल में ही शादी कर दी जाए तो फिर नित्य उनके कॉलेज में हड़ताल और तालेबन्दी प्रारम्भ हो जाता है। शाहजादे ज्यादातर
रहेंगे
ससुराल या फिर घर - जब बहू यहाँ
हुई।पढ़ाई-लिखाई जाए चूल्हे में,।और ये बहुयें भी आजकल की ऐसी ही हैं।कर्तव्य बोध न लड़कों को है, और न इन आधुनिका पत्नियों को ही।फिर इसी प्रकार
खींच-तान कर किसी तरह पढ़ाई पूरी हो जाय और सौभाग्यवश यदि
नौकरी मिल जाय,बस मत पूछो उनका दिमाग चला जायेगा,सातवें आसमान में।बन जायेंगी सती-सावित्री और सीता; और चल देंगी अपने राम के साथ वनवास पर...अरे
नहीं, प्रवास पर,लक्ष्मण को लिए
वगैर ही।फिर कौन पूछता है- कौशल्या और दशरथ
को?’- चाचाजी बहु पुराण
सुनाने लगे थे।
उनके प्रवचन में दखल देती हँसती हुई चाची बोली- ‘आदत है न,लेक्चर देने
की।घर में भी लेक्चर देने लगे।जाने भी दें,दुनियाँ के बहू-बेटों
की बात।आपकी बहु राम के साथ वनवास नहीं गई है न?
बेचारा अमर चार साल से नौकरी कर रहा
है,पर एक बार भी चूँ
नहीं किया बीबी को साथ ले जाने के लिए।इधर कुछ दिनों से मैं ही जोर देकर साथ भेजने लगी।भगवान ऐसी ही बहु
सबको दे।’
मेरा तो जी चाहा था कह दूँ - ‘हाँ,क्यों ले जाये
बेचारा आपकी बहू को अपने साथ।यह तो आयी है- आपकी दासी बन कर।फिर पति से क्या
वास्ता।’ किन्तु कह न सका
था।भीतर ही भीतर भुनभुनाकर रह गया था।उनके विवेक पर अमल करता रहा था।क्या ही ढंग
है सोचने का दुनियाँ के सासों का! बहु रहे हमेशा उनकी सेवा में हाजिर,क्यों कि वे माँ है बेटे की।किन्तु वही सास किसी बेटी की भी माँ
होती है,जिसकी आकांक्षा होती है कि मेरी बेटी को मेरा दामाद हमेशा अपने सर आँखों पर
रखा करे।परन्तु विडम्बना यह है कि हर सास और हर माँ ऐसा ही सोचती है।फिर सन्तुलन
आये तो क्यों कर?
चाचा-चाची का तर्क-वितर्क बारी-बारी से कौवालों के प्रश्नोत्तर
की तरह अभी चल ही रहे थे,और मैं भी
अपने अन्तर तर्क धुन में गुम था कि बीच में ही शक्ति आ टपकी पके आम की तरह,और चहक उठी- ‘माँ! भाभी अपना हाथ दिखायेंगी या मैं दिखाऊँ? बेचारी को बैठा ली हो और समाजशास्त्र पर परिचर्चा प्रारम्भ कर दी
हो।’
अपना हाथ दिखाने को उतावली शक्ति की बातों का जवाब चाची ने दिया, ‘नहीं..,नहीं..पहले जरा बहु को दिखा लेने दो,फिर
सारा दिन बैठी दिखाती रहना तुम अपना हाथ-पैर।’
शक्ति के प्रति चाची की टिप्पणी वसन्त को भीतर ही भीतर
गुदगुदा सा गया।अपने पैर के अँगूठे से मेरे
पैर को दबाते हुए बांयीं आँख मिचका दिया।उसका भाव समझते मुझे देर न लगी। मैंने कहा- घबड़ाओ नहीं वसन्त,तुम्हें तो हाथ
देखना और दिखना दोनों है न?’
‘तो क्या यह भी जानता है हस्तरेखा?’- चाची की उत्सुकता जगी।
‘नहीं चाची,आप भी इस पगले की
बातों पर यकीन करने लगी।मैं तो कितनी बार कहा
इससे कि मुझे भी कुछ सिखलाओ अपना
हुनर।पर इसे तो लगता है कि मैं इसका रोजगार ही हड़प लूँगा।’- हँसते हुए वसन्त ने बातें बनायी।
‘इधर आ जाओ,पास में जरा।’- कहती
हुई चाची भाभी का हाथ पकड़ बगल की
कुर्सी पर बिठा दिया,और उनका हाथ मेरे
हाथ में देती हुयी- मानों मैं कन्यादान ग्रहण कर रहा होऊँ- बोली थी, ‘जरा
देखो तो कमल! बहु की गोद कब तक भरेगी? बेचारी को आए पांच साल से ऊपर हो गए।पर
भगवान न जाने कहाँ सोये हैं इसके लिए?’
मैं अभी कुछ कहना ही
चाह रहा था कि एक झटके के साथ मेरे हाथ
से अपना हाथ छुड़ा कर भाभी उठ खड़ी हुयी।
‘धत् मैं नहीं
दिखाती हाथ-वाथ।’- कहती हुयी वह झट से अन्दर चली गयी दूसरे कमरे में।
चाचाजी हँसने लगे थे - ‘अभी बचपना नहीं गया है।देखो न,बच्चे
की बात पर कैसे भाग खड़ी हुई बच्ची की तरह।’
हस्तफलाकांक्षिओं में अगली और अन्तिम बारी थी शक्ति की।भाभी का अन्दर जाना था कि शक्ति
खिलखिलाती हुयी ड्राईंगरूम में चली आयी,जो
थोड़ी देर पहले चाची के आदेश पर अन्दर से
पनबट्टा
लाने चली गयी थी।एक हाथ में पान का
बीड़ा और दूसरे में डब्बा
पकड़े माँ के बगल में
आकर बैठ गयी।बांकी चितवन का मधुर फुहार मेरी
ओर छोड़ती हुयी बोली- ‘क्या कह दिया आपने भाभी को जो हाथ दिखाए वगैर ही वापस भाग गयी? नहीं दिखाना था तो इतनी देर बैठी क्यों रही? अब तक मैं दिखा ली होती।’
‘तो अब देर किस बात की? आ जाओ सामने।अब तो तुम्हारी ही बारी
है।’-कहा था चाचाजी ने।
हाथ का पान-बीड़ा माँ को देती,पानडब्बा
तिपाई पर रख कर,शक्ति पास की कुर्सी
पर धब्ब से बैठ गयी,जहाँ अब से पूर्व
भाभी बैठी हुई थी।अपना दायाँ हाथ आगे
बढ़ाती हुई हँस कर पूछी थी-
‘जरा देखिए तो ज्योतिषी जी! भतीजा कब तक होने का योग है?’
उसके इस प्रश्न के मसखरापन से एक बार सबके सब ठठाकर हँस दिए।पर्दे की ओट में खड़ी भाभी फिर
एक बार शरमा कर भीतर कमरे में भाग गयी।हँसी का दौर कुछ देर तक चलता रहा।
बाहर टपक आयी पान की पीक,जो ठहाके
के दौरान चाची की साड़ी पर अचानक
गिर आयी थी. पोंछती हुई चाची ने कहा-‘बड़ा ही शोख है
शक्ति।हाथ दिखलाएगी ये,और फलादेश होगा इसकी
भाभी का।’
‘तो क्या हो गया इसमें,हाथ में जब सारी बातें लिखी होती हैं,तो भतीजे की रेखा भी जरूर होगी? ’- शक्ति पुनः मचलती हुई बोली थी।
‘हाँ कमल! इसका हाथ जरा ठीक से देखो।पता नहीं सिर्फ शैतानी ही करती रहेगी या कुछ पढ़े-लिखेगी भी।पढ़ने में
बहुत ही कमजोर है ।जरा भी मन नहीं लगता इसे पढ़ने-लिखने में।सारा दिन सिर्फ
रेडियो सुनते रहती है।’- चाचा ने शिकायत की थी।
वसन्त जो इतनी देर से चुप बैठा था,मजाक का नुख्ता पा गया-‘हो सकता है चाचाजी इसके हाथ में विद्या रेखा के बदले रेडियो-स्टेशन की रेखा ही हो।’
वसन्त की बात पर फिर एक बार जोरों की हँसी का पटाका फूटा,और इस बार तो चाची के मुंह में
भरे पान की पीक उनकी साड़ी को ही सराबोर कर गयी थी।
अपने हाथों के मृदु स्पर्श से शक्ति फिर मेरा ध्यान आकर्षित की थी अपनी
हथेली की ओर- ‘देखिए न हाथ।आपलोग तो सिर्फ मजाक कर
रहे हो।भतीजे की रेखा का पता नहीं,और रेडियो-टी.वी.सब मौजूद है मेरे
हाथ में।’
इस बार मैंने उसका हाथ
सामने करते हुए कहा- ‘जरा अपना बायां हाथ इधर
बढ़ाइये शक्तिजी! आपने तो दायां हाथ पसार रखा है।आप लड़की हैं या लड़का?’
‘यह भी पता नहीं चल रहा है तुम्हें? लड़की होती तब न बायां हाथ दिखाती।’- वसन्त को फिर मौका मिल गया चुटकी लेने का।
‘मैं नहीं
समझती,दायें-बायें का अन्तर।दोनों हाथ मेरे ही हैं।और रेखायें भी दोनों
में हैं ही।’-शक्ति थोड़ा
तुनक कर बोली।और दूसरा हाथ भी सामने फैला दी- ‘अब देखिये जो देखना हो।’
मैंने उसकी शंका का समाधान किया-
‘ हस्तरेखा विज्ञान का नियम है कि स्त्रियों का बायां और पुरुषों का दायां हाथ विशेष महत्त्व पूर्ण
होता है।सिर्फ विशेष परिस्थिति में ही इस नियम का उलंघन होता है।’- इतना कह कर मैं अपना ध्यान उसकी हथेली पर
केन्द्रित कर दिया।काफी देर तक उलझा रहा उसकी
हस्तरेखाओं में।
बीच-बीच में हथेली को कभी सीधा, कभी
उलटा करता,कभी हथेली के विभिन्न भागों पर अपनी अंगुली का हल्का दबाव डाल कर ग्रह
पर्वतों का जायजा लेता।मेरी यह हरकत वसन्त
के लिए बड़ा भारी पड़ रहा था।अतः
वाध्य होकर टोक दिया।
‘क्या नजरें गड़ाये हो? कुछ बोलो भी तो।’-जिसके जवाब में
चाचाजी ने कहा -‘नहीं..नहीं हड़बड़ी की कोई बात नहीं है।नजरें तो गड़ानी ही
पड़ेंगी।ग्रह-पर्वों को जाँचना ही पड़ेगा।वस्तुतः हस्तरेखा
विचार इतना आसान नहीं
है, जितना लोग समझ लेते हैं। दो-चार पुस्तकें पढ़ लिए और स्वयं को
‘वशिष्ठ-पराशर और कीरो समझ लिए।मैं तो कई बार इसमें हाथ डालने का प्रयास किया, परन्तु हर
बार निष्फल ही रहा।खैर छोड़ो।शक्ति
बहुत उतावली हो रही है।जल्दी से कुछ बतलाओ इसे।क्या है इसके भाग्य में?’
मैं फिर एक बार क्षणभर के लिए ध्यानस्थ हुआ,और तब कहना शुरू किया- कैसे कहते हैं कि शक्ति पढ़ती नहीं? इसकी हथेली पर तो
सूर्य और सरस्वती दोनों ही रेखायें हैं।साथ ही
प्रखर है मणिबन्ध का विद्या स्थान। इतना ही नहीं भक्ति रेखा,लक्ष्मी रेखा,गुरू पर्वत सबके सब तो बलिष्ठ ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं।इसकी बुद्धि काफी कुशाग्र होनी चाहिए।’
मेरा फलादेश सुन कर चाचाजी कहने लगे-‘बिलकुल ठीक कह रहे हो,इसकी बुद्धि कुशाग्र है ही। स्मरण शक्ति इतनी तेज है कि हर
फिल्म के नायक-नायिका,गीतकार-संगीतकार,सबके सब
पहाड़े की तरह
याद हैं इसे।’
‘धत् पापा! आप भी बड़े वो हैं।कभी कभार
रेडियो क्या सुन ली कि आप ढिंढोरा
पीटने लगे।’-बड़ी नजाकत से शक्ति बोली।
मैंने अपनी बात आगे बढ़ायी - अरे हाँ,इसके हाथ में तीर्थरेखा,मीन रेखा,छत्र रेखा
आदि भी हैं । चन्द्र पर्वत बतलाता है कि इसे
संगीत का प्रेमी भी होना चाहिए।साथ ही साहित्य का भी।’
‘ठीक कहते हो बेटा! संगीत से बहुत लगाव है।हमेशा कुछ न
कुछ लिखते भी रहती है।अपने विद्यालय की
पत्रिका में कई दफा इसकी कहानियाँ और
कवितायें छप चुकी हैं।’- चाची आत्म गौरव
से बोल रही थी।
‘देख लिए न,मेरे कमल ज्योतिषी
का कमाल? पल भर में ही
आपकी शक्ति का पैथोलोजीकल टेस्ट कर दिखया।वह
भी बिलकुल सही और स्पष्ट रूप से।’- वसन्त ने जरा चमचागिरी की मेरी।
चाची थोड़ा अधिक भाउक हो उठी।बोली,‘ अच्छा बेटा ! सब
कुछ तो विचार कर ही लिए।जरा यह भी देख कर
बतलाओ कि घर-वर कैसा मिलेगा मेरी शोख विटिया
को?’
माँ की बात सुन कर शक्ति एकबारगी शर्म से लाल हो गई;किन्तु भाभी की तरह
हाथ छुड़ा उडंछू नहीं हुई।मैंने उसकी हथेली
का पुनः गौर से निरीक्षण
किया।उलट-पुलट कर अँगुलियों के पोरूये
देखे,और कनिष्ठिका के जड़ को निहारा,मन ही मन कुछ नाप-जोख भी किया;फिर कहने लगा - चाचीजी! शक्ति
का दाम्पत्य जीवन बड़ा ही सुखमय होना चाहिए। किसी बड़े खानदान की होनहार बहू बनेगी
आपकी शक्ति बिटिया।
चाचा ने पूछा था काफी उत्सुकता पूर्वक,किन्तु कुछ चिन्तित मुद्रा में- ‘इसके विवाह का समय संयोग कब तक जुट रहा है?’
शक्ति की पलकें एक बार फिर झुक आयी,लाल हो आयी गालों की ओर।तलहथी पर पसीने की बूंदें छलक आयी
थी।उन्हें आहिस्ते से पोंछते हुए मैंने पुनः स्वयं को केन्द्रित किया उसकी हथेली पर।कुछ देर मौन
योगायोग गणित विचार के बाद बोला-अब से
करीब पांच बर्षो बाद।अभी उमीद करता हूँ कि शक्ति की उम्र चौदह के करीब होगी।यानी पांच बर्षों बाद,उन्नीश साल की उम्र में इसकी शादी होनी चाहिए।
‘बाप रे! अब से पांच बर्ष बाद हो सकेगी इसकी शादी! इतना लम्बा समय...पता नहीं
कैसे गुजरेंगे ये वक्त ? इतने दिन कौन
रहेगा कौन नहीं?’- चाचाजी ने लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा
था।
उनकी बातों को बीच में ही काटती हुई चाची बोली थी- ‘आप बस यूँ ही व्यर्थ
की चिन्ता में घुले जाते हैं।पांच बर्ष
गुजरने में देर ही कितनी लगती है?
और अभी शक्ति बिटिया की उम्र ही क्या है, जो इतना घबड़ा रहे हैं ?’
कहने को तो चाची सान्त्वना देदी थी चाचाजी को,पर इस लंबी अवधि की
चिन्ता रेखा उनके चेहरे पर स्पष्ट उभरती नजर आयी।
चाचाजी ने पुनः कहा- ‘नहीं,अमर की माँ! पाँच बर्ष का समय कोई कम नहीं
होता है।वह भी मेरे जैसे रूग्ण व्यक्ति के
लिए।कमल की बात पर लगता है तुमने ध्यान नहीं
दिया।’
चाची ने आश्चर्य भरा प्रश्न किया- ‘कमल की कौन सी बात?’
चाचाजी कहने लगे- ‘तुमने भले न ध्यान दिया हो,पर मैंने गौर किया था,मेरे हृदय रेखा और रोग रिपु रेखा पर विचार करते समय
कमल एकाएक गम्भीर हो गया था।भीतरी घबड़ाहट
को सम्हालते हुए कहा था -कोई खास बात नहीं है,फिर भी रोग और शत्रु के
प्रति निश्चिन्त नहीं होना चाहिए।सावधानी और संयम वरतना ही चाहिए। - इसके चेहरे के उतार चढ़ाव
को परखने में क्या मैं इतना नादान हूँ? जबकि इसने बहुत बनने की कोशिश की थी।’
चाचाजी अभी कहे ही जारहे थे- ‘तुम खुद सोचो- जिसके हृदय के
चार में दो कपाट- एक ऑरिकल और एक भेन्ट्रिकल वाल्भ पूरी तरह प्रभावित हो चुके हैं,उसे ‘लैसिक्स,ल्यूनैक्सीन,पोटोक्लोर’ आदि कब तक सम्हाल सकते हैं? मेरा एक पांव मृत्यु-द्वार के चौखट पर धरा हुआ है और दूसरा उसके नीचे,और तुम कहती हो पांच साल?
चाचाजी अभी और कुछ कहते जाते,किन्तु
आँचल के छोर से अपने आँसू पोंछती
चाची,आगे बढ़ कर उनके मुंह पर अपना हाथ रख
दी थी।
और फिर समय का एक बड़ा सा टुकड़ा फुरऽऽऽ... से उड़ गया था।
स्मृतियों के वयार
में अतीत डायरी के पन्ने फड़फड़ाते रहे...।
उस दिन आंगन में खड़ा यूँ ही खोया सा न जाने कब तक निहारता रहता रूप लावण्य की उस प्रतिमा को और अतीत के पन्नों
को बेतरतीबी से पलटते रहता कि अचानक कँधे पर
किसी का स्पर्श पाकर चौंक उठा।पीछे मुड़ कर देखा तो गॉगल्स का शीशा
पोंछते हाथ में रूमाल लिए मुस्कुराते हुए
वसन्त को खड़ा पाया।
‘कहाँ खो जाते हो? किसे देख रहे हो इतनी हसरत से?’- कहता हुआ इधर-उधर देखने लगा था।
मैंने हाथ का इशारा बरामदे की ओर किया,जो अब विलकुल खाली हो
चुका था।वहाँ बैठी सारी किन्नरियाँ भीतर कमरे में जा चुकी थी।माइक्रोफोन और स्पीकर
के माध्यम से उनकी ही एक भिन्न
सांस्कृतिक लहरी कानों को तृप्त करने
लगी।महाकवि जयदेव की पंक्तियाँ -पद्मापयोधरतटीपरिरम्भलग्नकाश्मीरमुद्रितमुरो
मधुसूदनस्य।
व्यक्तानुरागमिव खेलदनङ्गखेदस्वेदाम्बुपूरमनुपूयरतु प्रियं वः।।
(लक्ष्मी के
आलिंगन से उनके कुचों पर लगे केसर कृष्ण के वक्षस्थल में लग गयी,यही मानों
प्रत्यक्ष प्रेम है, वा लक्ष्मी ने भगवान के हृदय पटल पर मुहर लगा दिया ताकि बिना इनकी आज्ञा
के उसका स्पर्श अन्य रमणियाँ न करें,ऐसी
रतिक्रीड़ा से उत्पन्न पसीने से युक्त श्रीकृष्ण आपका मंगल करें) - ये सुमधुर
स्वागत स्वर थे - भोजन के लिए उपस्थित वारातियों के लिए। कानों में पड़ते गीत के स्वर,स-रस होकर जिह्वा तक पहुँचने का प्रयास करने लगे।वसन्त की
खोजी निगाहें इधर-उधर भटक कर वापस आ
गयी थी, ‘अच्छा तो अब समझा,वह जो
काले रंग की सलवार कुर्ते
वाली गोरी परी थी,उसके बारे में ही
सोच रहे थे तुम? यानी कि पहचाने
नहीं उसे?
हाँ,अब तो पहचान ही
गया। शक्ति है न, देवकान्त चाचा की दुलारी,जो कलकत्ते में छावडि़या निवास में रहती थी,जिसका हाथ हमने एक बार देखा था।--वसन्त की शंका का समाद्दान
किया मैंने।
‘हाँ हाँ वही शक्ति है।पर अब बेचारी में वह शक्ति रही कहाँ!
अब तो हर तरह से शक्तिहीन हो गयी है।’- वसन्त कुछ उदास होकर बोला।
मैंने आश्चर्य से पूछा था - लेकिन वह
यहाँ? क्या रिस्ता है
उसका यहाँ पर?
वसन्त ने कहा- ‘उसकी ननिहाल यहीं है न।तेरी होने वाली भाभी या अब कहो जो अभी-अभी हो चुकी है तुम्हारी भाभी,उसकी बुआ की
लड़की है शक्ति।देवकान्त चाचा के असामयिक निधन के बाद वह प्रायः यहीं
मामा के घर ही रहती है।वैसे कुछ दिन के लिए
कानपुर अपने चाचा के यहाँ भी रही थी,पर चाचा
आखिर चाचा ही होता है,पिता का स्थान...।’
मैंने बीच में ही टोका, किन्तु अमर को तो ध्यान रखना चाहिए था छोटे
भाई-बहन के प्रति।
मेरी बात पर वसन्त मुंह बिचका कर बोला, ‘देख ही रहे हो सपूत
बेटे-बहू का रवैया।बहन पड़ी ननिहाल में गुजारा कर रही है,और वे मियां-बीबी चकल्लशबाजी में मशगूल हैं।खैर छोड़ो इन अतीत की बातों को।चलो सभी लोग भोजन पर बैठे हुए
हैं।तुम्हारी राह देख रहे हैं।’- कहता हुआ वसन्त मेरा हाथ पकड़ बाहर की ओर चल पड़ा।उसके साथ मैं भी बाहर बरामदे में आ गया।
सभी लोग पंक्तिवद्ध बैठ चुके थे- भोजन के लिए।लाउडस्पीकर
अभी भी सुनाए जा रहा था,गीत गोविन्द की लडि़याँ-
‘‘प्रलयपयोधि
जले धृतवानसि वेदम्,विहित
वहित्र चरित्र मखेदम्।
केशव धृत
मीन शरीर...जय जगदीश हरे....।।"
कानों में गूँज रही थी,कोकिल
कंठियों की मधुर ध्वनियाँ, सामने पत्तल पर
पड़ा था छप्पन कोटि व्यंजनों का अम्बार,किन्तु मन था वहाँ से कोसों दूर कुलांचे मारता -कभी कलकत्ता
कभी कानपुर तो कभी भीतर के
बरामदे में।
विगत तीन बर्षों में परिस्थितियाँ कहाँ से कहाँ पहुंचा दी थी
दुनियाँ को,सोच कर खुद ही ताज्जुब होने लगा था।उस बार वसन्त के साथ
देवकान्त चाचा के घर गया था,पूरे
परिवार का हाथ देखने।वहाँ से डेरे पर आते ही
सूचना मिली थी कि मेरी दादी का
स्वर्गवास हो गया है।फलतः चले आना पड़ा था वापस गांव में अपने चाचा-चाची के साथ।
श्राद्धादि सम्पन्न कर वापस गया था,करीब महीने भर बाद।वहाँ जाने पर मालूम हुआ कि दशहरे की छुट्टी में शक्ति का पूरा
परिवार अपने गांव चला गया है।
महीने भर बाद,जब छुट्टी समाप्त
हो गयी थी, हम और वसन्त
बड़ी बेसब्री से शक्ति के वापस कलकत्ता आने
की प्रतीक्षा कर रहे थे।इसी बीच
चिट्ठी आयी थी,कानपुर से उसके
चाचा की; जिसमें लिखा था कि उनकी द्वितीया पुत्री का द्विरागमन
अगहन में होने वाला है।इस कारण पूरा
परिवार घर से कानपुर जा चुका है।
परिणामतः हमलोगों की अधीरता एक माह और आगे बढ़ गयी। फिर पूरा अगहन बीता,पौष बीता और आधा माघ भी गुजर गया।हमलोगों की प्रतीक्षा बढ़ती जा रही थी।ट्यूशन से लौटते
समय प्रायः
छावडि़या निवास का चक्कर लगा लिया
करता था।पर हमलोगों के स्वागत में हमेशा
मुंह चिढ़ाता ताला ही उपस्थित रहता।फिर एक दिन पत्र मिला शक्ति के चाचा का,जिसके साथ ही वसन्त की
भाभी का भी पत्र था- लिफाफे में लिफाफा। लिखी थी-‘प्रिय वसन्त बाबू! हम सब यहाँ कुशल से हैं।आप सब की मंगल
कामना के लिए ईश्वर से प्रार्थना
करती हूँ।नीता का गौना हो गया, पिछले महीने ही।मैं अभी यहीं हूँ। आशा है,कुछ दिन और यहीं रहूँगी भी।पता नहीं
आपके भैया मुझसे नाराज क्यों रहते हैं।कभी भूल कर
भी पत्र नहीं देते।आपको तो कम से कम नहीं भूलना चहिए।आँखिर उन्हीं
का दूसरा रूप तो आप भी हैं।शक्ति अभी यहीं है।इधर उसके पिताजी की तवियत
बहुत खराब चल रही है।दिल का दौरा फिर पड़ गया है।इसी कारण कलकत्ता जाने से पिताजी
ने मना कर दिया है।मुझे भी
कलकत्ता आने की इच्छा हो रही है।शक्ति के साथ मैं भी जरूर आऊँगी;और आपके ज्योतिषी मित्र कमलजी
से मैं भी हाँथ
दिखलाऊँगी कि आपके भैया क्यों मुझसे रूठे
रहते हैं।वश आज इतना ही।पत्रोत्तर की आशा में –
आपकी भाभी।’
पत्र पढ़ कर वसन्त लिफाफा मेरी ओर सरका दिया था।यह कहते हुए, ‘लीजिए ज्योतिषीजी अब तो आपकी यश-कीर्ति कलकत्ते से सवा सात सौ
मील दूर कानपुर तक पहँच चुकी है।शीघ्र ही और
आगे राजधानी भी पहुँच जायेगी।फिर आप
प्रधानमंत्री के ज्योतिषी बन जायेंगे।आपका
तो बश ‘परमोशन ही परमोशन’ है।परन्तु क्या आप जानते हैं कि यह सब शक्ति देवी की कृपा है?’
मैं कुछ कहता,इसके पूर्व ही वसन्त ने मायूसी पूर्वक कहा,‘एक संवेदनापूर्ण समाचार है - देवकान्त चाचा को दौरा फिर पड़ा है।यह दूसरी
बार है।हे ईश्वर रक्षा करना! अभी बहुत कुछ करना शेष है, बिचारे को।’
इस संवाद को मिले सप्ताह भर से अधिक हो गए।हमलोग सोच रहे थे कि स्वास्थ्य
सुधर गया होगा,और शक्ति शीघ्र
ही अपने माता-पिता और दीदी के साथ कलकत्ता
वापस आ जाएगी।परन्तु शक्ति नहीं आयी,आया एक टेलीग्राम
-
‘‘Father hospitalized at
Jashalok_Amar”
पढ़ते-पढ़ते टेलीग्राम हाथ से छूटकर नीचे जा गिरा।उसे उठाते हुए वसन्त ने
कहा-‘लगता है स्थिति काफी गम्भीर हो गयी है।तभी तो कानपुर से बम्बई
ले जाना पड़ा।आज रात बम्बई मेल से मुझे भी
चले जाना चाहिए।’
और रात आठ बजे वह रवाना भी हो गया।इच्छा तो मेरी भी हो रही थी,साथ निकल
चलने को, किन्तु अपने चाचाजी से अनुमति
मिलना नामुमकिन जान,मन मसोस कर रह गया।
चौथे दिन बम्बई से भेजा वसन्त का टेलीग्राम मिला था-चाचाजी अब सदा के लिए
इस धरा-धाम को त्याग चुके थे।अन्त्येष्टि संस्कार के बाद वसन्त वहाँ से उनके गांव चला गया था।
करीब पन्द्रह दिनों बाद वापस आया था कलकत्ता,श्राद्धादि सम्पन्न करके,अकेले ही।बेचारी शक्ति अब आकर क्या करती वहाँ?
क्या रह गया अब उसका इस महानगर में! कुछ
यादें...।बस और क्या?
डेरे का सामान अमर भैया आकर लेगए थे।शक्ति अपनी माँ -भाभी के साथ गांव में
ही रहने लगी थी। फिर सुनने में
आया कि बर्षों से ननिहाल में ही रह रही है।पिता के देहावसान के थोड़े ही दिनों बाद
माँ को साँप डंस लिया।शक्ति सर्वथा असहाय हो गई।भाई-भौजाई भी ध्यान न दिए।तब से
गुजर करने चली आयी ननिहाल में ही.....।
वारातियों का भोजन समाप्त हो चुका था,और गीतगोविन्द भी।रमणियों का कंठस्वर अब दूसरा ही राग अलाप रहा
था -‘जे न वरात पुरौ नृप दशरथ,काहे न लाये निज जनियाँ के, बहिनियाँ के, पितिअइनियाँ के, कोई हरत न उनकर जवनियाँ के....सुन के लागे न
तीखो....।’
बगल में बैठा वसन्त फिर मेरी तन्द्रा भंग किया था-‘कहाँ खो जाते हो? क्या सोचते रहते हो?’
सामने की भोजन पंक्ति में बैठे पिताजी भी टोक दिए थे-‘क्यों कमल! तबियत तो
ठीक-ठाक है न? खाना सब पड़ा रह गया,कुछ
खाये नहीं।क्या बात है?’
किन्तु उनकी बातों का क्या जवाब देता ? कहाँ खोया था और क्या हुआ है मेरी तबियत को ? परन्तु वसन्त
इससे गैरवाकिफ न था।हाथ पकड़ कर खीचते हुए बोला- ‘ चलो उठो।बैठे झक क्या मार रहे हो? हाथ तो धो लो कम से कम।’ और फिर कान में अपना मुंह सटाते हुए आहिस्ते से कहा था-‘इच्छा है,मुलाकात करोगे
शक्ति से?’
विगत बातें याद आ-आ कर मन कसैला कर गया था।रोम-रोम में अजीब सिहरन सी हो रही थी। मुलाकात! क्या होगा करके? क्या
पूछुँगा, क्या कहूँगा शक्ति से? कहाँ से बात प्रारम्भ करूँगा? क्या कह कर सन्तोष- दिलाशा दूँगा कि मैं तुम्हें भुला चुका....?’
और फिर क्षणभर में ही तीन-चार हथेलियों का दृश्य आखों के सामने नाच गया था -जटिल हृदय
रोगी का हाथ,आसन्न वैधव्य का
हाथ,बड़े खानदान की होनहार बहू का
हाथ...और इसी तरह...।
आँसू की लडि़याँ बनकर लुढ़क आयी थी कपोलों पर।सामने खड़े वसन्त की आँख
बचाते हुए अपनी जेब में हाथ डाला,और सहेज
लिया था उन मोतियों की लड़ी को।
भोजन के तुरत बाद ही वारात की विदाई हो गई थी।ध्वनि-विस्फारक यन्त्र अभी
भी अपना कर्तव्य निभाये जा रहा था -
‘‘ बाबुल की दुआएँ लेती जा,जा तुझको सुखी संसार मिले।
मैके की कभी ना याद आए,ससुराल में इतना प्यार मिले....।’
और डोली चल पड़ी थी भैया-भाभी को साथ
लेकर।मैं मन मारे
पीछे-पीछे चलता रहा था।शक्ति जहाँ की तहाँ रह गई थी।न मैंने कुछ कहा, न उसने ही।
डायरी का एक और पन्ना फड़फड़ा कर अतीत द्वार का दूसरा पट खोल गया,
और मैं धीरे-धीरे पग धरता उस द्वार के भीतर बढ़ता चला गया...बढ़ता ही चला गया....
मई का
महीना था।पन्द्रह या सोलह तारीख।स्कूल मौर्निंग चल रहा था।घंटे भर पहले स्कूल से
लौटा था।दोपहर का खाना खाकर अभी-अभी विस्तर पर लेटा था,यह सोच कर कि घंटा भर विश्राम कर लूँ,फिर स्कूल का टास्क पूरा करूँगा।इसी बीच दरवाजे पर
दस्तक हुई -खटऽऽटऽऽखट! डाकियाऽ...ऽ।
चौंक कर कच्ची नींद से जाग पड़ा।भुनभुनाते हुए हड़बड़ा कर उठ बैठा --कम्बक्त डाकिये को इसी वक्त आना था।इसे तो धूप भी
नहीं लगती।भीषण गर्मी है।प्रचण्ड लू चल रही है।कहीं मार दिया लू तो हो जायेगी छुट्टी बच्चूराम की...।
और द्वार खोल दिया था,एक ही
झटके में।सामने खड़ा डाकिया मुस्कुरा
रहा था- ‘बहुत सोते हो कमल।’
तो क्या मक्खियाँ मारूँ, बैठ कर जेठ की दोपहरी में या आपकी तरह मारा-मारा फिरूँ,इस गांव से उस गांव?--कहता हुआ उसके हाथ से एक लिफाफा और ‘कल्याण’ का मई अंक लेकर कमरे में आ गया।
कल्याण के
मुखपृष्ट को पलट कर द्वितीय पृष्ट पर छपे रंगीन चित्र को सबसे पहले देखने की मेरी पुरानी आदत थी।उस मई अंक
में छपा था चित्र- श्री राधाकृष्ण की युगल छवि।
ऑस्ट्रेलियन गाय सी सीना ताने, गोपाल के पीछे खड़ी थी एक सुन्दर सी गाय,और उससे
टेका लगाए खड़े थे, राशविहारी वनमाली
श्रीकृष्ण,जिनके एक हाथ में थी मुरली,जो उनके सुघड़-सलोने होठों से लगी हुई। दूसरा
हाथ था- अपनी आह्लादिनी
शक्ति राधा के वाम कुच-शृंग पर,और राधा के
दोनों हाथ वर्तुलाकार होकर अपने प्रियतम को ग्रसे हुए था- वाहुपाश में।राधाजी मन्द-मन्द मुस्कुरा रही
थी। पलकें मुंद कर कजरारे नयनों को ढके हुए थी,शायद इसलिए कि उनसे विंध कर कोई और ग्वाल-बाल घायल न हो जाए।
चित्र इतना सुन्दर था कि मैं खो सा गया कुछ देर के लिए उस युगल छवि में।ऐसा लगा मानों कृष्ण की वंशी की
मद्दुर तान मेरे कानों में पड़ रहे हों।चित्र के ऊपर लिखा हुआ था-
‘‘पूर्णस्य
पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।"
और बगल के पृष्ठ पर लिखा था-
‘‘कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन। मा
कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सङगोऽस्त्व कर्मणि।।"
बहुत देर तक टकटकी लगाए रहा उस दिव्य छवि पर,और फिर नीचे सरक
कर नजरें जा लगी गीता के उस श्लोक पर,जिसमें
कर्म की दुहाई दी गयी है-भाग्यवाद की धरा
पर धर कर,कर्म की महत्ता सिद्ध की गयी है।
लोग कहते हैं- कृष्ण परब्रह्म हैं।
परमेश्वर हैं।पूर्णावतार हैं।अर्जुन
को उपदेश दिए थे- कर्म करने मात्र का।उसके फल की आकांक्षा को ‘कृष्णार्पणमस्तु’ कर देने
का।हुंऽह...क्या ही अनोखा उपदेश है –कर्म करो,करते जाओ।फल देने
वाला तो कोई और है। कौन है वह फलदाता- प्रारब्ध?भाग्य?या कृष्ण?
थोड़ी देर के लिए अजीब भ्रमजाल में उलझ गया था,अपरिपक्व बाल
मस्तिष्क।तभी ध्यान आया लिफाफे का,और चट खोल
डाला उसे।यह पत्र था,कलकत्ते से
चाचाजी का भेजा हुआ,पिताजी के
पास।अन्य समाचार कोई खास महत्त्व पूर्ण नही था मेरे लिए।हाँ,था
महत्त्व तो सिर्फ एक बात का-‘....उस बार घर
आया था तो कह रहे थे तुम कि
गांव के स्कूल में कमल की पढ़ाई-लिखाई अच्छी नहीं हो पाती।यदि उसकी छमाही परीक्षा हो गयी हो तो स्थानान्तरण
प्रमाणपत्र के साथ शीघ्र कमल को लेकर यहाँ आजाओ।
मैंने यहाँ रेलवे स्कूल के इन्सपेक्टर से बात की है।एडमीशन हो जायगा।‘
मेरे लिए इस पत्र का काफी महत्त्व था।बहुत दिनों से लालसा
लगी थी,शहर में जाकर पढ़ने की। लगता है अब भाग्य जगा है।कुछ
पल पूर्व देखी गयी,राधाकृष्ण की युगल छवि की ओर बरबस ही ध्यान चला गया,जो अभी भी वहीं विस्तर पर खुली पड़ी थी। मुस्कुराते हुए उसे उठाकर माथे से लगा लिया। ईश्वर
के प्रति कृतज्ञता के भाव उत्पन्न
हो गए।वास्तव में तू कितना दयावान है।कितनी कृपा की है तूने मुझ पर;और फिर गुनगुनाने लगा था-‘कर्मण्येवाधिकारस्ते,मा फलेषु कदाचन...।‘ हाथ में पत्र लिए कमरे से बाहर निकल,दौड़ता हुआ चल दिया माँ के पास,जो बरामदे
में बैठी चावल बीन रही थी।थिरकता हुआ उसे
सुसंवाद दिया- माँ! चाचाजी की चिट्ठी आयी है।लिखा है उन्होंने
कि जल्दी से भेज दो कमल को।यहाँ नाम
लिखा जाएगा।...किसके साथ जाऊँगा माँ? कब जाऊँगा?
माँ ने कहा था- ‘पिताजी के साथ जाओगे और किसके साथ।’
कब जाऊँगा माँ? - मैंने फिर सवाल दोहराया।
‘जब वे कहेंगे।’- संक्षिप्त सा उत्तर था माँ का।मैंने गौर किया - ममता की
मूर्ति माँ की आँखों के किनारे गीले हो आए थे।तेरह बर्ष के ‘बूढ़े’ गोद के बच्चे को पास से हटा कर पढ़ाई के लिए
इतना दूर भेजना, माँ को अच्छा न लग रहा था।तभी तो गीले हो आए आँखों के किनारों
को आँचल से पोंछती हुयी माँ, लपक कर
मुझे गोद में खीच ली थी।मुझे अपने मजाकिया मामा की बात याद आ गयी- ‘ भाँजे राम जानते हो मेरी माँ- यानी तुम्हारी
नानी क्या कहा करती थी मुझसे?’
मैं उत्सुकता पूर्वक पूछता - क्या कहती
थी मेरी नानी आपको मामाजी? ‘कहती थी- बासी विद्यानासी।’- मामाजी कहते।
क्या मतलब हुआ इसका?- मैं तपाक से पूछता।
‘मतलब यह कि सदा बासी भात खाया करो,ताकि विद्या कभी न आवे।विद्या पाने के लिए दूर जाना पड़ता
है।पढ़ने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती
है।पढ़-लिख कर नौकरी करनी पड़ती है।इसमें भी मेहनत है,और घर से दूर भी जाना पड़ता है।माँ से दूर हटना पड़ता है।मैं
इसी कारण हमेशा बासी खाया,मौज से माँ के पास रहा।’- मामाजी की वे ही बातें आज याद आ कर
पल भर के लिए गुदगुदा गयी थी।
सच में अब विद्या पाने के लिए ही तो माँ से दूर जा रहा हूँ।
और पुलकित होते हुए बाहर भाग गया था,माँ की गोद से उठ
कर; अपने यार-दोस्तों को बतलाने।
दूसरे ही दिन पिताजी के साथ जाकर स्कूल से नाम कटा लिया था,और तीसरे दिन चल पड़ा था, टी.सी. लेकर कलकत्ता की ओर पिताजी के साथ।
गांव की सीमा को पार कर,सुदूर शहर में जाने का यह पहला अवसर था।शहर क्या,महानगर
-अपने प्रान्त को छोड़ दूसरे प्रान्त में।विहार को छोड़ बंगाल में।
गांव के स्कूल में एक तो पढ़ाई अच्छी नहीं होती थी,दूसरी बात कि
निरंतर विषाक्त होता जा रहा ग्रामीण माहौल,और इसका खमियाजा
भुगतती नयी पीढ़ी।कितनों को यह साधन-सुविधा उपलब्ध
है जो दूर जा सकें पढ़ने के लिए?
माँ-पिताजी,प्यारी सी
एक छोटी बहन,भोला,रामू,मोहन,सुधीर आदि लंगौटिया
यार-दोस्त, सोणभद्र के तट पर मीलों फैले बगीचे-जिनमें आम,अमरूद,जामुन,कदम्ब आदि
पेड़ सुस्वादु फलों से लदे हुए,सोन की
तराई में बल्लरियाँ –तरबूज,खरबूज,ककड़ी,खीरा; अपनी गृह-वाटिका में भरे पड़े पेड़-पौधे –लीची,अंगूर,केला,संतरा,नासपाती,शरीफा,शहतूत यह
सारा कुछ तो था मेरे गांव में,मेरे घर में...। फिर क्यों,इन सब को पराया कर,सिर्फ एक उद्देश्य - पढ़ाई के लिए चल देना पड़ा उजाड़
नीरस नगरी में?
हाँ,सर्वगुण सम्पन्न
कलकत्ता महानगर मेरे लिए वास्तव में नीरस नगरी ही थी,जहाँ मेरा
वह कुछ नहीं है,जो मेरे गांव में उपलब्ध है।
ऐसा ही कुछ सोचता हुआ चला जा रहा था- स्यालदह-जम्बू-तवई एक्सप्रेस के द्वितीय श्रेणी के डब्बे में बैठा हुआ।काफी देर
तक गुम-सुम बैठा देख पिताजी ने कहा था- ‘क्यों कमल! क्या सोच रहे हो? माँ याद आ रही है क्या या मुन्नी?’
पिताजी के इस प्रश्न को सुनते ही देर से दबाए आँसू जबरन
लुढ़क आए गालों पर ।स्थिति को भांपते हुए
पिताजी ने पास बुला कर अपनी गोद में बैठा लिया,जो सामने की सीट पर बैठे हुए थे।
अपने गमछे से मेरा मुंह-आँख पोंछते
हुए बोले- ‘बस,कलकत्ता पहुँचने
भर की देर है,फिर तो भूल जाओगे
सब कुछ वहाँ की चकाचौंध में।फिर न याद रहेगी मुन्नी और न माँ।’
मैं सोचने लगा था- क्या सच में भूल
पाऊँगा माँ और मुन्नी को? अभी कोई डेढ़-दो माह बाद ही तो रक्षाबन्धन का त्योहार आना है।उस दिन कौन बाँधेगा मुझे राखी? कलाई सूनी ही रह जायेगी?
तभी याद आ गया था एक और भोला मुखड़ा।घर से चलने से घंटे भर पहले गया था -पड़ोसन
मुंहबोली बहन मैना के यहाँ।मैना बाल-सहचरी
थी मेरी।साथ खेलना,साथ खाना,यहाँ तक कि कभी-कभी
रात में खाना खा कर उसके साथ ही सो
जाना, ऐसा ही तो होते
आया था अब तक।
मुन्नी का जन्म तो बहुत बाद में हुआ था।उसके जन्म के पहले
जब भी रक्षाबन्धन आता,रो-रो कर
आँखें सुजा लेता अपनी - कौन मुझे राखी बाँधेगा?
वैसे ही एक त्योहार के दिन मैना की माँ ने हाथ पकड़ कर
मेरे सामने हाजिर कर दिया था- ‘लो,यह है तुम्हारी
बहना।बँधवालो राखी जितना बँधवाना है।मगर रोओ मत।’
फिर मैना ने भी न आव देखा न ताव।पास पड़े रंगीन धागे को उठा
कर मेरी कलाई पर बाँध ही तो दी थी,और मैं खुशी से नाचता हुआ माँ के पास चला गया था - देखो माँ मैना ने राखी बाँध
दी है मुझे।लाओ न देने के लिए उसे राखी का दक्षिणा।
माँ ने दिया था,उस समय का
प्रसिद्ध बेहतरीन ‘अलपाका ’ का
एक टुकड़ा मैना के फ्रॉक के लिए,और साथ ही नगद दो रूपये, मिठाई खाने के लिए।हाथ में रूपया और कपड़ा
लिए दौड़ता चला गया था मैं मैना के पास,और उसके ना नुकूर के बावजूद जबरन दे आया था उसके हाथों में।
वही मैना आज चलते वक्त रूआँसी होकर बोली थी- ‘इस बार तो तुम जा
रहे हो भैया,राखी किसको बाँधूँगी?
कहीं भूल तो न जाओगे इस बहना को?’
‘नहीं मैना,ऐसा हरगिज नहीं
होगा।’-मैंने आँखें पोछते हुए कहा था।
मैना फिर पूछी थी- ‘अच्छा यह बतलाओ कि मेरे लिए कलकत्ते से क्या लाओगे?’
मैंने कहा था -जो भी
अच्छा लगेगा,तुम्हारे लायक,उसे लेता आऊँगा।
तभी बाहर से पिताजी की आवाज आयी
थी- ‘कमल! गप्पें ही मारते रहोगे? जल्दी करो। यात्रा का मुहूर्त बीता जा रहा है।’
मैं घबराया हुआ सा बाहर आ गया था।मैना वहीं खड़ी सिसकती रह गयी थी।
इन्हीं बातों में उलझा पड़ा रहा था कुछ देर तक पिताजी की गोद में सिमटा हुआ सा। फिर पूछा था - गाड़ी कलकत्ता कब तक
पहुँचेगी पिताजी?
‘यही कोई तीन-साढ़े तीन बजे शाम तक।’- कहते हुए पिताजी कलाई पर
बँधी घड़ी देखने लगे।मैंने फिर पूछा
-कलकत्ता जाने वाली गाड़ी है,और नाम है- सियालदह जम्बू तवई -ऐसा क्यों?
पिताजी ने मेरी शंका-समाधान किया- ‘ कलकत्ता का प्रधान स्टेशन है- हावड़ा; और
उसके पूर्वी छोर पर है- स्यालदह।यह गाड़ी वहीं जाती है।’
वहाँ से कितनी दूर है,चाचाजी का डेरा?- मेरे पूछने पर
पिताजी ने अपने बैग से निकाल कर कलकत्ते का ‘गाइड-मैप’ मेरे सामने फैला दिया
था; और समझाने लगे थे- ‘ यहाँ देखो हावड़ा स्टेशन है,और यहाँ पूर्वी छोर पर है स्यालदह।वहाँ से करीब तीन-चार
किलो मीटर की दूरी पर है,
कालीघाट। वही पटेल कॉटन कम्पनी के क्वाटर
में रहते हैं तुम्हारे चाचाजी।’
इतनी दूर पैदल चलना पड़ेगा क्या?-मैंने सवाल किया।
‘ पैदल क्यों?शहरों में सवारी की काफी
सुविधा होती है। लोग दस कदम भी पैदल नहीं चलते हैं।कलकत्ते में तो और अधिक सुविधा है।ट्राम,बस,तांगा,टैक्सी,रिक्शा,डबलडेकर
आदि बहुत से साधन हैं।’- पिताजी ने
सवारियों की सूची और निर्धारित किराया,उसी नक्शे
में एक ओर छपा दिखलाया था।
यह डबलडेकर क्या होता है?- मैंने फिर सवाल किया।
‘यहाँ लोगों को देखते हो न, ट्रेन-बस
की छतों पर जान जोखिम में डालकर,और कुछ हीरो छाप शौकीन भी सफर करते हैं।न जनता को परवाह
है,न सरकार को चिंता।कभी-कभी प्रशासन के
कान पर जूँ रेंगती है।धर पकड़,मारपीट होती है।फिर प्रशासन कान में तेल डाल कर सो जाता है,और जनता जनार्दन ‘कुत्ते की दुम’ टेंढ़ी की टेढ़ी रह जाती है।’- हाथ के इशारे से पिताजी ने डिब्बे में एक
जगह लिखा हुआ दिखलाया- ‘ रेल आपकी सम्पत्ति है’ ‘जीवन अनमोल है’ किन्तु हम समझते कहाँ हैं।कितने
लोग पढ़ते होंगे इस‘स्लोगन’ को? और पढ़ने वालों
में अमल कितने लोग करते होंगे?’
मैंने नजरें उठाकर देखा -एक जगह और भी
एक स्लोगन था-
‘धूम्रपान निषेध’ और ठीक उसके नीचे बैठा, एक शूटेड-बूटेड मुसाफिर सटासट चुरूट पी रहा था।
मैंने गर्व पूर्वक
कहा -पिताजी मैं जब बड़ा होऊँगा तो दो मंजिला रेल बना दूँगा,ताकि लोगों को कठिनाई न हो।जिसे सुन कर पिताजी हँसते हुए बोले- ‘इसीलिए तो कलकत्ते में भीड़भाड़ को देख कर सरकार डबलडेकर यानी दो मंजिला बस चला दी है।’
मेरे दिमाग में फिर एक प्रश्न उभरा -‘ पिताजी! जब यहाँ प्लेटफार्म पर बिना
भीड़-भाड़ के टिकट मिल ही रहा था,तब आप
इतनी परेशानी क्यों उठाए? यहीं क्यों नहीं लिए?
मेरी बात पर पिताजी मुस्कुराते हुए बोले-‘रेल विभाग ने टिकट खिड़की तो
वहीं बनाई है।वहाँ प्लेटफार्म पर हाथ में डायरी लिए जो काला कलूटा आदमी देखा था तुमने,जैसा शरीर वैसी पोशाक और वैसा ही मन-मस्तिष्क भी।ये सब रेल
विभाग के ‘घुन’ हैं, जो भीतर-भीतर खाए जा रहे हैं।उनकी डायरी में नाम लिखा दो, दो रूपये किराये के बदले अठन्नी-चवन्नी कुछ
थमा दो बस।टिकट लेने के धक्काधुक्की से भी बच गए और हो सकता है कि बैठने के लिए
सीट भी मिल जाए।देश रसातल में जाए।ये विभाग
के सेवक, रक्षक और पहरेदार नहीं हिस्सेदार या कहो खुद को मालिक समझ बैठे हैं।कहने की जरूरत
नहीं यह व्यवस्था का ‘घुन वाला कीड़ा’ सर्वत्र मिल जाएगा।कमाल की बात तो यह है कि यह संक्रामक कीड़ा नीचे से चढ़
कर ऊपर की ओर नहीं गया है,वल्कि ऊपर से
नीचे की ओर शनैः-शनैः सरकता हुआ बढ़ा है।और राष्ट्रकाय को नष्ट-भ्रष्ट करने पर
तुला हुआ है।’
पिताजी की लम्बी समालोचना के बीच में मैं अपना मनोभाव स्पष्ट किया-यह तो बहुत गलत बात है।फिर इस पर ध्यान क्यों
नहीं दिया जा रहा है?
उन्होंने कहा-‘किसे सोचने-विचारने की फुरसत है? दिल-दिमाग ,कर्म-स्वभाव
चाहे कैसा भी क्यों न हो,कपड़े लकदक हों,खादी हो तो और उत्तम,फिर सौ खून माफ। समाज में उसकी ही प्रतिष्ठा है;बाकी तो प्रतिष्ठा
के काउण्टर पर सबसे पीछे धक्के खाते नजर आयेंगे.....।’
रास्ते भर
फिर ऐसी ही बातें होती रही थी।करीब घंटा भर लेट गाड़ी पहुँची स्यालदह स्टेशन पर। और वहाँ से डेरा पहुँचे थे
हमलोग करीब पांच बजे शाम को।चाचा-चाची बहुत
ही प्रसन्न हुए हमें देख कर।
अगले दिन रविवार था।चाचाजी ने पिताजी से कहा, ‘आज स्कूल का कोई काम होना नहीं है।अच्छा होता कमल को अपने साथ घुमा-फिरा देते।कलकत्ते के चहल-पहल से थोड़ा परिचित हो जाता
तो मन लग जाता।’
पिताजी ने
कहा- ‘ आप ही इसे टहला लाईये।हमें जाना है एक दो लोगों से मिलने-जुलने।फिर कल ही वापस भी जाने का विचार
है।रात दून एक्सप्रेस से निकल जाऊँगा।’
‘ठीक है मेरे साथ ही घूम आएगा।’- कहते हुए चाचाजी ने मुझे
जल्दी से तैयार हो जाने का आदेश दिया।
मध्याह्न भोजन के बाद हमलोग निकल पड़े।छोटे बड़े कई जगहों पर मुझे ले गए चाचाजी। यहाँ तक कि शाम होने को आयी।अन्त में
हमें लेकर पहुँचे बड़ा बाजार जोड़ासाकू के
पास हाजी मुहम्मद बिल्डिंग।
सारा दिन यहाँ-वहाँ बहुत घूमा।नयी जगह,नयी बातें,नयी चीजें; किन्तु इसके बावजूद कुछ खास न लगा मुझे।न
जाने क्यों मन उचाट सा रहा।कुछ भी तो नहीं दीखा जो बाँध सके मेरे मन को।न आम के
बगीचे न जामुन के पेड़,न कोयल की कूक,न तरबूज
की बल्लरियाँ,और न मटर की
छेमियाँ।हाँ जहाँ-तहाँ ठेले पर,खोमचे में
या फिर ऊँची-ऊँची दुकानों पर करीने से सजे
फल जरूर नजर आए,जिन्हें
देख कर लगा कि उन्मुक्त गगन के पंछियों को
पिंजरे में बन्द कर दिया गया है-‘पर’ काट कर।यहाँ न
मेरा मोहन है न रामू और न भोला।मैना को भी दूर ही छोड़ आया था।जी चाहा कि चिल्लाकर
रो पड़ूँ।किन्तु वह भी न कर सका।चारों ओर
शोर-शराबा इतना कि कोई रोए भी तो
सुन न पाए कोई।
तिमंजिले इमारत की छोटी-छोटी संकीर्ण सीढि़याँ चढ़ते हुए
चाचाजी ने बतलाया- ‘इसी मकान के ऊपरी मंजिल में तुम्हारे मामा रहते हैं।इस इलाके का यह नामी
मकान है।इतना बड़ा कि छोटा सा गांव समा जाए
इस मकान में।’
चाचाजी की यह सूचना मुझे थोड़ी देर के लिए पुलकित कर
गई।मुरझाए मन के अन्धेरी गलियारी में विजली सी चमक उठी।मामा यहीं रहते हैं,तब तो वसन्त भी
यहीं होगा।
पिछली बार यानी तब से कोई दो-तीन साल पहले जब उसके
भैया की शादी में माँ के साथ नानी घर गया था
तब वसन्त से भेंट हुई थी।उस समय तो वह बच्चा सा लगता था।बच्चा क्या,वह
तो मुझसे सिर्फ कुछ महीने ही बड़ा है।भेंट
होते ही कलकत्ते का पूरा इतिहास-भूगोल पढ़ा गया था।और अन्त में कहा था-‘अरे कमल क्यों नहीं तुम भी वहीं नाम लिखवा लेते।कितना अच्छा होता,हमदोनों
साथ-साथ स्कूल जाते।खेलते,घूमते।बड़ा मजा आता।’
मैंने मुंह विचकाते हुए कहा था -कौन पूछने वाला है मुझे वहाँ, इतने बड़े शहर में एक निरे देहाती गरीब
बच्चे को?
‘क्यों?’- आँखें
तरेर कर वसन्त ने पूछा था।
क्यों क्या? मेरे पिताजी के पास इतना पैसा कहाँ है,जो इत्तेबड़े शहर में
रख कर पढ़ा सकें?- मैंने अपनी असमर्थता जाहिर की थी।
‘पैसा नहीं है तुम्हारे पिताजी के पास तो क्या हुआ? चले आओ किसी तरह,मेरे यहाँ रहना।वैसे भी यह तुम्हारी माँ की माँ का घर है।वहाँ
सिंगल माँ है,यहाँ डबल मा –
मामा।’- हँस कर वसन्त
ने कहा था।
माँ की माँ का घर है,मेरी माँ का नहीं न? मैंने अपने अधिकार
की स्पष्टीकरण दिया।
‘छोड़ो भी ये फिजूल की बातें।कहो तो मैं पापा से बात करूँ।’- कहता हुआ वसन्त दौड़ा चला गया था मामा के पास दूसरे
कमरे में।माँ भी वहीं बैठी थी।
वसन्त के भोले प्रस्ताव पर क्षणभर विचार करने के बाद मामा कुछ कहना ही चाह रहे थे कि उनके
बदले माँ ने ही कहा था- ‘अभी हड़बड़ी क्या है? कमल अभी बहुत छोटा है।थोड़ा और बड़ा हो जाए,फिर देखा
जाएगा।’
और फिर समय बीतता गया था,एक-दो-तीन
करके।बीच-बीच में मैंने कई बार कहा भी था-पिताजी से।मामा की चिट्ठी भी आयी थी।किन्तु मेरी गृह-परिधि
ज्यों की त्यों बरकरार रही।
इस बार संयोग से चाचाजी का तबादला गोपालगंज से जब कलकत्ता हो गया, तब मेरा भाग्य-पट स्वतः खुल गया,समय के वयार से;और बर्षों की चाह सहज ही पूरी हो गयी।
अब तक हमलोग ऊपर तीसरी मंजिल पर पहुँच गए थे।रविवार होने के कारण मामा डेरे पर ही थे।वसन्त भी था ही।देखते के साथ
ही आश्चर्य चकित हो गया।
‘कब आया कम?और कौन आया है घर से? फूफाजी?- एक साथ कई सवाल दाग दिए वसन्त ने,और मेरा हाथ पकड़ खीचता हुआ मामी के पास
लिए चला गया था।
मैंने हर्षित होकर कहा –हाँ,पिताजी के साथ ही आया हूँ ,और यूँही कलकत्ता टहलने नहीं,बल्कि पूरी तैयारी से।नाम यहीं लिखवाना है स्कूल में।
जान कर वसन्त ने खुशी जाहिर की- ‘तब तो बड़ा ही अच्छा है।किस स्कूल में नाम लिखवाने का इरादा है?’
मैं क्या जानूँ, कौन सा स्कूल।चाचाजी जहाँ लिखवा देंगे।- मैं कह ही रहा था कि
मामा कहने लगे- ‘जब आ ही गए हो,तो चिन्ता किस
बात की।मैं अपने ही स्कूल में तुम्हारा नामांकन
करा दूँगा। वसन्त भी तो वहीं पढ़ता है आठवीं में।’
‘वाह पापाजी।तब तो मजा आ जाएगा। हमदोनों साथ मिलकर स्कूल जायेंगे।’-वसन्त खुशी से नाच उठा था।
‘हाँ-हाँ क्यों नहीं,चुहलबाजी का एक सदस्य बढ़ जाएगा।’- कहकर मामाजी हँसने लगे।उनकी हँसी में चाचाजी ने भी हिस्सा
लिया।
दूसरे दिन यानी सोमवार को मामा के
साथ विवेकानन्द विद्यालय गया था।इसी स्कूल में मामाजी संस्कृत के शिक्षक थे।प्रधानाचार्य
से उनकी बातचीत हुई।मेरे गत परीक्षा का
अंकपत्र और स्थानान्तरणपत्र देखा उन्होंने।फिर मुंह चुनते हुए पॉकेट से सिगरेट
निकाल होठों से
दबाते हुए बोले- ‘ओऽ बिहारी छेले...तोबे तो मुश्किल...।’
मामा ने कहा था- ‘कोई रास्ता निकालिए।आपकी आपत्ति इसी बात पर है न कि बिहार का शिक्षास्तर बंगाल से बहुत नीचे है? यह तो जाँच-परख की बात है।जरा इसका ‘मार्क्सशीट’ तो देखिए, कितना हाई मार्क्स है हाफ इयरली में।इस पर
भरोसा न हो तो ‘इन्ट्रेन्श टेस्ट’ ले लीजिए।सिर्फ बिहार के नाम से क्यों...।’
मामा के इस तर्क पर प्रधानाचार्य श्री घोषाल मौन हो गए। जाहिर
है कि उनके पास समुचित उत्तर नहीं है।जरा ठहर कर होठों से सिगरेट
हटा,एक लम्बा कश छोड़े और तब इत्मीनान से
तन कर बैठते हुए बोले- ‘किन्तु ऐई मोध्य सोत्रे की कोरे हऽते पारे?’
मामा कुछ उदास से हो गए-‘ तऽबे?’
सिगरेट का दूसरा कश खीच-छोड़ कर श्री घोषाल ने फिर कहा था-‘आगामी जोनवरी मासे टेस्ट नीए आमी नामाकन कऽरते पारबो,एखून सोम्भव नेंई।’
मामा और महाशय घोषाल के बीच हुए बंगीय संवाद को तो
मैं समझ नहीं पाया; किन्तु प्रधानाचार्य
के गरिमामय पद-मर्यादा की खिल्ली
उड़ाता सिगरेट का धुआँ और सिगरेटधारी होठों की मुद्रा कई प्रश्न चिह्न लगा गए मेरे बाल मस्तिष्क में- यह तो ‘छब्बीस जनवरी’
का घोर अपमान है! क्या हम सच में गणतन्त्र
में रहते हैं?
हमदोनों बाहर आ गए चेम्बर से निकल कर।मामा ने कहा था- ‘कोई बात नहीं,कुछ तो रास्ता निकलेगा ही।पांच-छः माह की तो बात है।तैयारी
में लग जाओ।दिसम्बर में टेस्ट दे देना है।नाम लिखा जाएगा जनवरी में।इस प्रकार साल
भी बरबाद नहीं होगा।’
तत्काल नाम न लिखाने का अफसोस तो जरूर हुआ,किन्तु उससे भी अधिक दुःख प्रान्तीय संकीर्णता का हुआ।अपने ही
घर का एक कोना क्या अपना नहीं है --बाल मस्तिष्क इससे अधिक कुछ
सोच न पाया,निकाल न पाया दिल में चुभ कर टूट गए कांटे को।
उसी दिन संध्या समय मामाजी मेरे लिए कुछ किताबें लेकर आए।मुझे
आवश्यक निर्देश देते हुए चाचाजी से कहने लगे- ‘आप भी जरा ध्यान
रखेंगे।मन लगाकर पढ़ाई करेगा तो नामांकन होना कठिन नहीं है।किसी न किसी तरह मैं रास्ता निकाल ही लूँगा।’
अगले दिन से ही चाचाजी ने ट्यूशन लगवा दिया था-
केदार सर के यहाँ।वसन्त भी वहीं जाया करता था।मेरी तैयारी जोर-शोर से चलने लगी।केदार सर ने बड़े मनोयोग
पूर्वक पढ़ाया था मुझे।अगले कुछ ही
माह में मैं अपने स्तर में
काफी विकास अनुभव करने लगा था।एडमिशन टेस्ट में सफलता स्पष्ट झलकने लगी थी।
जनवरी महीने में नामांकन हो गया,नौवीं कक्षा में।स्कूल जाने का नियमित
कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया।
विगत सात-आठ माह का शहरी प्रवास काफी कुछ सिखा गया
था- रहन-सहन,तौर-तरीका।फिर
भी विद्यालय का वातावरण कुछ अजीब सा लगता
था एक बन्धन सा।खाकी पैन्ट,सफेद कमीज,काला जूता,सफेद मोजा,नीली टाई,सुनहरा बैज-‘विवेकानन्द उच्च विद्यालय,कलकत्ता’ लिखा हुआ।कुल मिला कर यह सब साहबी ठाट ही तो था- एक ग्रामीण छात्र के लिए।एक और बात-
विकट समस्या भाषा की।ऐसा नहीं
कि हिन्दी भाषी नहीं थे।मगर प्रान्तीयता का एक ‘ठसक’।बंगला लिखना-बोलना सीखना निहायत जरूरी था।
फिर शनैः-शनैः सब सहल हो
गया।परिवेश कुछ-कुछ अपना सा लगने लगा।
इतना कुछ तो मैं यूहीं कह गया।असल में कहना कुछ और है। चौदह
की उम्र,नौवीं का छात्र- यही तो था वह
समय।जब वातावरण से लगभग परिचित
हो चुका था।फिर भी प्रेम क्या होता है,उसकी
अनुभूतियाँ कैसी होती हैं-
मुझे उस वक्त तक कुछ भी समझ न था।स्कूल जाना और वापस चले
आना।शाम खेल-कूद का समय मैदान के वजाय कीचेन में चाची को हाथ बटाने में गुजर जाना.फिर
ऊपर रेलिंग के पास या पटेल कॉटन
कम्पनी के क्वार्टरों के मुख्य द्वार पर,जहाँ कि हमलोगों का डेरा था, खड़े होकर राहगीरों को देखना-
मानों चिडि़या घर के जानवरों या सरकस के
जोकरों को देख रहा होऊँ। और मन ही मन उनके देश,वेष,जाति,कौम आदि
का अनुमान लगाना;फिर अन्धेरा हो जाने पर अनचाहे
ही टेबल-लैम्प के पास बैठ जाना-
कोई किताब खोल कर घंटे दो घंटे के लिए;फिर खाना और सो
जाना।यही दैनिक का रूटीन बन गया था मेरा।
हाँ.कभी कभार खास कर
रविवार या अन्य अवकाश के दिनों,दोपहर में
वसन्त आ जाता, तब उसी के साथ निकल पड़ता सैर सपाटे के लिए।काफी देर तक कलकत्ते की
लम्बी-चौड़ी सड़कों की
खाक छानता।देर रात गए वापस आता।रात
वहीं गुजरती वसन्त के साथ ही।
मामा के डेरे के बगल में ही एक तिवारी परिवार रहता था। उम्र
में कुछ बड़े होने के नाते वसन्त उन्हें भैया कहता था।उनकी शादी अभी हाल में ही
हुयी थी।
भाभी वहीं रहा करती थी।उनका मैके भी पास में ही था। वसन्त का अधिकांश समय उन्हीं
भाभी के साथ हँसी मजाक में गुजरता था।वह भी सगे देवर जैसा वर्ताव करती
थी।मेरा भी
मनबहलाव हो जाता था-
भाभी के साथ हँस-बोल कर।सहोदर बड़ा भाई न
होने के कारण सगी भाभी का अभाव हमेशा खटकता रहा।
तिवारी भैया गणित के प्रतिभाशाली विद्यार्थी विट्टल वागडि़या महाविद्यालय
में स्नातक द्वितीय बर्ष के छात्र थे।आए दिन हमलोगों की गणितीय समस्या-समाधान में
इनका सहयोग मिला करता था।
एक दिन वसन्त ने बड़ी गम्भीरता से कहा-‘जानते हो कमल तिवारी भैया भाभी
को बहुत प्यार करते हैं।भाभी भी बहुत
चाहती हैं उन्हें।’
‘तुम कैसे जानते हो कि उनमें बहुत प्रेम है,एक दूजे के लिए?’- मेरे बचकाने प्रश्न पर वह मुस्कुराने लगा। गाल पर आहिस्ते से
थपकाते हुए बोला- ‘इसीलिए स्कूल में तुम भोंदूमल कहलाते हो। कभी चुपके से देखो तो पता चल जाय
कि कैसे करते हैं एक दूसरे को प्यार।’
और फिर एक रविवार का प्रोग्राम बना।रविवार को मैं उसी के डेरे पर रूकता था।रात सोते भी हमदोनों साथ में थे।देर रात धीरे
से चिकोटी काटकर मुझे जगा दिया,और ले गया बगल कमरे के दरवाजे के पास।कारीगरी की कमी से कई
छोटे सुराख थे उस किवाड़ में।उन्हीं में से झांक कर वह अकसरहाँ उनलोगों की हरकतें देखा करता
था।अभी भी एक छेद में आँखें डाल भीतर का
दृश्य देखते हुए,मुझे
भी दूसरे छेद की ओर इशारा किया।
उस समय जब मैं एक सूराख में आँखें डाला तो भाभी को भैया की गोद में बैठे
पाया। छोटी बच्ची की तरह भाभी उनकी गोद में सिमटी पड़ी थी.और भैया की अँगुलियाँ कभी भाभी के बालों से,कभी गालों से खिलवाड़ कर रही थी।कभी यहाँ-वहाँ वदन के अन्य
हिस्सों में भी भैया के हाथ चले जाते,सहलाते हुए।दोनों हँस-हँस कर बातें कर रहे थे।फिर एकाएक मैंने देखा कि हड़बड़ा कर अपनी बाहों में जकड़ कर होठों को चूम
लिए।चटाक की आवाज इतनी तेज थी कि स्पष्ट सुनाई पड़ी;और खटाक से अपनी नजरें हटा
लिया मैंने सुराख से।बगल की सुराख से वसन्त की आँखें अभी भी सटी
हुई थी।पता नहीं क्या-क्या अभी आगे देखना चाह रहा था।
मैं सोचने लगा था - मैं भी तो जब कभी अपनी माँ की गोद
में होता हूँ,वह मेरे बालों और गालों पर अँगुलियाँ फेरने लगती है। न जाने
क्या ढूढ़ने लगती है मेरे वदन पर।यूँही हाथ फेरती-फेरती कभी जूएँ ढूढ़ने लगती है। और बालों के खींच-तान से उब कर मैं
भाग खड़ा होता हूँ।
छोटी मुन्नी जब कभी मेरी गोद में होती है,मैं उसे चूम लेता हूँ।कभी-कभी इतने जोरों से कि वह रो पड़ती
है।क्या इसी को वसन्त के शब्दों मे प्यार कहते हैं? यदि हाँ तो फिर यह प्यार एक विशालकाय व्यास-निर्मित परिधि है।भैया-भाभी,माँ-मुन्नी
और मैं में इसे संकुचित नहीं
किया जा सकता।स्पर्श, बाहु- भरण और चुम्बन
-ये तो वाह्य प्रतीक है,अभिव्यक्ति है।यह
अजूबापन नहीं।सहज मानव स्वभाव है।
विस्तर पर आकर देर तक इन्हीं विचारों में उलझा रहा।नींद आ न रही थी,वसन्त की हरकत ने उचाट कर दिया था।
अगले ही रविवार फिर एक और घटना,कुछ-कुछ उसी प्रकार की घट गयी,जो प्यार की अनबूझ परिभाषा में कुछ और कडि़याँ जोड़ गई।
उस दिन घंटों से गणित का एक प्रश्न हल करने में उलझा हुआ
था।पर प्रश्न भी मेरी परीक्षा ले रहा था।रात्रि के ग्यारह बज रहे थे।सुबह टास्क
पूरा करने का समय नहीं मिलता।किसी प्रकार इसे इसी वक्त
हल करना ही पड़ेगा।यह सोचकर चल दिया तिवारी भैया के कमरे की ओर,क्यों कि वसन्त से मैंने सुन रखा था कि कैसा भी जटिल सवाल तिवारी भैया चुटकी बजा कर
हल कर देते हैं।
बाहर की आहट से भान हुआ कि भैया अभी सोए नहीं
हैं।कमरे का किवाड़ यूँही भिड़काया हुआ था।सहज धक्के से सपाट खुल
गया।पलंग पर से वे हड़वड़ा कर उठने लगे।पांव उलझ गए भाभी की साड़ी में।सिल्क साड़ी
सर से सरक गई काफी ऊपर तक।मेरी आँखें जा
टकरायी उनकी संगमरमरी सुडौल जंघाओं से।उल्टे पांव वापस आ गया।कह नहीं
सकता,पर लगा कुछ अजीब सा।फेफड़ा धौंकनी सा चलने लगा।विस्तर पर पड़ा
घंटों छत निहारता रहा।भाभी की नग्न
जंघा अभी भी आँखों से ओझल न हो रही थी।सोचता रहा - आखिर भैया इस कदर क्यों सोए हुए
थे,उठे भी तो इतनी लापरवाही पूर्वक।भाभी कितना शरमा गयी होंगी।
इसी प्रकार भय,लज्जा और ग्लानि
से भरा रहा।कई दिनों तक उनका सामना न कर
सका।
वसन्त प्रायः ऐसी
ही चर्चा छेड़ देता।मैं चुप सुन लेता,क्यों कि
समुचित जवाब न था मेरे पास। और फिर एक नयी
बात - हमदोनों बाजार जा रहे थे।सायकिल मैं चला रहा था,और वसन्त आगे रॉड
पर बैठा हुआ था।आदतन वह वैसी ही बातों की धुन में,मुझसे कहा- ‘जानते हो कमल,एक बात?’
‘क्या?’- मेरे
प्रश्न के जवाब में उसने फिर प्रश्न ही रख दिया-‘लड़कियों के गाल इतने मुलायम और चिकने क्यों होते हैं,चाहे गोरी हों या
काली?’
वसन्त की बात पर मैं जोर से हँसते हुए कहा -ये भी कुछ पूछने वाली बात है? अरे उन्हें दाढ़ी-मूंछें जो नहीं होती।
मेरा उत्तर सुन कर वह खिलखिला कर हँसते हुए बोला- ‘बुद्धु कहीं
के।अभी तेरे गाल भी तो बिना दाढ़ी-मूंछ के
ही हैं;किन्तु क्यों नहीं हैं वैसे? कभी सोचा?’
मैं निरूत्तर हो गया
था।आखिर क्या जवाब लगाता उसके बेढंगे प्रश्न का?
सब्जी मंडी करीब आगया।भीड़ सघन हो गयी थी।सोच ही रहा था कि अब सायकिल से उतर जाऊँ; तभी अचानक सन्तुलन खो बैठा, बगल से गुजरते कुत्ते से टकराकर।और
हड़बड़ाहट में मेरी सायकिल जा टकरायी एक लेडिज सायकिल से। नतीजा यह हुआ कि हमदोनों
लुढ़क पड़ें।वह बेचारी भी सम्हल न सकी।एक ओर वह भी जा गिरी,और होठों
से कड़ुआहट भरे बोल फूट पड़े- ‘कैमोनअसभेऽर लोग...सायकेल चालाते जानेन नेईं...आपनेउ पोड़लेन...आमाकेउ
पोड़ालेन...।’
मैं घबड़ा गया था,क्यों कि गलती मेरी ही थी।मैं उठ कर पहले उसकी सायकिल उठाने लगा। वसन्त भी
पैंट झाड़ता उठा, और अपनी सायकिल सम्हालने लगा।?फिर हमदोनों की नजरें तीसरी से जा
टकरायी।
‘ओ तूमी कऽमऽलऽ?’-आश्चर्य और खेद भरे शब्द थे उसके।मेरे समीप आकर,मेरी ठुड्डी छूकर शर्मिन्दगी पूर्वक बोली- ‘येमनी भूल हऽए गालो...मऽधेऽ कुकूर देखे आमीऊ भऽय खेलाम...भीड़
छिलोई ...पोड़े गैलाम।’
और फिर सायकिल
सम्हालती सर झुकाए आगे बढ़ भीड़ में कहीं खो गयी। वह थी हमलोगों की क्लासफेलो - मीना चटर्जी।
उसके आगे बढ़ते ही मेरे मनचले वसन्त ने कहा- ‘देखे न,कितना
भोलापन था उसमें? गुस्से
में सलोने गाल की चिकनाहट लहु की ललायी से कितना निखर गया था।तुम तो ....।’
सो कैसे?- मैंने बीच में ही टोका।
‘कैसे नहीं? गिराए भी बेचारी को और अपनी गाल भी छुलवाए
उसकी नाजुक अँगुलियों से।’- वसन्त ने कहा था।
अगले दिन स्कूल में मुलाकात हुई
थी,मीना चटर्जी से।सामने पड़ते ही मैंने पूछा- बुरा मान गयी थी कल? मैंने जान बूझ कर धक्का
नहीं दिया था।रास्ते में पड़ कर उस कुत्ते ने...।
शर्म से झुकी गुलाबी पलकें कुछ ऊपर उठीं।धीरे से मुस्कुरा कर बोली- ‘मैं क्यों बुरा मानने लगी, बुरा तो
तुम माने होगे।मुझे लगा था कि कोई अवारा
छोकरा जानबूझ कर टक्कर मार दिया है। इसीलिए गुस्से में ‘असभ्य’ शब्द निकल पड़ा मुंह से।बाद में तुमलोगों पर नजर पड़ते ही मैं शर्म से पानी पानी हो गई।गलती तो मेरी ही थी,जो राँग साइड चल रही थी।’
इसे मैं उसका भोलापन कहूँ या उसकी महानता?बातें करते हमदोनों हरिशन
रोड के चौराहे पर आ पहुँचे।उसका आवास करीब ही था बागड़ी मार्केट के पास।वह चली गयी
अपने डेरे की ओर और मैं ट्राम पकड़ कर चल दिया कालीघाट,अपने डेरे की ओर।
उस दिन के बाद फिर हमदोनों का सानिध्य बढ़ने लगा।गपशप
के साथ-साथ किताब-कॉपी-नोट्स आदि का
आदान-प्रदान आरम्भ हो गया।
मुझे सायकिल चलाने का बहुत शौक था,वह भी लेडिज सायकिल चलाना ज्यादा अच्छा लगता था।मीना से
परिचय-प्रगाढ़ता से सर्वाधिक
प्रसन्नता इसी बात की हुयी थी।कम से कम नित्यप्रति मौका तो मिलेगा ‘रीशेस’ में ।
रोज इन्टरवल में उसकी सायकिल
लेकर दौड़ाता रहता स्कूल -ग्राउण्ड में।कभी-कभी वह चुपके से आ बैठती कैरियर पर।मैं अपनी धुन में मस्त रहता।कुछ देर बाद मुझे निश्चिन्त देख.पीठ में गुदगुदी करती तो चौंक कर पीछे झांकता।वह खिलखिलाती हुई उतर कर भाग जाती; और कहती, ‘इत्ती देर से बैठी हूँ तेरे पीछे कैरियर पर,और तुझे पता भी नहीं?’
मैं कहता- पता क्या चले मुझे,कोई भारी
गठरी हो तुम?
‘वाह रे तुम्हारा बोझ,अब क्या
दो मन की हो जाऊँ मैं,तब पता चलेगा
तुम्हें?’-हँसती हुई कहती,और फिर
उचक कर बैठ जाती। जी में आता कि कह दूँ- फूल की एक छोटी सी डलिया रख ही दी जाय पीछे,तो क्या पता फर्क पड़ता है?
समय इसी तरह अठखेलियाँ करता सरकता रहा।
बर्ष में एक दिन ऐसा आता,जब हमलोगों को छूट मिलती थी,अपनी पसन्द की पोशाकों में स्कूल जाने की,स्कूल-ड्रेश के बन्धन से मुक्त होकर।इस दिन का इन्तजार न जाने क्यों सबको रहता।
वह दिन था- ‘विद्या देवी’ की उपासना का दिन,यानी सरस्वती-पूजा।बर्ष
भर के उल्लास को अन्तस्थल में दबाए लड़के-लड़कियाँ,सभी उस दिन एक से बढ़ कर एक रंगीन पोशाकों में सज-धज कर
आती थी, रंगीन तितलियों की तरह,जो एक से दूसरे फूल पर उड़-उड़कर पराग चूमती चलती हों।लगता था कि उस दिन पोशाकों की बड़ी प्रदर्शनी लगी हो हमारे स्कूल में।
सारा दिन पूजा-अर्चना और आगन्तुकों-आमन्त्रितों की आवभगत में
गुजर जाता।रात्रि में प्रीति भोज का आयोजन होता।फिर सांस्कृतिक
कार्यक्रम प्रारम्भ होता,जो लगभग पूरी रात जारी रहता।
इच्छानुसार छात्र-छात्रायें इस कार्यक्रम में भाग लेते,और अपनी कला का प्रदर्शन करते। इस बार रात्रि भोजनोपरान्त एक
पौराणिक नाटक का आयोजन निश्चित था।
भोजन सामग्री में वहाँ की परम्परानुसार ‘माछेर भाजा’ और नमकीन
पुलाव की व्यवस्था रहती, जिसे हम खिचड़ी कहें तो अतिशयोक्ति नहीं।भोजन निर्माण से परिवेशन तक का दायित्व प्रायः
लड़कियों पर ही सौंपा जाता; शायद इसलिए कि आगे चल कर उन्हें कुशल गृहणी
जो बनना होता है।
भोजन तैयार हो चुका था।लड़कों का समूह लम्बे वरामदे में
विराज चुका- लम्बी भोजन-पट्टिकाओं पर।काम से
जी चुराने वाली कुछ लड़कियाँ भी इसी समूह में आ घुसी थी।
खिचड़ी मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती।घर में संयोग से जिस दिन
खिचड़ी बन जाती,उस दिन रूठ कर
मेरा ‘उपवास-व्रत’ हो जाता।पर न जाने स्कूल के उस उत्सव के अवसर पर बनी खिचड़ी क्यों इतनी
स्वादिष्ट लगती कि बर्ष भर उसकी प्रती7 रहती थी।
खिलाने-परोसने में मीना चटर्जी भी शामिल थी।खिचड़ी परोसी
जा चुकी थी।अगले ‘आइटम’ की थाल-
तली हुयी छोटी मछलियों का‘भाजा’ लिए मीना ज्यों
ही मेरे पत्तल की ओर झुकी, अचकचा कर मेरे मुंह
से निकल पड़ा - मुझे मछली मत देना मीना,सिर्फ खिचड़ी ही खाऊँगा।
माँ वागीश्वरी के प्रसाद रूप में भी मछली न खा सकना, मेरे खानदानी संस्कार के धूमिल छाप का अवशेष था,जो बंगाल प्रवास के दूसरे बर्ष तक भी समाप्त न हो सका था।जब कि वहाँ छोटी मछली ‘इचना’ तुलसी पत्र सा
पवित्र माना जाता है।प्रसाद की पूर्णता इसके वगैर असम्भव है।
मेरे ‘नऽऽनन’ के बावजूद बारम्बार के आग्रह को थोथा करार देती हुयी मीना ने
मछली का भुजिया डाल ही तो दिया मेरे पत्तल पर,जिसे देख मेरा मन भिन्ना उठा।किन्तु वह बेपरवाह लड़की कनखी
से मेरी ओर देखती आगे बढ़ गयी- अन्य पत्तलों पर प्रसाद डालने-
यह कहती हुयी कि इसे भी खाना ही होगा,अन्यथा सरस्वती नाराज हो जायेंगी।
मैं नहीं समझ पाया कि इचना और सरस्वती में क्या सम्बन्ध है।जी चाहा था उठ जाऊँ छोड़
कर,पर यह भी सम्भव न था।समाज
और समूह,साथ ही चिर प्रतीक्षित प्रसाद।‘मीन-मेष’ विचार में ही उलझा हुआ था कि बगल में बैठा वसन्त आदतन चुटकी लिया, ‘कितना मजेदार है,सोच क्या
रहे हो? चट कर जाओ आँख मूंद
कर।चाचाजी से नहीं कहूँगा।या फिर मछली को किनारे लगा दो,और खिचड़ी तो खा ही सकते हो।वह तो पत्तल पर अलग पड़ा
है।प्रसाद त्यागने का पाप भी नहीं लगेगा, और मछली खाने की मजबूरी से भी बच जाओगे।किन्तु एक बात और है...।’
और क्या बात है? -मैंने उत्सुकता से पूछा,जिसके जवाब में वह मेरे कान में अपना मुंह सटाते हुए धीरे से
बोला- ‘अरे यार,जरा
उन कोमल कलाईयों पर तो रहम करो।’
मैं खाऊँ-त्यागूँ के द्वन्द्व से अभी उबर भी न पाया था कि वह
अल्हड़ लड़की फिर आगयी, क्यों कि उसका परोसना पूरा हो चुका था।मेरे सामने बैठती हुयी
बड़े प्रेम से पूछी-‘क्या सच में नहीं खाना
है? इन्सान से तो नहीं,भगवान से तो डरो।’
‘नहीं मीना।जिद्द न करो।मुझे धर्म-भ्रष्ट न करो।प्रसाद आदरणीय है;किन्तु धर्म
भी...।’-कातर दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए बोला।
‘धर्म...कौन सा धर्म?’- हाथ मटका कर मीना ने कहा, ‘विद्यार्थीधर्म’अपने आप में एक सनातन धर्म है,जो पूर्णतः स्वतन्त्र धर्म है,और हर धर्म और सम्प्रदाय से कहीं उच्च श्रेणी का है।विद्यार्थी का अलग से कोई धर्म नहीं होता।’
मेरे धर्म की दुहाई का जम कर खण्डन किया मीना ने।कुछ देर
मेरी आँखों में झांकने के बाद फिर बोली- ‘एक बार खाकर तो देखो इसका स्वाद’ फिर मछली क्या,पत्तल भी चट कर
जाओगे।
इसका जवाब मैं सोच ही रहा था कि मछली का एक टुकड़ा उठाकर अपने मुंह में धर ली,और, दूसरा टुकड़ा मेरा जबड़ा दबाकर मेरे मुंह में ठूँस दी- ‘अब जरा देखो मजा मछली का।कितना स्वादिष्ट
है,और तुम कहते हो कि खाऊँगा ही नहीं।’
इस जोर जबरदस्ती में अनजाने में ही मेरा मुंह उसके कपोलों से
जा टकराया।वह शरमा कर बगल के स्टोर रूम में भाग गई।इधर सभी लड़के-लड़कियाँ ठहाका लगाकर हँस दिए।वसन्त को मजाक का
सुनहरा अवसर मिल गया।
‘क्यों कमल! ‘सावित्री-सत्यवान’ का रिहर्सल चल रहा है?’
मुझे अजीब सी सिहरन हो आयी थी।माँ-बहन जैसी ममता...जोर
जबरदस्ती खिलाने-पिलाने में...।फिर याद आ
गयी भाभी,जो भैया को नापसन्द की चीजें कैसे जबरन खिलाया करती हैं।बिजली की धारा सी रग-रग में पुनः प्रवाहित हो गयी थी।सिहरन
की इस अनुभूति को आखिर क्या कह सकता हूँ, जो अनचाहे ही हृदय की धड़कनों को बढ़ा देती
है?
अभी इन्हीं विचारों में उलझा हुआ था कि लाउडस्पीकर पर एनाउन्समेन्ट होने लगा --
(...क्रमशः)
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