निरामय- भाग एक


          निरामय        
मीरा तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला।
प्रिय मीरा,प्रियतम मीरा,तू मेरी साकी बाला।।
अपने हाथ पिला दे मुझको,मैं छक कर पीलूँ हाला।
फिर तू न रहे,फिर मैं न रहूँ ,बस रह जाए प्यासा प्याला।।
प्रियतम आज पिला दे इतना पी न सकूँ जितनी हाला।
तूही मेरी साकी बन जा,तू ही बन मेरी हाला।।
मेरे तन के रोम-रोम में बस जाए हाला-हाला।
आज पिला दे तू इतना कि फिर न कभी पीऊँ हाला।।
जाने किस मंजिल पर मिल कर हम दोनों टकरायेंगे।
फूट पड़ेगा प्यासा प्याला,चू जाएगी सारी हाला।।
प्रियतम आज समा जाने दे मुझको इन प्यासे प्यालों में।
खो जाने दे इन प्यालों की खन-खन करती गुँजारों में।।
सो जाने दे छाँव अलक में बन जाने दे मीरामय.....
     मीरामय ’............ कहीं दिव्य लोक से आती स्वर-लहरी अचानक टूट गई। काश! यह सम्भव हो जाता- मैं हो पाता मीरामय! मीरामय!
              निरामय ’ यानि निःआमय,विकार रहित,शून्य,बिलकुल अकेला,बेसहारा सा।नीरा एक अनुपमेय देव दुर्लभ पेय,और मीरा,उसे पान कराने वाली एक अद्भुत नारी।और मैं मीरामय बनने की चाह हृदय के अन्तस्थल में दबाये, बन गया निरामय,बिलकुल निरामय।

              नींद से बोझिल पलकें खुल गयी थी।अचानक एक झटका सा लगा,मानों कोई झकझोर कर जगा गया हो। नींद की खुमारी अभी भी बनी हुई थी।गीत के बोल अभी भी उसी तरह कानों में मधु-रस घोल रहे थे।घोल रहे थे,घोलते जा रहे थे।
              मैं न तो कवि हूँ, और न कभी कविता करने का प्रयास ही किया हूँ।किन्तु अनजाने ही आँखें मलते हुए बैठ जाता हूँ,डायरी खोल कर;और लिख डालता हूँ उपरोक्त पंक्तियों को,जिसे अभी-अभी सुना कर,साथ ही मुझे जगाकर,न जाने वह अदृश्य शक्ति स्वयं कहाँ गुम हो गयी।
              काश! फिर सुन पाता उन झंकारों को...उन गुंजारों को...देख पाता रूप की उस देवी को...छू पाता सौन्दर्य की मलिका को...।      
         जल्दी-जल्दी डायरी के पन्नों में कैद कर डाला उन पंक्तियों को ताकि भूल न जाँयें जैसा कि अब तक सब कुछ भूलता आया हूँ,खोता आया हूँ....।
                  
              विचारों का जोरदार झोंका मस्तिष्क के वातायन से होकर आया,और अतीत डायरी के कितने ही रंगीन और कोरे पन्नों को फड़फड़ा कर पलट गया,पलटता गया...और पलटता गया।
              दुर्भाग्य की काली चादर में उलझाकर खो दिया है मैंने अपने स्वर्णिम भविष्य को,गवां दिया है- अपनी शक्ति को।
              शक्ति! जिसे समाप्त हुए आज कितने वक्त गुजर गए- यह बतलाने की भी शक्ति मुझमें नहीं रही।अगर रहती तो भी शायद पूर्णतया स्पष्ट बतला पाने में अशक्त ही रहता।
            शक्ति! आह मेरी शक्ति!! मेरी मानसिक शक्ति...मेरी हार्दिक शक्ति...मेरी शारीरिक शक्ति...मेरी बौद्धिक शक्ति...मेरी आह्लादिनी शक्ति...मेरी सर्वस्व शक्ति...ओफ!
            ओफ! मैंने खुद के हाँथों ही तो उसका’ गला घोंट डाला। उसके पार्थिव काय पर अभी भी मेरी शक्ति’ के दाग हैं।मेरी दसों अँगुलियों के दाग हैं,उन अँगुलियों के जिसे देख कर अनायास ही उस "दक्षिणी " ने कहा था एक दिन, "अरे तेरी तो सारी की सारी अँगुलियाँ चक्र पूर्ण हैं...तू तो बड़ा सौभाग्यशाली है।"
          हस्तरेखा विज्ञान शायद बतलाता है,इन चक्रों का महत्त्व।ये चक्र भगवान कमलापति विष्णु के कर कमलों में सुशोभित सुदर्शन चक्र नहीं हैं।यह है मनुष्य की अँगुलियों के अग्रभाग पर विधाता द्वारा रचित,सुदर्शन चक्र का प्रतीक मात्र।कहा जाता है कि जिस व्यक्ति की दसों अँगुलियाँ चक्र के निशान-युक्त होती हैं, वह बड़ा ही भाग्यवान होता है।
          ‘‘आज प्रजातान्त्रिक युग में भी,चक्रवर्ती राजा और सम्राट तो नहीं परन्तु तत्तुल्य धन, ऐश्वर्य, श्री,शक्ति सम्पन्न तो हो ही सकता है,इन चक्रों के बदौलत कोई भी मानव।"- इतना कह कर ऊपर की ओर नजरें उठायी थी,उस दक्षिणी हस्तविशारद ने और पल भर में ही किसी मनचले नौजवान सा मचल कर उठ खड़ा हुआ था,पास खड़ी शक्ति का हाथ लपकने को, ‘‘लाओ बेटी,अब तुम्हारा भी भविष्य जरा देख लूँ।तेरे पति का भाग्य तो बड़ा ही उत्तम है।विधाता ने तेरे हाँथों में क्या लिखा है,जरा उसे भी तो परख लूँ।"
          किन्तु विजली की नंगी तार छू जाने का सा झटका लगा शक्ति को।पलक झपकते ही गौरैया सी फुदकती कमरे में घुस बैठी, यह कहते हुए, ‘‘छोडि़ये जी,मैं हाँथ-वाथ नहीं दिखती।"
          मैं कहना ही चाहा था, दिखा लो न शक्ति,पंडितजी बहुत अच्छा हाथ देखते हैं।’ पर मेरी बातें गले में ही अटकी रह गयी। कुछ देर बाद वह फिर दाखिल हुई उस कमरे में,हाँथ में एक हरा नोट पकड़ें हुए,जिसे दक्षिणी ब्राह्मण के आगे अवज्ञा पूर्वक फेंककर मेरी ओर मुखातिव हुई, ‘‘आप भी अजीब हैं,जिस-तिस के सामने हाँथ फैला देते हैं।क्या रखा है इन टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों की श्रृंखला में? बस खाने कमाने का एक जरिया भर ही तो है यह विद्या। गर्भस्थ बालक के लम्बे समय तक मींची मुट्ठी के कारण ही तो ये रेखायें कोमल हथेली पर उभर आती हैं। मैं नहीं समझती,इससे भी कुछ अधिक महत्त्व है या हो सकता है,इन बेतरतीब लकीरों का।यदि हाथ ही फैलाना है तो उस निर्गुण-निराकार-परब्रह्मपरमेश्वर, अचिन्त्य -सच्चिदानन्द-आनन्दकन्द,त्रिलोकी नाथ के सामने क्यों नहीं फैलाते? जो अपरिमेय है,अखण्ड है,अविनाशी है,सर्वव्यापी है,सर्वशक्तिमान है,नियंता है,रचयिता है,इस सृष्टि का मेरा और आपका...।"
          शक्ति कहती जा रही थी,मैं सुनता जा रहा था।उधर बेचारा दक्षिणी,तुम्बी सा मुंह लटकाए अपने भाग्य को कोस रहा था,शक्ति द्वारा अनादर पूर्वक फेंके गए पांच रूपये के नोट को जमीन से उठाते हुए,अपना पोथी-पतरा समेट रहा था,मानों अपने अरमानों के लाश पर का कफन समेट रहा हो।
          लगता है,दुनियाँ के हाँथ की लकीरें बाँचने वाला आज अपने ही लकीरों में उलझ गया है तभी तो सबेरे-सबेरे प्रथम यजमान के साथ ही ऐसी दुर्घटना घट गई,जिसका उसे स्वप्न में भी गुमान न रहा हो।
          शक्ति भीतर कमरे में जा चुकी थी।पूर्व प्रसंग पर व्याख्यान निर्वाध जारी था।मैं भी छेड़-छाड़ करने न गया।क्यों कि इसके दुष्परिणाम से अवगत हूँ,और इससे भी पूर्णतया अवगत हूँ कि आज
नास्तिकों सा प्रलाप करती शक्ति वस्तुतः कितना आस्तिक है।कितना विश्वास है इसे,लकीरों की लिपि पर,इस सामुद्रिक शास्त्र ’ पर।यह दृढ़ आस्था यदि न होती, तो क्या मैं पा सकता था शक्ति को?

              अतीत डायरी का एक और पन्ना पलट पड़ता है।
          उस दिन रंगीन महफिल सजी थी,मेरे चचेरे भैया की बारात की महफिल।गाजे-बाजों का शोर शान्त होने लगा था।बरामदे में बैठी किन्नरियों का मधुर गुंजन भी लगभग समाप्त हो गया था।क्यों कि सभी सराती’ अब बारातियों की भोजन व्यवस्था में जुट गए थे।बाराती प्रायः बाहर निकल गए थे, भोजन वाले पंडाल में।अन्दर आंगन में बस रह गए थे- भैया,जिनके बगल में लाल जोड़ें में लिपटी,गुडि़या सी सिमटी बैठी थी भाभी।मेरे और भैया के दो-चार मनचले दोस्तों के साथ मैं भी वहीं खड़ा,भीतर वरामदे की ओर कनखियों से निहार रहा था,जहाँ कुछ पल पूर्व इन्द्रलोक से उतर आयी अप्सराओं सी सजी-धजी गोरियाँ झाल-ढोलक-हारमोनियम की धुन पर थिरक रही थीं।उनमें भी अधिकांश जा चुकी थी।एक-दो जो पाये की ओट में खुद को छिपाने का निरर्थक प्रयास करती,हुलक रही थी,उन्हीं में एक पर अनचाहे ही मेरी निगाहें फिसल-फिसल कर फिर चिपक गई, क्यों कि यदि मेरी याददाश्त दुरूस्त है,तो निश्चित ही उस षोडशी को कहीं देखा हूँ,किन्तु कब..?कहाँ..?कैसे..?कुछ भी याद नहीं
          भूली-बिसरी बातों को याद करने में हृदय और मस्तिष्क की जो दुर्गति होती है,इसे कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है।प्रकाश से भी तीव्र गति से घूम गया मेरा मन न जाने कहाँ-कहाँ,और अन्त में आकर अटक गयाबर्षों पूर्व के एक दृश्य पर।
          महानगर- कलकत्ता।बागड़ी बाजार के नुक्कड़ पर बने छावडि़या-निवास की पांचवीं मंजिल पर रहते थे- श्री देवकान्त भट्ट जी।न जाने कितनी बार गया था उनके निवास पर।हर बार साथ में रहता था वसन्त,मेरा ममेरा भाई।
     उस दिन भी उसीने मुझे भी जबरन खींच लाया था।उसका रोज का यही कार्यक्रम रहता था- प्रातः छः बजे ही चल पड़ना किताब-कॉपी लेकर ट्यूशन के लिए। कोई दो घंटे बाद उधर से वापसी कार्यक्रम में शामिल रहता छावडि़या कोठी का दर्शन।उसके लिए यह अत्यावश्यक कार्यसूची में समाहित था।और फिर वहाँ पहुँच कर घंटो क्या,पहरों गुजर जाया करता किसी-किसी दिन।दरअसल,घर में दुलारे लाडले से पूछने वाला तो कोई था नहीं कि क्या तुम्हारा ट्यूशन एक घंटे के वजाय चार घंटे तक चलता है?               
       उस दिन भी मैंने टोका था-वसन्त को- व्यर्थ का मुझे क्यों घसीटते हो? तुम वहाँ चक्कलस करते हो,मैं बेकार बोर होता हूँ।’
मजाकिया अंदाज में होठ चुनते हुए वसन्त ने कहा था- ‘‘अरे मेरे दोस्त,क्यों अधीर होते हो,ऊपर वाले की कृपा यदि हुई तो तुझे भी कुछ मिल ही जाएगा।"
          किन्तु क्या मैं सच में उसकी बातों को ब्रह्मवाणी मान लिया था उस दिन,जो वस्तुतः सही सिद्ध हुई कुछ ही काल बाद?
          यही कोई सुबह के साढ़े आठ बजे होंगे।वहीं पास ही,छावडि़या कोठी के ठीक पीछे वाली गली में मास्टर केदारनाथ रहते थे,जिनके पास हम दोनों नित्य जाया करते थे,ईंगलिश ट्यूशन के लिए। उनके डेरे से छावडि़या कोठी पहुँचने में यही कोई पांच-सात मिनट का समय लगता होगा।और फिर पांच मंजिले इमारत की ऊँची दूरी विद्युत-चालित लिफ्ट मिनटों में ही तय कर देता था।परन्तु उस दिन काफी देर हो गई थी।कुछ तो केदार सर के यहाँ ही,और कुछ वक्त गंवा डाला बेरहम लिफ्ट,जो दूसरी मंजिल पर ही आकर अटक गई थी, विद्युत आपूर्ति में बाधा के कारण।उस बेज़ान को क्या पता था कि उस पर सवार है.एक कुँआरा धड़कता दिल।
          खैरियत इतनी ही थी कि रूकी थी लिफ्ट ठीक दूसरी मंजिल पर पहुँच कर ही,जहाँ करीब पांच मिनट तक चालू होने की प्रतीक्षा करने के बाद हम दोनों लाचार होकर,बोझिल कदमों से सीढि़याँ नापने लगे थे।जल्दबाजी में वसन्त कभी-कभी एक के वज़ाय दो-दो पायदान तय कर रहा था।
          हाँफते हुए जब हमलोग ऊपर पहुँचे तो वहाँ विचित्र बाजार सा जमघट लगा हुआ पाए। मलमल की समूची थान सिर पर बाँधे,बाजार का सारा गोपी चन्दन माथे पर पोते-स्फटिक, रूद्राक्ष, पद्माख, प्रवाल,मुक्ता, वैजयन्ती आदि न जाने कितनी ही मालाओं से ठसा गर्दन; पूरे शरीर को भस्मीभूत किए,कौपीन-धारी एक महात्मा का दर्शन हुआ।
          कुल मिलाकर विचित्र ही वेश बना रखा था उन महानुभाव ने।एक ओर सिर पर पांच किलो की पगड़ी और दूसरी ओर नंग-धड़ंग --मात्र कौपीन।सिर्फ वह घर ही नहीं, वल्कि लगता था कि समूची कोठी ही उस छोटे से कमरे में समाकर महात्मा के श्रीचरणों में लोट जाना चाहता था।
          महात्माजी बिजली-सी गति से धड़ाधड़ तत्रोपस्थित भक्त मंडली में किसी को भभूत,किसी को ताबीज,किसी को प्रसाद,किसी को मात्र आशीर्वाद बांट रहे थे।किंचित अत्यधिक जिज्ञासु और श्रद्धालु भक्त का पल भर के लिए हांथ थाम,टेपरिकॉर्डर सा बज उठते,और उसके भूत-भविष्य-वर्तमान को एक ही एक्स-रे’ प्लेट में खींच कर रख देते।वाणी में इतना आकर्षण था कि चाह कर भी कोई विरोध न कर पा रहा था,उनके हड़बड़ी पर।
          ज्यों ही हम दोनों वहाँ पहुँचे,दूर से ही देखकर पुकार उठे, मानों मैं उनका पूर्व परिचित हूँ- ‘‘आओ बेटा! आओ, मेरे करीब बैठो।तुम्हें तो मैं ताबीज़ बाद में दूँगा,पहले तेरा हाथ देखूँगा,क्यों कि तुम्हारा तो लिलार’ चमक रहा है।"
          किसी अज्ञात शक्ति से प्रेरित हो, मैं खिंचा चला गया उनके चरणों के करीब और जा बैठा अपने भाग्य की झोली फैलाए- दोनों हथेली पसार कर।
          महात्माजी काफी देर तक निहारते रहे मेरे मुख मण्डल को।फिर बड़े मनोयोग पूर्वक देखने लगे मेरे हाथ की रेखाओं को।ऐसा प्रतीत होता था कि मेरी दुरूह हस्तलिपि उनसे पढ़ी न जा रही हो।उनके
चेहरे पर बनती बिगड़ती सिलवटों को गौर से देखकर घबराया हुआ सा पूछा था वसन्त ने- ‘‘क्यों महाराज!क्या निहार रहे हैं इतने गौर से? क्या कोई दुर्भाग्य सूचक रेखा है मेरे मित्र की ...?"
          परन्तु वसन्त की बात अधूरी ही रह गई। हंडे सा सिर हिलाते हुए महात्मा जी बोले, ‘‘नहीं...नहीं बेटा! ऐसी कोई बात नहीं है। तेरा मित्र बड़ा भाग्यवान है।इसे तो राजा होना चाहिए।इसी बात पर मैं गौर कर रहा हूँ, क्यों कि इसकी सभी अँगुलियों के अग्र पोरुए पर चक्र-चिह्न विद्यमान हैं, साथ ही हथेली पर ध्वज और मत्स्य के भी संकेत हैं; किन्तु विनस’ पर्वत का जाल किंचित संशय का जंजाल बन रहा है।?
          महात्मा जी की बात पर वसन्त मुंह मिचकाते हुए पूछा- ‘‘क्या होता है इसका मतलब? क्या विनस का जाल विनास की...?"
          वसन्त की उत्सुकता को अधर में ही थाम लिया श्रीमान जी ने- ‘‘नहीं बेटा,ऐसी बात नहीं।जिस भाग्यवान के हाथों में भगवान ने दशों अवतार के प्रतीक को रख छोड़ा है,उसे यह साधारण सा जाल क्या विगाड़ सकता है?"
          मैं अपनी रेखाओं का और अधिक स्पष्टीकरण चाह ही रहा था कि मेरे हाथ को उनके हाँथ से खींचते हुए वसन्त ने अपनी दोनों हथेलियाँ फैला दी,यह कहते हुए- ‘‘तुम क्या करोगे ज्यादा बातें सुन-जान कर? तुम तो स्वयं ही खानदानी ज्योतिषी ठहरे।"
          वसन्त के मुंह से इतना सुनना था कि दिव्य महापुरुष निस्तेज हो गए, जैसे अरूणोदय के साथ ही तारिकाएं निस्तेज होने लगती हैं।तेजोदीप्त मुखमण्डल कोलतार सा हो गया।सिर उठाकर मेरे चहरे को गौर से एक बार देखे।पलकें शीघ्र ही गिर पड़ीं,जैसे सूर्यास्त के साथ पंकज-पुष्प पंखुडि़याँ समेटने लगता है।वसन्त ने बहुत आरजू-मिन्नत किया, ‘‘महाराज! मुझ अकिंचन पर कृपा करें,मेरा भी भविष्य कुछ उजागर कीजिए।"
          परन्तु अब महात्मा जी कहाँ रूकने वाले थे।जल्दी-जल्दी अपना तुम्बा-सोंटा समेट,लिफ्ट की राह देखे वगैर खटाखट सीढि़याँ उतरने लगे।उपस्थित जन समूह की कातर दृष्टि उनके पृष्ट प्रदेश को ही निहारती रह गई।कितनों की लालसाएँ मन की मन में हीं दबी रह गईं।न जाने अभी कितने श्रद्धालु पुत्रान्वित-धनान्वित होते महात्मा जी की कृपा से;पर बीच में ही दाल-भात में मूसलचन्द की तरह हम दोनों टपक पड़े थे।कुछ लोगों को खीझ भी हो रही थी,वसन्त की बतफरोशी पर,किन्तु अब पछताए होत क्या....कृपानिधान तो ओस की बूंद हो गए।
          महात्मा जी के पलायन के साथ ही श्री देवकान्त भट्ट ने आड़े हाथों लिया वसन्त को, ‘‘तूने आज तक कभी बतलाया भी नहीं मुझे कि तुम्हारा मित्र इतना गुणज्ञ है।" फिर मेरी ओर मुखातिब हुए- ‘‘आओ बेटा,बैठो न इधर।"
          भट्ट जी के आह्नान पर मैं वसन्त के साथ अन्दर आकर बैठ गया।वही भट्टजी जो आज के पूर्व कभी बैठने तक भी न बोले थे,आज इतने सम्मान सहित भीतर बुलाकर सोफे पर आसन दिए।जब कि पहले स्थिति यह थी कि पहुँचते के साथ वसन्त खट से अन्दर घुस जाता,और मैं बाहर रेलिंग के पास खड़ा,नीचे आंगन में उड़ते कबूतरों को निहारता घंटों बिता देता।प्रायः नित्य की यही स्थिति थी।   किन्तु उस दिन वसन्त द्वारा दिए गए संक्षिप्त परिचय की डोर ने मुझे तराई से खींच कर एवरेस्ट’ पर पहुँचा दिया; जहाँ से यदि फिसल जाऊँ तो हड्डी-पसली एक हो जाए।आखिर हुआ भी तो कुछ ऐसा ही।
   भट्टजी के कक्ष में विराजने के बाद सबसे पहले औपचारिकता पूरी की गई चाय से,फिर आया यथेष्ट जलपान,और तब मध्याह्न भोजन का आमन्त्रण भी जबरन ही जड़ दिया गया।परिणाम यह हुआ कि चाह कर भी उस दिन स्कूल जाना सम्भव न हो सका।
          अल्पाहार के बाद भट्टजी ने बातों की भूमिका रची।अपने चश्मे के शीशे को धोती की छोर से पोंछकर आँखों पर चढ़ाते हुए पैनी निगाह से पल भर में ही मेरा अंकेक्षण कर डाला।फिर मुंह चुनते हुए बड़े अफसोस की मुद्रा में कहा था उन्होंने- ‘‘ओफ! इतने दिनों से तुम यहाँ आते रहे हो वसन्त के साथ,पर आज तक मैंने तुम्हारा परिचय भी न पूछा।दरअसल बात यह है कि...।"
          उनकी बात को बीच में ही वसन्त ने काटते हुए कहा- ‘‘नहीं चाचाजी, वास्तव में यह है ही कुछ लजालु किस्म का।मैंने कितना कहा,पर कभी भी मेरे साथ अन्दर आकर बैठा तक नहीं।बस बाहर खड़ा गिनते रहा उड़ते कबूतरों को।पर देर आए दुरूस्त आए।आखिर अब आ गया है तो पूरा परिचय हो ही जाएगा।"
     ‘‘हाँ बेटा! यह तो सबसे पहले जरूरी है।"- कहते हुए भट्टजी ने अपनी उत्सुकता जाहिर की, जिसके शमन के लिए मेरे परिचय का पिटारा खोला वसन्त ने-‘‘चाचाजी! यह तो कुलीन ज्योतिषी है,साथ ही तन्त्र से भी काफी सम्बन्ध रहा है,इसके परिवार को।तन्त्र की एक से एक रोमांचक कहानियाँ जुड़ी हैं, इसके बुजुर्गों से।इससे कोई सात-आठ पीढ़ी पूर्व पैदा हुए थे श्री विक्रम भट्ट जी....।"
          मेरे पूर्वज श्री विक्रम भट्ट जी का नाम सुनते ही देवकान्त भट्टजी चौंक उठे- ‘‘ हैंऽऽ! यह श्री विक्रम भट्ट जी का कुल दीपक है?फिर क्यों न हो इसकी अँगुलियों पर चक्र के निशान? ओफ!
कौन नहीं जानता श्री विक्रम भट्ट की तन्त्र-साधना को।वही महानुभाव जो एक बार अनायास ही एक कपालिक से उलझ पड़े थे, तन्त्र साधना पर शास्त्रार्थ करने के लिए,और तीन दिनों की गरमा गरम बहस के बावजूद कुछ निर्णय हो न पाया,तब क्रोध में आकर उस कापालिक ने अपना तुम्बा ही मन्त्र पढ़ कर ठोंक दिया था -‘‘लो,नहीं मानता तो यह लो।मैं थक गया हूँ।मेरे बदले यह तुम्बा ही अब शास्त्रार्थ करेगा।" परन्तु वह नवोदित कामरूप वासी कापालिक को क्या पता था कि यह भट्ट कोई साधारण भट्ट नहीं,वल्कि उद्भट्ट है। उन्होंने पास रखे लोटे को ही,जिसे लेकर प्रातः शौच के लिए निकले थे,यह कहते हुए ठोंक दिया था- ‘‘तू मूर्ख है,मानेगा नहीं। ले तुम्हारा साद्दित तुम्बा है,तो मेरा शौच का जलपात्र ही सही...।"
          हम दोनों आश्चर्य और उत्सुकता पूर्वक मुंह बाए एक टक देवकान्त भट्ट का मुंह ताकते रह गए।वसन्त कुछ अधिक चौंक रहा था,अतः अधीर होकर पूछ बैठा-‘‘क्या कह रहे हैं आप चाचाजी!
तुम्बा और लोटा शास्त्रार्थ करेगा आदमी की तरह,वह भी तन्त्र जैसे गम्भीर विषय पर? हद्द हो गई।यह तो अत्याधुनिक विज्ञान प्रणीत कम्प्यूटर और रोवोट को भी मात कर दिया।जरा पूरे विस्तार से कहिए चाचाजी।अपने खानदान की इतनी महत्त्वपूर्ण बात आज तक नहीं कहा इसने कभी।बड़ी ही विचित्र बात है।क्या ऐसा भी सम्भव है,तन्त्र-साद्दना से?"
          मैंने कहा था- क्या यूँ हीं ढिंढोरा पीटता फिरता?’ इस पर खीझते हुए वसन्त ने कहा- ‘‘छोड़ो भी यार,आज तक नहीं सुनाए तो अब क्या पूछूँगा तुमसे। और फिर चाचाजी की ओर मुखतिब
हुआ-‘‘कहिए न चाचाजी,फिर क्या हुआ?"
          आँखों पर से नाक पर लटक आए चश्मे को ठीक करते हुए चाचाजी ने पुनः कहना प्रारम्भ किया, ‘‘तो सुनो तुम लोग पूरी कहानी।"
          रोमांचक कहानी में रस लेती,पर्दे के ओट में अब तक खड़ी,भट्टजी की पत्नी तथा एक न्यून षोडशी बाला भी साहस कर उसी कमरे में आगई,जिसे देखकर बड़े उत्साह पूर्वक अपनी अर्धागिनी को ईंगित किया भट्ट जी ने-‘‘जानती हो तुम इसे? यह जो वसन्त का दोस्त है न,विक्रम भट्ट के खानदान का है।"
   मैं यंत्र चालित सा उठ कर जा लगा था,उस प्रवया के युगल पाद-पंकज से।झट उठाकर अपनी छाती से लगाती हुई बोली- ‘‘जीते रहो बेटे।बड़ा ही भाग्यशाली महसूस कर रही हूँ आज खुद को;क्यों कि एक प्रतापी खानदान का सूरज मेरे आंगन में चमकने आया है।"
     श्रीमती भट्ट की टिप्पणी से मुझे बड़ा शर्म महसूस होने लगा।मैं नहीं समझता कि कुलप्रतिष्ठा की गरिमा का लबादा ओढ़ कर कोई कब तक गौरवान्वित हो सकता है,यदि उसका स्वयं का कुछ कृतित्त्व और व्यक्तित्त्व सराहनीय न हो।
     श्रीमती भट्ट पीछे पलट कर अपनी बेटी को उद्बोधित कर रही थी- ‘‘अरे शक्ति!आगे आओ।तुमने इन्हें नमस्ते भी नहीं कहा।शरमाने की क्या बात है इसमें?यह कोई गैर थोड़े ही है,जैसा वसन्त वैसा यह।"
     माँ का आदेश पाते ही दो कदम आगे बढ़ कर बड़े ही श्रद्धा पूर्वक झुककर मेरे पांव छू स्वयं को कृतार्थ कर लेना चाहा था उसने...शक्ति ने।
     मेरा रहा सहा साहस भी जवाब दे गया।घबरा कर उसके सुकोमल करों को अद्दर में ही थाम लिया।हकलाहट भरे बोल फूट पड़े- अरेऽ!यह क्या कर रही हो? तुम क्या मुझसे छोटी हो जो मेरे पांव छू रही हो? और अनायास ही उससे छू गए अपने हांथो को झट से खींच लिया,मानों विजली की नंगी तार छू गया हो।क्षण भर के लिए पूरे वदन में अजीब सी झुरझुरी महसूस हुई।अतः अपने आप में ही सिकुड़ सिमट सा गया मैं।
   मेरी मनःस्थिति का अनुभव करते हुए भट्ट दम्पति के साथ-साथ वसन्त भी जोरों से हँस पड़ा।चिकोटी काटते हुए वसन्त ने धीरे से कहा- ‘‘अजीब आदमी हो,सभ्यता से कोई वास्ता नहीं।"    
      भट्टजी ने हँसते हुए कहा-" क्या हो जाता,शक्ति यदि पांव छू ही लेती तुम्हारा?आँखिर तो तुम...।"
          शक्ति की माँ ने बीच में ही टोक दिया- "छोडि़ये न जरा ठीक से सुनाइये पूरी कहानी विक्रम भट्ट की।"
         पत्नी की तीव्र उत्कंठा देख भट्ट जी जरा तन कर बैठते हुए बोले-"यह कोई ऐसी
वैसी कहानी नहीं है,भाग्यवान।यह एक गौरवपूर्ण इतिहास है,स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य,जो भावी पीढ़ी को संदेश दे सके,पथ-प्रदर्शक बन सके तन्त्रोपासना का।"
              थोड़ी देर ठहर कर भट्टजी फिर कहने लगे- "हाँ,तो मैं  कह रहा था- कापालिक ने तुम्बा ठोंका, और...।
"नहीं... नहीं,आरम्भ से सुनाईए इस इतिहास को।"- वसन्त ने अनुनय पूर्वक कहा।
              झुक आयी मूछों को उमेठ कर सीधा किया भट्टजी ने,और आगे कहना शुरू किए-" अब से सदियों पूर्व की बात है,श्रीविक्रम भट्ट की तन्त्र-साधना का डंका पूरे भारत में बज चुका था।एक से एक दिग्गज औघड़-तान्त्रिक शास्त्रार्थ के लिए आते,और पल भर में परास्त होकर मुँह बना हाँथ मलते वापस लौट जाते। इन्हीं दिनों कामरूप कामाख्या का एक सिद्ध कापालिक,जो किसी तिब्बती साधक का सीख था,यह सुना कि विंध्यगिरि की कन्दराओं में आँख­ मींचे,एक अद्भुत उद्भट्ट साधक साधना रत है,जो अपने तान्त्रिक चमत्कारों से भारतवासी को चकाचौंध किए हुए है।फिर वह झक्की ड्डघड़ मानने वाला कहाँ था।अपने गुरू के लाख मना करने पर भी,चल ही पड़ा अपना तुम्बा-सोटा लटकाए,विन्ध्यगिरि के कन्दराओं में ढूढने,उस प्रतापी विक्रम भट्ट को।
     सुबह की सफेदी अभी पूर्ण प्रौढ़ होने भी न पाई थी।घोसले में दुबकी इक्की-दुक्की चिडि़याँ प्रभात के आगमन को जानकर अब धीरे-धीरे अपने नीड़ त्यागने लगी थी।ऐसी ही शुभ बेला में मदमस्त हस्ति सा झूमता वह कापालिक आ पहुँचा गिरि कन्दरा के समीप।
          भव्यकाय,गौरांग,नाभि तक लटकती धवल दाढ़ी,सुमेरू सा उन्नत माथे का जूड़ा,तेजोदिप्त प्रसस्त भाल,बायें हाथ में पीतल का भीमकाय लोटा और दायें हाथ से अंकोल की लाठी टेकते,पावों ें खड़ाऊँ पहने ऊपर पहाड़ी से खटाखट नीचे उतरते,मानों सममतल जमीन पर चल रहे हों- नजर आए एक महात्मा।
     पास आते ही उस दम्भी कापालिक ने शेर की दहाड़ सी
भारी आवाज में पूछा- इधर कोई विक्रम भट्ट नाम का तान्त्रिक रहता है?"
          क्यों क्या बात है? -संक्षिप्त सा सौम्य प्रश्न था,उन महानुभाव का।जिसे सुन पुने वैसे ही दम्भी भाव से औघड़ बोला- कुछ बात है,तभी तो पूछ रहा हूँ।सुना है मैंने कि बड़ी कठोर साधना कर रहा है।सारे देशवासी मुग्ध हैं उसकी साधना पर।अतः सोचा मैं भी जरा चल कर देखूँ उसे; है भी कुछ दम उसकी साधना में या यूँ डीं हांकता है।’                                              
       ‘इसी पहाड़ी पर ऊपर रहते हैं वे।-   उंगली से एक ओर इशारा करते हुए,महात्मा आगे बढ़ गए।शायद शौच निवृत्ति की जल्दबाजी थी उन्हें
     अभी कुछ ही कदम आगे बढ़ा था,वह औघड़ कि एक और महात्मा नजर आए उसे।वैसी ही वेशभूषा,वैसा ही गौर वदन,दिप्त भाल,नाभि चुम्बित दाढ़ी,दर्पित नेत्र,वैसा ही महाकाय जलपात्र,अंकोल की वैसी ही टेढ़ी-मेढ़ी लाठी।
     पल भर को वह औघड़ भ्रम में पड़ा रह गया।सोच न पाया।समझ न सका,ये वही हें या कि कोई और।अतः स्वयं को सहेज कर फिर अपने भोंड़े प्रश्न को दोहरा दिया,उनके सामने भी।
     जवाब मिला वैसा ही नपा तुला,उन्हें शब्दों में ;और उसी प्रकार हांथ का इशारा बता,वे भी एक ओर चले गए,शौच निवृत्ति के लिए।
     उसकी उत्सुकता बढ़ी,और वह बढ़ा आगे,पहाड़ी की ओर।और
तब आँखों के सामने वैसी ही एक और दिव्य मूर्ति नजर आयी...और फिर एक और अनेक में अन्तर ही न रह गया।क्षण भर के लिए भौचंका होकर भूल ही बैठा स्वयं को भी।खो सा गया उन दिव्य मूर्तियों की प्रदर्शनी में।
    ‘‘कुछ देर बाद जब ध्यान आया अपने आगमन के उद्देश्य का,साथ ही कुछ संदेहात्मक आभास मिला तब दौड़ कर वापस आया उसी गर्वीले अंदाज में।आँखें कुछ और अद्दिक लाल हो आई थी, धतूर खाए व्यक्ति की तरह।
     ‘‘क्रोध में चिघ्घाड़ते हुए बोला-अरे नीच! पाखण्डी!! तूने मेरे साथ छल किया है,अपना परिचय छिपा कर।अभी तुझे मजा चखाता हूँ।ये देख...।’
     ‘‘इतना कहते हुए उस औघड़ ने अपने तुम्बे को आहिस्ते से झटका।झटकते के साथ ही उसमें से आग की लपटें निकलने लगी।लपट इतनी तेज थी कि लगता था पल भर में ही सब कुछ स्वाहा हो जाएगा।
   ‘‘पीछे मुड़ कर उस दिव्य महापुरूष ने मुस्कुराते हुए देखा,एक नजर,उस कापालिक को,और फिर अपना बायाँ हाथ,जिसमें भीमकाय जलपात्र था,थोड़ा ऊपर उठा दिया।पात्र का ऊपर उठना था कि मूसल सी मोटी जलधारा अन्तरिक्ष से धाराप्रवाह प्रवाहित होने लगी।ऐसा लगता था - मानों पल भर में ही क्रोधी देवराजगोवर्धनधारी को ध्वस्त कर देगा।बहा डालेगा सारी गोकुलपुरी को।
     ‘‘हुआ भी कुछ वैसा ही।पलक झपकते ही चारों ओर फैली आग की लपटें न जाने कहाँ गुम हो गईं।किस गुहा में जा छिपी, मानों सूर्य के आगमन से दूर्वांकुर पर से ओस की बूंद­ गायब हो गई हों।
     ‘‘इतना होना था कि उस नादान औघड़ का क्रोध काफूर होगया।कुटिल मुस्कान के साथ दाढ़ी खुजलाते हुए बोला-बहुत हुआ,बहुत हुआ।अब  बन्द करें अपनी बरसात।लगता है पल भर में ही मही जलप्लावित हो जाएगी।आपने तो अच्छा छला मुझे।मैं जान गया कि आप ही हैं विक्रम भट्ट जी जिनके प्रताप-डंके की प्रतिध्वनि अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त है।’
     ‘‘सन सी सफेद अपनी लम्बी दाढ़ी सहलाते हुए महात्मा भट्ट ने कहा- ठीक पहचाना तूने। कम से कम अकल तो आयी पहचानने की।मैं क्या छलूँगा तुमको? मुझमें इतनी शक्ति कहाँ तुम तो स्वयं को छल रहे हो,जो स्वयं की शक्ति को स्वीकारने से इनकार कर रहे हो।वर्णमाला के प्रथमाक्षर का भी अभी ठीक से ज्ञान नहीं हुआ है,और चल दिए दिगविजय करने,वह भी तन्त्र जैसे दुरूह मार्ग पर?अभी तो दूध के दांत भी शायद न टूटे हों तुम्हारे।’
     ‘‘यह उपहास सुन कर कपालिक की आँखें फिर सुर्ख हो आयी। पपोटों को तरेर कर ललाट तक पहुँचा दिया।कड़क कर बोला-  हूँऽह तो तुमको इतना घमण्ड है,अपनी साधना पर? दाढ़ी बढ़ा,धूनी रमा लेने मात्र से अपने को साधक कहने लगा है? जानता नहीं मैं किससे दीक्षित हूँ?’
     ‘‘ उसी सौम्य मुस्कान से भट्ट जी ने कहा- अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम्हारा गुरू वह अनाड़ी तिब्बती औघड़ है,जिसे ठीक से यह भी नहीं पता कि तन्त्र के कितने मार्ग हैं,कितने आचार, और कितनी शाखायें ।
     ‘‘गुरू निन्दा सुन कापालिक भभक उठा।दांत पीसते हुए बोला-तो तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गयी.जो मुझे तो मुझे,मेरे गुरू को भी थोथा बता रहे हो? दम्भी,नापाक! शर्म नहीं आती तुझे लांछित करने में उस देवदूत सिद्ध औघड़ को जिसकी परीक्षा लेने स्वयं औघड़पति भूत-भावन भगवान भोले नाथ पधारे थे, और उसकी साधना से प्रसन्न होकर पीठ ठोंका था?’
      ‘‘जोरों से हँसते हुए विक्रम जी ने कहा था- क्यों नहीं, खूब जानता हूँ।भगवान शंकर आए थे पीठ ठोंकने या किसी भंगी-मेहतर को भेज दिए थे?’
          ‘‘महात्मा विक्रम के व्यंग्यवाण से विंध कर घायल सिंह की तरह गर्जन करते हुए,अपनी क्रूर आँखें उनके चेहरे पर गड़ाने लगा वह औघड़ ।शायद सम्मोहन तन्त्र का प्रयोग करना चाहता था। किन्तु इसका जवाब महात्मा ने यथा शीघ्र विकर्षण तन्त्र से दे दिया।फलतः उसके विस्फारित नेत्र झपकने लगे।
     ‘‘जरा ठहर कर फिर वह अपने तुम्बे में हाथ डाला।उसमें से कुछ निकालने का प्रयास कर रहा था,न जाने क्या करने के लिए।किन्तु दुर्भाग्य,उसका हाथ उस तुम्बे से ही चिपका रह गया।इस स्थिति से उसे झण भर के लिए जोरदार झटका लगा।कातर दृष्टि ऊपर उठ गई,महात्मा भट्ट की ओर।उन्हें दया आगई।मुस्कुराते हुए बोले- अरे नादान!अब भी तो समझ ।क्या बचपना कर रहा है?
     ‘‘किन्तु उस नासमझ को समझ आता तब न।भट्टजी की कृपा से तुम्बे से जैसे ही उसका हांथ छूटा,अपनी साधना का अगला प्रहार कर दिया - वमन तन्त्र का।यानि सामने खड़े महात्मा को वमनविष से पराजित करना चाहा था।पर क्या उसका यह बचकाना प्रहार दिव्य महापुरूष पर जरा भी सफल हो पाता?
     ‘‘ इसी प्रकार के छोटे-मोटे तान्त्रिक प्रहार करता रहा वह,मूर्खों की तरह; और उसके प्रत्येक प्रहार को पल भर में ही विफल कर,अट्टहास करने लगे थे प्रतापी विक्रम भट्ट।तान्त्रिक प्रहारों-प्रतिकारों का यह क्रम वहीं पहाड़ी पर,अनवरत अगले तीन चार दिनों तक चलता रहा था।बारबार पराजित हो कर भी उसे समझ नहीं आ रहा था। अन्त में खीझ कर कहा उसने- अरे भट्ट! तू तो बहुत ही असामाजिक है।समाजिक मान मर्यादाओं और व्यवहारों का तुम्हें जरा भी ज्ञान नहीं है।आज चार दिनों से तेरे यहाँ पधारा हूँ,और तू है कि सिर्फ प्रतिकार पर प्रतिकार किए जा रहा है।जरा एक बार भी नहीं पूछा,न खाने-पीने की बात और न ...।’
     ‘‘व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ महात्मा भट्ट ने कहा-मैं मर्यादा  का पालन नहीं कर रहा हूँ, या तू निरा निपट बेवकूफ है? तुमको इतना भी समझ नहीं है कि चार दिनों पूर्व मैं आश्रम से निकला था प्रातः कृत्य से निवृत्ति हेतु कि तूने मुझे बीच में ही घसीट लिया शास्त्रार्थ करने को।तू अभी मेरे आश्रम में पहुँचा ही कहाँ है? मौका ही कहाँ दिया है तूने मुझे अपने स्वागत का?
    ‘‘ कुटिल मुस्कान के साथ औघड़ ने कहा- ठीक है,चलता हूँ तेरे आश्रम पर ही चलता हूँ।चार दिनों से खप रहा हूँ यूँ ही, अब जरा विश्राम किया जाए।किन्तु यह मत समझ लेना कि मेरा शास्त्रार्थ पूरा हो गया,अब मेरे पास रहा ही नहीं कोई तर्क,कोई प्रहार,कोई प्रतिकार।’
‘‘ इतना कह कर घमंडी औघड़ उठाया अपना तुम्बा,जिस पर उसे बड़ा ही नाज था,और कुछ बुदबुदाते हुए तीन बार ठोंक दिया उसे,यह कहते हुए - ये देखो,अब से मेरा प्रतिनिधित्व मेरा यह तुम्बा ही करेगा। मेरे बदले अब यही तुमसे शास्त्रार्थ करेगा।’
‘‘इतना सुनना था कि विक्रम भट्ट ठठाकर हँस दिए,और हाँथ में पकड़े शौच निवृत्ति के जलपात्र को ही वांयें हाथ की तर्जनी का स्पर्श कर,रख दिए तुम्बे के बगल में।यह कहते हुए-तेरा सिद्ध तुम्बा है,तो मेरा असिद्ध अपवित्र लोटा ही सही।इसी से तो बराबरी कर ले तुम्हारा लोटा।’
     ‘‘ और फिर दोनों अपने-अपने तुम्बे और लोटे को उठा लाए आश्रम में।वहीं एक कन्दरा में दोनों प्रत्याशियों को प्रतिस्थापित कर दिया गया।
     ‘‘इधर महात्मा विक्रम और औघड़ कापालिक सामान्य मुद्रा में अपने कृत्य में लग गए;उधर कन्दरे में रखे तुम्बे और लोटे में गति आ गयी।अजीब चमत्कार हुआ,दोनों लट्टू की तरह नाचने लगे। घन-घन करते कन्दरा को गुंजाने लगे।वास्तव में उन दोनों के बीच ही शास्त्रार्थ शुरू हो गया था।
     ‘‘कार्यक्रम चलता रहा।महात्मा भट्ट ने पूरे हर्षोल्लास से दिल खोल कर स्वागत किया औघड़ का।प्रेम पूर्वक दोनों साथ बैठ कर खाये-पीए-सोये,गप्पें लड़ायी,अन्यान्य विषयों की चर्चा होती रही।मानों कोई सामान्य गृहस्थ अपनी गृहस्थी गाथा सुन -सुना रहा हो।
     ‘‘अगले चार दिनों तक यही क्रम जारी रहा।तुम्बा-लोटा एक ओर,औघड़ महात्मा दूसरी ओर।दोनों जोड़े अपने-अपने धुन में मस्त।
     ‘‘ औघड़ को विन्ध्यगिरी पर आए नौ दिन हो गए थे।वही प्रातः काल का समय था।दोनों अपनी-अपनी शैय्या त्याग कर प्रातः
कृत्य के लिए प्रस्थान करने ही वाले थे कि एकाएक जोर का धमाका हुआ।ऐसा लगा मानों कोई बारूद की गोदाम में आग लगा दिया हो ।इस भयंकर आवाज के साथ ही बेचारे औघड़ की भी चीख निकल गई थी -साऽऽला मार डाला मुझे।फाड़ डाला मेरे तुम्बे को,सिद्ध गुरू के सिद्ध तुम्बे को,साधित तुम्बे को।’
     ‘‘औघड़ की चित्कार सुन महात्मा भट्ट ने सौम्य भाव से कहा था-ईश्वर तुम्हें अब भी सद्बुद्धि दें।’
     दोनों वहाँ से चल कर उस कन्दरे की ओर बढ़े,जहाँ चार दिनों से तुम्बा-लोटा शास्त्रार्थ कर रहे थे।
 एक झटके के साथ कन्दरे की टाटी खोल अन्दर आया वह औघड़,और पछाड़ खाकर गिर पड़ा,औंधे मुंह -हाय मेरा तुम्बाऽऽ।’
     लोटा अभी भी पूर्ववत घनघना रहा था।आगे बढ़ कर महात्मा विक्रम ने उसे अपने हाथों से स्पर्श किया तो वह पल भर में ही नाचना भूल,सरक कर उनके चरणों में आ लगा था,मानों शिष्य गुरू के चरणों में शरणागत होकर कृतार्थ हो जाना चाह रहा हो।लोटे को स्नेह पूर्वक उठाते हुए महात्मा विक्रम ने कहा,पछताने के सिवा अब हो ही क्या सकता है? रोने कलपने से कोई लाभ तो है नहीं,न तुम्बा ही वापस मिलने को है।तुम्हारे लिए श्रेयस्कर अब यही है कि लौट जाओ वापस अपने धाम को,और याद रखना सदा इस बात को।फिर कभी नादानी न कर बैठना,किसी से उलझने की।
     किन्तु अगले ही पल दांत पीसता हुआ वह औघड़ उठ खड़ा हुआ।पास बिखरे हुए,टूटे तुम्बे के टुकड़ों को अपने हाथों में उठाकर शेर सी दहाड़ लगायी।अभी महात्मा सम्हलते कि वह औघड़ प्रहार कर दिया,उन टुकड़ों को मन्त्र पूरित कर-जाओ,मैं तो जा रहा हूँ वापस।मेरा सिद्ध तुम्बा तो तेरी वजह से चौपट हो ही गया,पर याद रखना,अपने तन्त्र की वंश-परंपरा भी समाप्त ही समझना।आज से तुम्हारे कुल में फिर कोई ऐसा न होगा जो स्वयं को तान्त्रिक कह सके।तन्त्र का ज्ञान तेरे साथ ही दफन हो जायेगा।जय गुरूदेव!जय बाबा गोरखनाथ!!
     ओफ! इतना भयंकर श्राप! औघड़ का श्राप सुन, तिलमिला उठे महात्मा विक्रम-क्या मेरी कुल परम्परा ही लुप्त हो जायेगी? मेरी विद्या मेरे साथ ही चली जायेगी?
     ‘‘क्षण भर की आलोड़न के बाद मौन होकर स्वयं को जरा संजोया महात्मा विक्रम ने,और फिर नीचे झुक कर चुटकी भर धूल उठाकर एक ही झटके में फेंक दिया औघड़ के शरीर पर,यह कहते हुए- अरे नीच! पापिष्ट!! अब भी नहीं मानता तो भोग अपनी करनी का फल।जिस शरीर और साधना पर तुझे इतना दम्भ है,उसे क्षण भर में ही मैं धूल में मिला दे रहा हूँ।’
     महात्मा विक्रम के हांथ की धूल सामने खड़े औघड़ के पूरे शरीर पर विखर गई थी,और देखते ही देखते उसका दिव्य शरीर वर्फ सा गलने लगा।ऐसा लग रहा था मानों जलजोंक के शरीर पर नमक-हलदी छिड़क दिया गया हो।
     रूक जाओ...ठहर जाओ...ऐसा अनर्थ न करो...बड़ा ही पाप लगेगा तुम्हें...ब्रह्महत्या का पाप...।’ तड़पते हुए औघड़ ने कहा था।
     आखिर करूँ ही क्या? तू तो मेरा वंश वृक्ष ही काट कर धराशायी कर दिया।तन्त्र के अभाव में क्या अस्तित्त्व रह जायगा मेरे बाद की पीढ़ी का? मैं तो सिर्फ तेरा शरीर ही लिया हूँ।’- श्री विक्रम ने कहा था।
     नहीं...नहीं...ऐसा न करो...ऐसा अनर्थ न करो...मैं तुम्हारे श्राप को सीमित किए दे रहा हूँ... अगली बीस पीढ़ी...।’-आतुर औघड़ गिड़गिड़ाने लगा था।
   ‘‘ विक्रम भट्ट ने भी कुछ वैसा ही किया-तो ठीक है,मैं भी तेरी सिर्फ अंगुलियाँ दुरूस्त किए दे रहा हूँ।’
     फिर इसी प्रकार दोना­ तरफ से अपने-अपने अभिशाप का विमोचन होता रहा था काफी देर तक, और अन्त में आकर ठहर गया था छठी पीढ़ी पर।औघड़ ने कहा था-अब इससे नीचे मैं कदापि नहीं उतर सकता,क्यों कि तुझे भी तो कुछ याद रहना चाहिए। प्रत्युत्तर में महात्मा विक्रम ने कहा था-तो ठीक है,मैं ही कहाँ कम करने जा रहा हूँ, तेरे उर्ध्वभाग के गलान को।जा,अब शीघ्र ही हट जा,दूर हो जा मेरे सामने से।मुझे भय है,कहीं फिर मुझमें नरमी न आ जाए,और अपने वंश के लिए तुझ नीच से मैं आग्रह न कर बैठूँ।’
     ठीक है,चलता हूँ।’- कहते हुए औघड़ धीरे-धीरे भारी कदमों से पहाडि़याँ उतरने लगा।
      इस प्रकार तब से छठी पीढ़ी में हुए तुम्हारे दादाजी,सातवीं में तुम्हारे पिताजी,एवं आठवीं पीढ़ी पर हो तुम।यानी तुम्हारे पिता से पुनुरूजीवित हो पायी तन्त्र परम्परा तुम्हारे कुल में।"- बड़े ही दर्प से कहा था,श्री देवकान्त जी ने मेरी ओर देखते हुए।
     इतनी लम्बी कहानी बिना हूँ-हाँ किए, हम सभी चुपचाप सुनते रहे थे अब तक।हालाकि मेरी निगाहें प्रायः घूरती रही थी पास बैठी शक्ति को ही,जिसका ध्यान अपने पिता के श्रीमुख से निकलते प्रत्येक शब्द-सार को पीने में लगा था।
     कहानी समाप्त होने के साथ ही मेरी निगाह फिर एक बार जा लगी थी शक्ति से, परन्तु तुरन्त ही चौंक पड़ादीवार-घड़ी की टनऽऽ की आवाज मेरी नजरें ऊपर खींच ली और अनायास ही मुँह से निकल गया, अरे साढ़े दस बज गए ।’ और फिर वसन्त की ओर देखते हुए कहा था-तो वाकयी आज स्कूल नहीं जाओगे? मेरे प्रश्न के बावजूद वसन्त मौन बना सोफे से चिपका ही रहा।
     देवकान्त जी ने कहा- देखो न शक्ति,भोजन में कितनी देर है।’
      पिता का आदेश पा शक्ति भीतर चली गई रसोई की ओर,और इधर भट्टजी फिर मेरी ओर मुखातिब हुए- अरे वसन्त! तूभी अजीब है।इतना कुछ सुन सुना गए,परन्तु अभी तक तुमने नाम नहीं -बतलाया अपने मित्र का।’ -मेरी ओर देखते हुए देवकान्त जी ने वसन्त को टोका था,जो मेरे बगल में ही सोफे पर बैठा किसी कल्पना लोक में विचरण कर रहा था।
        मुझे उकसाते हुए उसने कहा- कमल! क्यों नहीं बतलाते,चाचाजी को अपना नाम?’
     देवकान्त भट्टजी ने मुस्कुराते हुए कहा- सो तो अब तुमने कह ही डाला।वह क्या दुबारा बतलायेगा अपना नाम?’ फिर मेरी ओर देखकर बोले, हाँ तो बेटा कमल! वाकयी आज बड़ी प्रसन्नता हुई तुमसे मिल कर।’
   कुछ झेंपते हुए से मैंने धीरे से कहा- मिले तो हम आज से पहले भी कई बार हैं।’
  इस पर खेद प्रकट करते हुए उन्होंने कहा था- हाँ,आये तो तुम कई बार मेरे यहाँ।देखा भी है मैंने तुम्हें।पर क्या पता था कि ...।’- अपनी गलती पर स्वयं ही पश्चाताप सा हो आया था उन्हें।
   जरा ठहर कर कहने लगे- दरअसल बात यह है कि हर काम का एक मुहूर्त होता है,एक संयोग होता है।बिना संयोग के कभी भी कोई घटना नहीं घटती।अब जरा सोचो न उस बार की बात,जब मैं तुम्हारे चाचा के डेरे पर गया था,किन्तु उस वक्त तुमसे भेंट नहीं हो पायी थी।अभी नाम बोले तो याद आगयी बात,उस दिन भी तुम्हारी ही चर्चा चल रही थी वहाँ। डेरा तो वही है न अभी भी?’
     मैंने उन्हें नये डेरे की स्पष्ट जानकारी देते हुए कहा- नहीं,अब हमलोग पटेल कॉटन कम्पनी के क्वॉटर में आ गए हैं पिछले महीने में ही।’
     तब तो बहुत करीब आ गए हो पहले से अब।क्यों नहीं  जाया करते हो शाम में इधर ही घूमते-फिरते?’-  नए डेरे की जानकारी पर प्रसन्नता जाहिर करते हुए उन्होंने कहा था।
     नहीं चाचाजी, शाम में घूमने का वक्त ही कहाँ मिलता है।’- हमदोनों एक साथ ही बोल पड़े।वसन्त के साथ साथ मैं भी उन्हें चाचाजी पुकार बैठा,जब कि वास्तव में रिस्ते में वे हमारे फूफा होते थे।वसन्त के भी वे सगे चाचा नहीं थे।रिस्ता यूँ था कि वसन्त के बड़े भाई की शादी देवकान्त भट्टजी की भांजी से हुयी थी,और इस
प्रकार वे वसन्त के भाई के चचेरे स्वसुर हुए।फलतः चाचा ही तो कहे जाते।पर अचानक मेरे मुंह से भी चाचा’ संबोधन निकल कर स्वयं को ही शरमा गया।उनकी बातों का और आगे क्या जवाब दूँ,सोच ही रहा था कि भीतर से शक्ति की माँ आ गई,जो कुछ ही देर पहले कहानी समाप्त हो जाने पर शक्ति के साथ ही दूसरे कमरे में चली गई थी।कमरे में आते ही उन्होंने कहा- चलो बेटे,खाने चलो।’
     चाची के कथन पर मेरी निगाहें चाचाजी पर चली गयी,मानों पूछना चाहता होऊं,मौन नेत्र-स्वर से ही - क्या आप नहीं साथ देंगे भोजन में? किन्तु मेरी आँखों की भाषा को पढ़ लिया था उन्होंने। अतः बोले- जाओ,तुमलोग भोजन करो।मैं तो अभी स्नान भी नहीं कर पाया हूँ।मुंह हांथ धोने के बाद चाय पी ही रहा था कि वह साधु प्रकट हो गया,जो घंटों वक्त जाया कर गया।खैर उसके आने-जाने का अब पश्चाताप क्या।इसी बहाने आज तुम्हारा परिचय जो मिल गया।’
   अन्यथा कब तक बाहर खड़े कबूतर गिनना पड़ता।’- बीच में ही वसन्त की टिप्पणी से हम सभी हँस पड़े।   
     चाचाजी ने आगे कहा था- आज से तुम मेरे परिवार के ज्योतिषी हुए।’
     हाँ हाँ,ऐसा उद्भट्ट ज्योतिषी आपको भला मिल भी कहाँ सकता  है?’- कहता हुआ वसन्त मेरे पेट में अपनी अंगुली गड़ा दिया था।सबके सब फिर एक बार हँसने लगे थे।मैं अपने आप में शर्मिंदगी महसूस कर रहा था।मुझ अति सामान्य को इतना गरिमामय पद प्रदान किया चाचाजी ने।
   वसन्त ने चिढ़ाते हुए फिर कहा था-सिर क्यों झुकाए हुए हो,ज्योतिषी जी महाराज? चलिए भोजन कीजिए। और फिर धीरे से बुदबुदाते हुए भगवान को धन्यवाद दिया था-धन्य हो प्रभु! अच्छा है,चाचाजी अभी नहाए नहीं है।खाना तो शक्ति ही खिलायेगी।चाची तो पान चबाती बैठी रहेंगी,एक ओर कोने में कहीं
     अगले ही पल चाचाजी ने जलपात्र सम्हाला था,स्नानागार में जाकर,और हमलोगों ने तिपाई सम्हाला भोजनागार में।
     क्या ही सुसंस्कृत ढंग था रहन-सहन का- एक ओर भव्य सजावट ड्राईंग रूम का- अत्याधुनिक ढंग का,तो दूसरी ओर था पुरानी सांस्कृतिक साज-सज्जा रसोई और भोजनालय का।न था वहाँ गैस का चूल्हा,और न चांदी की याद दिलाने वाले धोखेवाज लोहे (स्टील) के बरतन ही।बनाने से लेकर खाने तक के लिए पुराने ढंग के पीतल और फूल के बरतन,जो सभ्यता की पंक्ति में कुछ और पीछे जाकर स्वर्ण युग का आभास पैदा कर रहे थे।लकड़ी जलाने वाला,मिट्टी का चूल्हा एक ओर कोने में बना हुआ था।बैठने के लिए आसन -  शीतलपाटी ’ लंबा सा एक ही नहीं प्रत्युत मनुस्मृति का पोषक, अलग-अलग छोटा-छोटा,हर व्यक्ति के लिए स्वतन्त्र आसन।
     आह! कहाँ खो गयी है,हमारी भारतीय संस्कृति? उलझ कर रह गयी है,मात्र पाश्चात्य टेबुल-कुर्सियों पर रखे स्टील और फाइवर प्लेटों में चमचमाते छूरी-चम्मच-कांटों के बीच।
     पान चबाती हुयी चाची जाकर लेट गयी थी,बगल कमरे में पलंग पर यह कहती हुयी- शक्ति बेटे! जरा ठीक से इन लोगों को खाना खिला देना।’ और उनकी भारी बोझ से बेचारा पलंग कराह उठा था।प्रारम्भ से ही शायद कुछ आलसी स्वभाव की रही होंगी,तभी तो इतना भारी पुलिन्दा सा शरीर पाल रखी थी।
     दो थालियों में करीने से भोजन सामग्री सजाकर,हमदोनों के लिए ले आई शक्ति।फिर एक के बाद एक छोटी-छोटी कटोरियों,और तस्तरियों से घेर डाली थी पूरी थाली को।कई प्रकार की सब्जियाँ,कई प्रकार की चटनियाँ,रायता,स्लाद,भुजिया,पापड़,अचार,दही,कढ़ी....।ऐसा लग रहा था कि भगवान गोवर्धन धारी श्रीकृष्ण के सामने व्रजवाला छप्पन कोटि व्यंजनों का अम्बार लगाकर अन्नकूट का त्योहार मना रही हो।
     मैं हड़बड़ा कर बोल पड़ा था- सब दिन के बदले क्या आज ही खिला दोगी शक्ति?’
     मुस्कुराती हुई शक्ति ने कहा था- कहाँ कुछ अधिक बन पाया है? मैं तो कहानी सुनने में लगी रही,आपके पूर्वज श्री विक्रम योगी की।अकेली भाभी ने ही तो थोड़ा कुछ कर पायी है सिर्फ।आज आप पहली बार खाने पर पधारे हैं मेरे यहाँ,और यह सादा-सादा सा भोजन...।’
     शक्ति अभी शायद और कहती जाती।प्रकट करती जाती अपनी अकिंचनता, पर बीच में ही वसन्त ने मस्खरापन कर दिया- दरअसल यह जरा कमजोर हाजमे का है।कलकत्ते का पानी भी इसे सूट नहीं करता।’
     अपने होठ काटती,मुस्कुराती हुई शक्ति मुझसे पूछने लगी-कितने दिनों से यहाँ हैं आप कमल जी?’
          कमल जी!’-  स्वर ऐसा लगा मानों संतूर को छेड़ दिया हो किसी मंजे हुए कलाकार ने,और अजीब सा गूंज पैदा कर गया मेरे मस्तिष्क में।उसकी बातों का जवाब देने ही वाला था कि पुनः मेरे बदले वसन्त ही बोल पड़ा-अभी क्या, जुम्मे-जुम्मे आठ दिन हुए होंगे।निरे देहात का नया छोकरा, निकला भी पहली बार घर से तो सीधा चला आया महानगरी में।देखती नहीं कितना शर्मीला है, दुल्हन जैसा...।’
     कनखियों से मेरी ओर देखते हुए वसन्त आँख मार दिया,और फिर शक्ति की ओर ही देखने लगा,जो आज उसके वजाय मुझसे ही ज्यादा उलझ रही थी।शायद भीतर ही भीतर ईर्ष्या हो रही थी उसे, इस बात के लिए।
     हमदोनों भोजन पर जुट गए थे।एक सामान समाप्त नहीं हो पारहा था कि दूसरा आ पड़ता थाली में।वसन्त आज छक कर खानेपर तुला था।शक्ति - उसकी काल्पनिक प्रेयसी,आज सौभाग्य से स्वयं खिला रही थी सामने बैठ कर।
     आज से पहले भी कई बार आया था यहाँ,शक्ति के आवास पर;किन्तु कहाँ मिल सका था इतना मौका सामने बैठने-बोलने का।शक्ति को मन ही मन बड़े गहरे रूप में चाहने लगा था,वसन्त।तब से ही जब पहली बार अपने भैया की शादी में आया था,दुल्हे के साथ सहबाला’ बन कर, और शक्ति ने काफी परेशान किया था उस छोटे दुल्हेमियाँ को।उसके बार-बार के हँसी मजाक से तंग आकर उसकी दीदी ने कहा था- क्यों शक्ति! ज्यादा पसन्द आगया है क्या सहबाला? कहो तो इसी मण्डप में तुम्हारी भी...।’ और इस बात पर शरमाती शक्ति वहाँ से भाग खड़ी हुई थी।बेचारा वसन्त तब से ही अपनी भावनाओं की सहचरी माने हुए है,उस किशोरी को,और कोई न कोई बहाना बना कर आ जाता शक्ति के घर।भाभी तो यहाँ रहती भी नहीं  हमेशा।वह तो अपने पति के साथ घर पर होती,या फिर अपने पिता के साथ कानपुर। यहाँ चाचा के साथ कभी कभार ही आ पाती थी।पर वसन्त क्या अपनी भाभी के प्रेम में यहाँ आता था? नहीं, यहाँ तो उसका दिल चुरा लिया था शक्ति ने,शक्ति पूर्वक।
     कई बर्ष गुजर गए उस पहली मुलाकात के,भैया की शादी के।पर वेचारे वसन्त का इकतरफा प्यार जहाँ के तहाँ पड़ा कराहता रहा। आहें भरता रहा।मुझे तो वसन्त देहाती कहता है,पर आज तीन बर्षों के बावजूद कहाँ साहस कर सका है-कहने का शक्ति से कि वह उससे प्यार करता है।बस यूँ ही प्रायः हर रोज यहाँ आना उसका रूटीन सा बन गया था।कभी कभार दो चार बात उसकी माँ से कर,चाय पी कर खिसक जाना पड़ा है उसे आज तक।किन्तु आज शायद अवसर मिल सका है कुछ जाहिर कर पाने के लिए।अपने दिल की हालात बता सकने के लिए। ..............(क्रमशः     आगे की कहानी दूसरे भाग में पढ़े)

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