निरामयःभाग पाँच

निरामयःभाग पाँच
सभी एक साथ हँस पड़े।
मैंने गाड़ी आगे बढ़ायी, पर दायीं ओर काटती हुयी टॉमस अपनी गाड़ी आगे कर ली।
अब क्या देखोगी?-मीना की ओर देख कर मैंने पूछा।
‘तुम्हारा चेहरा,और क्या।’- तपाक से उसने कहा और सिर मेरे कंधे पर टेक दी।
‘वे नहीं देख सकेंगे क्या,अब तुम्हारी हरकत?’-मैंने कहा।
‘ अब वक्त कहाँ रहा? ओ देखो,ऊपर पहाड़ी पर मन्दिर का गुम्बज नजर आ रहा है।’
गाड़ी पूरी चढ़ाई पर थी।मैंने सामने देखा- कुछ दूरी पर स्पष्ट नजर आ रहा था, कालीवाड़ी का सुनहला गुम्बज,सूर्य की रौशनी में चमकता सोने का विशाल कलश।
पुलकित होते हुए मीना बोली-‘ अरे हमलोग पहुँच गए।’
‘नहीं मीनू! अभी दूर है,पाँच किलो मीटर।-‘स्पीडोमीटर’ देखते हुए मैंने कहा।
पल-पल पास आते जा रहे चमकते गुम्बज को भावपूर्ण नेत्रों से
देखे जा रही थी मीना; तभी हिरन का एक झुण्ड चौकड़ी भरता हुआ बगल से गुजरा।झुण्ड में दो तीन बच्चे भी थे,जो बड़ों से कुछ पीछे पड़ गए दौड़ में।
‘कमल!ओ कमल! जरा गाड़ी रोको न।’- मीना ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
‘क्यों?’- एक्सीलेटर पर दबाव कम करते हुए मैंने पूछा।
‘देखो न कितना सुन्दर लग रहा है,वह मृगशानक!’
‘बच्चे सुन्दर होते ही हैं किसी प्राणी के।- मैंने कहा।
ठुनकती सी मीना फिर बोली- ‘गाड़ी रोको न कमल। मैं उन्हें पकडूँगी।’
‘नहीं...नहीं...गाड़ी रोक कर घोर जंगल में उतरना उचित नहीं है।’- मैंने गाड़ी की गति थोड़ी बढ़ा दी।
‘प्लीज कमल! रोको न।’- मीना बच्चों जैसा जिद्द करने लगी।
‘जानती हो मीनू!’- मीना की ठुड्डी अपनी ओर घुमाते हुए कहा मैंने- ‘ऐसी ही मृगछौने की तृष्णा ने राम को संकट में डाल दिया था....फिर कितना तड़पना पड़ा था...नहीं बाबा, मैं यह संकट मोलने को तैयार नहीं हूँ।’
‘क्या हो जाएगा? अच्छा तुम मत जाना,मैं जाऊँगी।’- मीना रूआंसी हो कर बोली।
‘तब तो और गड़बड़ है...कहीं आस-पास झुरमुट में रावण न छिपा बैठा हो घात लगाए...और मेरी भोली-भाली सीता को उड़ा न ले जाए।’
मेरी बातों पर मीना को हँसी आ गयी।राम और सीता की ‘जोड़ी’ की परिकल्पना शायद किन्हीं कल्पना लोक में उड़ा ले गया था।गेट के बाहर सिर निकाल कर भागती हिरनों को ललचायी नजरों से देखने लगी थी,और काफी देर तक देखती ही रह गयी थी।मैं भी किन्हीं काल्पनिक वादियों में भटकता रहा था।

कोई बीस मिनट बाद हमलोग कालेश्वर पहुँच गए।देखने में बहुत ऊँचा लग रहा था,पर गाड़ी आराम से चढ़ गयी वहाँ।
मन्दिर से कुछ हट कर एक छायादार जगह में दोनों गाडि़याँ लगा दी गयी।
‘ऐसे वक्त में यदि गरमागरम दो घूंट चाय मिल जाती तो सफर की थकान दूर हो जाती। गाड़ी से उतरते हुए वसन्त ने कहा।
इच्छा तो टॉमस की भी यही हो रही थी,किन्तु यहाँ अब यह झंझट कौन मोलने जाय,सोच कर रह गयी।
‘आप महानुभावों की थकान मैं अभी मिन्टों में दूर करती हूँ।’-कहती हुयी मीना गाड़ी से नीचे उतरी- हाथ में लटकाए एक डोलची।
वरगद की छांव में बैठ गयी,पसर कर बड़े इत्मिनान से।हमलोग भी समीप आ गए।
‘क्या है भानुमति के इस पिटारे में?’- वसन्त ने डोलची की ओर इंगित किया।
मीना मुस्कुरायी- ‘इसमें है चुस्ती की दवा।’-और ढक्कन हटा थर्मसफ्लास्क और टी पॉट निकाल बाहर रख दी।
सबने चाय की चुस्की ली।
‘चुस्ती तो चाय में जरूर है,पर दिमाग में सुस्ती हो,तो उसका क्या उपाय है? किसी को ध्यान आया था- इस व्यवस्था का?’- चाय का लुफ्त लेते हुए मैंने कहा।
‘हाँ यार,मीना के दिमाग की दाद देनी चाहिए।रीयली यह बड़े तेज दिमाग की है; आई.ए.एस ब्रेन है।’- हँसते हुए वसन्त ने कहा।
‘दाद-खुजली तुम्हें ही मुबारक हो।’- कहा मीना ने,और सभी हँस पड़े ठहाका लगा कर।
टॉमस ने कहा -क्यों न पहले मन्दिर घूम लिया जाए।
‘यूँ ही,बिना स्नान किये’-मीना ने कहा।
गाड़ी लॉक कर दी गयी।आवश्यक कपड़े वगैरह लेकर हमसभी जलप्रपात की ओर चल पड़े।
मन्दिर से हट कर चढ़ाई फिर शुरु हो गया।चारों ओर बेर और मकोय की झाडि़याँ बहुतायत से फैली हुयी थी।सूर्य काफी ऊपर उठ आए थे।मीना पके बेर और मकोय तोड़-तोड़ कर खाती चल रही थी।टॉमस को कुछ अजीब सा लग रहा था,उसका यह ढंग।उसे घूरती हुयी देख मीना ने मकोय का एक गुच्छा तोड़,उसे देती हुयी बोली- ‘खाकर देखो इस ‘रसभरी’ को अंगूरों का सा मजा आएगा इन जंगली फलों में।’
मीना के हाथ से एक मकोय लेकर टॉमस अपने मुंह में डाल ली।हम सभी हँसने लगे टॉमस की बेवकूफी पर।
‘यह जापानी अंगूर है मैडम! छिलका उतार कर खाया जाता है। मीना ने छिलका हटा कर दिखया।

पहाडि़यों पर करीब सौ गज चढ़ने के बाद,नीचे उतरने का मार्ग बना हुआ था।हालाकि प्रकृति ने इन रास्तों को स्वयं ही सजाया था,किन्तु एक नजर देखने पर जरा भी गुमान न होता था कि ये मानव निर्मित सीढि़याँ नहीं हैं।लगता था कि कु्शल शिल्पी ने अनगढ़ पत्थरों को करीने से तराश कर बड़े कलात्मक ढंग से सजा दिया हो सीढि़यों के रूप में।सभी पायदान समतुल्य थे,और लगभग सभी पायदानों के बगल में एक ना एक पेड़ उगा हुआ था।ऐसा लगता था मानों किसी प्रकृति प्रेमी ‘फॉरेस्टर’ ने सजाया हो इन्हें।
सीढि़याँ उतरते गए, उतरते ही गए।करीब डेढ़ सौ सीढि़यों के बाद नीचे नजर आने लगा- ‘बाथ पोल’। काफी ऊँचाई से,न जाने किधर से आकर,अचानक छिपा-छिपा सा एक सोता सीधे पचहत्तर का कोण बनाता हुआ उस पोल में गिर रहा था।सूर्य ऊपर उठ कर अपने किरणों को सीधा डाल रहा था,उस प्रपात-जल पर जो तरल चाँदी का भ्रम पैदा कर रहा था।
सीढि़याँ समाप्त हो गयी थी,पर उतरना अभी शेष ही था,सहारा सिर्फ अनगढ़ ढोंको का था।लगता था यहाँ आकर अचानक प्रकृति के उस दिव्य कलाकार की सारी कला खो गयी हो,प्रपात के सौन्दर्य में और भूल गया हो सीढि़यों का सृजन करना।
‘बाप रे! अब कैसे उतरा जायेगा, यहाँ से इतना नीचे?’- एक ही साथ मीना और टॉमस की चिन्तातुर आवाज निकली।
‘कैसे नहीं ऐसे।’- कहता हुआ वसन्त अपने बायें हाथ से टॉमस का हाथ पकड़,दायां हाथ बढ़ाया था मीना को पकड़ने के लिए।
‘नहीं... नहीं... छोड़ो भी मुझे, मैं यूँही चल चलूँगी।’- वसन्त से दूर छिटक गयी थी मीना,मानों अस्पृश्य हो वह; और बगल के साखू के पेड़ से एक छड़ी तोड़ हाथ में ले ली।
‘मुझे मारोगी क्या इससे?’- डरने का सा भाव बनाते हुए वसन्त ने कहा और मीना से कुछ परे हट गया।
‘नहीं बाबा, मैं क्यों मारने लगी तुम्हें? तुम अकेले हो क्या?’-कहती हुयी छड़ी टेकती धीरे-धीरे सम्हल-सम्हल कर नीचे उतरने लगी।
वसन्त को फिर मजाक सूझा- ‘देखो कमल! बुढि़या नानी चली सफर को
‘मैं क्या टॉमस हूँ, जो पांव रहते हुए भी दूसरे के हाथों का सहारा लूँ?’- मीना पीछे मुड़ कर वसन्त की बातों का जवाब दे रही थी,और आगे कदम बढ़ाए जा रही थी।मैं उससे चार-पांच पग नीचे था।तभी अचानक संतुलन बिगड़ गया,और लुढ़क पड़ी।मैं झट ऊपर बढ़ कर उसे पकड़ना चाहा,किन्तु लुढ़कती हुयी आ टकरायी मुझसे।
अचानक के आघात से मैं भी सम्हल न सका।नीचे मैं,ऊपर मीना- दोनों साथ-साथ गिरे।
अभी न जाने कितनी सीढि़याँ यूँही बेसहारा लुढ़कते गिरते आगे चलते जाते कि एक साथ वसन्त और टॉमस झपट कर हमदोनों को सम्हाल लिए।
चोट कुछ खास नहीं आयी,पर अपनी भूल पर ग्लानि जरूर महसूस कर रही थी मीना।
टॉमस को मजाक का मौका मिल गया-‘क्यों मीना! देखी न मजा हाथ न थामने का?ओ रे...क्या
बोलता इंडिया में- नारी को तो पुरुष का हाथ थामने का परमीसन गॉड ने खुद ही दे रखा है,फिर इसमें हिचक कैसी?’
‘तो थामा करूँ हाथ यूँही जिस तिस की?’- अपनी झेंप मिटाने को उसने कहा।
‘जिस-तिस का कौन कहता है? थामना ही है तो कमल भट्ट का हाथ थामो।’- वसन्त ने चुटकी ली,और मीना लजा कर नजरें झुका ली।
मीना का हाथ पकड़ उठाते हुए मैंने कहा- ‘अबकी सम्हल कर चलो,वरना खुद भी गिरोगी, मुझे भी गिराओगी।’
धीरे-धीरे चलकर करीब आधे घंटे में हमलोग झरने के पास पहुँचे।टॉमस को तैरने का शौक था,फलतः ‘स्वीमिंग सूट’ लेती आयी थी।लायी तो मीना भी थी।
वसन्त ने कहा- ‘अब हमलोग यहीं स्नान करें,एक साथ सभी।’ फलतः मीना संकोच में कुछ बोली नहीं चुप खड़ी रही।
‘क्यों मीना नहाने का विचार नहीं है?’- ऊपर के कपड़े उतारती हुयी टॉमस ने पूछा।
‘है क्यों नहीं।’- कहती हुयी मीना मेरी ओर देखने लगी।मैं उसका आशय समझ गया।
‘तो फिर संकोच किस बात का? तुम दोनों यहाँ नहाओ।मैं और वसन्त उधर नहा लेंगे।’ - कहता हुआ वसन्त का हाथ पकड़ कर एक ओर चल दिया।
एक झाड़ी से आगे बढ़ कर हमलोग भी कपड़े उतार,झरने में उतर पड़े।काफी देर तक पानी में उछल कूद करते रहे।अचानक मुझे खुराफत सूझा।मैंने वसन्त से कहा - हमलोग डुबकी लगाकर पानी में अन्दर-अन्दर चलेंगे।देखते हैं- किसमें कितनी शक्ति है-प्राणायाम की।
‘तो शुरू हो जाइए योगी जी।’- कह कर लम्बी सांस भरने लगा वसन्त।मैंने भी वैसा ही किया।
थोड़ी देर में ही मेरा दम घुटने लगा,फलतः निकल पड़ा।वसन्त अभी जलमग्न ही था। मैं झट बाहर आ एक ढोंके की आड़ में छिपा लिया खुद को।
कुछ देर बाद वसन्त जल से बाहर निकला,तो मुझे वहाँ न पा कर,अपनी हार स्वयं ही स्वीकार लिया- ‘कमल बाजी मार ले गया। अभी तक डुबकी लगाए ही है।’
कुछ देर तक प्रतीक्षा में रहा।पर देर होता देख,उसकी स्थिति बदल गयी।चहरे का रंग उड़ गया- मैं आड़ में छिपा उसे स्पष्ट देख रहा था।चहक- चिन्ता में बदल गयी।प्यारा दोस्त,ममेरा भाई - वसन्त की हालत अजीब हो गयी।रोनी सी सूरत बना,जोर-जोर से पुकारने लगा-
‘कमल! ओ कमल! कहाँ हो कमल....बोलते क्यों नहीं.....।’- किन्तु उसकी खुद की आवाज ऊँची-ऊँची पहाडि़यों से परावर्तित हो-होकर सुनाई पड़ती रही।
उसके बार-बार की व्यग्रतापूर्ण आवाज से चौंक कर टॉमस दौड़ी चली आयी,जो पास ही झाड़ी की आड़ में मीना के साथ नहा रही थी,और बहाना ढूढ रही थी- शायद इस ओर आने के लिए।
‘क्या हुआ वसन्त ! कमल कहाँ चला गय।?’- मुझे वहाँ न देख टॉमस घबरायी हुयी बोली।
‘पता नहीं,अभी-अभी तो यहीं डुबकी लगाए थे हमलोग। मैं निकल आया,उसका कहीं पता नहीं।’- वसन्त की आवाज कांप रही थी,जिसे सुन टॉमस और भी घबड़ा गयी।वह भी आवाज लगाने लगी-
‘कमल! कहाँ चले गए कमल?’-- पर परिणाम वही हुआ,जो पहले हुआ था - ....परावर्तन- अपनी ही आवाज का।
टॉमस की आवाज,पास में ही झाड़ी के बगल में मछलियों सी तैरती-बलखाती मीना के कानों में पड़ी तो वह भी व्यग्र हो उठी। उसे आशंका हुयी- किसी दुर्घटना की।क्यों की वह जानती थी कि मुझे तैरना नहीं आता ठीक से; पानी से डर भी लगता है।
‘क्या हुआ तुमलोग कमल...कमल क्यों चिल्ला रहे हो?’- हाँफती हुयी मीना दौड़ी चली आयी,जहाँ ये लोग थे- वही मीना,जो कुछ देर पहले साथ में नहाने में झिझक रही थी- स्वीमिंग ड्रेस की अर्द्ध नग्नता के कारण अभी हड़बड़ी में आकर खड़ी हो गयी, गीली देह-यष्टि लिए -वसन्त और टॉमस के सामने रोनी सूरत बनाए।
वसन्त और टॉमस सधे हुए तैराक हैं। डुबकी लगाकर फिर मुझे ढूढ़ने का प्रयास करने लगे।पर आखिर उस अथाह जलप्रपात में एक छः फुटी काया को कहाँ ढूढ़ पाते- वह भी तब,जब कि वहाँ है भी नहीं विद्यमान।
वे दोनों ढूढ़ते रहे,कस्तूरी मृग की तरह- पास के सुवास को,और मीना पत्थर की प्रतिमा बनी खड़ी रही, किंकर्तव्यविमूढ़ सी।यहाँ तक की,अन्त में चीख मार कर रो पड़ी-
‘हे भगवान! मेरे कमल को बचा लो.....बचा लो मेरे कमल को।’
पास में खड़ी टॉमस अपने नाखुन कुतर रही थी -दांतों से।सबके चेहरे उतर गए थे।वसन्त की आँखें डबडबा आयी थी- आंसू के बूंद टपक पड़े थे गालों पर।
‘ हे भगवान! क्या इसी लिए विश्वेश्वर का प्रोग्राम बदल कर,कालेश्वर का प्रोग्राम बनाया था उसने...? कालेश्वर....यह तो काल बन गया कमल का...हे माँ काली! कौन सा मुंह लेकर वापस जायेंगे हम सब...।’ वसन्त प्रलाप करने लगा था।
टॉमस की गीली आँखों में टकटकी बँधी थी - चेहरे के भाव व्यक्त कर रहे थे –सान्त्वना, पर शब्द न थे उनके पास जो वाणी देसके उसके विचारों को...भावों को...।
बहुत देर तक वहीं दुबका, बैठा देखता रहा मैं - ओह! कितना तड़पन है- इनमें मेरे लिए....टॉमस की छलछलायी हुयी आँखें...कांपते लब...मतलब? कुछ तो अभी भी मेरे लिए है जगह उसके दिल में .....है कोई ऐसी जगह बाकी,जहाँ अभी तक वसन्त के प्यार का पताका नहीं लहरा पाया है...वसन्त,वह तो भाई है- मामा का लड़का,लंगौटिया यार भी है,फिर क्यों न बेचैन हो?...पर मीना...बेचारी मीना! आह! वह कितना व्यग्र है...कितना बेसब्र...भूल गयी है स्वयं को...मेरी तलाश में...स्वयं को विसारने की इस स्थिति के लिए बड़े-बड़े योगी कितना जतन करते हैं...तब कहीं जाकर ‘लव’ लगती है प्रियतम से...और यह- मीना! इसने तो विसार ही लिया स्वयं को...इतनी सहजता से...अन्यथा क्या वह इस अवस्था में...इस अर्द्धनग्नता में आ सकती थी सबके सामने...कतई नहीं...वस्त्र...सबसे बड़ा आडम्बर.... अहं का ...जब ढहता है तो सर्वथा निर्विकार निष्कलुष बना जाता है...निर्वस्त्रता....अहंकार शून्यता में ही सम्भव है....अन्यथा? लोक लाज...मर्यादा...तरह तरह की सीमाओं का जकड़न....तड़फड़ाते प्राण..विकल मन....पर अभी तो कुछ नहीं है- इसके सामने है एक ही खोज...एक ही प्यास...एक ही अभीष्ट....कमल-- वस्तुतः जो उसका कोई नहीं....only a classmet,nothing else… पर शायद सब कुछ....
मैं सुन रहा था -सब कुछ, देख भी रहा था- सब कुछ....वहीं.. - दुबके-दुबके - ढोंके की आड़ से,झाड़ी में छिपा -एक ओर टॅामस,दूसरी ओर मीना...दोनों के बदन पर चिपका गीला स्वीमिंग सूट अंग-अंग के निखार को और भी उभार रहा है- एक ओर संगमरमरी प्रतिमा- टॉमस...दिव्य गौरांग सौष्ठव...उन्नत उरोज...कदली थम्भ सी चिकनी जंघायें...उससे चिपका भींगा जांघिया...और दूसरी ओर- बुत्तपरस्ती की स्मारिका बनी मीना...मुक्त केशी...गेहुआँ रंग..शंख ग्रीवा... दाडिम द्वय...नीला स्वीमिंग सूट चिपका है- गीला होकर उसके अंगों से...ऐसे ही तो उस दिन हॉल में चिपक गयी थी वह मुझसे...कितना तड़प रही थी उस दिन,और आज भी उस प्यासी आत्मा की तरह ही तो तड़प रही है.....
मुझसे सहा न गया...मुझसे रहा न गया...मुझसे देखा न गया...अब उसका तड़पना।दौड़ कर ढोंके की आड़ से बाहर आ गया,हँसता हुआ...और तब- नीर विहीन मीन को मानों अथाह जलनिधि मिल गया...दौड़ कर लिपट गयी मुझसे....फिर एक साथ ही मेरे रोम-रोम को चूम लेना चाही...‘सहस्राक्ष’ की तरह, उसे भी असंख्य होठ मिल जाते तो उसका यह काम आसान हो जाता...दृढ आलिंगन में बेताबी से धड़कते दो दिलों को...भींगे वस्त्र ने और अधिक समीप कर दिया था...न जाने कब तक सुनती रही थी- मेरे दिल के धड़कनों को...
मुझे कैसा लग रहा था उस वक्त- कहने लायक शब्द ही कहाँ हैं ‘कोष’ में...बस, थी- सिर्फ कामना- काश! काल अपना गति भूल जाता...घड़ी की टिकटिक बन्द हो जाती...धरती अपनी धूरी पर नृत्य करना भूल जाती... सूर्य अपने रास्ते में विश्राम ले लेता...हवायें रूख बदल लेती...काश ऐसा ही हो पाता...मेरी मीना आबद्ध रहती यूँही अनन्त-अनन्त काल तक...और मैं खो जाता उन्हीं धड़कनों के मधुर कोलाहल में....
बहुत देर बाद ज्वार कुछ कम हुआ जब...पकड़ कुछ ढीला हुआ...तब पागलों की तरह थपथपाने लगी मेरे सीने को...
‘कमल! कहाँ चले गए थे तुम? क्यों तड़पाया तूने इतनी देर तक मुझे...बेदर्द...बेरहम....?’
उसका प्रलाप काफी देर तक चलता रहा था।टॉमस और वसन्त के मुरझाये चेहरे खिल उठे थे।
वसन्त ने हँस कर कहा- ‘ अब क्यों रोती हो? पत्थर को तो तुम्हारे प्यार की आँच ने मोम कर दिया। तुममें तो वह शक्ति है मीना कि यमदूत के हाथों से भी छीन कर ला सकती हो...कहो सावित्री कैसा रहा सत्यवान का आलिंगन? भगवान करें ऐसी घड़ी बार-बार आए।’
वसन्त के मजाक पर मीना को होश आया- स्वयं का बोध हुआ,शरमा कर छुई-मुई सी हो गयी।पर छिपे कहाँ? सभी तो यहीं हैं, सामने हीं।जाए तो जाए कहाँ ? निरूपाय होकर वहीं बैठ गयी,दुबक कर- घुटनों में दबा कर शरीर को...आँखें बन्द कर ली...सिर झुक गया जानुओं पर...शुतुर्मुर्ग की दुनियाँ होती ही कितनी है...सिर
बालू में दुनियाँ नदारथ....।
वसन्त और टॉमस उसकी इस मुद्रा पर हठा कर हँस पड़े।हँस तो मैं भी रहा था,पर मेरी हँसी के अन्तः में....
कुछ देर तक उस रूपश्री को निहारता रहा था...कभी टॉमस की अर्द्धनग्न देह-यष्ठि...कभी मीना के अवगुंठित गात...कभी सामने खड़ा वसन्त...
टॉमस- वही टॉमस,जिसकी चाहत को मैं अनचाहे ही नकार दिया था...सुन्दर नारी का ऐसा ही तिरस्कार पृथा पुत्र अर्जुन को कितना मंहगा- या कहें सस्ता - पड़ा था कि बृहन्नला बना दिया...टॉमस में उर्वशी सी श्राप क्षमता नहीं है...पर नारी अन्तर्मन में जो...प्रचन्ड दाहकता होती है...कहीं झुलसा न दे मुझे...टॉमस एक मिश्रित पौध...दो भिन्न भूखण्डों को मिलाने वाली क्षीण रेखा...पिता भारतीय-माँ जापानी...क्या ही सुन्दर रूप और भरा यौवन का उपहार मिला है- श्रष्टा से...किन्तु कहाँ वह सुसम्पन्न परिवेशिनी और कहाँ मैं अकिंचन...सर्वविध अकिंचन...परिव्राजक- सा....त्याग कर नहीं...त्याग ‘पा’ कर...फिर क्या अधिकार मुझे किसी पर?
....और मीना?
वह क्या चाहती है मुझसे? कहीं वही तो नहीं- जो टॉमस चाहती
है? टामस को नहीं मिल पाया... फिर इसे...सक्षम हूँ दे पाने में?पूरी कर पाने में उसकी अभिप्सा?
वसन्त- प्यार की पहेली बुझाने वाला वसन्त...उसकी परिभाषा रचने...गढ़ने वाला मसखरा वसन्त...जो स्वयं ही गिर पड़ा है- टॉमस के प्रेम-सरोवर में....तो मैं भी कूद जाऊँ?
.....आखिर होता क्या जा रहा है, इधर कुछ दिनों से मुझे? मेरी अनुभूतियों को...मेरी समझ को...मेरी दृष्टि को...मेरी बुद्धि को...मेरे विवेक को...मेरे विचार को...इन सबको एक साथ खोता
जा रहा हूँ......?
...नहीं....नहीं....अभी मैं विकेक हीन नहीं हुआ हूँ...अभी मेरा विवेक उलझा नहीं है प्यार की मोटी चादर से...मेरी बुद्धि अभी तक पूर्णतया कारगर है- सोचने,समझने,निर्णय लेने में...टॉमस और मीना में-
गहरे में कोई फर्क नहीं है...आन्तरिक अन्तर नहीं है...टॉमस एक नारी है,मीना भी एक नारी है- दोनों आधुनिका हैं....नारी! - चाहे दुनियाँ की कोई नारी हो, पुरुष! चाहे संसार का कोई पुरुष हो...क्या फर्क पड़ता है? कोई फर्क नहीं एक ही दृष्टि..एक ही विचार,एक ही सोच...काम-शर-विंधित पुरुष-मदनालोडि़त नारी क्या पा सकते हैं कुछ और सोच?कोई और दृष्टि? कतयी नहीं....
विश्व स्रष्टा ब्रह्मा ने मानसिक सृष्टि की थी।अलौकिक सृजन किया था- एक दिव्य सुन्दरी- संध्या का,और फिर उस अपूर्व दर्शित सौन्दर्य को देख कर विवेकहीन हो गया।मुग्ध हो गया...होता चला गया- अपनी ही ‘रचना’ पर।फिर भूल गया अपना कर्तव्य...अपनी मर्यादा’ और याचना कर दिया- उसी से अपनी काम तृप्ति केलिए,जो उसे अपना जनक समझ रही थी...समझ क्या रही थी...व्यर्थ में? नहीं जनक को जनक नहीं तो और क्या समझती? अन्ततः जनक-काम-दूषित काया को भस्मसात कर दी बेचारी संध्या।
मीना नारी है,मैं पुरुष हूँ - मेरी चाह,उसकी अभिप्सा मेरी दृष्टि,उसकी दृष्टि- कैसे हो सकती है दूसरी?
तो क्या मीना मुझसे प्रेम करती है? मैं भी उससे प्रेम करता हूँ? नहीं...नहीं...शायद नहीं। भ्रम है....भ्रम है मेरा यह सोचना...सारा संसार- पानी के बुदबुदे सा संसार- जब यही भ्रम है...फिर मेरा और मीना का एक दूसरे के प्रति प्रेम...क्या यह भ्रम नहीं हो सकता.....?
....ओ...ऽ...फ! क्या हो गया है मुझे? क्या होता जा रहा है? लगता है- सिर की नसें फट पड़ेंगी,स्फीत होकर- रक्त चाप से।पर कहाँ जाऊँ स्वयं को छिपाने? यह तो पौरुष को चुनौती है...स्वीकारना होगा इसे...इस सत्य को...इस कठोर सत्य को, क्यों कि सत्य ही सुन्दर होता है...सुन्दर ही सत्य होता है,और जो सत्य और
सुन्दर है शिव तो होगा ही...होना ही चाहिए शिवत्व - कल्याणकारी।
...सोचता रहा...निहारता रहा...सोचता रहा...मीना...टॉमस.।
अचानक कंधे पर वसन्त के हाथों का स्पर्श पा,मानों नींद से जाग उठा।
‘यूँ खड़े सोच क्या रहे हो?’
‘मीना! क्या सोच रही हो...अब तो उठो...कमल सामने है।तब... अब चिन्ता किस बात है?’-टॉमस मीना के माथे को सहलाते हुए कह रही थी; किन्तु इसका कोई असर न हुआ उस पर।
पहल मुझे ही करना पड़ा- ‘चलो मीना,बैठी क्या हो अब इस
प्रकार? चल कर कपड़े बदलो।’
मैंने कहा तो उठ कर,नजरें नीची किए,चल पड़ी उस ओर,जिधर कपड़े रख, नहा रही थी।टॉमस भी उसके साथ हो ली।उन दोनों के जाने के बाद हम और वसन्त भी कपड़े बदलने लगे।
कुछ देर बाद हमसब पुनः पहाडि़यों की चढ़ाई प्रारम्भ किए।इस बार सब के सब दूसरे ही मूड में थे।न किसी को प्राकृतिक सौन्दर्य सूझ रहा था,और न मनोहर वातावरण ही बुला रहा था किसी को। चढ़ना... चढ़ना... ऊपर चढ़ना...चढ़ते जाना -एक ही लक्ष्य...
सभी लोग काफी सम्हल-सम्हल कर चल रहे थे।वसन्त टॉमस का हाथ पकड़े हुए था।मीना भी अपना हाथ बढ़ाई मेरी ओर।यन्त्रवत मेरे भी हाथ बढ़ गए- उसे थामने को...और फिर चलता ही गया।
ढोकों का सिलसिला खतम हुआ, कायदे की सीढि़याँ शुरू हुयी,तब एक दूसरे का हाथ छूटा।
दिन काफी चढ़ आया था।चढ़ क्या...अब तो कहें उतरने लगा था- साढ़े बारह बजने लगे थे।मीना ने घड़ी देखी और बिना किसी से कुछ पूछे खाने का सामान सजाने लगी।
‘तो क्या भोजन के बाद ही देवी-दर्शन होगा ‘देवीजी’ ?’- कहा वसन्त ने, नाटकीय भाव से हाथ जोड़ कर;जिसे सुनते ही मीना की जीभ दांतों तले आ दबी- ‘अरे! मैं तो भूल ही गयी थी।’
‘आप तो स्वयं को भूल जाती हैं.....मन्दिर भूली तो क्या?’- वसन्त ने मुस्कुरा कर कहा।
हम सभी मन्दिर में गए।चारो ओर अनेक प्राचीन मूर्तियाँ सजी हुयी थी- दीवारों में बने ताकों में।गर्भगृह के मध्य में माँ काली की आदमकद प्रतिमा काले पत्थर की बनी थी- एक झलक देखने में तो ऐसा ही प्रतीत होता था; किन्तु पुरोहितों से पूछने पर पता चला- यह कोई सामान्य काला पत्थर नहीं है- गौर से देखिए बिलकुल गहरा लाल है- विशुद्ध ‘वैद्रुम’ - प्रवाल की अनुपम प्रजाति।सच में लगता था- प्रवाल के पहाड़ को करीने से काट कर यह दिव्य प्रतिमा बनाई गयी है- अद्भुत,नयनाभिराम....।
गर्भगृह के बाहर विशालकाय बटुक भैरब की मूर्ति भी वैसे ही पत्थर की अवस्थित थी।एक ओर विशाल अर्घ्यकेन्द्र में शिवलिंग स्थापित था,जिनके सामने नन्दी विराज रहे थे।
घूम-फिर कर चारो ओर से,हम पुनः आ खड़े हुए- माँ काली के सम्मुख।बगल में ही मीना खड़ी थी,और वहीं पास में ही हमलोगों की दूसरी जोड़ी भी- वसन्त और टॉमस की।
मीना हाथ जोड़े बहुत देर तक आँखें बन्द किए खड़ी रही थी, मूर्ति के समक्ष।उसकी इस मुद्रा पर टॉमस ने पूछा था-
‘इतनी देर खड़ी होकर काली माँ से क्या मांग रही हो मीना?’
मीना मूर्तिवत खड़ी ही रही,कुछ बोली नहीं।पर वसन्त से रहा न गया- ‘....पति रूप में कमल....और क्या मांग सकती है मीना? इसे और चाहिए ही क्या? मांगना है तो तू भी मांग ले जल्दी से। मन की मुराद हाथों हाथ देती हैं- माँ कालेश्वरी।’- इशारा टॉमस की ओर था,और एक नजर कमल की ओर भी।
‘हूंऽह! यही मांग रही हूँ? अपना नहीं कहते- मन में कैसे- कैसे लड्डू फूट रहे हैं?’- पीछे मुड़ कर तुनकती हुयी मीना ने कहा,और पुनः आँखें बन्द कर ली।
मैं भी करवद्ध खड़ा था वहीं- अन्तःवाह्य स्थिरता के प्रयास में।मेरे मुंह से हठात् निकल पड़ा - हे माँ! शक्तिदायिनी! शक्ति दो मुझे....शक्ति दो माँ!
‘मीना सामने है,और शक्ति मांग रहे हो माँ काली से,अजीब हो तुम भी! ’-वसन्त को यहाँ भी मजाक सूझा,और सब के सब हँस पड़े थे।मैंने मौन,दण्डवत किया,और वैसे ही बाहर आगया।
बाकी लोग भी मेरे पीछे-पीछे ही बाहर आ गए।
पता नहीं क्यों मन बिलकुल उचाट हो गया था।मीना चार प्लेटों में खाना निकाली।सबने मिलकर खाना खाया,और थोड़ा विश्राम करने के बाद वापस चलने की तैयारी हो गयी।
‘गाड़ी मैं चलाऊँ या तुम चलाओगे?’- गाड़ी में बैठती हुयी मीना ने पूछा।
‘जैसी तुम्हारी मर्जी।’- संक्षिप्त सा मेरा उत्तर था।
‘ठीक है,मैं ही चलाती हूँ।’- कहती हुयी गाड़ी स्टार्ट कर दी।
बहुत देर तक हमदोनों मौन ही रहे।लगता था- दोनों की वाणी खो गयी हो वहीं जलप्रपात के कलकल में या फिर पहाड़ की कन्दराओं में।
‘शे..ऽ..र...।’-मीना चिल्लायी।
मैंने देखा- एक गद्दावर शेर आँखें तरेरे घने जंगल से निकल कर इसी ओर बढ़ा आ रहा है।मीना के हाथ कांपने लगे,गाड़ी का संतुलन बिगड़ने लगा।मैंने स्टेयरिंग सम्हालते हुए कहा- आओ,तुम इधर आ जाओ।घबराने की कोई बात नहीं।वह बिचारा स्वयं ही चला जाएगा।
सही में शेर एक ओर चला गया था।मीना की घबराहट भी थम चुकी थी- शेर के पलायन के बाद।मेरी ओर देखती हुयी बोली-
‘कमल! कमल!!’
‘क्या है-बोलो?’
‘देखो न इधर।’
‘बोलो न,क्या कहती हो?’
‘क्या हो जाता है तुम्हें,कमल...क्या सोचने लग जाते हो?’- मीना का उदास चेहरा मुझे आइने में नजर आया।मैं सामने ही देखता रहा।गाड़ी चलती रही।
‘....कहाँ खो जाते हो कमल! बोलो न?’- मेरी बांह पकड़ कर झकझोर दी।
मैं पूर्ववत रहा।नजरें घुमा,आइने में फिर देखा,उसकी अक्स नज़र आ रही थी।पलकों की बदली उमड़-घुमड़ रही थी।यदि और कुछ देर मौन साधे रहता तो तय था कि बरस भी पड़ती।अतः बोलना ही पड़ा- क्या कह रही हो बोलो?
‘पिकनिक पर आने की तुम्हारी भी इच्छा थी या सिर्फ मेरी इच्छा पर आए हो?’- कातर स्वर में पूछा था उसने,और अपने होठों पर अंगुली फेरने लगी थी।
‘मेरी भी इच्छा थी।’- संक्षिप्त सा उत्तर था मेरा।
‘स्वीमिंग ड्रेस में नहाने उतरी तुम्हारी मर्जी से या कि अपनी मर्जी से?’- दूसरा प्रश्न था मीना का।
‘दोनों की मर्जी से।’- कहता हुआ मैं उसके चेहरे को गौर से देखने लगा,जिस पर टेलीवीजन के पर्दे की तरह कई भाव जल्दी- जल्दी बन और मिट रहे थे।
‘फिर यह मौन क्यों? यह खामोशी क्यों? यह नाराज़गी क्यों?’- एक ही भाव के तीन सवाल, एक ही साथ रख दिया उसने।
‘यूँहीं।’
‘मैं तब से ही देख रही हूँ- तुम छिपे अपनी मर्जी से,निकले भी अपनी मर्जी से।मैं तड़पी अपनी मर्जी से।रोयी भी अपनी मर्जी से।फिर कसूर क्या है मेरा? यही न कि खुद को भूल गयी,चली आयी सबके सामने उस अवस्था में,और आकर लिपट गयी तुमसे? तुमने उस दिन भी टोका था मुझे,जब हॉल में भयभीत होकर लिपट गयी थी तुमसे।क्या इसी लिए बुरा मान गए आज भी? बोलो? यदि बुरा लगता है,तो न कहूँगी कुछ कभी; पर तुम स्वयं ही सोचो,पूछो अपने दिल से- यह सब क्या मैंने अपने होश-वो-हवाश में किया है? तुम भी कहोगे- शायद नहीं।...नहीं कमल! मैंने जानबूझ कर ये सब नहीं किया...ये सब हुआ है- तुम्हारे प्रति प्रेम...सहानुभूति
और भाउकता में विवश होकर...बेबस होकर....बेसुध होकर कमल...बेसुध होकर...तुम इसे गलत न समझो...मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है कमल, जिसमें तुम्हें नाराजगी हो।तुम्हारा दिल मैं क्यों दुःखा सकती हूँ? सोचो... समझो... परखो- अपने विवेक की कसौटी पर- फिर पाओगे कि स्नेह,प्रेम और विवशता का सोना कितना खरा है...अगर अनजाने में कोई गलती हो ही गयी हो,तो उसे माफ कर दो...माफ कर दो कमल...मुझे माफ कर दो...।’
मीना प्रलाप करती जा रही थी।उसके कोमल कपोल आँसु की लडि़यों से तर हो चुके थे।मेरी अजीब स्थिति हो रही थी- क्या कहूँ...क्या समझाऊँ इसे...इस नादान-भोली बच्ची को,कि मैं क्या सोच रहा हूँ।
थोड़ा सहेजा स्वयं को।संतुलित किया- मन को;और बोला-
‘मीना! मैं तुमसे नाराज़ नहीं हूँ। नाराज़ होने का मेरा हक ही क्या है? मैं दबा हूँ- तुम्हारे और तुम्हारे मम्मी पापा के एहसानों तले।फिर नाराज क्यों कर हो सकता हूँ? पर मेरी अपनी भी कुछ भावनायें हैं।अपना भी कोई अस्तित्त्व है।क्या मैं अपने अस्तित्त्व को...अपने व्यक्तित्त्व को भी गिरवी रख दिया हूँ या कि बेंच चुका हूँ अपनी उन रचनाओं की तरह ही कौड़ी के मोल.....?’
मीना सुनती जा रही थी चुप...मौन..शान्त...स्थिर...और मैं...
मैं कहता जा रहा था, ‘...मीना तुम खुद सोचो...जरा समझने की कोशिश करो- अब तुम कोई छोटी बच्ची नहीं हो पांच-दस साल की। मैं क्या हूँ...तुम क्या हो -इसे नजरअन्दाज मत करो।मत भूलो मीना,स्वयं को मत भूलो....मैं जानता हूँ- इसमें तुम्हारी कोई भूल नहीं...गलती नहीं...गलती तो वक्त का है...दोष उम्र का है.. .जमाने का है...तेरा-मेरा नहीं...
मैं बके जा रहा था,मीना सुने जा रही थी,गाड़ी चलती जा रही थी....कलकत्ता पहुँच गए...सफर समाप्त हो गया....सबका।टॉमस और वसन्त रास्ते में ही रास्ता बदल लिए थे- कहीं और भी जाने का
प्रोग्राम बन गया था शायद।मैं मीना के साथ आ गया ‘मीना निवास’।


अगले दिन मैंने चटर्जी चाचा से कहा था- ‘चाचाजी परीक्षा तो समाप्त हो ही चुकी।रिजल्ट आने में कम से कम दो-ढ़ायी महीने लग ही जायेंगे।अच्छा होता घर हो आता।’
उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया,और मैं चल दिया उसी दिन संध्या की गाड़ी- दून एक्सप्रेस से- गांव के लिए।
‘कब तक लौटोगे कमल?’- सीढ़ी पर खड़ी मीना ने सजल नेत्रों से पूछा था।
उसकी तो इच्छा थी- साथ जाकर स्टेशन छोड़ने की’ किन्तु मैंने मना कर दिया।
‘देखें कब तक लौट पाता हूँ।’-कहता हुआ सीढि़याँ उतरने लगा था।
‘जल्दी ही लौट आना कमल।’- कहती हुयी मीना के सुर्ख कपोल गीले हो गए थे- अश्रुमुक्ता से।मैं ठहर कर उन्हें पोंछने अथवा मीना को कुछ कहने-समझाने की जरूरत भी ‘न महसूस’ कर सका,पीछे मुड़ कर देखने की हिम्मत भी ‘न’ जुटा सका,बस चल दिया...खट...खट...खट...सीढि़याँ उतरते।
पिछले दिनों से ही कुछ अजीब सा तूफान उठ खड़ा हुआ था मेरे अन्तःस में और बहे जा रहा था मैं उसके थपेड़ों में।

दून एक्सप्रेस के थ्रीटायर स्लीपर में सौभाग्य से सीट मिल गयी थी।तौलिया बिछा कर पड़ गया।चलते वक्त चाची टिफिन कैरियर में रात का खाना दे दी थी,पर उसकी जरूरत ही महसूस न हुयी।

विगत वर्षों के कलकत्ता प्रवास की कुछ धूमिल,कुछ साफ चित्र एक-एक कर आँखों के सामने नृत्य कर रहे थे।मैं उनका खतौनी कर रहा था- जीवन-तलपट के खाकों में।न जाने कब आँखें लग गयी- इतनी गहराई से कि गन्तव्य पर पहुँच कर ही खुलीं।

घर आ गया था।सकु्शल पहुँचने की सूचना,पत्र द्वारा मीना को दे दी थी।अन्य समाचारों के अलावा लिखा था- ‘अच्छा किया मीना कि मैं जल्दी ही आ गया, अन्यथा शीघ्र ही यहाँ से ‘तार’ जाता।माँ काफी बीमार है। पिताजी के निधन के बाद से ही इसे भी अचानक दिल का दौरा पड़ना शुरू हो गया है,जो तुम जानती ही हो। इधर सप्ताह भर से पुनः इसकी स्थिति गम्भीर हो गयी है....सोचा था घर जाकर थोड़ा आराम करूँगा कुछ दिन; किन्तु मुझ अभागे के भाग्य में न लिखा है सुख-आराम।माँ के स्वास्थ्य लाभ के बाद ही कलकत्ता आ पाना सम्भव हो सकेगा।देखें कब तक लौट पाता हूँ।तुम इन्तजार में हो,तो मैं भी प्रतीक्षा में हूँ....।
इसके बाद मीना के कई पत्र आए।हर दो-तीन दिनों पर एक लिफाफा हाजिर रहता।समयानुसार पत्रोत्तर भी दे ही दिया करता।एक पत्र में मीना ने लिखा था-
‘कमल! तुम्हारे आने की वाट रोज देख रही हूँ।तुम आ जाते तो अच्छा होता।फिर एक बार कहीं घूमने चला जाता।वैसे मई अन्त तक वाराणसी जाने का विचार हो रहा है- मौसी के यहाँ।यदि माँका स्वास्थ्य सुधर गया हो तो शीघ्र यहाँ आने का प्रयास करना।’
किन्तु माँ का अस्वस्थता दौर शुरू हुआ तो महीनों से उपर हो गए।कलकत्ते से चाचा-चाची भी आए,माँ की नाजुक स्थिति सुन कर मुलाकात करने।
बीमारी की सूचना पाकर अन्य परिजन भी क्रमशः आ-जा रहे थे।हालांकि, माँ की स्थिति में शनैः-शनैः काफी सुधार हो चला था,पर आने वालों की स्थिति पूर्ववत जारी रही।इस समय मेरी वही स्थिति थी,जो घर में चोरी-डकैती-कुछ अन्य संकट के बाद घर के मुखिया की होती है।दारोगा जी दस बार आयेंगे,कुछ पूजा-दक्षिणा ले
कर जायेंगे,काम-परिणाम कुछ हो ना हो,खु्शमद-जीहुजूरी जरूरी है।वस ऐसा ही- बीमार की सुश्रुषा बाद में,आगन्तुकों की आवभगत पहले।
डेढ़ महीने तक आवा-जाही लगी रही।
इसी क्रम में आए एक दिन- भाभी के पिताजी- यानी शक्ति के मामा;और बातचित के क्रम में कहा उन्होंने मेरे तत्कालिक अभिभावक चाचाजी से-
‘क्यों भट्टजी! कैसा रहेगा?मैं समझता हूँ- समय आ पहुँचा है,कमल बाबू परीक्षा देकर आही गए हैं। आखिर बेचारे दिवंगत समधी साहब की आत्मा को कब तक तरसाया जायगा? शक्ति के माता-पिता की आत्मायें भी तो इसी दिन की प्रतीक्षा में होंगी।’
उनकी बात पर चाचाजी कुछ चौंकते हुए बोले- ‘क्या कह रहे हैं हरकिशनजी? मैं आपकी पहेली कुछ बूझ नहीं पा रहा हूँ।’
‘तुम क्या बूझोगे गीता के बापू? हरकिशन जी की इस पहेली को मैं अच्छी तरह बूझ रही हूँ....।’-वार्तालाप में दखल देती हुयी माँ ने कहा था।
‘हाँ, देखे न आप भट्टजी,आप न समझ पाए मेरी बात को,पर जिसे समझना है,वह समझ गयी।’- कहते हुए हरकिशन जी हँसने लगे थे,और इस हँसी में उनके मुंह की ढीली बतीसी बाहर आने को बेताब हो गयी थी, जिसे हड़बड़ा कर सम्हाल लिया उन्होंने।
माँ ने आगे कहा था- ‘ठीक कह रहे हैं, हरकिशन बाबू आप।हम तो वचनवद्ध हैं ही बहुत पहले से- आपकी बच्ची तो बहुत बाद में हमारे घर की बहू बनी।उससे बहुत पहले ही,जब बड़कु की शादी में मैं गयी थी मैके,उसी समय कमल के बापू ने वचन दिया था,शक्ति के पिता श्री देवकान्त जी को -‘‘अपने यहाँ मैं आपकी बच्ची का
सम्बन्ध करने का वचन देता हूँ।" मगर अफसोस,आज उन दोनों...क्या तीनों में कोई न बचा रह गया...न कमल के बापू और न शक्ति के माता-पिता ही।वे दोनों तो साल-दोसाल पहले ही चले गए।पिछली बार जब कमल के बापू ज्यादा बीमार हो गए थे,तो एक दिन मुझसे कहे थे- मुन्नी की माँ! शक्ति की शादी के लिए मैंने वचन दिया है- देवकान्त जी को।’-कहती हुयी माँ रो पड़ी थी।
हरकिशन जी ने उसे ढाढ़श बँधाया था- ‘भगवान को शायद यही मंजूर था।दैव पर किसका वश चला है ! कितना सुखमय वह परिवार कुछ बर्षों में ही तितर-वितर हो गया।लड़का भी है एक, सो करम अभागा- नालायक ही निकला- तभी तो बेचारी शक्ति उन लोगों के गुजरने के बाद से ननिहाल में ही पड़ी है।अतः इस पर विचार कर कुछ रास्ता जल्दी ही निकालना जरूरी है...आप भी हमेशा बीमार ही रहती हैं।’
‘मैंभी तो लगता है- चन्द दिनों का ही मेहमान हूँ।मेरी भी बड़ी लालसा है- एक ही लड़का है;कम से कम बहू को देख लेती तो चैन से मरती।पोता-पोती देख सकना तो दूर की बात है।’-कहती हुयी माँ फिर डबडबा गयी।
‘ऐसी बातें क्यों करती हो भाभी? अभी तुम्हें बहुत दिन जीना है।ठाट-बाट से कमल की शादी करो।बहू ही क्यों,पोता-पोती सब देखो।’- पास बैठे चाचा ने सान्त्वना दी थी,माँ को।
‘नहीं गीता के बापू! इतना दिन जी कर क्या करूँगी...इस पापिन शरीर को कब तक ढोऊँगी?बस एक ही लालसा रह गयी है- बहू का मुंह देख लेती...शक्ति बिटिया की शादी मेरे कमल से हो जाती,तो मेरा घर बस जाता...मृत प्राणियों को चैन मिलता,कमल के बापू का वचन पूरा होता...और मुझे चैन की....।’-कहती हुयी माँ की आँखों में प्रसन्नता और आशा के मोती तैरने लगे थे।
‘तो फिर देर किस बात की? हम सभी एकत्र हैं ही...क्यों न देख लिया जाय- एक बढि़याँ सा लग्न-मुहूर्त...और निपटा दिया जाय- वचनों और संकल्पों का बोझ! सुनते हैं शुक्रास्त भी इस महीने के अन्त तक होने जा रहा है,और आगे फिर आगे ही हो जायगा.....।’-प्रसन्नता पूर्वक कहा था- शक्ति के मामा ने।
उनकी बातों का समर्थन करती हुयी माँ ने कहा था- ‘सही कहा आपने- समय बहुत कम है; किन्तु एक बार कमल से राय.....।’-माँ का वाक्य अंटका ही रह गया था,मुंह में।अब तक पर्दे की ओट में खड़ी भाभी बीच में ही बोल पड़ी-
‘क्या कहती हैं माँजी! कमल बाबू जिस समय सुनेंगे कि शादी शक्ति से होने जा रही है,फिर सिर के बल दौड़ते हुए बारात निकलने से पहले ही पहुँच जायेंगे....।’
भाभी द्वारा दी गयी- गोपनीय शाखा की यह सूचना सुन, सभी हँसने लगे।माँ ने भी भाभी की बातों का समर्थन किया।
‘हाँ-हाँ बहू ठीक कहती है,मुझे भी याद आ रही है- देवकान्त जी का परिवार जब कलकत्ते में रहता था, कमल अकसरहाँ वहाँ जाया करता था।शक्ति को वह अच्छी तरह जानता है।वसन्त ने भी कहा था मुझसे एक बार- वे एक दूसरे को....।’-चाचाजी कह ही रहे थे कि बीच में ही हरकिशन जी बोल उठे-
‘बिलकुल ठीक कहा आपने भट्ट जी,मेरा भी कुछ ऐसा ही ख्याल है।’ और पास ही रैक पर रखा हुआ पंचांग उठा लाए।
....और अगले आध घंटे के विचार-विमर्श के बाद मात्र दस दिनों बाद का ही विवाह मुहूर्त सर्व सम्मत्ति से पारित हो गया।
मैं सुबह ही चला गया था,पास के कस्बे से माँ की दवा लाने। देर रात घर वापस आया,तब तक हरकिशन जी जा चुके थे- अपने घर वापस- सुसंवाद लेकर शक्ति की शादी का- रात में भाभी ने विस्तृत जानकारी दी तो सिर धुनने के सिवा कुछ और सूझा नहीं।पैरों तले की धरती हिलती हुयी सी लगी।एक एक कर बहुत सारे बिम्ब
आँखों के सामने बनने और बिगड़ने लगे- ‘स्टार्टर-सर्किट’ से जुड़े- मीना और शक्ति के कई चित्र चलते फिरते दौड़ते से नजर आए....
शक्ति...जिससे मात्र परिचय है- एक दो दिन का।वैसा परिचय तो कईयों से है- स्कूल की बहुत सारी लड़कियों से...तो क्या सबको ब्याह लाऊँ,और बहुओं का हार बना,डाल दूँ- माँ के गले में?....परन्तु मीना...? इन सबसे अलग...बिलकुल अलग व्यक्तित्त्व है उसका...महत्त्व है उसका...दबा हूँ उसके एहसान से...किन्तु...क्या वह
मुझे चाहती है...प्रेम करती है? चाहती है...प्रेम भी करती है...इतना लगाव...माँ के सिवा कहीं और दीखा तो वह दीखा- मीना में...किन्तु क्या वह मुझसे...शादी...शादी तो जीवन का सौदा है- समान ‘धर्मियों’ के बीच होता है...‘वि’ ध्रुवों के बीच तो सिर्फ....शादी कोई प्रसाधन नहीं है...रोटी-कपड़ा-मकान नहीं...दो दिलों का विलयन है जिसे आज की भाषा में ‘समझौता’ कह कर संतोष करते हैं...शादी तो आजीवन-निर्वहण है...मीना ‘मीना’ है...मैं ‘मैं हूँ -एक साधारण सा...गृहस्थ का बेटा, जिसने जीवन भर झोली पसारी है संभ्रान्तों के द्वार पर... ‘बंकिम बाबू’ एक अति संभ्रान्त...एक बड़े जमींदार की इकलौती वारिस- मीना....को मुझ अकिंचन की झोली में डाल सकेंगे? असम्भव...असम्भव है यह...ऐसा नहीं हो सकता........पर उनका ‘अधूरा कर्तव्य’ क्या था,जिसे वे अकसर याद करते थे? क्या मुझे पढ़ा-लिखा, योग्य बना कर अपना जामाता बनाना चाहते हैं?....
चाची के उच्छ्वास- ‘काश ऐसा हो पाता, का क्या अर्थ हो सकता है....? मेरे प्रति उन दम्पति का काफी रूझान रहा...बहुत लगाव रहा...बहुत आकर्षण भी रहा...किन्तु इसका क्या मतलब?...
चटर्जी दम्पति के नेत्रों में तैरता एक सपना...निर्निमेष निहारते मुखमंडल...सिर पर फिरते हाथ...क्या है यह सब....?
....क्या यह चिन्तना भी व्यर्थ है? नहीं...शायद नहीं..मीना...वह तो मुझे बहुत चाहती है...अजीब निगाहों से अकसर देखा करती है...उन रतनारी आँखों में कुछ चाहत छिपी सी लगती है...किन्तु कहीं यह मेरा वहम तो नहीं... क्या उसकी आँखों में मेरे पतिरूप का बिम्ब झलकता है...
....तो क्या करूँ? पत्र लिख डालूँ? पत्र का आवागमन तो लम्बे समय की व्यवस्था और परिणाम है...यहाँ मुट्ठी में सिर्फ ‘पखवाड़ा’ है... वह भी मुकम्मल नहीं...क्षुद्र ‘टेलीग्राम’ प्रेम संवेदनाओं को कितना प्रकट कर पायेगा? ....तो चल दूँ....पर यह लम्बी यात्रा...यह तो और भी कठिन है- असम्भव जैसा- माँ को इस हाल में छोड़...
.....लोग कैसे कहते हैं कि दुनियाँ पहले से बहुत छोटी हो गयी है?गरीबों की दुनियाँ तो पहले जैसी ही है...काश छोटी होती!
अजीब मजाक है...शादी होने जा रही है...गुड्डे-गुड्डी का खेल मिन्टों-घंटों-दिनों में...सोचने समझने का दरकार नहीं...
....सुनते हैं कि संसद का प्रस्ताव राष्ट्राध्यक्ष के पास जाता है..एक दो तीन के बाद चौथी बार नकारने की गुंजायश नहीं रहती,अनिच्छित होने पर भी हस्ताक्षर कर ही देना पड़ता है- उस प्रस्ताव पर। ‘संघीय सत्ता व्यवस्था’ की इसे विशेषता कहूँ या दुर्गुण? किन्तु मेरे गृह-सांसदों ने तो उस पद को ही थोथा करार कर दिया। मेरे पास तो कोई प्रस्ताव क्या, विचार या कि राय भी नहीं पहुँच पाया- जिसे स्वीकारूँ या खारिज करूँ...सीधे ‘ज्वायनिंग-डिसमिश’ लेटर ही मिला...शादी मेरी...और मेरे ‘शाद’ की भी फिकर नहीं....
......इन्हीं विचारों के तूफान से पूरी रात जूझता रहा।
अगला सूरज मेरे ‘घर’ के लिए नयी आभा का संदेश लेकर आया था।सबके सब जुट पड़े थे काम में। ऐसा लग रहा था कि चाचा-चाची,उनसे जुड़े मेरे तथाकथित भैया-भाभी...सबके सब मेरे ही साथ हैं।मेरे परिवार को विखण्डित किया है इन्होंने ही- आज शायद माँ को याद नहीं...
किन्तु मैं कैसे भूल जाऊँ उस मनहूस घड़ी को? लाख कोशिश के बावजूद ये सब जरा भी अपने से नहीं लगते।चाची ने निकाल बाहर किया था अपने डेरे से...बंकिम चाचा के कल्पतरू की छांव यदि न मिलती तो आज मेरी क्या स्थिति होती? किन्तु जब माँ को ही विस्मरण हो गया है यह सब...फिर मैं?
घर की लिपाई-पोताई प्रारम्भ हो गयी थी।बाजारू सामानों की लम्बी फेहरिस्त तैयार हो गयी थी। निमन्त्रण-पत्र छापने का आदेश प्रेस को दे दिया गया था।सभी सदस्य बड़े मनोयोग पूर्वक एक जुट होकर
कार्य-व्यस्त हो गए थे।सबके चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी। माँ भी अब जरा भी बीमार सी नहीं लग रही थी।सबकी तरह वह भी प्रसन्न थी- बहू जो आने वाली है,सास बनने की खु्शrrrrrrrrrr स्वाभाविक है।
किन्तु मैं कहाँ से ले आऊँ खु्श...प्रसन्नता...किससे मागूँ कोई
उधार में देगा? चाचा-चाची...से...भैया-भाभी...से...मैना से....किससे? कौन देगा अपने हिस्से का अल्पांश भी ...प्रसन्नता में से?
मुझे उदास देख कर मैना ने पूछा था एक दिन- ‘क्यों भैया! शादी होने जा रही है,और तुम यूँ उदास- उदास से रह रहे हो...क्या बात है?’
मैं क्या बतलाता बेचारी मैना को? अतः सिर्फ- कुछ नहीं,यूँहीं- कह कर काम चला लिया।

नियत तिथि को शादी हो गयी। ‘शादी हो गयी’ इससे अधिक इस सम्बन्ध में और कुछ नहीं...गुड्डे-गुड्डी का खेल खत्म हो गया।किसी स्वचालित यन्त्र सा सब कुछ करता रहा।बारात सज-धज कर शक्ति के मामा के घर गयी...शादी हुयी...बारात बिदा हुयी...शक्ति मेरी अर्द्धांगिनी बन कर, मेरे साथ मेरे घर आ गयी...बस,और क्या?
माँ की छाती गर्वोल्लास से फूल उठी।जी भर कर गले लगायी बहू को।माँ की ‘उमर’ दस साल पीछे खिसक आयी।
पर बेटे के अन्तर्मन की स्थिति से अनभिज्ञ माँ- और अधिक सोच भी क्या सकती थी...कर भी क्या सकती थी...परवाह करने के लिए था भी क्या?
परवाह हुयी- वचनों की...प्रतिज्ञा की...आत्माओं की शान्ति की।
त्रेता की कैकेयी ने वचन लिया था...एक ‘स्त्रैण’ राजा ने वचन ‘दिया था...और रघुकुल की रीति ‘निभायी’ गई थी।
आज भट्ट कुल ने भी रीति निभायी है।वचन पूरा किया है- ‘‘ प्राण जाहुँ, बरू वचनु न जाई।"
राम वन गए थे- प्रिया को साथ लेकर,पर तड़पी थी-विरहाग्नि में जली थी- उर्मिला...बेचारी उर्मिला...‘बे’ चारी-- इसका विचार किसने किया? शायद किसी ने नहीं। करे भी कौन...क्यों? फुरसत किसे है? प्रयोजन भी क्या है?
आखिर कसूर क्या था उर्मिला का? यही न कि भ्रातृभक्त की पत्नी थी- मर्यादा पुरुषोत्त्यम के प्रिय अनुज की...भ्रातृधर्म की वेदी पर पत्नी धर्म / पति धर्म की बलि पड़ी।
शादी शक्ति की हुयी...वचन भट्ट कुल के निभे...और तड़पन मिला- मीना के हिस्से।
राम! तुम्हारी भूल है यह...सीता को साथ रख कर,उर्मिला को तड़पा कर....कैसे सोच लिए सुखद दाम्पत्य की बात? मर्यादा के नाम पर - " ?" प्रश्नचिह्न....त्रेता के राम...उर्मिला अकेली नहीं झुलसेगी;झुलसना पड़ेगा सीता को भी...राम को भी...
....मीना की तड़पन में तुम्हें भी तड़पना होगा शक्ति...और कमल तुमको भी...दुनियाँ की कोई ताकत इसे डिगा नहीं सकती...
...विक्षिप्त सा अपने आप से बातें कर रहा था।अचानक मैना के हाथों का स्पर्श मिला कन्धे को- ‘क्या सोच रहे हो भैया? जो होना था,सो हो चुका।कसूर यदि मीना का नहीं है,तो बेचारी शक्ति का ही क्या है कसूर? वह नादान...अनजान...क्या जानने गयी? उसे क्या पता है,इन बातों का- जो आज तुमने मुझे बतलाया- कहा सब कुछ,पर बहुत देर बाद...अब देर हो गयी है...खैर छोड़ो...भुला दो इन सपनों जैसी सच्चाई को...चलो...उठो...जाओ, कमरे में जाओ...मिलनयामिनी प्रतीक्षा में है तुम्हारी,और तुम....?’
मद-मत्त युवक को जैसे उसका मित्र घर के दरवाजे तक पहुँचा जाता है- हाथ पकड़ कर, मैना उसी प्रकार कमरे के चौखट तक पहुँचा गयी थी।
विस्तर पर गिरने के बाद ‘मदिरामय’ को होश शायद नहीं रहता।भीतर जा कर कमरे में पलंग पर पड़ रहा था।मेरे बदन के बोझ से दब कर सुहाग-सेज पर सजायी कई कलियाँ मसल गयी थी,कई और भी मसलेंगी- पर इसकी परवाह किसे थी?

नींद- प्रकृति का एक दिव्य वरदान! यदि न मिला होता मानव को तो वह कब का क्या से क्या हो गया रहता...गमगीन मानव को पागलखाने से इधर शरण कहाँ मिलता- इस वरदान के अभाव में?
न जाने कब आँखें लग गयी थी।चाँद प्रतीची में जा छिपा था,प्राची में सूर्य संसार को नया संदेश देने आने को अधीर...।कल से ही शुक्रास्त शुरू हो रहा है,अतः शक्ति को आज ही चले जाना है,दोपहर में।अमर भाईचारा दिखाने आया हुआ है- लेजाने के लिए...
...और दोपहर में शक्ति चली गयी वापस- मैके,जैसी आयी थी,वैसी ही।जरा भी दाग न लग पाया था कहीं उसके कौमार्य की चादर में- जस के तस धरी दीन्हीं चदरिया...

प्रकृति की गाड़ी चलती रही- सूरज गया,चाँद फिर आया।दिन के बाद रात के आगमन के साथ यादों का वातायन भी खुल गया,और उससे होकर आने लगे स्मृतियों के सर्द-गर्म झोंके- मेरे मानस-कक्ष में...
...मीना आयी...फिर शक्ति भी आयी...इनकी न जाने कितनी ही आवृत्तियाँ हुयी।फिर स्थिर होने लगी छवियाँ...मेरी आँखें निहारने लगी-
अविराम गति से,कल्पना लोक में भटकते उन मुखड़ों को- एक, जिसे अपना न सका,और दूसरा- जिसे अपना कर भी पा सकने का प्रयास तक न कर सका।
शक्ति! बेचारी शक्ति क्या सोचती होगी मन ही मन? कितने ही अरमानों की कलियाँ खिली होंगी- यह जान कर कि कमल से उसकी शादी हो रही है- उस कमल से जो एक दिन उसकी हथेली की रेखाओं में ही खो गया था...
....अपनी हथेली पर भतीजे की रेखा ढूढ़ने वाली शक्ति,जिसे मसखरे वसन्त ने रेडियो स्टेशन की रेखा कहा था...
...मैंने भी तो कहा था- ....शक्ति का दाम्पत्य बड़ा ही सुखद होना चाहिए...इसे किसी बड़े खानदान की बहू बननी चाहिए...।
बहू तो बन गयी- बड़े खानदान की- विक्रम भट्ट के खानदान की...पर दाम्पत्य? क्या उसका दाम्पत्य सुखमय हो पायगा?मैं तड़पूँगा मीना की याद में,और वह.....?मेरे लिए। फिर कैसे हो पायगा सुखमय- मेरा उसका दाम्पत्य?
पर उस दिन देवकान्त चाचा- अब कहूँ - मेरे गतायु स्वसुर परिवार की देखी गयी हस्तरेखा की लगभग सभी भविष्य वाणियाँ सही उतरी हैं।यही एक वाणि- शक्ति का सुनहरा दाम्पत्य- शायद गलत सिद्ध हो। होगा ही।होना ही है।किसी विचारक के सभी सिद्धान्त सही कैसे हो जायेगे? कुछ तो होगा ही अपवाद! अपवाद भी अपने आप में एक नियम है।सिद्धान्त की सार्थकता भी इसी में निहित है...
....शक्ति की झुक आयी पलकें...सुर्ख हो आए कपोल...पसीने की बूँदे छलक आयी हथेली...क्या वह छवि विसर सकती है कभी?
....भैया की शादी...गीत गोविन्द के धुन...मातृ-पितृ विहीन बालिका के कोकिल कण्ठ स्वर...क्या उन सबको भुला पाऊँगा कभी भी?
...सुहाग सेज पर पड़ी लाल गठरी- पलंग के एक कोने में दुबकी-सहमी सी...क्या उन मनोंभावों की अवहेलना मुझे चैन से रहने देगी....?
किन्तु महत्त्व ही कहाँ दिया मैंने? बेचारी आयी और चली गयी।मैंने एक शब्द भी कहाँ कुछ कहा-बोला उससे रात भर के ‘मिलन’ के दौरान भी...गाड़ी में बैठा उस मनहूश मुसाफिर की तरह ही तो रह गया मैं,जो लम्बी यात्रा के बावजूद सहयात्री से कुछ बोल नहीं पाता...पूछ नहीं पाता...
....आखिर वह क्या सोचती होगी? क्या वह नारी नहीं? क्या मैं पुरुष नहीं? और सब यदि ‘हाँ’ तो फिर ‘ना’ क्यों? क्यों हुआ ऐसा? क्या दलील है इसके लिए मेरे पास?
मैके पहुँची होगी।सखियाँ सब घेर ली होंगी।एक से एक सवाल करती होंगी।तब वह क्या कही होगी- ‘कोई बात नहीं हुयी।’- इस बात पर भी कितनों ने यकीन किया होगा? कुछ न कहने पर भी तो सखियाँ हँसेगी ही।उन्हीं में से कोई शोख सहेली कह भी डालेगी-
‘‘नाहं नो मम बल्लभश्चकुपितः,सुप्तो न वासुन्दरो;
वृद्धो नो न च बालकः कृशतनुर्नव्याधितो नो शठः ।
मां दृष्ट्वा नवयौवनां शशीमुखीं, कंदर्पवाणा हतो;
मुक्तो दैत्यगुरूः प्रियेणपुरतः पश्चाद्गतो विह्नलः।। - क्यों शक्ति यही बात है न?’-और बाकी सखियाँ ठहाके लगा कर हँस देंगी।-ऐसा ही तो कुछ होगा,बेचारी के साथ?
(श्लोकार्थः-...न मेरे पति मुझ पर कुपित हैं,न वे सुस्त हैं,न वे असुन्दर हैं,न वृद्ध हैं,न बालक हैं,न दुबले-कमजोर हैं,न रोगी हैं,न मूर्ख।बात यह है कि मुझ नवयौवना शशिमुखी को देखते ही वे काम देव के वाणों से आहत होकर दैत्यगुरू का त्याग,यानी शुक्र-पातन कर दिये, फलतः लज्जित हो विह्नल हो गये।)

स्मृति का एक और झोंका आया- मानस पटल पर मीना की छवि अंकित हो गयी,जिसके मम्मी-पापा ने इतना कुछ किया मेरे लिए। कंटकाकीर्ण पगड़ंडी से उठा कर जीवन की चौरंगी पर ला खड़ा कर दिया; परन्तु बदले में क्या दिया मैंने उन्हें? तड़पन ही तो या और कुछ? दुःख..संताप..वेदना..निराशा..यही सब तो।शादी हुयी, कितने लोग आए-गए; मैं उन्हें सूचना से भी वंचित कर दिया....
इसी प्रकार स्मृतियों की साकियाँ नृत्य करती रहीं मानस-मंच पर।अन्त में लाचार होकर लैम्प जला कर बैठ जाना पड़ा- लेटर पैड लेकर;और विस्तृत क्षमा-याचना-पत्र लिख दिया मीना के नाम।
रात बीती।प्रभात आया।पग उठ चले डगमग करते- डाकखाने की ओर।पत्र लिख चुका,हिम्मत करके डाकघर तक आ भी गया।पर, आगे- इसे पत्र-पेटिका में डालने में हाथ कांपने लगे- पैर तो पहले से ही कांप रहा था...परिणामों की परिकल्पना कई वीभत्स रूप में मुखौटा विहीन होकर सामने आ, मुंह चिढ़ाने लगा।
याद करना चाहा- माँ काली के उस दिव्य स्वरूप को,किन्तु उनकी लपलपाती लाल जिह्ना और शाम्भवी मुद्रा से सामना करने का साहस न संजो सका।थर्रायी आवाज रूँधे कंठ से टकरा कर बाहर आयी- माँ! मुझे शक्ति दो!! शक्ति दो माँ....।
उस दिन भी यही कहा था,आज भी यही निकला मुंह से।क्या
माँ मेरी भाषा,मेरे भाव को नहीं समझ पायी? शक्ति मांगा,शक्ति मिली।शब्द और भाव क्या इतने असम्बद्ध हो गए या कि मेरा किंचित सौभाग्य, दुर्निवार दुभाग्य में बदल गया? कम्पित कपोलों पर अनचाहे ही लुढ़क आयी अश्रु -बूदों को रूमाल से सहेज,फिर एक बार अन्तरतम की गहरायी में उतर कर गुहार लगाया-‘माँ! मुझे शक्ति दो’
और साहस बटोर कर डाल दिया- पत्र को पेटिका में....
....और क्षण...क्षण व्यतीत होता रहा - युगों के पैमाने पर।प्रतीक्षा करने लगा- प्रतिक्रिया की,उस नादान बालक की तरह जो आम की गुठली जमीन में बोकर अगले ही दिन माँ से पूछता है-‘माँ,मेरे आम कब पकेंगे?’
रोज जाया करता डाकघर,पता लगाने- कोई संवाद है मेरा?
फिर एक दो तीन चार करते पन्द्रह दिन गुजर गए- कैसे गुजरे- मैं ही जानता हूँ।पत्रोतर नहीं आया।
सोलहवें दिन आया एक ‘अर्जेन्ट टेलीग्राम’ कलकत्ते के वजाय,पटना से -
“Come soon PMCH Hathua ward bed 7- Bankim” -इस क्षुद्र,किन्तु गम्भीर संवाद का कोई अर्थ न लग रहा था,वस अर्थ इतना ही था कि कुछ न कुछ ‘अनर्थ’ हुआ है। इस क्षुद्र प्राण पंक्ति की व्याख्या वहाँ जाने से ही हो पायगी।
और चल दिया- पटना के लिए।
तार प्रेषण के करीब सत्ताईस घंटों के बाद मैं उपस्थित था पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पीटल के हथुआ वार्ड में,जिसके इमरजेंसी चेम्बर के बेड नम्बर सात पर पड़ी थी- मीना।
‘आ गए कमल?’ -मुझे देखते के साथ ही वंकिम चाचा और चाची के चेहरे पर मुस्कान की हल्की रेखा खिंच गयी,जो मूलतः औपचारिक थी।
बेड के पास ही नीचे बिछी दरी पर बैठे चाचाजी बतलाने लगे-‘.......तुम्हारी चिट्ठी की प्रतीक्षा में था।जैसा कि तुम्हें पूर्व विदित है,हम सबका प्रोगाम था ही,वाराणसी मीना के मौसा के यहाँ जाने का।सोचा था कि तुम आ जाओ,तो सब साथ चलें।किन्तु अचानक उनका पत्र आ गया- तबियत ज्यादा खराब हो गयी है।अतः कल सुबह ही चल दिया कलकत्ते से।घर से निकलते समय ही तुम्हारा एक पत्र मिला,जिसे जल्दबाजी में देख न पाया,जेब में डाल लिया...
‘रात जब हमलोग मोकामा पार कर रहे थे,अचानक कुरते की जेब में हाथ गया,और याद आ गयी तुम्हारी चिट्ठी की।
‘‘किसका है पापा?’-कहती हुयी मीना चट से, ले ली मेरे हाथ से,ज्यों ही निकाला था- उसे जेब से,और खोल कर पढ़ने लगी।कुछ देर बाद,मैंने पूछा कि क्या लिखा है पत्र में कमल ने, कि वह चल दी पत्र लिए हुए ही गु्शलखाने की ओर...
‘उसे गए कुछ अधिक देर हो गयी,तब चिन्ता हुयी।तुम्हारी चाची उधर गयी, देखने के लिए।तब तक किसी भले मानस ने गाड़ी की जंजीर खींच दी थी।कम्पार्टमेंन्ट में कोलाहल मच गया था- ‘‘एक लड़की अभी-अभी गिर पड़ी नीचे,जो बाथरूम से निकल कर गेट पर झांक रही थी।"
‘गाड़ी खड़ी हो गयी।कई लोग नीचे उतर गए।ढूढ़ा जाने लगा-सर्चलाईट की रौशनी में...मिल भी गयी...पर न मिलने जैसी....।’-कहते हुए चाचा बच्चों जैसा फूट-फूट कर रोने लगे थे।
‘मीना!... मुझ अन्धे की लाठी मीना....क्या हो गया मेरी मीना को कमल....कैसे गिर पड़ी....?’-चाची जार-जार रोये जा रही थी।
किन्तु मेरे पास इसका जवाब क्या था? क्यों गिर गयी- इसका जवाब क्या ‘दे’ सकता हूँ मैं? कह दूँ...मेरे पत्र ने ढकेला है इसे...मैंने ढकेला है इसे?
बातें हो ही रही थी,तभी डॉ. रस्तोगी अपनी पूरी टीम के साथ आ पहुँचे। मीना का निरीक्षण-परीक्षण किये।नाक पर लगे ऑक्सीजन-मॉस्क को निकाल कर रख दिये एक ओर।उनके इशारे पर नर्स आकर एक आई.भी.इन्जेक्शन लगा गयी।
“Now patient is out of danger.”- कहते हुए डॉ.रस्तोगी के होठों पर विजय की मुस्कान थी- ‘चटर्जीसाहब अब आपकी बच्ची खतरे से बाहर है।चिन्ता न करें।इन्जेक्शन लगा दिया गया है।दस-पन्द्रह मिनट में होश में आ जाना चाहिए।’
डूबती नैया का पतवार थमा कर,निविड़ अन्धकार में रौशनी दिखा कर डॉ. रस्तोगी अपने चेम्बर में चले गए।पीछे से मैं भी गया।विशेष पूछने पर उन्होंने बतलाया था-
‘रोगी की स्थिति चिन्ता जनक जरूर थी,पर अब आशा बन गयी है,वशर्ते कि चौबीस घंटे सही-सलामत गुजर जाए।’
फिर खतरे से बाहर कैसे कह रहे हैं,डॉक्टर?’-- मैंने बेचैनी से पूछा था।
‘वैसे इसे निरापद स्थिति ही कही जायेगी; किन्तु चोट से फेफड़ा थोड़ा प्रभावित है,इस कारण आशंका हो रही है।’-स्थिति समझ कर मैं वापस आ गया,वार्ड में।
मीना के बदन पर पतली सी चादर पड़ी हुयी थी।मैंने आहिस्ते से उसे हटाया।माथे की पट्टी तो पहले से दीख ही रही थी। पैर पर इशारा करते हुए,चाचाजी ने कहा- ‘यहाँ भी प्लास्टर चढ़ा है।’
मैं चादर पूर्ववत ढक दिया,और वहीं खड़ा रहा।चाचाजी नीचे दरी पर बैठ गए।
ठीक पन्द्रह मिनट बाद मीना आँखें खोली।होश में आने के बाद पहला शब्द मुंह से निकला- ‘कमल!’ और पुतलियाँ चंचल हो गयी।
‘कमल यहीं है बेटे! यहीं है तुम्हारा कमल।’- हड़बड़ा कर वे उठते हुए बोले।
एक ओर चाचा-चाची दोनों खड़े थे।मैं बेड पर ही बैठ गया, मीना के बगल में।
कैसी तवियत है मीना?- पूछते हुए मैंने उसके माथे को धीरे से सहलाया,जिसके अधिकांश पर पट्टियाँ थी।
मृदुल स्नेहिल स्पर्श पाकर मीना ने आँखें खोल दी- बड़ी-बड़ी आँखें- नीली झील सी आँखें,- मुझसे मिलते ही सजल हो आयी।कराहती हुयी मीना दोनों बाहें उठा कर हार की तरह मेरे गले में डाल दी।
‘कमल! आ गए तुम कहाँ चले गए थे,मुझको छोड़ कर?क्यों चले गए थे? ’-कहती हुयी उठने का प्रयास करने लगी,मेरे कंधे से लटक कर।
मैं उसके गाल पर हाथ फेरते हुए बोला- ‘उठो मत मीनू।अभी तुम्हें आराम की जरूरत है।’
‘क्या हुआ है मुझे,जो पड़ी रहने कह रहे हो? अरसे बाद आए हो तुम और मुझे पंगु सी पड़ी रहने को कह रहे हो?’--कहती हुयी मेरे गले से हाथ छुड़ा कर अपनी छाती पर ले जाती हुयी पुनः कहने लगी- ‘देखो न यहाँ पर बहुत जोरों का दर्द हो रहा है।
फिर आँखें अनजान सी इधर-उधर घुमाकर बोली- ‘क्या हुआ है कमल! मुझे घेरे हुए क्यों हो तुमलोग?’
‘कुछ नहीं हुआ है,तुम्हें मीना बेटे! कुछ नहीं हुआ है।’- कांपती आवाज में चाची बोली।
‘यह क्या, पट्टी क्यों बँधी है?’-माथे पर अपना हाथ ले जाकर स्पर्श करती हुयी पूछने लगी।फिर हठात् मौन हो गयी,कुछ सोचने की सी मुद्रा में।
चाचाजी ने धीरे से मुझसे कहा- ‘लगता है- स्मृति अभी ठीक से काम नहीं कर रही है।ठहरो डॉक्टर को बुलाता हूँ।’
और चल पड़े पास के अटेंडेंट चेम्बर की ओर।
डॉक्टर आए।पुनः निरीक्षण-परीक्षण किए। बोले- “Don’t worry. कोई चिन्ता की बात नहीं है।एक दवा देते हैं।थोड़ी देर में ठीक हो जाएगी।’
डॉक्टर चले गए।दवा मैंने खिला दी, उनसे लेकर।दवा खाकर मीना पुनः आँखें बन्द कर ली।
चाची बाहर बरामदे में रेलिंग के पास गमगीन खड़ी थी।चाचाजी बाहर,बाजार की ओर निकले हुए थे।मैं वहीं मीना के बेड पर ही बैठा प्रतीक्षारत था- दवा के प्रभाव के लिए।
रात नौ बज रहे थे।मीना ने आँखें खोली।धीमे से आवाज निकली - ‘कमल!’
‘क्या है मीनू! मैं यहीं हूँ।’-कहते हुए थोड़ा और समीप हो लिया।
‘ठीक हूँ,बिलकुल ठीक हूँ कमल।’- कहा उसने और फफक कर रो पड़ी।उसकी आवाज,उसका रूदन,उसकी मुखाकृति बतला रही थी कि आसन्न अतीत उसकी स्मृति में उमड़-घुमड़ रहा है।उसके गालों पर लुढ़कती आँसू की लडि़यों को अपने रूमाल में सहेजते हुए मैंने कहा- ‘यह तूने क्या कर लिया मीनू?क्या कर लिया तूने?’
सहानुभूति प्रायः अन्तः की वेदना को बढ़ा देता है,कुरेद देता है- जख्मों को,जिन पर ‘काल’ की पपड़ी पड़ चुकी होती है।ब्रण ताजे होकर रिसने लगते हैं।
मेरे पूछने पर मीना और रोने लगी।रूदन में ध्वनि कम,कम्पन अधिक महसूस किया हमने।
‘मैंने कुछ नहीं किया कमल! कुछ नहीं....जो भी किया- तेरे प्रति निच्छल-निश्चल प्रेम ने किया...तेरे-मेरे प्रेम के बीच ‘मैं’ कहीं नहीं...पर सोचती हूँ- तुम इतना बेदर्द कब से...कैसे हो गए? कैसे भुला दिया
तूने मुझे? तुम्हें तो खोने की आदत है- खुद को,खुद में;और दूसरे को भी खोना सिखाने की,मगर मुझे कैसे बिसार दिये? बोलो कमल- कैसे भुला दिया तूने मेरे प्यार को? बोलते क्यों नहीं?’
अपने दोनों हाथों को मेरे गले से लिपटाते हुए मीना अनवरत रोए जा रही थी,और मैं उन अश्रुधार को रोकने का असफल प्रयास करता जा रहा था,करता जा रहा था।
मेरे कोष में शब्दों की कंगाली हो गयी थी,या कहें मनोंभावों ने लूट लिया था मेरे खजाने को।वैसे भी निरीह दुर्बल शब्दों पर भावों को बहुत भरोसा नहीं करना चाहिए।शब्दों में सामर्थ्य ही कितना है,भावों के सम्यक् वहन हेतु! किन्तु वास्तविकता तो यह है कि निःशब्द और निःभाव(निर्भाव) में जो अनुभूति होती है,अभागे शब्दों और भावों के भाग्य में कहाँ!
मीना अब भी कहे जा रही थी- ‘कमल! क्या सच में तूने शादी कर ली? तुम तो मजाक में भी झूठ नहीं बोलते,फिर झूठ लिख कैसे सकते हो?मगर अभी भी मुझे यकीन नहीं होता।कह दो यह झूठ है-मैंने झूठी बात लिख कर चिढ़ाया है तुम्हें।मगर चिढ़ाने की भी आदत नहीं है तुममें।उस दिन भी झरने पर तुम मेरे प्रेम की परीक्षा ही ले रहे होओगे,और कुछ नहीं....क्या सच में तूने त्याग दिया मुझको? मैं कोई नहीं तुम्हारी?कितना आश लगायी थी कमल! कितने सपनें संजोये थे तुमको लेकर....कितना तड़पी हूँ मैं- तेरे लिए- जरा इन आँखों से पूछो...कितना धड़का है यह दिल,इस सीने से पूछो.....।’- कहती हुयी मेरा हाथ पकड़ कर अपने धड़कते कलेजे पर रख दी थी
....कमल! तुम इतने पत्थर दिल कैसे हो गए कैसे भूल गए
मेरे धड़कनों की ध्वनि को...तुमने तो कई बार बहुत करीब से सुना है इसे...तेरे-मेरे दिलों ने कितने गहरे संवाद किए हैं कई-कई बार... क्या उन संवादों में किसी ने भी गवाही न दी मेरे पक्ष में? किसी ने भी शोर न मचाया तुम्हारी ‘बेईमानी’ पर? मुझे त्यागने का निर्णय लेते वक्त तुमने एकबार भी ‘विवेक’से पूछा नहीं..?..नहीं.. ऐसा भी नहीं हुआ होगा...मन ने कहा होगा...बुद्धि ने मन के पक्ष में गवाही दी होगी,या फैसला भी उसने ही कर दिया होगा...विवेक की अदालत तक बात गयी ही नहीं होगी...अन्यथा ऐसा अनर्थ नहीं होता।अच्छा एक बात बताओ- यदि मुझे त्यागना ही था,फिर क्यों जलाया था तूने आशाओं के दीप मेरे दिल में?उसी दिन फूंक मारकर उसे बुझा क्यों न दिए थे,जिस दिन प्यार के दीप को अपनी आँखों की देहरी से उठा कर दिल के दीपाधार पर रखी थी मैं....आखिर क्या कसूर है मेरा,कहो तो कम से कम- क्यों नाराज हो गए मुझसे? क्यों चले आए मुझे अकेली छोड़ कर? आए भी तो इतने दिन लगा दिए...मिले भी तो सब खो कर....।’-मीना के होठ फड़क रहे थे।आँखें बरस रही थी।मैं मौन,निःशब्द उसे निहार रहा था।शब्द थे ही कहाँ कुछ भी मेरे खजाने में।
......तुम सीढि़याँ उतर रहे थे।मैं पूछ रही थी- कब तक लौटोगे? कहा था तुमने- ‘देखें कब तक लौट पाता हूँ।’ मुझे खटका उसी दिन हुआ था।मेरी दाहिनी आँख जोरों से फड़क रही थी।मम्मी कहती है- नारियों की दाहिनी आँख अशुभ सूचक होती है।मेरे मन ने कहा था- तुझे रोक लूँ।किन्तु न जाने क्यों रोक न पायी,जिसका परिणाम अब भोग रही हूँ।नारी के अन्दर की नारी को तुम ‘पुरुष’ की निगाहें शायद ही देख पाती हों।तुम पुरुष सिर्फ देख पाते हो ‘शरीर’; और उसी वाह्य परिधि पर चक्कर काटते रह जाते हो....
......मैं भाव विभोर होकर तुमसे लिपट पड़ती थी,तुम्हें शायद बुरा लगता था।तुम्हारी निगाहें मुझे शायद ‘कामिनी’ समझी, पर मैं वह नहीं, जो तुमने समझा।तुम सोचते होओगे कि मैं दौलत वाली हूँ ,पर दौलत आज तक किसकी हुयी है? किसका पूरा-पूरा साथ दिया है इस दौलत ने? किसी का नहीं।इसे न लेकर आयी थी,और न जा ही सकती हूँ साथ में लेकर....मुसाफिरखाने का सामान मुसाफिरखाने में ही छोड़कर जाना पड़ता है...कोई लेकर कैसे चला जायेगा?.....
........मैं सावित्री बनी थी,तुम बने थे सत्यवान।अपने उस छद्म रूप को तुमने उतार फेंका नाट्य-मंच के बाद ही; किन्तु मैं अभी भी उतार नहीं पायी हूँ ,आज भी मैं उसी रूप में हूँ।काश! मेरा वह सपना साकार हो पाता......।’- मीना का प्रलाप जारी था,विलाप भी जारी था।मेरी जढ़ता जारी थी,ज़बान बन्द,शब्दकोष रिक्त।
भीतर से बहुत कुछ बटोरा- साहस.उर्जा.कुछ बेवजनी शब्द भी;और मीना के माथे को सहलाते हुए कहने लगा- ‘मीना मैंने बहुत बड़ी गलती की है,जिसके लिए कोई भी सजा शायद अपूर्ण ही होगी;किन्तु यह गलती बेवजह-बेबुनियाद नहीं। हालांकि हर अपराधी अपनी सफाई में ऐसा ही तर्क देता है।तुम मेरी बात पर यकीन करो मीनू! -दिवंगत पिता के वचन,मरणासन्न माँ की अभिलाषा,और कुटुम्बियों के हठात् दबाव ने मुझे घोर धर्मसंकट में डाल दिया,साथ ही मेरे स्वयं के विचार ने भी ठोंकर मारा- तूने मुझे अतिशय स्नेह और प्यार दिया है,आदर और सम्मान भी दिया है, यहाँ तक कि दिल भी दे डाली।परन्तु मैं सोच भी न पाया,समझ भी न सका,यहाँ तक कि कल्पना भी न कर सका कि तू मुझे इस स्वर्णिम सिंहासन तक पहुँचा दोगी।कभी भ्रम भी हुआ तो स्वयं को समझाने का प्रयास किया- इस असम्भव के प्रति।वस्तुतः मैं ऐसा- यहाँ तक- सोच भी कैसे सकता था? नीच मानव स्वभाव वश यदि ऐसा भाव कभी आता भी मन में तो उसे तुम्हारे प्रति,चाचा चाची के प्रति ‘महान अपराध बोध’ कह कर धिक्कार देता....।’
मीना के नेत्रों से अश्रु निरन्तर प्रवाहित थे।मेरी बात पर थोड़ी आँखें सिकोड़ी,गौर की - मेरे चेहरे पर,और आह निकल पड़ी उसके मुंह से - ‘हाय रे मेरा दुर्भाग्य! ओफ!! मैंने खुद को एक खुली किताब की तरह रख दी थी,तुम्हारे सामने, पर तूने उसे पढ़ने में भूल की,या पढ़ कर भी समझ न सके तो मैं क्या करूँ मेरी आँखों की भाषा को,मेरे मन के भावों को,मेरे शरीर की भंगिमाओं को तुम समझ न पाए- मेरी क्या गलती है?पर गलती हो या न हो- सवाल यह नहीं है। सवाल है- सजावार होने का।तुम्हारे दिल के सर्वोच्च न्यायालय ने मेरे लिए फांसी की सजा सुना दी है...अब उन्हें हँस कर स्वीकारूँ अथवा रोकर। तुम मेरा मुंह खोलवाना चाहते हो...प्यार का नग्न नृत्य देखना चाहते हो,तो सुन लो कान खोल कर- मैं तुमसे ‘प्रेम’ करती हूँ ,घटिया प्यार नहीं।प्रेम और में जो रहस्यमय अन्तर है- उसका ज्ञान और आभाश तो तुम्हें अवश्य होगा। प्रेम- क्षुद्र यौवन-सरिता के
प्रवाह का बुदबुदा नहीं, प्रशान्त महासागर का लहर है। यह लहर पहली बार उस मंच पर ही उठा था,जब तुम सत्यवान बन कर मेरी गोद में सिर रख कर सोये थे- जिसके साक्षी हैं- वे हजारों दर्शक,गण्यमान शिक्षक गण,और मेरे जनक-जननी भी।सत्यवान के सिवा किसका मजाल है,जो सो जाए सावित्री की गोद में?तुम्हें याद होगा-
‘‘नारी अपने पति का वरण सिर्फ एक बार ही कर सकती है,गुरूदेव!"-ये सावित्री के वचन थे- पर दर्शकों की दृष्टि में,तुम्हारी दृष्टि में। मगर ये शब्द मेरे कंठ से नहीं,मेरे हृदय से निकले थे। मीना के मुंह से नहीं,सावित्री के मुंह से।नाट्य-मंचन की बहुत वाहवाही हुयी थी।क्यों न होती- मीना थी ही नहीं वहाँ, सावित्री स्वयं उपस्थित थी।’- मीना अभी न जाने कब तक कहती जाती, निकालती जाती मन के गुबार, कि चाचाजी बाजार से लौट आए।
‘कैसी हो बेटी?’-उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उन्होंने पूछा।
‘बिलकुल ठीक हूँ पापा,अब मुझे कोई तकलीफ नहीं है।’- पापा को आया देख उठने का प्रयास करने लगी।उसके होठों पर कृत्रिम हँसी टहल गयी क्षण भर के लिए।
‘अभी आराम से सोयी रहो बेटी।उठने से प्लास्टर पर जोर पड़ेगा।’- चाचाजी उसे लेटे रहने को प्रेरित किए,पर वह मान नहीं रही थी।मेरे गले में हाथ डाल कर पुनः उठने का प्रयत्न करने लगी।
‘नहीं..नहीं... अब जरा भी नहीं सोऊँगी।पीठ दुःख रही है सोये- सोये।मुझे थोड़ा सहारा देकर उठाओ न कमल! मैं बैठना चाहती हूँ।’
मैं अपनी गोद में एक तकिया रख लिया,और उसके ऊपर,सहारा देकर आहिस्ते से मीना का सिर रखते हुए कहा- ‘ऐसे बैठो मीना,मेरे सहारे आराम मिलेगा।’- वह बैठ गयी वैसे ही अधबैठी सी।
‘दस बज रहे हैं।तुम चाहो तो थोड़ा आराम कर लो।बारी-बारी से जागरण करना होगा।रात में कई बार दवा भी खिलानी है।’- नीचे दरी पर बैठते हुए चाचाजी बोले।उनकी आवाज सुन,बाहर खड़ी चाची
भी वहीं आगयी।
‘कोई बात नहीं आप दोनों आराम करें।मैं पूरी रात अकेला ही जग लूँगा।आप लोग तो पिछली रात भी सो नहीं पाये होंगे।’- मैंने कहा।
‘सो सब तो ठीक है।कुछ खाया पीया या नहीं तूने?’- कहते
हुए चाचाजी साथ में लाए हुए पैकेट खोलने लगे,जिसमें खाने का कुछ सामान था।
‘मुझे खाने की जरा भी इच्छा नहीं है।उस समय मीना के सो जाने के बाद बाहर जाकर कुछ खा लिया था।’-मैंने कहा।
‘कोई बात नहीं,फिर मैं खा लेता हूँ।’
मैंने देखा- सिर्फ एक-एक पूड़ी चाचा-चाची दोनों ने खायी,और पानी पीकर,दरी उठा बाहर बरामदे में चले गए-यह कहते हुए-
‘हमलोग यहीं हैं।कोई बात हो तो बुला लेना।’
मम्मी-पापा के जाने के बाद मीना पूरी तरह लिपट गयी मुझसे।
अस्पताल के नियमानुसार साढ़े दस बजे प्रायः बत्तियाँ बुझा दी गयी थी।वैसे भी इमरजेन्सी वार्ड के सेपरेट चेम्बर में हमलोग थे,फलतः कोई वाह्य व्यवधान तो था नहीं।
मीना का प्रलाप उनके जाते ही फिर शुरू हो गया- ‘तुमने मेरे प्यार को भुला भले दिया है कमल,परन्तु मैं कदापि नहीं भूल सकती हूँ तुम्हें।नारी सिर्फ एक को ही स्थान दे सकती है अपने हृदय में।मैंने भी अपने मन के मन्दिर में सिर्फ एक ही मूर्ति की स्थापना की है- वह है,तुम्हारी मूर्ति- सिर्फ तुम्हारी,किसी और की नहीं।मेरे देवता की उस प्रतिमा को कोई दौलत से खरीद नहीं सकता।दुनियाँ की कोई शक्ति इसे छीन नहीं सकती है।तुम मुझे स्वीकारो या त्यागो- स्वतन्त्र हो इसके लिए,क्यों कि तुम पुरुष हो मैं हूँ नारी- विधाता की एक भूल..एक गलती...एक कमजोरी...एक मजबूरी.....।’- वृक्ष में लता सी,मुझसे लिपटी हुयी मीना कहती जा रही थी।
मैंने अधीर होकर,कातर स्वर में कहा- ‘अब और न सालो मीना और न तड़पाओ,और न चुभोओ इन तीरों को।मेरा हृदय यूँही छलनी हुआ जा रहा है, पर कैसे दिखलाऊँ उन ज़ख्मों को! मुझ पर क्या बीत रही है- मैं ही जानता हूँ।’
और सोचने लगता हूँ- ‘काश! मीना स्वस्थ हो जाती! इसे भी स्वीकार लेता- उसी रूप में,जिस रूप में यह चाहती है।क्या फर्क पडे़गा? एक ना दो ही सही।समाज- जाहिल,स्वार्थी समाज- थोड़ी टीका टिप्पणी करेगा कुछ दिन- और क्या? हालांकि,एक म्यान में दो तलवारों को रखने सी बात होगी...किन्तु ‘प्रेम’ के मन्दिर में दो मूर्तियाँ रखी कैसे जा सकती हैं?
उद्वेलित मन...विकल मन...आँखें मुंद जाती हैं।माँ काली का दिव्य विग्रह सामने प्रतीत होता है- वे मन्द-मन्द मुस्कुरा रही हैं।मेरे हाथ बँध जाते हैं - याचना की मुद्रा में-‘माँ! मुझे शक्ति दो.....यक्ति दो माँ।’
‘क्या सोचने लगे कमल? मुझे बहुत डर लगता है- तुम्हारे इस सोच के अन्दाज से,तुम्हारी इस चिन्तन मुद्रा से...बोलो अब क्या सोच रहे हो? है कोई रास्ता तुम्हारे पास अब भी बाकी?’- कहती हुयी मीना गिड़गिड़ाने लगी थी।अश्रुधार बहते हुए कान के कोरियों में जा इकट्ठे हुए थे।मैं उन्हें रूमाल से पोंछने लगा था।
‘सोच कुछ नहीं रहा हूँ मीनू! सिर्फ यही बात मुझे साल रही है कि बिना सोचे समझे,मैंने बहुत बड़ा पाप किया है।उन दिनों में चाची के ‘उच्छ्वास’,वंकिम चाचा के ‘अधूरे कर्तव्य’ का अर्थ मुझे अब समझ आ रहा है।उन दिनों में मैं नहीं समझा था,कल्पना भी नहीं किया था कि इतना उदार-हृदय होगा यह परिवार।काश! अब भी
ढूढ़ पाता कोई रास्ता,हो पाता इस पाप का कोई परिमार्जन.....।’-कहते हुए आत्मग्लानी में डूबने लगा था।आँखें भर आयी थी।
मीना के होठों पर हल्की सी मुस्कुराहट तैर गयी।विस्फारित नेत्रों से मेरे चेहरे को गौर से देखती हुयी बोली- ‘तो क्या तुम अपने पाप का प्रायश्चित ढूढ़ रहे हो? मिल नहीं रहा है? मैं बतलाऊँ? करोगे मेरे सुझाव पर अमल-पहल ?’
‘हाँ मीनू! करूँगा...जरूर करूँगा...तुम बतलाओ- मुझे क्या करना है।’-बच्चों सा अधीर होकर बोला।
‘जरा लाओ तो पापा की अटैची,उसमें मेरा ‘वैनीटी बैग’ रखा है।उसे निकाल कर दो मुझे।’—इधर-उधर देखती हुयी मीना ने कहा, मानों स्वयं ही ढूढ़ने का प्रयास कर रही हो।
मैंने बेड के नीचे झांक कर देखा।मीना के आदेश का पालन किया।अटैची खोलने पर ऊपर में ही बैग पड़ा था।उसे निकाल कर देने लगा मीना को; किन्तु बोली - ‘मुझे क्यों देते हो,खुद ही खोलो।’
मैंने बैग खोला।आँखों ने ही सवाल किया- अब क्या? जवाब होठों ने दिया -‘भीतर में एक पुडि़या है,वही चाहिए’, जिसे निकालने में मेरे हाथों में अचानक कंपन हो आया- पता नहीं क्या है इसमें...कब से रखी है- सोचने लगा।
मेरे हाथ के कम्पन को,मन के झिझक को वह भांप गयी।
मुस्कुरा कर बोली- ‘घबड़ाओ मत,इसमें जहर नहीं है।वैसे भी ऐसे काम के लिए तुम्हें उकसा भी नहीं सकती हूँ- यह मेरा न कर्म है,और न धर्म।तुम्हारे आने में देर हो रही थी।मेरी व्यग्रता बढ़ती जा रही थी।परसों गयी थी,कालीघाट- माँ का दर्शन करने,मनौती करने- तुमसे शीघ्र भेंट होने के लिए।माँ सुन ली मेरी प्रार्थना,पर अर्थ लगाने में ही अनर्थ हो गया...
....वहाँ से चलते वक्त पंडितजी ने प्रसाद दिया था,साथ यह पुडि़या भी।प्रसाद तो खा गयी।यह पुडि़या पड़ी रह गयी- इसी बैग में।आखिर इसके उपयोग का इससे महत्वपूर्ण सुनहरा अवसर और हो ही क्या सकता है?’
पुडि़या खोल चुका था मैं ।जहर नहीं है- जान कर हाथों का कम्पन थम गया था,पर भीतर कहीं किसी कोने में अजीब सा- कुछ नया सा कम्पन होना शुरू हो गया था।मैं उस नये कम्पन की व्याख्या सोचने लगा।
मीना के होठ फिर फड़के।आवाज में कड़क थी,आदेश भी,अनुनय भी- ‘सोचते क्या हो? उठाओ इस अतृप्त सुहाग-रज को,और भर तो मेरी माँग...साक्षी रहेगी- सर्वव्यापिनी माँ काली,जिनका यह प्रसाद है।तुम्हारे पाप का प्रायश्चित हो जायेगा,और मुझे मिल जाएगी सुख-चैन की मौत...सोचने का अवसर नहीं है...सोचने को तुम बहुत सोच लिए हो पहले ही...उठाओ इसी क्षण इस सिन्दूर को,और पूरी कर दो मेरी अधूरी लालसा।तुमसे मेरा सच्चा प्रेम होगा यदि, तो इस जन्म क्या, अगले जन्म में भी तुम्हारी ही रहूँगी.....।’
मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा था।हाथ कांपने लगे थे फिर से।मीना ने पुनः कहा- ‘बस मेरे देवता! और कुछ नहीं चाहती मैं । तुमसे कोई शिकायत नहीं,कोई याचना नहीं।बस,भर दो मेरी सूनी माँग।’
उसके स्वर में अजीब सा कम्पन था- जलतरंग के विभिन्न फलकों से टकराती ‘ट्यूनी’ की तरह।मेरा हाथ पकड़ जा लगायी - पुडि़ये से,जो खुला पड़ा था अब तक।
कांपते हाथ मेरे- उठ गये ऊपर,जिनमें सहारा था- मीना के हाथ का भी...चुटकी भरा सिन्दूर जा लगा उसकी माँग से,जो इस अवस्था में भी प्रसस्त पगडंडी सी खिंची थी- काली,घनी लटों के बीच।
एक बार सिहर उठा मन।कांप उठे रोम-रोम,किसी सुखद अनुभूति से,और क्षण भर में ही ऐसा लगा मानों सिर से भारी बोझ का गट्ठर उतर गया हो।
मीना लपक कर मेरी बाहों में आ गयी थी।आलिंगन दृढ़ हो गया था।दोनों दिलों का आकुंचन-प्रकुंचन तीब्र हो गया था।फिर लिया- हमने भी,उसने भी सुमधुर प्रेमपूर्ण पवित्र- परम पवित्र, प्रथम चुम्बन।आलिंगन अब दृढ़तम हो गया- ‘तम’ के बाद अब,अब आगे क्या? यह तो कायिक मिलन की अन्तिम सीमा है,किन्तु शायद यहीं से आत्मिक मिलन की सीमा भी लगती है,पर ‘पारपत्र’ की तैयारी रहने पर ही,अन्यथा इस तल पर ही -शारीरिक तल पर ही- सिर धुनते रहना है।
आलिंगन वद्ध बैठा रहा- कब तक? ‘काल’ का कोई मात्रक तो होता नहीं ऐसे क्षणों में,जो कहा जाय। कथ्य बस यही कि- मन शान्त हो चुका था- उसका भी,मेरा भी।कहीं कुछ भी कहने वा सुनने को शायद शेष न रह गया था।देने या पाने का भी कुछ प्रयोजन सिद्ध न था।
बेड के रेलिंग से टेका लगाये बैठा था मैं,और मेरी जांघों पर सिर रखे पड़ी थी मीना- पूर्व-पर- सपनों का संसार...।
अतिशय शान्त मन नींद को दूर से भी निमन्त्रण दे आता है।हमदोनों भी न जाने कब उसके आगोश में चले गए थे।
सुखद झपकी ले रहा था।गोद में पड़ी थी मीना- अपने प्रियतम की गोद में।ऐसी ही स्थिति एक बार और बनी थी- पर ठीक विपरीत- गोद मीना का था,और सिर मेरा।
रात्रि के दो बज रहे थे- जब मेरी आँखें खुली,मीना की कराह से।उसकी आवाज कांप रही थी।शब्द टूट-टूट कर,अटक-अटक कर निकल रहे थे- ‘कमल! मेरे प्रियतम! समालो अपने उर में इस अभागिन को...ओह! बहुत जोरों की टीस उठ रही है सीने में...लगता है- फटा जा रहा है...थोड़ा पानी पिला दो.....।’
मैंने बैठे-बैठे ही हाथ बढ़ा कर मेज पर रखा वाटर पॉट से पानी निकालने लगा।मीना अभी भी कराह ही रही थी-
‘आह कमल! बहुत जोर दर्द है सीने में...लगता है अब न बचूँगी...न बचूँगी अब.....।’
पानी का गिलास होठों से लगा दिया था।आधा गिलास एक ही घूंट में पी गयी,फिर उसे मुंह से हटाते हुए बोली- ‘तृप्ति नहीं हो रही है इससे...बस पड़ी रहने दो यूँही...भर लो अपनी बाहों में...मत हटाना अपने से अलग...मत हटाना...देखो...दर्द यहाँ हो रहा है इस भाग में.....।’- मेरा हाथ पकड़ कर जमा दी उन्नत युगल सुमेरूओं के बीच,जिसके भीतर धड़क रहा था- एक अतृप्त दिल।
‘दबाओ...आहिस्ते...जोर से ...बहुत दर्द.....।’
मेरा दाहिना हाथ उसके सीने पर था।धीरे-धीरे सहलाते हुए से दबा रहा था उसके वक्ष प्रान्त को,और दूसरे हाथ से गले के आसपास।
डॉक्टर को बुलाता हूँ मीनू!
‘नगीं...नहीं... मत हटो, कहीं मुझे छोड़ कर....।’
मैंने अनुभव किया अपने दायें हाथ के नीचे,जहाँ छिपा था एक प्रकम्पित हृदय,जिसकी गति अब अस्वाभाविक रूप से तीब्र हो गयी थी- दीपक के अन्तिम फफकते लौ की तरह। बैठे-बैठे ही आवाज लगायी मैंने- चाचाजी! जल्दी इधर आइये,डॉक्टर को बुलाइये।
मेरी आवाज सुन बगल चेम्बर से नर्स दौड़ी आयी।स्थिति देख बिना कुछ बोले उल्टे पांव पीछे भागी। चाचा-चाची दोनों ही आ गए।
मीना के मुंह से पुनः एक चीख निकली-‘ क...ऽ...म...ऽ...ल!’ और कस कर भींच ली मुझको।
नर्स के साथ डॉ. रस्तोगी आए।परीक्षण हेतु मैं अपना पकड़ ढीला कर,लिटाना चाहा, पर पकड़ स्वतः ढीला पड़ गया।मैंने लिटा दिया उसे।
डॉ.रस्तोगी ने स्टेथोस्कोप लगाया,फिर हटाया,फिर लगाया।लगता था- इतने तजुर्बेदार को अपनी ही जाँच पर यकीन न हो रहा था-
“O God ! how it possible?” - स्टेथोस्कोप कानों से हटा कर गले से लटका लिए।उनका चेहरा पराजित सेनानायक सा उतर गया था।
चीख-पकड़ अन्तिम थे।चाची चिघ्घाड़ मार कर गिर पड़ी मीना के वदन पर।चाचा सिर पकड़ कर वहीं नीचे बैठ गए थे।मेरी आँखें शून्य में ताकती रह गयी थी- न जाने कब तक।
मेरी गोद में पड़ा शरीर,जो कुछ पल पूर्व तक सौन्दर्य का विशाल तिलिस्म था,अब वीरान मरूस्थल बन चुका था।पिछले साढ़े सोलह बर्षो से सौन्दर्य की पहरेदार आँखें सदा-सदा के लिए बन्द हो चुकी थी अब।
फिर कब क्या हुआ,सब कुछ स्वयं करते हुए भी,कुछ भी पता न चला था।
सबेरा हो गया था।हम सभी गंगा-किनारे बांस घाट पर उपस्थित थे।चिता सजायी जा चुकी थी।मात्र अग्नि संस्कार शेष था।
वंकिम चाचा ने रूँधे गले से गम्भीर स्वर में कहा- ‘मीना को आज से बर्षों पूर्व मैं तुम्हें सौंप चुका था।तुमने इसे अपनाने में भूल की,किन्तु कसूर भी तुम्हारा क्या है इसमें ? यह तुम्हारी थी,तुम्हारी ही रही। जन्म-जन्मान्तर में भी तुम्हारी ही धरोहर रहेगी।तेरी ही बांहों में इसका अन्त हुआ- तेरी ही यादों को संजोए हुए।इसके मुंह से निकला अन्तिम शब्द तुम्हारा ही नाम था- कमल।अतः अग्नि संस्कार करने का भी तुम्हारा ही अधिकार है....
....वैसे भी धर्मशास्त्र पिता को यह अधिकार नहीं देते।
मेरे अन्दर स्फुरित हुआ एक तरंग- यह अधिकार तो पति को भी नहीं है।
किन्तु मेरी तर्क शक्ति शिथिल हो गयी थी।मीना के आदेश पर हाथ उठे थे- सिन्दूर लेकर,उसके पिता के आदेश पर उठ गए वे ही हाथ अग्नि लेकर।कुछ देर पहले जिन हाथों में सिन्दूर था,वे ही हाथ अब अग्नि लिए हुए था।सिन्दूर पहले ही दे दिया था,फेरा लगाना शेष रह गया था।उसे अब पूरा कर रहा हूँ।
अगले ही क्षण चिता धू-धू कर धधकने लगी थी। म® पाषाण प्रतिमा-सा खड़ा था,पास में ही।गोद से हटा कर चिता की अग्नि में डाल दिया था- अग्नि-परीक्षा हेतु। सीता तो मिल गयी थी वापस राम को; किन्तु क्या मेरी मीना मुझे मिल जा सकती है?
सवित्री ने सत्यवान को छीन लाया था- यमराज के हाथों से।पर क्या सत्यवान में है सामर्थ- छीन लाने की सावित्री को?- -- खड़ासोचता रहा था...सोचता रहा था, न जाने कब तक ।


वाराणसी जा,श्राद्धादि सम्पन्न कर,आ गया था वापस- अपने गांव में,सब कुछ गंवा कर कुछ और गंवाने।घर आने के करीब पन्द्रह दिनों बाद कलकत्ते से चाचाजी की चिट्ठी आयी थी।लिखा था उन्होंने-
‘परीक्षा-फल प्रकाशित हो गया है।प्रथम श्रेणी से तुमदोनों उतीर्ण हुए हो...पर अब दो कहाँ? तुम अपने भावी कार्यक्रम की जानकारी देने का प्रयास करोगे...वैसे मेरे विचार से तुम्हारा यहीं रह कर,आगे का अध्ययन
पूर्ववत जारी रखना उचित प्रतीत हो रहा है। हम दम्पति अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार,जो कि समय से बहुत पहले ही आ गया- मथुरा या काशी वास कर अपने चतुर्थ पुरुषार्थ-प्रयास में व्यतीत करना चाहते हैं।मीना तो न रही।पर ‘मीना निवास’ का उचित अधिकारी तुम्हारे सिवा और कौन हो सकता है! अतः यथाशीघ्र आने का प्रयास करोगे।’
पत्र एक ओर रख कर सोचने लगा- दान तो स्वीकार किया नहीं,उल्टे चल दूँ- दानान्त दक्षिणा के लिए- कृतघ्न ‘गाधिनन्दन’ की तरह? क्या हृदय गवाही दे सकता है,इसके लिए?
वहाँ जाकर क्या रह पाऊँगा- उस चहारदीवारी में,जिसमें मीना की पावजेब की रून-झुन अभी भी गूँजती होगी? वही मकान...वही कमरा...वही विस्तर...वही सब कुछ।सब कुछ तो वही होगा।सबमें मीना की परछायी होगी...मीना का सुवास होगा,पर मीना कहाँ होगी?
इससे कहीं अच्छा होगा- पतित पावनी की पवित्र जलधारा में जल-समाधि ले लेना....
किन्तु अगले ही पल इस विचार की कल्पना मात्र ही हिला गयी थी- कर्तव्य की आधारशिला को, प्रकम्पित कर गयी थी हृदय को,झकझोर गयी थी तन के समस्त तन्तुओं को-
...पापी! यह क्या सोच रहा है? एक का जीवन लिया,दूसरे का सुहाग लेगा?
सिर पकड़ कर बैठ गया था।इतनी भी साहस न रही कि वंकिम चाचा के पत्र का जवाब कम से कम दे दूँ।
रवि-शशि का आवागमन होता रहा।दिन और महीने गुजरते रहे।किस प्रकार गुजरे- कहने की हिम्मत नहीं,ताकत नहीं।कोशिश भी करूँ तो कह कहाँ पाऊँगा! शब्द और मनोभाव असम्बद्ध जो ठहरे। आदमी भी कितना मूर्ख है,कितना अज्ञानी...शब्दों का मिथ्या जाल बुन कर थिरकने लगता है- मैंने तो सब कह डाला।पर वस्तुतः कहा कितना उसने? सादे कागज पर विभिन्न रंगों की डिबिया उढेल कर,अपने को चित्रकार घोषित करते अनबूझ बालक की तरह ही तो हमारी स्थिति है।न हम सुख को सही तौर पर व्यक्त कर सकते हैं,और न दुःख को ही। और ये दो ‘ध्रुव’ ही छिटक गए अभिव्यक्ति से, फिर ‘कर्क -मकर’ का क्या?

यूँ ही बैठा रहता प्रायः - आकाश ताकते- शून्य को निहारते...
ऐसे ही किसी ‘निरीह क्षण’ में एक दिन मैना ने कहा था- ‘आखिर कब तक घुलते रहोगे उसकी याद में भैया?’
पूरे गांव में...नहीं...नहीं, पूरे ब्रह्माण्ड में यही तो थी एक,जिससे कभी-कभार कुछ कह लिया करता था।कही थी बेचारी-
.....जाओ भैया,कॉलेज में नाम लिखवाओ।आगे के वक्त को सुधारने का प्रयत्न करो।रात सिर्फ बारह घंटे की ही होती है।फिर तो प्रभात आता ही है।’
पूर्ववत गमगीन,मन मारे बैठा हुआ,मैंने कहा था -‘ठीक कहती हो मैना! प्रभात के बाद आती तो फिर रात ही है न?’
‘यह तो होता ही रहता है।होना ही है।परन्तु, काल की इस चक्की में अपने भविष्य को क्यों पीस रहे हो? तुम यह क्यों भूल रहे हो कि तुमने अग्नि का साक्षी रख कर किसी का हाथ थामा है।फेरे लगाये हो।सप्तपदी के सात वचनों की प्रतिज्ञा किए हो।’- मैना के मुंह से निकला था यह उपदेश,और मेरा अभिज्ञान जागृत हो उठा था। ‘प्रतिज्ञा’, और ‘वचन’ ठोकर मारने लगा था।
‘भट्ट कुल ने सिर्फ वचन ही निभाया है।निभाना ही पड़ेगा मुझे भी।क्यों कि मैं भी उसी कुल का अंश हूँ। किन्तु मैना! -सप्तपदी के वचन तो सात ही हैं पर फेरे मैंने बारह लगाये हैं- सात,अग्नि को बीच में रख कर,और पाँच अग्नि को हाथों में लेकर।अतः वचन की तुलना में फेरों का पलड़ा भारी है।’- मैंने मायूसी से कहा था, जिसका जवाब बेचारी मैना को न सूझा था शायद,और चली गयी थी दूसरे कमरे में।

इसी प्रकार जब कभी,समय पाकर मैना आ जाती थी। कुछ बात-चीत हो जाती,उसके आने से।माँ का स्वस्थ्य काफी सुधर चुका था।एक पुराने बैद्य जी ने उसकी बीमारी का सही निदान कर लिया था,और अपनी चिकित्सा प्रारम्भ कर दी थी।
मेरे माथे पर हाथ फेरती हुयी माँ ने पूछा था एक दिन- ‘क्या होता जा रहा है कमल! तुम्हारा शरीर सूखता क्यों जा रहा है दिनों दिन,आँखें धँसती जा रही है? इस खड़ी जवानी में यह हाल,फिर आगे क्या होगा? क्यों न एक बार बैद्यजी से दिखा कर,अपने लिए भी कुछ दवा ले लेते हो?’
परन्तु माँ को क्या जवाब देता मैं? क्या मेरे मानस संताप का निदान और चिकित्सा है बैद्यजी के पास?
बैद्य मुख्यतः व्याधि का उपचारक होता है। ‘आधि’ का क्या करेगा? वैसे, लोग कराते हैं- आधि की भी चिकित्सा।

हमेशा की तरह एक दिन मैना आयी,तो कहने लगी माँ से- ‘भाभी को कब बुलाओगी चाची?’
माँ ने कहा था- ‘जल्दी ही बुलाने को सोच रही हूँ।ब्याही बेटी ननिहाल की रोटी कब तक तोड़ती रहेगी! किन्तु इस कमल को देख कर कुछ अजीब लगता है।कुछ समझ में नहीं आता,क्या होता जा रहा है इसे दिनों दिन? लगता है- मैंने जबरन, दबाव डाल कर शादी कर दी है।इसी वजह से नाराज रहा करता है शायद।देखती नहीं- पढ़ाई-लिखाई भी छोड़ दिया है।दिन रात कमरे में बन्द,पता नहीं क्या करता रहता है! किस चिन्ता में घुलता रहता है! शरीर तो आधा कर लिया।पता नहीं बहू के साथ कैसा पेश आयेगा!’
कहती हुयी माँ,इशारा की थी- मैना को,देख आने को,खिड़की से झांक कर कि मैं सोया हूँ या कुछ कर रहा हूँ।
मैना आयी थी,खिड़की तक और मेरे मुंह पर चादर पड़ी देख, वापस चली गयी थी।उस बेचारी को क्या पता था कि चादर की झीनी छिद्रों से स्वच्छ होकर,उन लोगों की बातें मेरे कानों में घुसी जा रही थी- गर्म शीशे की तरह।
‘पेश क्या आयेगा? बहू आ जायेगी,समझदार होगी तो खुद ही ढाल लेगी- अपने साँचे में।पहले बुलाओ तो उसे।’- कहती हुयी मैंना सशंकित सी,मुंड़ कर खुली खिड़की की ओर देखी थी एक बार,जिसे चादर की ओट से मैं सहज ही देख रहा था।
‘अच्छा मैंना! तुमसे कुछ कहता है कभी- अपने मन की बात?’- माँ ने मैना से धीमें से पूछा था।
मैना पल्ला झाड़ कर निकल गयी थी- ‘मैं क्या उसका राजदार हूँ ,जो हमसे सब कुछ कहता रहे?’


महीने भर बाद शक्ति आ गयी थी- अपनी ससुराल- अपनी माँ के मैके से।मैना को हिदायत कर दिया था मैंने,शक्ति से कुछ विशेष न कहने-सुनने को।
शक्ति तो आगयी थी- मेरे घर में।पर मेरे अन्दर शक्ति कहाँ थी,
उससे सामना करने की?मेरे अन्दर भरा हुआ था- ग्लानि,क्षोभ,खेद...न जाने क्या-क्या!
सारा दिन जमघट सा लगा रहा था- मैना और उसकी सहेलियों का।महानगर में पली-बढ़ी शक्ति का कुन्दन सा रंग,परियों सा रूप, अप्सरा सा यौवन- बेचारी ग्राम्य बालाओं के लिए ‘मोहे न नारी,नारी के रूपा’ की निरर्थकता को प्रमाणित कर रहा था।
रात बारह बजे तक चलती रही थी- शतरंज की बाजी- सह और मात।अन्य लड़कियाँ तो मात्र दर्शक भर थी,बाजी ठनी थी- शक्ति और मैना के बीच।पर दोनों में कोई भी अपनी हार स्वीकारने को राजी न थी,और न कोई आत्मसमर्पण ही कर रही थी।
अन्त में मैना ने कहा था- ‘अरी सखी! क्या यही करती रहोगी सारी रात- भैया क्या कहेंगे?’
शक्ति ने मैना का हाथ पकड़ कर कहा था - ‘अभी खेलो न।क्या हर्ज है,बारह ही तो बजे हैं।’
पर वहाँ कौन सुनने वाली थी अब! हँसती हुयी भाग खड़ी हुयी सब के सब।सभी चली गयी,तब मैना ने कहा- ‘बन्द करो भाभी,अब शतरंज की बाजी।अब प्रेम की कलाबाजी का समय हो गया है।तुम्हारी घड़ी में तो बारह बज ही गए,उधर भैया के चेहरे पर भी बारह बज रहे होंगे।यहीं तो सोये हैं- बाहर वरामदे में।’- कहती हुयी मैना निकल पड़ी थी कमरे से।जाते-जाते मेरी चादर खींचती चली गयी थी- ‘उठो न भैया,क्या यहीं सोये रहोगे?’ परन्तु उस बेचारी को क्या पता था कि- उसका अभागा भैया चादर तान कर भी तारे गिन रहा है।और वहीं पड़े तब तक गिनता रहा जब तक सबेरा न हो गया।
दूसरे दिन दोपहर में चिट्ठी मिली थी मामाजी की।मामा ने लिखा था- ‘आजकल घर पर ही हूँ।तबियत थोड़ी खराब चल रही है।हो सके तो आ कर मुलाकात कर लो।’
मुझे एक ‘रेडीमेड’ बहाना मिल गया- घर से पलायन करने का।भोजन के बाद शीघ्र ही चल पड़ा मामा-गांव,जो मेरे घर से मात्र दस किलोमीटर दूर था।

मामा सही में काफी अस्वस्थ हो गए थे, पर शरीरिक कम,मानसिक ज्यादा।दुलारे लाडले ने कालिख पोत दी थी कुल की चादर पर।संताप का कारण वही- पुत्र ही था।
कलकत्ता छोड़ने के बाद से ही बसन्त का कोई समाचार न मिल सका था।उस दिन मामा ने ही दिया था सब समाचार- सुन कर थोड़ा अटपटा लगा।कुलबोरनी लड़कियों की चर्चायें बहुत बार सुनी थी,पर कुल ‘बोरन’ लड़का...!
सोचा, इसमें नया क्या है?मामा इसे अचानक की संज्ञा दे रह हैं,पर मेरे लिए कुछ ‘अचानक’ जैसा नहीं...
माँ-बाप के लाढ़-दुलार ने वसन्त को समय से पहले ही कुछ ‘प्रौढ़’ बना दिया था,जिसका परिणाम उच्चत्तर माध्यमिक परीक्षा के परिणाम सहित ही प्रकाशित हो गया- युवा वसन्त-युवती टॉमस के प्रेम प्रसंग का अन्तिम हश्र...
भारतीय विवाह अधिनियम अभी इजाजत न दे रहा था- साल-दो-साल।अतः निर्णय लिया था उसने इस ‘जड़भरत’ कानूनची देश को ही त्याग देने का,और चल दिया था,- टॉमस को साथ लेकर सुदूर जापान
के ओशाका नगरी में।
मुझे याद आ गयी थी- कोकाफाउटन वाली बात- जो मीना ने कही थी- ‘इस परी को कहाँ लिए फिर रहे हो वसन्त? मुझे डर लगता है,कहीं अपने पंखों पर बिठा कर उड़ा न ले जाये।’
वास्तव में उड़ा ही तो ली थी उस परी ने, अपने प्रेम-‘पक्ष’ के वयार में,और जा बैठायी थी- सुदूर सागर पार,एक छोटे से टापू पर।
वहाँ पहुँच कर पत्र भेजा था पिता के पास- ‘मेरी चिन्ता न करें...मैं यहाँ बड़े इत्मिनान से हूँ.....’
परन्तु मामा इतने इत्मिनान हुए कि कलकत्ता छोड़,घर आकर बैठ गए,मुंह छिपा कर।
और इस प्रकार ‘उचाट मन’ मामा के मन बहलाव के लिए सप्ताह भर गुजारने का अच्छा अवसर मिल गया था मुझे।
किन्तु आखिर इस तरह का मौका कब तक मिला करेगा? मामा तो आ छिपे थे घर में,पर मैं कहाँ जाऊँ?
एक दिन मामी ने कह ही दिया- ‘तुम भी अजीब हो कमल! बहू को लाकर बिठा दिया है घर में,और खुद आठ दिनों से यहाँ पड़ा है?’
‘तो क्या वहीं बैठा,सिर्फ निहारता रहूँ?’- मेरे कहने पर मामी हँसने लगी थी।पर वास्तव में मैं कितना निहारा हूँ उसे,यह तो बेचारी शक्ति ही जानती होगी।विवाह में चेहरा भी नहीं देखा।इतने दिनों बाद इस बार आयी है, तो एक रात बाहर ही पड़ा रह गया- तारे गिनते,और दूसरे दिन से ही ननिहाल में पड़ा हूँ ,बहाना बना कर।

उसी दिन संध्या समय वापस घर पहुँचा।व्यंग्य और उलाहनों का भारी गट्ठर,पहुँचते के साथ ही मैना ने पटक दिया-
‘यह क्या तरीका है भैया! क्या मार ही दोगे बेचारी को तड़पा कर? माँ-बाप है नहीं,जो भी आसरा है,तुम्हारा ही तो।देखो,ठीक न होगा,फिर आज भी यदि उसी दिन की तरह बाहर ही सोये रह गये।
आज न बाजी बिछी शतरंज की,न जमघट लगी सखियों की।रात दस बजे मैना ने खाना खिलाया स्वयं परोस कर,और हाथ पकड़ ढकेल दी कमरे में।
टेबल पर रखा ट्रन्जिस्टर गाए जा रहा था- ‘सूनी बगिया,सूखी कलियाँ,मुरझाया जीवन मेरा.....।’
भीतर जा,पड़ गया था पलंग पर।मेरे कंठ भी फूट पड़े - ट्रन्जिस्टर के साथ-साथ,और गुनगुनाता रहा,उन्हीं पंक्तियों को,गाना समाप्त हो जाने के बाद भी।अचानक मेरे गर्दभ राग में पंचम स्वर मिल गया- ‘यह गाना आपको बहुत अच्छा लगता है?’
‘हाँ,लगता है।तभी तो इतनी देर से गाए जा रहा हूँ।’- मेरे इस जवाब के साथ ही उस कोकिल-किन्नरी को एक ताल मिल गया,एक धुन मिल गया,एक गीत मिल गया।संगीत साकार हो गया।और मैं खो गया संगीत के सघन कुंज में।क्या ऐसा भी सुमधुर संगीत हो सकता है? हो सकता है ऐसा भी कभी संगीत...
सोचने लगा- उस स्वर के प्रति...उस गीत के प्रति...उस संगीत के प्रति...फिर उन झंकारों में एक विम्ब उभरा...धीरे-धीरे उस विम्ब का धुंधलका साफ होने लगा- सूर्योदय के बाद भागते कोहरे की तरह,थोड़ी देर में सब कुछ साफ नजर आने लगा- तब मैंने पहचाना उस स्वरूपवान विम्ब को - चेहरा चिर परिचित सा लगा- ‘अरे! यह तो मीना है...हाँ,मीना ही है यह...उसके सिवा ऐसा कौन गा सकती है?’- -खुद से ही सवाल उठा,और जवाब भी मिला- ‘हाँ,कोई नहीं।’
....तो इसमें संदेह नहीं कि यह मीना ही है,जो आयी है मुझसे मिलने....और तब?
शिथिल भुजाओं में चेतना जगी।फैल गयी वे।ग्रस लिया उस विम्ब को -उस कोकिल-किन्नरी को अपने बाहु पाश में।फिर विचार आया मन में- क्यों न इन थिरकते अधरों को मैं चुरा लूँ अपने होठों में,जिनसे यह मदिर संगीत श्रवित हो रहा है...
अधरोष्ठ मिल गए।संगीत शान्त हो गया।आलिंगन दृढ़ हो गया।दो स्थूल- बर्फ शिला खण्ड- जल बनने को बेताब.......पुरुष ने देखा एक नारी को,जिसकी आँखें मुंदी जा रही थी,किसी अन्तःसलिला फेनिल मदिरा के प्रवाह के प्रभाव से...और तब उस पुरुष ने प्रवाहित कर दिया- स्वयं को उसी प्रवाह-पुंज में...धारा
के साथ,विपरीत नहीं !
तपन-तप्त-वसुधा तृप्त हो गयी,जलद-वारी-बून्दों से,और स्रजक का अनोखा नियम साकार होकर, गौरवान्वित हो उठा।और फिर.....?
मदिरालय के द्वार पर बेसुध पड़े शराबी का नशा जब काफूर होता है,तब ध्यान आता है उसे- मेरा भी कोई घर है...अपना घर। यह घर नहीं....मदिरालय है।
तो क्या यह मेरा घर नहीं था? यह मेरी मीना नहीं थी?
विवेक का जोरदार तमाचा झन्नाटे के साथ बुद्धि के गाल पर पड़ा- ‘पहचाना नहीं तूने? यह शक्ति है, तुम्हारी पत्नी...तुम्हारी परिणीता....तुम्हारी अर्द्धागिनी,जिसे तूने ब्याह कर लाया है।’
बर्रे के छत्ते में अंगुली अनजाने में लग गयी हो मानों- हड़बड़ा कर विस्तर से उठ,बाहर भागना चाहा,तभी पैरों पर पकड़ का आभास मिला-
‘अभियुक्ता नतमस्तक है,अपना कसूर जानने के लिए,और उसकी सजा भोगने के लिए।’
औखें विस्फारित हो गयी।चेहरा गम्भीर हो गया।मुंह से निकल पड़ा- ‘कुछ नहीं...कुछ नहीं....कोई कसूर नहीं है तुम्हारा।’
‘यदि कसूर है ही नहीं कुछ भी,फिर सजा किस जुर्म की?’-प्रकम्पित कातर स्वर कानों में पड़ा।
‘सजा स्वयं को दी जा रही है,तुम्हें नहीं।’-कहा था मैने,और उस चेहरे को निहारने का प्रयास किया था- फिर से एक बार।
‘तो फिर कैसा न्याय है यह? कैसा है यह न्याय?’-- कहती हुयी शक्ति मेरे पैरों पर लोटने लगी थी- मानों जल से निकाल कर मछली को तप्त मरू पर फेंक दिया गया हो।
वह काफी देर तक इसी तरह रोती तड़पती पड़ी रही थी।
आत्मा ने फिर ठोंकर मारा था- ‘आखिर कब तक तड़पती रहेगी इस तरह? कसूर क्या है इसका जो इतना तड़पा रहे हो?’
भारतीय दण्ड संहिता की सभी धाराओं को एक-एक कर सामने रखा,पर किसी भी अनुच्छेद को आरोपित न कर पाया।ग्लानि हो आयी खुद पर ही।सप्तपदी के प्रत्येक वचन बिना सरलार्थ के ही सरल होते गए।
झुक कर उठाया उसे पैरों पर से,और चूम लिया मुखड़े को- ‘शक्ति! तुम्हारी कोई गलती नहीं है शक्ति... कोई गलती नहीं है।’
उसकी सभी संसयों का समाधान मिल गया था शायद,मात्र एक चुम्बन में ही।चिपट गयी थी मेरे सीने से,और प्रक्षालित करने लगी आँसू से अपने द्दृष्ट प्रश्न की धूली को।


समय के पंख निकल आए।विगत स्मृतियों पर शक्ति के प्रेम का प्रभाव,परत-दर-परत पड़ता गया।शक्ति ने स्वयं को पूरे तौर पर मेरे मनोंनुकूल ढालना शुरू कर दिया था। घरेलू कार्य,माँ की सुश्रुषा,और इन सबके साथ-साथ मेरे सेहत और मनोरंजन- सबका ख्याल बड़े सलीके से चुस्ती के साथ रखा करती।थोड़ी-बहुत बची
जमीन पर खेती का काम शुरू करवा दिया था।हालांकि उससे सिर्फ इतना ही जुट पाता था,जितने से किसी प्रकार दो जून की रोटियाँ सेंक ली जांए।पर प्रेम और सन्तोष के सामने संसार की सारी सम्पदा महत्त्व हीन हो जाती है।
शक्ति! तितलियों सी सदा फुदकती रहने वाली शक्ति,हर आधुनिक प्रसाधनों की गहन शौक रखने वाली शक्ति- स्वयं को इस प्रकार ढाल ली थी,मानों उसकी सभी जरूरतें पूरी हो चुकी हैं।वस्तुतः मानव को
परिस्थितियों का दास कहा जाता है, यहाँ तो परिस्थितियाँ स्वयमेव शक्ति की दासी बन गयी थी।

कभी कभी किंचित कारणों से यादों का वयार,स्मृतियों के परत को उघेड़ देता,और मायूस हो बैठ जाता; तब शक्ति मेरे मायूसियत के धूमिल धब्बों को अपने प्यार के पवित्र धार से धोने का प्रयास करती।पल भर भी अकेला न छोड़ती।चूम लेती मेरे होठों को, और कहती- ‘लगता है आज फिर मुझे गाना सुनाना पड़ेगा आपको।’ और छेड़ देती संगीत की सुमधुर रागिनी।पल भर में ही मैं खो जाता उस
मादुर्य में...उस ‘शक्ति’ में...और शक्ति के प्यार में।

समय! चील सा उड़ता रहा।
एक दिन शक्ति ने कहा- ‘तो क्या आपने यही तय कर लिया है कि गांव में रह कर खेती ही करना है अब? इसे ही आपने अपनी नियति मान लिया है क्या?’
‘तो क्या शहर जाकर डकैती करूँ?’- कहता हुआ शक्ति को खीच कर भर लिया था- अपनी बाहों में,और चूम लिया था- उसके कपोलों को।
‘धत् ! आप तो हर समय.....’शक्ति अभी और कुछ कहती,पर मैंने उसके होठों को सील कर दिया,अपने होठों से।तभी मैंना फुदकती हुयी आ गयी,और बैठ गयी वहीं चटाई पर।
शक्ति शरमा कर,हमसे दूर छिटक गयी थी।मैं बैठा रहा, ऊपर पलंग पर ही।
शक्ति को फिर मौका मिला बोलने का- ‘अभी-अभी मैंने पूछा था- क्या आप यही करते रहेंगे,जो कर रहे हैं?’
‘तो फिर क्या करने को कहती हो?’- उसके चेहरे पर गौर करते हुए मैंने भी सवाल किया; किन्तु जवाब शक्ति के बदले मैना ने दिया था- ‘भाभी क्या कहना चाहती हैं,मैं जानती हूँ।’
‘मतलब कि तुम वकील हो शक्ति का?’-मैंने हँस कर पूछा।
‘नहीं भैया,वकालत की बात नहीं।बात यह है कि भाभी कल कह रही थी...।’- कहती हुयी मैना देखने लगी थी शक्ति की ओर- मानो आगे की बात उसके ही मुंह से सुनना उचित होगा।
मैना के कथन का अभिप्राय समझती हुयी शक्ति कहने लगी- ‘खेती का काम तो आप स्वयं करते नहीं।वन्दोवस्ती से किसी प्रकार भोजन भर जुट ही जाता है.....।’
मैंने बीच में ही टोकते हुए कहा था- ‘तो क्या चाहती हो- मैं बाहर जाकर कोई नौकरी ढूढूँ?’
‘नहीं,नौकरी ढूढ़ने की जरूरत नहीं है अभी।’
‘तो ?’
‘उमर ही क्या है,अभी आपकी?’
‘इसी लिए तो पूछ रहा हूँ -खेती करवाना छोड़ दूँ ,नौकरी करूँ नहीं,तो फिर करूँ क्या? तुम क्या करवाना चाहती हो मुझसे ?’
‘करवाना नहीं,करना...मैं आपको पढ़ाई शुरू करने कह रही हूँ। एक बर्ष तो यू हीं बरबाद हो गया,आगे से तो सम्हल जाए।’- शक्ति ने अपनी राय जाहिर की।
‘पढ़ाई का खर्च कहाँ से आयेगा?’-मैंने समस्या रखी।
‘खर्चा ऊपर वाला जुटायेगा।’- हाथ का इशारा ऊपर आकाश की ओर करती हुयी शक्ति ने कहा था- ‘आप फिर चले जायें कलकत्ता।पुराना परिचित जगह है।थोड़े दिन कुछ परेशानी होगी।फिर ट्यू्शन आदि कुछ कर करा कर, किसी प्रकार पढ़ाई प्रारम्भ तो कर दें।’
‘हाँ भैया! भाभी ठीक राय दे रहीं हैं।शास्त्रों में सुनते हैं कि- पत्नी को ‘मंत्री’ भी कहा गया है।भाभी की एकदम उचित मंत्रणा है, आपके लिए।’- मैना की बात पर शक्ति मुस्कुरा दी।
‘तो फिर ठीक है- बहन और पत्नी- दो मंत्रियों की राय न मानना भी सरासर अन्याय ही है,इसलिए ‘आपलोगों,का सुझावादेश हमें शिरोधार्य है। दोनों हाथ जोड़,ऊपर उठा,माथे से लगा लिया- प्रणाम की मुद्रा में।ननद-भौजाई हँसते-हँसते लोट गयी।
थोड़ा सोच विचार कर मैंने कहा- कॉलेज का सत्र शुरू होने में अभी दो माह देर है।मैं ऐसा करता हूँ कि दो-चार दिन में ही चला जा रहा हूँ कलकत्ता।कालीघाट चाचा के यहाँ,या किसी अन्य मित्र के यहाँ एकाध सप्ताह गुजारा कर लूँगा......इस बीच ट्यू्शन ढूढ़ लूँगा,और डेरे की व्यवस्था भी कहीं न कहीं हो ही जाएगी।फिर समयानुसार एडमीशन ले लूँगा।’- कहता हुआ मैं कमरे से बाहर निकल गया।मैना और शक्ति वहीं बैठी देर तक बातें करती रही।

घरेलू व्यवस्था जुटाने में पांच-छः दिन लग गए।तब तैयार हो पाया था कलकत्ता जाने को।चलते वक्त शक्ति ने पूछा था- ‘कब तक लौटेंगे वहाँ से?’
‘अभी तो जा ही रहा हूँ।लौटने की बात क्या बतलाऊँ? सब कुछ अनुकूल रहा तो दशहरे की छुट्टी में आ पाऊँगा।’-मैंने कहा था,अन्यमनस्क भाव से,और डबडबाई आँखों से निहारती हुयी शक्ति लिपट पड़ी थी मुझसे।
‘भूल न जाइयेगा,वहाँ जाकर -अपनी शक्ति को।’
‘शक्ति को ही भुला दूँगा,तो फिर कुछ काम कैसे करूँगा?’- कहते हुए उसके होठों को चटाक से चूम लिया था।
‘धत्! इतने जोर से! कोई सुनेगा तो क्या कहेगा?’- कहती हुयी शक्ति शरमा कर थोड़ा अलग हट गयी थी।
‘कहेगा क्या, ‘सी ऑफ’ की क्लैपिंग है।’
शक्ति के गाल थपथपाते हुए मैं बाहर निकल गया था कमरे से। आंगन में ही माँ और मैना खड़ी थी।मुन्नी घर पर नहीं थी,वह कहीं पड़ोस में खेलने निकल गयी थी।
प्रणामाशीष के समय माँ ने पूछा- ‘रहोगे कालीघाट चाचा के ही डेरे पर न ?’
कुछ दिन तो वहीं रहूँगा,फिर देखा जाएगा; जहाँ जैसी व्यवस्था हो पाएगी- कहता हुआ माँ का चरण-स्पर्श कर,निकल गया।मैना सजल नेत्रों से देखती, दरवाजे पर खड़ी रह गयी थी ।मैने ही कहा- राखी,चाचा के पते पर भिजवा देना।


तेरह महीनों बाद कलकत्ते में पुनः पदार्पण किया,और साथ ही अतीत की धूमिल हो चली तसवीरें भी धीरे-धीरे मानस मंच पर बारी-बारी से आ-आ कर नृत्य करने लगी- महाताण्डव...नृत्य चलता रहा...चलता ही रहा,और मैं चलता रहा कंधे पर विस्तर और हाथ में बड़ा सा झोला लटकाए,मन्थर गति से अघोषित गन्तव्य की ओर।पीछे से कितनी ही टैक्सियाँ,ट्रामें,तांगे,और बसें आ-आकर बगल से निकलती हुयी आगे बढ़ गयी; मगर कोई रूकी नहीं आज! और मैं बढ़ता रहा...बढ़ता रहा...
हावड़ा पुल पार किया...हरिशन रोड पकड़ा...फिर चलते-चलते आ गया चौरंगी- चितरंजन एभेन्यू के पास। किनारे में थोड़ा ठहर कर गहरी सांस लिया- अल्प स्वच्छ ऑक्सीजन के साथ-साथ डीजल-पेट्रोल के धुएँ भी,कुछ धूल कण भी अन्दर गए- हाँ आज की ताजगी यही नसीब है- महानगर वासी को, ‘तरोताजा’ हो कर आगे
बढ़ा,बढ़ते रहा।पटेल कॉटन कम्पनी कम्पाउण्ड तक पहुँचते-पहुँचते थक कर चूर हो गया।हालाकि असली गन्तव्य का अभी पता नहीं था।
चाचाजी का डेरा तो रैन बसेरा भर था,कितने रैन! यह भी कह नहीं सकता।
रास्ता भूल कर इधर कैसे आ गए कमल?’- चरणस्पर्श के साथ ही चाचाजी का तीखा सा सवाल था।वैसे यह सवाल चाची को करना चाहिए था,पर कर दिया- जल्दवाजी में ‘प्रभारी’ ने ही।
हाथ का झोला और कंधे का विस्तर एक ओर वरामदे में ही रख कर,समुचित उत्तर की खोज में था,तभी आवाज सुन अन्दर से चाची आ पहुँची।आज इतने दिनों बाद मुझे देख कर उनके चेहरे पर थोड़ी प्रसन्नता की एक झलक सी मिली,किन्तु सवाल की पुनरावृत्ति भी हो ही गयी, इनकी ओर से भी।फलतः उत्तर देना अनिवार्य सा लगने लगा।
‘रास्ता भूल कर नहीं,याद कर ही आया हूँ। सुना था कि आपदोनों बीमार हैं।कलकत्ता आना था ही नामांकन के सिलसिले में। सोचा,पहले यहीं हो लूँ ,फिर तो इतनी बड़ी दुनियाँ- इतना बड़ा यह
शहर, ठौर-ठिकाने तो भरे पड़े हैं।’- मेरे सपाट,अप्रत्याशित उत्तर से झटका सा लगा उन्हें।
‘वही तो मुझे भी लगा,कमल बड़ा होशियार है,बहुत लायक भी। अरे माँ-बाप तो अपने क्रोध के वशीभूत बहुत कुछ कह जाते हैं, पर क्या इससे उनका स्नेह घट जाता है बच्चों के प्रति? और क्या बच्चा भी भूल जाता है- अपने माँ-बाप को?’- चाचा ने थोड़ी झिझक के साथ कहा।चाची ने भी हाँ में हाँ मिलायी,और भीतर चली गयी,यह कहते हुए- ‘हाथ मुंह धोओ,मैं तुम्हारे लिए जलपान लेकर आती हूँ।’
हाथ-मुंह धो,जलपान कर मैं निकल पड़ा बाहर, सामान वहीं छोड़कर, कुछ व्यवस्था की तलाश में।
सड़क पर आ,सोचने लगा- किधर जाऊँ! पहले किससे मिलुँ?डेरे का प्रबन्ध,ट्यू्यन या अन्य कोई आय-स्रोत- क्या ढूढ़ूँ,कहाँ ढूढूँ?विद्यालय जाकर अंक-पत्र लेना भी जरूरी ही जान पड़ा।पास से गुजरते एक सज्जन से समय की जानकारी ली- बारह बजने ही वाले थे।फिर सोचा,सबसे पहले स्कूल में ही चला जाए।

स्कूल पहुँचा।प्रधानाचार्य श्री घोषाल से बातें हुयी।उन्होंने पहले तो एक बर्ष बरबाद होने पर खेद व्यक्त किया।फिर बोले- ‘तुम कल इसी वक्त आ जाओ यहाँ,सारे कागजात तैयार मिलेंगे।’
मामा के बारे में पूछने पर ज्ञात हुआ कि इसी माह प्रथम सप्ताह में ही अवकाश ग्रहण किए हैं।अब शायद घर पर ही रहने का विचार है उनका।अतः उस ओर जाने का कोई सवाल ही नहीं रहा।तभी ध्यान आया,अपने एक पुराने मित्र- विजय नैयर का।पता नहीं- क्या करता होगा आज कल,मुझसे तो दो बर्ष आगे था।अच्छा होगा,
चल कर उसके डेरे पर ही पता किया जाए।
डेरा वहीं पास में ही बांगड़ बिल्डिंग में था।वहाँ पहुँचने पर बगल के किरायेदार से मालूम हुआ कि वह आजकल पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर काम पर जुट गया है।स्टेनोग्राफी तो वह बहुत पहले ही कर चुका था।और फिर ऐसों को कलकत्ते में काम मिलना बड़ा ही आसान हो जाता है।किरायेदार ने ही उसके ऑफिस का पता भी बता दिया था।
आधे घंटे में ही पहुँच गया झाबरमल जालान के कार्यालय में।विजय से मुलाकात हुयी।
‘अरे कमल! बहुत दिनों बाद याद आयी विजय की?’- कहता हुआ अपनी पुरानी आदत के अनुसार बांया हाथ आगे बढ़ा,और हाथ मिलाने के बाद लिपट गया- भरत मिलाप की तर्ज पर।
वहीं बैठ, बातें होने लगी थी।विगत बर्षों की लम्बी डायरी पढ़-सुन कर यह जाहिर हो गया कि हम दोनों बहुत मामले में एक ही धार के पत्थर हैं।अन्तर मात्र इतना ही है कि वह परिस्थिति की लहरों के चपेटों से टकरा-टकरा कर मेरी अपेक्षा कुछ ज्यादा चिकना हो गया है घिस-घिस कर।
बड़े मायूसी से बोला- ‘क्या रखा है यार जिन्दगी में! न माँ,न बाप,न बीबी,फिर बच्चे कहाँ? सबके सब जीवन के रंगमंच पर आए,और एक दो पटाक्षेप के बाद ही नाटक समाप्त हो गया।अब रहा- अकेला पेट,पेड़ की सूखी टहनियों सी दो हाथ-पैर लिए।किसी प्रकार भर ही जाना है इसे।’
‘तो क्या तुम फिर शादी नहीं करोगे?’-मैंने उसके चेहरे पर खिंच आयी अपूर्व दर्शित रेखाओं को पढ़ने का प्रयास किया।
‘फिर से फंसना फिजूल है इस फंदे में दोस्त।’- कहता हुआ वह हँसने लगा था।हालांकि उसकी हँसी में व्यंग्य दर्शित हुआ था मुझे- जीवन दर्शन के प्रति।
मैंने अनुभव किया- घंटे भर की बैठक के दौरान,मिनट भर भी उसकी अंगुलियाँ खाली न रही थी,सिगरेट की पकड़ से,जब कि इस बीच माचिस का इस्तेमाल एक बार भी न हुआ था।यह वही विजय है,जो ट्राम-बस में सफर के दौरान ‘मास्क’ इस्तेमाल करता था, ताकि कहीं सिगरेट के धुएँ से उबकाई न हो जाए।
‘अरे बाप रे! तुम इतना सिगरेट पीते हो?’- मैंने चिन्ता जाहिर की,उसकी इस हरकत पर।
‘यही तो तनहाईयों में हमसफर बनता है।इस बेचारे को भी छोड़ ही दूँ?’- कहता हुआ विजय उठ खड़ा हुआ।घड़ी देखते हुए बोला- ‘चलो यार,छोड़ो यह सब दुनियादारी गप्पें।चलो लंच लिया जाये। और मेरा हाथ पकड़ दफ्तर से बाहर निकल आया।
करीब पौन घंटे बाद हमदोनों पूर्वस्थान पर बैठ,पूर्व प्रसंग छेड़ दिए।फाइल खोलते हुए विजय ने कहा-
‘अब तक तो पुरानी बातें ही होती रही।मैं तो भूल ही गया, तुम्हारे यहाँ आने का मकसद पूछना,क्यों कि सिर्फ घूमने के ख्याल से तो इतनी दूर तुम आने वाले हो नहीं।’
‘आने का मकसद तो सिर्फ एक ही है- आगे की पढ़ाई, पर उसकी पूर्ति के लिए कई अन्य सहयोगी मकसद भी पनप आए हैं।’
‘मतलब? ’- ऐश-ट्रे में सिगरेट झाड़ते हुए विजय ने पूछा।
‘पढ़ने के लिए चाहिए यहाँ रहना,रहने के लिए डेरा,और डेरे को चाहिए समुचित नहीं तो कम से कम गुजारा भत्ता...ये कैसे हल होगा?- मेरी चिन्ता का यह विषय है।’
‘अच्छा तो अब समझा। किन्तु चिन्ता क्या? ’- हाथ मटकाते हुए विजय ने कहा।
‘क्या परवाह किए वगैर यूँही हो जाएगा?’
‘सुनो यार! आए हो बड़े मौके से- तुम तो पक्के पंडित ठहरे,यात्रा-मुहुर्त देख-सोच कर चले होगे- बात ये है कि मेरे फर्म में एक मुन्शी की जरूरत है।आज ही तुम्हें सेठ जी से मिलवा देता हूँ।मेरी बात वे टालेंगे भी नहीँ,इतना भरोसा है।(क्रमशः....)

Comments

  1. प्रिय पाठक बन्धुओं,
    निरामय को छः भागों में विभक्त कर पोस्ट करने की योजना- अचानक पाँचवें भाग पर आकर ठहर गयी है।आज कई दिनों से निरंतर प्रयास में हूँ,किन्तु छठा भाग पोस्ट नहीं हो पा रहा है।
    आप निराश न हों,प्रयास जारी है। कारण समझ नहीं आ रहा है- क्यों ऐसा हो रहा है।
    धन्यवाद।

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