निरामयःभाग तीन
‘‘नाटक के कलाकारों
को सूचित किया जाता है कि भोजन शीघ्र समाप्त करके मेकअप रूम में चले जाएँ।"
उद्घोघोषणा सुन
कर मीना पहले ही जा चुकी थी।मैं भी वसन्त के साथ चल दिया।
नाटक का पंडाल
दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था।आगे की पंक्ति में सम्मानित पदाधिकारी, अभिभावक, अन्य अतिथिगण एवं शिक्षक गण कुर्सियों पर
विराजमान थे।उनके पीछे बेंचों पर लड़के-
लड़कियों का समूह था।
उद्घोघोषणा
पुनः हुयी-
‘‘माननीय जिला शिक्षा
पदाधिकारी महोदय, प्रधानाचार्य महोदय, गण्यमान्य अतिथिगण,अभिभावक गण एवं
छात्र-छात्राएँ! अभी-अभी आपलोगों के समक्ष एक प्रसिद्ध पौराणिक नाटक का मंचन किया जायगा।हर बर्ष की भांति
इस बार भी हमारे प्रधान
अतिथि
एवं विद्यालय निरीक्षण-पदाधिकारी महोदय के करकमलों द्वारा कलाकारों को पुरस्कृत भी किया
जायेगा।आज का नाटक है- सती सावित्री
नाटक प्रारम्भ
होता है।दर्शक भाव विभोर हैं।खास कर नारी दर्शक।सावित्री वस्तुतः भारतीय नारी का रूपवान
आदर्श है।एक वह भी नारी थी।एक आज की नारियाँ हैं- कोई तुलना नहीं तब और अब
में।प्रेम का स्वरूप बदल चुका है।उसकी जगह प्यार यानी ‘लव’ने ले
ली है।प्रेम आत्मिक तल पर होता है,समर्पण उसकी आधारशिला है। प्यार शरीर से शुरू
होकर शरीर पर ही समाप्त हो जाता है।
पर्दा उठता
है।गिरता है।फिर उठता है।नाटक चलते रहता है।
दर्शकों के सामने
जंगल का दृश्य है।वट वृक्ष की छांव में अन्धे राजा अपनी पत्नी एवं युवा पुत्र सत्यवान
के साथ बैठे हैं।सत्यवान...कमल....कमल
ही सत्यवान...।
सामने आसन
पर बैठे नजर आ रहे हैं- मंत्री एवं राज
पुरोहित
सहित
राजा - सावित्री के पिता अश्वपति अपनी पुत्री के साथ।
सावित्री...मीना...मीना....सावित्री...।
क्या ही
करूण दृश्य था वह।सावित्री घायल मृगी की तरह कभी पिता कभी पुरोहित कभी भावी स्वसुर
- अन्धे राजा के चरणों
में
सिर टेक कर आँसु से उनका चरण पखार रही थी --
‘नहीं..नहीं...ऐसा
अनर्थ नहीं हो सकता...मैंने एक बार जब वरण कर लिया है सत्यवान को,फिर चाहे जो भी हो,सब सहने को तैयार हूँ...।’
राज
पुरोहित कह रहे थे - ‘नहीं
राजकुमारी
नहीं,मूर्खता मत करो।अधिक भाउक मत बनो सावित्री बेटी।तुम जान चुकी हो कि राजकुमार
सत्यवान की आयु मात्र एक बर्ष शेष है।ऐसा अनर्थ मत
करो...अन्धेर हो जायगा।’
सावित्री
कह रही थी- ‘नारी अपने
पति का वरण सिर्फ एक बार ही कर सकती है गुरूदेव! सत्यवान को त्याग कर मेरा सतित्व रक्षित कैसे रह सकता है? आप राज पुरोहित हैं।स्वयं विचारें,सतीत्व
की परिभाषा...नारी धर्म की मर्यादा।’
यवनिका सरक पड़ती है।दृश्य बदल जाता है।
पेड़ के
नीचे सावित्री बैठी है।बगल में लकड़ी का गट्ठर पड़ा है,एक कुल्हाड़ी भी वहीं है।सावित्री की
गोद में सत्यवान का सिर है,वह दर्द से कराह रहा है।सावित्री उसका सिर दबा रही
है।राजपुरोहित
की
बातें याद आ जाती हैं
उसे।एक
बर्ष व्यतीत हो चुका है।सावित्री की आँखों से अश्रुधार फूट कर गोद में पड़े सत्यवान का मुख
मंडल प्रक्षालित
कर देती है।
सत्यवान कहता है- ‘रोओ मत सावित्री!
तुम धैर्यवान नारी हो।विधि का विधान नहीं टल सका है
आज तक।इसे सहन करना ही
पड़ेगा।अन्धे
पिता और बूढ़ी माता का ध्यान रखना।’
सावित्री का
अश्रुपात दर्शकों को अर्द्धस्नात कर चुका है।इतने में ही कर्कश ध्वनि सुनाई पड़ती
है।
यमराज की भूमिका
में वसन्त आता है। यमराज का कठोर स्वर मंच को प्रकम्पित कर देता है--
‘‘हट जाओ
सावित्री! हट जाओ मेरे सामने से।तुम्हारे सतित्व- तेज-पुंज से भस्म हो जाऊँगा मैं। छोड़ दो सत्यवान के शरीर को
।नियन्ता के नियम को भंग मत होने दो।मुझे भी अपना कर्तव्य पालन करने दो।सत्यवान की आयु समाप्त हो
चुकी है।आयु-शेष प्राणी इस मृत्यु भुवन में नहीं
रह
सकता।सृष्टि के नियम की मर्यादा रखना भी सती नारी का धर्म है।’
‘सती का
आदर्श...मर्यादा....’- सुन कर सावित्री कांप उठती है।फिर भुनभुनाती है- ‘सृष्टि के नियम का, सत्य और सतित्व की मर्यादा का निर्वाह करना ही पड़ेगा।’
सत्यवान का सिर गोद से हटा कर,स्वयं एक ओर हट जाती है।सत्यवान के
सूक्ष्म शरीर को मृत्यु-पाश में ग्रस कर यमराज चल पड़ते हैं।
कुछ आगे बढ़ने पर
अनुगामिनी सावित्री का ध्यान आता है उन्हें और चौंक कर पीछे देखते हुए बोल उठे- ‘यह क्या,तुम मेरा पीछा कर रही हो?’
सावित्री कहती है- ‘हाँ महाराज! पीछा
कर रही हूँ;परन्तु आप का नहीं अपने पति का।’
‘जीवित प्राणी
मेरे साथ नहीं जा सकता।अतः तुम लौट जाओ।’- यमराज ने कहा था।
‘पत्नी पति
की छाया समान है।काया से अन्योन्याश्रय सम्बन्द्द है छाया का।मैं भी विवश हूँ महाराज।’- सावित्री ने कहा था।
‘तू नहीं
मानेगी।अच्छा
एक बात...’- कुछ सोच कर यमराज ने पुनः कहा- ‘कुछ वरदान माँग लो,परन्तु
लौट जाओ।’
स्वसुर की
आँखें और नष्ट साम्राज्य - क्रमशः दो वरदान पाकर भी सावित्री यमराज का अनुगमन नहीं
छोड़ती।कहती
है -‘बूढ़ा
स्वसुर क्या चला
पायेगा राज्य? पुनः वह शत्रु के हाथ चला जायेगा।बिना समुचित अधिकारी के, कैसे होगा पूरा
आपका यह वरदान?’
किंकर्तव्यविमूढ़
यमराज के मुंह से अचानक निकल पड़ा- तीसरा वरदान -‘औरस उत्तराधिकारी।’
‘अनर्थ,घोर अनर्थ विधवा बहू और औरस
उत्तराधिकारी? यह कैसा
मजाक है भगवन? हा वैधव्य!
हा सतित्व !’सावित्री की करूण चित्कार वायुमण्डल में गूँज उठी।त्रिलोक प्रकम्पित
हो उठा।
यमराज को अपनी भूल का भान हुआ।किंकर्तव्यविमूढ़ता और गहरा गई।हाथ-पैर कांपने लगे।मृत्यु पाश
ढीला पड़ गया।जड़वत स्थिति में सत्यवान का सूक्ष्म शरीर छूट गया- ‘लो तुम विजयी हुयी।नियन्ता
का नियम निरर्थक होकर भी सार्थक हो गया।सुतर्क का एक स्तम्भ स्थापित हो गया।’
पटाक्षेप के
साथ-साथ पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।कहानी पुरानी थी,परन्तु नई अनुभूति ने सबको रोमांचित
कर दिया।
दर्शक-दीर्घा से
उठ कर मुख्य अतिथि श्री बंकिम चट्टोपाध्याय दम्पति ऊपर मंच पर पधारे।बगल में खड़े प्रधानाध्यापक
श्री घोषाल
मैगनोलिया
का गजला उनके गले में डालते हुए अभिवादन किए। एक बार तालियाँ फिर गड़गड़ायी।
फिर समापन गान, आशीर्वचन,पात्र परिचय आदि औपचारिकताएँ पूरी की गई।और अन्त में बारी आयी,पुरस्कार वितरण की।
सबसे पहले
इस बर्ष अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पाने वाले छात्र-छात्राओं को पुरस्कृत किया
गया।फिर स्वागत गान और समापन गान गायिकाओं को पुरस्कृत किया गया।और तब बारी आई नाट्य कलाकारों की।उद्घोषक माइक्रोफोन पर आए।उद्घोषणा
हुई -
‘‘आज के नाटक
में प्रथम पुरस्कार सावित्री की भूमिका निभाने वाली एकादश कक्षा की छात्रा सुश्री
मीना चटर्जी को दिया जा रहा है।"- पंडाल तालियों से गूँज उठा।उद्घोषक ने पुनः
उद्घोषणा की -
‘‘द्वितीय
पुरस्कार सत्यवान की भूमिका में कमल भट्ट को एवं यमराज की भूमिका में वसन्त उपाघ्याय
को दिया जा रहा है।’
करतल ध्वनि पुनः
गूंजित हुई।फिर कुछ अन्य छोटे-मोटे पुरस्कार भी बांटे गए।अन्त में एक और उद्घोषणा
हुयी- ‘आज के
कार्यक्रम के समापन युगल गान के गायक-गायिका- जो पूर्व में सावित्री-सत्यवान की भूमिका निभा चुके हैं- कमल भट्ट और मीना चटर्जी को एक संयुक्त पुरस्कार हमारे विद्यालय निरीक्षण-पदाधिकारी
श्री बंकिम चट्टोपाध्याय जी की ओर से व्यक्तिगत तौर पर दिया जा रहा है,अतः ये दोनों कलाकार पुनः पुरस्कार मंच पर आवें।’
मंच के एक ओर से
मीना,एवं दूसरी
ओर से कमल यानी मैं।एक साथ
दोनों के बढ़े हाथ,सामने खड़े
श्री बंकिम जी के हाथों से संयुक्त पुरस्कार ग्रहण करते हुए -- आह! कैसा नयनाभिराम दृश्य
था
वह,
जिसकी
परिच्छाया देखा था मैंने श्री
बंकिम दम्पति की आँखों में।मगर उन नयनों को वाणी कहाँ,जो स्वर दे सके उस दृश्य को; और बेचारी वाणी को
नेत्र कहाँ,जो देख सके
उस अतुलनीय युगल छवि को। शायद ऐसा ही दृश्य मानसकार ने भी देखा हो कभी,और मुंह से बरबस निकल पड़ा होगा-
‘‘गिरा अनयन,नयन बिनु बानी...।"
एक ही साथ कई
कैमरे फ्लैश हुए-कुछ मानवी,कुछ मानव कृत।तस्वीरें कैद हुयी
-कुछ आँखों में,कुछ रीलों
में।
रात करीब दो बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ
था।वसन्त ने कहा-‘कमल! मैं यहाँ कुछ देर और ठहरना चाहता हूँ।तुम यदि
चाहो तो
जा
सकते हो,किन्तु
कालीघाट मत जाना।रात बहुत हो गयी है।मेरे डेरे पर ही चले जाओ।’
मेरा भी विचार हो रहा था-वापस लौट चलने का।अतः चल दिया,कहाँ जाऊँ -निर्णय किये वगैर ही।
अभी विद्यालय
प्रांगण से दस कदम आगे बढ़ा होऊँगा कि पीछे से आती किसी गाड़ी का प्रकाश देख थोड़ा
किनारे होना पड़ा,फिर भी तेज
हॉर्न बजता ही रहा।चौंक कर पीछे मुड़ा।देखा कि गाड़ी की
पिछली सीट पर बैठी मीना बाहर झांकती हुई, आवाज लगा रही है।ड्राईविंग सीट पर विराज रहे
हैं- श्री बंकिम
चट्टोपाध्याय जी,और बगल की सीट पर बैठी हैं- श्रीमती
चट्टोपाध्याय।
मैं गाड़ी के करीब जाकर
जिज्ञाशा पूर्वक पूछा - कहाँ जा रही हो मीना इन्सपेक्टर साहब के साथ?
हँस कर मीना ने
कहा था- ‘तो किसके
साथ जाऊँ, तुम्हारे साथ? मगर
तुम पूरब के वजाय पश्चिम जा रहे हो,सो क्यों?’
मीना की बात पर
साहब दम्पति भी हँस दिए थे।मुस्कुराते हुए साहब ने कहा- ‘क्यों कमल सिर्फ
मीना को ही पहचानते हो, मुझे नहीं?’
‘ये
इन्सपेक्टर होंगे तुम्हारे स्कूल के,मेरे तो पापा हैं।’-
परिचय कराती मीना कार का पिछला गेट खोल दी,जहाँ वह खुद बैठी थी।उसकी आँखों ने
मौन आमन्त्रण दिया था मुझे।मेरी आँखें मीना को निहार कर पूछना चाह रही थी -क्या
अन्दर आ जाऊँ?
मौन प्रश्न का
मुखर उत्तर मिला उसकी माँ से- ‘
अन्दर
आकर बैठो बेटा,संकोच किस बात का?’
मुझे कहीं
जाना
भी है -भूल गया,और जा बैठा
अन्दर घुसकर मीना के बगल में।मेरे बैठते ही गाड़ी चल पड़ी।पल भर के लिए न जाने कहाँ-कहाँ घूम आया मेरा
मन।ध्यान तब भंग हुआ जब
हरिशन-चितपुर चौराहे के सिगनल पर गाड़ी रूक गयी कुछ देर के लिए।हड़बड़ा कर बोला -कहाँ लिए जा
रही हो मुझे?
‘अपने घर,और कहाँ?’- मीना चहकी।
इस समय?- मैंने टोका।
‘और किस समय? क्या यह समय है कालीघाट
जाने का ? ’-मीना का सवाल था।
कालीघाट थोड़े ही
जाता इतनी रात को।जा रहा था वसन्त के डेरे पर,यहीं पास में ही हाजी
मुहम्मद।
‘आखिर जब
डेरा जाना ही नहीं है,फिर चिन्ता किस बात की?’- उसके पापा ने कहा
था।
अब तक हमलोग
बागड़ी मोड़ पहुँच चुके थे।मार्केट से आगे बढ़ कर मुख्य मार्ग पर ही एक भव्य सजीले
भवन के सामने गाड़ी
खड़ी
हो गई।लकदक सजीले रोबीले दरवान ने गेट खोल कर सलामी दागी। गेट पर ही ‘न्योन साइन’ बोर्ड लगा हुआ था- ‘मीना निवास’।
भवन की
बनावट और सजावट दिलोदिमाग में अजीब सी तरावट भर गयी।आह! कितना सुन्दर,कितना सजीला।एक बड़े से लॉन के एक ओर बना विशाल भवन,और दूसरी ओर एक खूबसूरत
बंगला।कम्पाउण्ड के चारो कोनों पर उच्चासीन ‘भेपर लाईट’ रात्रि
का जरा भी आभास न होने दे रहा था।गेट के दोनों ओर पहरेदार से खड़े चिकने सुडौल
यूकलिप्टस के पेड़।गेट के दोनों पीलरों को मिलाते हुए अर्द्धवृत्ताकार ग्रील,जिससे लटकता न्योन साईन बॉक्स एक गरिमामय नाम को संजोये हुए--मीना निवास ।
गाड़ी से नीचे
उतर,बंगले की
सीढि़याँ चढ़,हम सभी ऊपर
आए।बैठकखाने में पहुँच कर मीना ने कहा-‘ तुम यहीं
बैठो
कमल।मैं तब तक चाय
बना लाती हूँ।’
‘इसकी क्या
आवश्यकता है अभी?’- सोफे पर बैठते हुए मैंने कहा,किन्तु इसे सुनने वाली पीठ मोड़ चुकी थी,दूसरे कमरे की ओर, यह कहती हुयी कि अभिनय की थकान की विदाई जो
करनी है।
माँ भी उसके पीछे-पीछे चली गयी।पापा बगल कमरे में पहले ही जा चुके थे।मैं अकेला ही बैठा रहा
वहीं सोफे पर।
आँखों में अभी भी
बसा था- मंच का
दृश्य -सावित्री की गोद में आँखें बन्द किए पड़े कराहते सत्यवान....।सच में जिस
समय पड़ा
था
गोद में,बड़ा अजीब
सा लगा था।पता नहीं क्यों,क्या हो गया है आज मुझे ।कल तक बच्ची सी लगने वाली मीना,जो अभी भी वैसी ही तो है ।फिर भी न जाने क्यों कैसा...कैसा तो लग रहा है मुझे आज के उस
नाटक के बाद।बार-बार के प्रयास के बावजूद हटा
न पा रहा था,उस दृश्य को मस्तिष्क से।तभी मीना चाय लिए कमरे में उपस्थित हुई।
‘क्या सोच
रहे हो?लो चाय पीओ।’-कहती हुई मीना चाय का एक प्याला मुझे पकड़ा कर,बगल में ही सोफे पर बैठ गई।ऊपर नजरें उठाते हुए मैंने पूछना चाहा -‘तुम नहीं
पीओगी?’-
क्यों कि एक
ही प्याला लेकर आयी थी।किन्तु वह खुद ही बोल पड़ी- ‘अभी मेरी इच्छा नहीं
है।’
तो मुझे
कौन सी बेचैनी थी इसके लिए -कहते हुए पीना शुरू भी कर दिया मैंने।मेरी इस हरकत पर वह मुस्कुराती
बोली, ‘कुछ खाने
का सामान भी लाऊँ क्या? तुमने तो स्कूल में भी ठीक से खाया नहीं
था।’
‘अभी क्या
खाने का वक्त है?
खाने से ज्यादा जरूरी है सोना।’-कहते हुए म® चाय सुड़कने लगा।
‘तो फिर सो
रहना,इधर ही
पलंग पर।’- बांयी ओर
बिछे पलंग
की
ओर इशारा करके बोली।तभी बगल कमरे से निकल कर उसके पापा-मम्मी आ गए उसी कमरे में।और फिर
गप-शप का सिलसिला
ऐसा बना कि साढ़े चार बज गए।वैसे भी कलकत्ते में सबेरा कुछ
जल्दी ही हो जाया करता है।
बातचित का मुख्य
विषय था-
आज
का कार्यक्रम;साथ ही कुछ मेरा परिचय,कुछ उनका परिचय।
वार्ताक्रम में ही जानकारी मिली कि वे यहाँ के इने-गिने कुलीन परिवारों में एक हैं।पुस्तैनी जमीदारी तो ‘पटेल नीति’ में भेंट चढ़ ही गयी,फिर भी बहुत कुछ शेष है अभी संजोने
को।मीना उनकी एकमात्र
वारिस है।एक दो वच्चे पहले भी आए थे,किन्तु किसी को यह प्रपंच लोक पसन्द न आया,और अल्पावधि में ही सुरलोक सिधार गए।
‘नीरस जीवन
में बहार का एक झोंका,मरूस्थल
में प्रभु कृपा से
गुलाब
की क्यारी-मीना ही
है।अब यह भी बड़ी हो चली है, कोई
पन्द्रह की।सोचता हूँ- इसे भी यथाशीघ्र किसी योग्य के हाथों सौंपकर वानप्रस्थी
जीवन व्यतीत करूँ।’- कहा था श्री चटर्जी
ने।
ऐसा कहते हुए,उनकी आँखें निहारने लगी थी सामने
दीवार पर लगी कौशल्या नन्दन की युगल छवि को,जिसमें शायद आसन्न दर्शित नाटक का ही दृश्य नजर आ रहा था।तभी
तो मुंह से अनायास ही
निकल
पड़ा था- ‘
नारी
अपने पति का वरण सिर्फ एक ही बार कर सकती है गुरूदेव! सत्यवान को त्याग कर मेरा
सतीत्व रक्षित कैसे रह पाएगा?’
फिर लम्बी
उच्छ्वास के साथ कहा था उन्होंने, ‘ओफ! कितनी करूणामयी वाणी थी उस वक्त सावित्री
की।मुझे जरा भी उम्मीद नहीं थी कि मीना इतनी अच्छी भूमिका निभा सकती है।जरा भी नहीं
लग रहा था कि नाटक के संवाद बोल रही है
मीना।सच में लगता था कि सावित्री ही है यह,और सत्यवान के लिए वास्तविक तड़पन है,इसके
हृदय में।’
‘तुम्हारा
अभिनय भी तो कमाल का था कमल।’- मीना की मम्मी मेरे पीठ पर हाथ फेरती हुयी बोली।उनके
स्नेहिल स्पर्श से मैं
अभिभूत
हो गया,बिलकुल ‘माँ वाला’ स्पर्श।वैसा ही प्रेम पूर्ण सम्बोधन
मेरे मुंह से भी निकल पड़ा- ‘चाची आप भी मेरी झूठी प्रशंसा कर रही हैं।मेरा संवाद ही
कितना था?
असली अभिनय तो मीना का ही रहा।सही में अनुभव नहीं
हुआ
होगा किसी को कि नाटक खेला जा रहा है।अन्तिम दृश्य में मैं जब आँखें मूंदे कराह रहा था,मीना की गोद में; इसकी आँखों से चलती अविरल अश्रुधार ने तो मेरे चेहरे का
मेकअप ही धोडाला।’
‘ये क्यों नहीं
कहते
कि तुम डूब चुके थे मेरी आँखों की सरिता में।’- इठलाती हुयी मीना
बोली।
मेज पर फैला कर
पांव सीधा करते हुए बंकिम चाचा ने कहा था- ‘ठीक कह रहे
हो कमल,बड़ा ही
करूण दृश्य था उस समय।मैंने भी गौर किया था,प्रायः दर्शकों के रूमाल जेब से बाहर,हाथों में आ गए थे।तुम्हारी चाची तो
हुचक कर रो पड़ी थी।’
‘रोयी क्या
केवल मैं ही थी? आप भी तो...।’- कहती हुयी चाची की आँखें कभी मुझे कभी मीना को
निहारती हुई पुनः सजल
हो
आयी थी.और मुंह से
उच्छ्वास निकल पड़ा था - ‘काश.....।’
किन्तु आगे कुछ
कह न सकी थी,जो उस समय
उद्वेलित किया
था
उनके मन को।कुछ देर मौन रही,फिर बोली- ‘अब थोड़ा
विश्राम कर लिया जाय। वैसे सोने का अब वक्त तो है नहीं।तुम कमल को आराम करने की
व्यवस्था कर दो।’-
कहते
हुए चाचा-चाची
दोनों उठ कर दूसरे कमरे की ओर चल दिए।
‘इन्तजा़म
क्या करना है,यह मेरे
रूम में सो जाएगा,मैं यहीं
पर
सो रहूँगी।’- कहती मीना
बगल कमरे की ओर चली गई,शायद
विस्तर ठीक करने
के लिए।
करीब पांच मिनट
बाद वह पुनः ड्राईंग रूम में आयी-‘चलो तुम्हारा कमरा दिखा दूँ।’
मैं उसके पीछे मिनिस्टर
के पी.ए. की तरह चल दिया।
बैठकखाने के बगल
में ही पूरब की ओर था,चाचाजी का
शयन कक्ष और
पश्चिम की ओर मीना का अध्ययन एवं शयन कक्ष।अखरोट की बेशकीमती लकड़ी पर खूबसूरत
कारीगरी का बेजोड़ नमूना –मेज, कुर्सी,आलमीरा
और दीवान...सुरूचिपूर्ण कमरे की सजावट...आलमीरे के ऊपरी खाने में टू-इन-वन
रेडियो-रिकॉर्डर,रेकॉडप्लेयर,कैमरा आदि...नीचे के खाने में कुछ किताबें -अधिकांश
जासूसी और कुछ फिल्मी... रंगीन तस्वीरें -फिल्म तारक-तारिकाओं की, चारो ओर से डिस्टेम्पर्ड वाल पर... एक ओर
ब्रैंन्जो और एक निहायत बेशकीमती ‘माउथ आरगन’
भी रखा हुआ...यही था मीना का कमरा।
पल भर में ही
पूरे कमरे का मुआयना कर गया था मैं, एक कुशल
पर्यवेक्षक की तरह।क्या यह एक स्कूली छात्रा का अध्ययन-कक्ष
है
या....?-- सोच ही रहा
था कि उसने कहा- ‘खड़े क्या
हो,अभी सोने
की इच्छा नहीं है क्या?’
‘इच्छा तो
थी,पर अब न
रही।’- मेरा संक्षिप्त
उत्तर सुन कर
कुछ
चौंकती हुयी सी बोली-‘क्या देख
रहे हो इस प्रकार?’
‘कुछ नहीं यूँही...देख
रहा हूँ एक अभिनेत्री का कमरा।’- कहता हुआ,टेबल पर
उलटी पड़ी एक अधखुली किताब को हाथों में लेकर पलटने लगा।किताब थी - फिल्मों में
प्रवेश कैसे?
‘क्या कहा अभिनेत्री
का...क्या मैं तुम्हें कोई हीरोइन
नजर आ रही हूँ?’- मीना का इठलाता हुआ
सवाल था।
‘और नहीं
तो
क्या,यूंही इतना
अच्छा अभिनय कर गयी सावित्री का? मैं तो डर रहा था मंच पर जाने में ही।किन्तु वसन्त और तुम्हारे
जिद्द से स्वीकारना पड़ा।’- कहता हुआ मैं किताब को पुनःमेज पर रख दिया।
‘अभिनय मैं भले ही थोड़ा बहुत कर लूँ,पर तुम्हारे जैसा गायक तो नहीं
बन
सकती।’-कहा मीना ने,और
रेकॉर्डर प्ले करने के बाद कुर्सी पर बैठ गयी।पाश्चात्य संगीत लहरा उठा।
मैंने पूछा था -तो क्या तुम्हें भी नींद नहीं आ रही है?
‘अब क्या
सोने का समय है? वैसे तुम चाहो तो सो सकते हो।मैं चलती हूँ।’-कह कर मीना कुर्सी से उठने लगी
थी कि अनचाहे ही मेरे हाथ बढ़ गये उसकी ओर।उसके हाथ को पकड़ते हुए मैंने बैठने का आग्रह किया।
कह तो दिया,पर खुद ही झेंप गया।पता नहीं
क्या
सोचेगी।बगल
कमरे
में पापा-मम्मी शायद सो चुके थे,क्यों कि उधर की कोई आहट नहीं मिल रही थी।
मीना के उठे पग
थम गए।इतमिनान से बैठ गयी दीवान पर ही।और बड़े आग्रह से बोली-‘वह जो गीत आज गाए
थे-विदाई वाला,उसे जरा फिर सुनाओ न।’
विस्फारित नेत्रों से उसे देखते हुए, इच्छा हुयी थी
पूछने की कि
सोने
का समय नहीं है तो क्या गाने का समय है? पर पूछा था कुछ और ही
- ‘
ओ...तो
गीत सुनाऊँ? परन्तु
अकेले तो नहीं गाया
था वह गीत,साथ में सावित्री भी तो थी।
‘तो क्या
हुआ,यहाँ मीना
जो है।’- मीना अपनी
स्वीकृति दी।
‘पर
पापा-मम्मी क्या सोचेंगे?’- मैंने संशय व्यक्त किया।जिसका जवाब मीना ने तपाक से दिया- ‘ मेरा बंगला
दकियानूसों का कबाड़खाना नहीं है।और उससे भी बड़ी
बात यह है कि वे सो चुके;और उससे भी महत्व पूर्ण बात है कि उनकी नींद गाने से क्या,नगाड़े
से भी खुलने वाली नहीं है।’
मीना के इस टिप्पणी
पर हमदोनों एक साथ खिलखिला उठे।हँसी का फौब्बारा देर तक परावर्तित होते रहा कमरे में।
पाश्चात्य संगीत का
वह कैसेट जो देर से चल रहा था,पूरा हो चुका था।मैंने प्लेयर बन्द कर दिया। मीना उठी,और आलमीरे के बगल में रखे काठ के बक्से से हारमोनियम
निकाल कर ऊपर दीवान पर
रखती हुयी बोली- ‘इसके वगैर
थोड़े जो अच्छा लगेगा।’
मगर इसे बजायेगा
कौन? मैं तो सिर्फ ताली बजा
सकता हूँ।-
मैंने अपनी असमर्थता जाहिर की, किन्तु तभी देखा कि मीना की
अँगुलियाँ थिरकने लगी थी ‘रीड’ पर।मेरी ओर देखते
हुए मुस्कुरा कर बोली-
‘अब यह मत
समझ लेना कि मैं ‘लक्ष्मी
सुब्रमण्यम्’ हूँ।यूँ ही
थोड़ा बहुत गा-बजा लेती हूँ।’
मुझसे बातें करती
मीना एक दूसरा कैसेट प्लेयर में पुश कर दी।इधर तराने छिड़ गए।उधर प्रभात के आगमन
का संकेत-
चिडि़याँ
लागातार दिए जा रही थी।गीत शुरू हुआ विदाई से,और फिर न जाने कितने गीत गाए गए -हमदोनों में किसी के पास हिसाब न
था।न जाने किस गन्धर्व
लोक में खो सा गया था,सम्मुखी किन्नरी के साहचर्य में।
तन्द्रा तब टूटी
जब ट्रे में कॉफी का प्याला लिए,श्रीमती चटर्जी सामने खड़ी नजर आयी।सेन्टर टेबल पर ट्रे रखती हुयी बोली- ‘तो तुमलोग बाकी रात यही करते रहे?’
‘करती क्या रही
मम्मी,सुनोगी तो
तुम नाच उठोगी।’-
दीवान
पर रखे
हारमोनियम को यथास्थान बक्से में रख कर,कैसेट स्पूल रिबैंड कर दी।चाची मुग्ध खड़ी देखती रही
मीना की हरकत।मीना ने पुनः कहा- ‘मैंने कहा था न उस दिन मम्मी कि कमल
बहुत अच्छा गाता
है।’और
कॉफी का प्याला उठा,एक मुझे
पकड़ा कर दूसरा स्वयं सिप करने लगी।कॉफी पीते-पीते ध्यान गया- ‘पापा अभी तक सोए ही
हुए हैं क्या?
‘अब क्या नौ
बजे तक सोए ही रहेंगे।अभी-अभी उठ कर बाथरूम गए हैं।मैं चली गयी कीचेन में,सोची सबको चाय पिला दूँ।’-कहती हुयी चाची खाली हुए प्यालों को
समेटने लगी।
‘महरी कहाँ
गयी?’- मम्मी को जूठे प्याले उठाती देख मीना ने पूछा था।
‘महरी मरने
गयी...आज दो दिन हो गए,उसे तो
महीने में दस दिन छुट्टी ही चाहिए।’- थोड़ी झल्लाई हुई सी चाची बोली,और ट्रे उठा कर बाहर चली गयी।उनके पीछे ही
मीना भी निकल गयी,बाथरूम की
ओर- ‘अभी आयी।’- कहती हुयी।
थोड़ी देर बाद चाचाजी तौलिए से मुंह पोछते कमरे
में प्रवेश किए।पीछे से उनके लिए कॉफी का प्याला लिए चाची,और उनके पीछे मीना भी आ गयी कमरे में
ही।
‘किस बात पर
माँ को नचा रही थी मीनू?’-पिता का सवाल पूरा होने के साथ ही मीना ने रेकॉर्डर प्ले
कर दिया- ‘इस बात पर पापा। और पिता के बगल की
खाली कुर्सी में धब्ब से धँस गयी।
‘गीत गोविन्द’ की मधुर स्वर लहरी
कमरे के वातावरण को
आप्लावित
कर दी थी।काफी देर तक हमसब मौन बैठे उस दिव्य गीत का रस पान करते रहे।फिर एक एक
करके वे सारे गीत-गाने
बजते
रहे थे,जो पिछले
डेढ़-दो घंटों में कैद किए गए थे रेकॉर्डर द्वारा।
भक्ति-श्रृंगार और विरह संगीत ने अनोखा समा
बँधा गया था।विभोर होकर सुनते रहे थे,चटर्जी दम्पति।बीच-बीच में मीना किसी गाने पर ‘एंकरिंग’ कर दिया करती, ‘यह जो विरह गीत है
पापा!
कमल ने तब लिखा था,जब इसकी एक मुंह बोली भाभी का निधन हुआ था...और यह जो श्रृंगारिक गीत आप
सुन रहे हैं-
उस
समय लिखा था इसने,
जब
भैया पुनः नौशा बने थे...।’
‘अच्छा,तो ये सब के सब इसकी खुद की रचनाएँ हैं?’- आश्चर्य और प्रसन्नता मिश्रित प्रश्न थे
बंकिम चाचा के।तदुत्तर में हँसती हुयी मीना ने कहा था- ‘ अब ऐसा नहीं कि गीत गोविन्द भी महाकवि
जयदेव की जगह इसने ही लिख दिया। हाँ,बाकी के गीत
इसकी अपनी रचना है।इतना ही नहीं,बहुत सी कहानियाँ और उपन्यास भी लिखा है इसने।’
‘रचनाएँ तो
एक पर ग्यारह हैं।किन विशेषणों
से
विभूषित करूँ,मैं इस बाल कलाकार को?’-बगल में बैठी चाची मेरा
पीठ ठोंकती
हुयी
बोली- ‘शाबास कमल।’
‘पर यह कैसा
श्रृंगार है मीना! इस श्रृंगार को भी विरह ही कहूँ तो क्या हर्ज है,जो आद्योपान्त करूणा से ओतप्रोत है।’- चाचाजी ने अपना मन्तव्य दिया।
‘कह सकते हैं,अवश्य कह सकते हैं।मेरी भी यही राय है।’- -- कहती हुई मीना उठ
कर गयी,पास के
सेल्फ तक और एक किताब निकाल लायी।पिता के हाथ में देती हुयी बोली- ‘ यह जो
उपन्यास
आपने लाया था उस बार- ‘कस्मकस’ याद होगा शायद,कितना दर्द और आलोड़न है इसमें।’
‘हाँ-हाँ,मुझे अच्छी तरह याद है,इसे पढ़ते समय कितना रोयी थी मैं,किन्तु इसका
लेखक...’?-चाची ने जिज्ञासा प्रकट की।
‘तुम्हारी
शंका सही है मम्मी,इस उपन्यास
पर कमलेश नाम छपा
है।मगर
तुम्हें मालूम होना चाहिए कि बाजार में बिकने वाले सभी उपन्यासों पर छपे नामों के लेखक को
ढूढ़ने चलोगी तो बहुत कम ही मिलेंगे।क्यों कि असली लेखक कोई और होता है।प्रकाशकों
के पास विधा,शैली
और स्तर के अनुसार कुछ छद्म नामों के ठप्पे होते हैं।नवोदित,गरजमन्द,अर्थसंकट-ग्रस्त बेचारे लेखक कौड़ी
के मोल अपनी
मूल्यवान रचनाओं को गवांते हैं।वैसी रचनायें इन काल्पनिक नामों से छपती हैं। अथवा रातों रात लेखक बनने की कामना
वाले लोग भी दौलत से ऐसी रचनाओं को खरीद लेते हैं।यह कमलेश भी वैसा ही लेखक है।अपनी कई रचनायें कमल ने
इसके हाथों बेचा है,किसी न किसी मजबूरी में।आम लेखक की स्थिति
हमेशा दयनीय रही है।कुछ मुट्ठी भर लोग होते हैं जो प्रकाशन में छाए
रहते हैं। मुंशी
प्रेमचन्द्र उपन्यास सम्राट कहे जाते हैं।उनकी रचनायें बेंच कर प्रकाशक मालामाल हो गए,पर मुंशी जी इलाज के वगैर तड़पते
रहे। प्रकाशकों
के
नाज-नखरे ‘पद्मिनि’ नायिकाओं से भी ज्यादा हैं।’- मीना कहती जा रही
थी- ‘
अपनी
पुस्तक की पाण्डुलिपि को लेकर न जाने कितने प्रकाशकों के द्वार पर दस्तक दिया कमल
ने।इसी बीच पिताजी गम्भीर रूप से बीमार हो गए थे।रहा सहा साहस भी खो बैठा था।लाचार
होकर इसने वह पाण्डुलिपि इलाहाबाद के एक मशहूर प्रकाशक के हाथों बेच डाली मात्र
हजार रूपए में।’
‘मात्र एक
हजार में ?’-चटर्जी दम्पति की विस्फारित नजरें एक साथ उठ गयी थी मेरी ओर।मनहूंस सा
मुंह किए मैं उन्हें देखता
रहा।मेरी असहायता का दिग्दर्शन मीना द्वारा अभी जारी था।
‘हाँ मम्मी,स्थिति दिनों दिन बिगड़ती गयी थी।घर
की जमा पूँजी
कुछ
निठल्ले बैठे खाने में,कुछ दवाखाने
में चली गयी।इस पर भी यदि साध पूरा हो जाता तो खुशी होती।पर हुआ विपरीत।पिता चल
बसे असमय में ही।मौत विजयी हुयी।’
‘ठीक कहती
हो मीना,तुम्हारा
सोच बहुत प्रौढ़ है।कुछ ऐसा ही कहा था मृत्युदेव ने उस नाटक में- ‘‘नियंता के
नियम को भंग नहीं
किया
जा सकता।"- खेद पूर्वक
चाचाजी ने कहा था।
‘....पिछले जून
की ही घटना है-विधवा माँ और छोटी बहन का वैशाखी बनना पड़ा कमल को जो खुद ही पगहीन सा
है।’-मीना
कहे
जा रही थी मेरा जीवनवृत्त।
‘हा दैव! तू
कितना अन्यायी है!’- लम्बी उच्छ्वास सहित चाची ने कहा।
....और फिर एक एक
कर अपनी सारी रचनाओं को कौड़ी का तीन बना गया-बिगत कुछ माह में ही।उदर गुहा में
सारी कला
समाहित
हो गयी।’- कहती हुयी मीना की आँखें डबडबा गयी थी।
‘अरे,इसका तो एक बड़ा भाई भी है न?अभी हाल
में ही दो
माह
पूर्व जिसका द्विरागमन हुआ है?’-चाचा ने जिज्ञासा व्यक्त की।
वे चचेरे भाई हैं मेरे।इन्हीं
चाचा
के लड़के,जिनके साथ
अभी यहाँ रह रहा हूँ। --मैंने कहा था।
‘वह भी तो
पिता की मृत्यु के बाद कन्नी कटा गए।पारिवारिक अशान्ति इतनी गहरा गयी कि अब इसे
उनके साथ यहाँ रहना भी दूभर हो गया है।’- मीना मेरी वर्तमान स्थिति स्पष्ट की थी।
‘तो फिर
कहाँ रहने को सोच रहे हो बेटे?’-चाची ने बड़े स्नेह से पूछा,जिसके जवाब में मैंने कहा कि यहीं
हाजी
मुहम्मद विल्डिंग में मेरे मामा रहते हैं।उन्हीं
के
साथ रहने को सोच रहा हूँ।वह वसन्त जो साथ में पढ़ता है हमलोग के,मेरा ममेरा भाई है।
‘तो फिर ऐसा
क्यों नहीं करते,चाचा के यहाँ रहने में कठिनाई है जब,तब यहीं
आ
जाओ,मेरे
यहाँ।यहीं रहो।क्या हर्ज है इसमें?समझूँगी-
मीना और कमल हमारी ही दो आँखें हैं।’-
बड़े
ही उत्साह
से मेरे माथे पर हाथ फेरती हुयी चाची ने कहा था।
‘वाह मम्मी!
कितनी दयालु हो तुम।’-कहती हुयी मीना लपक कर लिपट पड़ी माँ से।
‘हीरे का
मोल जौहरी ही जान सकता है मीनू ! औरों के लिए तो बस चमकदार पत्थर भर है।कमल गुदड़ी
में छिपा लाल है।बदली
में
छिपा सूरज है।अब यह मेरे आंगन में चमकेगा।’- हर्षित होकर कहा
चाचाजी ने।कृतज्ञता से नतमस्तक हो गया था मैं उनके चरणों में।लपक कर सीने से लगाते हुए पुनः कहा था
उन्होंने- ‘मैं तुमसे मिलने के लिए
बहुत दिनों से उत्सुक था।कई बार मीनू की माँ ने भी कहा।मीना हमेशा कुछ-कुछ बताते
रहती है तुम्हारे बारे में।इसने ही कहा था एक दिन कि इसका एक क्लासमेट है-कमल भट्ट,जो बड़ा ही प्रतिभाशाली है।अभी कुछ
साल पहले ही नामांकन हुआ है- स्कूल में,और पूरे शिक्षक समुदाय पर छा गया है अपनी प्रतिभा की चमक से।खेल-कूद से लेकर पढ़ाई-लिखाई,नाटक,संगीत,कला हर क्षेत्र में विद्यालय में उसी
का नाम उजागर है.....।’
चाचाजी के मुंह
से अपनी प्रशंसा सुन कर सिमटा जा हरा था मैं अपने आप में ही।वे अभी कहे ही जारहे थे।
......विद्यालय
निरीक्षक हूँ न मैं।विद्यार्थी का निरीक्षण न किया तो मेरा कर्तव्य अधूरा ही रह
जाएगा।अब तुम्हारा कर्तव्य है कमल कि तुम मेरे इस अपूरित कर्तव्य को पूरा करने में
मेरी मदद करो,चुस्ती और
ईमानदारी के साथ; फिर देखना चमत्कार,दयावान प्रभु के दरवार का -जहाँ सिर्फ न्याय ही न्याय है।देर
जरूर है,पर वहाँ
अन्धेर नहीं।मैं
समझता
हूँ - मेरे परख और प्रयास
के मरूत से अब
तक रहा मेघाछन्न आकाश,अब आगे स्वच्छ हो जायगा; और प्रतिभा का सूरज
पूर्ण प्रकाश विखेरने में सक्षम हो जाएगा।’
चाचाजी का
दार्शनिक प्रवचन पूर्णतया मेरी समझ में न आया।
क्या है इनका अधूरा कर्तव्य,और क्या है मेरा भावी कर्तव्य? हाँ,सिर्फ इतना ही समझ सका कि अब मेरी चाची की
दुखती रग को आराम
और
शान्ति मिल जाएगी।उनके सर पर पड़ा मेरे परिपालन का बोझ अब किसी के गले का हार बन जाएगा।
किन्तु मैं कैसे उबर पाऊँगा इस
एहसान के बोझ से?
क्या
चुका पाऊँगा मैं वह ऋण किसी जमाने में
भी,जिसका ‘एलॉटमेंट ’ आज चाचाजी ने कर
दिया है मेरे लिए?
शायद
नहीं...कभी नहीं। और आखों के सामने उभर आता है एक और दृश्य -
पिता का
पार्थिव शरीर घर के आँगन में पड़ा है...कफन में लिपटे शरीर पर चिघ्घाड़ मार कर माँ
लोट रही है...अन्तिम दर्शन को आयी मुहल्ले की चाची,बुआ,दीदी,दादी आदि सबके सब उसे अपनी नम आँखें
पोंछते हुए,सान्त्वना
दे रहे हैं, पर मेरी आँखों का सैलाब सूख चुका है...आँखें फटी फटी
सी जान पड़ती थी...बार-बार बेहोशी आ रही थी....भोला चुटकी में नौशादर-चूना लेकर मेरे
नथुनों
में सुंघा कर मुझे होश में लाने का प्रयास कर रहा
था....बीच-बीच में जब भी होश आता,मस्तिष्क कामयाब होता तो चाची का उच्चस्वर कानों से टकराता -
‘गए, पर सब गंवा कर...इलाज के बहाने अस्पताल में
पड़े दूध-मलाई चाभते रहे...जो कुछ भी था दो-चार बीघा खानदानी धरोहर,सो भी सब ताप गए...अब कफन को भी रोना
है...।’
चाचा समझा रहे
थे- ‘अरे
भाग्यवान! तुझे यह सब कहने के लिए क्या यही मौका मिला है? करती रहना ना
हिसाब-किताब श्राद्ध
के
बाद...अभी जो करना है,सो
करो...लोग क्या कहेंगे?’
चाचा को लोगों के
कहने की चिन्ता हो रही थी।नाजायज या जायज पर विचार उन्हें फिजूल सा लगा।चाचा के चमचे-बेलचे भी जो
वहाँ उपस्थित थे,किसी ने
कुछ नहीं कहा।भोला के बापू यदि न आए होते समय
पर तो वापू की अर्थी भी उठने न देती चाची, पहले अपना हिसाब और हिस्से का बंटवारा करा लेती।
खैर उस दिन तो नहीं,पर
श्राद्ध के दो दिन बाद ही निपटारा कर दिया तथाकथित पंचपरमेश्वरों ने।बचा-खुचा सारा
उनके हिस्से गया,खाली ट्रंक
और फूस की झोपड़ी मेरे हिस्से आया।पुस्तैनी मकान में एक कोना भी न मिला।पंचों ने
जानकारी दी कि वह तो दादाजी ही ‘रेहन’ रख चुके थे,वह भी मेरे पिताजी को पढ़ाने के लिए,और
रेहन छुडा़या चाची ने अपना जेवर बेंच कर।उचित तो है कि वाप की पढ़ाई का कर्जा अब
बेटे से वसूल किया जाए,खैर इसे माफ कर दिया ‘नापाक
दयावान’पंचों ने।किन्तु उस मकान में हिस्से का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं
होता।
‘वाह! क्या
न्याय किया सत्य हरिश्चन्द्र ने!, चाचा-चाची
दोनों ने एक साथ टिप्पणी की थी- ‘ठीक ही कहा
गया है-उगते सूरज को
ही
नमन किया जाता है.....।
दीवार घड़ी ने टऽन्ऽ कर शोर मचाया,और सबका ध्यान उस ओर चला गया। ‘अरे! छः बज
गये? आज सिर्फ
चाय पर ही रहने का विचार है क्या?’- कहा चाचाजी ने,और इसके साथ ही हमलोगों की लघु गोष्ठी
बरखास्त हो गयी।
मुझे गुमशुम सा
बैठा देख मीना ने झकझोरा- ‘चलो उठो, मुंह- हाथ धोओ।खोए
कहाँ हो?’- किन्तु मैं निरूत्तर मौन बैठा
रहा।
मीना ने बिहँस कर
कहा- ‘जानते हो
एक बात, पापा का कोई भी निर्णय सर्वोच्च न्यायालय का
फैसला जैसा होता है।जिरह-बहस की अब कोई गुंजायश नहीं
है।चलो
उठो।तौलिया लपेटो,नहाओ,खाओ,और जाओ- अपने चाचा
के डेरे से अपना सामान उठा ले आओ। आज से यह कमरा तुम्हारा, घर तुम्हारा।कहते थे न तुम -‘क्या यह विद्यार्थी का कमरा है,अभिनेत्रियों जैसा?अब ऐसा न कह
सकोगे। क्यों कि अब यह एक कलाकार का कमरा होगा,एक होनहार का..एक प्रगतिशील विचारक
का...एक कर्तव्यनिष्ट साधक का कमरा।’- कहती हुयी मीना आत्मविभोर हो गयी थी।चटर्जी दम्पति भी न
जाने किस कल्पना लोक में विचरण करने लगे थे।उनका ध्यान तो तब भंग हुआ,जब मीना ने शोर मचाया- ‘मम्मी...मम्मी!
मुझे जोरों की भूख लगी है।’
उसी दिन दोपहर
बाद पहुँचा था कालीघाट,चाचा के
डेरे पर,पूर्व दिन
प्रातः का निकला,कोई छत्तीश
घंटों के बाद।देख कर चाचा तो आदतन मौन रहे;पर चाची की क्रोधाग्नि पहुँचते के साथ
ही झुलसाने
लगी थी।
‘.........चले आ रहे
हैं लाटसाहब...पता नहीं
कहाँ
रहते हैं...परीक्षा सर पर है,और चल रही है यहाँ चकल्लसबाजी...लगता
है लग गयी हवा कलकत्ते की...फेल होंगे तो माँ कहेगी- सारा दिन काम में लगाए रही होगी मेरे लाल को...और यहाँ लाल
हैं कि खानदान
की प्रतिष्ठा
काला
करने पर तुले हैं....।’
चाचा उन्हें
समझाने के लहजे में बोले- ‘क्या यूंही
बकते रहती
हो
गीता की माँ! जानती ही हो कि कल प्रोग्राम था स्कूल में।रात में वहीं
रह
गया होगा।वसन्त भी तो वही था।उसके पापा से
भेंट हुई थी आज।कह रहे थे- रात में वसन्त आया नहीं।‘
‘वसन्त का
साथ ही तो इसे बिगाड़े जा रहा है।वह तो बड़े बाप का बेटा है।एक छोड़ चार साल बैठा
रह सकता है एक ही क्लास में।पर इन जनाब का तो जनाजा ही निकल जायगा।एक बार फेल हुए कहीं तो सीधे वापस भिजवा
दूंगी खाली टोकरी की तरह।’
चाची दीये की तरह
भभक रही थी।क्रोध में कभी बाहर,कभी भीतर यूंही आ जा रही थी।
‘क्यों इतना
नाराज हो रही हो चाची?कहते-कहते तो पिताजी का जनाजा निकाल दी,अब मेरा भी निकाल दोगी तो उन
बेसहारों का क्या होगा,जिनका
सहारा मैं
ही
हूँ सिर्फ? घबराओ नहीं,फेल
होकर घर जाने से पहले ही मैं चला जा रहा
हूँ यहाँ से।दो रोटी भर का ही तो एहसान है,भगवान करे मैं इस ऋण को भी जल्दी
ही चुकता कर सकूँ ।सारा खर्च अब तक तो मामा चलाते ही रहे हैं.थोड़ा और बोझ सही।’- कहता हुआ मैं भीतर कमरे की ओर
चला गया था,अपनी लघु
गृहस्थी -कुछ किताब कॉपियाँ,एक छोटा सा सूटकेस और जीर्ण-शीर्ण विस्तर समेटने।
चाची की आवाज अभी
भी भोंपू जैसे बज कर,कानों में
गरम सीसे सी
पड़ रही थी- ‘
बड़े
बने हैं,मामा के
दुलारे...जायें वहाँ तो
चार
दिनों में ही तारे नजर आ जाये।मैं क्या नहीं जानती वसन्त की माँ को कि कितनी रणचंडी
है...गऊ जैसे बेटे-बहु को घर से निकाल दी,और शरण देगी इनको....?’
‘तो फिर कहीं
फुटपाथ
पर ही डेरा डाल लूँगा,या किसी
सेठ-साहुकार का
तलवा सहलाऊँगा।जैसे भी हो पढ़ाई तो पूरी करनी ही है।’- - मैंने अपना सामान समेटते हुए कहा था।
‘आपने ही
इसे सिर चढ़ा रखा है...मैं
कहा
करती थी- सांप के पोये को दूध पिलाना अच्छा नहीं...जरा सी बात पर कर्ज और एहसान का
तनाजा दे रहा है...अभी तो दूध के दांत भी नहीं टूटे हैं,और...।’- चाची का वाक्प्रहार
चाचा पर था,जो बाहर
बरामदे में बैठे झूठी आँखें गड़ाए हुए थे अखवार पर।
नजरें ऊपर उठाते
हुए बोले-
‘आज तुम्हें
क्या हो गया है गीता
की
माँ? कितनी बार कहा.जरा सोच
समझ कर बोला करो।देखो तो कितना दुःखी हो गया बेचारा,कह रहा है- फुटपाथ पर रह लेगा पर यहाँ नहीं।मेरी प्रतिष्ठा का तो
तुम्हें जरा भी ध्यान नहीं।लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे -बेचारे पितृविहीन बच्चे को....।’
‘तो चाटते
रहो अपनी प्रतिष्ठा को लेकर,मुझे पहुँचा दो मैके।’-चाची ने नारियों वाला ‘असली
ब्रह्मास्त्र’ भी प्रयोग
कर ही दिया।
मैं अपना सामान लिए बाहर आया।चाचाजी का चरण-स्पर्श
करते हुए बोला-
क्षमा करेंगे चाचाजी.यदि कोई उदण्डता हो गयी हो।पिताजी कहा करते थे कि जहाँ तक हो
सके किसी को कष्ट नहीं देना चाहिए अपने
स्वार्थ में।मेरी वजह से चाची को परेशानी हो रही है, फिर उचित नहीं
है
यहाँ रहना।’
धर्मसंकट में
पड़े चाचाजी एक शब्द भी नहीं बोल सके थे। बोलते क्या? स्त्रैण पुरुषों में विवेक
बचा ही कहाँ रह जाता है? यदि होता तो उस दिन पंचों की क्या मजाल थी,जो अनैतिक विभाजन करके आपस में ही एक
दूसरे की पीठ थपथपा रहे थे।
चाची की भनभनाहट अभी भी कानों से टकरा रही थी,
जो पाले गए भतुये की
तुलना
भर्तार से कर रही थी।उनका प्रलाप अभी लम्बा खिंचेगा,यह निश्चित है।क्यों कि ‘बैरोमीटर’जल्दी
बैलेंस नहीं होता उनका।
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बगल में विस्तर,एक हाथ में सूटकेस,और दूसरे में थैला लिए चल पड़ा था मैं पटेल कॉटन कम्पनी के
कम्पांउण्ड से बाहर,पैदल ही
अपने गन्तव्य की ओर,क्यों कि
जेब में तांगा-टैक्सी का किराया कहाँ था;और ट्राम में इतने सामान का गुजारा कहाँ था।
हरिशन रोड स्थित
राजपूत ब्रदर्श रेस्टुरेन्ट के पास से गुजर रहा था कि पीछे से आती हुयी गाड़ी के
कर्कश हॉर्न से चौंक कर बगल हट गया।गाड़ी आकर खड़ी हो गयी ठीक बगल में।ड्राइविंग साइड का गेट खोल, बाहर निकल,करीब आकर मीना ने कहा -‘यह क्या
खानाबदोश सा बाना बना रखे हो कमल! इतना सारा
समान,और उठाए चले आ रहे हो सर पर। कोई सवारी नहीं
मिली?’
कुछ झेंपता हुआ
सा मैंने कहा था
- जीवन के बोझ से कहीं
ज्यादा
भारी बोझ नहीं है मीनू।
‘फिर लगे
अपना दर्शन बघारने? कितनी बार कहा,यह सब अंट-संट न सोचा करो।’- कहती हुयी मीना
मेरे हाथ से विस्तर ले,गाड़ी की डिक्की खोल अन्दर रख दी।झोला और
सूटकेस मैं खुद ही रख
दिया।
सामान गाड़ी में
रख कर मीना ने कहा-‘आओ पहले
कुछ लेलिया जाए यहाँ।तुम जानते ही हो कि राजपूत ब्रदर्श की कचौरियाँ मेरी कमजोरी हैं।’
अन्दर जाकर हमलोग
एक केविन में बैठ गए।बैठने के साथ ही मीना ने सवाल किया- ‘सच बताओ कमल! पैसे
नहीं थे पास में न,इसी वजह से पैदल जा रहे थे? मेरी इच्छा उसी
समय थी,साथ चल कर
तुम्हारा सामान लिवा लाने की,किन्तु तुम्हारी चाची....।’
तब तक बैरा दो
प्लेटों में पहाड़ सा एक-एक कचौड़ी सब्जी और चटनी के साथ लाकर रख दिया मेज पर।
‘और क्या
लाऊँ मेम साऽब?’-
बैरे
के पूछने पर मीना ने मेरी ओर देखा,मगर मेरे विचार की प्रतीक्षा किए बगैर ही आदेश दे दी- ‘छेना पायस।’
मेरी अँगुली पर
दस्तक सी देती हुयी बोली- ‘क्यों-मेरी बात का जवाब नहीं
दिये?’
मैं उसे मौन,निहारता रहा।आखिर जवाब क्या देता? क्या
सफाई था,रंगे हाथ पकड़े गए मुजरिम के पास?
मुझे मौन पाकर वह
कहने लगी-
‘तुम्हारे
दिल की हर धड़कनों
का
‘कार्डियोग्राफ’ है मेरे पास कमलभट्ट!
तुम्हारे मन की प्रत्येक भावनाओं की तस्वीर है मेरे दिल के कनवैस पर।तुम चाह कर भी अपने मनोंभाव छिपा नहीं सकते।विगत
बर्षों के तुम्हारे सम्पर्क ने मुझे बहुत कुछ अनुभव कराया है।बहुत भोले हो तुम।यह भोलापन ही खाये
जा रहा है तुम्हें।तुम ज्योतिषी हो,पर सिर्फ हाथ की रेखाएँ ही पढ़ना जानते हो;किन्तु मैं तुम्हारे चेहरे की रेखाओं को पढ़ सकती हूँ ,जो दूरदर्शन के पर्दे की तरह
तुम्हारे विचारों के हर छवि को मेरी आँखों के माध्यम से मेरे हृदय और मस्तिष्क तक अनवरत्
पहुँचाते रहती है।’
मीना अभी शायद
कुछ और कहती जाती भाउकता के वेग में,कि बैरा पुनः केविन का पर्दा सरका कर अन्दर आ.दो प्लेटों में छेना पायस रख गया।
मेरी ओर एक प्लेट
सरकाते हुए बोली-‘लो,पहले खाओ इसे।मेरी बातों का बुरा मत
मानना।वास्तव में तूने आज जो गठरी उठाई है अपने कंधे पर,पैसे के अभाव में,उसकी बोझ का घट्ठा पड़ गया है मेरे दिल पर।विधाता के दरबार में
भी बटवारा-
लगता
है अनैतिक
ढंग
से ही हुआ है।मेरे पास इतने पैसे हैं कि खर्च करने का मद
सोचती हूँ, पर मिलता नहीं,अब
क्या मोतियों को चावल की तरह खाऊँ? और एक तुम हो जो दो पैसे के अभाव में कुलियों
की तरह बोझ ढोते चले आ रहे थे।’
जरा ठहर कर फिर
बोली- ‘
सच
में नाराज हो गए क्या?’
‘नहीं
मीनू!- मैंने कहा था,और वह मुस्कुराती हुयी,छेनापायस का एक टुकड़ा अपने मुंह में डाल,दूसरा मेरी ओर बढ़ायी- ‘तो फिर खाओ।’
मेरी स्मृतियों
में घूम गया-
रात्रिभोज
का वह दृश्य,जो अनचाहे
ही मछली
खिलाने का जिद्द करती मीना के कपोलों को छुला गया था- मेरे होठों से,और सिहर उठा एक बार फिर किसी अज्ञात
अनुभूति
से।सच
में मुझे क्या होता जा रहा है, इधर दो-चार दिनों से?
विगत दो-ढाई बर्षों
से परिचय हुआ है मीना से,जो
दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है,घटने का नाम नहीं जरा भी।परन्तु पहले तो कभी ऐसा अनुभव नहीं
होता
था।अब ऐसा क्यों हो रहा है -समझ
नहीं आता।क्या औरों को भी ऐसा ही हुआ करता है?
फिर एक के बाद एक कई छवियाँ उभर आयीं-
स्मृति पट पर- अर्द्ध निर्वस्त्र भाभी की जांघें,भैया का जोरदार चुम्बन,वसन्त की बेतुकी बातें,शादी की बात पर शक्ति की हथेली पर
उभर आयी पसीने की बूंदें,सुर्ख हो
गए कपोल,सावित्री
की गोद में पड़ा सत्यवान का शरीर,टॉमस की भूरी आँखों में किसी अज्ञात आमन्त्रण की छाया....टॉमस
एक लड़की...शक्ति एक लड़की...मीना एक लड़की...।
बदन में कुछ
कपकपी सी महसूस होने लगी,साथ ही
स्पर्श का
एहसास
हुआ।
‘किस गहन
चिन्तन में हैं
ज्योतिषी
जी?’- मीना, प्लेट पर चम्मच से जलतरंग सी बजायी।
नींद से मानों जाग उठा।खमोश देख मीना कहने लगी-‘चिन्तन छोड़ो,नास्ता करो।पापा प्रतीक्षा कर रहे
होंगे।उन्हें खिदिरपुर जाना है।’
मीना के हाथ से
मिठाई का टुकड़ा लेकर खाते हुए मैंने कहा- अनावश्यक एहसान से दब रहा हूँ - यही सोच रहा हूँ।
‘एहसान कैसा,किस बात का? यह तो इनसान का
इनसान के लिए फर्ज हैं।तुम्हारे पास प्रतिभा है,मेरे पास पैसा,किन्तु क्या इस तुच्छ दौलत से
प्रतिभा पायी जा सकती है? नहीं,कदापि नहीं। यह तो ईश्वरीय प्रसाद है।’ मीना ने मेरी बात
का खण्डन किया।
जलपान समाप्त कर
हमलोग बाहर आए,गाड़ी के
पास।मैं पिछला गेट
खोलने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि टोक दिया उसने- ‘उधर क्यों,इधर बैठो।’-
और खुद आगे बैठ गयी।
एक बार उसके
मासूम मुखड़े को देखा,जिसमें
स्नेह झलक
रहा
था माँ-बहन जैसा,साथ ही
आदेश भी था-अभिभावक की तरह।उसके आदेशानुसार मैं जा बैठा अगले सीट
पर,उसके बगल
में ही।
मेरे बैठते के साथ
ही कार का एक्सीलेटर कराह उठा,उसके कोमल पांव के दबाव से।सड़कों की भीड़ को चीरती गाड़ी हवा से बातें करने लगी।
इतनी भीड़ में ये
रफ्तार? धीरे क्यों नहीं चलाती?- -मेरे टोकने
पर स्पीड थोड़ा और बढ़ा दी।
‘चिन्तन की
भीड़ में तुम्हारे विचारों की गति से भी क्या तेज रफ्तार है मेरी गाड़ी की?’- मीना ने कहा था
अपना सर झटक कर,और रफ्तार
कुछ कम करती हुयी बायीं ओर मोड़ दी गाड़ी
चाइना बाजार की
ओर।
इधर कहाँ जा रही
हो- पूछना चाहा था मैंने कि गाड़ी खड़ी हो गयी कपड़े की एक दुकान के सामने।
नीचे उतरते हुए बोली-‘आओ न इधर,कुछ जरूरी कपड़े लेने हैं।’-कपड़े के लट्ठों की
ओर अंगुली का इशारा करती हुई बोली-‘मौसी के लड़के को देने के लिए मम्मी ने कहा
है।दो पैन्ट-शर्ट सेट पसन्द करो न।’
कपड़े के बाद का
पड़ाव था-जूते की दुकान। ‘आओ, जूते-चप्पल भी ले ही लूँ।’
बिना नाप के ही,कपड़े की तरह?-मैंने कहा।
‘साइज तो
तुम्हारे पैर का ही चलेगा।’- कहती हुयी मेरा हाथ खीचती हुई अन्दर लिए चली गयी।
दुकान में
काउण्टर पर बैठी जापानी षोडशी हमलोगों को देख कर मुस्कुराती हुयी अभिवादन की- ‘आझ एधर को क्यूँ कर
आना हो गया मेना?’- फिर मेरी ओर
मुखातिब हुयी-‘क्यूँ कोमल!
टोम केढर को रहता आजकल?’
यह थी हमलोगों की
पुरानी क्लासफेलो टामस।इधर एक साल पहले चली गयी नाम कटा कर कॉन्वेंट में।एक समय था,जब मीना से परिचय भी न था।स्कूल में
आने के बाद पहला परिचय इसीसे हुआ था,और फिर बाहर में भी मिलने-जुलने का सिलसिला शुरू हो गया था।टामस
को थोड़ा-बहुत हिन्दी सिखाने का श्रेय मुझे ही है।
पिता भारतीय,माँ जापानी।इस इण्डोजापानी किशोरी का
मेरे प्रति अटूट
आकर्षण
रहा लम्बे समय तक।किन्तु परिचय की प्रौढ़ता और थोड़ी उन्मुक्त उडण्डता मुझे कुछ जँची नहीं।मीना
ने ही कहा था,मुझसे एक
बार- ‘जानते हो
कमल! शी लव यू।’ मगर यह कैसा ‘लव’ है,जिसकी परिभाषा और
परिसीमा से भी हम अनभिज्ञ हैं?
उस समय दुकान के
अन्दर बैठती हुयी मीना ने कहा था- ‘हाँ, बहुत दिन हो गए थे तुमसे मुलाकात नहीं
हो
पायी थी। लगता है, आजकल तुम ज्यादा
समय दुकान पर ही देती हो? चलो इसी बहाने तुमसे भेंट भी हो गयी। हाँ, एक बढि़या सा जूता दिखलाओ।’- हाथ का इशारा मेरी
ओर था।
‘एक क्या
देखेगा,बहोत देखो।’- कहती हुयी टॉमस एक
से एक बेशकीमती
जूतों का अम्बार लगा दी थी;फिर उस ढेर के बीच में स्वयं बैठ कर कभी मेरा कभी मीना का
चेहरा निहारने लगी थी। मानों सोच रही हो- उसकी निजी सम्पत्ति का अतिक्रमण कैसे हो
गया।
मीना ने कहा था- ‘देखो न कमल,एक जूता जो अच्छा हो,पहन कर।’
मेरे कुछ कहने से
पूर्व ही स्वामी भक्त सेविका सी झुक कर बैठ गयी थी - मेरे पैरों के पास ही वह विरहिणी
और एक जूता उठा
मेरे
पैरों में पहना कर खुद मचल उठी थी बच्चों जैसी- ‘ब्यूटीफुल...वेरी
ब्यूटीफुल।’
बेंच पर बैठी
मीना ने पूछा था,उसकी
कीमत।पर मुंह बिचका कर टॉमस ने कहा था- ‘
प्राइस
ही देना है तो बहोत दोकान है-कोलकाता में।’
किन्तु उसके
ना-नुकुर के बाद भी मीना सौ का एक नोट उसकी ओर फेंककर उठ खड़ी हुयी थी।टॉमस का
गुलाबी मुखड़ा ओले पड़े आलू के पत्ते जैसा हो गया था।
बड़े मायूसी से
कहा था उसने-‘क्या मुझको
इतना भी राइट नहीं है? शू तो मैंने कमल को दिया है, टाका तुम काहे को देता?’
किन्तु उसकी
बातों को अनसुनी कर मीना आगे बढ़ गयी थी।दुकान की सीढि़याँ उतरती हुयी भुनभुनायी- ‘हुँऽह,ऐसी वैसी एहसान रखने वाली नहीं
है
मीना।
गाड़ी में बैठते
हुए मैंने कहा था-
स्वयं एक कंकड़ी भी बरदास्त नहीं,और दूसरे पर हिमालय...।
मीना थोड़ा
गम्भीर हो गयी थी। गाड़ी स्टार्ट करते समय.मेरी ओर उठी उसकी तीखी निगाहें बतला रही थी
कि यह कह कर मैंने उसके किसी कोमल मर्म को प्रताडि़त कर
दिया है।संदेह तो मुझे कपड़ा खरीदते समय ही हो गया था।जूते के बाद तो स्पष्ट ही हो
गया,यह सब मेरे
लिए ही है-
एहसानों
का गट्ठर।
इन्हीं विचारों
में था कि गाड़ी सडेन ब्रेक पाकर हिचकोले खाती खड़ी हो गयी- ‘नटराज टेलरिंग हाउस’ के सामने।
‘लगता है, तुम्हारी मौसी के सपूत का सब कुछ
मेरे ही साइज का है...।’- कहते हुए मैं भी साथ हो लिया था।
गम्भीर मुद्रा
में मीना ने कहा था- ‘
तुम
जैसा समझो।’-और
होठों
पर जबरन चली आयी मुस्कुराहट को भीतर ही दबाने की चेष्टा की थी,क्यों कि उसकी चालाकी का बैलून फूट
चुका था।
नाप देकर बाहर
आते हुए मैंने पूछा- हो गयी मार्केटिंग या कुछ और बाकी है?
‘तुम्हें उब
न हो रही हो तो एकाध आइटम और ले लेती।’- कहती हुयी जोरों से हँस दी।अनजाने में ही
हॉर्न दब कर चीख पड़ा, उसके बनावटी
गम्भीरता के विखराव पर खिल्ली उड़ाते हुए।फलतः हम दोनों खिलखिला उठे।कुछ देर के
लिए हँसी में ऐसा खोए कि गाड़ी ‘मीना निवास’ से थोड़ा आगे निकल
गयी।
गाड़ी बैक कर
अन्दर घुसे।पापा सीढि़यों पर ही मिल गए।मिलते ही टोका उन्होंने- ‘तुमने बहुत देर लगा
दी मीना,
हमें
पुरानी गाड़ी से ही खिदिरपुर जाना पड़ा।
‘ओऽ थैंक्स पापा! तो आप लौट भी आए? दरअसल उधर
से आता हुआ
कमल मिल गया रास्ते में ही।बोला- कुछ मार्केटिंग करनी है।इसी में देर हो गयी।’- मीना के कहने पर
चाचाजी ने मेरी ओर देखते हुए कहा- ‘क्या-क्या खरीदे बेटे?’
मैं शायद कुछ उटपटांग
कह जाता,यह सोच
मीना ने जल्दी से
पहल
किया- बस एक पैन्ट-शर्ट
पीस और जूते।’
‘क्या
जल्दबाजी थी इसके लिए? यहाँ आने पर यह सब नहीं
हो
सकता था।फिजूल का अपना पैसा बरबाद किए।’- मेरी खरीददारी पर अफसोस जाहिर किया उन्होंने।
मैं कुछ कहना ही चाहा
कि फिर मेरे बदले वही बोल पड़ी- ‘मैंने बहुत मना किया।पैसा भी दे रही थी। परन्तु
मेरे पैसे से खरीदने
से
साफ इनकार कर गया।’
मुझे खीझ हो रही
थी,मीना के
सफेद झूठ पर;किन्तु कुछ कह न सका।
तीनों ऊपर आ गए
बैठक में।चाची काफी देर से इन्तजार कर रही थी।नजर पड़ते ही बोली-‘कब से आशा देख रही
हूँ, चलो नास्ता करो।’
‘नास्ता की
तो बात ही मत करो मम्मी, हो सकता है रात
खाना भी न खाऊँ। पेट सहलाती
मीना ने कहा,
और धब्ब से सोफे
में
धंस गयी।
हँसती हुयी चाची
बोली- ‘
मतलब
यह कि आज फिर चली है
-राजपूती कचौडि़याँ और छेना पायस? कितनी बार कही- बाजार की चीजें न खाया करो,पर सुनती नहीं।’
रोनी सूरत बना कर
बोली- ‘मम्मी
क्यूँ बोर कर रही हो मुझे?क्या मैं अकेली खायी हूँ सिर्फ.इसने भी तो...।’- हाथ का इशारा मेरी ओर था- ‘
हाँ
चाय जरूर पीऊँगी।’
मुझे याद आयी- सामान
तो नीचे गाड़ी में ही रह गया है।अतः नीचे जाने लगा।मीना भी उठ खड़ी हुयी, ‘तुम बैठो,मैं ले आती हूँ। ’ और मुझसे पहले ही
खटाखट सीढि़याँ उतरने लगी।
थोड़ी देर बाद
एक हाथ में सूटकेस और दूसरे में थैला लिए दरवान रामू ऊपर आया।उसके पीछे मीना
भी आयी।साथ में विस्तर न देख मैंने पूछना ही चाहा कि वह स्वयं बोल उठी- ‘अपना विस्तर तो पीछे डिक्की में ही रखे थे न? पर
है नहीं। ’ किन्तु उसका चेहरा बता रहा था कि विस्तर कहीं
खोया
नहीं है।
‘खैर उसकी
चिन्ता छोड़ो,चलो अपने
रूम में।’
हमदोनों अपने
कमरे में आ गए।रामू सामान लाकर एक ओर रख गया।उसके जाते ही मेरी ओर मुखातिब हुयी-‘क्या जरूरत थी -भानुमति के उस पिटारी को यहाँ लाने की?यहाँ
पलंग और गद्दे पर नींद नहीं आती?’
‘इस अखरोटी
दीवान पर ऊपर से उस चिथड़े जैसे विस्तर को डाल कर सोता,ताकि विस्मृति न हो अपनी वास्तविकता
की।अन्यथा
यहाँ
डर है खो जाने का खुद को दौलत की चकाचौंध में और...।
मीना हँसने लगी
थी।हँस तो मैंभी रहा था,पर दोनों की हँसी में थोड़ा अन्तर था।
महरी चाय लिए
कमरे में प्रवेश की।देखते ही मीना ने पूछा- ‘अच्छा तो तुम आ गयी
वसन्ती?कहाँ चली गयी थी?’
‘ओऽ...ओऽ
बांकुड़ा से मुझे....।’- हकलाती हुयी सी वसन्ती बोल रही थी।शायद शरमा रही हो कहने
में।मीना हँसने लगी-
‘बस...बस
समझ गयी मैं,
तुझे
देखने लड़के वाले आए थे न?’
वसन्ती ने हाँ
में सिर हिलाया,और टेबल पर
ट्रे रख कर उडंछू हो गयी।चाय की चुस्की लेते हुए मैंने पूछा- ‘यह कमरा तो मुझे सौंप
दी,और तुम?’
‘कमरे की
कोई कमी है क्या?
चार
सदस्य,चौदह कमरे। बस ठीक इसके बगल वाले कमरे में अपना डेरा
डाल लूंगी।’
‘तो वही
कमरा क्यों नहीं दे देती मुझे? इसे तूने अपनी पसंद से सजाया है।’- मेरे कहने पर कहा था
मीना ने-
‘इसमें लगा
ही क्या है,फिर उसे भी
सजा लूंगी,
तुम्हारे
पसंद से।यह कहलाता रहेगा
मेरा कमरा,और वह कहलायेगा कमल का कमरा।’
‘किन्तु
मेरे पसंद से सजाए कमरे में तुम रह सकोगी? वहाँ न होंगे ये साजो सामान,न होंगी ये मुस्कुराती तारिकायें....।’
‘कुछ भी हो
अब तो रहना ही है।खुद को तुम सा बनाने की चेष्टा करूंगी,और तुमको अपने जैसा,तब न आयेगा मजा।’- मीना कह ही रही थी कि वसन्ती दौड़ती हुयी आयी
और बोली- ‘दीदी! एक लड़का आया है।कहता है- कमल है यहाँ?
‘कह दो उसे,यह कमल निवास नहीं
है,यह तो...।’
‘नहीं,
मीना,क्या मजाक करती हो,सच में बोल देगी तो?’-मैंने कहा और प्याला वसन्ती को पकड़ाते हुए
उठ खड़ा हुआ।
‘हो क्या
जाएगा,बोल ही
देगी यदि?कोई गलत थोड़े जो कह रही हूँ।’- कहती हुयी मीना भी प्याला वसन्ती को पकड़ा कर उठ
गयी।बाहर बालकॅनी में आकर नीचे झांका तो वसन्त को गेट पर खड़ा पाया।
‘आजाओ वसन्त।’-कहते
हुए नीचे उतरने लगा।मुझे देख कर वसन्त अन्दर आ गया।आते ही बोला- ‘कहाँ उड़ गए थे कपूर की तरह? सारा दिन खाक छानता
रहा तुम्हारी खोज में
यहाँ-वहाँ
की।’
‘तो क्या
खाकों में रहने लगा है कमल आज कल?’- हँस कर मीना बोली।
‘सावित्री
को छोड़ कर भला,सत्यवान
खाकों में क्यों रहने लगा? वह तो मेरी भूल थी जो यहाँ न आकर कहीं और तलाश कर रहा था।’- वसन्त ने चुटकी ली।
‘यमराज के
भय से बेचारा आया तो सही जगह पर,किन्तु खोजी कुत्ते सा यमराज महाशय यहाँ भी आ धमके।’- मीना की बात पर तीनों ही खिलखिला कर हँसने लगे।
‘चलो,ऊपर चला जाए।’-वसन्त का हाथ पकड़ कर
मैं चलने को उद्दत्
हुआ।
ड्राईंग हॉल में चाचा-चाची
बैठे चाय पी रहे थे।वसन्त को देखकर प्रसन्नता पूर्वक बोले- ‘कहो कैसे आना हुआ?’
सोफे पर बैठते
हुए बसन्त ने कहा-
‘रात नाट्य
कार्यक्रम के बाद मैं स्कूल में ही रह
गया था,इसे भेज
दिया डेरे पर।’- हाथ का इशारा मेरी ओर था, ‘किन्तु सुबह डेरा
पहुँचने पर माँ ने कहा
कि
वह तो यहाँ आया ही नहीं।मैं तुरत गया कालीघाट पता लगाने। वहाँ भी इसका कुछ पता नहीं
चला।चाची
ने कुछ स्पष्ट कहा
भी
नहीं। फिर सारा दिन इसी के चक्कर में गुजर गया-इस उस दोस्त के यहाँ पूछ-पाछ
करते।थोड़ी चिन्ता भी होने लगी,क्यों कि रात काफी हो गयी थी,जब निकला था स्कूल से।अभी इधर से गुजर रहा
था पैदल ही,तभी टॉमस
से मुलाकात हो गयी।उसी के कहने पर यहाँ चला आ रहा हूँ।’
एक ही सांस में
पूरे दिन की दास्तान सुना गया था वसन्त। फिर कुछ देर इधर-उधर की बातें होती
रही।चाची ने यमराज की
भूमिका
की सराहना की
और पुनः किसी नाटक के आयोजन की फरमाइश भी की।
वसन्त मेरी ओर
देखते हुए पूछा- ‘कल रात
क्या यहीं आ गए थे? डेरा कब जाओगे? आठ बज रहे हैं।’
उसकी बातों का
जवाब दिया था श्री चटर्जी चाचा ने- ‘
डेरा कहाँ जाना है अब इसे।’- और गत रात से अब तक
की सारी बातें
सुना
डाला था वसन्त को।मेरी चाची के मन्थरा स्वभाव और घरेलू कुचक्रों से पूर्व अवगत था
वसन्त।मेरा कंधा थपकाते हुए बोला - ‘बात जब यहाँ तक
पहुँच गयी थी तो कब का ही छोड़ देना चाहिए था उनका डेरा।चले आते मेरे यहाँ।चाचा से
कहीं अधिक मधुर रिस्ता होता है मामा का।मैं भी अकेला हूँ।एक साथी
मिल जाता तुम्हारे जैसा।’
‘सो तो ठीक
कह रहे हो बेटे,मगर मुझे
भी तो बुढ़ापे का एक
सहारा
चाहिए।बेटी आज है.कल अपने घर
का रास्ता लेगी।’-कहती
हुयी
चाची की आँखें किसी अतीत या भविष्य के दृश्य को देखने में निमग्न हो गयी थी शायद।
‘तो मैं चलता हूँ।बड़ी देर हो गयी है।माँ चिन्तित
होगी।’- कहता हुआ
वसन्त उठ खड़ा हुआ।
‘अरे वसन्ती
चाय तो पिला इसे।’- चाची ने आवाज लगायी ।
‘इसकी अभी
आवश्यकता नहीं।’-कहता हुआ वसन्त चलने को हुआ,तभी वसन्ती ट्रे में चाय और कुछ नमकीन लिए
चली आयी।
‘लो आ गयी,वसन्ती!
चाय पिलाओ वसन्त को।’- कहती हुयी मीना उठ कर दूसरे कमरे की ओर भाग गयी।
‘क्या बात
है,मीना भागी
क्यों?’- मुस्कुराते
हुए चाचा ने कहा।
‘बड़ी शोख
है।कोई बात याद आ गयी होगी।’-कहती हुयी चाची ट्रे वसन्त की ओर सरका दी। मीना की
हँसी का अर्थ शायद
वसन्ती
को लग चुका था,तभी तो झट
ट्रे रख कर,मुस्कुराती,होठों को होठों से दबाती हुयी तेजी से वापस
चली गयी थी,यह कहती
हुयी-‘चूल्हे पर
दूध चढ़ा आयी हूँ।’
‘बड़ी
होशियार है वसन्ती।मेहमान आया देख बिन कहे ही चाय बनाने चली जाती है।किसे कैसा स्वागत
करना है,सब पता है
इसे।’-चाची अपने
भगोड़न वसन्ती की सराहना कर रही थी।
चाय पी कर वसन्त
चल दिया,यह कहते
हुए- ‘कल स्कूल
में भेंट
होगी।क्लास तो है नहीं पर आना जरूर।’
वसन्त के वापस
जाने के बाद मैं
मीना
के कमरे में आ कर उससे पूछा- ‘क्यों भाग
आयी मीना?’
‘वसन्त और
वसन्ती की युगलबन्दी याद आ गयी थी।’- कह कर वह फिर हँसने लगी।बात समझ कर मुझे भी हँसी आ गयी।आये
दिन मीना ऐसी ही तुकबन्दी और चुहलबाजी करती रहती है।
फिर काफी देर तक
हमदोनों मिल कर कमरा सजाते संवारते रहे थे।
अगले दिन प्रातः
छः बजे ही मीना मेरे कमरे में आयी।
‘अरे तुम
अभी तक सोये हुए ही हो?’-कहती हुयी मेरे वदन पर से चादर खींच कर अलग कर दी।मैं हड़बड़ा कर आँखें मलता उठ बैठा।लगा कि बहुत देर तक सोया रह
गया होऊँ,किन्तु
घड़ी पर
ध्यान
गया तो आश्वस्त हुआ। ‘अभी तो सिर्फ छः ही बजे हैं।’ कह कर चादर पुनः
तानना चाहा था।
‘तो क्या
जगने का समय नहीं हुआ है अभी?’- मीना के स्वर में
मासूमियत थी साथ ही आदेश झलक रहा था।
‘रात
बारह-एक तक तुम्हारा सोने का समय नहीं होता?और छःबजे सुबह
घडि़याल बजाने लगती हो?’-मैंने कहा।
‘कुछ याद भी
है- आज वसन्त
सप्तमी है।कालीबाड़ी चलना नहीं है क्या?’
उसकी बातों पर
मुस्कुरा कर कहा मैंने - वसन्त
सप्तमी ही है
न, कमल सप्तमी तो नहीं?
फिर
क्यों कर हड़बड़ी रहे कमल को? अरे हाँ याद आया,वसन्त को कहा था- सुबह ही मिलने आऊँगा डेरे पर।वह प्रतीक्षा
करता होगा।
‘छोड़ो भी,वसन्त हेमन्त की बात।उठो जल्दी से
नहा-धो कर
तैयार
हो जाओ।’- -कहती हुयी
मेरा हाथ खींच कर बैठा दी और स्वयं चली गयी अपने कमरे की ओर।
करीब आधे घंटे के
बाद मैं नहा-धोआ कर अपने
कमरे में आया तो मीना को वहाँ बिलकुल तैयार बैठे पाया।
सद्यःस्नाता की
उन्मुक्त अलकें पीठ पर लहरा रही थी। रक्त परिधान में लिपटा गेहुँआ गात बड़ा ही
मनोहर लग रहा था।आज उसने साड़ी पहन रखी थी।टेपरेकॉर्डर फुल भौल्यूम में बज रहा था -
‘...पत्नींमनोरमां
देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् ,तारिणीम् दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम्....।’
दरवाजे पर खड़ा,कुछ देर तक निहारता रहा था मैं,उस रूपश्री के
पृष्ठ प्रदेश को ही,जो विस्तर
पर झुकी हुयी,डायरी में
कुछ लिख रही थी।वह लिखती रही थी,मैं
देखता
रहा था –मौन,स्थिर,शान्त,खोया हुआ सा- अतीत और भविष्य की किन्हीं सरणियों
में।
अचानक डायरी बन्द
करती हुयी पीछे पलटी, तो मुझे पास में खड़ा देख शरमा कर लाल हो, अपने आप में ही सिकुड़ती चली गयी।आंचल का
पल्लू ठीक करती हुयी बोली- ‘अरेऽ! तुम
कब से खड़े हो यहाँ? मैं
समझ
रही थी कि अभी बाथरूम में ही सोए हुए हो?’
‘बाथरूम में
क्यों सोने लगा? मैं तो यहाँ तब से खड़ा हूँ ,जब से तुम डायरी उठायी।’- मेरे इस उत्तर से
मीना कुछ अधिक
चौंकी।शायद
उसे मुझसे ऐसा उत्तर मिलने की आशा न थी।
‘तो तुम
देखते रहे कि मैं क्या लिख रही हूँ?’- जरा गम्भीर हो कर
मीना ने पूछा था।
‘देख तो रहा
ही था,पर यह नहीं
कि
तुम क्या लिख रही हो।’-मैंने कहा।
‘मतलब....? तो फिर क्या देख
रहे थे?’- मेरी बात
पर वह चौंकी।
‘घबराओ नहीं, दूर खड़ा था मैं।वैसे
भी मेरी आदत नहीं है,किसी की पर्सनल डायरी देखने-पढ़ने की।’- मैंने उसे आश्वस्त किया।उसने राहत महसूस
की,और डायरी
लिए कीचन की ओर चली गयी।
मैं कपड़े बदलने लगा,क्यों कि अभी तक भींगा तौलिया ही
लपेटे हुए खड़ा था।
कपड़े पहन,खिड़की के पास खड़ा होकर बालों में
कंघी कर रहा था।चाय का प्याला लिए मीना पुनः आयी।
इस बार पृष्ठ के
वजाय मुख मण्डल प्रत्यक्ष था।क्षण भर के लिए
मैं ठिठका रह गया।नजरें
जा लगी थी उसके चेहरे से,जो वगैर
किसी कृत्रिम प्रसाधन के ही तेजोदीप्त था।फिर खुद ही खीझ हो आयी,क्यों देखा करता हूँ- यूँ घूर कर इसे?क्या
सोचेगी?
हाथ में लिए कंघी
को मेज पर रख कर उसके हाथ से प्याला पकड़ते हुए पूछा-‘आज फिर
तुम्हारी वसंती उड़ंछू है क्या,जो खुद चाय लिए आ रही हो?’
‘नहीं,
वह
वरतन धो रही है।जल्दबाजी में चाय खुद ही बनानी पड़ी।’- उसने कहा था।
‘तो कौन सा
पहाड़ ढाह आयी हो?’-चाय की चुस्की लेते हुए मैंने कहा- ‘वाकयी.चाय तो लाजवाब है।’
‘मैं नहीं
तुम
ही तोड़ो पहाड़, चाय पीने में
मामूली श्रम करना
पड़ता
है।जल्दी करो देर हो रही है।नास्ता वहाँ से लौट कर करेगे।’
चाय पीकर हमदोनों
निकल पड़े कालीबाड़ी के लिए।गाड़ी में बैठते के साथ ही मीना भजनों का कैसेट प्ले
कर दी,और फिर
रास्ते भर डूबे रहे भजनों की गूँज में।
मन्दिर के द्वार
पर पहुँच कर कैसेट बन्द कर,पूजा की डोलची लिए नीचे उतरी।
पूजन,हवन,नैवेद्य अर्पण के बाद घृत मिश्रित
कुमकुम का तिलक
लगाया
था मेरे ललाट पर पंडित जी ने,फिर मीना को भी लगाते हुए बोले- ‘चिर सौभाग्यवती भव।’
शर्म से लाल
पड़ती मीना ने तुनक कर कहा- ‘क्या कहते हैं पंडित जी,अभी क्या मेरी शादी हो गयी है?’ और लजाती हुयी पलट
पड़ी थी।
ऊपर सर उठाया.तो पंडित स्वयं ही झेंप गया।उसकी ओर
देखते हुए कहा- ‘कोई बात नहीं
बेटी,विवाहित हो या अविवाहित,चिर सौभाग्य की कामना स्त्री मात्र की होती
है।’
मन्दिर से लौटते
समय मीना थोड़ी गम्भीर बनी रही।सोच तो मैं भी रहा था- अनजाने में पंडित क्या अर्थ लगा
गया।अजीब है लोगों की दृष्टि।नर-नारी का साथ क्या सिर्फ पति-पत्नी का ही होता है ? भाई-बहन या कुछ और भी तो हो
सकता है।मीना मेरी सहपाठिन है।फिर क्यों कह गया पंडित ऐसी बात बेवकूफों जैसी,बेचारी क्या सोचती होगी?
कभी-कभी अनजाने
में ही अनावश्यक बज उठता गाड़ी का हार्न स्पष्ट कर रहा था कि उसका ध्यान कहीं और
है।मौन मीना सोचती ही जा रही थी।एकाएक हल्की सी मुस्कुराहट खेल गयी उसके होंठों
पर।
मैंने पूछ दिया- क्या सोच रही हो मीनू?
‘तुम्हारा
सर।’- चहक कर कहा उसने-
‘खुद हमेशा
कुछ न कुछ
सोचते
रहते हो,तो समझते
हो कि हर कोई सोच ही रहा है।तुम ही बतलाओ न क्या सोच रहे थे?’
‘कुछ सोच नहीं
रही
थी तो मुस्कुरायी क्यों?’--जवाब के
बदले मैंने सवाल ही किया।
फ्रन्टमीरर में
मुझे निहारती हुयी बोली थी-‘तुम्हें देख कर हँसी आ गयी।’
‘मैं क्या
सरकस का जोकर हूँ जो मुझे देख कर हँसी आ रही है तुम्हें?’
‘जोकर से कम
ही कहाँ हो,हर समय
मुंह बनाकर सोचते रहते
हो।बताओ
न क्या सोच रहे थे?’- हवा के झोंके में विखरते अपने केस सम्हालती हुयी फिर पूछा था
मीना ने।
‘पहले तुम
बतलाओ,क्यों कि मैंने पहले प्रश्न किया है।’- अपनी गोटी बैठायी मैंने।
‘वैसे मैं कुछ सोच नहीं
रही
थी।यूँही पंडित की बात पर हँसी आ गयी थी।मूर्ख को उमर की भी पहचान नहीं।’
‘उमर क्या
पहचानता बेचारा,तुम क्या अभी बच्ची हो?’
‘नहीं
बूढ़ी
हो गयी हूँ।बच्ची कहाँ रही।’
‘सोलह की
उम्र होने को आयी,शादी क्या
नहीं हो सकती है इस उम्र में? मेरी भाभी की उम्र तो अभी
पन्द्रह की है सिर्फ।
‘इतनी कम
उम्र में तुमलोग में शादी होती होगी,हमारे यहाँ...।’
‘बूढी होने
पर,क्यों है न
यही बात?’- मैंने बीच में ही टोका।
‘धत् तुम
बड़े वो हो।’- कहती हुयी
गाड़ी खड़ी कर दी-
घर
के बाहर ही
सड़क किनारे।
दोनों एक साथ
नीचे उतरे।सीढि़याँ चढ़ती हुयी उसने कहा- ‘नास्ता करके जल्दी
से तैयार हो जाना चाहिए।आज मूर्ति विसर्जन है न?स्कूल चलना है।’
मैं उसे गौर से देख रहा था,जो अब तक बारह सीढि़याँ चढ़ने
में ही पांच बार आंचल गिरा और उठा चुकी थी।जी में आया,टोक दूँ- इतनी बड़ी हो गयी,साड़ी भी सम्हाल नहीं होती।किन्तु
मेरे कुछ
कहने
से पहले वह खुद ही बोल दी- ‘मुई साड़ी
जो है वदन पर रहना ही नहीं चाहती।बार-बार ठीक करती हूँ और गिर-गिर पड़ती है।कितना
सम्हालूँ?’
ऊपर आकर मैं सीधे अपने कमरे में चला गया।मीना अपने कमरे
में चली गयी।थोड़ी देर बाद पुनः आयी मेरे कमरे में।इस बार परिधान दूसरा ही था- साड़ी का स्थान
पूर्व पोशाक ‘बेलबॉटम’ ले चुका था।
'निरामय'सचमूच ही भाव विभोर कर गया...शानदार प्रस्तुति..अगले भाग की प्रतीक्षा रहेगी
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