निरामयःभाग चार

निरामयःभाग चार 
    वसन्ती नास्ता लाकर टेबल पर रख गयी।उसके जाने के बाद ैंने पूछा- साड़ी क्यों बदल दी? अच्छा तो लग रहा था,विशुद्ध भारतीय पहरावा।
      अलग-अलग प्लेटों के नास्ते को एकत्र करती हुयी बोली- बाप रे! यह छः गज की लम्बी थान लपेटे जिस समय स्कूल पहुचुँगी,लड़के-लड़कियाँ सब हँसती-हँसती लोट जायेंगी।अच्छा तो मुझे भी लगता है साड़ी पहनना,फिर भी सिर्फ मन्दिर जाने के लिए ही इसे इस्तेमाल करती हूँ।’
      तभी तो पंडित ने कहा था...।’ ैं कह ही रहा था कि बीच में ही बोलने लगी- मिल गया न तुम्हें एक बहाना मुझे चिढ़ाने का? छोड़ो पंडत-वंडत की बात,आओ नास्ता करो।’
      सारी कचौडि़याँ तो अपने प्लेट में डाल ली,ैं क्या खाली प्लेट चाटूँ?--हँसते हुए मैंने कहा।
      आज से हमदोनों साथ-साथ खायेंगे।तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं है न इसमें?’ - होठों के साथ-साथ पलकों ने भी सवाल किया।
      यदि तुम्हें आपत्ति नहीं तो मुझे क्यों हो? वैसे भी अपना जूठा तो तुम पहले ही खिला कर रिहर्सल करा ही चुकी हो,अब स्टेज शो भी शुरू ही हो जाए। - मेरी बेवाक टिप्पणी पर पहले तो शर्मायी,उस दिन की बात याद करके,और फिर हठाकर हँस पड़ी।मैं भी उसे साथ दिए वगैर न रह सका।हँसी के पटाखे बड़ी देर तक फूटते रहे कमरे में।
   नास्ता करके हमदोनों पुनः निकल पड़े गाड़ी लेकर।कुछ आगे बढ़ने पर गाड़ी बायें के बजाय दायें मुड़ी तो बरबस ही मेरे मुंह से निकल पड़ा- स्कूल का रास्ता भूल गयी हो क्या आज? इधर कहाँ जा रही हो? वसन्त के डेरे का रास्ता भी तो नहीं है यह।’
      कंधे मटकाती हुयी वह बोली- तुम्हारे साथ रह कर भूलना भी न सीखी तो फिर....।’
      तो क्या मैं भुल्लकड़ हूँ?’- पूछता हुआ मैं सामने लगे शीशे को इस तरह सेट करने लगा,ताकि उसका चेहरा उसमें नजर आने लगे।
      यह क्या कर रहे हो? मुझे छेड़ने से जी न भरा तो बेचारे शीशे को छेड़ने लगे? शीशे पर से मेरा हाथ हटाते हुए बोली।
      यह भी तुम्हें ही छेड़ने का एक जरिया है।’- कह कर मैंने फिर से ठीक कर दिया शीशे को।मीना का भोला मुखड़ा साफ नजर आने लगा अब शीशे में।
      कहीं ैं भी छेड़ने लगूं तुम्हें,तब...?’-अचानक सामने आ गए कुत्ते को देख कर ब्रेक जोरों से चापना पड़ा।जोरदार झटके से मैं आगे झुक कर दाएँ लुढ़क सा गया उसकी ओर।पुनः सम्हल कर बैठते हुए बोला-इसीलिए कहता हूँ कि गाड़ी धीरे चलाया करो।’
      यदि मेरे धीरे चलाने से ये लावारिश कुत्ते सड़कों पर सही तरीके से चलने लग जाएँ तो मैं गाड़ी इतना धीरे चलाने लगूँ.....।’-कहती हुयी एक्सीलेटर लगभग छोड़ दी।मैंने स्पीडोमीटर पर देखा- कांटा पांच से भी नीचे आ गिरा था।फिर खुद ही स्पीड बढ़ा दी,दाहिनी ओर एक शून्य बढ़ गया।मीना के लिए यह नॉर्मल स्पीड है।
      आखिर कहाँ लिए जा रही हो?- मैंने साश्चर्य पूछा था।
      जहन्नुम में। चलोगे न साथ में?’- बायें हाथ से मेरे बगल में गुदगुदी करती हुयी बोली।
      जन्नत हो या जहन्नुम,हमसफर बना हूँ तो जाना ही पड़ेगा।’ -ैंने भी गम्भीर भाव से कहा।
      गाड़ी एक भव्य सिंहद्वार से गुजर कर,विस्तृत लॉन में,शिरीष के पेड़ के नीचे आकर खड़ी हो गयी।सामने ही नजर आया- पर्यटन स्थल- विक्टोरिया मेमोरियल’ का आलिशान भवन।
      हमदोनों गाड़ी से बाहर आए।मीना ने एक खोमचे वाले से अंगूर का पैकेट लिया।टाइम-टावर पर देखती हुयी बोली- अभी तो बहुत समय है।आओ तब तक इधर ही बैठा जाए।’
      चारो ओर हरी-भरी दूब का प्रसस्त कालीन सा बिछा था।लगता था विश्व प्रसिद्ध ओबरा’ का सारा कालीन यहीं आ गया है।ऊपर से शिरीष के मुदु मदमस्त कुसुम हवा के मन्द झोंकों से टप-टप चू से रहे थे।लगता था- सुहाग सेज की हरी चादर पर रजनीगन्धा की टूटी पंखुडि़याँ बिखरी हुयी हैं।तेज झोंके में उड़ कर बगल के गुल-
मोहर से बिछड़ा अरूणाभ कुसुम भी जबरन आ घुसा है रजनीगंधा का सानिध्य ढूढ़ते।मेंहदी की टट्टियों को फूल की क्यारियों का पहरेदार बनाया गया था।वसन्त का मनोहर मौसम मानव से लेकर लता-गुल्मों तक में रस संचार कर गया था। वातावरण बड़ा ही सुहावना लग रहा था।रविवार का दिन होने के कारण आगन्तुकों की
भीड़ थी।चारो ओर रंगीन जोड़ों की जमात लगी थी।
      इधर-उधर देख कर मीना एक प्रसस्त जगह में बैठ गयी,और मुझे भी बैठने का संकेत दी।
     इतनी जल्दबाजी क्या थी यहाँ आने की?अभी लगता है कि घंटे भर बाद ही गेट खुलेगा।- मेरे कहने पर मीना ने अजीब सा मुंह बना कर पूछा- क्यों यहाँ बैठ कर प्रकृति का आनन्द लेना तुझे रास नहीं आता? मेमोरियल तो पचासों दफा घूम चुकी हूँ।’
      अच्छा,तो रविवार की रंगीनी लूटने के विचार से आयी हो?-कहता हुआ बैठ गया उसके समीप ही।बहुत देर तक हमलोग यूँही बैठे गप्प मारते रहे थे।मीना एक अंगूर होठों से दबाते हुए पूछी,
कैसा लग रहा है यह अंगूर?’
      मैंने भी एक अंगूर उठा कर मुंह के हवाले किया,और बोला - बिलकुल अंगूर जैसा ही।’
      और क्या कद्दू जैसा लगता?’- कहती मीना लोट गयी थी उस प्राकृतिक गलीचे पर।बगल में गिरे पड़े गुलमोहर के एक फूल को उठा,मेरे मुंह पर फेंकती हुयी बोली-मेरे कहने का मतलब यह है कि कैसा लगा यह’ अंगूर? मुझे तो इस खोमचे वाले का अंगूर बहुत ही अच्छा लगता है।जब भी इधर आती हूँ ,जरूर लेती हूँ ।
हमेशा यह यहीं बेचा करता है।सारे कलकत्ते में इसके जोड़ का नहीं है।ऐसा लगता है कि पेड़ से तोड़ कर सीधे यहीं चला आता है बेचने के लिए।’
      हाँ,ठीक कहती हो,जरूर अच्छा लगता होगा यह ताजा अंगूर। मेरे गाँव में भी बड़ा सा एक पेड़ है,वरगद के पेड़ जैसा; उसमें सेव-नाशपाती जैसा बड़ा-बड़ा अंगूर फलता है।’- नकली गाम्भीर्य ओढ़े मैंने कहा।
      कहोगे क्यों नहीं फलता ही होगा,बड़े से पेड़ में बड़ा सा अंगूर।’ मीना ने तुनक कर कहा था।
      तुनकने की क्या बात है? तुम्हारे यहाँ बंगाल में अंगूर क्या बल्लरियों में फलने के बजाय पेड़ों में ही फला करतें हैं?’- मेरी बात सुन कर उसे अपनी भूल का एहसास हुआ।
      इसी प्रकार की बे सिर-पैर की बातें घंटों होती रही थी; परन्तु इसी में हमदोनों इतने भावविभोर हो रहे थे,मानो दुनियाँ की सारी खुशियाँ सिमट कर यही आ गयी हों।
      फिर मैंने कहा था- कल से तो स्कूल खुल जाएगा।    
      स्कूल तो खुल ही जाएगा।एक नया ट्यूशन भी शुरू करना है,बनर्जी सर के पास।उधर सुबह में दो घंटे केदार सर.इधर शाम में दो घंटे बनर्जी सर, बीच के छः घंटे स्कूल।फिर फालतू वक्त ही कहाँ होगा,जो मटरगस्ती करनी हो, कर लें आज भर।’
      तो क्या हुआ,अच्छा ही है।मैथ और ईंगलिश दोनों ही तो जरूरी है।अब परीक्षा में देर ही कितनी है? अगले बर्ष इसी मार्च में तो हमलोगों की परीक्षा होगी न?- -मैंने चिन्ता व्यक्त की।
      सो तो है ही।परन्तु सप्ताह में एक दिन भी समय नहीं मिल पायेगा घूमने फिरने का।’-गुलमोहर का एक फूल उठाकर मेरी ओर फेंकती हुयी मीना ने परेशानी जाहिर की,- पापा कह रहे थे कि सन्डे को मिश्रा सर के पास संस्कृत पढ़ लिया करो,कम से कम सप्ताह में एक बार भी गाइड कर देंगे तो हो जाएगा।मेरा तो माथा
ही खराब हो जाएगा इतना पढ़ते-पढ़ते।’
      क्या हर्ज है,कुछ दिन की तो बात है।पढ़ने के लिए कष्ट उठाना ही पड़ता है।हाईयर सेकेन्ड्री बोर्ड एक्जाम के बाद इत्मीनान से दो महीने सिर्फ घूमती ही रहना,खानाबदोश की तरह गधे-खच्चर सब लेकर।- -मैंने कहा,तो मीना अचकचा गयी।
      क्या बकते हो गधे-खच्चर लेकर घूमने जाऊँगी?’
     हाँ,एक पर तुम बैठना,एक पर मैं और सारा दिन कलकत्ते की गलियों और सड़कों पर घूमा करेंगे।’- मेरे कहने पर मीना हँसती-हँसती लोट सी गयी।
      काफी देर तक हमलोग इसी तरह की बातों में उलझे रहे।करीब ग्यारह बजे गोष्ठी खतम हुयी।
     चलोगी या मेमोरियल घूमने का मन है?’- ैं खड़ा होते हुए पूछा।
      मेरी तो इच्छा नहीं है।’- कहती हुयी वह भी उठ ख्ड़ी हुयी।
      तो फिर चला जाए वसन्त के डेरे तरफ।उसे भी साथ लेकर स्कूल चला जाएगा,मूर्ति विसर्जन की तैयारी में।’- कहता हुआ गाड़ी की ओर बढ़ ही रहा था कि मीना ने इशारा किया- उधर देखिये जरा- आपके भैया-भाभी पधार रहे हैं।’
      मैं चौंक कर देखने लगा- यह कहते हुए कि मेरे कौन भैया-भाभी  कहाँ से आ टपके यहाँ?’
      मीना की अंगुली के इशारे की दिशा में नजरें गयी तो पाया कि वसन्त और टॉमस हाथ में हाथ डाले,डोलते-चलते चले आ रहे हैं गेट के अन्दर।
      तो क्या यह मेरी भाभी है?’
      भाभी नहीं तो और कौन है?’- सवाल के बदले मीना ने भी सवाल कर दिया,और आगे बढ़ कर अपनी गाड़ी का हॉर्न एक खास अन्दाज में बजाने लगी।
      यह क्या कर रही हो?- मेरे पूछने पर कहा था उसने- थोड़ा सब्र करो,तुरत तुम्हें पता चल जाएगा कि मैं क्या कर रही हूँ।’
      मीना के कहने पर हमने गौर किया।देखा कि वसन्त चौकन्ना होकर इधर-उधर देख रहा है,मानों किसी को ढूढ़ रहा हो; और फिर अचानक पलट पड़ा-  जिधर हमलोग थे।अपने आदतन, दूर से ही आवाज लगायी उसने- वाह जनाब! आपलोग इधर नजारे लूट रहे हैं और मैं घंटे भर घर में इन्तजार कर-कर के बोर हुआ।’
      नजदीक आने पर मीना ने कहा- बोर,और तुम? टॉमस साथ में हो तो मुर्दे भी हँसने को मचलने लगते हैं,और जिन्दा आदमी बोर होने लगेगा?’- फिर टॉमस को इंगित कर बोली- क्यों टॉमस बोर क्यों होने दी अपने प्यारे वसन्त को?’
      मीना की बात पर सभी कहकहा लगा उठे।मीना के कथन का अभिप्राय समझ टॉमस चिहुंक पड़ी,साथ ही दो दिनों पूर्व की बात भी याद आ गयी।मन ही मन कुढ़न भी हुआ,जो उसके चेहरे से स्पष्ट झलक रहा था; किन्तु कर ही क्या सकती थी।प्रत्यक्षतः सिर्फ इतना ही कह पायी-  तुम इन्डियन लोग बहोत तेज होता,हम जानता। हम तो तुम्हारे जैसा एक्सपर्ट नहीं है।’
      मीना और टॉमस की आपसी बातों की गहराई को समझ कर वसन्त ने माहौल बदलने पर पहल की-तुम लोग कब से यहाँ हो?’
  लगभग दो घंटे से।’- ैंने कहा- सुबह मीना साथ लेकर काली मन्दिर चली गयी.फिर नास्ता करके इधर आ गए।अब यहाँ से सीधा तुम्हारे घर पहुँचता,और फिर तुमको लेकर स्कूल।-मैंने पूरी योजना स्पष्ट की।
      ैं तो तुमलोग को देख कर समझी कि मूर्ति विसर्जन आज विक्टोरिया मेमोरियल में ही होना है।’-मीना फिर तीर छोड़ी।
     तुम अपने हॉर्न का सिगनल नहीं दी होती तो मूर्ति का विसर्जन हो या न हो,आज के दिन का विसर्जन तो निश्चित था,हो ही जाता यहीं पर।कमल समय पर मेरे यहाँ पहुँचा नहीं। मेरा भी मूड ऑफ हो गया।स्कूल जाने का विचार छोड़, चल दिया टॉमस के यहाँ।’- मीना की बातों का जवाब देते हुए वसन्त ने फिर कहा- मगर तुम
भी बेजोड़ हो,तुम्हें गुप्तचर विभाग में रहना चाहिए।तुम्हारे हॉर्न बेजोड़ है।खैर अब सभी इकट्ठे हो ही गए हैं,तो स्कूल का कार्यक्रम क्यों स्थगित किया जाए।’
      तो फिर देर क्यों?’-मीना ने कहा- चलो गाड़ी में बैठो।’
     उसके कहने पर हम सभी चल दिए।वसन्त और टॉमस पीछे बैठ गए,मैं पूर्ववत अपनी जगह पर,आगे मीना के साथ;और गाड़ी चल पड़ी स्कूल की ओर।
      उस दिन सारा समय गुजर गया स्कूल में ही।दोपहर भोजन का प्रबन्ध भी विद्यालय परिसर में ही था। वसन्त ने मीना की ओर देखकर कहा- आज फिर कुछ गड़बड़ मत कर देना मीना! खिलाने-पिलाने में।’- उसका आशय समझ मीना लाल हो गयी।
      मूर्ति विसर्जन आदि से निवृत होकर संध्या सात बजे हमलोग वापस आए।वसन्त अपने डेरे पर चला गया।टॉमस गंगा किनारे ही हमलोगों का साथ छोड़ चुकी थी।उसे सलकिया जाना था,किसी मित्र से मिलने, व्यवसाय के सिलसिले में।
      दूसरे दिन से ही मीना के साथ मेरा भी ट्यूशन जाना प्रारम्भ हो गया था।केदार बाबू के पास तो तब से ही जा रहा था,जब से घर छोड़ कलकत्ता आया था।बंकिम अंकल की कृपा से बनर्जी सर के पास भी जाना निश्चित हो गया।चाची का कहना था कि मीना और कमल मेरी दो आँखें हैं।इन पर दुराव कैसा?’
      दोनों जगह मीना और वसन्त साथ थे।वसन्त पहले से ही दोनों विषय पढ़ रहा था,क्यों कि उसका मैथ बहुत कमजोर था।सप्ताह में एक दिन- रविवार को हम और वसन्त मामाजी से संस्कृत पढ़ा करते थे।जैसा कि मीना ने बतलाया था,अगले रविवार से वह भी वहाँ जाने लगेगी।
      प्रातः छः बजे तैयार होकर केदार बाबू के यहाँ जाना।आठ बजे वहाँ से आकर स्कूल का टास्क बनाना,फिर दश से चार बजे तक स्कूल की व्यस्तता।संध्या पांच बजे से सात बजे तक बनर्जी सर के
पास, वहाँ से वापस आ, नास्तादि से निवृत हो रात आठ से ग्यारह बजे तक मीना के साथ घर में पढ़ाई करना। फिर भोजन,कुछ देर गपशप और तब शयन - यही हमदोनों की दिनचर्या बन गयी थी।इधर-उधर घूमना-फिरना, या अन्य उपलब्ध मनोरंजन के साधन- रेडियो, टेप बिलकुल बन्द हो गए थे।धीरे-धीरे इसी वातावरण में ढल गया था।मीना भी हर प्रकार से साथ देती थी,साये की तरह।
      बगल कमरे में एक दिन चाची को कहते हुए सुना- मीना इधर पढ़ाई पर बहुत ध्यान दे रही है।’
      यह सब कमल के साहचर्य का प्रभाव है।पहले तो इसे जरा भी मन नहीं लगता था- पढ़ने में।’- पुलकित होते हुए चाचा ने चाची की बातों का जवाब दिया था।
      मेरे सामने ही कुर्सी पर बैठी थी मीना,किताबों पर नजरें गड़ाये।सिर उठा कर बोली- जनाब! कुछ सुना आपने ?’
      क्या?’- कलम को गाल पर टिकाते हुए मैं  भी सिर ऊपर किया।
      वाह,मेहनत करते-करते मेरे गाल धंसे जा रहे हैं,और बड़ाई हो रही है जनाब-ए-आलम की।’- अपनी किताब को बन्द करती हुयी मीना ने कहा।
      तो इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं,धँसने दो अभी गालों को।
परीक्षा खतम हो जाने दो,फिर चल कर दो-चार मन अंगूर खिला दूँगा- उस अनोखे खोमचे वाले से लेकर।’-जरा गम्भीर भाव से मैंने कहा,र सिर झुका कर पुनः लिखना प्रारम्भ कर दिया।
      बाप रे! परीक्षा के बाद ये खिलायेंगे हमको अंगूर,वह भी पैकेटों में नहीं. मनों’ में।तब तक तो मैं सूख कर स्वयं ही किसमिस बन गयी रहूँगी।’- मेरे हाथ से कलम छीनती हुयी मीना ने कहा।
      इसी प्रकार कुछ देर तक हँसी-मजाक चलता रहा था,फिर पढ़ाई पर जुट गए थे दोनों।

      मार्च से लेकर अक्टूबर तक यानी आठ महीने का साहचर्य एवं गहन अध्ययन-मनन,काफी कुछ प्रौढ़ बना गया था हमदोनों के हृदय एवं मस्तिष्क को।रात्रि विश्राम के मात्र आठ घंटों की दीवार के अलावा शेष अधिकांश समय साथ ही व्यतीत होता था।इस बीच हमदोनों को काफी मौका मिला था एक दूसरे को समझने-बूझने का,
अनुभव करने का।अनुभूतियों का एक लम्बा फेहस्ति बन गया था इस दौरान।
      सायंकालीन अध्ययन चल रहा था।किताब पर ठुड्डी टिकाती हुयी मीना ने कहा था- कल महालया है।चार बजे भोर में कलकत्ता रेडियो पर ‘‘श्री दुर्गा सप्तशती" का पाठ होगा।उठोगे न सुनने के लिए?’
      क्यों नहीं जरूर सुनुँगा।बर्षों की प्रतीक्षा के बाद यह अवसर आता है।इसी दिन तो थोड़ा आभास होता है कि भारतीय संस्कृति अभी भी जिन्दा है।अन्यथा बाकी दिन तो रेडियो सिर्फ फिल्मी श्लोक’ ही सुनाया करता है।’- मीना की बातों पर मैंने अपनी सम्मति दी।
      फिर याद आ गयी थी- परसों से शारदीय नवरात्र प्रारम्भ हो जायगा।कितने धूम-धाम से मनाया जाता था यह त्योहार हमारे घर पर- जब पिताजी होते थे;पर्व-त्योहारों का रौनक ही कुछ और होता था।अब तो...।इधर घर गए भी बहुत दिन हो गए,पिछली बार जून में यानी अब से कोई सोलह महीने पहले।पिताजी के अन्तिम दर्शन के बाद चाह कर भी घर न जा सका हूँ।पिछले दशहरा में चाचाजी जाने ही नहीं दिये थे।ग्रीष्मावकाश यहीं बीत गया।माँ क्या सोचती होगी? जो भी हो,इस बार जरूर घर जाऊँगा - सोच ही रहा था कि मीना बोली- दशहरा में घर जाने का प्रोग्राम बना कर मेरा मजा मत किरकिरा कर देना।बस दो महीने बाद ही तो दिसम्बर में टेस्ट-
एक्जाम होना है।फिर एक दफा इत्मीनान से गाँव की सैर कर आना।कारण कि तुम न रहोगे तो मेरा मन नहीं लगेगा।न पढ़ने में न अकेली रहने में ही।’- पलक झपकते ही मीना मेरा प्रोग्राम चौकआउटकर दी थी।मैं उसका मुंह ताकता रह गया था।फिर रूआंसा सा होकर मैंने कहा था- माँ क्या सोचेगी मीना, जरा इस पर भी तो ध्यान दो।सिर्फ अपने....।’  
      मेरी बात को बीच में ही काटती हुयी बोली- सोचेगी क्या?बेटे का मन पढ़ाई में खूब लग रहा है और क्या।एक पत्र लिख दो कि दो माह बाद अवश्य आऊँगा।’
      मैं कुछ कहना ही चाहा कि पुनः कहने लगी- कमल! न जाने क्या होता जा रहा है मुझे आजकल।तुमसे पल भर के लिए भी अलग होने की कल्पना मात्र से ही घबराहट होने लगती है।पता नहीं ईश्वर की क्या इच्छा है,कब तक निभायेगा हमलोगों का साथ?’
      कुर्सी के हत्थे पर टेका लेते हुए जरा गम्भीरता से मैंने कहा था- -लगता तो मुझे भी कुछ ऐसा ही है मीनू।तुमसे अलग रहने की कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ मैं।तूने ही तो मुझे जीना सिखलाया;अन्यथा मैं तो निराशा के घनघोर जंगल में भटक ही गया था।पहले निराशा के इन घडि़यों में ही सहारा बनता था लेखन;किन्तु
अब लगता है कि निराशा तो क्षीण आशा किरण में परिर्तित हो चुकी है,पर लेखक तो मर ही गया है मेरे अन्दर का।खैर थोड़ा सन्तोष है- चाची ने निष्कासित किया अपने आवास से तो तुम्हारे मम्मी-पापा ने शरण दी-सप्तपर्णी की छांव बन कर।डूबते को तिनके का भी सहारा हो जाता है;यहाँ तो नाव है,सुदृढ़ पतवार लगी है जिसमें।
      अब निर्भर है माझी पर,पार ले जाता है,या डुबोता है बीच भँवर में ही।कह कर मीना हँसने लगी थी।हालाकि उसकी यह असामयिक हँसी मुझे कुछ अच्छी न लगी थी।
      
      दशहरे का दिन,चिर प्रतीक्षित पर्व का दिन।सुबह से ही मीना सजधज कर तितलियों की तरह उड़ती फिर रही थी,कभी इस कमरे में तो कभी उस कमरे में।स्कूल की कई लड़कियाँ आयी थी उस दिन घर पर मिलने के लिए।प्रोग्राम बना सुबह आठ बजे ही निकल चलने की।
      आज कलकत्ते का सारा पंडाल छान मारा जायेगा।एक भी छोटा या बड़ा पडाल छूटना नहीं चाहिए।’-बच्चों सी मचलती हुयी मीना ने कहा था।
      वैसे हमलोगों का विचार था,गाड़ी लेकर ही चलने का।इसीलिए सुबह ही रामू को आदेश देकर गाड़ी धो-पोंछ कर ठीक करवा ली थी;किन्तु किरण,कल्पना,अरूणा, नीता आदि सहेलियाँ आकर प्रोग्राम बदल दी।मनोज भी आ गया मोहन और विजय को लेकर।पीछे से पांडुरंग और नैयर भी आ गए।
       इतने लोगों के लिए तो फियट’ की वजाए मीनी बस ही चाहिए।’- मीना ने हँस कर धीरे से कहा था,और फिर सबको सुनाकर बोली-  क्यों न हमलोग नजदीक के पंडालों को पैदल ही घूम आयें।’
      मीना के प्रस्ताव को ध्वनि मत से स्वीकृति मिली।उधर वसन्ती भी आज बहुत खुश नजर आ रही थी।सुबह से ही कीचन में युद्ध स्तर पर भिड़ी नजर आयी।चाची ने गत रात ही निर्देश दे दिया था-  सुबह के नास्ते का विशेष प्रबन्ध करना है।मीना की सहेलियों के साथ-साथ इस बार तो कमल के भी कुछ दोस्त आयेंगे ही।बिना खाए-पिए किसी को जाने नहीं देना है।बड़प्पन इसी का नाम है।आजकल तो अपना करीबी भी आ जाए दरवाजे पर तो लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगने हैं। एक प्याली चाय भी महंगी लगती है।रोटियाँ भी गिन कर बनती है।कुत्ता खा जाए,कोई बात नहीं,कूड़ेदान में चला जाए कोई हर्ज नहीं,मेहमान या भिखारी को मयस्सर न होने पाए।’
      चाची की बात पर चाचा ने कहा था- संत कवि की सूक्ति है-
ज्यों जल बाढ़े नाव में,घर में बाढ़े दाम;दोनों हाथ उलीचिए,यही सयानों काम। परोपकार और आतिथ्य से ही धनागम होता है। महर्षि व्यास ने महाभारत में कहा है- भोजन निर्माण का सुगन्ध जहाँ तक जाए- वहाँ तक के व्यक्ति का अधिकार होता है- उस प्रसाद को पाने का।अभिप्राय यह है कि भोजन अकेले नहीं करना चाहिए।अपने श्रम और ईश्वर की कृपा से जो भी धनागम हुआ है,उस पर कई प्राणियों का अधिकार है।खास कर जरूरत मन्दों का।किन्तु आजकल हम पश्चिमी संचय-सुरक्षा-में विश्वास रखने लगे हैं।खलिहानों में थायमेट’ विखेर देते हैं,फल-फूल-पौधों पर मालाथियान’ छिड़क देते हैं  ताकि जीव-जन्तु,पशु-पक्षियों को कुछ भी मयस्सर न हो सके।दमड़ी-दमड़ी जोड़ रहे हैं, चमड़ी का भी मोल दे कर।शायद इस आश में कि सब लेकर जायेंगे।’- बंकिम चाचा भावमय होकर कहे जा रहे थे।उनकी बातों पर सभी गौर कर रहे थे।

      वसन्ती सबके लिए नास्ते का प्रबन्ध कर चुकी।डायनिंग टेबल के आसपास ही अतिरिक्त कुर्सियाँ लगा दी गयी।हम सभी एक साथ जलपान किए।
  मुस्कुराती हुयी मीना ने कहा- सब तो आ ही गए,वसन्त नहीं आया।क्यों वसन्ती कुछ कहा था क्या उसने?’
      मीना के कथन का अभिप्राय समझ कर सभी हँसने लगे।नैयर और पाण्डुरंग सबका मुंह ताक रहे थे,हँसी का रहस्य नहीं समझने के कारण।
      नास्ता करने के बाद हम सबकी टोली निकल पड़ी।और फिर पास क्या,दूर-दूर तक चक्कर लगाते रहे थे,करीब ग्यारह बजे तक।
     मीना थक कर चूर हो गयी थी।थक तो हम सभी गए थे।अतः अब वापसी का विचार कर एक टोली कई टुकडि़यों में बंट गयी।
    लौटते वक्त हाजी-बिल्डिंग गए,किन्तु वहाँ वसन्त से मुलाकात नहीं हुयी।मामी ने कहा कि वह तो सुबह से ही लापता है,नास्ता भी नहीं किया,और बोल कर गया है कि देर रात भी हो सकती है।अतः हमदोनों बैरंग लौट आए।सीढि़याँ उतरते हुए मने कहा कि तीन घंटे से चक्कर मारते-मारते टांगें टूट रही हैं।बहुत दिनों बाद इतना पैदल चला हूँ।-  सुन कर मीना बोली-  कोई बात नहीं, घर चल कर मालिश कर दूंगी।’
      इतना भाग्यवान हूँ मैं?’
      इसमें भाग्यवान होने जैसी क्या बात है? इतना ही लग रहा है,तो तुम भी मेरा सिर दबा देना।मेरा तो पैर से ज्यादा सिर ही दुःख रहा है।’- मुस्कुरा कर मीना ने कहा था।
      नीचे आकर रिक्सा लिए, डेरा पहुँचे।प्रतीक्षारत चाची ऊपर रेलिंग के पास ही खड़ी नजर आयीं।देखते ही पूछीं-  कहाँ-कहाँ चक्कर लगाए पैदल? थक तो काफी गए होगे तुम लोग?’
      रावण की सेना को लेकर गाड़ी में जाना भी तो नामुमकिन था।’- सोफे पर कटे रूख की तरह धब्ब से गिर कर मीना बोली।
      हमलोगों को पसीने से लथ-पथ देख कर चाची ने कूलर ऑन करते हुए कहा-ठीक है,थोड़ी देर आराम कर लो,फिर तुमलोगों के लिए खाना निकालूंगी।’ और पानी का गिलाश दोनों के हाथों में पकड़ा कर बगल कमरे में चली गयी,स्वयं भी आराम करने।
      आधे घंटे बाद चाची ने आवाज लगायी- चलो अब खाना खा लो। हमलोग तो खा चुके हैं।खाना परोसती चाची ने पूछा-  अब क्या प्रोग्राम है आगे?’
      हमदोनों का प्रोग्राम तो सब बाकी ही है मम्मी।आप कब जायेंगी बाहर घूमने?’
      तुम्हारे पापा अभी सो रहे हैं।जगें तो निकलें हमलोग भी।’
      खाना शुरू करने से पहले ही मीना एल.पी.प्लेयर ऑन कर दी थी,स्वीट साउण्ड में,जो अभी भी जारी था।
      गाना सुनते-सुनते ही थकी आँखें झपक गयी थी।पास ही इजी-चेयर पर टांग पसार मीना भी सो गयी थी।करीब दो बजे चाचाजी ने जगाया- उठो कमल! मीना तैयार हो रही है।तुम भी तैयार हो जाओ।तुम लोग फियट’ ले जाओगे। हम तुम्हारी चाची के साथ पुरानी गाड़ी में चले जायेंगे ।’
      ओफ, मीना ने मुझे जगाया भी नहीं- सोचता हुआ जल्दी से उठा और बाथरूम की ओर चल दिया मुंह-हाथ धोने।
      तभी, वसन्ती ने आकर अपना दुःखड़ा सुनाया- आप सभी तो चले जायेगे घूमने,और मैं क्या ओल छानूँगी यहाँ अकेले बैठे?’
      तो तुम भी जाओ न,जहाँ जी आवे।रोके हुए कौन है तुम्हें?’- बालों में ग्रीप लगाती हुयी मीना बाहर आकर वसन्ती की बातों का जवाब दी।
      नहीं दीदी,सो नहीं होने को।आज मैं भी आपके साथ चलूंगी- मोटर में।’-बच्चों सी मचलती हुयी वसन्ती ने जिद्द किया।
      अच्छा चलना।जा जल्दी से तैयार हो।’- मीना बगल कमरे में चली गयी, भुनभुनाती हुयी- कबाब में हड्डी।’
      ैं तो बिहने’ से ही तैयार हूँ दीदी।’-कह कर वसन्ती दौड़ती हुयी चली गयी थी नीचे।पहले ही जाकर गेट पर खड़ी हो गयी। उसे आशंका थी कि छोड़ न जायें।
      थोड़ी देर बाद तैयार होकर मीना को साथ लिए हम नीचे आए थे।चलते वक्त मीना ने कहा था- मम्मी! हो सकता है देर हो जाए लौटने में,क्यों कि नीता के यहाँ भी जाना है।आप लोग खाना खा लेंगे।’
      दो-चार पंडाल घूमने के बाद मीना ने वसन्ती से पूछा- क्यों वसन्ती,  सिनेमा देखे तो तुम्हें बहुत दिन हो गए हैं न?’
      हाँ दीदी, उस बार आपके साथ ही तो देखी थी।’- मीना की बात से वसन्ती को आशा जगी थी।
      तो फिर देख लो न आज ही, मौका बड़ा अच्छा है।अभी तो तीन बजने में पन्द्रह मिनट बाकी है।’-कह कर मीना ने पांच का एक नोट वसन्ती को देकर,गाड़ी मूनलाइट’ के सामने पार्क कर दी।
      खुशी से मचलती हुयी वसन्ती मीना के हाथ से नोट लेकर, गाड़ी से नीचे उतर कर भीड़ में गुम हो गयी थी।
      राहत की सांस लेती हुयी मीना ने कहा- पांच रूपये में बला टली।सुबह वानरी सेना ने प्रोग्राम चौपट किया।इस समय यह मुई साथ लग गयी।’
      क्यों खिसका दी बेचारी को?’- मुझे उसे हटा देना कुछ अच्छा नहीं लगा था।पता नहीं बेचारी क्या सोचती होगी। कितनी ही उतावली थी,गाड़ी में बैठ कर घूमने के लिए।पंडाल की परिक्रमा तो अकेले भी कर ही लेती, हमलोग का साथ तो गाड़ी के लोभ में ही पकड़ना चाही।
      मेरी टिप्पणी सुन मीना ने कारण स्पष्ट किया- ‘तुम नहीं समझते,इसकी हरकत।कितनी मक्कार है यह,ैं जानती हूँ।शैतानी कूट-कूट कर भरी है इसमें।साथ यहाँ-वहाँ घूमती,रास्ते भर हमलोगों की बातें सुनती और घर जाकर बज उठती बिना बैटरी के ही।’
     मीना उसके स्वभाव की बखिया उघेड़ती हुयी,गाड़ी पुनः मोड़ दी चितरंजन एभेन्यू की ओर।
     अब किधर चलने का विचार है?’- ैंने पूछा था।
    सामने लाल सिगनल देख गाड़ी रोकती हुयी बोली- चौराहे पर तो खड़ी हूँ ,जिधर बोलो चल दूँ।’
    मेरी ही मर्जी से चल रही हो क्या इधर-उधर चक्कर मारती?मेरा तो विचार हो रहा है- कालीघाट चाचा के डेरे पर चलने का। आज दशहरा है।बुजुर्गों का आशीर्वाद लेना चाहिए।’- कहते हुए उसके चेहरे के भावों को पढ़ने की चेष्टा की मैंने।
    सिगनल ग्रीन हो गया।
    हुँऽह! चाचा का आशीर्वाद या कि चाची का अभिशाप?’- मुंह विचका कर कहती हुयी मीना,गाड़ी सीधे स्प्लैनड’ की ओर बढ़ा दी।मैंने कुछ कहा नहीं।
    अभी कुछ ही आगे बढ़े थे, कि एक गाड़ी ओभर टेक करती हुयी,थोड़ा आगे बढ़ बायीं ओर कोका फाउण्टन’ के पास सड़क के किनारे खड़ी हो गयी।मीना ने हाथ के इशारे से बताया कि यह गाड़ी टॉमस की है।फिर मेरी ओर देखती हुयी बोली- क्यों न कुछ ठंढा लिया जाए।टॉमस से भी भेंट हो जाएगी।’
      मेरी इच्छा तो नहीं थी,कारण - जानता हूँ कि मीना को मेरे साथ देखकर टॉमस मन ही मन जल-भुन जाएगी। पर मेरे कुछ कहने के पूर्व ही उसके ठीक पीछे जाकर इसने भी गाड़ी खड़ी कर दी।
     उसे कुढ़ाने की क्या जरूरत पड़ गयी तुम्हें?अनावश्यक किसी का जी नहीं दुखाना चाहिए।’-मैंने गाड़ी में बैठे-बैठे ही कहा।
    तो तुम उसके डर से उतरोगे भी नहीं क्या?’- स्वयं गाड़ी से उतरती हुयी मीना बोली।
    अभी मैं सोच ही रहा था,कुछ कहने को उधर से लपकता हुआ वसन्त आ गया।थम्सअप की घूँट लेते हुए बोला- वाह यार कमल,कमाल हो तुम भी,मीना का साथ, इतना हीना बना गया मुझे?अरे दोस्त,कभी-कभी तो याद कर लिया करो इस गरीब बन्दे को भी।’
    वसन्त को देख कर गाड़ी से उतरते हुए मैंने कहा -क्या बात करते हो,दोपहर में ही गया था तुम्हारे यहाँ।मामी ने बतलाया कि तुम सुबह से ही निकले हो टॉमस के साथ।’
      क्या बकवास करते हो? वैसे भी तुम्हारी आधी बात ही सही है।’- वसन्त थोड़ा झल्लाकर बोला।
      आधी बात?’- इसका मतलब?’--ैंने हाथ मटका कर पूछा।
      आपका बयानबाजी आधा झूठ इसलिए है,क्यों कि टॉमस-वामस
के बारे में माँ-पापा को कुछ भी अता-पता नहीं है।’- वसन्त ने हँसते हुए कहा,औ,मेरा हाथ खीचते हुए,ले जाकर टॉमस के सामने खड़ा कर दिया,इजहार के लिए, जो स्टॉल पर खड़ी लेमनड्रॉप पी रही थी।  
      ^^ Hallo! Kamal ! How are you? Happy Dashahara both of you.” कहती हुयी बड़ी ही गर्मजोशी से टॉमस ने हाथ मिलाया था, और मेरे बगल में खड़ी मीना की निगाहें पैनी होती चली गयी थी,उसके चेहरे पर धँसने के लिए,और उसकी इस हरकत को देखकर,मीना पांव पटकती चली गयी थी बगल के ही काउण्टर पर।
      मैंने वसन्त को छेड़ते हुए, अपने गँवई जुबान में कहा ताकि कोई और समझे नहीं- इस परी को कहाँ लिए फिर रहे हो?’
      परी?’- वसन्त समझकर भी नासमझी का भाव बनाया।
      हाँ यार, मुझे तो डर लगता है कि कहीं अपने पंखों की हवा में उड़ा न ले जाए।’
      हँसते हुए वसन्त ने कहा था- तुम्हारी उर्वशी से कहाँ मुकाबला कर सकती है बेचारी?इन भूरी आँखों की कोई तुलना है,उन रतनारी आँखों से?’
      मीना दोनों हाथों में डबल सेवन’ की दो बोतलें पकड़े हुए आगयी।गुस्सा तब तक हीरन हो गया था।
      चलो अच्छा हुआ,वसन्त से भी मुलाकात हो गयी।’-मुझे एक बोतल पकड़ाती हुयी बोली।
       चारो वहीं खड़े होकर देर तक बात­ करते रहे थे।हाथ का खाली बोतल क्रेट में डालते हुए वसन्त ने पूछा- तुमलोगा का किधर जाने का प्रोग्राम है?’ और टॉमस की ओर देखने लगा था- मानों प्रश्नोत्तर उसी के पास हो।
      मेरा बोतल भी खाली हो चुका था।क्रेट में डालते हुए मैंने कहा- यूँही निकल पड़ा हूँ।कोई खास प्रोग्राम नहीं है।बस इधर-उधर घूमना,और क्या।’
      तो फिर चलो,कोई फिल्म ही देखा जाए।’- जेब से मनीपर्स निकालते हुए वसन्त ने कहा।
      पर अभी कहाँ?’-  कलाई घड़ी पर निगाह डालती हुयी मीना ने कहा- अभी तो सिर्फ चार बज रहे हैं।’ और हाथ में बोतल लिए हुए काउण्टर की ओर चली गयी थी,बिल अदा करने।
      दो-चार पंडालों का चक्कर मारा जाएगा,उतनी देर में।’-टॉमस ने कहा।और बगल में खड़े वसन्त की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि डाली थी।वसन्त बिना कुछ कहे,सिर्फ हाँ’ में सिर हिला दिया।
      तुम्हारी क्या राय है मीना?’-बिल चुका कर वापस आ चुकी मीना से मैंने पूछ दिया।
      मेरी बात का जवाब उसने देना ही चाहा कि पर्स दिखाते हुए वसन्त ने कहा,ैं तो बिल देने ही जा रहा था, तुम क्यों चुका दी?’
      मेरी मर्जी।’- वसन्त के सवाल का बेवाक जवाब देती मीना हाथ में चाभी का छल्ला नचाती गाड़ी में जा बैठी।
   चलो चला जाए।- कहता हुआ मैं भी बढ़ चला गाड़ी की ओर।वसन्त टॉमस के साथ उसकी गाड़ी में बैठा।
   तुम भी अजीब हो मीनू।’- कहता हुआ मैं आ बैठा मीना के बगल में ।
       फिर काफी देर तक चक्कर लगाते रहे थे हमलोग इस पंडाल से उस पंडाल।वसन्त ड्डर टॉमस भी चल रहे थे साथ-साथ ही ।
      वैसे तो दुर्गापूजा लगभग देशव्यापी है।फिर भी बंगाल की यह पूजा बेमिशाल है।किसी मैदान में,किसी चबूतरे पर वांस-बल्ली घेर कर मूर्ति रख कर,शंख फूंख देना और बात है,सिर्फ कोरम पूरा करने जैसी। किन्तु यहाँ की पूजा,पूजकों का उत्साह,समर्पण,उद्गार अकथनीय है- गूंगे की मिठाई जैसी।पूजा के नाम पर चन्दा तो हर जगह लिया जाता है- वसूला जाता है-टोल टैक्स की तरह।बहुतों का व्यवसाय भी है यह।किन्तु उसका कौन सा हिस्सा वास्तविक पूजा में व्यय होता है?  न सजावट,न सामग्री, न कुछ और ही।नियम और मर्यादाओं की धज्जी उड़ाते वीभत्स गाने र डीजे के कर्कस धुन पर नशे में धुत्त नाचते युवक।आम तौर पर यही तो
मिलता है- मनोरंजन के जगह शान्ति भंजन।
      कलकत्ते का दशहरा अपने आप में परिष्कृत सामाजिक सौहार्द पूर्ण व्यवस्था है।नवरात्र के पूर्व दिन से ही वातावरण स्वच्छ होने लगता है।ब्रह्म मुहुर्त में आकाशवाणी से प्रसारित श्री दुर्गा सप्तशती का सस्वर पाठ अद्भुत परिष्कार कर जाता है- चारो ओर,मानों माँ दुर्गा के आगमन के लिए बुहारी और छिड़काव किया जा रहा हो।
      अगले दिन कलश स्थापन करके जगह-जगह पाठ शुरू होता है।विलकुल वैदिक वातावरण बन जाता है। झांझ-मजीरे-करताल,घंटा-घडि़याल का धूम-धड़ाका,सुगंधित वातावरण- अजीब सा समा बंधा जाता हैं।
      सप्तमी से पंडालों में पट खुलते हैं।श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है,दर्शन के लिए।मूर्तियाँ ऐसी कि लगता है - बोल पड़ेगी।कोई मूर्ति को देख कर मुग्ध होता है,कोई कारीगरी पूर्ण सजावट को। आधुनिक तकनीक का सहारा लेकर गत्यमान बनाई गई मूर्तियाँ बरबस ही मन मोह लेती हैं।पंडाल भी कोरे पंडाल नहीं होते।विभिन्न कृत्रिम प्रसाधनों से निर्मित-  मन्दिर,भवन,कन्दरे,पहाड़,झरने,जंगल सब कुछ दिखाने का सफल प्रयास होता है,इन पंडालों में।कलाकार पूर्णतः समर्पित हो जाता है- माँ के श्रीचरणों में अपनी कला को लेकर।   
      मीना ने कहा था- जब से होश सम्हाली,देखते आरही हूँ ,यहाँ की पूजा व्यवस्था।पापा कहते हैं कि तुम क्या मैं अपने होश से देख रहा हूँ- कला का अद्भुत प्रदर्शन।’  
      वसन्त और टॉमस भी अभिभूत थे।
     अचानक चेहरे पर विखर आयी गेशुओं को हटाती हुयी मीना ने मुझसे सवाल किया- विचार है फिल्म देखने का?’
      जैसी तुम्हारी इच्छा,क्यों कि आजकल तो तुम अपनी मर्जी के मुताबिक चल रही हो।’- कहता हुआ मीना की आँखों में आँखें डाल दिया उसकी प्रतिक्रिया जानने को।
      अपनी मर्जी?’- विस्फारित आँखों से मेरी ओर देख कर पूछा उसने- क्या मतलब?’
      और नहीं तो क्या,बेचारा वसन्त पर्स लिए ताकता ही रह गया,और तुम सबका बिल अदा कर आयी।’-मैंने कहा था।
      धऽऽत् तेरे की! तो तुम्हारा दिमाग अभी वहीं काउण्टर पर ही अंटका हुआ है इतनी देर से?’- ठठा कर हँसती हुयी मीना ने कहा
       चलो,चलो देख लिया जाए फिल्म।पिछले आठ महीनों से कहाँ देख पाए हैं हमलोग कोई फिल्म?’- बड़े अफसोस की मुद्रा में कहा था मीना ने,मानों बहुत दुःख की बात हो गयी हो- इतने दिन सिनेमा न देखना।
      कुछ देर बाद हमलोग पैराडाइज’ पहुँच चुके थे।यहाँ भी मीना चालाकी कर गयी।वसन्त पूछ रहा था कि किस क्लास का टिकट लिया जाय,जिसके जवाब में टॉमस ने कहा कि ड्रेस सर्किल का ही अच्छा रहेगा,परन्तु उसकी बातों को नजरअन्दाज करती मीना लपक कर आगे बढ़ गयी थी,और स्पेशल बॉक्स की चार टिकटें ले आई। टॉमस और वसन्त ताकते ही रह गए थे।
      कुछ देर तक विन्डोड्रेसिंग’ का अवलोकन करने के बाद हमलोग हॉल के अन्दर घुसे।फिल्म बड़ी दर्दनाक थी- ‘‘प्यासी आत्मा"
      सीट पर बैठती हुयी मीना बोली- बहुत दिनों से सोच रही थी,इस फिल्म को देखने के लिए, पर मौका न मिला।शानदार पचहत्तरवाँ सप्ताह चल रहा है, पर देखो अब भी हाउस फुल जा रहा है।’
      मैंने सीट पर बैठते हुए पूछा- यह तो वही फिल्म है न जिसकी कहानी मिस्टर अशोक राज ने लिखी है,और पटकथा उसकी पत्नी आएशा ने तैयार की है?’
      हाँ,उसी की कहानी है यह।बड़ा ही दर्दनाक कथानक रचता है वह।उसकी मिसेस- आएशा भी लाजवाब है। ए’ हटा दो बीच से तो हो जाए आशा,पर काम है निराशा वाला।’
      फिल्म शुरू हो गयी।मीना की आँखें­ अविराम टिकी थी पर्दे पर।ध्यान तो मेरा भी वहीं था,पर बीच-बीच में नजरें बचा कर देख लिया करता कनखियों से उसे भी।हर बार उसे जरूरत से ज्यादा ही गम्भीर पाता।दृश्य कुछ ऐसा ही दर्दनाक चल रहा था।यहाँ तक की उसकी आंखें सावन-भादो की बदली सी बरसने लगी थी,जिसे मेरी निगाह बचा कर बीच-बीच में रूमाल से छिपाती जा रही थी।मेरी आँखें भी सजल हो आयी थी।
      एकाएक मीना चीख पड़ी जोरों से,और लिपट गयी मुझसे-कमल छिपा लो मुझे।’- कहती हुयी मेरे सीने में अपना सर घुसाए जा रही थी,मानों सच में घुस कर अन्दर समा जाएगी।मुझे कुछ अजीब सा लगा,साथ ही यह भी ध्यान आया कि लोग देखेंगे तो क्या सोचेंगे- कैसे असभ्य हैं सब।खैरियत था कि टू-सीटेड बॉक्स में थे।
      मैं मीना को झकझोर रहा था- मीना...मीना...क्या हुआ तुझे,इस तरह क्यों कर रही हो पागलों जैसी हरकत?’- किन्तु वह चिपटी जा रही थी मेरे सीने से।पत्ते सी कांप रही थी।कुछ देर बाद हकलाती हुयी बोली,- कमल,मुझे बाहर ले चलो...बाहर ले चलो कमल जल्दी से...मेरा मन बहुत घबड़ा रहा है...नहीं देखा जायगा ऐसा दृश्य मुझसे...अजय...अभागा अजय..रीना...उसकी असफल प्रेमिका...देखा नहीं तुमने,कैसे भयानक पंजे थे, उस प्यासी आत्मा के...अगर दो-चार बार ड्डर ला दे इस दृश्य को सामने तो मेरी तो जान निकल जाएगी।’
    मैंने हँसते हुए कहा था- बस इतनी ही हिम्मत है? जरा सा भयानक दृश्य क्या देखी कि पसीने छूट गए।’
    मीना प्रकृतिस्थ होते हुए ठीक से सम्हल कर बैठती हुयी बोली-कमल,ैंने आज तक किसी से प्रेम नही किया है।उमर ही अभी क्या बीती है प्यार करने की,पर प्यार इतना खतरनाक हो सकता है, इसकी कल्पना भी तो नहीं किया था मैंने।’
    जब प्रेम की ही नहीं फिर उसके परिणाम की परिकल्पना कैसे हो सकती है?’-मैं कह ही रहा था कि मेरे हाथ का स्पर्श करती हुयी मीना,मेरा ध्यान पर्दे पर खींच ले गयी।
      हमने देखा.प्यासी आत्मा-अजय की आत्मा ने अपनी असफल प्रेमिका - रीना को अपने भयानक पैने पंजों में दबोच लिया है।रीना चीख रही है- बचाओ...बचाओ..।’- और इधर मीना फिर सरक आयी है मेरे समीप।मेरे कंधे पर सिर टिका कर बोली- कमल,छोड़ो इसे। चलो घर चला जाय।बाज आयी ऐसी फिल्म देखने से।फिल्म तो देखता है कोई मनोरंजन के ख्याल से; पर यहाँ तो रोते-रोते आँखें सूजती जा रही हैं।’
      मेरे कंधे से सिर हटा कर मेरा हाथ पकड़.खड़ी हो गयी थी।
      इन्टरवल के पहले तक तो सिर्फ प्यार की तड़पन थी,किन्तु बाद में इस भयानक आत्मा ने आकर तहलका ही मचा दिया।’- कहती हुयी मीना अपनी घड़ी की ओर देखी- अभी आधा घंटा से अधिक बाकी है।’ और मेरा हाथ खींचती हुयी चलने को कहने लगी मुझे भी।
      मैंने उसे समझाते हुए कहा- बस,आधे घंटे की तो बात है,जरा सब्र तो करो।’- और हाथ खीच कर पुनः बैठा दिया सीट पर।
      फिल्म चल रही थी- अजय की आत्मा बारम्बार प्रयास कर रही थी- रीना को पाने का।एक बार रीना किसी जलसे से लौट रही थी।वहीं उसको नया प्रेमी मिल गया था- रमेश।पार्टी समाप्त होने के बाद उसके साथ ही
गाड़ी में लौट रही थी।मधुर प्रेम की रागिनी छिड़ी थी।रात के दो बज रहे थे।मुख्य शहर से कुछ हट कर रीना का निवास था।चौराहे पर पहुँच कर दोनों को दो ओर जाना था।रीना कुछ कहना ही चाही थी कि अचानक बोल्डर से टकरा कर गाड़ी का चक्का पंचर हो गया।
      रमेश ने कहा- बड़ी मुश्किल हो गयी।स्टेप्नी भी नहीं है पास में।अब तो गाड़ी छोड़ कर आधा मील पैदल ही जाना पड़ेगा।’
      कोई बात नहीं,तुम चले जाओ,मुझे घर छोड़ने के चक्कर में और देर होगी।’-रीना ने कहा था,और गाड़ी से उतर कर चल दी।
      रमेश ने उसे टोककर कहा- वाह,भागी कहाँ जा रही हो,विदाई भी नहीं कर पाया मैं।’- और पास आ रीना को अपनी बाहों में भर कर उसके होठों पर प्यार का मुहर लगाते हुए कहा-  “Good night Rina.”
      रीना ने भी कहा था- “Good night Ramesh.To-morrow we shall meet.” और आगे बढ़ गयी थी,सुहानी चाँदनी रात को चीरती हुयी,परी की तरह।रमेश भी उस चौराहे से ही दायीं ओर अपने घर का रास्ता लिया।
      कुछ आगे जाने पर रास्ते में एक नाला पड़ता था,जिसके किनारे पीपल का विशाल वृक्ष था।यही वह प्राकृतिक सीमा थी, शहर से रीना के मुहल्ले को अलग करने वाली ।रीना पीपल के पास से गुजर रही थी।चाँदनी पूरे यौवन पर थीपूनम का चाँद ठीक माथे पर चमक कर रीना के रूप में चार चाँद लगा रहा था।
      एकाएक रीना चौंक कर इधर-उधर देखने लगी।रात के सन्नाटे में उसे पुकार सुनाई पड़ी- अपने नाम की,स्वर में कसक थी,और दर्द भी- रीऽ....ऽना....मेरी.....रीना....कहाँ हो...आ जाओ...।’
      रात्रि के निस्तब्ध वातावरण में गूंज रही थी आवाज,पर प्रेत का कुछ पता न था।शुरू में उसे लगा कि दूर जाने पर रमेश के साथ कुछ खतरा हुआ है, वही पुकार रहा है।किन्तु यह भ्रम शीघ्र ही दूर हो गया।सामने एक साया नजर आया।
   साया पल-पल समीप होने लगा।यहाँ तक कि बिलकुल पास आ पहुँचा।उसकी विशाल बाहें रीना को ग्रसने लगी।रीना चीख पड़ी।
      हॉल में बैठे दर्शकों के मुंह से भी लगभग चीख निकल गयी- अरे यह तो अजय है।’ हाँ,अजय ही थापर स्वयं नहीं, उसकी प्यासी आत्मा।भयानक पैने पंजे पर्दे पर भी बहुत खौफनाक लग रहे थे।बड़े जीवटों का भी सांस फूलने लगा था,उसके भयानक शक्ल और गूंजती डरावनी आवाज सुनकर।जालिम पंजों ने लपक कर रीना को अपने आगोश में ले लिया।
      चीखती हुयी रीना वहीं पीपल के जड़ पर गिर पड़ी।भयानक अतृप्त प्रेतात्मा तृप्ति लाभ कर अट्टहास करने लगी- आ...ऽहा...ऽ...आज मिल गयी मेरी रीना मुझे हमेशा हमेशा के लिए।’
      रीना की चीख आखिरी थी वह।और उसके साथ ही हॉल के
वातावरण में एक और चीख उभरी -मीना की चीख।
      मीना लपक कर मेरे सीने से चिपट गयी थी- कमल,छिपा लो कमल...।’ और वह बेहोश हो गयी।
      फिल्म समाप्त हो चुकी थी।आवाज सुन कर बगल से वसन्त और टॉमस भी अपने बॉक्स से बाहर आए।झकझोर कर मीना को होश में लाया गया।वह बहुत घबड़ायी हुयी थी।
      वसन्त ने कहा- अजीब फिल्म थी।’
      अजीब तो तुमलोग हो।जान बूझकर ऐसी भयानक फिल्म देखने चले आते हो।ओ गॉड! मैं तो डर कर मर ही गयी थी।’- कहती हुयी टॉमस रूमाल से अपने होठों को पोंछने लगी थी।
      तो फिर जिन्दा कैसे हो गयी?’- कहता हुआ वसन्त टॉमस का हाथ पकड़ बाहर निकलने लगा।
      मैं भी बाहर निकला,मीना को लेकर।टॉमस के साथ बैठते हुए वसन्त ने कहा- कमल! तुम तो मीना के साथ जा रहे हो।उसे अभी सीधे घर ही जाना चाहिए।तबियत ठीक नहीं है उसकी।मैं टॉमस को लेकर कैनिंग स्ट्रीट जा रहा हूँ।भेंट करनी है,इसके अंकल से।’
      ठीक है,जाओ तुमलोग।कल मुलाकात होगी।’- कहता हुआ मीना को लेकर गाड़ी में जा बैठा मैं।
      मीना अभी भी पूर्ण स्वस्थ नहीं अनुभव कर रही थी स्वयं को।बगल में बैठती हुयी बोली- गाड़ी तुम ही चलाओ कमल।मेरे तो हाथ-पांव अभी भी कांप रहे हैं।’
      स्टीयरिंग सम्हालते हुए मैंने कहा- इतना भाउक नहीं होना चाहिए मीनू।दृश्य तो एकाध ही भयानक था,पर तुम अपनी भावना में इतना बह गयी कि पूरी फिल्म को ही भयानक बना डाली।’
      ैं क्या बना डाली शौक से? थी ही ऐसी।यह कोई मतलब हुआ कहानी का,जरा भी खुशी नहीं दिखलाया पूरी फिल्म में।अगर ऐसी ही रही तो मैं कान पकड़ती हूँ, इसकी कोई भी फिल्म नहीं देखूँगी।’-अपने दोनों कानों को पकड़कर कर मीना ने कहा।
      और मैं कसम खाता हूँ कि इसकी हर फिल्म देखूँगा,और हर उपन्यास भी पढ़ूँगा।’ -मैंने हँसते हुए कहा था।
      इसी लिए तो कहती हूँ कि बड़े ही शोख हो तुम।मेरे गाल पर चिकोटी काटती हुयी तुनक कर मीना बोली-- तुम्हें उसी चीज से मुहब्बत है,जिस चीज से मुझे नफरत।’
      मेरे मुंह से निकला ही चाहता था- और तुमसे....?’
      गाड़ी मीना निवास के सामने पहुँच गयी थी।
      पोर्टिको में गाड़ी लगाकर हम दोनों ऊपर पहुँचे।बॉलकनी में ही रामू बैठा इन्तजार कर रहा था।फौजी सलीके से सलाम बजाते हुए बोला- मीना बेटी! साहब अभी घंटे भर बाद आने बोले हैं।घोषाल बाबू के यहाँ गए हैं।’
      मीना ने कमरे में घुसते हुए कहा- ये लो,मैं तो समझी थी कि हमलोग ही लेट हैं। फिर कीचन की ओर जाती हुयी बोली- मुई वसन्ती भी अभी तक आयी नहीं।अच्छा तुम बैठो मैं तब तक चाय बना लाती हूँ।’
      मैं कूलर ऑन कर वहीं सोफे पर पड़ गया। दिन भर की थकान,कूलर की ठंढी हवा,आँखें झपकने लगी।घूमने जाने को बेताब रामू हमलोगों के पहुँचते ही चला गया था- कहते हुए कि घंटे भर में
घूम-घाम कर आता हूँ।आज छुट्टी-त्योहार के दिन भी बेचारा पूरे दिन ड्यूटी किया है।
      नींद से बोझिल पलकें अचानक खुल गयी,मीना की चीख से - बचाओ...बचाओ...।’ 
     आवाज सुन कर मैं दौड़ पड़ा कीचेन की ओर।बीच में ही मीना से टकरा गया।वह चिल्लाती हुयी भागी आ रही थी,इसी ओर।
      कऽ..म..ऽ..ल...।’- उसकी आवाज कांप रही थी।रूक-रूक कर निकल रही थी।कदम लड़खड़ा रहे थे।मैं घबड़ा गया,कहीं गिर न पड़े फर्श पर ही।यह सोच,उठा लिया उसे गोद में बच्चे की तरह।भीगी बिल्ली की तरह कांपती मीना को जा सुलाया सोफे पर ही ड्राईंग हॉल में।
      क्या हो गया मीनू ,क्यों डर गयी?’- -उसके माथे को सहलाते हुए मैंने पूछा।
      कूलर की ठंढी हवा लगने से वह कुछ राहत महसूस की।कुछ देर बाद आँखें खोली तो खुद को मेरी जांघों पर सिर रखे सोफे पर पड़ी पायी।
      कुछ शरमाती हुयी सी,उठना चाही,परन्तु मैंने पूर्ववत लिटाते हुए पूछा- क्या हो गया था मीनू,क्यों डर गयी?’- ललाट पर अठखेलियाँ करती लटों को हटाते हुए मैंने प्रश्न दुहराया।
  शर्म और भय के मिश्रण से मुंदी पलकों को झपकाती हुयी धीरे से बोली- वही भयानक आत्मा...रीना की चीख...अजय का चिघ्घाड़ कानों से टकराया।लगा कि नीचे लॉन में ही आवाज हुयी हो।’
      मीना उठ कर मेरे सीने से फिर चिपट गयी।मैंने उसे समझाते हुए कहा- इस तरह नादानी करोगी तो कैसे काम चलेगा? वहाँ हॉल में भी इसी तरह लिपट गयी थी।
      तो छोड़ दो न,मुझे मरने दो।’- अपनी पकड़ थोड़ा ढीला करके बोली।
      मैंने उसे ठीक से बैठाते हुए कहा- तुम्हारी यही तुनुकमिजाजी मुझे पसन्द नहीं।यह क्या तरीका है?तुम स्वयं सोचो,अब क्या हम बच्चे हैं?
      नहीं, बुढि़या हो गयी सत्तर साल की।’- कहती हुयी दोनों गाल पर हाथ टिका,बैठ गयी बुढि़या सी पोज बना कर।
      मेरे कहने का क्या यही अर्थ है कि...।’मैं कह ही रहा था कि बीच में ही टोकी- तो क्या अर्थ है? तुम्हारे हर बात का अर्थ क्या डिक्सनरी में ही ढूड़ना पड़ेगा मुझे?’
      मेरे कहने का मतलब है कि कोई देखेगा तो क्या कहेगा,क्या सोचेगा? मुफ्त ही तो बदनाम कर जाएगा। क्यों कि दुनियाँ एक ही रिस्ता सिर्फ जानती है- किसी लड़के-लड़की के बीच। वे एक अच्छे दोस्त भी हो सकते हैं- यह कोई सपने में भी नहीं सोच सकता।यह दुनियाँ मानसिक रूप से बीमारों की दुनियाँ है,मीनू।’
      तो करता रहे बदनाम,सोचता रहे जो सोचना है उसे।हम तो अपना जीवन अपने ढंग से जीना पसन्द करते हैं।’- मीना ने सहज भाव से कहा था।
      तो तुम्हें इसकी जरा भी परवाह नहीं नाम-बदनाम...।’
      पागलों की सोच पर परवाह किसे और क्यों हो?’- मैं तो सिर्फ यही जानती हूँ कि कोई गलत काम नहीं कर रही हूँ।मेरे मन में किसी तरह का पाप नहीं बैठा है।डर से प्राण सूखने लगे,तुम पास में थे, लिपट पड़ी तुमसे;  तो कौन सा गुनाह कर गयी? तुम्हारी छोटी मुन्नी डर कर तुमसे लिपट जाएगी तो क्या कहोगे? क्या करोगे? पास में मम्मी होती,पापा होते,तो भी यही करती,जो तुम्हारे साथ की।’- मीना बड़े सहज भाव से,लापरवाही पूर्वक कह गयी।
    तभी मुझे याद आयी-अरे, गैस पर चाय चढ़ा आयी हो न?’-कहता हुआ झपट पड़ा रसोई की ओर।पीछ-पीछे वह भी चली आयी।
          मुझे छोड़ कर क्यों चले आए कहीं वह भयानक आत्मा फिर...।’
      तुम्हारे अन्दर वहम बैठ गया है,इसे जल्द ही निकालना होगा।अन्यथा...।’- केटली का ढक्कन हटाते हुए कहा मैंने-  अरे, पानी तो लगभग सूख चुका है।तुम इतमिनान से बैठो यहीं।आज चाय मैं तुम्हें पिलाता हूँ, तुम तो बहुत बार पिला चुकी हो।’
      चाय तैयार हो जाने पर मीना को साथ लिए अपने कमरे में आ गया था।चाय पीती हुयी उसने फिर छेड़ी चर्चा,प्यासी आत्मा की।
      सच में कमल! प्यार भी इतना खौफनाक हो सकता है,सोचा भी नहीं जा सकता।आखिर अतृप्त प्यार ने अन्त में रीना को मार ही डाला।’
      मार क्या डाला,इसे तुम मरना-मारना क्यों कहती हो? ये क्यों नहीं कहती कि प्यार एकांगी हो गया था,एकाकार हो गया।सार्थक होगया।दो प्रेमी,एक ही पदार्थ के दो खण्ड- एक हुए बिना कैसे तृप्त हो सकते हैं? इस एकत्व के पीछे ही दुनियाँ पागल है।पुरुष और नारी,एक ही महाप्राण के दो टुकड़े हैं।वस्तुतः ये दो है ही नहीं।वस सृष्टि का खेल रचाने के लिए विधाता का खिलवाड़ है यह।एक ही प्राण के दो हिस्से दो शरीर बन कर प्राकृतिक चुम्बकीय बल से वशीभूत चक्कर लगाते रहते हैं।मिले बगैर उन्हें तृप्ति कैसे होगी?शान्ति कैसे मिलेगी?’
      वाह रे तुम्हारे प्यार की सार्थकता।’- खाली प्याला मेज पर रखती हुयी मीना ने कहा। 
     अपना प्याला मेज पर रखते हुए मैंने बात आगे बढ़ायी- हाँ,प्यार में यही होता है।मरा हुआ अजय बारबार मर रहा था।रीना के प्यार में तड़प-तड़प कर,और रीना,जी कर भी मरी हुयी सी ही थी।देखने में लगा कि वह अजय का विकल्प पा चुकी है, रमेश में; किन्तु क्या सच्चे प्रेम का भी कोई विकल्प होता है? यह भ्रम है।
जीवन जी लेना- और बात है,और जीवन जीना बिलकुल ही और बात।सच्चे प्रेम का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता।
      जरा ठहर कर मैंने फिर कहा- प्रेम प्यार का पर्याय नहीं है मीना।प्रेम का पर्याय होता भी नहीं है।प्रेम अकेला है,अकेले के लिए सिर्फ।यहाँ दो का प्रश्न ही नहीं है। प्रेम गली अति सांकरी ता में दोउ न समाए।  प्रेम एक अबूझ पहेली है मीना, अकथ्य अनुभूति।जिसने किया वही जाना।वह जीवन ही क्या जहाँ प्रेम की हरीतिमा न हो।रही बात तड़पन की,तो इसे समझो- गुलाब के पौधे में कांटे की बात।क्या तुमने कोई ऐसा गुलाब देखा है,जिसमें कांटे न हों?’
      मीना ने बातों को नया मोड़ दिया- वैज्ञानिक नित नूतन खोज में जुटे हैं.हो सकता है- कोई ऐसा गुलाब भी बना लें जिसमें कांटे न हों। खैर छोड़ो इसे,एक बात बताओ - यह सब केवल सिद्धान्त बघार रहे हो या अनुभव भी है प्रेम का कुछ? तुमने क्या कभी किसी से प्रेम किया है? चाहा है किसी को?दिया है जगह अपने इस पत्थर दिल में जरा सी भी?’- कहती हुयी मीना मेरे सीने पर हथेली से थपथपाने लगी।
      उसकी बातों का जवाब मैंने तपाक से दिया- नहीं मीनू! माँ, मुन्नी और मैना के सिवा किसी से प्रेम नहीं किया।वैसे नाते रिस्ते, घर परिवार,टोले-महल्ले में बहुत लोग हैं,जिनसे स्नेह है; किन्तु स्नेह के प्रत्येक सूत्र को प्रेम के धागे में नगीं पिरोया जा सकता।’
      और मैं? मैं कहाँ हूँ तुम्हारी इस सूची में?’- मेरी आँखों में आँखें डाल गम्भीरता पूर्वक पूछा था,मीना ने।
      पहले तो ऐसा कभी कुछ महसूस न किया था,पर....।’- आगे के शब्द होठों के भीतर ही अटके रह गए थे -अब लगता है कि तुमसे भी हो ही गया है प्रेम।
      और अपनी ही बात की विवेचना करने लग गया था।सोचने लगा था- प्यार हो गया है मुझे मीना से? वैसा ही जैसा कि हीर को रांझा से? मजनू को लैला से? महिवाल को सोनी से? मुझको मैना से? मुन्नी से?माँ से,वसन्त से,पिताजी से,रामू और भोला से और मीना से भी....? नहीं..नहीं..ऐसा कैसे हो सकता है? सबके प्यार एक जैसे कैसे हो सकते हैं? मुन्नी गोद में आ जाती है,कस  कर उसे चूम
लेता हूँ,माँ भी मुझे गोद में लेकर चूमती है,वसन्त ने भी मेरे गालों को एक दिन चूम लिया था- कहते हुए कि तुम्हारे गाल बहुत चिकने हैं,पर टॉमस जैसे नहीं....।
      .....पर कभी भी तो ऐसा-वैसा कुछ नहीं लगा था; किन्तु आज भयाक्रान्त मीना जब मेरे सीने से चिपटी थी,उसके कांपते पैरों को देखकर अभी-अभी उसे मैं गोद में उठा लिया था, क्यों कुछ अजीब सा लगा था उस समय? इस गर्मी में भी ठंढ महसूस हो रहा था।सांस तेज हो गयी थी।धौंकनी की तरह दिल धड़कने लगा था। कलेजे में गुदगुदी सी होने लगी थी....।
 ...   आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? पहले तो कभी ऐसा न हुआ था।तो क्या औरों में और मीना में अन्तर है? कुछ है,अवश्य है कुछ न कुछ अन्तर....।
      ....माँ की गोद से भाग खड़ा होता हूँ,मुन्नी भी भाग जाती है मेरे गोद में आ-आ कर ।पर जब मीना चिपटी थी सीने से तो हटाने की इच्छा क्यों नहीं हो रही थी?लगता था बारबार वह भयानक सीन आया करे। सोफे पर पड़ी मीना की जब आँखें खुली थी तो शरमा क्यों गयी थी,खुद को मेरी जांघों पर सोयी पाकर? भय था तो शर्म क्यों? भय और शर्म एक साथ एक स्थान पर टिक कैसे सकते हैं....?
      इन्हीं विचारों में खोया था कि कॉलिंग बेल गरज उठा।मीना उठकर दरवाजा खोल दी।चाचा-चाची,रामू और वसन्ती सबके सब एक साथ प्रवेश किए घर में।
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      उस दिन दीपावली थी।सारा शहर दीपों की जगमगाहट से चकाचौंध था।मीना मिट्टी के दीए में ऐरंड तेल और रूई-बत्ती सजा कर मुझे देती जा रही थी।मैं उन्हें ले लेकर ऊपर कार्निश पर सजाते जा रहा था।
      फिर उसने फुलझड़ी जलायी थी।एक अपने हाथ में पकड़ी,औ दूसरी मेरे हाथ में दे रही थी।फुलझड़ी के प्रकाश में गुलाबी मैक्सी से आवेष्ठित मीना का काय सौष्ठव भी फुलझड़ी के समान ही चमक-दमक रहा था।मीना
से फुलझड़ी लेने के लिए मेरे हाथ बढ़ गए थे,उसके हाथ की ओर परन्तु गुस्ताख़ नजरें थी- उसके गुलाबी गालों पर,जो दीपमालिका के प्रकाश में और अधिक गुलाबी लग रहा था,बिलकुल ही गुलाब की पंखुडि़यों सी।फलतः मेरा हाथ जा लगा था फुलझड़ी के जलते भाग पर,नजरों की गुस्ताखी की सजा अंगुलियों को मिल गयी।
      तर्जनी का पहला पोरुआ बुरी तरह जल चुका था। ऊ...ई....’ की आवाज निकली मुंह से और हाथ की फुलझड़ी झट से फेंक, चट मेरी अंगुली मीना अपने मुंह में डाल ली थी।
      यह क्या कर रही हो मीनू?अंगुली मुंह में क्यों लगा ली? गन्दी लड़की।’- कहता हुआ मैं अपनी अंगुली खींच लिया था और उसके होंठ खुले ही रह गए थे- कौए के चोंच की तरह।
      पीछे खड़े उसके पापा हँसने लगे थे- मीनू बेटे इससे क्या होने को है? फौरन नीचे जाकर बरनौल’ ले आओ।’
      मीना दौड़ती हुयी नीचे चली गयी थी,और बरनॉल का ट्यूब लाकर,एक कुशल परिचारिका की भांति मरहम-पट्टी कर दी थी मेरी अंगुलि पर।
      इसे प्यार कहूँ या सहानुभूति? आखिर क्यों इतना ख्याल रखती है मेरे लिए? खाना-सोना,मेरे हर सुख-दुःख का कितना ध्यान है इसे, आखिर क्या है मेरे पास उसे दे सकने को;उसके त्याग,ममता ओर श्रम का उपहार? वस दिनों-दिन उसके एहसानों के बोझ तले दबता जा रहा हूँ। इस पूरे परिवार ने- चाचा-चाची और मीना ने,गंगा-यमुना-सरस्वती की त्रिवेणी की सी रचना कर दी है,मेरे सुख सुविधा के लिए।कहाँ मैं एक साधारण सा व्यक्ति,और कहाँ इनका असाधारण व्यक्तित्त्व।कोई तुलना नहीं,- राई और पर्वत,दीपक और सूर्य सा अन्तर है। फिर याद आ जाती हचाचाजी की वे बातें-
      ‘‘कमल मेरे अधूरे कर्तव्य को पूरा करना,तुम्हारा कर्तव्य है।"
      आखिर क्या है उनका अधूरा कर्तव्य? क्या करना है मुझे उनके अधूरे कर्तव्य को पूरा करने के लिए, अपनी ओर से प्रयास?-लाख सोचने पर भी कुछ समझ नहीं आता।
      यूँ ही चिन्तन-मनन में खोया,उलझा सा सो गया था उस दिन।सोचते-सोचते सिर झनझनाने लगा था।हाथ से गाण्डीव सरकते अर्जुन सी स्थिति हो गयी थी,किन्तु कृष्ण ओझल थे आँखों से।
     
      दशहरा,दीपावली,छठ, सब बीत गया।लम्बी छुट्टी का दौर समाप्त हो गया।नवम्बर के प्रथम सप्ताह में ही स्कूल खुल गया था।अन्तिम सप्ताह में ही टेस्ट परीक्षा होनी है -आज ही मामा ने बतलाया था।
      हमलोग फिर पूरे जोर-शोर से पढ़ाई पर आ जुटे थे।अन्य सारी गतिविधियाँ- घूमना-फिरना,फिल्म देखना, गाने सुनना - सब बन्द। बस रह गया था सिर्फ पढ़ना-लिखना,खाना-सोना...।
      घर से माँ की चिट्ठी आयी थी।मैना ने भी बड़े दैन्य भाव से आग्रह किया था,- भैया! टेस्ट देकर जरूर आना....।’
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      नियत समय पर परीक्षा प्रारम्भ होकर समाप्त हो चुकी थी।पन्द्रह दिसम्बर को मैं चाचाजी से आदेश लेकर घर जाने को तैयार हो गया था।चलते वक्त चाचाजी ने कहा था- कमल बेटे ! जल्दी चले आना।अभी तो सिर्फ टेस्ट ही हुआ है,असली मोर्चा तो बाकी ही है।
     
       दूसरे दिन संध्या समय घर पहुँच गया था।लम्बे समय के बाद बेटे से मिल कर माँ की छाती चौड़ी हो गयी थी।मुन्नी अब स्कूल जाने लगी थी- सुन कर प्रसन्नता हुयी।पहुँचने के साथ ही मैना के यहाँ जाने लगा,तो माँ ने कहा-  इतनी जल्दी क्या है? पहले मुंह- हाथ धोओ,कुछ खाओ-पीओे।वह सुनेगी तो खुद ही दौड़ी चली आयेगी।’ फिर भी मुझे सन्तोष न हुआ,मुन्नी को भेज ही दिया,उसे लिवा लाने को।
      सच में मैना सुनते ही चली आयी थी।पर यह क्या? पिछली बार और इस बार के मैना में इतना अन्तर क्यों? डेढ़ बर्ष पहले मैना गौरैया सी फुदकती रहती थी।कैसे,कब और कहाँ के प्रश्नों की झड़ी लगा देती थी- आते के साथ ही।किन्तु आज वही कुछ अजीब रंग-ढंग की नजर आ रही है- सालू का पता नहीं,लपेट रखी है पूरे
वदन पर छः गजी हैण्डलूम की साड़ी।न कोई प्रश्न न कोई किलकारी।वस चुपके से आकर,दरवाजे से टेका लगा, चुप खड़ी हो गयी,हल्की-हल्की मुस्कुराती हुयी।
      मैंने पूछा- यह क्या बाना बना रखी हो मैना?’
      पास ही बैठी माँ,जो पंखे से मेरी थाली पर की मक्खियाँ उड़ा रही थी,बोली- इतनी बड़ी हो गयी तो क्या साड़ी नहीं पहनेगी? इसी माघ में इसकी शादी होने वाली है।’
      मैना लजा कर हट गयी थी वहाँ से।मैंने आश्चर्य से पूछा था-शादी...अभी? इतनी जल्दी?’
      और नहीं तो क्या,सयानी विटिया विरारदरी की आँख में रेत सी चुभती रहती है।जितनी जल्दी हो सके शादी-ब्याह कर निश्चिन्त हो जाना चाहिए इसके वापू को।’- माँ ने कहा था,और उठ कर रसोई में चली गयी थी,मेरे लिए सब्जी लाने।
      मैं सोचने लगा था - मैना सयानी हो गयी।अब इसकी शादी हो जायगी।मीना भी तो इसी उमर की है।  मैं कुछ ही बड़ा हूँ उससे।सोलह साल कुछ ही महीने तो हुए हैं। माँ कहती है- सयानी हो गयी है मैना,तो इसका मतलब कि मैं भी हो गया सयाना?
      और यह सोचते-सोचते ऐसा महसूस होने लगा कि सच में मैं सयाना हो गया होऊँ।बारबार अपने ही अक्स को काल्पनिक आईने में निहारता रहा।मैं सयाना हो गया...मैं सयाना हो गया...और मीना...
वह भी हो गयी सयानी, जरुर हो गयी...मैना?  वह तो है ही सयानी,,तभी तो शादी होने वाली है।फिर कभी मेरी भी...।कहाँ रहेगी मैना.. कहाँ रहेगी मीना...कहाँ रहूँगा मैं?
      सोचते-सोचते सर दुःखने लगा था।कुछ अजीब सा लगने लगा था।खाना खाकर तुरत निकल पड़ा घर से।चला गया सीधे सोनभद्र के तट पर,वहाँ शायद कुछ शान्ति मिले।वही सोनभद्र जिसके सैकत पर लोट-लोट कर बचपन बीता।सोन की तराई में पसरी तरबूजों की वल्लरियाँ,आम,अमरुद,जामुन,कदम्ब,कमरख,बड़हर आदि के घनघोर बगीचे अभी भी तो है ही यहाँ।मैना भी है।माँ भी है।मुन्नी भी है।सब कुछ तो वैसा ही है।फिर मन क्यों नहीं लग रहा है यहाँ? क्या मैं बदल गया या यहाँ के लोग ही बदल गए?  क्या नहीं है यहाँ जो मुझे चाहिए? किसे तलाश रहा है मेरा मन?
      कुछ नहीं समझ पाया।समझने का जितना भी प्रयास किया,औ उलझता ही गया।किसी प्रकार दो दिन गुजारा गांव में,कभी सोन के सैकत को उछाल कर,तो कभी उड़ते हारिलों को निहार कर;और तीसरे ही दिन चल दिया वापस कलकत्ता।
      चलते समय माँ पूछी थी- फिर कब आओगे?’
      अब तो परीक्षा के बाद ही आना सम्भव हो सकेगा -कहता हुआ माँ का चरणस्पर्श कर,आषीश ले,घर से बाहर निकल पड़ा था। इस बार भी मैना मौन ही खड़ी रही थी दरवाजे पर।
      कलकत्ता पहुँच गया।
      अरे इतनी जल्दी आगए घर से? मैं तो सोच रही थी कि अभी महीना भर लगा दोगे।’- कहती हुयी मीना दौड़ कर लिपट पड़ी थी पहुँचते के साथ ही,जो बाहर ही टैरेश पर झूले में बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी।
      यह क्या कर रही हो मीनू?’- -कहता हुआ मैं उसे अलग हटाना चाहा था।
      बाप रे! छियानबे घंटों के बाद मिल रहे हो,और कहते हो कि क्या कर रही हो?’- और जोर से चिपटते हुए बोली।
      ऐसा नहीं करना चाहिए मीनू , गलत बात है।’-मैंने कहा तो हँसती-हँसती दुहरी हो गयी।फिर झूले पर ही खींच कर बिठा ली मुझे भी।धीरे-धीरे पेंगे लेती हुयी,गुजरे दो-तीन दिनों की बातें सुनाने लगी।

      दिन गुजरते चले गए।समय पंख लगा कर उड़ता रहा। अनुभव का प्रौढ़त्व मुझे गम्भीर बनाता चला गया।और मीना...वह तो और भी शोख,चंचल,चुलबुली होती चली गयी- अल्हड़...बिलकुल अल्हड़...नादान...बच्ची सी....दौड़ कर आना और लिपट पड़ना..यही तो काम था उसका।    
      मम्मी-पापा कोई भी हों,इसकी जरा भी परवाह नहीं थी उसे।वे भी इसे देख कुछ अन्यथा न लेते।हँसते हुए कहते- बच्ची है अभी....।’
      मैं भीतर ही भीतर जल भुन जाता,पता नहीं इनकी निगाह में कब होगी सयानी? और याद आ जाती पिताजी की कही,किसी प्रसंग की बात –प्राप्येतु षोडशे वर्षे गर्दभीचाप्सरायते...। और खीझ उठता मीना पर।यदि बच्ची है अभी तो फिर अकेले में मिलेने पर,छेड़ने पर नजरें क्यों झुक जाती हैं ? कपोलों पर सुर्खी क्यों,कहाँ से आ जाती है?
      ऐसी ही बातें दिमाग में आती रहती।कुछ का जवाब खुद ही मिल जाता,कुछ के आगे प्रश्न चिह्न लग कर रह जाते। और दिन गुजरते गया।
      एक दिन मार्च सिर पर सवार हो गया।सत्रह तारीख से प्रारम्भ हो जायगी हमलोगों की वोर्ड परीक्षा।वही परीक्षा जिसके लिए चाची ने एक दिन कहा था- कहीं फेल हुए तो वापस खाली टोकरी सी भिजवा दूंगी घर को।’
      क्या मैं फेल हो जाऊँगा? इतना मन लगा कर पढ़ रहा हूँ,आठ-दस घंटों की पढ़ाई-  क्या कम है इतनी मेहनत? किन्तु इसके बावजूद यदि सफलता न मिली,तो क्या चाची के कथन को ये’ चाची या चाचा भी साकार कर देंगे? ये भी मुझे खदेड़ देंगे अपने इस बंगले से....?’
      ....फिर कहाँ जाऊँगा? क्या करूँगा?-  सोचता हुआ अनायास ही चिल्ला पड़ा था,एक दिन।चीख निकल पड़ी थी मुंह से और पास के टेबल पर किताबों में आँखें गड़ायी मीना चौंक कर नजरें ऊपर उठाई थी।चाचाजी सो चुके थे,किन्तु चाची कीचेन में कुछ कर रही थी, दौड़ी हुयी आयी - क्या हुआ मीनू?’
      मुझे कुछ नहीं हुआ मम्मी।इसीने चीखा है।’-इशारा मेरी ओर था,मीना की अंगुली का।
      क्यों बेटे क्या बात है?’- बड़े सहानुभूति पूर्वक मेरे सिर पर हाँथ फेरती चाची ने पूछा था।
      होगा क्या,पागलों की तरह अंट-संट सोचता रहता है।एक दिन कह रहा- कहीं फेल हो जाऊँगा,तो चाची की तरह ही तुम्हारी मम्मी भी मुझे निकाल देगी अपने घर से?’ --ऐसा ही कुछ पागलपन आज भी सूझ गया होगा दिमाग में।’- अपनी कनपट्टी को अंगुली से ठोंकती हुयी मीना ने कहा था।
      चाची वहीं पास में बैठ गयी।गोद में मेरा सिर झुका कर बच्चों जैसा पुचकारती हुयी बोली- क्यों बेटे,ऐसी फिजूल की बातें सोच-सोच कर दिमाग क्यों खराब किया करते हो अपना? फेल क्यों होना है तुम्हें? इतना तेज विद्यार्थी कभी फेल होता है परीक्षा में ? तुम्हें पास होना है- फस्ट डिवीजन से।तुम दोनों ही पास करोगे इस परीक्षा में।फिर कॉलेज में नाम लिखवा देना है,तुम दोनों का.....।’
      भावावेश में कहती हुयी चाची अचानक मौन हो गयी थी।र फिर खुद ही खोती चली गयी थी,किसी भूल-भुलैया में चौड़ी-पतली पगडंडियों पर- ऐसा ही कुछ महसूस किया था,ैंने उस समय उनकी आँखों में तैरती आशा के बुलबुलों को देख कर;जिन्हें वास्तव में बरसाती पानी के बुलबुलों के समान ही तो फूट जाना पड़ा था।
      .....और फिर उनके मुंह से एक लम्बी उच्छ्वास सी निकल पड़ी थी- काश ! ऐसा ही हो पाता।’-और मुझे अपनी गोद में मींच कर,मेरे माथे को चूम ली थी।
      पास बैठी मीना आवाक देखती रही थी,इस दृश्य को कुछ देर तक।उसे कुछ विशेष पल्ले न पड़ा।
      रात काफी हो गयी है।जाओ सो जाओ तुम लोग अब।परीक्षा के दिनों में अधिक जगना भी ठीक नहीं है।’-कहती हुयी चाची कमरे से बाहर चली गयी थी।
      मीना थोड़ी गम्भीर सी थी।पता नहीं क्या फितूल चल रह था उसके दिमाग में।चाची के काश!...’ का अर्थ शायद उसे उद्वेलित कर रहा था।कुछ देर मेरी ओर देखती रही।उसकी आँखें बता रही थी,उनमें कुछ प्रश्न अटका हुआ है।किन्तु मुझसे कर न सकी,न जाने क्यों कोई प्रश्न,और चाची के जाने के कुछ देर बाद,वह भी चली
गयी थी- धीरे-धीरे बड़बड़ाती हुयी-  काश! ऐसा हो पाता मैं शान्ति से सो पाती।’
      वह चली गयी थी,अपने कमरे में सोने के उपक्रम में,मैं अकेला हो गया था।मेरे मस्तिष्क की कोशिकाओं में परावर्तित होते रहा था- सारी रात,एक ध्वनि- काश! ऐसा हो पाता।’
      यहाँ तक कि सबेरा हो गया।जबरन बन्द की गयी आँखें खोलनी पड़ी- वसन्ती की आहट और प्यालों की खनखनाहट से।सामने चाय लिए खड़ी थी वह।मीना भी थी।उसकी मुद्रा अभी भी गम्भीर ही थी। आंखें गवाही दे रही थी- अपने साथ हुए पूरी रात के संघर्ष और अन्याय के पक्ष में।चाय- सिर्फ पीयी गई,बिना किसी....।


      तूफान का दौर आया,और चला भी गया।
      पूर्व निर्धारित समय पर -सत्रह मार्च से -परीक्षा प्रारम्भ हुयी,औ समाप्त भी हो गयी।माथे का बोझ हल्का हो गया।चेहरे पर थोड़ी सी चमक आ गयी।कुछ दिन पूर्व तक जो सोचा करता था- कैसे कटेंगी,ये विकट घडि़याँ - परीक्षा की घडि़याँ,पर एक-दो-तीन करके सभी पेपर समाप्त हो गए,मात्र आठ दिनों में ही। और भूल बैठा कि यह पूरा का पूरा जीवन एक परीक्षा के सिवा, और कुछ नहीं है शायद....और यह जीवन भी तो लोग कहते हैं-  अनन्त है।एक से बढ़ कर एक परीक्षायें भरी पड़ी हैं।अनन्त ही है,फिर अन्त क्या? पास और फेल के कितने ही अंक-पत्र होंगे झोली में.....

      एक दिन मीना ने कहा था- अब तो परीक्षा समाप्त हो गयी।बहुत दिन हो गए हैं- हमलोगों को कहीं घूमे-फिरे।क्यों न प्रोग्राम बने कहीं चलने का....।’
      वसन्त भी वहीं था।मीना के प्रस्ताव पर प्रसन्नता व्यक्त की उसने- बहुत अच्छा है,टॉमस भी कल ही कह रही थी,पिकनिक पर चलने के लिए।’
      सर्व सम्मति से कार्यक्रम निश्चित हुआ।मीना ने घोषणा की - हम सब अगले रविवार को विश्वेश्वर पहाड़ी की यात्रा करेंगे।’
      कोई अस्सी किलोमीटर की यात्रा, घनघोर जंगल में है महादेव विश्वेश्वर का वह सुरम्य स्थान।
      वहाँ पर एक झरना भी है...बड़ा मजा आयेगा झरने में स्नान करने में।’- बताने में मीना इतना खु्श हो गयी मानों अभी गोता लगा ही लेगी।
      वसन्त ने कहा था- इतना लम्बा प्रोग्राम - तब तो दो तीन दिन की योजना बनानी पड़ेगी।’
      हर्ज ही क्या है इसमें? टॉमस साथ में रहेगी ही,दिन तो मिन्टों में गुजर जायेंगे।’- मीना ने चुटकी ली।
      अचानक मुझे याद आयी - इतनी लम्बी यात्रा की क्या जरूरत,पास ही करीब मात्र तीस किलो मीटर दूर, एक रमणीक स्थान है - महाकाली का एक बहुत ही प्राचीन मन्दिर भी है,झरना भी है।मन्दिर के अहाते में ही आम,सन्तरा,नाशपाती,केले और अंगूर बहुतायत से पाये जाते हैं।वहाँ का एक नियम भी मजेदार है- पांच रूपए की रसीद कटाओ और जी भर कर मन पसन्द ताजे-ताजे फलों का रसास्वादन करो; क्यों मीना! है न मजेदार बात? तो फिर इसे ही ओ.के. करो।
      मीना ने मेरी बात पर हामी भरी- तुम अच्छा याद दिलाए,पापा कहते हैं कि यह सिद्ध कालेश्वर मन्दिर कोई पांच सदी पुराना है।’
      पर अजीब है- नाम कालेश्वर और धाम काली का?’- वसन्त ने टिप्पणी की।
      हर्ज क्या है? काली, काल के घर आ बसी।वैसे भी काली’ शक्ति से रहित काल का क्या महत्व?’--ैंने स्पष्ट करने का प्रयास किया।और उस दिन की लघु गोष्ठी विसर्जित हुयी।
      अगले रविवार हम चारो- मैं,मीना,टॉमस और वसन्त- अहले सुबह ही चाय पी कर निकल गए।वसन्ती का जी ललचाकर रह गया था।
   दीदी आप लोग तो घूमने में ही मस्त रहेंगी, फिर खाना कौन बनायेगा?’
      किन्तु ऐन वक्त पर,लड़के वाले तीसरी बार उसे देखने आ गए, और बेचारी की इच्छा मन की मन में ही दबी रह गयी।अतः खाने का सामान कुछ रेडीमेड रख लिया गया,कुछ अनमेड’। साथ में स्टोव और कुकर भी ले लिया गया था।
      यात्रा के प्रारम्भ में मीना और टॉमस अपनी-अपनी प्यारी गाड़ी ड्राइव कर रही थी।टामस अभी हाल में ही नयी गाड़ी खरीदी थी।मीना भी जिद्द कर रही थी,ऐसी ही नयी गाड़ी के लिए।पापा ने कहा था-तुम दोनों अच्छा रिजल्ट ले आओ,फिर इससे भी अच्छी.बेशकीमती गाड़ी तुमदोनों के लिए  संयुक्त पुरस्कार के रूप में भेंट करना है।’
      शहर से बाहर निकलते ही मीना ने कहा- मुझे ही गाड़ी चलाने के लिए।चालक का स्थान ग्रहण करते हुए मैंने पूछा था कि क्या वह थक गयी है? जिसके जवाब में उसने कहा था- थक क्या बीस किलो मीटर की ड्राइविंग में ही जाऊँगीं? तुम साथ रहो तो हजारों मील की दूरी यूँही तय कर दूँ।’
      मीना मेरे कंधे पर हाथ टिका कर सेन्टर-मीरर को एडजस्ट करने लगी थी।पीछे से आती टॉमस की गाड़ी की स्पष्ट छवि आइने में नजर आने लगी थी।मीना मेरा ध्यान उस ओर आकर्षित करते हुए इशारा की। मैंने आइने में देखा- वसन्त और टॉमस स्वच्छन्द प्यार का निर्द्वन्द  प्रदर्शन कर रहे थे- चिडि़यों की तरह चोंच मिला कर।मुझे कुछ अच्छी नहीं लगी उनकी यह स्वच्छन्दता।साथ ही गौर किया कि मीना के गुलाबी गाल रक्ताभ हो गए हैं - गुस्से से नहीं कुछ और ही भाव वहाँ तैर रहे हैं
      अपने पैरों को एक दूसरे पर चढ़ा थोड़े और करीब आ गयी मेरी ओर।मेरे कंधे पर अपना सिर टेकती हुयी बोली- ऐसे सुहावने वातावरण में भी कहाँ खोए रहते हो कमल? देखो तो बाहर- सड़क के दोनों ओर अमलताश कितने खिले हुए हैं।लगता है- किसी नवोढा दुल्हन की चुनरी लहरा दी गयी हो इन सारे पेड़ों पर।’
     नजरें घुमाकर मैंने बाहर देखा- रात में बारिस हुयी थी शायद। बेमौसमी बारिस- हवा के तेज झकोंरे ने अमलताश के पीले-पीले फूलों को वृन्तों से अलग कर,ला पसारा था गोल-गोल घेरों में पेड़ों में चारों ओर।ऐसा लग रहा था मानों वसुन्धरा की वसन्ती सेज पर बैठा हो नटखट वनमाली सोने का मुकुट पहन कर।ईर्द-गिर्द छोटे-छोटे,हरे-भरे पौधे घेरे हुए थे अमलताश के उस बड़े पेड़ को,मानों कन्हैया को घेर कर गोपियाँ खड़ी हों।बायें हाथ से मीना के मुखड़े को अपनी ओर घुमाते हुए मैंने कहा था-
      खोया कहाँ हूँ मैं मीनू! अगर खोना ही होगा,तो कहीं और खोने जाने की आवश्कता ही क्या है? तुम्हारी इन लम्बी घनेरी काली बदरिया सी जुल्फों को बिसरा कर?’
      मेरी जुल्फों की काली बदली में तुम खो...ऽ...ऽ जाओगे जरा देखूँ तो.....।’- कहती हुयी मीना अपने उन्मुक्त गेशुओं को मेरे चेहरे पर विखेर दी थी।
      अरे ये क्या कर रही हो खिलवाड़? कहीं बैलेन्श बिगड़ जायगा तो?’- मुंह पर विखर आयी नागिन सी लटों को समेटते हुए ैंने कहा था।
      तो तुम इतने कच्चे चालक हो? मैं चाहूँ तो आँखें बन्द किये-किये दस-बीस मील गाड़ी दौड़ा दूँ।’- मीना मुस्कुरायी।
      बड़े मैदान में गोल-गोल चक्कर लगाकर,है ना?’- कहा था ैंने और हमदोनों ही एक साथ हँस पड़े।
      उसकी निगाहें फिर जा टिकी आइने पर,जो टॉमस की गाड़ी में हो रही हरकतों का वयान कर रहा था।   
      क्या देख रही हो,इस तरह घूर-घूर कर बार-बार आइने में?’- ैंने टोका था।
      हमसफर के पुराने जोड़ीदार को।कभी वह तुम्हारी ही तो थी, जो अब भाभी बनने को प्रयत्नशीलल है।’- कहती मीना अनावश्क ही हॉर्न दबा दी थी।
      यूँ नहीं देखा करते किसी के प्रेम-प्रसंग को।’- ैंने उसका हाथ हॉर्न पर से हटाते हुए कहा था।
      यूँ देखा नहीं करते,किसी के.... पर किया करते हैं,छिप-छिप कर...;क्यों यह ठीक है न?’- मुझे बगल में गुदगुदी करती हुयी बोली।
      क्या फायदा,देख-देख कर तरसने में किसी दूसरे की हरकत को?’
      तरसने की बात तो तब होती,जब मैं साधन हीन होती।क्या वैसा कुछ मेरे पास नहीं है? उससे कहीं ज्यादा...मैं अपने....।’- मीना कुछ भाउक हो आयी थी।
      है तो तुम्हारे पास भी साधन,पर वसन्त जैसी कला भी तो चहिए।’
      इसी कारण तो तुम्हारी टॉमस अब उसके पास चली गयी।’-मीना ने चुटकी ली थी।
      चली क्या गयी,ैंने ही उसे जाने दिया।उसे जो चाहिए था,वह ैं दे नहीं सकता था,फिर क्यों रोके रखता उसे?’ -ैंने स्थिति स्पष्ट की,जिसे सुन मीना थोड़ा चौंकीं।
      मेरे चेहरे पर अपनी नजरें गड़ाती हुयी बोली- तो क्या नहीं है तुम्हारे पास,जो उसे चाहिए था?’
      वही जिसकी चाहत शायद अब तुम्हें भी हो रही है।’- पहेली का जवाब पहेली में पाकर मीना शरमा गयी। उसकी पलकें झुक गयी थी; पर मेरी निगाहें गड़ी हुयी थी अब भी,आगे की प्रतिक्रिया की
प्रतीक्षा में।मैं देख रहा था,उस चन्दा को- प्यासे चकोर की तरह।ऐसा लग रहा था,मानों सावन की काली घटा में पूनम का चाँद शरमा कर छिप गया हो।मैंने पूछा- आज पूर्णिमा है न?’
      बेतुके सवाल पर नजरें ऊपर उठी, होठ फड़फड़ाये-  दिमाग तो सही है पंडित कमल भट्ट?’
      क्यों?’
      कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से सोलह दिन आगे होता है- पूर्णिमा।लगता है,ज्योतिषी जी का गणित कुछ गड़बड़ हो गया है आज।’- हवा में उड़ते केशों को समेटने का असफल प्रयास करती मीना ने कहा था।
      जो भी हो,गणित तो सही-गलत होते ही रहता है; मगर आँखें गलत नहीं कहती।मुझे पूनम का चाँद दीख रहा है,और मेरी आँखें खराब नहीं हो सकती।’
      मेरे कथन की सत्यता की जाँच के लिए उसने सिर बाहर निकाल, इधर-उधर असमान में नजरें दौड़ायी,फिर निराश नजरों ने सवाल किया- कहाँ? मुझे तो नहीं दीखा कहीं।’
    तुम देख ही गलत जगह पर रही हो।’- कह कर उसके  चेहरे को आइने के सामने कर दिया- इधर देखो।’
      आइने में अपना मुखड़ा देख वह फिर शरमा गयी।
      धत्ऽ! तुम बड़े वो हो...मैं समझी सच में कहीं चाँद नजर आरहा है तुम्हें।’- कहती हुयी गाड़ी में लगे कैसेट-प्लेयर प्ले कर दी।
      मधुर कर्नाटक संगीत कानों को तृप्त करने लगा।
      मैंने फिर छेड़ा- मुझे तो चाँद नजर आ ही रहा है,तुम्हें नहीं दीखा तो इसमें तुम्हारी आँखों की गड़बड़ी है,इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?’
      अच्छा बाबा, मेरी आँखें खराब ही सही,तुम सम्हालो अपनी आँखों की नूर को, चाँद को देखते-देखते कहीं तुम्हारी आँखें न सर्द हो जायें।’
      सर्दी लगेगी तो गर्म सेंक कर लूंगा।’
      सो कैसे?’- हाथ मटका कर उसने सवाल किया।
      ऐसे।’- -उसकी बिखरी लटों को अपनी आँखों पर लेजाते हुए मैंने कहा।
      क्या ये गरम हैं,जो सिकाई होगी इनसे?’
      और नहीं तो क्या- कह कर मैंने चूम लिया उन जुल्फों को-बाप रे! कितनी गर्मी है इन जुल्फों में,मेरे तो होठ जल गए।’
      होठ जल गए? पर यहाँ बरनॉल नहीं है।’
      मैंने हँस कर कहा- तो क्या हुआ,उससे पहले वाला उपाय ही सही, जो उस बार दीपावली में अंगुली जल जाने पर तुमने किया था।
     मेरी बातों की गहराई समझ कर उसके कपोल सुर्ख हो गए,नजरें झुक गयी।
      अचानक गाड़ी की गति थम गयी सडेन ब्रेक’ से।
      क्या बात है?’- उसने पूछा।
      बिना कुछ बोले,हाथ का इशारा किया- सामने देखने के लिए।
      ओ माई गॉड! ये तो चीते हैं।अब क्या होगा?’-उन्हें देख कर मीना घबड़ा गयी। दो चीते आपस में मुंह सटाये,बीच सड़क पर, रास्ता रोके बैठे हुए थे।
      मेरी गाड़ी धीमी हो जाने के कारण टॉमस की गाड़ी बगल में आ लगी।वसन्त ने सामने की संगीन स्थिति पर चिन्ता व्यक्त की- अब क्या किया जाय?’
      सीट के नीचे से टॉमस ने अपना रिवाल्वर निकाला,और बाहर हाथ निकाल कर फायर करना चाही।तभी मैंने टोका- ये क्या कर रही हो नादानी? जंगली जानवरों से अनावश्यक छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए।’- कहता हुआ मैं जोर से हॉर्न बजाने लगा।तेज आवाज सुन दोनों चीते पालतू कुत्ते की तरह उठ कर सड़क के दो किनारे, घने जंगल में घुस कर गुम हो गए।
      ैं तो समझी थी,आफत ही हो गया; किन्तु वे हॉर्न सुन कर ही भाग चले।’- मीना राहत की सांस भरी।
      हॉर्न सुन कर या टॉमस के कोमल हाथ में कठोर कृत्य वाला शस्त्र देख कर?’- वसन्त ने टॉमस की ओर देख कर कहा।
           (क्रमशः...........)

Comments

  1. निरामय के पंचम भाग के प्रकाशन के बाद गाड़ी फँस गयी है।कारण स्पष्ट नहीं है।प्रयास जारी है।देखें कब सफलता मिलती है।
    धन्यवाद।

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