निरामयःभाग छः(अन्तिम भाग)
दो-तीन सौ रूपये अभी मिल जायेंगे।काम
भी सिर्फ दो तीन घंटे का है,वह भी शाम में,सात से दस का।इस बीच यदि स्टेनोग्राफी सीख लेते हो, तो फिर जानों कि नौकरी परमानेंट- पूरे नौ सौ
मिलने लगेंगे, और क्या तुम्हें
चाहिए?’
अभी सोच ही रहा
था कि किन शब्दों में उसका आभार व्यक्त करूँ कि उसने आगे कहा- ‘जहाँ तक
डेरे की बात है,तुम तो
जानते ही हो-
महानगर का सुख-दुःख,डेरा खोजने
से- भगवान को खोजना अधिक आसान है।क्या मेरी इस १२×१० की बड़ी सी हवेली
में काम नहीं
चल जायेगा?"- कबूतर खाने
को हवेली बता कर, विजय खुद ही हँसने
लगा।
मैं उसकी हँसी में साथ
भी न दे सका,सिर्फ
मुस्कुरा कर रह गया।एहसान के बोझ से कुर्सी का पाया फर्श में धँसता हुआ सा
लगा।कितनों का कितना ही एहसान है मुझ पर! परन्तु क्या चुका पाता हूँ- कभी कुछ उसका
बदला? सोच कर
स्वयं ही शरमिंदगी लगने लगी।
अगले ही दिन से
विजय के दफ्तर में काम शुरू कर दिया। भगवत् कृपा, विजय से मिल कर एक ही साथ तात्कालिक सभी
समस्याओं का समाधान मिल गया।अभी महीने भर देर है- महाविद्यालय का सत्र प्रारम्भ होने में।तब तक तो
नामांकन व्यय भी निकल ही आएगा- एक माह के वेतन से।इन सब बातों की विस्तृत जानकारी शक्ति
को पत्र लिख कर दे दिया ।
कालचक्र अपनी धुरी
पर घनघनाता रहा।चार महीने पुनः हो गए- कलकत्ता प्रवास के।इस बीच दो बार पचास-पचास रूपये शक्ति को मनिऑडर कर चुका था।उसकी भी कई चिट्ठियाँ
समय-समय पर आयी
थी।
शक्ति ने लिखा था-
‘आप इधर की
चिन्ता छोड़कर अपने विकास पर ध्यान दें।घर का खर्च आज तक जैसे चलता आया है, आगे भी किसी प्रकार चलता ही
जायेगा।स्टेनोग्राफी सीख कर,पक्की नौकरी में आ जाइये, फिर मेरा भी दिन पलट जाय! सौभाग्य हो सकेगा-
कलकत्ता में ही
साथ
रहने का,जहाँ बचपन
के दिन बीते हैं।’
पत्र विजय ने भी
पढ़ा था,और
हँसता-हँसता दोहरा हो गया था-
‘ये औरतें भी अजीब
होती हैं यार! ’- फिर जरा गम्भीर
होते हुए बोला था- ‘यह जो ‘सौभाग्य’ शब्द
है न,अपने आप
में ही बड़ा भाग्यवान है।क्यों कमल?’
‘सो तो है हीं कहता हुआ मैं चल पड़ा था
दफ्तर।विजय आज जल्दी ही आ गया था।आते ही शक्ति का लिखा पत्र दिया था,और कहा था कि उधर से लौटते वक्त सीधे
चले आना है- चावड़ी बागान- आज रात वहाँ एक ड्रामें का आयोजन है।
लाख कोशिश के
बावजूद दफ्तर का काम दस बजे से पहले पूरा न हो सका।दफ्तर बन्द कर चाभी दरवान को
देकर,हिदायत
किया कि इसे सेठजी के घर पर दे आओ,मैं
जरा
जल्दी में हूँ।
और निकल चला
लम्बी डग मारते ‘शौर्टकट’ रास्ते पैदल ही।
काली घुमड़ती बदली सिर पर सवार थी-
हड़बड़ा कर बरसने को
बेताब।
चार माह लम्बे,इस बार के कलकत्ता ¬प्रवास में
चाह कर भी- या कहें हिम्मत के अभाव में- उस रास्ते से न गुजर पाया था; किन्तु आज लगता है
कि जाना ही पड़ेगा उस रास्ते से,क्यों कि आज का मेरा गन्तव्य- चावड़ी बागान ‘मीना निवास’ के पास ही तीन चार
मकान आगे है,जहाँ विजय
ने कहा है आने को।दूसरे रास्ते
से जाने में देर होगी,और बारिश में फंस जाने का खतरा है।
पता नहीं
अब
उस मकान का क्या हाल है! कौन देख-रेख में है उस प्रीतिकर हवेली का! चाचा-चाची तो
काशी वासी बन ही चुके होंगे,जैसा कि उनका घोषित विचार था।ओफ! मैं भी कितना कृतघ्न हूँ- एक बार भी उनकी खोज
खबर न लिया इतने दिनों में। क्या यह हुआ- साहस के अभाव में
या कर्तव्य बोध की त्रुटि कहूँ इसे- सोचता चला जा रहा था।बूँदा-बाँदी शुरू हो गयी।बादल गरज रहे
थे।हवा का झोंका तीब्र हो गया था,और साथ ही बहा ले गया था- विद्युत प्रवाह को भी।मुहल्ला अन्धकार
में डूबा हुआ था। मेरे कदम कुछ और तेज हो गये थे।
अभी ठीक ‘मीना निवास’ के सामने से गुजर
रहा था,सड़क की
दूसरी ओर से; तभी अचानक
कड़ाके की बिजली चमकी,और पूर्व विस्तृत अन्धकार को खदेड़,पल भर के लिए जगमगा गयी सभी मकानों
को।आवाज इतनी तेज थी कि मैंने बन्द कर लिए अपने दोनों कानों को।फिर एक-दो-तीन...जल्दी ही लागातार
कई बार कड़कती हुयी कौंध गयी विजली की चमक।क्षण भर को,जी में आया- दौड़ कर घुस जाऊँ,अपने उस पुराने घोसले में,और नजरें उठ कर ऊपर जा लगी- बालकोनी
से।कड़कती विजली के क्षणिक चकाचौंध में कौंध गयी पल भर के लिए मेरी आखों में एक
नारी मूर्ति,जो खड़ी थी- ऊपर बालकनी में रेंलिंग के
सहारे।
चमक चम्पत हो गया
था।अन्धकार फिर से ले लिया था अपने आगोश में,मकानों को।मैं आँखें तरेर
कर देखता रहा था।पांव वहीं चिपक गए जमीन से।अरे! यह चेहरा- यह तो मीना का है। पर अगले ही
पल अपने पागलपन पर खेद हो आया- जिसे गुजरे अरसा गुजर गया,वह यहाँ कैसे हो सकती है? तभी विजली
फिर एक बार
चमकी,किन्तु बालकनी खाली था- मेरे जीवन की
तरह।
अतीत की
पगडंडियों पर बोझिल कदमों से चलता जा रहा था,जब कि पांव तो पक्की सड़क पर घिसट रह
थे।कोई पांच मिनट बाद चावड़ी बागान पहुँच गया था। विजय प्रतीक्षा करते-करते उब रहा
था,बाहर ही
गेट पर खड़े।
‘मैं तो सोच रहा था,अब तुम आओगे ही नहीं।प्रोग्राम
प्रारम्भ हुए
काफी
देर हो चुकी है।’-कहता हुआ विजय मेरा हाथ पकड़े घुस गया भीतर हॉल में।
हमदोनों अन्दर जाकर बैठ गए।कार्यक्रम
चल रहा था।परन्तु उससे
कोई
वास्ता नहीं था मेरे मन को।
यहाँ तो अपने ही मंच पर- विचारों के रंगमंच पर अगनित नृत्य चल रहे
थे।ऐसे ही, मंच के माध्यम से
ही तो एक दिन मीना आयी थी,और मेरे हृदपीठिका पर आसीन हो गयी थी
किसी देवी-मूर्ति की तरह! और कक्ष के खुले वातायन से आने वाली रजनीगन्धा के सुगन्धित
झोंके की तरह,एक ओर से
आकर दूसरी ओर
निकल भी गयी- मेरे जीवन कक्ष को ‘रीता’ छोड़ कर।
सामने मंच पर
कार्यक्रम चल रहा था।मेरे मानस मंच पर भी अतीत का मंचन जारी था,पूरे कार्यक्रम
तक,या कहें
उसके बाद तक भी।कब वहाँ का प्रोग्राम खत्म हुआ,कब डेरा पहुँचा,पहुँच कर क्या किया- कहना असम्भव है।
और फिर दो-तीन
सप्ताह गुजर गए।कॉलेज जाना,दफ्तर जाना,डेरा आना,खाना-सोना और
अतीत की परछाईयों का पीछा करते रहना- बस यही मेरा काम रह गया था।
एक दिन पुनः उसी
रास्ते से गुजरना पड़ा।समय- संध्या करीब सात बजे का। मीना निवास के करीब पहुँचा
था।पर वह पुरानी रौनकता अब रही कहाँ।न गेट पर लटकता ‘न्योन साइन’ ही था--‘मीना निवास’ का,न कम्पाउण्ड के चारो कोनों पर खड़े
पहरेदार -‘भेपर लैम्प’ ही अपना प्रकाश
विखेर पा रहे थे।लॉन की फूल पत्तियाँ भी अपनी प्यारी मालकिन के गम में सूखी-मुरझायी पड़ी थी।‘कुत्ते से सावधान’ का प्लेट भी गेट का
दामन छोड़ चुका था।गेट का पूर्वी ‘पाया’ पैंतालिस के कोण पर
कमर झुकाए,बूढ़े
दरवान की तरह खड़ा
था,निस्तेज...
ठीक सामने पहुँच
कर ठिठक गया,अचकचा कर।लॉन
से गुजर कर एक सफेद लिवास शक्ल,बाहर वाली लोहे की घुमावदार सीढि़याँ चढ़ती नजर आयी।अभी मैं सोच ही रहा था कि
यह कौन हो सकती है,तभी वह पल
भर के लिए पीछे पलट,फिर खटाखट
सीढि़याँ चढ़ती आड़ में गुम हो गयी।
उसका पीछे पलटना
था कि मैं भौचंका रह गया-
अरे! यह तो
वही
शक्ल है,जिसे उस
दिन विजली की चमक में बॉलकोनी में खड़ी पाया था।यह क्या तमाशा है? क्या यह सही है,या मेरे मन का वहम? सोचता हुआ,क्षण भर को ठिठका रहा, फिर आगे बढ़ गया। भ्रम ही हो सकता है,हकीकत का सवाल कहाँ - अपने आप को
समझाना पड़ा- हमेशा उसकी याद में रहता हूँ ,उसी का यह नतीजा है।परन्तु क्या सिर्फ
निरंतर याद आने से ही ऐसा हो सकता है? याद तो पिताजी की हमेशा आती है,पर कभी उन्हें सपने में भी नहीं
देखा
आज तक।
तभी दूसरी बात
याद आयी- मीना ने आत्महत्या की है।अकाल मृत्यु हुयी है- वह भी भरपूर जवानी में, यौवन के तड़पन के साथ... कहीं
ऐसा
तो नहीं कि उसकी रूह तड़पती हुयी भटक रही है?
ओह! कितना स्नेह
था,उसे इस
मीना निवास से,क्यारियों
में लगे
गुल-बूटों
से! माली था,नौकर था,दाई थी,फिर भी हमेशा अपने ही हाथों सींचा
करती थी प्यारे पौधों को-‘बच्चे को ‘आया’ के हाथों दूध
पिलाना अच्छा नहीं होता कमल।आगे चल कर ये ही बच्चे मातृ
द्रोही हो जाते हैं।’- ऐसा ही प्रौढ़
विचार था उसका।समय से
पहले ही बौद्धिक प्रौढ़ता आ गयी थी।
तो सच में उसकी
आत्मा- प्यासी आत्मा ही भटक रही है क्या! उस दिन की फिल्म- प्यासी आत्मा देख कर
कितना घबड़ायी थी वह- ‘प्यार का अंजाम ऐसा भी हो सकता है,मैं सोची भी नहीं
थी
कमल।’-कहती हुयी ही तो मेरे सीने से चिपट गयी थी।
ओफ! मीना! अच्छा
होता उस अजय की भटकती आत्मा की तरह,जिस प्रकार प्यार की प्यासी उस आत्मा ने अपनी प्रेयसी
रीना को अन्ततः पा लिया था;तुम भी पा लेती....काश! यदि तुम्हारी आत्मा भी भटक रही
है,तड़प रही
है मेरे लिए,तो पा लो
मीनू! अपने इस कमल को...आ जाओ मीना...समालो अपनी बाहों में...अट्टहा्य करो तुम भी
उस भटकती आत्मा की तरह मुझे पाकर।
इन्हीं
खयालों
में खोया हुआ,डेरा
पहुँचा था- रात ग्यारह बजे। आज दफ्तर में भी काम में मन नहीं
लगा
था।घंटे भर का हिसाब-
तीन घंटे मगजपच्ची करने के बाद भी गलत ही हो
गया;और फाइल
बन्द
कर चला आया था।
डेरा पहुँचने पर
विजय ने एक लिफाफा दिया- पत्र शक्ति का था।उसने लिखा था-
‘आप सच में
वहाँ जाकर भूल ही गये कि घर भी है।यहाँ भी कोई आँखें बिछाये है...छुट्टी होते ही चले
आइयेगा...कहीं किसी और
कॉलेजियट
तितली के फेर में न पड़ जाइयेगा......।’
सदा की भांति आज
भी लिफाफा खुला हुआ ही मिला था, विजय की यह
पुरानी आदत थी।आपसी खुले व्यवहार के कारण हमें भी कोई आपत्ति नहीं
हुयी
कभी।
पत्र पढ़ कर
विस्तर पर पड़ गया औंधे मुंह।सिगरेट के टुकड़े को फर्श पर फेंकता हुआ विजय मुस्कुरा
रहा था- ‘क्यों यार!
लग गयी न हवा कॉलेजियट तितली की रंगीन पंखों की? औंधे मुंह क्यों पड़ गये,पत्र पढ़ कर? इसी वास्ते कहता हूँ- शादी-ब्याह
के चक्कर में
नहीं
पड़ना
चाहिए।देखो तो मैं
कितना
‘बमबम’ हूँ ,अपने आप में एकदम मस्त।न बीबी का
व्यंग्य,न घर जाने
की फिकर।’
पलट कर सीधा हो
गया।सामने दीवार पर लगे कैलेन्डर पर निगाहें गयी,और गिने लगा था अंगुलियों पर।
‘गिनते क्या
हो यार! गिनती भूल गये हो क्या? आज अभी चौदह तारीख ही है।कॉलेज की छुट्टियों में अभी दो
दिन देर है।’
‘सोच रहा
हूँ कि कल भर क्लास कर लूँ,परसों तो शनिवार है,सिर्फ दो पीरियड ही होना है।कल दफ्तर से
जल्दी ही छुट्टी कर लूँगा, ताकि दून
एक्सप्रेस पकड़ लूँ।’- कहते हुए सोने का उपक्रम करने लगा,आपादमस्तक चादर तान कर।
‘खाना वाना नहीं
है
क्या?’ - विजय ने
पूछा।
‘नहीं।
इच्छा नहीं हो रही है।शाम में नास्ता ज्यादा कर
लिया था।’
‘तब तो मैं बेकार ही खाना बनाया।मुझे भी इच्छा नहीं
थी
खाने की।दो ही
रोटियाँ तो खायी है मैंने।बाकी
पड़ी ही है।’- अधजला सिगरेट नीचे फेंक कर,उसने भी चादर तान ली
‘आज कल यहाँ
भी मच्छड़ बहुत हो गये हैं।’- मैंने कहा।
‘तो कहाँ
जायें ये मच्छड़ बेचारे बेरोजगारी के जमाने में इन्हें बहुत संघर्ष से भोजन जुटाना
पड़ता है,
आबादी
बढ़ेगी तो बेरोजगारी
बढ़नी
ही है।वैसे भी कलकत्ता कारपोरेशन में काफी भेकेन्सी है मच्छरों की।दूसरे राज्यों
से भी मच्छर बुलाये जा रहे हैं।’-
कहता
हुआ विजय हँसने लगा था।
चादर तो तान लिया,पर नींद कोसों दूर थी- आँखों से।एक ओर था शक्ति का भोला मुखड़ा,तीखा व्यंग्य- कॉलेजियट तितलियों के
फेर में न पड़ जाइयेगा...तो दूसरी ओर था- मीना निवास की सीढि़याँ चढ़ती सफेद शक्ल.....
....वही
रूप...वही रंग...वैसा ही लिवास...वैसी ही लचक...इसी तरह ही तो मीना सीढि़यों पर
थिरक-थिरक कर पांव धरती थी।इसी लचक-मचक में एक दिन गिरती-गिरती बची थी।खैरियत थी कि मैं पीछे ही था,अन्यथा उसी दिन गिर कर जान गँवा
बैठती।
जान तो गँवायी
ही।गिर कर ही।पर, सीढि़यों के वजाय
टेªन से।
चुटकी भर सिन्दूर उठा,जा लगा था हाथ,उसकी मांग से;और कहा था मैंने- आज तुम्हारी मांग के साथ मैंने पूरे संसार को ही मांग लिया है,साथ ही स्वयं के लिए दोहरी
जिन्दगी।एक ओर मेरी बाहों में तुम
रहोगी, और दूसरी ओर रहेगी- शक्ति।कितना सौभाग्यवान होऊँगा मैं।
इस पर कहा था
उसने- ‘घबड़ाओ नहीं,सारी
रात दोनों बाहें पसार चित पड़े रहने की संकट में न डालूँगी तुम्हें।अभी इस अवस्था में तुम्हारी गोद में पड़ी-पड़ी ही आँखें
मूंद सदा के लिए सो रहने में जो स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति हो रही है,वह क्या कभी और पा सकूँगी?’
मैंने उसका मुंह ढक दिया था,अपनी हथेली से।मेरा हाथ हटाती हुयी
वह बोली थी- ‘अपने हाथों से मेरा मुंह ढककर,मेरी जुबान बन्द कर सकते हो,पर इन्हीं
हाथों
से यमदूत के पाश से छुड़ा लोगे- तब न देखूँगी तुम्हारी हिम्मत; जैसा कि सावित्री
ने अपने तर्क-बुद्धि से छीन लिया था सत्यवान को,निरस्त कर दिया था मृत्युपाश को।’
वास्तव में कहाँ
हिम्मत हो पायी मेरी! कहाँ छीन पाया उसे मैं मौत के भयानक पंजों से! वह चली गयी यूही,तड़पती हुयी -अतृप्ता- विवाहित
कौमार्य के कफन में लिपटी हुयी...जाने से कुछ पहले वह पानी मांगी थी। गिलास उसके होठों से लगा दिया था मैं।एक ही घूट में आधा खाली करती हुयी बोली थी- ‘तृप्ति नहीं
हो
पा रही है कमल!’
काश! वह मिल गयी
होती,मैं तृप्त कर पाया होता
उसे अपने प्रेमसागर
से। किन्तु शीतल-सुस्वादु जल से तृप्त न हो सकने वाली,क्या मेरे मनहूस प्रेमसागर के खारे
जल से तृप्त हो पाती?
हाय मीना! मैं तड़पूँ तेरे प्यार
के लिए,और तू तड़पे
अपूरित प्रेम
और
मोक्ष के लिए? हा मोक्ष! कितना कठिन है तुझे
पाना!
किन्तु यह कैसे
मानूँ- दाह संस्कार हुआ है,पतित पावनी जाह्नवी के तीर पर पवित्र पाटलीपुत्र में,उर्ध्व दैहिक क्रियायें सम्पन्न
हुयी- पूरे
विधि-विधान
के साथ वैदिक मन्त्रोच्चार पूर्वक,मोक्षाधिराज की नगरी काशी में।फिर भी तड़प ही रही है उसकी
आत्मा मोक्ष के लिए? वैदिक श्राद्ध में
यदि इतनी भी सामर्थ्य नहीं है,फिर क्या अर्थ है इस विधान का? क्या प्रयोजन है? क्या महत्त्व रह
जाता है? क्या सिर्फ
आडंबर? दिखावा?अन्धश्रद्धा?
--विचारों के इसी
उथल-पुथल में सबेरा हो गया था,पर निःशंक न हो पाया था- वह सफेद शक्ल वस्तुतः मीना की भटकती
आत्मा है या कि
मेरा भ्रमजाल मात्र?
अन्धकार में
रस्सी पाकर,सर्प की
प्रतीति होती है,पर इस भ्रम
का हेतु तो विद्यमान होता ही है...यानि कुछ तो था- सांप न सही,रस्सी ही हो,क्यों कि दोनों का न होना तो असम्भव
है...इसी सोच में सर खपाता रहा,पर कोई समाधान न पा सका।
क्या है यह
सब...क्यों हो रहा है...क्या करूँ...कहाँ जाऊँ...कौन देगा समाधान....कौन करेगा
मार्गदर्शन...सब अनुत्तरित....
हृदय के ऊपरी
कपाटों में था- दिवंगत मीना की स्मृतियों का कसक...निचले कपाटों में थी- शक्ति के
प्रेमसागर की उत्ताल तरंगे...
जीवन- प्रेम-संगीत है,जिसे गाना है शक्ति की युगलबन्दी
में...और यही
जिन्दगी
गमों का सैलाब भी है,जिसे पार
करना है एकाकी ही।फर्क सिर्फ इतना ही है कि शक्ति के प्रेमोदधि में पनडुब्बी सा
गोता लगा कर पार कर जाना है; तो मीना के गम-सागर को तैर कर पार लगाना है- अकेले -‘एकला चऽल
मानुष,एकला चऽल’।
हो भी रहा है ऐसा
ही कुछ।गमों के सागर में तैरते-तैरते जब थकने लगता हूँ तो चुपके से पलायन की इच्छा
होती है- शक्ति के
प्रेम-दरिया
की ओर....
हालांकि
चार-साढ़े चार महीने बहुत ज्यादा समय नहीं होते,पर प्यार की तड़पन और तनहाईयाँ इसे बहुत
लम्बा कर देती है।किन्तु इस कल्पना मात्र से ही थिरकन और सिहरन शुरू हो गया था कि अब देर नहीं
है।घर
पहुँचते ही शक्ति दौड़ कर बाहों में समा जायेगी और प्यार भरे उलाहनों से ढक देगी।
संध्या चार बजे
घर पहुँचा था।माँ पड़ोस में मैना के घर गयी हुयी थी।मुझे देखते ही मुन्नी दौड़ पड़ी थी उसे बुलाने।घर में
अकेली रह गयी थी शक्ति,जिसे देख मन ही मन प्रसन्न हुआ कि
चलो अच्छा ही है,रात का
इन्तजार किये वगैर,एक बार
मिलन तो हो ही
जायेगा।शक्ति
वरामदे में बैठी स्वेटर बुन रही थी,शायद मेरे ही लिए,क्यों कि बने स्वेटर के हर फंदों में झलक रहा था प्रेम का
पराग।
‘कॉलेज बन्द
हो गया इतनी जल्दी?’- खु्श से थिरक उठी शक्ति।ऊन के लच्छे को चटाई पर रख,खड़ी हो गयी।
हाथ में लिए
अटैची को एक ओर रखते हुए बोला- ‘सप्ताह भर बाद दशहरा
है,अब क्या दीपावली
में बन्द होता मेरा कॉलेज?’ -और लपक कर भर लिया था शक्ति को अपने आगोश में।
‘धत्! कोई आ
जायेगा तो,आंगन का
दरवाजा खुला है।?’-कहती
हुयी
शक्ति बाहुबन्धन तोड़ने का असफल -अनिच्छित प्रयास करने लगी थी।
‘तो क्या
होगा! कहेगा- दो बेकरार दिल घुल-मिल रहे हैं।कोई अतिक्रमण थोड़े जो कर रहा हूँ किसी
गैर की चीज का।’-
कहता
हुआ चटाक से चूम लिया था।
तभी पीछे पदचाप
का आभास मिला।बन्धन शिथिल पड़ा,शक्ति झट अलग हो गयी।पीछे मुड़ कर देखा- मैंना खड़ी थी दीवार की ओट में।
‘क्यों मैना,छिपी क्यों हो?आओ इधर।’- कहता हुआ आंगन में
ही खाट पर बैठ गया।शर्म से सिर झुकाये शक्ति,बाल्टी लेकर कुंए की ओर चली गयी- पानी लाने।
पीछे से जाकर मैना उसके हाथ से बाल्टी ले ली,- ‘लाओ पानी
मैं भरती हूँ ,तुम जाओ उधर ही...कुछ बाकी हो अभी शायद....।’-कहती हुयी मैंना मुस्कुरा दी थी।शक्ति शरमाती हुयी
फिर इधर ही आ गयी।
‘देखे,हुआ न धोखा।क्या कहती होगी मैना, इतने बेताब थे कि रात का....।’
‘तो इसमें
झूठ क्या है,बेताब नहीं
थी
तुम?’--हँसकर मैंने कहा।इस पर शक्ति कुछ कहती, तभी मैना आगयी पानी लिए।
‘माँ कहाँ
रह गयी मैना?’- मैंने पूछा।
‘रामू के
यहाँ गयी होगी।मुन्नी गयी है बुलाने।’-कहती हुयी मैंना मेरा पैर पकड़ कर बैठ गयी,धोने के लिए।
‘देखे,बहन की होशियारी,नेग लेने के लिए।’-शक्ति ने चुटकी
ली।
‘छोड़ो,इसकी क्या जरूरत है?घबराओ नहीं,शक्ति
के कहने से,तुम्हारा
नेग नहीं कटेगा।लाओ,लोटा दो।पैर मैं खुद ही धो लूँगा।’- कहते हुए लोटा लेकर
पैर धोने लगा।
तब तक माँ और
मुन्नी आ गयी।
‘आ गए
बेटे!अच्छा हुआ जल्दी चले आये।मैं सोच रही थी,चिट्ठी भिजवाने को।’- चरणस्पर्श के साथ ही पुलकित होते हुए माँ ने कहा।
‘परसों ही शक्ति
की चिट्ठी मिली थी।लिखा था उसने कि तुम्हारी तबियत खराब चल रही है।आना तो था ही,कुछ जल्दी आ गया।’
हँसती हुयी माँ
ने कहा-‘तबियत में
क्या हुयी है मेरी,बहू रोज अंगुली पर दिन गिना करती थी।मैंने ही कहा था एक दिन कि लिख दो चिट्ठी- जल्दी आ जायेगा।सही में इसने चिट्ठी
लिख कर बुला ही लिया तुम्हें।’
माँ की बातों पर
जोरों से हँस दी मैना- ‘अच्छा तो
ये माजरा है?चुपके-चुपके चिट्ठी चली भी गयी भैया के पास,किसी को पता भी न चलने दी भाभी।मैं जानती तो लिख देती
कि अभी चार महीने
तक
घर आने की कोई जरूरत नहीं है।’
शक्ति शर्मा
गयी।उठ कर चल दी रसोई घर की ओर।हमलोग बैठे बातें करते रहे।
कुछ देर बाद
नास्ता और चाय लिए शक्ति आंगन में पहुँची।मैंना को फिर नुख्ता मिला- ‘चाय की घूंट पर
कचौडि़याँ खाओगे क्या भैया?’
मैंना की बातों का जवाब,मेरे बदले शक्ति ने ही दिया- ‘इनकी तो
आदत ही है- चाय बिलकुल ठंढी कर के पीने की।जब तक नास्ता करेंगे,तब तक चाय ठंढी हो चुकी रहेगी।’
‘इनकी आदत
है ठंढी चाय पीने की,और तुम्हारी
आदत है- उल्टी-सीधी चिट्ठियाँ लिखने की,क्यों भैया?’-मैंना ने फबती कसी,और एक साथ हम सब हँस
दिये।
मुन्नी मेरा
अटैची खोलने की कोशिश कर रही थी- ‘देखती हूँ- भैया क्या-क्या लाए हैं।’
माँ ने आँखें दिखायी- ‘क्या कर रही है?’
तब तक मुन्नी अपना काम कर चुकी।खोलते के साथ ही मिठाई
का पैकेट दीख गया,जिसे लेकर
सरपट भाग चली।
‘और कुछ नहीं
चाहिए
तुम्हें पूछते हुए
मैंने इशारा
किया शक्ति
को,अन्य सामानों को निकालने के लिए। मुन्नी
वहीं खाट पर बैठी पैकेट की मिठाइयाँ गिन रही थी- ‘चार
मेरे...चार भैया के...चार दीदी के...चार माँ के...बाकी बचे सो भाभी के...ना बचे
सो...सबके।’
शक्ति उन सामानों को निकाल कर माँ के
सामने खाट पर रखने
लगी।उलट-पुलट
कर देखते हुए माँ ने कहा- ‘मुझे क्यों दे रही हो, रखो न अपने ही पास।’
देखो न माँ,क्या है उसमें- मेरे कहने पर माँ
खोलने लगी
पैकेटों को।चार-पांच साडि़याँ,मुन्नी के फ्रॉक-पैन्ट, कुछ अन्य सामान निकाल कर खाट पर फैलाती हुयी माँ ने कहा-
‘क्या जरूरत
थी,इतना कुछ
करने के लिए अभी तुम्हें? किसी तरह पढ़ाई पूरी करो,घर-गृहस्थी की चिन्ता अभी व्यर्थ अपने सिर
पर लाद रह हो?’
काफी देर तक कुछ
ऐसी ही बातें होती रही- घर-गृहस्थी,खेती-
बारी,आस-पड़ोस आदि की टीका-टिप्पणी चलती रही।बाद में मैं चल दिया उठ कर बाहर
घूमने- सोनभद्र के तट पर।रामू,भोला आदि पुराने यार-दोस्त मिल गए उधर ही।उन्हीं सबसे गप्पें लड़ाता रहा।थोड़ी रात गए घर
वापस आया।मुन्नी कब की सो चुकी थी।माँ बिना खाये ही,अभी तक मेरी प्रतीक्षा में बैठी थी।
शक्ति खाना परोस
कर ले आयी।अभी खा ही रहा था कि बाहर से किसी ने आवाज लगायी।जल्दी से भोजन समाप्त कर मैं चला गया बाहर।देखा- भोला के बापू बैठे हुए
थे।फिर उन्हीं के साथ बातचीत होने लगी।जमीन जायदाद
की पुरानी चर्चा छिड़ गयी।बँटवारे के समय के पंचों के व्यक्तित्त्व और स्वभाव की आलोचना होने
लगी।इन्हीं बातों में कोई दो घंटे निकल गए।
रात करीब एक बजे
कमरे में पहुँचा।शक्ति निर्भेद सो रही थी।पलंग के बगल में खूँटी पर लालटेन लटक रहा
था।मद्धिम रौशनी, पीली आभा पूरे कमरे
में विखरा हुआ था,जिसके कारण
पलंग पर पड़ी शक्ति का गोरा मुखड़ा कुछ और अधिक गोरा लग रहा था।बिलकुल चित्त होकर
दोनों हाथों को सिर की ओर रखे,अर्द्धनिमीलित
पलकों में सोने की आदत सदा से रही है,शक्ति की।
गले में पड़ी
सोने की सिकड़ी नीचे की घटियों में उतर आयी थी,और उसमें पिरोया हुआ लॉकेट हृदय के
आकुंचन-प्रकुंचन के साथ ही नृत्य कर रहा था।कानों की बालियाँ और नाक का लौंग चम्पै
साड़ी को फीका बतलाने का प्रयास कर रहा था,परन्तु माथे की विभाजन रेखा में सोये
सिन्दूर के कारण थोड़ा सशंकित सा था,कारण कि उसका एक और साझीदार अभी जगा हुआ था- लाल
बिन्दिया।पलंग पर बैठते हुए मैंने शक्ति के चेहरे को गौर से निहारा,और पाटल पंखुडि़यों से कोमल,किसलय-कान्ति युक्त होठों पर अपने
होठ बिठा दिये।इस क्रम में मेरे सीने के दबाव से उन्नत उरोज थोड़ा दब गया था,जो बड़ी चुस्ती से तन कर बैठा था-
सोयी हुयी सौन्दर्य श्री
की
चौकसी करने हेतु।नतीजा हुआ कि उस पहरेदार ने शोर मचा कर जगा दिया,अपनी मालकिन को।
हड़बड़ा कर शक्ति
पलकें खोल दी थी।
‘जगाया भी नहीं
आपने
मुझे?’- कहती हुयी शक्ति
अपनी बाहों को फैला कर गजले की तरह मेरे गले में डाल दी थी।
‘जगा ही तो
रहा था।’- कह कर मैं लेट गया,उसके बगल में।
‘अच्छा
तरीका है जगाने का।इसी तरह से सबको जगाते हैं क्या?’- मुस्कुराती हुयी शक्ति ने पूछा।
‘तुम्हारे
सिवा और किसे जगाता फिरूँगा इस तरह नींद से?’- कहता हुआ कस लिया
आलिंगन में और चूम लिया उसके अधरोंष्ठों को।
ऐसी ही हरकतें
होती रही कुछ देर तक,और फिर पुरुष
ने कर दिया
न्योछावर स्वयं को नारी पर।दे डालने की कर्त्तव्यपरायणता में नारी ने सम्पूर्णतया
दे ही डाला
स्वयं
को; कहीं कुछ
छिपा कर,बचा कर रखा
नहीं।इस आदान-प्रदान में ही तृप्ति निहित है संसार मात्र की।पर यही वह मंजिल है,जहाँ पहुँच कर ज्ञान होता है भोले
पुरुष
को।आँखें खुलती है जब,वर्तमान को निःशेष पाता है तब।और जब
वर्तमान ही निःशेष हो जाता है,तब मानव अतीत के द्वार पर दस्तक देना प्रारम्भ करता है।
थोड़ा ही तो
अन्तर है- मीना औा शक्ति में।गोरी अधिक जरूर है शक्ति,पर मीना की लम्बाई कहाँ पा सकी है,चेहरे की बनावट ऐसी है,जो अपनी तो नहीं पर चचेरी-मौसेरी का
भ्रम पैदा कर जाये....और
मैं खोता गया अतीत की
इन्हीं बेढंगी पगडंडियों पर।काफी देर तक कमरे में मौत का सा सन्नाटा छाया
रहा।दोनों ही चुप पड़े रहे,मानों दोनों ही किसी गहन चिन्तन-मनन में निमग्न हों।बात कुछ ऐसी ही थी
भी।विचारों की बाढ़ में सन्नाटे की खामोशी जब काट खाने को दौड़ी तो घबड़ाकर शक्ति का मुंह खुल गया-
‘क्या सोच
रहे हैं?’
‘कुछ तो नहीं।’- मेरा संक्षिप्त सा
उत्तर था,पर इतने से
शक्ति को संतोष कहाँ?’
‘कुछ नहीं
या
बहुत कुछ?’-मुस्कुरा कर कहा उसने।
‘सोचूँगा
क्या! सोना चाह रहा हूँ ,पर नींद नहीं
आ
रही है।’
‘जो
नहीं
आना
चाहे,उसे जबरन
बुलाने का क्या औचित्य? कुछ बात ही करें तब तक।’-कह कर शक्ति हाथ बढ़ाकर,खूटी में टंगा लालटेन थोड़ा तेज कर दी।
‘क्या बात
करूँ,कुछ सूझ नहीं
रहा है।’-कह कर मैंने आँखें
बन्द कर ली।लालटेन का प्रकाश सीधे आँखों पर ही पड़ रहा था।
‘इतने दिनों
बाद आए हैं,और बातें नहीं
हैं कुछ करने को मुझसे अजीब है! तो क्या सिर्फ ‘इतने’ भर से ही मतलब रहता
है मुझसे?- कहती हुयी शक्ति
गम्भीर हो गयी थी अचानक।
‘कितने भर से?’- मैंने पूछ दिया।
‘वस वही
सब...जो अभी-अभी आपने किया।’- शक्ति की नजरें मेरे चेहरे को बेध सी रही थी।
मैंने मुस्कुरा कर पूछा- ‘तुम कहना
क्या चाहती हो?’
‘गाजर...बैगन...मूली...और
क्या?’
‘मतलब?’
‘कुछ नहीं,यूँही।’- जरा
ठहर कर फिर पूछा था उसने- ‘अच्छा,एक बात पूछूँ?’
‘पूछो,क्या पूछना चाहती हो?’
‘आप कहानियाँ लिखते
हैं न?’
‘हाँ,लिखता तो हूँ ,पर ‘था’ कहना ज्यादा अच्छा
होगा।’
‘था और है
में थोड़ा सा ही तो अन्तर है।
‘थोड़ा ही क्यों? पूरे
एक, ‘काल-खण्ड’ का अन्तर है।भूत और वर्तमान का अन्तर।’
‘मैं कहती हूँ- काल के इस विभाजन का ही ‘अकाल’ हो जाना चाहिए।न
रहे भूत, न आदमी झांकने जाए
अतीत में।और फिर भावी की जिज्ञाशा या चिन्ता भी न रह जाए।जो रहे- बस
वर्तमान...वर्तमान ही वर्तमान,और कुछ नहीं।’
‘यह भरे पेट
का ‘दर्शन’ भले हो सकता है,खाली पेट कब चाहेगा कि ऐसा हो? वह तो
समय के परिवर्तन के इन्तजार में जीता है- आने वाले समय की बाट जोहते....।’
‘भले ही आने
वाला और भी बुरा क्यों न हो, क्यों?’- शक्ति ने बीच में ही टोक कर कहा- ‘खैर,यह तो बात ही बदल गयी।मैं कह रही थी कि मुझ पर एक कहानी लिखेंगे?’
‘कहानी,लिखने जैसी होगी तो जरूर लिखूँगा।’
‘तो फिर देर
क्या,शुरू ही कर
दीजिये।मैं शीर्षक भी
सुझाये देती हूँ।’
‘ठीक तो कह
रही हो- लगाम है ही,फिर घोड़ा
खरीदने में हर्ज ही क्या?अड़चन ही क्या?’- कह कर मैंने हँसने का प्रयास
किया।परन्तु शक्ति की मुद्रा पूर्ववत गम्भीर ही बनी रही।
‘हँसने की
क्या बात है? हाँ,
एक
उपाय और हो सकता है- नयी कहानी लिखने में यदि दिक्कत हो,तो किसी पुरानी कहानी का ही नाम बदल
दीजिये,मेरे मन के
मुताबिक।’
‘क्या बकती
हो?’- शक्ति की कथन मुद्रा मुझे संशय में डाल रही थी।
‘क्या नहीं....बल्कि
ठीक बक रही हूँ। ‘‘अविस्मरणीय अतीत" का नाम ‘‘कसक" रख दीजिये।’
मैं मानो आसमान से गिर पड़ा था। आँखें पपोटों की
मर्यादा को
तोड़कर, अति विस्फारित हो
गयी थी- ‘क्या पहेली
बुझाये जा रही हो,शक्ति?’
‘पहेली नहीं
श्रीमान!
बल्कि हकीकत बयां कर रही हूँ।’
मैं फटी-फटी आँखों से उसे देखने लगा था।वह कह
रही थी-‘मैंने पढ़ी है,आपकी वह कहानी।बहुत अच्छा लिखते हैं आप,पर कुछ कसर रह गया है।जैसी वह कहानी है,और जितना गहरा छाप है,उस कहानी का आपके हृदय पर; उसके मुताबिक मैंने शीर्षक सुझायी है आपको- ‘‘कसक" ।’- शक्ति की आँखें
अंगारे सी हो आयी थी। मेरी तो अजीब स्थिति हो रही थी।
मीना के निधन के
बाद,बन्द कमरे
की दीवारें,जब काटने
को दौड़ती थी,तब उन्हीं
घडि़यों
को कैद कर दिया था - ‘अविस्मरणीय अतीत" में; साथ ही कुछ और
छोटी-मोटी अनुभूतियों- टॉमस,बसन्त,विजय,आदि के साथ गुजारे हुए क्षणों का व्यौरेवार वर्णन था,उस छोटी सी पुस्तिका में,जिसे बड़े गुप्त रूप से रख छोड़ा था-
अपने बक्से में बन्द करके।पता नहीं मेरे उस गुप्त ‘तहखाने’
की ताली,क्यों कर
इसे हाथ लग गयी थी!! तो क्या उस पत्र का व्यंग्य- ‘कॉलेजियट तितलियों के फेर में न पड़ेंगे,इसकी
ही प्रतिक्रिया थी?’
सोच ही रहा था कि
शक्ति पुनः बोली- ‘क्यों फिर क्या सोच-विचार में पड़ गए?याद
आ गयी क्या मीना की?’
‘क्यों खार
खा रही हो शक्ति! वह तो एक कहानी भर है, वस एक काल्पनिक कहानी मात्र।’-अपनी दलील पेश की मैंने।
‘कहानी काल्पनिक
है...और यह है तुम्हारी कल्पना की प्रतिमूर्ति?’
क्यों?’- क्रोधानल में जलती शक्ति ‘आप’ की
मर्यादा का मेढ़ तोड़ ‘तुम’ की क्यारी में कूद
चुकी थी।तकिये के नीचे से एक फोटोफ्रेम खींच कर सामने रख दी थी।मेरी फटी-फटी आँखें
अपलक गड़ गयी थी- शक्ति के चेहरे पर।
‘क्यों,इस तसवीर से भी अनजान ही हो क्या? क्या
यह उसी नागिन की तसवीर नहीं है,जिसने डस लिया है मेरे दाम्पत्य को?’
शक्ति की आँखों
से सौत की अपरिमित चिनगारियाँ फूटने लगी थी।कुछ देर यदि बैठा रहूँ तो शायद भस्म हो
जाऊँ -सोचता हुआ, उठना चाहा,किन्तु हाथ पकड़ लिया उसने।
‘जाते कहाँ
हो? कुछ और भी
देख ही लो।’- कहती हुयी शक्ति,धागे से बन्धा एक छोटा सा पुलिंदा विस्तर के नीचे से निकाल कर उछालती हुयी विखेर दी थी,कमरे के फर्श पर।
विगत स्मृतियों का धरोहर- मीना की
कुछ चिट्ठियाँ- सूखे पत्ते सी कमरे में बिखर कर सिसकने लगी थी।मैं उठ कर उन्हें बटोरने लगा था; तभी एक झन्नाटे के
साथ,फोटोफ्रेम फर्श
पर आ गिरा।
‘नागन! तूने
मेरे सुहाग को डंसा है।’- दांत पीसती हुयी पलंग से उठी,और टूटे सीसे के बीच से झांकती तस्वीर
को निकाल कर
टुकड़े-टुकड़े
कर डाली।
मेरा गला भर आया
था।दम घुटता हुआ सा महसूस हुआ।ऐसा लग रहा था,मानों मेरे दिल को टुकड़े-टुकड़े कर बिखेर दिया हो उसने फर्श
पर,जिसे सीसे
के अस्थि-पंजरों में छिपा कर रखा था।
‘यदि आपको यही रास
रचाना था,तो क्या
जरूरत थी- भरे मंडप में अग्नि की साक्षी में प्रतिज्ञा करने की?’- शक्ति फुफकार
रही थी।
देर से दबी मेरी जुबान में कुछ जान
आयी।मैंने कहा- ‘क्या प्रतिज्ञा की थी,कछ याद भी है? संस्कृत के दुरूह
मन्त्रों को,तथाकथित साक्षियों के समक्ष कहलवाया गया था,या कहो कि वह भी कहलवाया नहीं
गया,बल्कि पुरोहित ने ‘बांच’ दिया,उनका कुछ अर्थ भी है पता?’
‘अर्थ ज्ञात
ना ही सही,पर यह
अनर्थ कैसे सहन कर सकती हूँ?’
‘ अर्थ और
अनर्थ की बात नहीं है।तुम जान ही चुकी कि अब वह इस
संसार में नहीं है,फिर एक तड़पती आत्मा को लांछित करना क्या तुम्हें शोभा देता है?’- मैंने कातर स्वर में कहा,और सीने पर हाथ फेरने लगा,अचानक अजीब सी टीस अनुभव किया- भीतर
में।
‘मुझे तो शोभा
नहीं देता,पर तुम्हें
देता है यह सब नाटक करना? तुम उसको तड़पाने की बात कह रहे हो, जो राख का ढेर हो कर बह गयी नदी की धार
में,और मैं, जिन्दा शरीर में
वैसी ही आत्मा को लिए तड़प रही हूँ- यह तुम्हें दिखायी नहीं
देता?
या कि मेरे भीतर आत्मा है ही नहीं? याकि भीतर रहते भर
में आत्मा पर ध्यान
नहीं
देना
चाहिए? या कि तुम्हारे हिसाब से आत्मा महत्त्व पूर्ण तब हो जाती है,जब बाहर आ जाती है?’- क्रोधावेश में शक्ति
की आवाज कांप रही थी।
‘मैंने ऐसा कब कहा? यह तो तुम इतने दिन
बाद जान पायी कि मुझे मुहब्बत भी थी किसी से,पर आज तक कभी तूने पायी है किसी तरह की कमी अपने प्रति मेरे
प्यार में? मेरा प्रेम-कोष
न्योछावर है तुम पर,और तुम हो
कि उल्टे मुझे बदनाम कर रही हो?’-मेरे होठ फड़क रह थे।
‘किया है,खूब किया है न्योछावर- कहते जरा लाज
भी नहीं आती?अरे ! तुम ‘पुरुष’ सिर्फ अपनी बुद्धि पर भरोसा
करते हो,और उसी
के
दायरे में दौड़ लगा सकते हो।पर जानते हो...नारी....? नारियाँ तो अपनी स्वज्ञा से ही पहुँच
जाती हैं,उस गुप्त
तहखाने तक-
जहाँ
पुरुष के प्यार की ताली रखी हुयी होती है....मेरी आँखों ने हमेशा देखा है,तुम्हारी आँखों में किसी और के प्रति
प्यार की परछाइयाँ...जब-जब तुम्हारी बाहों में मैं होती हूँ ,अपने
प्यार की झोली पसारे,दया की भीख मांगती...उस समय भी पाती हूँ - तुम्हारी
आँखों में उस नागिन की तस्वीर.. .कह दो यह सब झूठ है...
‘....सुहाग सेज पर मैं तड़प रही थी...और उधर तुम्हारी कल्पना की
बाहों का तकिया बनाये सोयी थी मीना। अरे,खुटका तो उसी दिन हुआ था,पर यहाँ तक सोच न सकी थी...अनुमान की
दूरबीन इतनी कारगर न थी कि देख सके इतनी दूर तक की चीजों को...अनुवीक्षण भी कमजोर
ही था- इतनी सूक्ष्म तक पहुँच न थी। नतीजन,अपने आप में ही कमियाँ तलाशने लगी- बेवकूफ ‘हन्टर’ की तरह,जो अपनी ही बन्दूक के धक्के खाकर पीछे गिर जाता
है।किन्तु अभी हाल में ही अचानक उस बक्से की चाभी ने मेरी सभी आशंकाओं का तिलिस्मी
ताला सहज ही खोल डाला...
‘.....पुरुष तभी तक छल सकता है,नारी को,जब तक वह सोयी रहती है- उसके झूठे प्यार की थपकी से संतुष्ट
होकर;किन्तु सच्चाई का सूरज,जब ‘छल-छद्म’ के कोहरे को चीर कर
चमकने लगता है-
वास्तविकता
के आकाश में,तब उस
छली-बेवफा पुरुष की छाती पर ताण्डव मच जाता है...बहुत छले...बहुत...अब और छलने की कोशिश न करो।शक्ति सोयी थी- किसी दिन,हवामहल के गुदगुदे रंगीन गलीचे पर,किन्तु अब वह जाग चुकी है....जगी नहीं
है...जगा
दी गयी है...उसके विश्वास के विस्तर में सौत के खटमल घुस आये हैं..और इनका
चुभन...इनका दंश..क्षण...क्षण...अब शान्ति से सोये रहने का सवाल ही कहाँ उठता
है...ओफ...!’ - शक्ति बकती जा रही थी।उसका सीना लोहार की द्दौंकनी सा
संकुचित-विस्फारित हो रहा था।क्रोद्द में अपने बालों को नोचने लगी थी।दीवार पर सिर
पटकने लगी
थी...लागातार...अनवरत- मानो गरम लोहे पर लोहार हथौड़ा मार रहा हो।
मेरा दम घुट सा
रहा था।अभी इस अवस्था में मुझे क्या करना चाहिए- शक्ति को सम्हालूँ या कि दिल का
तूफान थोड़ा निकल ही जाने दूँ- कुछ समझ नहीं पा रहा था।जबान तो लगता था- मुंह में
है ही नहीं,खो गयी
है कहीं।क्या करुँ....आखिर क्या तर्क...क्या उत्तर...क्या
सफाई दिया जा सकता है- रंगे हाथ पकड़े गए कातिल के द्वारा,प्रमाणित साक्ष्य समक्ष
उपस्थित
हों जिसके? शक्ति जो भी कह रही है- क्रोधावेश में आज- दुनियाँ की कोई भी नारी,शायद ऐसा ही कहेगी,इस अवस्था में।आज इस स्थान पर यदि
मीना होती तो क्या वह भी ऐसा नहीं कहती?
स्वयं को
सम्हालते हुए,शक्ति को
सम्हालना चाहा- उसके दोनों हाथ एक साथ पकड़ कर- ‘शक्ति! क्या चाहती हो आखिर? जो बीत गयी सो बात
गयी,अब आगे की
सोचो।अपने ही हाथों अपने सुनहरे दाम्पत्य को क्यों ध्वस्त करने पर तुली हो शक्ति?’
‘सुनहरा-सुखद
दाम्पत्य यह तुम्हारे लिए हो सकता है,क्यों कि मुझे अपनी बाहों में भर कर मृत मीना का ख्वाब देखने
में सुविधा होती है।मेरा दाम्पत्य तो विकल है।तड़प रहा है- पक्ष-हीन पक्षी की तरह,जिस तरह तुम तड़पते हो मीना की याद
में......किन्तु कर
क्या सकती हूँ ,नारी हूँ
न! विधाता की बौद्धिक विसंगति का नमूना...स्वार्थी ब्रह्मा की करतूत,जिसने निज स्वार्थ में ही तो रच दिया
निरीह नारी को- ‘मानसी’ असफल हुयी तो ‘मैथुनी’ संरचना के लिए! तुम
पुरुष एक साथ हजारों नारियों से रमण कर सकते हो- देवकी पुत्र कृष्ण की तरह; तुम्हारे
लिए कई दरवाजे हैं;पर हम
नारियाँ तड़पती रह जायेंगी- सिर्फ एक को लेकर- उसके जीवन भर,और जीवन के बाद भी- कौमार्य
से....सौभाग्य से वैधव्य पर्यन्त!.....
‘.......सवित्री ने सत्यवान
को...सिर्फ सत्यवान को स्वीकारा था- अनजान में भी,और जानने के बाद भी।वह जान गयी कि
इसके पैर मृत्यु द्वार के चौखट पर है,फिर भी प्रथम स्नेह और समर्पण की ‘छोटी सी
कोठरी’ में दूसरे
को कैसे आने देती! नारी का ‘अथ’ और ‘इति’ एक ही
विन्दु पर,एक ही जगह
होता है...
‘....जानती हूँ- तुम मीना को प्यार करते हो,किए हो,परन्तु मुझे सिर्फ तुम्हें ही प्यार
करना पड़ेगा,दूसरा
रास्ता नहीं है।नारी-उर की तंग कोठरी में सिर्फ
एक ही दरवाजा है,और वह भी
एक ही बार खुल कर सदा-सदा के लिए बन्द हो जाने वाला है......’- शक्ति कहती जा रही
थी,कहती ही जा
रही थी।
मेरी इच्छा हुयी
थी कहने को- ‘इसीलिए तो तंग कोठरी में सौत की सड़ांध
जल्दी ही पैदा हो जाती है।’- पर कहना उचित न लगा।मेरी प्रतिक्रिया से उसकी क्रोधाग्नि
कहीं और भड़क सकती थी,अतः चुप रहना ही उचित जान पड़ा।
‘.......याद होगा तुम्हें- तुमने ही
कहा था मेरा हाथ देखकर- शक्ति का दाम्पत्य तो बड़ा ही सुखमय होना चाहिए....किसी
बड़े खानदान की बहू बनेगी यह।बन तो गयी बहू- भट्ट खानदान की....पर सुखमय दाम्पत्य....हा...ऽ...ऽ...हा...क्या
ही ख्वाब दिखलाया था तूने...।
शक्ति पागलों की
तरह हँसने लगी थी।अजीब स्थिति हो आयी थी।कभी रोना,कभी हँसना।धीरे-धीरे उसकी आँखें
पथराने लगी थी। मैंने गौर
किया- उसकी पलकें झपकना भूल गयी थी।आँखों से बहती आसू की धारा
सूखने लगी थी।
मैं उसे सम्हालने ही वाला था कि कटे रूख की तरह,धड़ाम
से गिर पड़ी थी फर्श पर,जहाँ कांच
के टुकड़े बिखरे पड़े थे,और खून का
फौब्बारा फूट पड़ा था।
मैंने हड़बड़ा कर उसे उठाया।देखा- कांच
के कई टुकड़े जहाँ-तहाँ बदन में घुस गए थे,उन्हें यथासम्भव निकालने का प्रयास करने
लगा।सिर भी पीछे से काफी फट चुका था....
और फिर इसी तरह की उलझनों में अटक कर
रह गया था।तड़पता अतीत,सिसकता
वर्तमान और उसके आगे सिर्फ गहन कालिमा....अन्धकार....कोहरा...धुन्ध....!
दशहरा कब
आया...कब गया,पता नहीं।सप्ताह
भर बीता अस्पताल
में
और फिर एक सप्ताह घर के घेरे में कैद होकर।
शारीरिक रूप से शक्ति
स्वस्थ हो चुकी थी- मानसिक तो मानसिक ही होता है,टांके कट चुके थे।घ्यान आया ड्यूटी
का।माँ से
कहा-
‘माँ,अब तो शक्ति बिलकुल ठीक हो चुकी है।’
‘हाँ,ठीक तो हो ही गयी है।माँ ने कहा।
‘आए पन्द्रह
दिन हो गए।सोचता हूँ ,अब जाना
चाहिए।’
‘एक दो दिन
और रूक जाओ,फिर चले
जाना।’-कहती हुयी माँ
आंचल
से आँखें पोंछने लगी थी।
एक दिन कमरे में
यूही पड़ा था,शक्ति भी
थी।वही बेतुका सवाल
फिर
कर गयी- ‘क्या सोच
रहे हो? सोचना नहीं
छोड़
सकते न?’
‘सोच कुछ नहीं
रहा
हूँ ,क्या
सोचूँगा?’
‘तुम्हारे
पास सोचने को और है ही क्या...बस एक....।’
‘सच कहता
हूँ शक्ति! तुम्हारी कसम,उसके बारे
में कुछ नहीं सोच रहा हूँ।सोच है यदि तो सिर्फ तुम्हारी, तुम्हारी आदतों के बारे में,तुम्हारे
व्यवहार के बारे में,तुम्हारे
सेहत के बारे में।’
‘छोड़ो भी
झूठी बातें।मेरे बारे में सोचते ही यदि तो आज ये गति क्यों होती मेरी?’
‘झूठ नहीं शक्ति! यह
बिलकुल सच है।इतना ही सच जितना कि अभी तुम मेरे सामने खड़ी हो।’-फिर
उसकी आँखों मे झांकते हुए पूछा था मैंने- ‘एक बात
पूछूँ?’
‘पूछो। क्या
पूछना है?’
‘तुमने
प्रेम किया है,कभी किसी से?’
‘की हूँ ।
सिर्फ एक से...तुमसे।’
‘किन्तु शादी
के बाद न? वह भी पति
रूप में प्राप्त करने के
कारण
लाचारी ब्रह्मचारी?’
‘और क्या चाहते हो, तुम्हारी तरह भौंरा बन जाऊँ?’
‘सो नहीं
कहता।कहने
का मतलब है कि कभी किसी से प्रेम करके देखो,ताकि पता चले इसका रस... इसका कसक।वैसे सच पूछो तो तैयारी कर
के प्रेम किया नहीं जा सकता,होने का सवाल ही नहीं है।प्रेम
हठात्....अचानक...अनजाने में घट जाने वाली ‘घटना’ है- जैसे संतो को ‘समाधि घटती है,जीवन में हठात् सन्यास उतर आता है।
तैयारी करके सन्यास नहीं लिया जा सकता।प्रेम
भी वैसी हीं एक घटना है- घट जाती है,तब पता चलता है।कभी-कभी तो किसी-किसी को पता भी नहीं
चलता।वैसे
‘है’ यह विरल।लेकिन लोग
प्रयास करते हैं।तुम भी करके देखो।’
‘मैं किसी और से प्रेम करूँ और तुम वरदास्त कर
लोगे? पुरुष का
स्त्री पर एकाधिपत्य ‘वाद’ का हनन सहन हो
पायेगा?’
‘बिलकुल
करूँगा,तूने मुझे
ठीक से पहचाना नहीं,शक्ति।पहचानना है भी कठिन।’
‘यूँही हवा
में बातें न बनाओ।जिस दिन जानकारी होगी- मेरी बेवफाई की,आँखें निकाल मुट्ठी
में मींच लोगे।मर्दों ने औरत को इतनी स्वतन्त्रता ही कहाँ दी है।’- कहती हुयी शक्ति के
चेहरे पर घृणा की बदली घिर आयी थी।
इसी प्रकार दो
रातें और गुजरी थी, शिकवे-शिकायतों में
ही, पलंग के दो किनारों
पर।
मिलन का पहल न मैंने किया, औार न शक्ति ने ही।इसे दोनों का मिथ्या
स्वाभिमान कहूँ या अहंकार? आत्म गौरव की गरिमा तो जरा भी नहीं
लगता।वैसे
इन तीनों का स्थान होना नहीं चाहिए- पति पत्नी
के बीच।
पुनः कलकत्ता आये
लगभग दो सप्ताह हो गये थे।उस दिन यहाँ की हर गलियाँ-सड़कें रंगीन हो रही थी।जैसा
कि यहाँ का प्रचलन है- प्रायः हर दुर्गा मंडप में,जहाँ दशहरे में दुर्गा की प्रतिमा
रखी जाती है,
दीपावली में ‘लोक्खी’ पूजा, उसी धूम-धाम से मनायी जाती है।कुछ मायने में
तो कहीं उससे भी बढ़-चढ़ कर।लगता है साक्षात्
लक्ष्मी
घुटना
टेक दी हों कलकत्ता वासियों के
द्वार पर। तभी तो उस ‘श्रीदेवी’ के
स्वागत में सिर्फ पंडाल ही नहीं,बल्कि कोना-कोना जगमगाता रहता
है उस दिन।
एक ओर पंक्तिवद्ध
दीपमालिका- कुछ मिट्टी के कुछ मोम के,तो
दूसरी
ओर आधुनिकता की छाप तरह-तरह के विद्युत-बल्ब -टिमटिम करते,आसमान के तारों को चिढ़ाते,जुगनुओं को लजाते- किसी नीरस हृदय को भी सरस बनाते, सरस को रंजित-पल्लवित करते,और विरहियों की विरहाग्नि को भड़काते
से लग रह थे।
ऐसे श्रृंगारिक
अवसर पर याद आ जाना स्वाभाविक है- अतीत की झांकियों की।आखिर क्यों न याद आए! ऐसी
ही दीपावली तो विगत बर्ष भी आयी थी।फुलझड़ी से मेरी अंगुली जल गयी थी।मीना अपने
मुंह में डाल कर चूस ली थी, फिर मरहम
भी लगायी थी- अपने नाजुक अंगुलियों से...
आज अंगुली की कौन
कहे,दिल जल रहा
है,तन-बदन
बेसुध है-
ज्वाला
से,पर किसे है
इसकी परवाह? कौन लगायेगा इस पर मरहम? थी- सो चली गयी,है- उसे परवाह नहीं।
यँही उदास पड़ा
था,कमरे
में।विजय ने कहा- ‘सोये ही रहोगे क्या? कहीं
घूमने
नहीं चलोगे?’
‘क्या कहीं
घूमने
जाना है यार! दिये जलते नहीं देखे हो क्या? खुद
को जला कर दूसरों को प्रकाश देने वाला दीपक जल रहा होगा और उस पर मड़रा कर- सिर धुनता होगा- साथ में जलता होगा अभागा परवाना-
बेचारा पतंगा।’
‘देखा है,बहुत देखा है। दीपक ही नहीं
दिल
जलते हुए भी।ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं पर कहीं दीपक जल
रहे हैं,तो बन्द
कमरे में कहीं किसी का दिल।प्यार की आंच पत्थर को
भी पिघलाने की
ताकत
रखती है।फिर बेचारे पतंगे की क्या बिसात,कि वह जले बिना रह जाये? अगनित दीपक नित्य
जला करते हैं,और उनके
साथ जलता
है,उनकी झिलमिलाती लौ पर कुर्बान होकर-
असंख्य पतंगा।फिर भी उसे देख कर भी अगले को समझ नहीं आता- ज्ञान नहीं
होता...
.......महाभारत के यक्ष ने धर्मराज
से कुछ ऐसे ही मामलों पर सवाल उठाया था-
"
अह्नि-अह्नि भूतानि,गच्छन्ति यम मन्दिरम् ।अपरे स्थातुमिच्छन्ति,किमार्श्यं अतः
परम् ।।" नित्य प्रति लोग मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं,इस पर भी हम बने
रहेंगे- ऐसी भावना होती है,इससे महद् आचर्श्य और क्या हो सकता है?’
.....वही सवाल आज मैं अपने मित्र से करना
चाहता हूँ -क्यों?
क्यों
सोचता है इनसान कि मुझे पूरी सफलता हासिल हो ही जायेगी प्यार में ? युग-युगान्तर से देखते आ
रहे हैं कि प्यार
का खेल बहुत
खतरनाक है,फिर भी खेले जा रहा है....
‘अरे यार! इस तरह से
मायूस होकर पड़े रहने से क्या होना है? क्या मिलना है?चलो उठो...।’- विजय का
आह्नान था।
विजय कह रहा था।मैं सुन रहा था।सोच भी रहा था।वह कहता जा रहा था-
‘...मेरे जीवन में इस तरह की कई दीवालियाँ आयीं, और चली भी गयीं।पर जब मैं स्वयं ही दिवालिया
हो गया; फिर फिकर
किस बात की? गम में
पड़े रह कर, उसके कसक को नहीं
मिटाया
जा सकता।’- विजय मेरा
हाथ पकड़ कर खींचते हुए फिर बोला- ‘चलो उठो,कपड़े बदलो तुम भी,मैं तो प्रवचन
करते-करते कपड़े भी बदल लिया।
विजय के ‘प्रवचन’ शब्द
पर मैं मुस्कुरा
दिया था,और अनिच्छा
से ही उठ कर कपड़े बदल उसके साथ निकल गया।
‘किधर चलना
है?’- बाहर आने
पर मैंने उससे
पूछा।
‘बस,यहीं आस-पास दो-चार पंडाल,और क्या पूरा कलकत्ता?’ -विजय ने सिगरेट-केस जेब में डालते
हुए कहा।
काफी देर तक
हमलोग एक पंडाल से दूसरे पंडाल घूमते रहे थे।और इस प्रकार पहुँच गए मालती बागान।यहाँ
की सजावट और मूर्ति हर बर्ष कलकत्ते में अब्बल जगह लेती है।दूर-दूर से,लोकल ट्रेनों से भी लोग यहाँ जरूर आते हैं।भीड़
काफी होती है।
एक दूसरे का हाथ
पकड़े हमदोनों भी भीड़ का हिस्सा हो गए।धक्का-धुक्की में किसी प्रकार प्रतिमा तक
पहुँचे। दर्शन कर वापस मुड़े रहे थे,उसी समय हाथ छूट गया।भीड़ में हाथ छूट गया, मतलब साथ छूट गया- ढूढते रहे घंटे भर से
ज्यादा,उस
अपरम्पार जन सैलाब में- एक छोटी सी बूँद को - अपने मित्र विजय को।और अन्त में
लाचार हो, थकहार कर चल दिया
पंडाल से बाहर।
पंडाल के बीच में
बल्लियों से विभाजन किया हुआ था,जिसके एक ओर पुरुष और दूसरी ओर महिलाऐं, देवी-दर्शन के लिए आ-जा रही थी।
अभी कुछ ही आगे
बढ़ा था कि थोड़ी दूर पर महिलाओं की भीड़ में एक परिचित शक्ल दीख पड़ी- भोला
मुखड़ा, गुलाबी होठ,लम्बे बाल,कद भी वैसा ही,धवल वस्त्र- कुल मिला कर सौन्दर्य की जीवन्त
प्रतिमा...देख कर,देखता ही
रह गया,और बरबस
निकल पड़ा मुंह से- ‘मीनाऽऽऽ...’
सुनसान जंगल और
पहाड़ों के बीच,घाटियों
में अपनी ही आवाज
बार-बार
टकराती है कानों से,वैसा ही
परावर्तन महसूस किया- अपने दिल के चट्टान से टकराकर लौटती आवाजों को पुनः-पुनः कानों में
घुसते हुए।
‘दिमाग तो
ठीक है न तुम्हारा?’- -पीछे से
आकर किसी ने हाथ रख दिया कंधे पर।चौंक कर देखा,विजय पीछे खड़ा मुस्कुरा रहा था- ‘होश में आओ
कमल! मीना की याद में इतना मदहोश मत हो जाओ।इस तरह भीड़ में चिल्ला रहे हो,कहाँ है यहाँ तुम्हारी मीना?’
‘अभी-अभी तो
मैंने उसे
देखा है,बस करीब
ही-उस खम्भे के पास, पूरब तरफ।’
‘इसी लिए तो कहता
हूँ कि दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा।औरत की हर शक्ल तुम्हें मीना ही नजर आती है।’- कहता हुआ विजय,मेरा हाथ खींचता हुआ पंडाल से बाहर
ले आया था। मैं
चुपचाप
उसके साथ चलता रहा,इधर-उधर
देखते हुए- हो सकता है,फिर कहीं
दीख
जाए वह दिव्य मूर्ति...।
‘जिस शरीर
को तुमने स्वयं ही आग की लपटों से भस्म कर दिया है,चिता की सेज पर सुला कर,उसे फिर कैसे देख सकते हो तुम जीवन
में....।?’- विजय कर रहा था.और मैं सोच रहा
था-
‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि,नैनं
दहति पावकः।न चैनं क्लेदयन्त्यापो,न शोषयति मारूतः।।
....फिर कैसे जल सकती है वह? आत्मा अमर है।शस्त्र
जिसे छिन्न नहीं कर सकते।अग्नि जिसे जला नहीं
सकता।जल
जिसे भिंगा नहीं सकता।वायु जिसे सुखा नहीं
सकता...मतलब?
मतलब कि वह भटक रही है...तड़प रही है...प्रेम की तृषा से...विरहाग्नि की दाह
से...।
विजय कहता जा रहा
था- ‘भूल जाओ
कमल! भुला दो उस अतीत को,जिसकी
ज्वाला में निरंतर दग्ध हो रहे हो।शक्ति के प्यार की फुहार से बुझा दो उस आग
को...।
और मैं सोच रहा था- किसके
प्यार की फुहार से बुझाने कहता है विजय? ‘पुरुष तब तक ही छल
सकता है नारी को,जब तक वह सोयी होती है- उसके झूठे प्यार की
थपथपाहट से’- - यही तो कहा था शक्ति ने,जो वास्तव में अब जाग चुकी है।काला
कोबरा अपना फन फैला कर फुफकार रहा है- डसने को मेरे दाम्पत्य सुख को। परन्तु दोष किसे दूँ- खुद को या शक्ति
को या कि भाग्य को?
इसी तरह सोचता
हुआ,न जाने कब
डेरा पहुँचा,कपड़े
उतारा,और विस्तर
पर पड़ गया- कुछ कह नहीं सकता।जेहन में
सिर्फ एक ही बात घूमती रही- मीना...उसकी भटकती आत्मा...प्यासी आत्मा....तड़पती
रूह.....।
धोखा
!....एक...दो...तीन...और फिर यह चौथी बार....
क्या यह सब धोखा ही है? विजय कहता है- वहम
है मेरे मन का।भ्रम है आँखों का...प्यासे को...रेगिस्तान में जल ही जल दीखता
है...मृगमरीचिका।
कालेज से आ रहा था।सब्जी मंडी के
नुक्कड़ पर फिर नजर आयी वही शक्ल- वही रूप...वही यौवन...वही चाल...अभी तो रात नहीं
है...अन्धकार
भी नहीं है...विजली भी नहीं
कड़क
रही है...पंडाल की भीड़ भी नहीं है....
...तो फिर क्या दिन दहाड़े इस तरह भटकने लगी उसकी आत्मा? या यह भी धोखा
है...भ्रम है?
बार-बार आँखें
मलकर देखा।सिर झटका कर देखा।कहीं कुछ गड़बड़ नहीं
है।सच्चाई
है यह।उतनी ही सच्चाई,जितना कि
अभी यह कहना कि दिन है- आकाश में, मध्य आकाश में
पूरी चढा़ई पर सूरज चमक रहा है।
तो फिर ढूढ़ना होगा, इसका हल।इसका प्रमाण और चल पड़ता हूँ ,उसका पीछा करते,धीरे-धीरे।देखते हैं,कहाँ जाती है,कोई तो होगा इसका ठौर-ठिकाना।आज पता
लगा कर ही रहना है।बहुत दिनों से पहेली बनी हुयी है, यह मेरे लिए; समस्या बनी हुयी
है।
वह चली जा रही थी,लपकते हुए।लगता है,कुछ जल्दी में हो।मैं भी पीछा करता रहा एक दूरी बना कर, क्यों कि इतना तो तय है कि यह कोई
प्रेतात्मा नहीं हो सकती।यह कोई लड़की ही है,जो इतने
दिनों से मुझे भ्रमित किए हुए है।पर इसकी क्या गारन्टी कि पिछले हर बार भी यही रही
है! उधेड़ बुन जारी रहा।पीछा करना भी जारी रहा।
चलती हुयी वह हरिशन
रोड पार की...चाइना बाजार जाने वाली मुख्य गली की ओर,और फिर आ गया बागड़ी मार्केट वाली गली। अरे! यह तो वही रास्ता
है,जिससे मेरा
बहुत वास्ता रहा है- मेरा चिर परिचित रास्ता।तो बढ़ ही चलना चाहिए, इस रास्ते पर- उस छलना के साथ,जो बराबर मेरे भ्रम और चिन्ता का विषय
बनी रही है; मेरी
मीना......मीना का रूह।
वह अभी भी बढ़ती
जा रही थी,कदम कुछ और
तेज हो गए थे;और मेरा अनु्शरण भी जारी था- नन्दिनी का अनुगमन करते राजा दिलीप की तरह।
अन्ततः वह पहुँच
गयी ठीक मीना निवास के पास,और मेरा दिल धड़क उठा...इतने जोर से कि लगता था- निकल कर बाहर
आ जायेगा।मैं
थोड़ा
समीप हो लिया,हालांकि
बाजार की भीड़ प्रायः छंट चुकी थी।डर और झिझक भी था ही।
वह लपक कर आगे
बढ़ी,और दांयें
मुड़कर मीना निवास के गेट में घुसने ही वाली थी;मैं झपट कर बिलकुल पास पहुँच गया,और लपक कर उसका हाथ पकड़ लिया।
‘कौन हो तुम?’- कड़कती हुयी आवाज
में मैंने पूछा।
लड़की पलट कर भौचंका,मेरा मुंह ताकने लगी।उसे जरा भी
उम्मीद न होगी कि सरेआम राह चलते कोई अनजान लड़का इस तरह उसकी कलाई पकड़ लेगा।
‘बोलती
क्यों नहीं,कौन हो तुम?’- उसकी चुप्पी मुझे क्रोधित कर गया।उसके चेहरे पर भय और
क्रोध दोनों झलक रहे थे।मात्रा अधिक किसकी है- निर्णय करने में मुझे कठिनाई महसूस
हुयी।
‘यहीं
रहती
हूँ ।इसी मकान में।’- अपने को थोड़ा नियंत्रित कर उसने कहा था।इशारा मकान की ओर ही
था।
मैं थोड़ा चकराते हुए सवाल किया- ‘कब से?’
‘बहुत दिनों
से,लगभग......।’- कह ही रही थी कि
मेरा कड़क और बढ़ गया - ‘क्या बकती हो?तुझे पता है- यह मीना
निवास है...मेरी मीना का घर है यह।फिर बहुत दिनों से तुम कैसे रह सकती हो इस घर में तुम झूठी हो!
मक्कार हो! नाम क्या है तुम्हारा?’
वह कुछ कहने को
मुंह खोली ही थी कि आवाज आयी- ‘क्या बात है बेटी? कौन
चिल्ला रहा है?’
आवाज सुन,लड़की में नयी चेतना का संचार हो
आया।ऊपर देखती हुयी बोली- ‘देखिये न यह लड़का....।’
मेरी निगाहें
आवाज की दिशा का अनुगमन की- ऊपर देखा,जहाँ वॉलकनी में वैशाखी टेके एक जर्जर शरीर खड़ा था।
मेरे अंग अचानक शिथिल
होने लगे- ‘पार्थ’ की तरह। उसके हाथों पर मेरी पकड़
ढीली पड़ गयी।पर वह भागी नहीं,वहीं खड़ी मेरा मुंह
ताकती रही।शायद उसे मेरे मुंह से निकला ‘मेरी मीना’ की डोर ने बाँध
दिया हो कस कर,और अचकचा
कर उसके मुंह से साहस भरा सवाल उभरा- ‘आपका नाम क्या है?’-स्वर में अजीब सी
मिठास थी- ‘आप मीना को
कैसे जानते हैं?’
तपाक से जवाब
दिया मैंने,मानों
परिचय देने को व्याकुल हूँ- ‘मेरा नाम कमल है।मीना मेरी पत्नी है।’
तब तक वैशाखी टेकते वह जीर्ण काय पुरुष
नीचे उतर आया था सीढि़यों से। ‘कौन....कमल?
कमल है...मेरा कमल...?यह कैसे हो सकता है....! ’-कहता हुआ,गर्दन ऊपर उठा कर गौर किया मेरे
चेहरे पर।
मैं स्वयं को सम्हाल न सका,और आगे बढ़ कर गिर पड़ा उनके
श्री चरणों में- ‘चाचाजी!’
कांपते हाथों से,झुक कर उठाने का प्रयास किया था,उन्होंने,और वैशाखी हाथ से छूट कर एक ओर गिर
पड़ी थी।कस कर लगा लिया था अपने सीने से।
लड़की वहीं
खड़ी
मुंह ताक रही थी- कभी मेरा,कभी चाचाजी का।उसे समझ न आ रहा था- यह रूपक- कुआंरी मीना का
दावेदार
पति...क्या
माजरा है!
नीचे गिर पड़ी वैशाखी को उठाकर,मैंने उनके हाथ में थमाया, और दूसरा हाथ पकड़ते हुए बोला- ‘यह
कैसी हालत हो गयी है, आपकी चाचाजी?’
‘अब आ ही
गये हो,तो सब जान
जाओगे।’- कहते हुए आगे की ओर बढ़ने लगे थे।हाथ का सहारा दिये,मैं भी चलता
रहा।पीछे-पीछे वह लड़की भी चली आ रही थी,जिसकी निगाहों का चुभन मैं अपनी पीठ पर महसूस कर रहा था।
सीढि़याँ चढ़ कर
हम सभी ऊपर आ गए थे।वॉलकनी पार कर अन्दर बैठकखाने में प्रवेश करते हुए,एक बार गौर से निरीक्षण किया मैंने अपने चिरपरिचित आशियाने का,जो अब बिलकुल अपरिचित सा लग रहा
था-
डिस्टेम्पर दीवारों
का दामन छोड़ चुका था,जहाँ-तहाँ
से; जिसके कारण
सुन्दर शरीर पर ‘स्वित्र’ का भ्रम हो रहा था,उसके भीतरी कोटिंग की सफेदी नजर
आकर।मकडि़यों ने ‘ईस्ट इन्डिया कम्पनी’ की तरह अपना
साम्राज्य विस्तार कर लिया था।सोफा मरी हुयी गाय की तरह मुंह बाये हुए था,जिसकी दरारों में खटमलों ने ‘बांगलादेशी
शरणार्थियों सा साधिकार अड्डा जमा लिया था।विशाल क्षेत्रीय पलंग खोल कर एक ओर कोने
में रखा हुआ था,जहाँ
मच्छरों का एकछत्र तानाशाही हुकूमत लागू था।आलमीरे में रखी किताबों पर धूल की मोटी
परतें- उन्हें विलख कर अपनी दुख भरी गाथा सुनाने में भी बाधा दे रही थी।ए.सी.- एकाक्षी
बन, सुख भंजक हो रहा
था।कूलर
को
शायद कफाधिक्य हो गया था,जो टी.बी.
की आशंका जता रहा था।कमरे के बीचोबीच बिछी थी एक चौकी,जिस पर बिछा था- एक साधारण सा बिस्तर,जो फटी चादर के झरोखे से झांक कर
अपने अस्तित्त्व पर अभिमान व्यक्त कर रहा था,जिसे धोबी के ‘आंछू-आंछू’ की समवेत ध्वनि बर्षों से शायद सुनने
को न मिली थी।ताड़ की पत्तियों का बना पंखा- सुदूर पहाड़ी कला के साथ भारतीय संस्कृति की
गाथा सुना रहा था।चौकी के ठीक बगल में हाथ के पहुँच के अन्दर,एक तिपाई पर दवा की कई शीशियाँ पड़ी
थी- कुछ भरी,कुछ
खाली....।
यह वही ड्राईंग
हॅाल है,जो किसी दिन
नवोढा दुल्हन के पास बैठे नौशे सा सजा होता था- ड्रेसिंग टेबल के दोनों ओर कांसे
के गुलदानों में गुलदावदी,रजनीगंधा और डहेलिया विहंसता रहता था।दोनों वक्त उन फूलों को बदला जाता
था।वसन्ती के चार बार झाड़ू लगाने के बावजूद,सन्तोष न होता था सफाई पर,और उसके हाथ से झाडू़ लेकर स्वयं
झाड़-पोंछ करने लग
जाती
थी मीना -‘छोड़ो वसन्ती,ड्राईंग हॉल की अच्छी सफाई तुम्हारे
बस की बात नहीं।जाओ उधर कीचेन में मम्मी का हाथ बटाओ...।’
तब और अब के
उहापोह में पड़ा था कि उस लड़की ने कहा-‘अंकल! दवा खा
लीजिये न।आज बहुत देर हो गयी है।’- और हाथ में पकड़े पानी का गिलास और दवा की शीशी तिपाई पर
रख दी।
‘अब मुझे
इसकी जरा भी चिन्ता नहीं रही बेटी! आधी बीमारी
तो दूर हो गयी कमल को पाकर।’-कहते हुए झुर्रियों भरे कपोलों पर पल भर के लिए लाली
दौड़ गयी थी।बंकिम चाचा ने उठाया- गिलास के
पानी को और एक ही सांस में खाली कर दिये भरे गिलास को।मैंने पूछना चाहा था कुछ, कि वे स्वयं ही बोल उठे-
‘आज फिर
मुझे नयी जिन्दगी मिल गयी है कमल! जिजीविषा पुनः जागृत हो गयी है आज।मैं समझ रखा था कि इस
जीवन में अब तुमसे मुलाकात न हो सकेगी।पहले पत्र का जवाब नहीं
दिया
था तुमने तो
सोचा- डाक में गुम हो गयी होगी;और फिर महीने भर के अन्दर ही चार चिट्ठियाँ डलवायी
तुम्हारे नाम।पर एक का भी जब जवाब नहीं मिला तो बड़ी
चिन्ता होने लगी।आखिर क्या बात है,पत्र क्यों नहीं आ रहा है......!’
चाचाजी कहे जा
रहे थे,पर मेरी
निगाहें बड़ी व्यग्रता पूर्वक कुछ तलाश रही थी।अपनी सफाई की दलील कुछ सूझ न रहा था, अतः मौन साधे उनकी बातें सुनता जा रहा था।आखिर
क्या जवाब देता मैं
उनकी
बातों का? सच्चाई कैसे जाहिर करूँ?
‘.....उस दिन स्कूल से पता लगा कर
लौट रहा था।तुम्हारे मामा से भी भेंट न हो सकी थी।हताश,मन मारे अतीत और भवितव्य के
झूले में कठोर-मृदु पेंगे लेता चला जा रहा था।आँखें तर थी स्नेह सलिल से... अतीत
मुंह चिढ़ा रहा था,भावी पूर्णतः
अगोचर...।चितरंजन
एभेन्यू
के चौराहे पर गाड़ी टकरा गयी एक ‘डबलडेकर’ से।बगल
में बैठी थी तुम्हारी चाची।बहुत जिद्द करके उस दिन साथ गयी थी,पता लगाने तुम्हारे बारे में।पर कौन
जानता था,तुम्हें नहीं,बल्कि
अपने मौत को ढूढ़ने निकली थी वे।गाड़ी चूर-चूर हो गयी थी।तीसरे दिन होश आया
अस्पताल में मुझे,तब पता
चला- वह तो वहीं साथ छोड़ दी थी मेरा।हफ्ते भर बाद घर
आया अकेला ही अस्पताल से रूकसत हो कर,टूटी टांग घसीटते।गया था पैर के सहारे,आया वैसाखी पकड़ कर....दैव ने बहुत
कुछ दिखला दिया....।’
‘हाय मेरी चाची!’- चीख निकल पड़ी थी
मेरे मुंह से,और सिर पकड़ कर बैठ गया था,झुक कर।इस बुढ़ापे में दैव ने कितना
दुःख दिया बेचारे
चाचाजी को- वह भी मेरे कारण....ओफ!
चाचाजी अभी कहे
जा रहे थे- ‘....जैसा कि तुम जानते ही हो,मीना के मौसा बीमार रहा करते थे हमेशा। उस
समय भी हमसब
वहीं
जा
रहे थे,जब कि
दुर्घटना घटी थी...
‘.....कार एक्सीडेन्ट के कोई महीने
भर बाद वहाँ से सूचना मिली कि वे भी गुजर गये बेचारे।मातृहीन बालिका अब पितृहीन भी
हो गयी।फलतः अनाथ,निराधार
बालिका का आधार बना मैं
जो
स्वयं ही आधार हीन हूँ।यह मीरा है,मीना की मौसेरी बहन।’- उनका इशारा बगल में खड़ी लड़की की ओर था।
उनका वक्तव्य अभी जारी था- ‘भगवान ने चेहरा हू-ब-हू
मीना-सा ही दिया है,फर्क है तो
सिर्फ रंगों का-यह उससे बहुत साफ है।इसे देख कर पल भर के लिए भूल जाता हूँ-
दुःख-दर्द।लगता है,मीरा के
रूप में मुझे फिर एक बार मीना का सानिध्य मिल गया।बस अब यही तो रह गयी है- मुझ अन्धे
की लाठी.....।’-कहते हुए चाचाजी की आँखों की पपनियों पर आशा के मोती तैर आये थे,मानों छोटी-छोटी दुर्वा पर शारदीय ओस
की बूंदें छलक आयी हों।
‘......पर इस परायी सम्पति को कब तक
अपना सहारा समझ सकता हूँ? यह भी तो दी योग्य हो ही
गयी है।मीना से कुछ ही महीने छोटी है सिर्फ।’- कहते हुए गमछे के
छोर से साफ किया था,अपनी आँखों
को और फिर
सवालिया नजर डाले मेरी ओर- ‘तुम अपनी सुनाओ,कैसे याद किये आज? मैं तो बहुत बक गया।’
मैं तो जान गया उसका परिचय,पर उसे अभी तक मेरा परिचय मिल न पाया
था।लगता है मेरे बारे में इस दौरान कोई चर्चा नहीं
चली
है यहाँ।चाचाजी की जिज्ञासा का शमन कहाँ से शुरू करूँ,अभी यह सोच ही रहा था कि उसकी धीरज की
बाँध टूट गयी,जो अब तक धैर्य
पूर्वक सारी बातें वहीं खड़ी सुन रही थी-
‘ये कौन हैं अंकल! मुझे तो आपने
बतलाया ही नहीं अब तक?’
‘इतनी बातें
हो गयी,तूने अभी
तक पहचाना नहीं इसे? कमल है यह,वही कमल जिसकी चर्चा तुम्हारी मौसी
हमेशा किया करती थी। तुम्हें जरा भी याद नहीं? अरे! मैं भी कितना भुलक्कड़ हो गया हूँ- तुम भी खड़ी बातें ही सुनती रह
गयी।अभी तक बेचारे को कुछ खिलाया-पिलाया भी नहीं।’
चाचाजी का आदेश
सुन मीरा रसोई घर की ओर चली गयी।उसके जाने के बाद बिगत डेढ़ बर्षों की मृदु-कटु
घटनाओं को संक्षेप
में
सुना गया चाचाजी को; किन्तु यह कहने की साहस न जुटा पाया कि मेरी शादी हो चुकी है,और इसी का शिकार होना पड़ा है - आपकी
मीना को।आखिर मुझ जैसे बुझदिल इनसान में इतनी हिम्मत आ भी कैसे सकती है!
मेरी बातों को सुन
चाचाजी कुछ गम्भीर हो गए थे।मेरे चेहरे पर गौर करते हुए कहा था उन्होंने -‘
तुम
चार-पांच महीने से यहीं हो- कलकत्ते में ही,और .....।’
बूढ़ी निगाहों की
उस चुभन को मैं
सह
न सका था।बरबस ही
निकल
पड़ा मेरे मुंह से- ‘इसे भी मेरी कृतघ्नता कहिये,जिस प्रकार आपकी तीन-चार चिट्ठियों
का जवाब न दे सका,उसी प्रकार
की किंचित मूढ़ता वश चार-पांच महीनों के स्थानीय प्रवास के बावजूद इधर आ न सका।दूसरी
बात यह कि मैं
तो
सोचे बैठा था कि आपलोग कलकत्ता छोड़ चुके होंगे।’
तभी मीरा नास्ता
लिए आ गयी,दो प्लेटों
में- ‘लीजिये,आपलोग नास्ता कीजिये।’
‘खाओ कमल।’- कहा था चाचाजी ने,और स्वयं खांसने लगे थे।काफी देर तक
खों-खों कर खांसते रहे थे,और ढेर सारा बलगम निकल आया था- नीचे पड़े पीकदान में।उनके मुंह से निकला बलगम
का रंग,मेरे चेहरे
को भी रंग गया था- खुद के से पांडुरंग में।दुबकी लगाये दैव की भावी कुटिल योजना
झलक आयी थी आँखों के सामने।
जलपान प्रारम्भ
करते हुये मैंने कहा- ‘आज भी इधर
आ न पाता; किन्तु
रास्ते में ही मीरा मिल गयी।उस पर नजर पड़ी तो मीना की याद ताजी हो आयी,और उन यादों की रेशमी बागडोर में बँधा
खिंचता
चला आया,पीछे-पीछे यहाँ तक- कुछ भ्रम पाले हुए।’
‘आ गये हो
तो आही जाओ पूर्वरूप से पुराने नीड़ में, जहाँ के तलछट में गुलाब की जगह अब कैक्टस ले चुका है।वास्तविक सहारे की तो अब ‘ही’ जरूरत
है।पहले तो सब कुछ था,पर अब रह गयी
है- सिर्फ उनकी यादें।तुम्हें पाकर फिर मेरा अधूरा कर्त्तव्य ठोंकर मारने लगा
है।वास्तव में वह पूरा हो ही कहाँ पाया है।न तुम अपना सके पूर्ण रूप से मीना को,और न मैं दे ही सका दान
स्वरूप तुम्हारे हाथों में; किन्तु भगवान ने फिर एक बार मौका दिया है- परीक्षा में शामिल
होने के लिए- तुम्हें और मुझे भी।’-कहते हुए चाचाजी तिपाई पर रखा गिलास उठा कर
पानी पीने लगे थे।
मैं भीतर ही भीतर कांप
उठा था,सच्चाई
छिपा जाने के कारण; पर उगलने की भी हिम्मत हो न रही थी- वास्तविकता के कठोर कौर
को।क्या पुनः दगा दे जाऊँगा बेचारे चाचाजी को? - सोच कर आत्मग्लानि से गड़ता-धसता-घुसता
चला जा रहा था, मानों सोफे की फटी
दरारों में ही।
परोक्ष
में
तो काफी कठोर बना लिया था स्वयं को, पर आज जब
चाचाजी सामने थे,तो फिर
उनके आदेश को टालने की हिम्मत भी न हो रही थी।आखिर कौन सा बहाना बनाऊँ- यहाँ न आने
की, यहाँ आकर न रहने की? किस झूठ को ढाल बनाऊँ? एक झूठ की ढाल
तो इतनी भारी पड़ रही है,फिर और
झूठ! किन्तु सच भी तो ‘नचिकेता’ का सच होता जा रहा
है! यहाँ आकर भी फँस जाऊँगा,न आने पर भी फँस ही रहा हूँ....
चाचाजी मेरे
चेहरे को बड़े गौर से देखे जा रहे थे।उन्हें अपने आदेश पर मेरी प्रतिक्रिया की
प्रतीक्षा थी। कुछ देर ठहर कर पुनः पूछा उन्होंने- ‘तो अब क्या
सोच रहे हो?’
‘क्या
सोचूँगा! कुछ नहीं।’
‘सोचने जैसी
बात भी नहीं है,बात है करने जैसी।मुझे एक सुदृढ़ सहारे की सख्त जरूरत है;और इसके लिए
तुम सर्वोत्तम हो,पर्याप्त
हो,परिपूर्ण हो...बस
जाओ,और अपने
बोरिया-विस्तर के साथ आज ही चले आओ... आज ही।मेरी गाड़ी तो एक्सीडेन्ट के बाद
कबाड़खाने चली गयी।मीना वाली गाड़ी गैरेज में तब से ही पड़ी है,पता नहीं-
किस
हाल में है! नहीं तो कहता मीरा को लेकर,साथ जाओ;सामान पैक करने में सहयोग
देगी,जल्दी आ
पाओगे....।’- चाचाजी को
बच्चों जैसी बेसब्री हो रही थी,मेरे आगमन की।दिन क्या,घंटा दो घंटा भी वे रूकना नहीं चाहते थे।
‘ठीक है,चलता हूँ।आपका आदेश सिर-आँखों पर।’- कहता हुआ चरण स्पर्श कर चल दिया।
डेरा पहुँचा।विजय
इन्तजार में था।कॉलेज से लौटने से लेकर अब तक की घटना वयां कर गया।सिगरेट फूंकता,मौन सुनता रहा।अन्त में बोला- ‘तो तुमने
पक्का कर लिया वहीं शिफ्ट करने का।चलो कोई बात नहीं।
इन्सान अकेला आता है,अकेला जाता है.....उसे अकेले ही रहने
की भी आदत डाल लेनी चाहिए।‘वह’ नहीं
डाल
पाता,यही दुःख
का मूल कारण है।’- दूसरा सिगरेट जलाते हुए बोला- ‘ऑफिस में तो
हमदोनों ‘दो ध्रुव हैं,हम आते हैं डेरा,तब तुम जाते हो ऑफिस,अतः डेरा आकर ही कभी-कभी मिल लिया
करना...जब मन करे...दो मुसाफिरों की तरह.....।’
मीना निवास में पुनरागमन हुए महीना
बीत चुका था करीब।और
इस
प्रकार घर से आए कोई ढाई महीने। इस बीच कई चिट्ठियाँ भेजी थी- घर पर; किन्तु शक्ति की ओर
से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया था।
हाँ,मैंना की एक चिट्ठी आयी थी,जिसमें लिखा था उसने- ‘चाची ठीक हैं भैया,किन्तु भाभी का स्वास्थ्य काफी खराब
रह रहा है।बराबर बीमार ही बीमार रहती है।सूख कर कांटा हो गयीं हैं।पूछने पर कुछ
बतलाती भी नहीं।चाची को देखने एक दिन वैद्यजी आये थे,तो भाभी को भी देखे।उन्होंने कहा कि शरीर
में खून की कमी हो गयी है। पाचन क्रिया भी गड़बड़ है।ठीक से उपचार होना जरूरी
है।कुछ दवा भी दे गए हैं,पर उसे भी
खाती नहीं हैं।’
‘खाती नहीं
है,तो मरे! क्या करूँ मैं ! अपने जिद्द पर अड़ी है, किसी का सुनना है नहीं।व्यर्थ का शक और भ्रम
पाल बैठी है। आखिर मैं क्या करूँ? कर भी
क्या सकता हूँ- मन ही मन सोचा,और पत्र एक ओर मेज पर रख दिया।पुनः पत्रोत्तर की जरूरत भी न महसूस किया था।
अपने पत्रोत्तर
की प्रतीक्षा कर मैंना ने पुनः
लिखा था-
‘भाभी की
स्थिति काफी चिन्ता जनक हो गयी है। खाना तो पहले भी जैसे-तैसे खाती थी।इधर और भी
लापरवाह हो गयी हैं। कहने पर
कहती है- जीकर क्या करना है,घुट-घुट कर तो मर रही हूँ; पापी प्राण
निकलता भी नहीं। पता नहीं
क्या
होता जा रहा है? बीमारी पकड़ में आ नहीं रही
है।सरकारी अस्पताल के डाक्टर भी आकर देखे हैं।बोले- जितना जल्दी हो बाहर ले जाना चाहिये।मर्ज
लाइलाज होता जा रहा है.....।’
पत्र पढ़ कर मैं उदास हो बैठ गया था,विजय के सामने ही। आजकल वह ऑफिस में
अधिक समय देना शुरू कर दिया है।प्रायः मेरे आने के बाद ही जाता है।हमेशा की तरह आज
भी लिफाफा खुला हुआ ही था।पत्र तो वह पढ़ ही चुका होगा।फिर भी पूछा-
‘क्या हुआ,इतने उदास क्यों हो गये पत्र पढ़ कर?’
मैंने लिफाफा विजय की ओर सरका दिया-
कैरम के स्ट्राईकर की तरह,जिसे हाथ में लेते हुए वह बोला-
‘इसी का नाम है चक्की...गृहस्थी की चक्की...दुनियादारी
की चक्की। न खाओ चैन से न सोओ,बस पिसते रहो दो पाटों के बीच- चलती चक्की देख के,दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।। सोच क्या
रहे हो?छुट्टी ले लो एकाध सप्ताह की।आज ही रात की गाड़ी से गांव चले जाओ,और बाहर ले जाकर ठीक से इलाज
करवाओ।डर लगता है- कहीं इसे भी खो न बैठो,फिर कहीं के न रह जाओगे।’
आवेदन लिख,विजय को ही सुपुर्द कर दिया।
आवास पहुँचने पर
चाचाजी ने चौंकते हुए पूछा- ‘क्या बात है,बहुत जल्दी आ गये?’
‘घर से
चिट्ठी आयी है।माँ की तबियत काफी खराब है।इसी वक्त घर के लिए प्रस्थान करना चाहता
हूँ।’ सच्चाई पर
पर्दा डालते हुए अपने कमरे में चला गया था,सफर की तैयारी करने।
दूसरे दिन संध्या समय घर पहुँचा था।शक्ति की
स्थिति देख कर काठ मार गया था।पलंग पर शक्ति का व्याधि-जर्जर शरीर पड़ा था।माँ और
मैंना वहीं
बैठी
थी।माँ कहने लगी-
‘तुम्हारे जाने के बाद से ही धीरे-धीरे इसका
खाना-पीना
कम
होने लगा था।सोची की अभी चोट का ही असर है।कमजोर हो गयी है।इसलिए वैद्यजी को
बुलवायी।किन्तु उनकी दवा का भी कोई असर न दीखा।बल्कि हालत और बिगड़ती गयी।सरकारी
अस्पताल के डाक्टर भी आए,देखे;पर
बीमारी का कुछ पता नहीं...।न जाने क्या हो गया मेरी
फूल सी बहू को...पता नहीं किसकी नजर लग गयी?’
शक्ति के माथे पर
हाथ फेरते हुए मैंने कई बार आवाज दी। किन्तु वह बेसुध पड़ी रही।माँ बता रही थी-
‘...बेहोशी तो
तुम्हारे सामने ही हुआ करती थी,पर इधर कुछ दूसरा ही रूप ले बैठा है।काफी देर तक अचेत पड़ी
रहती है।मुंह पर पानी का छींटा मारने पर उठ कर बैठ तो जाती है,किन्तु पागलों सी हालत बनाये रहती
है।न किसी को पहचानती है,और न अपने शरीर
और कपड़े का ही सुध रहता है इसे....।
ताक पर रखे गिलास
में से चुल्लु भर पानी लेकर,शक्ति के चेहरे पर छींटा मारती हुयी मैंना ने कहा था- ‘होश में आ
जाने पर
इत्मीनान
से बैठ जाती है भाभी।साज-श्रृंगार भी कर लेती है।कभी बैठ कर हारमोनियम भी बजा लेती
है।हमलोग भी सोचते हैं- चलो मन बहल रहा है,किसी प्रकार हँस-बोल-गा-बजा कर,पर एकाएक रोने
भी लग जाती है,कभी सिर पटकने लगती है,बालों को नोचने लगती है।इधर कई दिन हो गये-
एक दाना भी मुंह में नहीं गया है,और न पानी ही पीयी है।पता नहीं
बिन
अन्न-जल के प्राण कैसे बच रहे हैं? डॉक्टर ने
कहा था कि कोई दिमागी बीमारी है।बाहर ले जाना जरूरी है।
मैंने पुनः दो-तीन बार पुकारा था शक्ति
को।पानी का छींटा मुंह पर पड़ने के कारण उसने आँखें खोल दी थी, किन्तु बिना कुछ बोले चारो ओर गौर से निहारती रही कुछ देर
तक।फिर चंचल-खोजी निगाहें एकाएक ठहर गयी मेरे चेहरे पर,और अगले ही पल जोरों की चीख निकल
पड़ी- उसके मुंह से,मानों कोई
डरावनी सूरत देख ली हो।आँखें पूर्ववत बन्द हो गयी।मुंह में अंगुली डाल कर मैंने देखा- दांत चिपक गए थे,जबड़ा जकड़ गया था।
शक्ति की बीमारी
डॉक्टरों को भले ही न पकड़ में आवे,किन्तु इसका निदान मेरे पास साफ था;परन्तु इस कोरे निदान से
क्या लाभ, जिसकी चिकित्सा ही
न कर सकूँ मैं?
पिछली दफा,जब यहाँ आया था- हमेशा समझाता रहा था
शक्ति को, उसके मन के बहम को
दूर करने का हर सम्भव प्रयत्न करता रहा था।उसकी हर उलाहनों को सुन कर सहन करता
रहा।किन्तु मेरे किसी भी प्रयास का कुछ भी असर उस पर होता न दिखा।आखिर क्या उपाय
हो सकता है?
‘लाओ इधर दो।’- मैंना के हाथ से पानी लेकर शक्ति के
मुंह पर फिर छींटा मारा।दो-चार छींटे के बाद वह बैठ गयी उठ कर,और बड़बड़ाने लगी।
दूसरे ही दिन
कस्बे के सरकारी डॉक्टर के पास गया।उन्होंने बतलाया - ‘
आपकी
पत्नी अब हिस्टीरिया के अन्तिम स्टेज में पहुँच चुकी है।कोई न कोई गहरा मानसिक
आघात लगा है, उसकी ही
प्रतिक्रिया है यह सब।वैसे आप चाहें तो बाहर ले जा सकतें हैं।मैं तो पहले ही
कह चुका हूँ ।मर्ज पेचीदा है।विशेष लाभ की आशा न रखें।हालांकि प्रायः देखा जाता है
कि पति के भरपूर प्यार से,जगह बदलने से,सन्तान हो जाने से- काफी हद तक यह बीमारी ठीक हो जाती है।पर
आपके पास अब इतना समय भी शायद नहीं है।सबसे अधिक मुझे
आशंका है कि मानसिक तनाव के वजह से ‘ब्रेनहैमरेज’ न हो जाय।तत्काल में मैं एक दवा लिख दे रहा हूँ ,इसे थोड़ी सतर्कता पूर्वक नियमित रूप
से खिलाइये।आशा है इससे काफी लाभ हो...वैसे मुझे इस बात का भी शक है कि शुरू में
जो दवा मैंने दी थी,उसे नियमित रूप से खाया ही नहीं
गया,अन्यथा इतनी जल्दी केस इतना सीरियस नहीं
हो
जाता।’
डॉक्टर ने एक
पुर्जा लिख कर मेरी ओर बढ़ायी।मैं पुर्जा लेने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, तभी अचानक हवा का जोरदार झोंका- खुली खिड़की
से आया,और उड़ा ले
गया पुर्जे को।क्षण भर में ही शान्त भी हो गया,मानों सिर्फ इतना ही काम हो उसका।
‘अजीब है,बिन बादल बरसात...।’-मेरे साथ-साथ, डॉक्टर के मुंह से भी यही वाक्य निकल गया,और वे दूसरा पुर्जा लिखने लगे।
सुबह का निकला,अपराह्न
दो
बजे घर पहुँचा- दवा लेकर।पर यहाँ तो दूसरा ही माजरा था- बाहर से लेकर भीतर तक भीड़
लगी हुयी थी।ऐसा लगता था कि पूरा गांव मेरी छोटी सी ‘मड़ैया’ में समा जाना चाहता
हो।घर में कुहराम मचा हुआ था।उपस्थित, प्रायः
प्रत्येक लोगों के माथे पर सिलवटें उभरी हुयी थी।
अन्दर जाकर देखा-
आंगन में खून से सना,शक्ति का शरीर
पड़ा हुआ
था।उसकी आँखें फटी-फटी सी थी।मैंना ने रोते-रोते किसी प्रकार बतलाया- ‘तुम्हारे
जाने के बाद भाभी उठ कर कुऐँ की ओर गयी थी।हाथ-मुंह धोकर कमरे में आकर बैठ
गयी।हमलोगों ने समझा कि
स्थिति
सामान्य हो गयी है।अतः खाने को दी।हमेशा की तरह ना-नुकुर भी नहीं
की।दो-तीन
रोटियाँ खाकर,पानी पी,सो रही- इत्मिनान से।हमलोग बाहर बरामदे में
बैठी बातें ही कर रही थी कि लगता है- भाभी के स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है,आज बहुत दिनों बाद आराम से खाना खायी
है.....
‘.....तभी अचानक जोरों
की चीख सुनायी पड़ी।दौड़ कर कमरे में आयी, तो देखती हूँ कि भाभी हथौड़े की तरह अपना सिर पटक रही है,दीवार पर।मैं पकड़ने की कोशिश कर ही रही थी कि धड़ाम से
गिर पड़ी कटे पेड़ की तरह फर्श पर।पीछे से चाची भी पहुँची।सिर तरबूजे की तरह फट
चुका था,और आँखें
भी पथरा....
‘हाय शक्ति!
तूने यह क्या कर लिया! तूभी छोड़ चली.....।’-सिर चकरा गया।औंधे मुंह गिर पड़ा शक्ति
के शव पर।
मैंना मेरी बांह पकड़ कर उठाने का
असफल प्रयास कर रही थी-‘उठो भैया,धैर्य धरो...तुम्हारे भाग्य में पता
नहीं क्या बदा है!’
माँ को तो काठ मार
गया था।शव के दूसरी ओर सिर थामें चुप बैठी अपलक,आसमान ताके जा रही थी।
महीने भर बाद,फिर वापस आ गया कलकत्ता- मीना निवास
में,घनीभूत वेदना को अन्तःस्थल में दबाये, मायूसी और गम को गले लगाये हुए।जि़गर का एक
ज़ख्म अभी भर भी न पाया था कि दूसरा उभर आया।कोढ़ में खाज को लिए खुजाता रहा।रिसता
रहा परिपक्व घड़े की रन्ध्रों की तरह।अतीत कुरेदते-कुरेदते दिल का नाखून थोड़ा
भोथरा गया था,शक्ति की
मौत ने उसे फिर से धारदार बना दिया, ‘चोख’ कर दिया।
आह शक्ति! मेरी
आह्लादिनी शक्ति! मेरी सार्वभौम शक्ति! मेरी परा शक्ति!
सब कुछ तो खो दिया मैंने।अब बचा ही क्या रह गया मेरे जीवन
में? अतीत का जर्जर शेषांश ही तो! मैंने गला घोंट दिया अपनी शक्ति का।कहाँ छिपाऊँ अपने तथाकथित
भाग्य्याली हाथों को-जिनकी दसों अंगुलियों पर चक्र के निशान हैं? जी चाहता है जला
कर भस्म कर दूँ हस्तरेखा विज्ञान की मिथ्या,प्रपंची पोथियों को! कच्चा चबा जाऊँ उन
पाखण्डी पंडितों को,उन ज्योतिषियों
को- जिन्होंने भरमा रखा है,सारे जग को.....।
तनहाईयों और गम
के कसक को दिल के सौ टुकड़े हुए दर्पण में निहारता रहा,पर जैसा कि अकेला था- समग्र दर्पण में,तनहा था; चूर-चूर हुए- टूटे
पड़े सैकड़ों टुकड़ों में भी तो वैसा ही नजर आ रहा हूँ।
इन्हीं विचारों के कंटकाकीर्ण
झाडि़यों में उलझा पड़ा था,अपने उस पुराने चिरपरिचित कमरे में- जहाँ
कभी मीना के पावजेब झंकृत होते थे,पर आज चमगादड़ चूचुआ रहे हैं, औंधे मुंह पड़ा
था।अचानक पीठ पर स्पर्श पाया,किन्ही कोमल करों का।
‘कितना
घुलाओगे खुद को,मोमबत्ती
की तरह? मीना दीदी
को तो गुजरे अरसा
गुजर गया;यहाँ तक कि अंकल भी भुला चुके लगभग,पर तुम....।’- बगल में बैठी मीरा-
मीना की स्मारिका मीरा- समझा
रही थी।मैं पलट कर उसके भोले मुख मण्डल को निहारने लगा था,जिसमें
मेरे अतीत की धूमिल परछाईयाँ थी।
विगत थोड़े ही
दिनों में मीरा ने जो स्नेह दिया था मुझे,उसके परिणाम स्वरूप मीना के गम में मुरझायी मन की
बगिया में कुछ नयी कोंपलें आने लगी थी।मीना को भुलवाने का हर सम्भव प्रयास उस मासूम ने किया था; बहुत हद तक सफल
भी हो गयी थी वह।मीरा के स्नेह-प्रेम के महौषधि ने मेरे अन्तःस के विदग्ध ब्रण को
काफी हद तक भर दिया था।मीरा के प्रेम-रस की भीनी-भीनी फुहार ने मेरे कसैले मन को फिर से मधुर बना
दिया था।मीरा के रूप में मानों फिर मुझे मीना मिल गयी थी- वही स्नेह, वही प्यार, वैसा ही रंग-ढंग,वही अन्दाज,वही लचक,वैसा ही कुछ-कुछ तड़पन भी।सब कुछ तो
वही था- पर क्या ‘वही’ थी?
आदमी भी अजीब
होता है! या कहें पुरुष!
विकल्प को भी मूल
समझने की भूल कर बैठता है।असत्य को सत्य मान बैठता है।खुली आँखों से भी सपने देखा करता है।और फिर
उस स्वप्न को ही सत्य मान कर अंगिकार करने को बाहें पसार लेता है।हासिल तो कुछ
होता नहीं। आखिर असत्य दे ही क्या सकता है? दुःख-चिन्ता-संताप-दर्द....
मीरा, मीना कैसे हो जायेगी? वह एक सत्य है।यह सत्य की परछाई।और शक्ति? वह क्या है? क्या वह सत्य नहीं
है? वह भी सत्य ही है....पर....सत्य
तो एक होता है...सिर्फ एक।किन्तु हाँ,एक ही सत्य का अनेक विस्तार है- सारा जगत।तो क्या शक्ति भी विस्तार
है- उसी एक सत्य- मीना का?
विचारों का कहीं
अन्त
नहीं।अनन्त है- ‘अनन्त’ की तरह।
आये दिन मीरा
मौका देख मुझे कुरेदने लग जाती।जरा भी मौन और उदास देखती, तो झट पास आ जाती है।तरह-तरह के सवालों की
झड़ी लगा देती। ‘भैक्यूम क्लीनर’ की तरह मेरे मानस-कक्ष
की
भरपूर सफाई करने का अथक प्रयास करती।बार-बार कहती -‘जो बीत गयी
सो बात गयी’ ‘बीती ताहि विसार दे,आगे की सुधि लेई’ - बात पुरानी हो
गयी।उन्हें याद करने से कोई लाभ नहीं।भुला देने में ही भलाई है।’
मगर उस भोली को
पता ही क्या है! क्या कहूँ उसे? क्या कह सकता हूँ कि सब कुछ भुलाकर,कुछ पाकर भी पुनः कुछ खो दिया है मैंने
- अपने दिल का एक और टुकड़ा- शक्ति,जो मेरी पत्नी थी,अब छोड़ कर चली गयी है मुझे सदा के लिए?
घर से आने के बाद
मेरा घुटा हुआ सिर देख कर,सबसे पहले मीरा ने ही सवाल किया था- ‘यह क्या, तूने सिर मुड़ा रखा है...?’
उसे आशंका थी कि
माँ गुजर गयी है।किन्तु काल्पनिक कुटुम्ब की मृत्यु बताकर शान्त कर दिया था उसे; किन्तु स्वयं को कौन
सा झूठ बोल कर समझाऊँ?
मेरी हालत तो उस
मोमबत्ती की तरह हो रही है,जिसके दोनों किनारे जल रहे हैं- “ My candle burns at both
ends…”
‘तुम कहती
हो-मोमबत्ती की तरह गला रहा हूँ खुद को।पर वह तो गलती है,जलती है,और प्रकाश भी देती है।अन्धियारे को
दूर करने की सामर्थ्य है उसमें;परन्तु मैं तो उससे भी गया-गुजरा हूँ।जल रहा हूँ।गल भी रहा हूँ।पर
प्रकाश कहाँ प्रदान कर पा रहा हूँ? मेरे चारो ओर अन्धकार ही अन्धकार फैला हुआ
है।कुएँ से निकलता हूँ तो खाई में गिर पड़ता हूँ।स्वयं तो परेशान हूँ ही,तुम्हें भी परेशान करता हूँ।चाचाजी
भी हमारी वजह से परेशान ही रहते हैं।मैं उन्हें सुख तो दे न
पाया,दुःख भले
दे रहा हूँ।उन्होंने वृद्धावस्था का अवलम्ब बनाया है मुझे,जब कि मैं स्वयं निरावलम्ब हूँ।’- मैंने कहा था मीरा की आँखों में झांकते हुए,जो पास में ही अधीरता पूर्वक बैठी थी।उस
निर्बोध-निस्कलुष बालिका के दिल में तूफान उठ रहे थे।
दोपहर में कॉलेज(खानापुरी भर,पढ़ाई कहाँ),शाम में ऑफिस ड्यूटी और फिर पुराने घोसले में विश्राम-
यही दिनचर्या थी।खाली समय को जरा भी खाली न रहने देती मीरा।
अकसरहाँ उसे कहना
पड़ता- अब जाओ मीरा! सोने दो मुझे।तुम भी जाकर सो जाओे।
‘सोने दो!
या कि सोचने दो?’-
मीरा
हँसती।उसकी हँसी में हास्य कम, व्यथा अधिक झलकती, ‘मैं तुम्हारे ऐकान्तिक सोच-विचार में भी खलल पैदा कर देती हूँ न? ठीक है,जाती हूँ।कल से नहीं
आऊँगी।’
मगर उसका वह ‘कल’ कभी नहीं
आया।
वक्त इसी तरह गुजरता गया था।मीरा के
स्नेह-लेप से अपने हृदय के मर्मान्तक ब्रण-रन्ध्रों को भरने का प्रयास करता रहा
था।
अपने नियमानुसार,मीरा एक दिन(शाम-रात)आयी।हमेशा की
तरह ही,बड़े अधिकार
पूर्वक पास में ही बैठ गयी।मेरे चेहरे पर नजरें गड़ाती हुयी पूछी-
‘तूने कभी
झांक कर देखा है- अंकल की बूढ़ी आँखों में? क्या कहती हैं वे आँखें?’
‘क्या?’- मैंने पूछा था।और तभी,खाँय-खाँय करते हुए चाचाजी प्रवेश
किये कमरे में।उनके आते ही मीरा
लजा कर भाग गयी थी, वहाँ से।पता नहीं कौन सी
अनमोल छवि दिखलानी चाह रही थी- वह चाचा की बूढ़ी आँखों में।
सामने आ,कुर्सी पर बैठे चाचाजी की अनमोल रतन
की राजदार
उन
आँखों में मैं
वस्तुतः
झांक कर देखने का प्रयास करने लगा था,जिन्हें लम्बे अरसे से देखता आ रहा था।चाचाजी कह रहे थे-
‘क्यों घुला
रहा है बेटा! अपने आप को? मीना तो अब रही नहीं;फिर क्या जान ही दे दोगे उसकी याद
में? वैसे यह बात तुम्हें कहनी चहिए थी- मेरी सान्त्वना के लिए,उल्टे मैं ही......।’
मैं उनके आते ही उठ कर बैठ गया था।वे कहे जा रहे
थे-
‘....उसकी कमी न महसूस
हो तुम्हें,इसलिए विजय
के डेरे से हटा कर यहाँ बुलाया था,फिर से पुराने नीड़ में तुम्हें।यहाँ आकर रहने लगे; मैंने शान्ति-सन्तोष की सांस
ली।तुम्हारा रंग-ढंग भी बदलने लगा था।मीरा को तुम्हारी ओर खिंचने का जानबूझ कर
अवसर दिया था,
मैंने।जिस प्रकार शनैः-शनैः मीना का
स्थान,इस घर में
मीरा ग्रहण कर चुकी है; मैंने महसूस
किया कि वह तुम्हारे दिल के दर्द को भी दूर करने में कामयाब होती जा रही है....मैं ‘आगत’ के स्वागत की कल्पना में उूबने-उतराने लगा
था। अपने ‘अधूरे कर्तव्य’ को पूरा करने का आसार नजर आने लगा था....
‘....मैं संकेतो में ही कई
बार ‘ईंगित’ कर चुका हूँ-
तुम्हें भी,मीरा को
भी।सम्भवतः वह मेरी भावनाओं को समझ भी गयी।उस पर सही दिशा में, सही ढंग से पहल
करने में सफल होती हुयी भी प्रतीत हुयी.....।’
बोलते-बोलते
चाचाजी खांसने लगे थे।पीला-पीला गाढ़ा बलगम निकल कर उनकी धोती गीला कर गया था।मैं उठा,उन्हें साफ करने; तब तक- गिलास में पानी और दवा की शीशी
लिए मीरा आगयी।
‘लो अंकल,दवा खा लो।’- कहती हुयी मीरा मेज पर
गिलास और शीशी रख कर,नेपकिन से
पोंछने लगी थी- उनकी धोती को।
मैंने देखा था- अपनी स्वज्ञा के नेत्रों से- उन
बुजुर्ग आँखों में, जिनमें किसी स्वर्णिम
अनागत की झांकियाँ चलायमान थी,उस समय। काश ! पूरा
हो पाया रहता,उनका यह
सपना।दिल रो पड़ा था।क्या कह कर तसल्ली दूँ इन्हें? कितना कुछ किया है इन्होंने मेरे लिए,अब भी करने को ऊतारू हैं; पर मेरे दिल के
रीते खजाने में शायद कुछ भी तो नहीं बचा है जो दे सकूँ - इनके स्नेह-प्रेम का प्रतिफल!
दवा खा लेने के
बाद चाचाजी फिर कहने लगे थे- ‘...किन्तु, इधर कुछ दिनों से ,खास कर इस बार घर से लौटने के बाद से,तुम्हारी स्थिति में काफी बदलाव
महसूस कर रहा हूँ। मुझे भय लगता है....भगवान न करें, ऐसा हो भी – कहीं तुम अपना दिमागी
संतुलन तो नहीं खोते जा रहे हो?’
अपना हाथ बढ़ाकर
मेरी पीठ पर रख दिया था उन्होंने,और कातर स्वर में फिर कहने लगे-
‘कमल! भगवान के लिए
ऐसा न करो...ऐसा न करो कमल।मैं स्वार्थी
हूँ।स्वार्थान्ध कहो।कहीं तुम्हें कुछ हो गया
तो फिर मैं
किसके सहारे जीवित रहूँगा? इस अन्तिम घड़ी में तुम पर ही तो भरोसा है सिर्फ।मीरा-
मेरी मीना,
फिर
वापस मिली है मुझे।अपनी प्रतिज्ञा को,अपने ‘अधूरे कर्त्तव्य’ को पूरा करने का
फिर से अवसर मिला है मुझे।इस अवसर का लाभ उठाने दो कमल! ताकि सुख-चैन-शान्ति की
मौत मर सकूँ।’
मैंने रूंधे गले से कहा था- ‘यह क्या
कहते हैं चाचाजी! अभी क्या
आप इतने बूढ़े हो गए,जो मौत की प्रतीक्षा
कर रहे हैं?
आप
पर अभी एक बड़ा सा दायित्व-बोझ है- मातृ-पितृ विहीन बालिका- मीरा का।’
‘बूढ़ा तो
सच में नहीं हुआ हूँ ,पर दयनीय परिस्थितियों ने थप्पड़
मार-मार कर असमय ही जबरन,वृद्ध कर
दिया है मुझ प्रौढ़ को; और रहा मेरा दायित्व- वही तो मेरा अधूरा कर्त्तव्य है।इसे
कैसे झुठला सकता हूँ ! इसे पूरा किये वगैर मर भी कैसे सकूँगा? इसे ही पूरा करने
में मुझे तुम्हारे सहयोग की जरूरत है।’
कहते हुए वंकिम
चाचा ने मीरा का हाथ पकड़ कर अपने समीप बैठा लिया था- तख्त पर ही,जो हाथ में गिलास लिए एक टक इन्हें
निहारे जा रही थी अब तक।फिर मेरी पीठ से अपना दूसरा हाथ हटा कर,पकड़ लिये मेरे हाथ को भी,और मीरा के हाथ को मेरे हाथ में देते
हुए कहने लगे थे-
‘अब इतनी शक्ति
नहीं रह गयी है,इन कांपते
हाथों में,जो वैदिक मन्त्रों की डोर से बाँध सकूँ-
तुमदोनों की जोड़ी को।लो पकड़ो,मीरा का हाथ।आज से मीरा तुम्हारी,और तुम.....।’
मैं मानों आसमान से गिरा। अभी कुछ कहना ही चाहा
था कि बिजली के
करंट सा झटका लगा मीरा को; और हाथ झटक, दूर छिटक
जा खड़ी हो गयी।
‘अंकल! यह
आप क्या कर रहे हैं? यह अन्याय! घोर
अनर्थ!’
‘पागल
लड़की! क्या बकवास कर रही है? अन्याय कैसे है यह? अनर्थ कैसे है यह? इतने दिनों से सींचा
है तुमने प्रेम के जिस पौधे को- अपने ही हाथों उसका सर्वनाश क्यों करना चाहती है?’-चकित-विह्नल चाचाजी के होंठ फड़कने लगे थे
क्रोध से।
‘मुझे माफ
करे अंकल! मेरी ढिठाई कहें या मेरी मूर्खता,मैं आपके इस प्रस्ताव को कतई मंजूर नहीं
कर
सकती।’- मीरा की
आवाज कंपन और दर्द भरी थी।
‘कैसी माफी?
कैसी ढिठाई? कैसी मूर्खता? मैं कुछ समझ नहीं
पा रहा हूँ तुम्हारी बात को।तू कहना क्या चाहती है?’
चाचाजी हाँफ रहे थे।उनकी आवाज कांप
रही थी। क्रोध का स्थान कराह और दर्द ने ले लिया था।चेहरे से
दीनता और असहायता झलकने लगी थी।
वे कह रहे थे- ‘मेरी आकांक्षा
थी- कमल को अपने जामाता के रूप में अपनाने की।बहुत पहले ही मैंने मानसिक रूप से इसे मीना को सौंप
चुका था।व्यवहारिक-औपचारिक समर्पण के लिए अवसर की प्रतीक्षा थी। विधाता ने वह अवसर
मुझसे छीन लिया।तुम जरा सोचो मीरा! आज उसी कमल के हाथों तुझे सौंप कर मैं अनर्थ कर रहा हूँ? अन्याय कर रहा हूँ?’
‘अन्याय
मेरे साथ नहीं हो रहा है अंकल।मेरे साथ होता भी तो कोई बात नहीं।आपने मुझे शरण दी
है। अपने स्नेह और वात्सल्य की छांव में ला बिठाया है,इस अभागन को।एक अनाथ को ‘सनाथ’ बनाने
का स्तुत्य प्रयास किया है।मेरा रोम-रोम आपकी कृपा का ऋणी है।
फिर मैं कैसे साहस
कर सकती हूँ, इस ‘सप्तपर्णी
वृक्ष को काटने का? आप चाहें तो किसी कोढ़ी-पागल-अपाहिज के
हाथों में मेरा हाथ दे दें।मैं उसे सहर्ष स्वीकार करूँगी- आपके अनमोल भेंट
को।किन्तु...किन्तु इस....।’
मीरा के होठ
फड़फड़ा रहे थे।किन्तु उन होठों पर भय या क्रोध की छाया कहीं
लेश
मात्र भी नहीं झलक रही थी।उन पर था- नारी-उर का
अन्तर्द्वन्द्व और आलोड़न।
‘किन्तु क्या?
साफ क्यों नहीं कहती हो?’-चाचाजी ने आवेश में पूछा था,और उनके आँखों के किनारे गीले होने
लगे थे।
‘यह सरासर
अन्याय होगा कमल जी के साथ।’
‘कमल के साथ
अन्याय?’- चाचाजी के
साथ-साथ मैं भी थोड़ा चौंक गया,मीरा की बात पर।
‘हाँ अंकल!
मैं किसी भी हाल में
इनके काबिल नहीं हूँ।मीना दीदी को खोकर ये बेचारे खुद
ही तड़प रहे हैं।उस तड़पन
में मैं और कसक पैदा करने
का गुनाह नहीं कर सकती।’- मीरा ने साफ शब्दों में कहा।
परन्तु उसके नकारात्मक
उत्तर से चाचाजी की आशंका का समाधान नहीं हो
पाया।मुझे भी समझ नहीं आया कि मीरा कहना
क्या चाहती है।क्यों इतनी घोर आपत्ति है उसे।क्या वह किसी और को चाहती है? या
मुझमें ही कुछ कमी नजर आ रही है इसे!
‘मैं कुछ समझा नहीं तुम कौन सा पहेली बुझा रही हो?’- चाचा ने फिर सवाल किया।
‘इसके सिवा
और कुछ नहीं कहना चाहती कि कमलजी के लिए मेरे रोम-रोम का प्रेम और श्रद्धा
समर्पित है।मेरे मन मन्दिर में अहर्निश उन्हीं
की
मूर्ति विराजती है।मैंने हार्दिक
स्नेह और अटूट श्रद्धा सुमन समर्पित किया है,इस देवता के चरणों में।किन्तु इतने
सब के बावजूद परिणय-सूत्र में बँध कर इनका जीवन अन्धकूप में ढकेलना नहीं
चाहती।कमल!
मेरा प्रिय...प्रियतम है,आपके शब्दों
में मेरा ‘पति’ भी; पर मैं उनकी अंकशायिनी नहीं
बन
सकती,क्यों कि मैं इस योग्य नहीं
हूँ।इससे
अधिक मैं और क्या कहूँ?’- मीरा भावावेग में बके जा रही थी। उसकी बातें
हमलोगों को और भी उलझन में डाल रही थी।आँखें तरेरे चाचाजी फिर खाँसने लगे थे।दोनों
हाथों से अपनी छाती को दबा कर उकड़ू बैठ गए थे।
मीरा की भूरी
आँखों में झांकते हुए मैंने कहा- ‘मीरा! आखिर हमलोगों को उलझा रखने में तुमको क्या
मिल रहा है।तुम्हारी इन बातों से, बात साफ होने के बजाय और उलझ गयी है।मेरे कहने
का तुम यह
अर्थ न लगाओ कि मैं
अधीर
हो रहा हूँ ,बेताब हो
रहा हूँ
तुमसे
शादी करने को।मुझे ‘शादी’ की लिप्सा जरा भी नहीं
है,कोई रस,कुछ भी रूझान नहीं।मैं तो एक जिन्दा लाश
हो गया हूँ।सार-हीन, तत्त्व-हीन।मेरे
भीतर का सोता-
जहाँ
से प्रेम की निर्झर्णी प्रवाहित होती थी,सूख चुका है।यह और भी पहले ही समाप्त हो
चुका रहता,किन्तु बीच में तुम आकर इसमें चेतना का
संचार कर गयी।फिर भी मैं शनैः - शनैः
शून्य की ओर अग्रसर होता जा रहा हूँ- उत्पत्ति और विलय के मूल की ओर।
‘मेरा
प्रेम-पादप उसी दिन मुरझा गया था,जिस दिन मीना को अपनी बाहों से हटा कर चिता की अग्नि में
समर्पित किया था।इधर कुछ दिनों से तुम्हारे साहचर्य ने उस मुरझाये पादप को पुनः
प्रेम-नीर-परिसिंचित कर नव जीवन दे दिया।
‘परन्तु आज
यह देख कर भी कि चाचाजी कितने चिन्ताजनक स्थिति में हैं,इनके अरमानों को
ध्वस्त कर रही हो।आखिर कौन सी ऐसी मजबूरी है,जो इनकी बातों को अस्वीकार कर रही हो?’
कुछ देर तक मीरा
मौन खड़ी,कभी मेरे,कभी चाचा के चेहरे पर पल-पल बनते बिगड़ते भावों की तसवीरों
को पढ़ने का प्रयास करती रही,फिर बोली- ‘कमल जी! फिर क्षमाप्रार्थी
हूँ आप महानुभावों के सामने।कृपया मेरे मुंह से यह कहलाने की कोशिश न करें कि कारण
क्या है- मेरी अस्वीकृति का,अंकल की अवज्ञा का।’
मीरा सिसकने लगी
थी,दोनों
हाथों से अपना मुंह ढांप कर।चाचा क्रोध में उबलने लगे थे।
‘नहीं,ऐसा
हरगिज नहीं हो सकता।तुम मेरा गला घोंट दे सकती
हो,यह मुझे
सहर्ष स्वीकार्य है; परन्तु बतलाना ही होगा- अस्वीकृति का कारण,या फिर कबूल करना
होगा मेरा तोहफ़ा।’
क्रोध में उनकी आंखें
बड़े-बड़े ढेले सा नजर आ रही थी,जो रक्त से सिंचित जान पड़ती थी।चाचा की बातें सुन मीरा एक
बार सिर उठा कर पुनः उनकी क्रूर हो आयी आँखों में झांकी,जो शंकर के नेत्र सा जाज्वल्यमान
थी।पल भर के लिए कुछ सोची,फिर पलट कर अपने कमरे की ओर चली गयी.जो किसी दिन मीना का शयन-कक्ष
हुआ
करता था।
कुछ देर बाद वापस
आयी,हाथ में
दो-तीन पुर्जे लिए हुए,जिन्हें
मेरे सामने विस्तर पर फेंकते हुए बोली-
‘स्वयं देख
लें- सत्य को नंगा नचा कर।’
चाचाजी ने बाल
सुलभ चपलता दिखलायी- ‘क्या है कमल,इस पुर्जे में जरा पढ़ो तो।’
मैं पढ़ने लगा था।सत्य के नग्न नृत्य को बिना
दिव्य नेत्र के ही
देखने
लगा था।
पढ़ता रहा था,और पांव तले की धरती खिसकती सी रही।
‘क्या लिखा
है? किसका
पुर्जा है? बोलते
क्यों नहीं?’
मेरा मौन शंकर का
तीसरा नेत्र भी खोल दिया था। चाचाजी चिल्ला उठे- ‘लगता है
तुमदोनों ने मिल कर साजिस की है- मुझे मार डालने की।यह क्या बदतमीजी है? इससे
पूछता हूँ तो
कारण
बताने के बजाय,पुर्जा
पसार दी।तुमसे पूछता हूँ तो सांप सूघ गया है।जबान कट गयी लगती है।फिर क्यों नहीं
घोंट
देते मेरा गला
तुम दोनों मिल कर? इस तरह....।’
कहते हुए चाचाजी
फिर खाँसने लगे थे।क्रोध ने इस बार के दौरे को काफी बढ़ा दिया था।मैं लपक कर उनकी पीठ सहलाने लगा, मीरा दौड़ कर पानी लेने चली गयी।
पीठ सहलाते हुए मैंने कहा- ‘
यह
पुर्जा वाराणसी के....
तभी मीरा आ
गयी।गिलास उनके मुंह से लगायी,किन्तु खाँसी का जोर इतना ज्यादा था कि समूचा शरीर हिल रहा था।पानी पिलाना भी सम्भव न था।मीरा चम्मच से पानी देने
का प्रयास करने लगी,ताकि कंठ
में तरावट आकर खाँसी का बेग संयमित हो।
एक दो चम्मच पानी
किसी तरह गले से नीचे उतरा,पर पुनः जोरदार बेग के कारण छलक कर बाहर आ गया; और साथ ही आया
पीले-पीले चिपचिपे बलगम के साथ सन कर खून का फुटका छोटा-छोटा कण,फिर एक-दो-तीन इसी
प्रकार पल भर में ही कई छोटे और फिर बड़े-बड़े थक्के छिटक कर फर्श पर विखर गए-
उनकी अरमानों की तरह।और अगले ही क्षण उनका शरीर लुढ़क पड़ा मेरी गोद में...
‘ओह चाचाजी!
चाचाजी ! ....क्या हो गया मेरे अंकल को...मैं और मीरा दोनों ही लिपट पड़े उनके शिथिल शरीर से।पर हुआ
क्या था...कुछ नया नहीं....संसार के पुराने नियम की पूर्ति मात्र...आने वाला जाता ही है,जाना ही है उसे,जो आया है-
‘जातस्य हि ध्रुवो
मृत्यु.....’
चाचाजी भी चले
गये हम सबको छोड़ कर।बेसहारा करके।मीरा चीख मार कर रोने लगी थी।मैं निर्विकार सा खड़ा
रहा।देखता रहा- ‘वही’ जिसे पहले भी कई
बार देखना पड़ा है- पिताजी को...मीना को...शक्ति को....आज चाचाजी को भी....कल किसी और को
देखूँगा,इसी तरह
जाते हुए- महाशून्य की ओर....
‘अधूरे
कर्त्तव्य’ को लिए हुए
चाचाजी चले गये- महायात्रा पर,और मैं कृतघ्न बचा
रह गया- अपने अधूरे दायित्व को देखते हुए।
काल ने करवट बदला, साथ-साथ मीरा के प्यार ने भी।अब मीरा,मुझे समझाने या सान्त्वना देने नहीं आती
कभी मेरे कमरे में; मुझे ही जाना पड़ता है- उसके कमरे में- कभी कभार द्वार के
पर्दे को भेद कर मेरे कानों तक आती सिसकियों को सुन कर।
‘मीना निवास’ में हमदोनों को
निरंकु्श एक साथ रहना एक दूसरे के लिए घातक सा लग रहा था। हालांकि वंकिम चाचा ने अपना अभिप्राय आस-पड़ोस को जाहिर कर दिया
था,फिर भी
सूनी मांग का
क्या
सम्बन्ध हो सकता है- पराये पुरुष के साथ! एक युवक- एक युवती- एक सूना मकान....समाज के आँखों
में रेत सा चुभन पैदा कर रहा था,करता जा रहा था।
आखिर एक दिन कहना
ही पड़ा-
‘मीरा! यह
अच्छा नहीं किया तूने,चाचाजी की अवज्ञा करके।यह न सोचना कि
एक कमातुर-विह्नल-स्वार्थी पुरुष तुमसे परिणय की भीख मांगने आया है,प्रत्युत सामाजिक और नैतिक हित को
ध्यान में रखते हुए,साथ ही
दिवंगत चाचाजी की आत्मशान्ति के लिए यह सब कहना पड़ रहा है।निज स्वार्थ लेश मात्र
भी नहीं है।त्रिकाल- अतीत-वर्तमान और अनागत
को विचारते हुए लगता है,चल दूँ छोड़ कर इस मीना निवास को...
मीरा चौंक कर पलट
पड़ी थी,जो अब तक
विस्तर पर अधलेटी
सिसकियाँ भर रही थी।कातर कंठों से कुछ कहना चाह रही थी।मेरे द्वारा निवास परित्याग
पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाह रही थी।पर न जाने क्यों-कहाँ खोती चली गयी।उसके निर्निमेष
नयन निहारते रहे थे- छत की कुंडी से लटकते,धीरे-धीरे घूमते पंखे को; और शायद उसके भीतर
भी कुछ वैसा ही घूम रहा था।
मैं कहता जा रहा था- आखिर क्या रह गया है मेरा, इस वीरान हवेली में! अतीत के कुछ धँधले-चमकीले
बिम्ब ही तो! किन्तु
फिर
वाध्य करता है- अधूरा,अनधिकृत
दायित्व बोध(बोझ),जो पूर्ण
है नहीं,किन्तु अपूर्ण भी कैसे कहूँ? मीरा! आज तक तूने छिपाया इस रहस्य को,अच्छा नहीं
किया।नीति
कहती है- रोग-रिपु को क्षुद्र समझने की भूल नहीं
करनी चहिये।इस विकसित चिकित्सकीय युग में
घातक से घातक बीमारी का
भी
सही उपचार सम्भव हो गया है।ऐसी स्थिति में तुम समय पर अपना इलाज न करा कर बहुत
बड़ी गलती की हो...।’
मीरा की आँखें डबडबा गयी थी।कहने
लगी- ‘कमल! ठीक
कहते हो।सच पूछो तो इस सूने महल में अब कुछ रहा नहीं जो तुम्हें बाँध रख सके,फिर भी अभी बहुत कुछ है।दायित्व तुम्हें
अधिकारिक तौर पर मिला
या
नहीं मिला- कोई खास अर्थ
नहीं रखता। ‘‘अर्थ" सिर्फ इस तथ्य का है कि
तुम दायित्व ‘बोधी’ हो और ‘बुद्ध’ कभी
पलायन नहीं करता- परिस्थितियों से मुंह मोड़
लेना, उससे हो ही नहीं
सकता,क्यों कि बुद्ध भगोड़ा नहीं
होता।
सच्चा बुद्ध सिर घुटा चीवर-चिमटा धारण कर,कन्दरायें नहीं
ढूँढ़ता।वह
रहता है- इसी अबुद्ध समाज में,संघर्ष करता है,जीवन को सच्चे अर्थ में जीता है; और ‘औरों’ को भी जीने की कला
सिखलाता है-The art of living.. तुम्हारी यह आशंका भी निर्मूल नहीं
है
कि दुनियाँ को दिखाने के लिए मेरी मांग में सिन्दूर नहीं
है,पता नहीं
कौन
क्या अर्थ लगाये,और फिर
कितनों को क्या-क्या जवाब देते रहेंगे!....
......वैसे यह जाहिल- भेड़ की जमात जो भी कहता रहे,किन्तु मुझे तो अंकल ने इतना अधिकार
दे दिया है,जिसके
क्षुद्र बन्धन में भी दृढ़ता का आभास मिल रहा है।मैं कह चुकी हूँ, फिर कह रही हूँ- तुम मेरे ‘पति’ हो- ‘पा‘ रक्षणे
- की व्याख्या मैं
क्या समझाऊँ? मूल बात सिर्फ इतनी ही रह जाती है कि
तुम्हारा हमविस्तर बन, शारीरिक सुख नहीं दे सकती।इसका
भी कारण तुम जान ही चुके हो।किन्तु लगता है तूने उस दिन उस पुर्जे को ध्यान से
पढ़ा नहीं...इस व्याधि का जहर आज चौथी पीढ़ी तक पहुँच चुका है।माँ गयी, पिताजी भी गये; इसके पहले
दादा-दादी भी जा चुके थे।परिवार के कितनों को गिनाऊँ....आज तक किसी ने चिकित्सा के
बावत विचार नहीं किया- शर्म और ग्लानि से गलने के
सिवा।फिर मैं.....?’
मैंने बीच में ही टोका - ‘यह कोई होशियारी
नहीं है मीरा! जब तुम जानती थी सारी बातें,फिर समय पर इलाज जरूर कराना चाहिये था।’
फीकी मुस्कान
विखेर मीरा कहने लगी- ‘चाहिये था,इसीलिए तो उस दिन गयी थी डॉक्टर रमन के
पास।सिनियर डॉ.रमन घबड़ा गये- W.R.V.D.R.L
strongly positive……Cronic Syphlis…कहते हुए मेरी झुकी पलकों के बावजूद आँखों
में झांकने का असफल प्रयास करने लगे थे, जो निराशा के लहरों पर ज्वार-भाटे सा नृत्य कर रही थी...
…….अब जरा तुम
खुद ही सोचो! कैसे साहस कर रहे हो- इस स्थिति में मुझसे शादी करने की ? सिफलिस...‘रजित रोगाधिकार’
की संसर्गज व्याधि जो वंशानुगत है।शादी-सम्पर्क तो दूर की बात है,मुझे कभी चूमने की भी भूल न
करना....मैं
विषकन्या
हूँ...चूमोगे तो तड़प-तड़प कर मरना पड़ेगा- तुम्हें भी,जैसा कि मेरे खानदान के लोग मरते आए
है....मुझे भी एक दिन ऐसे ही....
मीरा के शब्द मुंह में ही अटके रह गए थे,क्यों कि अपनी हथेली से उसका मुंह मैंने बन्द कर दिया था, ताकि आगे का अशुभ उच्चरित ही न होने पावे; पर अगले ही क्षण एक
झटका सा लगा- मेरे मन को- क्या इन्हीं हथेलियों से एक दिन,ऐसे ही हालातों में,मैंने मीना का मुंह नहीं
बन्द
किया था! और क्या उन्हें बन्द करने भर से भवितव्यता को रोक पाने में सफल हो पाया था? फिर कहने ना कहने
से फर्क ही क्या पड़ना है? दिन गुजरते गये थे- उन्हीं
हालातों
में।यदा-कदा समाज की पैनी अंगुलियाँ उठ पड़ती थी -मीना निवास के युगल निवासियों की
ओर, पर समाज के
न्यायालय के लिए सिन्दूर का साक्ष्य जुटा न पाया था, जुटने की कोई
सम्भावना भी न थी।
मीरा को ले जाकर
कहीं दिखाने का प्रयास भी कई बार किया,किसी योग्य चिकित्सक से,पर वह अपने जिद्द पर अड़ी रही।नतीजा
यह हुआ कि उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति दिनों-दिन,तेजी से बिगड़ती ही गयी।चकत्ते जो
पहले सिर्फ गुप्तांगो के दायरे में थे,अब
ऊपर
आकर शरीर के कई भागों में अपना बीभत्स रूप प्रकट करने लगे।आन्तरिक रोग प्रतिरोधी क्षमता
बहुत तेजी से घटने लगी,जैसा कि इस तरह की व्याधियों में प्रायः हुआ
ही करता है।थर्मामीटर का पारा भी शनैः-शनैः चढ़ने लगा...
उसका दर्द-बेचैनी-तड़पन
बढ़ने लगा।सहन्शीलता और धैर्य का बाँध टूटने लगा।
एक ओर विशाल
समन्दर में ममता के मोती और प्यार के प्रवाल थे,तो दूसरी ओर एक घृणित व्याधि और
मानसिक क्षोभ के नक्र और घडि़याल भी मुंह फाड़े खड़े थे।
इधर दो दिनों से
उसकी हालत और भी चिन्ताजनक हो गयी थी,ज्वर बेसुध किए रहता।जख्म लगभग पूरे शरीर पर अपना साम्राज्य कायम कर लिया था।
तड़प रही थी
मीरा- अपनी व्याधि से,और पास
बैठा मैं तड़प रहा
था ‘आधि’ से।रात की काली
चादर में लिपट कर पूरा कलकत्ता सो रहा था,पर मीना निवास की चार आँखों में नींद न थी।मीरा कराह रही
थी।तड़प रही थी।उसके विशाल हृदय में प्रेम का ‘प्रशान्त’ सागर लहरा रहा था,और उसके किनारे पर बैठा मैं प्रेम की ही
प्यास से तड़प रहा था।पर उस खारे जल को पीकर अपनी प्यास
बुझाने की सार्मथ्य कहाँ थी?
Water water every were….no
any drop to drink….मछुआ जल बिच मरे पियासा- कुछ ऐसी ही स्थिति हो रही थी।
ज्वर उस दिन चरम
पर था।ज्वराधिक्य से मीरा बड़बड़ा रही थी, प्रलाप कर रही थी- ‘कमल! मुझको माफ कर
देना...मैंने
तुम्हारे
रीते
दिल में फिर से प्यार के दीप जलाये...ममता के दीपाधार पर धर कर- यह जानते हुए कि मैं इस योग्य नहीं
हूँ...फिर
भी अंकल के इशारे पर...अपने अन्तःसाक्ष्य के समर्थन पर, मैं बढ़ती गयी क्रमशः आगे ही आगे- उस ‘एकल,’ मार्ग पर, जहाँ से घूम कर(पलट कर) लौटने का मार्ग है
ही नहीं- ‘होकर’ ,अवरूद्ध होता तो कोई उपाय भी
निकाला जाता, पर.....
. ...तुम्हारे
फड़कते होंठ मचल कर उठा करते हैं- मेरे अधरों
पर बैठने के लिए,पर मैं उन्हें शरण न दे सकी कभी भी...तड़पाती रही अपने अधरों को भी। इस बात का
मुझे बहुत अफसोस है कि
चाह
कर भी पहले कभी तुम्हें बता न सकी।तुम्हारे प्रसुप्त प्रेम को मैंने कुरेद कर,उकसा कर जगाया;जबकि उन्हें देने के
लिए मेरी झोली
रीती
थी...मैंने तड़पाया
है तुम्हें इतने दिनों तक...अब तड़पने दो मुझे भी...तड़पने दो कमल...तड़पने दो!
यही एक मात्र सजा हो सकती है,मेरी गलती की....अवश्यमेव भोक्तव्यं,कृते कर्म शुभा्शभम्....यह तो चिरंतन सत्य है- जो किए हैं अच्छा या बुरा- उसे
तो भोगना ही होगा- रोपे पेड़ बबूल का,आम कहाँ से खाये! गलती चुकि मेरी है, अतः सजा भी अकेले मुझे ही भुगतनी चाहिए।मुझे
छोड़ दो कमल! मेरे भाग्य पर- मेरे भाग्य को अपने कर्मक्षेत्र में प्रवेश न दो...
मीरा बके जा रही
थी,मैं सोचे जा रहा था- अब
चाहे जो हो,मीरा के विचारों को दरकिनार कर,कल सुबह जबरन इसे उठा ले जाऊँगा,किसी विशेषज्ञ के पास; और सुनता जा रहा था
मीरा के ‘कनफेशन’ को
भी-
....... नागिन हूँ...विषकन्या तो हूँ ही...बल्कि उससे भी अधिक
घातक...नागिन डसती है...विषदशनों का प्रयोग करती है, तब कहीं विष व्याप्त होता है किसी के शरीर
में...मेरा विष तो बिन डसे ही फैल रहा है...दूर से ही ...दूर रहना कमल...मुझे छूना
भी नहीं....
दोनों हाथ जोड़
कर लड़खड़ाती आवाज में कहती है- ‘हो सके तो मुझे माफ कर देना कमल!’
सिर कटी मुर्गी
की तरह फड़फड़ा रही थी मीरा।मैं चुप देखता रहा था।देखता ही रह गया था।आँखें बन्द थी उसकी,और उन बड़ी-बड़ी पलकों की मर्यादा का
उलन्घन कर अश्रुधार बाहर प्रवाहित होकर कर्ण कोटरों में संचित हो आए थे- सीप में
मोती की तरह।
कुछ देर बाद मीरा
आँखें खोली।नजरें घुमाकर कमरे का निरीक्षण की।उसके मुंह से शब्द का एक टुकड़ा
निकला- ‘पा...ऽ... उसका जीभ चटपटा रहा था।मैंने मेज पर रखा पानी का गिलास उठाया,दूसरा हाथ- उसके गर्दन के नीचे ले जाकर आहिस्ते से उठा
कर बैठा दिया,और गिलास
उसके होठों से लगा दिया; जहाँ अब तक
मेरे फड़कते-तड़पते-प्यासे होठ पहुँच न पाये थे।पानी पी,गिलास पर से अपने हाथ का सहारा हटाकर,मेरे कंधे पर रख,कस कर बाँध ली अपनी बाहुलतिका में- ‘कमल! मुझे
माफ कर दिये न? कर देना
कमल! माफ कर देना... माफ कर देना ‘अपनी’ मीरा को...
स्वर बड़े ही
कातर थे- मीरा के।मेरी आँखें बरबस ही बरस पड़ी,और होठ जुड़ गए- उसके पके कुन्दरू से
रक्ताभ अधर से,जिन्हें
उसके फड़कते-तड़पते होठों ने चट कैद कर लिया,और आँखें मुंद गयी महातृप्ति की
मुद्रा में।उस अधर के अल्पकालिक स्पर्श में अमीय सार की आनन्दानुभूति हुयी- परिचित परिमल...परिचित
माधुर्य... परिचित....परिचित...चिर परिचित।
पर यह क्या? परिचित प्रेम की
परितृप्ति के साथ ही यह शैथिल्य क्यों? मैं चौंक उठा-
कुछ पल तक आलिंगन
में जकड़न की जो अनुभूति हुयी थी,शीघ्र ही स्वतः शिथिल पड़ने लगा था।अगले ही क्षण बिलकुल शिथिल
हो कर एक ओर लुढ़कने लगा।मेरी ओर से बन्धन की प्रगाढ़ता का भंग होना था कि ‘राधा का
रंग कान्हा’ ने ले
लिया-गौर शरीर नीलाभ हो कर पूर्णतः लुढ़क गया- मेरी गोद में ही।मेरे मुंह से चीख
निकल पड़ी- मी...ऽ....ऽ....रा !!!
परन्तु मीरा अब
कहाँ? वह तो जा
चुकी -जहाँ मीना गयी थी,जहाँ शक्ति
गयी थी...
सबेरा होने पर
जाना था-
उसे
लेकर अस्पताल; पर अब
जाऊँगा-
‘नीमतल्ला’ घाट; क्यों कि प्रभात के
पूर्व ही काल-हस्ति ने मीरा-पंकज को अपना ग्रास बना लिया।मेरी स्थिति उस मूर्ख
भ्रमर जैसी ही है,जो संध्या
समय पंकज-पराग के लोभ में कैद हो गया था,और आश लगा लिया था कि सबेरा होगा,कमल का यह फूल फिर से खिलेगा, और मैं बाहर निकल जाऊँगा; परन्तु काल-हस्ति
ने उस फूल को ही समूल उखाड़ कर,उदरस्त कर लिया।हा हन्त! हा काल!....कभी पढ़ी गयी कहीं
की
पंक्तियाँ हठात् निकल पड़ी मुंह से-
रात्रिर्गमिश्यति भविष्यति सुप्रभातम्
भास्वानुदेश्यति हसिस्यति पंकजश्री।
इत्थं विचिन्तयति कोश गते द्विरेफे
हा हन्त! हन्त! नलिनी
गज उज्जहारम्।।
पर अब पछताने से
होना ही क्या है? जाने वाली तो चली गयी।रहने वाला जाने की तैयारी करे- यही उचित है,हमेशा तैयार रहने की जरूरत है।बुलावा
कब आ जायेगा,कहा नहीं
जा
सकता। शून्य से उत्पन्न संसार शून्य की ओर ही अग्रसर है...प्रतिपल...निर्वाध....निर्विकार....निरंतर....यही
सत्य है...चिरंतन सत्य...
मीरा का अन्तिम
संस्कार करके अभी-अभी घाट से लौटा था।
डाकिये ने चिट्ठी दी,मैना का भेजा हुआ- ‘प्रलय का तांडव मच गया है।परसों अचानक भयंकर बारिस
हुयी।चाची और मुन्नी कमरे में सोयी थी।उमड़-घुमड़ कर बादल बरसे।बिजली कड़की; और लागातार कड़क के
दौरान एक प्रलयंकारी गोला टपक पड़ा उस कमरे के ही छप्पर पर....और फिर कर गया
सर्वनाश....सर्वनाश.....
पत्र पूरा पढ़ भी
न सका।सकने जैसी स्थिति थी,न बात ही।पत्र सरक कर गिर पड़ा हाथ से।उठाना भी जरूरी न लगा।
मुंह से विक्षिप्त
सा स्वर निकला,अट्टहास के
साथ-घोर अट्टहास
के
साथ- स....र्व...ना...श !!!
गीता में गोविन्द ने यही समझाने का अथक प्रयास
किया है-
‘‘जातस्य हि ध्रुवो
मृत्यु....."जो जन्म
लिया है उसे मरना ही है।सराय को घर समझने की भूल ही, दुःख का मूल हेतु है। और यही सत्य है- स्वीकार्य सत्य !
शून्य हो गया।सब
कुछ गंवा कर,बच गया
अकेला- शून्य की तरह....विराट शून्य।
सोचा था- मीना
गयी,शक्ति भी
चली गयी;परन्तु मीरा होगी मेरी,और मैं हो जाऊँगा ‘‘मीरामय"
पर कहाँ हो पाया ऐसा भी !
मीरा भी चली ही
गयी,और मुझे
बना गयी ‘‘निरामय"
0000000000इत्यलम्0000000000
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