निरामय के दर्पण में मेरे अक्श से
साक्षात्कार तो आप सब कर ही चुके। यह परम सौभाग्य की बात है मेरे लिए कि आपने इस
बेढंगी रचना को पढ़ा, सिर्फ पढ़ा ही नहीं, प्रत्युत सराहा भी
उसे।उसकी खामियों और खूबियों से भी मुझे अवगत कराया।इतना ही नहीं
‘आप’ पाठक वृन्द
ने निरामय को सामान्य लोकरंजक साहित्य की घाटी से उठा कर, श्रेष्ट
रचनाओं के ऊत्तुंग शिखर पर प्रतिस्थापित किया।तदर्थ आभार प्रकट करने हेतु भी मेरे
पास शब्द सामर्थ्याभाव है;अतः इसे मैं अपनी रचना की विशिष्टता
नहीं,बल्कि आप- पाठकों की महानता और हृदविशालता कह कर ही संतोष कर सकता हूँ।
निरामय को इस रूप
में आप तक पहुँचाने में जिन महानुभावों का सहयोग रहा,उन्हें अपने हृद्स्वर्णपट्टिका
पर अंकित रखने तक ही सीमित रख अपनी कृतघ्नता का परिचय दिया,इसके लिए अति खेद है; अतः उन
महानुभावों से करवद्ध क्षमाप्रार्थी हूँ।
आप महानुभावों की
महती कृपा स्वरूप ही अपने वचनानुसार पुनः आपके समक्ष उपस्थित हुआ हूँ- निरामय का पूरक खण्ड -‘पुनर्भव’ को
लेकर।पुनः यह कहने की शायद आवश्यकता न हो कि अधूरा होते हुए भी,जिस प्रकार अपने आप
में निरामय पूरा सिद्ध हुआ; तद्भांति ही
पुनर्भव भी निरामय का पूरक खण्ड मात्र नहीं,
बल्कि
अपने आप में एक स्वतन्त्र और सम्पूर्ण रचना है।
पुनर्भव क्या है,कैसा
है? यह तो आप ही कह सकते हैं।मैं तो सिर्फ
इतना ही कह सकता हूँ कि पुनर्भव ‘पुनर्भव’ है -निरामय
के विशिष्ट पात्रों का,और साथ ही शायद कुछ-कुछ मेरा भी; क्यों कि
वस्तुतः मेरे लिए वे सिर्फ कथा-पात्र नहीं.......
आपके मनोभावों- सुझाओं और शिकायतों के लिए
मेरा हृद्कोष्ठ-कपाट अहर्निश खुला है;आप प्रवेश कर सकते हैं..-निःसंकोच।
मैं आपकी
प्रतीक्षा में हूँ। कमलेश पुण्यार्क
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