पुनर्भवःभाग चार(अन्तिम भाग)

गतांश से आगे...
बगल में बैठा विमल वुत्त बना रहा।उसे कोई बात ही नहीं सूझ रही थी कि क्या कहे।
    उपाय अब नहीं के बराबर है।पुनः ऑपरेशन करके पीयूष ग्रन्थि को छेड़-छाड़ करना बहुत रिस्की है।इससे समस्या और बढ़ भी सकती है।हाँ, बहुत बार ऐसा सुनने में आया है कि पुनः वैसी ही दुर्घटना वश स्वतः स्मृति वापस आ जाती है।पर यह रेयर आफ द रेयर’ जैसा है।’- उदास मुंह बना डॉ.खन्ना ने कहा,क्यों कि तिवारीजी की स्थिति देख उन्हें भी दया आ रही थी।
    हमलोग को इसकी जानकारी पहले से ही मिल चुकी थी मिस्टर खन्ना।’-निर्मलजी ने कहा।?
    सो कैसे? पुलिस के पदाधिकारी को क्या सी.बी.आई. का गोपनीय रिपोट मिल गया था?’-मुस्कुराते हुये डॉ.सेन ने कहा।
    आप कहते थे न मिस्टर खन्ना कि हम समझदार लोग भी साधु-संत के फेर में कैसे पड़ गये?’
   हाँ,सो तो मैं अब भी कहूँगा।मीना भी कह रही थी कि आज सपने में एक महात्मा का दर्शन हुआ,किसी प्राचीन मन्दिर में।’-डॉ.खन्ना ने कहा।
    तो फिर सुनिये,वह दास्तान भी- हमारे सनातन सी.बी.आई. का उच्च स्तरीय जाँच रिपोर्ट।’ कहते हुये उपाध्यायजी ने अपनी जेब से कैसेट निकाल कर मेज पर पड़े रेकॉर्डर में लगा दिया।फिर मीना की ओर देखते हुये बोले- मीना बेटी! तुम अपनी आवाज तो बखूबी पहचानती होगी? अभी अभी डॉ.खन्ना बतला रहे थे,तुम्हारे स्वप्न की बात,ैं उसे टेप कर रखा हूँ,तुम्हारी ही जुबान में।तुम्हें इसे सुन कर आश्चर्य होगा।’
    अपनी आवाज को मैं बखूबी पहचान सकती हूँ।सुनाइये,क्या सुनाना चाहते हैं?’-मीना ने उत्सुकता पूर्वक कहा।विमल का ध्यान भी रेकॉर्डर की ओर चला गया,जो काफी देर से अधीर हो रहा था,उस आवाज को सुनने के लिए।
    मिस्टर खन्ना! आप भौतिक विज्ञान वेत्ता लोग,भारतीय परम्परा और अध्यात्म विज्ञान को झूठा बतलाते हैं।कोई-कोई तो इसकी खिल्ली भी उड़ाते हैं।परन्तु जो शक्ति और चमत्कार अभी भी हमारे तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र-योग-ज्योतिष आदि में विद्यमान है,उसे विज्ञान का बौना बालक सहस्र शताब्दियों में भी पा सकने में सर्वथा असमर्थ है।जमीन पर खड़ी छःफुटी काया से हाथ उठा कर ऊपर आसमान को छू सकना,जितना असम्भव है, उतना ही असम्भव है- आधुनिक विज्ञान को आध्यात्मिक विज्ञान की बराबरी करना।’-इतना कह कर उपाध्यायजी ने रेकॉडर प्ले कर दिया।विमल के मुंह से निकला मीना का स्वर, कमरे के वातावरण में गूंजकर उपस्थित लोगों को आश्चर्य चकित करने लगा।ध्यानस्थ हो, सभी सुनने लगे- उस विचित्र लौकिक-अलौकिक ध्वनि को,जो आधुनिक विज्ञान को चुनौती दे रहा था।
    काफी देर तक कैसेट-स्पूल घूमता रहा,और साथ ही घूमता रहा लोगों का मन-मस्तिष्क।तिवारीजी एवं निर्मल जी के लिए उतना उत्सुकता वर्द्धक तो नहीं था,लेकिन अन्य लोगों के लिए उत्सुकता के साथ-साथ आश्चर्य को भी बढ़ाने वाला था।एक ओर आधुनिकता के लिए चुनौती थी,तो दूसरी ओर प्राचीनता के लिए श्लाघ्य।जिस समस्या का समाधन आधुनिक विज्ञान इतने मसक्कत के बाद ढूढ़ पाया,उसे ही प्राचीन विज्ञान ने चुटकी बजा कर पल भर में हल कर दिया।
    मीना आश्चर्य चकित थी।यदि मात्र इह जन्म की बात होती तो उसे धोखा-फरेब कह सकती थी,किन्तु उसके साथ-साथ जुड़ी हुयी हैं- उसके गहरे अतीत की भी घटनायें।यहाँ तक कि आज जो स्वप्न की बात कह रही है,उसे भी स्पष्ट कर रही है यह पद्धति।फिर इसे झुठलाया कैसे जा सकता है? सबसे प्रमाणित बात तो यह है कि स्वर उसी का है।- सोचती हुयी मीना पल भर के लिए हर्षित हो उठी- ओह! महात्माजी ने वचन तो दिया ही है।’
    विमल सोच रहा था- ओफ! जब इतनी सारी बातों की जानकारी मिल ही गयी,तो इसका उपाय भी पूछ ही लेना चाहिये था।’ फिर अफसोस करने लगा। पापा और बापू पर गुस्सा आने लगा- ओफ! इतना पूछने पर भी इन लोगों ने वहाँ बतलाया क्यों नहीं?’
    फिर खीझ हो आयी महात्माजी पर- आखिर वचन-वद्ध क्यों हो गये’ क्या अधिकार था उन्हें? हाय! इन लोगों ने जानबूझ कर मीना से बंचित होने का जरिया बनाया।ओफ! अब लगता है चिड़ियाँ पिंजरे का द्वार खोल चुकी है।जाल-ग्रस्त चित्रग्रीव का मित्र हिरण्यक मिल गया है।अब लघुपत्नक सा मुंह बना,मुझे भटकना पड़ेगा। चित्रग्रीव को उड़ने भर की देर है अब.....।’
    इसी तरह की बातों से विमल का मस्तिष्क झनझनाने लगा।यहाँ तक कि कैसेट पूरा होने के पहले ही अचेत हो लुढ़क पड़ा कुर्सी पर ही।
    अरे इसे क्या हो गया? ओफ! मुझे इसी बात का भय था।’-कहते हुये उपाध्यायजी कैसेटप्लेयर स्टॉप कर दिये,और आगे बढ़कर विमल का सिर थाम लिए।
    तिवारी जी भी घबड़ा गये- क्या हो गया विमल बेटे?’
    पल भर के लिए मीना के दिल में भी एक अजीब सी टीस उठी।  
    अरे! यह तो मेरे प्यार में बिलकुल पग चुका है।लगता है कहीं इसका दिमाग ...।’-सोचती हुयी मीना के आँखों तले कुछ देर पूर्व देखी गयी युगल छवि नाच गयी।मन ही मन अजीब सी श्रद्धा हो आयी विमल के प्रति।
    उठ कर विमल की नब्ज पकड़ते हुये डॉ.सेन ने कहा- घबड़ाने की कोई बात नहीं।अत्यधिक संवेदन्शील,भाउक व्यक्तियों को घटनायें ज्यादा ही प्रभावित कर देती हैं।तिस पर भी यह तो मीना का प्रेमी रह चुका है।’
    मेडिसिन वाक्स से अमोनियां-एम्पुल निकाल कर,उसे तोड़ कर विमल के नथुनों में सुंघाने लगे।थोड़ी देर बाद विमल चैतन्य होकर बैठ गया। किन्तु अगले ही पल मुंह से उच्छ्वास निकला- हाय मीनू! तुमने त्याग ही दिया...।’और पुनः अचेत हो गया।
    डॉ.सेन ने मेज में लगे बटन पर हाथ रखा।घंटी घनघना उठी,और परदा हटा कर अटेन्डेंट उपस्थित हुआ।
    इन्हें बगल कमरे में ले जाने की व्यवस्था करो।’-कहते हुये डॉ.सेन पुनः अमोनियां एम्पुल तोड़कर सुघाने लगे।
    घबड़ाने की बात नहीं मिस्टर उपाध्याय।थोड़ी देर में स्वतः ठीक हो जायेगा।’-कहा डॉ.खन्ना ने,और सामने बैठी मीना की ओर देखने लगे, जो सोचे जा रही थी- कभी अचेत विमल के बारे में,तो कभी बिछड़े कमल के बारे में।
  थोड़ी देर में अस्पताल के दो कर्मचारी स्ट्रेचर लेकर आये,और उस पर विमल को लिटा कर दूसरे कमरे में लिए चले गये।डॉ.खन्ना पुनः अपने विषय पर आये।
    क्या सोंच रही हैं मिसेस भट्ट?’-कुर्सी पर बैठते हुये डॉ.सेन ने पूछा।
      सोचूँगी क्या? आपलोग कहिये क्या सोच रहे हैं? मेरे दोनों जन्मों की कहानी तो जान ही चुके।यह भी देख ही रहे हैं कि इस जन्म की याद जरा भी नहीं आ रही है मुझे।इस स्थिति में आपलोगों की क्या राय हो रही है?’-कहती हुयी मीना नजरें घुमाकर एक बार सभी उपस्थित लोगों पर दृष्टि डाली- आशा भरी दृष्टि, जिसके अलग-अलग बिम्ब बन रहे थे - व्यक्तियों के चेहरों पर ।
    आपका क्या विचार है तिवारीजी?’-तिवारी जी की ओर देखते हुये पूछा डॉ.खन्ना ने।
    मेरा और क्या विचार हो सकता है,डॉक्टर साहब? ैं कब चाहूँगा कि मेरी एक मात्र अंधे की लाठी इस बुढ़ापे में छिन जाय? ैं तो यही निवेदन करूँगा कि कोई रास्ता निकालें,किसी और बड़े डॉक्टर से परामर्श लेकर।’-हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुये कहा मधुसूदनजी ने,और निर्मलजी की ओर देखने लगे,जो सिर झुकाये किसी गहरे चिन्तन में निमग्न थे।
    आप कहिये मिस्टर उपाध्याय,आपकी क्या राय है?’-पूछा डॉ.खन्ना ने,उपाध्यायजी की ओर देखते हुये।
    अपना नाम सुनकर चौंकते हुये सिर उठाये निर्मलजी।
    ओ! मेरी राय जानना चाहते हैं?मेरी राय यही है कि तिवारी जी की आँखों की ज्योति को पुनर्जन्म’ की आहुति न बननी पड़े। एक बार फिर प्रयास किया जाय किसी प्रकार।हालांकि आप पहले ही कह चुके हैं कि यह असम्भव सा है। फिर भी....।’
    आप लोगों की राय जान चुका।अब मेरी भी सुन लीजिये।’- बीच में ही बोल पड़े डॉ.खन्ना,और इसके साथ ही सबका ध्यान आकर्षित हो गया उनकी ओर,जैसे बहस के अन्त में फैसला सुनने के लिए न्यायाधीश की ओर सबकी निगाह चली जाती है।
    वैसे इस केस में मेरी उत्सुकता अभी शमित नहीं हुयी है।मेरा विचार है कि पूर्वजन्म का गहरा संकेत मिल ही रहा है।मीना कह ही रही है कि स्थान मालूम है उसे सब।’ फिर मीना की ओर देखते हुये बोले- क्यों मीना जी! आप अपने सही स्थान पर पहुँच जा सकती हैं ,या कुछ सन्देह हैं?’
    नहीं डॉ.अंकल मुझे रत्ती भर भी संदेह नहीं।मुझे अपनी स्मरण शक्ति पर उतना ही भरोसा है,जितना कि अपने अस्तित्त्व पर।’- मुस्कुराती हुयी मीना ने कहा।क्यों कि डॉ.खन्ना की बात से आशा की रश्मि का आभास मिला उसे।
    फिर क्यों न वहाँ चल कर देख-जाँच लिया जाय, कहाँ तक सच्चाई है इसके कथन में।वैसे भी आगे और किसी प्रकार की जाँच या उपचार के लिए नजदीक में कलकत्ता ही उचित स्थान है।मीना की बातें यदि सच निकली,फिर आगे प्रयास का प्रश्न ही नहीं उठता; और असत्य की स्थिति में,स्वयं इसने वायदा किया ही है महात्मा जी से वापस आने के लिए।इसी क्रम में कलकत्ते में और भी उच्चस्तरीय जाँच हो जायेगी।’-कहते हुये डॉ.खन्ना एक बार सबकी ओर दृष्टि घुमा,उपाध्याय जी की ओर देखने लगे।
    ठीक ही है।विचार तो उत्तम है।’-सिर हिलाते हुये कहा निर्मल उपाध्यायजी ने।तिवारीजी ने भी स्वीकार किया उनकी बात को। आखिर उनके पास रास्ता ही क्या रह गया था?
    मिसेस भट्ट! एक बात और, जैसा कि स्पष्ट है,आपके पति कमल भट्ट पूर्व विवाहित हैं।फिर क्या तुक है कि आपके निधन के बाद भी वे अपना परिवार छोड़ कर नौवतगढ़ के वजाय,कलकत्ते में रह रहे हों?’-पूछा डॉ. खन्ना ने।
    जी हाँ,आपका कहना सही है डॉक्टर,किन्तु वे कहाँ हैं,इसकी जानकारी यहाँ बैठे-बैठे तो नहीं ही मिल सकती है। इसके लिये कलकत्ता चलना ही श्रेयस्कर होगा। मान लीजिये वे वहाँ ना भी हों तो भी मम्मी-पापा तो होंगे।पता लग ही जायेगा।’-मीना ने अपनी राय दी।
    विगत मई १९६६ई. में आपके पापा-मम्मी की उम्र क्या रही होगी?’- एक नया सवाल उठाया डॉ.सेन ने।
    उन लोगों की जन्म तिथि तो मुझे याद नहीं,किन्तु यह याद है कि उन्हें अवकाश ग्रहण करने में चार-पांच महीने बाकी थे।’
    मतलब यह कि वे लोग अब काफी वृद्ध हो चुके होंगे।या हो सकता है....।’-डॉ.सेन कह ही रहे थे कि बीच में ही मीना बोल पड़ी-
    प्लीज डॉक्टर! हो सकता है...नहीं हो सकता है का अटकल यहाँ बैठ कर लगाना फिजूल है।’-कहती हुयी मीना कातर दृष्टि से डॉ.खन्ना की ओर देखने लगी,मानों भय हो रहा हो- कहीं ये लोग मुकर न जांये कलकत्ता जाने से,या स्वतन्त्रता प्रदान करने से।
    ठीक कह रही हैं मिसेस भट्ट! ऐसा ही होगा।’-कहा डॉ.खन्ना ने, और फिर सबकी ओर देखते हुये बोले - क्यों न हमलोग यथाशीघ्र यहाँ से कलकत्ते के लिए प्रस्थान करें।आपलोग में कौन-कौन साथ चलेंगे?’
    हमदोनों तो चलेंगे ही।यदि आपकी राय हो तो विमल को भी ले चला जाय,अन्यथा उसे छोड़ा भी जा सकता है।लम्बे सफर का मामला है। कहीं रास्ते में परेशानी न उठानी पड़े।’-तिवारी जी की ओर देखकर,फिर डॉ.खन्ना की ओर देखते हुये कहा उपाध्यायजी ने-
             है तो वह बहुत ही भाउक लड़का,जैसा कि अभी सिर्फ बातें सुनकर ही अचेत हो गया।वहाँ पहुँच कर स्थिति का सामना कानों के वजाय आँखों से करना पड़े,फिर क्या होगा?अच्छा होता यदि वह ना ही जाय।’-फिर घड़ी देखते हुये बोले- अरे! साढ़े दस बज गये। काफी लम्बी बातें हुयी हमलोगों की।’
    मेरी एक और आरजू है।’-हाथ जोड़ कर कहा तिवारीजी ने- कल सुबह के बजाय,शाम को प्रस्थान किया जाय यहाँ से तो क्या हर्ज है?’
    तिवारीजी की बात सुन मीना कुढ़ गयी।बारह घंटे का बिलम्ब उसे बारह युगों सा प्रतीत हुआ।
    हाँ..हाँ,ठीक ही कह रहे हैं तिवारीजी।कल दिन भर ठहर कर, रात में ही राँची-हावड़ा एक्सप्रेस से चला जाय।आज सप्ताह भर से हमलोग शादी के भीड़-भाड़ में व्यस्त रहे।कुछ मेहमान अभी भी घर पर पड़े हैं।इन सब से निश्चिन्त हो कर ही चलना चाहिये।पता नहीं उधर फिर कितना समय देना पड़े।’-उपाध्यायजी ने सुझाव दिया, जिसे सभी ने स्वीकार किया।
    तो फिर ठीक है।कल आपलोग अपराह्न तीन-साढ़े तीन बजे तक यहाँ आ जायें।हमलोग तैयार रहेंगे।आपलोग के आते के साथ ही चल देंगे।’-कहते हुये डॉ.खन्ना उठ खड़े हुये।उनके साथ ही अन्य लोग भी उठ कर बाहर निकल आये।बगल कमरे से विमल को भी बुला लिया गया।
    बाहर आते ही विमल ने कहा-ओफ! मुझे तो नींद आ गयी थी।आप लोगों ने जगाया भी नहीं।’
    विमल की बातों पर मीना मुस्कुरा दी,किन्तु अपनी मुस्कुराहट को होठों के भीतर ही कैद रखी- पता नहीं क्या सोचेगा।’
    चलो मीना बेटी! घर चला जाय।कल तो फिर चलना ही है कलकत्ता।’-निर्मलजी ने कहा।उनकी बात सुनकर,मीना डॉ.खन्ना की ओर कातर दृष्टि से देखने लगी,मानों बलि के बकरे को आमंत्रित किया जा रहा हो-तख्त पर चलने के लिये।
    हालांकि इस लम्बी वार्ताक्रम में तिवारीजी एवं विमल के प्रति कुछ अजीब सी भावनायें बनने लगी थी मीना के कोमल उर में, किन्तु इसके बावजूद घर जाने में एक अज्ञात भावी भय का आभास हो रहा था।
    आपलोग भी यहीं क्यों नहीं ठहर जाते।रात काफी हो गयी है।इस समय इतनी दूर जाने की क्या जरूरत है?’-आन्तरिक भय और आशंका को छिपाती हुयी मुस्कुराकर,नम्रता पूर्वक मीना ने कहा।
    रह जाता,किन्तु यहाँ अस्पताल में.....?’-उपाध्यायजी कह ही रहे थे कि डॉ.सेन ने कहा- नहीं...नहीं...मिस्टर उपाध्याय! अस्पताल में रहने की जरूरत नहीं। आज आपलोग मेरा आतिथ्य ग्रहण करें।’ मीना की विवशता को समझते हुये डॉ. सेन ने कहा- क्यों मीना बेटी?’
    दो दिनों के सम्पर्क ने ही अजीब सा स्नेह पैदा कर दिया था। डॉ.सेन के प्रेम-पूर्ण सम्बोधन से मीना थिरक उठी- ठीक कह रहे हैं,डॉ.अंकल।’  और इस स्वीकृति के साथ ही सभी चल दिये अस्पताल-प्रांगण के बाहर बने सरकारी आवास की ओर।डॉ.माथुर और डॉ.खन्ना अपने-अपने आवास के लिये विदा हुये।
    डॉ.सेन ने जम कर स्वागत किया।काफी देर तक हँसी-खुशी का दौर रहा। मीना द्वारा गाये भजनों और गीतों का कैसेट बजता रहा।फिर लोगों ने विश्राम किया।गत रात भी मीना ठीक से सो न पायी थी।आज अच्छी नींद आयी।चैन की नींद।शान्ति की नींद। हालांकि बेचारे तिवारी जी ने सारी रात आँखों ही आँखों में गुजारी। विमल भी लगभग जगा ही रहा।
    प्रातः सात बजे, नास्ता के बाद ही फुरसत दिया डॉ.सेन ने। तिवारीजी एवं विमल को लेकर उपाध्यायजी चले वापस।
    घर पहुँच कर जल्दी-जल्दी कई काम निबटाये।समय निकाल कर तिवारीजी चौधरी से भी मिलने गये।वस्तुस्थिति से अवगत कराये।
    पुनः अपराह्न ढाई बजे प्रीतमपुर होते हुये,उपाध्यायजी एवं विमल के साथ पहुँच गये जशपुरनगर।काफी समझा-बुझा कर विमल को रोकने का प्रयास किया गया।किन्तु वह मौन बना रहा।चलते वक्त उसने कहा- जशपुर तक तो साथ चलूँगा ही।डॉ.खन्ना यदि मेरा आग्रह स्वीकार कर लें तो ठीक,अन्यथा वापस आ जाऊँगा।’
    किन्तु जशपुर से जब लोग राँची के लिये प्रस्थान करने लगे,तब गाड़ी में बिना किसी को कहे, पहले ही जाकर बैठ गया।स्थिति को समझते हुये किसी ने कुछ कहना भी उचित न समझा।
    सभी चल पड़े एक जुट होकर ढूढ़ने-  मीना के भविष्य को।
    अस्पताल के गेट पर खड़ा पीपल का पेड़ फिर एक बार अट्टहास किया। उसकी कर्कश डरावनी हँसी पर कुंढ़ कर यूकलिप्टस और झाऊ ने मुंह बिचकाया-बड़ा मूर्ख है।समय का ज्ञान नहीं। सभ्यता से वास्ता नहीं।दूर कहीं से आती हुयी कोयल की कूक ने भी कुछ कहा जरूर,पर किसी को पता न चला- विमल के लिये संवेदना की अभिव्यक्ति थी या कि मीना के लिए शुभ कामना! हाँ,प्रांगण के अन्य छोटे-बड़े पौधे,फूल-पत्तियों की डालियाँ झुकी हुयी जरूर देखी गयी।मीना की विदाई से उन्हें अफसोस हो रहा था शायद।
    परन्तु इन प्रकृति के बेबूझ पुतलों की परवाह ही किसे थी। गाड़ी चल पड़ी। आज मीना काफी प्रसन्न नजर आ रही है।माथे पर पट्टी अब नाम मात्र की ही रह गयी है।
    रात्रि आठ बजे लोग पहुँच गये राँची रेलवे स्टेशन,और कोई घंटे भर बाद वहाँ से प्रस्थान किये हावड़ा के लिए।
    हटिया-राँची-हावड़ा एक्सप्रेस के थ्रीटायर स्लीपर में चला जा रहा था- यह पंच सदस्यीय शिष्ट मण्डल।सबके मस्तिष्क में अपने-अपने ढंग का तूफान मचा हुआ था।फलतः मौन का साम्राज्य व्याप्त था।बीच-बीच में रेल की पटरियों के बीच की खाली जगह- कट-कट,धुक-धुक की ध्वनि का व्यवधान इनके विचारों को काट जाया करती,या कभी तेज भोपू तोड़ जाता विचार-श्रृंखला को;किन्तु फिर पल भर में ही वापस चले जाते सब,अपने-अपने विचार-वादियों में।
    एक ओर डॉ.खन्ना को उत्सुकता थी विज्ञान की सफलता के दर्शन की,तो दूसरी ओर मीना के हृदय में लम्बें समय से बिछड़े प्रेमियों से मिलने की बेताबी। निर्मल जी बेटे के भविष्य की चिन्ता में थे, तो विमल भावी विरह की कल्पना मात्र से ही कांप रहा था- भीगी बिल्ली की तरह। बेचारे तिवारीजी अतीत और भविष्य की मृदु-कटु अनुभूतियों के झूले में ऊपर-नीचे हिचकोले खा रहे थे। बीच-बीच में गाड़ी की बढ़ती-घटती गति उसमें अपना साथ दे रही थी। सबके सब अपने धुन में थे।किसी को किसी से लगता है कोई वास्ता नहीं-  अपार्टमेंट’ के पड़ोसियों की तरह।
    उधर रेल गाड़ी,बेजान लोहे की पटरियों को रौंदती हुयी चली जा रही थी-
अपने गन्तव्य की ओर,मानों अतिक्रमण उन्मूलन अभियान के क्रम में सरकारी बुलडोजर रौंदता चला जा रहा हो सड़क के अगल-बगल के मकानों को,और आस-पास के पेड़-पौधे तेजी के साथ पीछे भागते जा रहे थे उस भीमकाय बर्बर के भय से।
    प्राच्य क्षितिज ने अपने लाल-लाल नेत्रों से गौर से निहारा देर से सोयी हुयी कलकत्ता महानगरी को,और उसके वदन पर पड़ी अन्धकार की चादर को खींच कर एक ओर हटा दिया।साथ ही स्वतः हट गयी- लम्बे सफर के यात्रियों की आँखों पर झुकी हुयी पलकें।सफर का संक्षिप्त सा सामान समेटा सबने,और पंक्तिवद्ध होकर खड़े हो गये हावड़ा स्टेशन के दर्शनार्थी बन कर।
    इधर रक्त परिधान धारी रेलवे-कुलियों ने खटाखट अपने-अपने स्थान के आरक्षण हेुतु प्लेटफॉर्म की चौड़ी छाती पर,खड़िये से खचाखच लकीरें खींची,और चुस्ती के साथ मुडा़सा बांध कर तैनात हो गये रंगरूट लठैतों की तरह।हड़हड़ाती हुयी रेलगाड़ी आकर ठहर गयी।ठहर क्या गयी,रूक गयी- हावड़ा स्टेशन पर,और कुली-कुली’ के शोर से प्लेटफार्म गूंज उठा।पल भर के लिए ऐसा लगने लगा कि अभी भी हमारे देश में बहुत से निकम्मे लोग हैं,और बहुत से पराश्रित भी।
    गाड़ी से उतर कर सभी लोग बाहर आये,प्लेटफार्म पर।कुली के माथे पर संक्षिप्त सा बोझ लादा गया-शाही ताज की तरह,और भूगर्भ मार्ग पार कर लोग आ गये टैक्सी पड़ाव पर।एक टैक्सी ली गयी,जिसके पीछे की सीट पर बैठे डॉ.खन्ना के साथ पिता-पुत्र उपाध्यायजी एवं तिवारीजी।आगे की सीट पर बैठी अकेली मीनाबिना किसी के कहे ही,दिशा-निर्देश के लिए।
    प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा डॉ.खन्ना ने मीना की ओर।
        बागड़ी मार्केट।’-कहा मीना ने,और टैक्सी चल पड़ी- चौड़ी,काली,बेशर्म सड़क
 पर,जिसे इसका जरा भी परवाह नहीं कि कौन कहाँ किस हाल में जा रहा है।
    विमल पहली बार कलकत्ता आया है।अतः बाहर झांक कर हसरत भरी निगाहों से कलकत्ता महानगरी को देख रहा है।बेचारे तिवारी भी कभी आये नहीं थे- कलकत्ता।पर क्या देखें?आदमियों की भीड़- भेड़-बकरियों की तरह?गरीबों के रक्त चूस कर खड़ी की गयी ऊँची-ऊँची इमारतें,और फिर से उन्हें चूसने के लिए नाथा गया बंशी में चारा’- चकमक दुकानें....? यही कुछ तो है सिर्फ।कोई नई बात हो तब न देखें। - सोचते हुये,बेचारे तिवारीजी सिर झुकाये बैठे रहे,अपनी जगह पर।
    हावड़ा पुल पीछे छूटा।टैक्सी मुड़ी दायीं ओर बागड़ी मार्केट की तरफ।फिर मीना के हाथ स्वयं ईंगित करने लगे टैक्सी-ड्राईवर को।बायें और दायें कई मोड़ आये,और फिर आया एक दो मंजिला मकान- मानों रास्ता रोक कर खड़ा हो नुक्कड़ पर।
    मीना के इशारे पर टैक्सी रुकी।सभी नीचे उतरे।निर्मलजी ने किराया चुकाया।तिवारी का काल्पनिक स्वप्न टूटा।विमल मूक खड़ा रहा। मीना ने बतलाया- यही है मेरा मकान।’
    पर यह क्या- संगमरमरी ताज’ सी चमकने वाली खूबसूरत कोठी ने कोयले की कालिमा को स्वीकार कर ली है।गेट का पूर्वी पीलर वयोवृद्ध की कटि सा झुक गया है।पश्चिमी पीलर बेचारा अकाल पीडि़त की तरह औंधे मुंह पड़ा हुआ है।जब पीलर ही नहीं फिर उससे लटके रहने वाले न्योनसाइन-वाक्स का क्या अस्तित्त्व? हाँ,उसे लटकाये रहने वाला वलिष्ट अंकुश- उन्मत्त हाथी के महावत द्वारा फेंके गये अंकुश की तरह अभी भी एक ओर पड़ा था। क्यारियों में करीने से सजे रहने वाले गुल-बूटे पंचतत्त्व में विलीन हो चुके ह®।विस्तृत लॉन के चारों कोनों पर खड़े रहने वाले भेपर लाइट-पोस्ट मदोन्मत्त शराबी की तरह औंधे मुंह पड़े थे।फाटक के दोनों बगल लगाये गये यूकलिप्टस और अशोक के पुराने पेड़ मुंड मुड़ाये संन्यासी सा खड़े हैं यथास्थान।मुख्य द्वार के ठीक सामने, सीढि़यों के बगल में दीवार की छाती को चीर कर निकला हुआ व्यिाल काय अश्वत्थ वृक्ष एकोहं द्वितीयो नास्ति’ के अद्वैत वाद का उद्घोष करता सा प्रतीत हुआ,जिसके शोख पत्ते पूरे लॉन में नटखट बालकों सा उछल कूद रहे थे।
    कुछ देर तक बाहर गेट के पास ही खड़ी मीना ठिठकी सी रह गयी।आँखें फाड़-फाड़ कर देखती रही मकान की जीर्ण-्यीर्ण स्थिति को, जो चिर तपस्वी च्यवन के कंकाल सी प्रतीत हो रही थी।
    क्यों मीना बेटी! मकान पहचान रही हो ठीक से?’-पूछा निर्मलजी ने,और पास खड़े अन्य लोगों के चेहरे के बिम्ब को भी भांपने का प्रयास करने लगे।
    अपने प्यारे निवास को पहचानने में आँखें कभी धोखा नहीं खा सकती,जिसके ईंट-ईंट में अटूट स्नेह संचित है,वृद्ध पितामह का,युवा पिता का। परन्तु आश्चर्य होता है- यह इस कदर बूढ़ा क्यों हो गया?’- उदाश मीना ने कहा,और आगे बढ़ आयी मकान के मुख्य द्वार के समीप।
    तुम्हारी स्मृति का मीना-निवास’ सत्रह पतझड़ देख चुका है बेटी। लगता है बसन्त का एक भी झोंका नहीं आया है इस ओर- इस बीच।देख ही रही हो- भूतही हवेली सा भांय-भांय कर रहा है।’-करूण स्वर में कहा तिवारी जी ने।
    मीना की नजरें ऊपर उठ गयी बाल्कनी की ओर।उसके बगल के दोनों पूर्वी कमरों की खिड़कियाँ बन्द थी,जिसके कारनिस पर दुष्ट कौओं के बीटों ने कितने ही वरगद उगा दिये थे।नीचे की ज़ाफरी से झांक कर अन्दर देखी,जहाँ गर्द-गुब्बार का अम्बार लगा था।ज़ाफरी में भीतर से ताला पड़ा हुआ था,जिस पर जंग की मोटी पपड़ी जमी हुयी थी- मीना के मानसिक जंग की तरह।
    भीतर से ताला क्यूं कर लगा हुआ है? मकान तो बिलकुल सुनसान है क्या कोई और भी रास्ता है अन्दर जाने का?’-उत्सुकता पूर्वक पूछा डॉ.खन्ना ने।
    हाँ है।एक और रास्ता भी है,पीछे की ओर से।’-कहती हुयी मीना बढ़ चली मकान के दायीं ओर से होकर पीछे की ओर,जहाँ लोहे की गोल चक्करदार सीढ़ियाँ बनी हुयी थी।इन सीढ़ियों पर गर्द अपेक्षाकृत कम था।
    आप लोग यहीं रूकें।मैं ऊपर जाकर देखती हूँ।’-कहा मीना ने,और गौरैया सी फुदकती.खटाखट ऊपर चढ़ने लगी।
    पुराने मकान में इस तरह अकेले जाना ठीक नहीं है मीनू।’- कहते हुये निर्मल जी भी पीछे हो लिए।
    सीढि़याँ तय कर ऊपर पहुँची,पिछवाड़े के बाल्कनी में,जिसका एक द्वार ऊपर के आंगन में खुलता था,और दूसरा उस कमरे में जो कभी मीना का कमरा हुआ करता था।बाल्कनी में भी दो तीन न्यग्रोध जातियों ने अपना निवास बना लिया था।ऊपर छत पर मकडि़यों और चमगादड़ों का साम्राज्य मुगल सल्तनत सा फैला हुआ था।किवाड़ की एक कुंडी में जंग लगा हुआ ताला लटक रहा था, जिसने बतलाया कि विगत वर्षों में दूसरी कुंडी से मेरा मिलन न हो सका है,कारण उसमें ताली लगाने का छिद्र भी ढक चुका था, मोतियाबिन्द हुये आँखों की तरह।
      यह भी तो अन्दर से ही बन्द जान पड़ता है।क्या कोई और भी रास्ता है?’-
पीछे से पहुँच कर उपाध्यायजी ने पूछा।
    नहीं।और कोई रास्ता नहीं है।एक है भी तो बहुत गोपनीय एवं जटिल। सामान्य स्थिति में उस रास्ते से अन्दर जाना असम्भव ही समझें।’
    तब?’-चिन्तित मुद्रा में पूछा उपाध्यायजी ने, और किवाड़ के दरारों में से झांकने का असफल प्रयत्न करने लगे।
    तब क्या? उस जटिल रास्ते की जरूरत ही नहीं।यह कमरा अन्दर से बन्द है।इसका मतलब है,निश्चित ही कोई है- अन्दर में।’- कहती हुयी मीना दो तीन बार कुंडी खटखटायी;किन्तु अन्दर से कोई आवाज न मिली।
    ठहरो मैं देखता हूँ।’-कहते हुये नीचे झांका निर्मल जी ने- लगता है अन्दर कोई है, और फिर पीछे मुड़ कर किवाड़ में कस कर दो तीन धक्के लगाये।अन्दर की निरीह अर्गला पुलिस-पदाधिकारी का पद-प्रहार सह न पायी,और पल भर में ही किवाड़ का दामन छोड़ कर अपनी बेवफाई का परिचय दे दी।दोनों किवाड़ धड़ाम की ध्वनि के साथ सपाट खुल गये।विचित्र बदबू बाहर निकल कर स्वागत किया- उपस्थित आगन्तुकों का। मीना आगे बढ़ कर कमरे में प्रवेश करना चाही।पर एक के बाद दूसरा पग उठ न पाया।जरा थम कर फिर आगे बढ़ी साहस संजो कर।
    अपार धूल-धूसरित फर्श पर तिपाई के सहारे तीन वृहदाकार चौखटों में जड़े तैल-चित्र रखे हुये थे।बगल के छोटे से काष्ठ-पीठ पर मिट्टी का एक काला कलूटा धूप-दान रखा हुआ था।तीनों चित्र चौखटों पर जरी की जीर्ण माला पड़ी हुयी थी,जिसे गौर से देख कर ही माला’ कहा जा सकता था।अगल-बगल बहुत सी सूखी रोटियाँ बिखरी हुयी थी- लॉन में बिखरे पीपल के पत्तों की तरह।एक ओर कोने में सुराही रखा हुआ था, जिसमें न सुरा’ ही था,और न जल।ढक्कन भी नहीं।बायीं ओर की खिड़की जो भीतर आंगन की ओर थी,खुली पड़ी थी। वहीं एक चौकी रखी हुयी थी,जिसके लोक- लज्जा निवारणार्थ एक विस्तर बिछा हुआ था,मैले-कुचैले चिथड़ों सा, जिससे निकल कर सड़ाध सी बदबू ने स्पष्ट मना किया-  कृपया मुझ पर न बैठें।’
    पल भर में ही पूरे कमरे का निरीक्षण कर,नजरें आ गड़ गयीं उस बदबूदार विस्तर पर,जिस पर औंधे मुंह लेटा था एक औघड़ सा व्यक्ति। सिर के बेतरतीब बढ़े बाल लट से जट बन कर,नीचे पलट आये थे- भूमि-स्पर्श करते हुये।वदन पर चिथड़ों सा कुरता और पायजामा पड़ा था,जो दम तोड़ते हुये किसी तरह अपने अस्तित्त्व की जानकारी दे रहा था,पुलिस पदाधिकारी को।उसकी खुली खिड़कियों से झांक कर चमड़ी का रंग गौरव पूर्वक बतला रहा था कि -मैं किसी जमाने में गोरा भी था,यानी जन्मजात काला नहीं हूँ।बगल की चैतन्य पसलियाँ स्वांस-प्रस्वांस के आकुंचन-प्रकुंचन से प्रताड़ित होकर,स्पष्ट कर रही थी कि प्रभात के आगमन की सूचना अभी उस अभागे को नहीं मिली है।फलतः गहरी नींद की गोद में सोया हुआ है- देवासुर-संग्राम-विजयी मुचकुन्द की तरह,जिसे जगाने शायद स्वयं श्रीकृष्ण को ही आना पड़ेगा,दूसरा तो भस्म ही हो जायेगा।
    उपाध्यायजी की पुकार सुन बाकी लोग भी ऊपर आ गये।कुछ देर तक देखते रहे सबके सब,कमरे की दयनीय स्थिति,और फिर सबकी निगाहें आ टिकी शैय्यासीन अवधूत पर।
    प्रौढ़-प्रशासनिक स्वर में कड़क कर कहा उपाध्यायजी ने- कौन सोया है?’ आवाज इतनी ऊँची थी कि कमरे की छत और बेजान दीवारें भी कांप उठी,मानों व्याघ्र-गर्जन से सुकुमार मृगी कांप गयी हो; परन्तु उस व्यक्ति ने मात्र करवट बदली।इस बार उसका मुख प्रदेश सामने आगया।
    जांगम-लता सी स्वतन्त्र विकसित काली लम्बी दाढ़ी और उसके ऊपर उतनी ही सघन मूंछें।घ्यान से देख कर ही विचारा जा सकता है कि उसके बीच मुख गह्नर भी होगा।
    बोलते क्यों नहीं कौन हो तुम?’-प्रश्न दुहराया,उपाध्यायजी ने- पूर्व कड़कीले स्वर में।मीना के साथ अन्य लोगों की भी टकटकी बन्धी हुयी थी।
    इस बार की आवाज से, अलसायी आँखें खुल गयी।ऐसा प्रतीत हुआ मानों पलकों के क्षितिज को चीर कर एक साथ दो सूर्य उदित हो गये हों।शीघ्र ही उसकी रश्मि प्रकट हो गयी।यहाँ तक की उपस्थित व्यक्तियों के चहरे को झुलसाने सी लगी।
    कौन हैं आप?’- नम्र स्वर में पूछा तिवारी जी ने।
    अवधूत ने गौर से निहारा उनके चेहरे को,और बोला- समय की प्रतीक्षा में सोया हुआ एक इनसान।परन्तु आश्चर्य है कि आज तक किसी ने नहीं पूछा कि मैं कौन हूँ।आप कौन हैं?’-और अपने दोनों हाथों को उठा कर गौर से देखने लगा हथेली को।
    स्वर में एक अजीब सा जादू था।कन्हैया की मुरली सा सम्मोहन था, जो पल भर में ही अगनित गोपांगनाओं को खींच लाने की सामर्थ्य रखता था,फिर किसी एक को क्यों न खींचे? वह भी राधा को?
    पीछे खड़ी मीना,जो अब तक एक टक देखे जा रही थी,अन्तरद्वन्द्व की निगाहों से- दौड़ कर लिपट पड़ी उसके सूने सीने से।
    हाय मेरे कमल! यह क्या रूप बना रखा है तूने?’
    कई विस्फारित निगाहें जा लगीं उस ओर।नाक पर रूमाल रखे दूर खड़े
विमल के कलेजे पर अगनित सर्प एक साथ लोटने लगे। उनका विष-दश सीने की गहराई में उतरता हुआ सा प्रतीत हुआ।
    ओफ! तो क्या मेरी मीना इस पगले से प्रेम करती है...करेगी?’- उसके मुंह से अनायास निकल पड़ा,और सिर पकड़ कर बैठ गया,धूल भरे फर्श पर ही।
    मीना को सीने से चिपटना था कि वह औघड़ सा व्यक्ति हड़बड़ाकर उठ बैठा।
    कौन हो तुम,मुझे कमल कह कर पुकारने वाली? इस सीने से लगने का अधिकार तो सिर्फ मेरी मीना को है।तुम छलना कहाँ से आ गयी,मेरे प्रेम की परीक्षा लेने?’-सीने से हटाते हुये कहा कमल ने,मानों जोंक को नोंच फेंकना चाहता हो, पर हटा न पाया उस बाहु लतिका को।
    उपस्थित लोग एक दूसरे का मुंह देखते रहे।किसी ने कहा नहीं कुछ भी। डॉ.खन्ना ने सबको चुप रहने का इशारा किया,मुंह पर अंगुली रख कर।
    ैं मीना ही हूँ कमल।मीना ही हूँ।आह कमल! तूने मुझे पहचाना नहीं?’-फफक कर रो पड़ी मीना।उसके प्रसस्त छाती पर जल बिन मछली की तरह,मीना का सिर तड़प रहा था।
    तू मीना हो? मीना कैसे हो सकती है? उसे तो आज से सत्रह वर्ष पूर्व ही सुला आया हूँ चिरनिद्रा में,धधकती चिता की गोद में- पटने के बांस घाट पर..।’ -दोनों हाथों से मीना के मुखड़े को थाम कर सामने कर,देखते हुये कहा कमल ने।
   ठीक कहते हो शायद,सुला दिया होगा तुमने अपनी उस मीना को;किन्तु कुछ और भी याद है?’-मीना ने उसके यादों की पपड़ी उधेड़ी।
    क्या’
    तूने सिर्फ जीवन भर साथ निभाने की कशम खायी थी कमल! सिर्फ जीवन भर की;किन्तु मैं जन्म-जन्मान्तर में भी साथ न छोड़ने की प्रतिज्ञा की थी।याद है? मेरी मांग में सिन्दूर भरा था तुमने,और कहा था- ‘‘मीना आज तुम्हारी मांग के साथ मैंने पूरे संसार को ही मांग लिया है।’’- सिसकती हुयी मीना ने कहा।
    हाँ,कही थी।कही थी मेरी मीना।मुझे याद है आज भी।सिर्फ यही नहीं,बल्कि उसके एक-एक शब्द याद हैं मुझे,आज भी आज की तरह।’ मीना के मुखड़े को गौर से निहारते हुये कहा कमल ने।
    जब सब कुछ याद है,तो यह भी याद होगी- ैं कही थी उस दिन- आज तुम्हारी गोद में पड़ी रहने में जो स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति हो रही है,वह कभी नहीं हो सकेगी।’
    हाँ,यह भी याद है;किन्तु ये सब यादों की बारात लिये विगत सत्रह वर्षों से मैं भटक रहा हूँ दुल्हन की तलाश में।मेरी दुल्हन..मेरी मीना...हाय मेरी मीना!’- लम्बी उच्छ्वास सहित कहा कमल ने,और मीना के चेहरे को गौर से फिर देखने लगा।देखते-देखते उसे आश्चर्य होने लगा- ‘अरे! वही रूप...वही लावण्य...वही आवाज...वही खनक...वही लचक...वही ठुमक सब कुछ वही,परन्तु रंग? रंग तो वह नहीं है! वह था वनमाली कृष्ण वाला रंग,और यह रंग है राधिका वाला।कहीं यह कोई छद्म रूप तो नहीं है मुझे छलने का?’ अपने आप में बड़बड़ाया कमल ने,किन्तु मुखर ध्वनि औरों के कानों से भी टकराने से बाज न आयी।
    घबड़ाने की बात नहीं है मेरे प्रियतम।तुम्हारी दुल्हन आ गयी है।फिर से अवतार लेकर।जानते ही हो, मानव की ऐष्णा जब तक विद्यमान रहती है,तब तक जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुटकारा नहीं मिलता।महाज्ञानी भरत को मात्र एक मृगछौने की ऐष्णा ने पुनः शरीर धारण करने को वाध्य कर दिया था।फिर, ैं तो बहुत बड़ी चाहत को लिए हुये, सुख की चिर निद्रा में सोयी थी- तुम्हारी गोद में फिर से सोने की कामना लेकर।फिर क्यों न आऊँ नया शरीर लेकर? शरीर बदल गया।रंग भी बदल गया।पहले जली विरहाग्नि में,फिर चिता की धधकती ज्वाला में तपी।तप्त कंचन का रंग कैसा होता है,तुम्हें पता ही होगा? नया रंग लेकर,नवीन शरीर में-पुरानी आत्मा को लेकर- ‘‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नारोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा,नन्यानि संयाति नवानि देही।।’’-गीता में गोविन्द ने ऐसा ही तो कहा है पृथा पुत्र से....।’
    मीना कहती रही।कमल सोचता रहा।स्वयं से ही तर्क-वितर्क करता रहा-
    क्या ऐसा भी हो सकता है? हालांकि वासांसि जीर्णानि का तात्पर्य तो यही है।आत्मा मरती नहीं।वह तो नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि,नैनं दहति पावकः।न चैनं क्लेदयन्त्यापो,न शोषयति मारुतः से परिभाषित है।जीर्ण वस्त्र की तरह अपने पुराने शरीर को त्याग कर,नवीन शरीर-कुन्दन सा शरीर धारण करती है। जातस्य कि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च -भी तो यही कहता है।फिर भी क्या मैं इतना भाग्यवान हूँ? मेरी मीना फिर से मुझे वापस मिल जा सकती है?- सोचता हुआ कमल अपने हथेलियों को देखने लगता है।अंगुलियों के पोरुओं को ध्यान से देखता है।प्रत्येक पर चक्र के स्पष्ट निशान नजर आते हैं।उसे याद हो आती है-
    ‘‘तुम तो भाग्यवान हो।ऐश्वर्यवान हो।’’- दक्षिणी ने कहा था एक दिन, तो क्या मेरे भाग्योदय का समय आ गया? शायद ऐसा ही हो,क्यों कि ज्योतिष शास्त्र का वचन है कि शनि की कृपा का काल जीवन के छत्तीसवें वर्ष के करीब ही होता है।पर कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे धोखा हो रहा है? किन्तु नहीं।धोखा कैसे हो सकता है? जो कुछ यह कह रही है- मेरे और मीना के सिवा इसे जान भी कोई कैसे सकता है...?
    मीना उसके चेहरे को निहारे जा रही थी,जिससे अभी तक अविश्वास का दुर्गन्ध ही निकल रहा था।विश्वास का फूल इतने प्रयास के बावजूद खिल न पाया था।फलतः पल भर के लिए मीना का कोमल हृदय ऐंठ सा गया।
    हाय कमल! तुझे कैसे विश्वास नहीं होता मेरी बातों का !! तुझे याद होगा- कालेश्वर की घटना के बाद तुम अचानक उदास हो गये थे।तुझे शयद मुझ पर क्रोध हो आया था।मेरे पवित्र प्रेम-प्रसून में वासना की दुर्गन्ध महसूस किया था शायद तुमने,और तब मैंने कहा था- नाटक के बाद तुमने सत्यवान का चोंगा उतार फेंका, पर म तब से ही,सावित्री ही हूँ। ओह कमल! तुम अपनी उस सावित्री को कैसे भूल गये,जिसकी गोद में सिर रखकर सुख की नींद सोये थे....?’   पागलों की तरह बकने लगी मीना,और इस क्रम में बहुत सी गुप्त बातों को भी आवेश में,आवेग में उगल गयी।यहाँ तक कि अन्त में फफक कर रो पड़ी।
    मीना की बातों पर कमल गौर करता रहा,साथ ही खुद से प्रश्नोत्तर भी।धीरे-धीरे उसके मस्तिष्क से अविश्वास की काई छंटने लगी।उसे लगने लगा कि मीना के कथन में यथार्थ का सुगन्ध है।पवित्र प्रेम का परिमल है।यह वास्तव में मीना ही है।इसी की प्रतीक्षा में आज सत्रह वर्षों से वह पड़ा रहा है।
    ऐसा विचार आते ही,अचानक उसके शुष्क प्राय हृदय में प्यार का सोता उमड़ पड़ा।कस कर जकड़ लिया उस गौर गात को,और पागलों सा चूमने लगा उसके अंग-प्रत्यंग-सर्वांग को।मीना भी तो प्यासी थी ही।जरा भी विपरीत प्रतिक्रिया न व्यक्त की।लिपटी रही। चिपटी रही अपने प्यारे कमल से।दोनों में किसी को भी इस बात का रंचमात्र भी भान न था कि यहाँ कोई और भी है,जिसे इनका यह प्रेम-व्यवहार बुरा या असभ्य सा लगेगा।वैसे कहा जाय तो, प्रेम की गहन गुहा में ही समाधि लगती है।और फिर समाधि में किसी को वाह्य ज्ञान ही कहाँ रह जाता है? एक और दो,दो और एक में अभेद की स्थिति हो जाती है। सारी विसंगतियाँ द्वैत में हैं।अद्वैत तो अक्षुण्ण है।अखिल है।
    सभी खड़े-खड़े उस दिव्य मिलन के अलौकिक दृश्य को देखते रहे। मुग्ध होते रहे।यहाँ तक कि तिवारीजी भी मन्त्र मुग्ध हो गये। सच्चे प्यार के सुमधुर परिमल ने उनके मन-मस्तिष्क के मैल को धो-पोंछ कर स्वच्छ कर दिया।
    किन्तु बेचारा विमल?
    ओफ! उसकी तो अजीब स्थिति थी।मीना के अंगों पर कमल के होठों का स्पर्श साम्प्रदायिक तप्तमुद्रा’ की तरह उसके हर अंगों से चिपक रहा था,और मानों हर स्थान का गहरा मांस निचोड़ ले रहा था।
    कमल पागलों की पंक्ति से भी कुछ आगे निकल गया था- हाँ,तुम मीना ही हो।मीना ही हो तुम।उसके सिवा किसमें सामर्थ्य है कि मेरे तप्त हृदय में शीतलता प्रदान कर सके? आह मेरी मीना! मेरी मीना!!
    आत्मविभोर मीना कमल की बाहों में पड़ी रही,मानों राजा दुष्यन्त की गोद में चिरविरहिणी शकुन्तला हो।देखने वाले भी आत्मविभोर थे।सब के सब अपना पद-मर्यादा और कर्तव्य विसार चुके थे।राधा-कृष्ण के से अलौकिक मिलन-दृष्य में लोग मग्न हो गये।दृष्य की सार्थकता तो द्रष्टा को भी समाहित कर लेने में ही है-सो हो गया था।वस्तुतः किसे उमीद थी इस मिलन की?
     काफी देर तक यही स्थिति बनी रही।एक दूसरे का चुम्बन और दृढ़
आलिंगन...।कुछ तुष्टि के बाद अचानक मानो होश आया कमल को- अरे मीनू! ये लोग कौन हैं-  यहाँ पीछे खड़े?’
    सुमधुर सपनों से अचानक जाग गयी हो मानो।झट से अलग हो गयी कमल की बाहों से।
    ओ! आई ऐम भेरी सौरी डॉ.खन्ना!’- कहती हुयी मीना इधर-उधर देखने लगी,उस धूल भरे कमरे में,जहाँ यह कहना भी मुश्किल था-
    आप लोग बैठें।’
    मुस्कुराते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- डॉन्ट माइन्ड मीनू! माई हर्टियेस्ट कॉग्रेचुलेशन टू यू एण्ड योर कमल भट्ट।’
    नवेली दुल्हन सी शरमायी मीना,चुस्ती के साथ खड़ी होकर कमल को परिचय कराने लगी-
    आप हैं मिस्टर खन्ना,जशपुरनगर के जिला चिकित्सा पदाधिकारी,और आप हैं अवकाश प्राप्त आरक्षी अधीक्षक मिस्टर निर्मल उपाध्याय जी,मेरे होने जा रहे पति श्री विमल उपाध्याय के पिता।
    अगला इशारा था-और आप हैं माधोपुर के श्री मधुसूदन तिवारी, मेरे बापू।’
    मीना के मुंह से निकला मेरे बापू’ शब्द तिवारी जी का रहा सहा मानसिक मैल भी धो डाला।उनके लिये तो गत तीन दिनों का विलगाव और परित्याग असह्य हो गया था।स्वयं को रोक न पाये अब।
    मीना बेटी!’-कहते हुये लपक कर मीना को गले लगा लिये। विस्तर पर से उठ कर कमल हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया- ओफ! मुझसे बड़ी भूल हुयी,अभी
तक आपलोगों को बैठने के लिए भी नहीं कहा।’
    कोई बात नहीं।कोई हर्ज नहीं।’-मुस्कुराते हुये कहा उपाध्याय जी ने, और आगे बढ़ कर चिथड़े-से विस्तर पर ही बैठ गये।उनके साथ ही डॉ. खन्ना भी आ विराजे।फिर मीना की बाहों से अलग हो तिवारी जी भी।
    प्रेमानन्द के फौब्बारे में सभी स्नात हो चुके थे।अब दुर्गन्ध कहाँ? गन्दगी कहाँ?वस्तुतः वस्तु के होने,न होने का कोई खास महत्त्व नहीं होता।महत्त्व होता है- मन की मौजूदगी का।वह जहाँ है,वस्तु भी वहीं है।मन प्रेम में है या कि घृणा में- यह उसी का विषय है।
     विमल अभी भी नीचे ही जड़वत बैठा रहा।
    विमल बेटे! विमल! क्या सोच रहे हो? आओ,इधर बैठो।’- बड़े स्नेह से कहा उपाध्यायजी ने।
    ठीक है पापा।कोई बात नहीं।’- कहते हुये पास में पड़े खन्ना साहब की बेडिंग पर उठ कर बैठ गया।
    तिवारी जी से लिपटने के क्रम में मीना का ध्यान फिर से उन तसवीरों पर गया,जो वृहदाकार चौखटों मे कैद थी।अगल-बगल श्री वंकिम दम्पति की तसवीर थी,और बीच में उनकी दिवंगता पुत्री मीना की।मीना के साथ ही अन्य लोगों की निगाहें भी उस तसवीर से जा लगी।
     निर्मलजी की ओर देखते हुये उॉ.खन्ना ने कहा- देख रहे हैं मिस्टर उपाध्याय! चेहरे की बनावट में भी रंच मात्र फर्क नहीं है।’
     रियली।क्या कोई कह सकता है कि यह मीना की तसवीर नहीं है?’- कहा

उपाध्यायजी ने फिर सामने खड़े कमल की ओर देखते हुये बोले- मिस्टर कमल! खड़े क्यों हैं आप? बैठिये न।’
    इधर-उधर देखते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- यहाँ आप अकेले ही रहते हैं? और लोग?’
    रहने वाले थे,सो चले गये वर्षों पहले ही।’-ऊपर की ओर हाथ का इशारा करते हुये कहा कमल ने,और नीचे फर्श पर ही पलथी मार कर बैठ गया,मानों गुदगुदे कालीन पर ही बैठा हो।
    कमल के मुंह से निकला शब्द- चले गये’ मीना का ध्यान खींच लाया कमल की ओर,जो अब तक कहीं और ही घूम रहा था।हड़बड़ाकर बोल पड़ी-  क्या कहा, मम्मी-पापा अब नहीं रहे?’
    नहीं मीनू! तुम्हारे जाने के पांच-छः महीने बाद ही कार दुर्घटना में मम्मी चली गयी,और उनके एक वर्ष बाद पापा भी चले गये गम में घुल-घुल कर।’-  कमल ने इस सहज भाव से कहा जैसे कोई अति सामान्य बात हो।वस्तुतः उसके लिए तो मौत’ एक सहज घटना ही बन कर रह गयी थी विगत वर्षों में।
    एक बार हाय! करके मीना झुक गयी पास रखी तस्वीरों पर।
    जाने वालों को कोई रोक नहीं सका है आज तक मीनू।सिर्फ वे ही नहीं,बल्कि न जाने कितने ही गये इस बीच। जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शचितुमर्हसि।। आने वाले जाते ही हैं मीनू,और जाने वाले आते भी हैं।आवागमन का यह अद्भुत अनन्त क्रम यदि नहीं रहता तो आज इतने काल बाद तुम्हें कैसे पा सकता था मैं?’ मीना की बांह पकड़ कर उठाते हुये कहा कमल ने- अब उनके लिये शोक करके क्या होगा मीनू? बीती ताही विसार दे,आगे की सुधि ले।आज हमारे द्वार पर इतने लोग पधारे हुये हैं।इन सबका स्वागत करना चाहिये।’- कहता हुआ कमल अपने हाथों को निहारते हुये मलने लगा, पश्चाताप की मुद्रा में।
     निर्मल जी उसका आशय समझ गये।
    चिन्ता करने की बात नहीं है,कमल बेटे।’- कहा निर्मलजी ने,तो कमल एकटक उन्हें देखने लगा।वे कह रहे थे- ....तुम इसी बात की चिन्ता में हो न कि आगन्तुकों की सुश्रुषा हेतु तुम्हारे पास साधन का अभाव है।जो कुछ भी था,सो अतीत-गह्नर में दफन हो गया।’
    स्वागत में असमर्थता की बात सुन मीना मानों चैतन्य होकर बैठ गयी।उसे पुरानी बातें याद आने लगी।कुछ देर यूँही शून्य में ताकती सोचती रही।फिर कमल की ओर देखती हुयी बोली- कमरों की चाभी कहाँ है?’
    यहीं कहीं होंगी।’- कहते हुये कमल ने विस्तर पलट कर चाभियों का एक पुराना गुच्छा निकाल कर मीना की ओर बढ़ाया- क्या करोगी? अब है ही क्या इस सूने मकान में, पुराने वरतन और टूटे फर्नीचर के सिवा?’
    बहुत कुछ होना चाहिये इस महल में कमल! यहाँ तक कि हमसब बैठे-बैठे जीवन आराम से गुजार लें।’- चाभी का गुच्छा कमल के हाथ से लेते हुये मीना ने कहा- पापा अपनी कमाई के- वह भी सिर्फ कागजी नोट खर्च किये होंगे। दादा जी की अमानत तो अछूता ही होगा।’
    मीना उठकर खिड़की के बगल के बन्द दरवाजे को खोलने का प्रयास करने लगी,जिसमें जंग लगा भारी भरकम ताला पड़ा था।यह द्वार भीतर के वरामदे में खुल कर अन्य कमरों में जाने का रास्ता खोलता था।
    मगर कहाँ है मीनू? मम्मी के गुजरने के बाद तुम्हारी मौसेरी बहन मीरा इस घर की देखभाल किया करती थी।प्रायः सभी बक्सों में मैं भी देख चुका हूँ। कपड़े-वासन,थोड़े आभूषणों के सिवा उनमें कुछ भी नहीं था।’- कमल कह ही रहा था कि मीना बोल पड़ी- मीरा कहाँ गयी?’
    वहीं,जहाँ सभी लोग।’- सहज भाव से कमल ने कहा- उसी के श्राद्ध में वे आभूषण भी चले गये।’ मीना के हाथ से चाभियों का गुच्छा लेते हुये बोला-लाओ,मैं खोलता हूँ।’
    मीरा की मौत का संवाद पल भर के लिए मीना को फिर तड़पाया- ओफ! सबका सर्वनाश ही हो गया!’- दीवार से सिर टिकाकर खड़ी होगयी।सिर में चक्कर सा आ गया।
    हाँ मीनू! मौसा के निधन के बाद मीरा आयी थी यहाँ,खुद का सहारा लेने और पापा को सहारा देने,किन्तु मुझे भी बेसहारा बनाकर चली गयी।’- ताला खोलते हुये कमल ने कहा।
    तुम्हें बेसहारा...? शक्ति दीदी?’- साश्चर्य पूछा मीना ने,कारण कि अपना घर-वार छोड़ कर यहाँ रहने का प्रयोजन समझ न आ रहा था।
    वह तो और भी पहले जा चुकी थी,फिर लेती गयी माँ और मुन्नी को भी।मौत का ताण्डव देखते-देखते मेरी आँखें पथरा गयी हैं।चारों ओर से हताश होकर शरण बनाया-  मीना की स्मृतियों के ताज’ इस मीनानिवास को।यहाँ पड़े-पड़े कुरेदता रहा अतीत को, स्मृतियों के पैने नाखून से।पर अब तो वह भी भोथरा गया।मैं भी धीरे-धीरे महाशून्य की ओर अग्रसर होने लगा हूँ।इसी क्रम में रात के अन्धेरे में कई बार गया हावड़ा पुल पर,कभी उससे भी पार कर रेल की पटरियों तक,कभी डलहौजी टावर....किन्तु हर बार कोई अदृश्य शक्ति मुझे खींच कर ला-बिठा देती फिर से इसी घोसले में।मुझे धीरे-धीरे आशा बनने लगी। विश्वास जमने लगा,और समय की प्रतीक्षा करने लगा।मुझे लगने लगा- एक न एक दिन तुम आओगी। जरूर आओगी,और मुझ विरही को अंगिकार करोगी।बन्द कमरों की दीवारों से उब कर कभी-कभार बाहर निकलता हूँ।परन्तु बाहरी बातावरण काटखाने को दौड़ता है।लोग मुझे पागल समझते हैं।’-फिर मुस्कुराते हुये कमल ने कहा- हाँ,पागल ही तो हूँ।लोग दिमाग के पागल होते हैं।मैं दिल का पागल हूँ।पर आज मेरा पागलपन दफा हो गया।अब मुझे कोई पागल कैसे कह सकता है? मजनू पागल ही तो था? महिवाल पागल ही तो था? किन्तु आज मेरी लैला,मेरी सोनी,मेरी मीना मुझे मिल गयी है;तब मैं पागल कैसे रह सकता हूँ?’
    ताला खुल चुका था।दरवाजा खुलते ही अजीब सी बदबू का भभाका अन्दर से आकर,कमरे में प्रवेश किया,और विवश कर दिया उपस्थित लोगों को नाक पर अंगुलियाँ रखने को।
    तुम इनलोगों के स्नान-ध्यान का प्रबन्ध करो।मैं तब तक नीचे के कमरों का निरीक्षण करती हूँ।तुम इस कमरे के आलमीरे और बक्से मात्र को ही सम्पत्ति समझ रहे थे।तुम्हें याद नहीं इसके निचले भाग में एक छोटा सा तहखाना भी हैं- जहाँ पुरानी जमींदारी का अपार वैभव सुरक्षित है।’-भीतर कमरे में प्रवेश करती हुयी मीना बोली।
    हाँ-हाँ,तुम कह रही हो तो याद आगयी।उस बार तुम बतलायी जरूर थी- अपनी पुस्तैनी कहानी,किन्तु उसे तो मैं उस समय कोरी कहानी ही समझ लिया था,फलतः ध्यान न दिया।वैसे भी जरूरत ही क्या थी मुझे उस धरोहर की जिसकी मालकिन ही न हो?’- मुस्कुराते हुये कहा कमल ने और पलट पड़ा उस कमरे की ओर जहाँ बैठे बाकी लोग गप्प लड़ा रहे थे।तन्त्र और विज्ञान की दुहाई दी जा रही थी।
    भीतर वरामदे से होकर,मीना अन्य कमरों को खोलने का प्रयास करने लगी।
   मकान बहुत दिनों से बन्द है।यूँ अकेली अन्दर जाना उचित नहीं है मीना।’- कहा तिवारीजी ने और उठ कर उसके पीछे हो लिये।
    उन सबकी अभी चिन्ता छोड़ो मीनू।जो है सो तो होगा ही। समयानुसार उनका उपयोग करना।अभी तो जरूरत है- स्नान वगैरह की।चौकी से उठकर, भीतर के वरामदे में झांकते हुये निर्मलजी ने कहा।फिर कमल की ओर मुखातिब हुये- पानी-वानी की क्या व्यवस्था है यहाँ?’
    पाइपलाइन तो कब का कटा हुआ है।यहाँ ऊपर वरामदे में एक चापाकल है,वह भी बन्द पड़ा हुआ है।शायद ही काम दे।नीचे लॉन में एक कुआं है,जिससे जुड़ा है एक हैन्डपाइप- उसे तो कामयाब होना चाहिए। अभी परसों ही सुराही में पानी लाया था।’-कहते हुये कमल नीचे की ओर चला गया सीढि़यां उतर कर- ैं अभी आया देखकर।’
    उपाध्यायजी वरामदे के द्वार पर ही खड़े रहे।कमल के नीचे जाने के बाद डॉ.खन्ना भी उठकर वहाँ तक आये,और दोनों साथ चल पड़े भीतर, जिस ओर तिवारीजी और मीना गये थे।ऊपर के सभी कमरों को बारी-बारी से मीना खोलती जा रही थी।किसी में बक्से,किसी में फर्नीचर,किसी में अन्य टूटे-फूटे असबाब- सबके सब अस्त-व्यस्त स्थिति में विखरे पड़े थे, जिन पर धूल का मोटा आवरण चढ़ा हुआ था।

    ओफ! इन सबकी सफाई में तो हफ्तों लग जायेंगे।’-कहती हुयी मीना भीतर की छोटी सीढ़ी से नीचे तहखाने में ऊतर गयी।बाकी लोग भी पीछे-पीछे आ गये। वहाँ की स्थिति और भी बदतर थी।बामुश्किल चार आदमियों के खड़े होने भर छोटी सी जगह थी,जिसकी दीवारों में चारों ओर विचित्र तरह की तिजोरियाँ जड़ी हुयी थी।न कहीं ताली लगाने की जगह थी,और न कोई मुट्ठा ही नजर आ रहा था।वस लक्ष्मी-गणेश की उभरी हुयी एक जोड़ी थी।उपाध्याय जी की पुलिसिया आंखें खुशी से चमकीं - बड़ी तिलिस्मी कारीगरी है।’ फिर मीना की ओर देखते हुये बोले- इन्हें खोलने की विधि भी मालूम है तुम्हें या कि...?’
    गणेश की सूंढ़ और लक्ष्मी के उल्लू पर एक साथ मीना ने अपने हाथ रखे,कसकर दबाया,और चरमरा कर पल्ला खुल गया। तिवारीजी की आँखें चौंधिया गयी- फूल के कटोरे में सिर्फ असर्फियाँ भरी हुयी थी।बगल में पीतल की एक संदूकड़ी भी थी,जिसे खोलकर मीना ने दिखाया- हीरे, जवाहिरातों से भरा हुआ था।दाहिनी ओर की तिजोरी पर इशारा करती हुयी मीना ने कहा- इसमें मेरी दादी के असबाब हैं,और इसके बगल में मेरी परदादी के।इस पश्चिम वाली तिजोरी में सिर्फ जड़ाऊँ जेवर हैं,जिन्हें मम्मी ने खास मेरे विवाह के लिए रख छोड़ा था।’
       चलो देख लिया।अब आही गयी हो तो इत्मिनान से सफाई और व्यवस्था करती रहना।’- उपाध्यायजी ने कहा।डॉ.खन्ना ने भी यही बात दुहराई।
    बाकी काम तो होता ही रहेगा बाद में,अभी कम से कम बैठक की सफाई कर लूँ।आखिर इतने लोग रहेंगे कहाँ?’- कहती हुयी मीना तहखाने से बाहर आ गयी।तब तक कमल भी आ चुका था,नीचे का मुआयना करके- चलिये आपलोग स्नान कीजिये।नीचे का हैन्डपाइप दुरूस्त है।’
    कमल की बात सुन सभी चल पड़े नीचे स्नानादि के लिए। उदास, मन मारे विमल भी सबका साथ दिया।इधर मीना और कमल मिलकर पुराने कपड़े से ही झाड़बुहार कर बैठक को कुछ कामयाब बनाये।इसके बाद मीना ने भी स्नान किया। बदलने के लिए कुछ कपड़े शायद थे नहीं, पर मीना द्वारा जोर दिये जाने पर तौलिया पहन कर कमल ने भी स्नान किया।इसे ठीक से याद भी नहीं- आज कितने दिनों बाद स्नान किया है।इन सबसे निवृत्त हो सभी निकल पडे़ बाजार की ओर,कारण कि भोजन की व्यवस्था तो यहाँ अभी सम्भव न थी।
    भोजनादि से निवृत्त हो,निर्मलजी ने कई आवश्यक सामान तात्कालिक उपयोग के लिए खरीदे,साथ ही कमल के लिए भी रेडीमेड कपड़े।हालाकि मीना ना-ना’ कर रही थी,पर यह कह कर टाल दिया उपाध्यायजी ने-
    तुम्हें जो करना है,बाद में करती रहना।आखिर इतना भी क्या मेरा हक नहीं बनता?’
    अधिकार तो बहुत कुछ है।’-मुस्कुराते हुए कमल ने कहा।
    तभी मीना बोली-अधिकार-कर्तव्य पर व्याख्यान आप बाद में देंगे।पहले यह तो कहिये योगी जी कि यह औघड़ी चोंगा अभी कब तक धारण किये रहियेगा?’
    मीना की बात पर सभी हँस दिये।कमल का हाथ पकड़,मीना एक सैलून में घुस गयी।फुटपाथ पर चलती निगाहें बरबस ही खिंच गयी उस नवोदित लैला-मजनू पर,जो मजनू का सिर मुड़ाने सैलून में घुस रही थी।
   
    इन सबसे निपटकर दोपहर बाद सबकी बैठकी लगी बैठक में। तिवारीजी की ओर देखते हुये कहा उपाध्यायजी ने-क्यों तिवारीजी! अब क्या सोंच रहे हैं?’ महात्माजी की बात तो बिलकुल सही उतरी।अतः उनकी वचनवद्धता के अनुसार क्या करना है अब आगे, खुद ही सोच सकते हैं।’
    मुस्कुराते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- सिर्फ महात्माजी की बात ही क्यों? मीना तो विज्ञान के लिए भी चुनौती ही बन गयी थी,जो कि अब सही उतरी है बिलकुल- हम चिकित्सकों की राय।इसी उत्सुकता ने मुझे यहाँ तक खींच लाया।अब रही बात आगे की।जैसा कि मीना ने कहा था,उस मुताबिक भी इस स्थिति में अब इसे वापस ले चलने या पुनर्चिकित्सा कराने का कोई तुक ही नहीं।वैसे भी चिकित्सा से लाभ नहीं के बराबर ही है।मान लें लाभ हो भी जाय,फिर भी तो एक के साथ महान अन्याय होगा।’-डॉ.खन्ना का इशारा कमल की ओर था।
    और बेचारे तिवारीजी, इनका क्या होगा,जिनकी आँखों की ज्योति है एक मात्र बच्ची?’- उपाध्यायजी ने चिन्ता व्यक्त की।
    मेरे विचार से इसका उपाय अति आसान है- कमल के रूप में मीना को पति मिल गया,किन्तु पापा तो अब रहे नहीं।आखिर इस रिक्त पद की पूर्ति तो होनी ही चाहिये न,जब कि पात्र मौजूद हो?’-डॉ.खन्ना ने एक बार सबकी ओर निगाह डाली,और आ टिकी मीना पर।
    इस विषय में मैं भी कुछ कहना चाहती हूँ।’- अन्य लोग सोच ही रहे थे,कुछ कहने को कि मीना बोल उठी- सच पूछिये तो इस जन्म की कहानी आपलोगों की जुबानी सुन कर,सर्वाधिक दया आयी तो वापू पर। बेचारे वृद्ध व्यक्ति को मानसिक क्लेश पहुँचाना मेरे लिए असह्य हो रहा था,फिर भी जानबूझ कर मैं कुछ कड़ा रूख किये रही,वरना यदि वहीं नरम हो गयी रहती तो निश्चित था कि यहाँ कमल तक पहुँच न पाती। यहाँ आकर अपने पुराने अधिकार को प्राप्त कर ली,अधूरे कर्त्तव्य को पूरा करने का मौका मिल गया,मगर अफसोस के साथ कि मेरी खुशियों को देखकर थिरकने वाले मम्मी-पापा अब रहे नहीं।अतः डॉ.अंकल इसमें मुझे क्योंकर एतराज हो सकता है?मेरे वापू अब भी वापू ही रहेंगे,और मैं उनकी मीना तिवारी ही रहूँगी।’- कहती हुयी मीना लिपट पड़ी सामने बैठे तिवारीजी से।
    निर्मलजी एवं डॉ.खन्ना करतल ध्वनि करने लगे।हर्षातिरेक से तिवारीजी की आँखों में आनन्द के मोती छलक आये।काफी देर तक लिपटे रहे,मीना को गोद में चिपकाये हुये।उन्हें अपना खोया हुआ साम्राज्य वापस मिल गया।कमल भी वाह-वाह कर उठा।पर बेचारा विमल?वह क्या करता उसके हृदय में हाहाकार मचा हुआ था।मस्तिष्क में हाईड्रोजन बम का विस्फोट हो रहा था।सारी दुनियाँ- ठोस दुनियाँ,तरल दुनियाँ गैस बनकर उड़ती नजर आ रही थी।जी में आया छलांग लगा जाये इस मकान से ही या दौड़कर गंगा में गोता लगा ले,या कि थोड़ा और आगे बढ़कर पटरियों पर ही सो रहे,और धड़धड़ाती हुयी रेलगाड़ी आये और विखेर जाय उसके लोथड़े को दुनियाँ-जहान में- अपमानाग्नि-दग्ध सती के लोथड़े की तरह। लोग जान जायें- एक प्रेमी ने आत्मदाह किया है- अपमान की ज्वाला में,विरह की अग्नि में....।
    तिवारीजी के सीने से अलग होकर मीना मुखातिब हुयी उदास विमल की ओर।विमल की उदासी भी उससे देखी न जा रही थी,पर विकल्प भी सूझ न रहा था।अतः साहस जुटा कर उसे सान्त्वना देने का प्रयास करने लगी- मिस्टर विमल! आपसे मेरी करवद्ध प्रार्थना है, मेरी धृष्टता को क्षमा करें।मैं मानती हूँ कि आपने मुझसे प्यार किया।मेरे दिल के दीये में प्यार के दीप जला कर अपने दिल के दीपाधार पर रखा आपने; यहाँ तक कि शादी की अंतिम मंजिल तक पहुंचाने का प्रयास किया- उस प्रेमदीप को।पर दैव को शायद स्वीकार न हुआ। दुर्घटना के वयार में आपका प्रेमदीप विध्वंस का मसाल बन गया।यदि यह आंधी कुछ ठहर कर चली होती,और मेरी चुनरी आपकी चादर से बन्ध चुकी होती,उस परिस्थिति में एक भारतीय नारी के विमल आदर्श का निर्वाह मुझे सिर पटक कर भी करना ही पड़ता,क्यों कि सप्तपदी के वचनों का निर्वाह ही भारतीय नारी का परम कर्त्तव्य है।मगर अफसोस,न तो वापू ने कन्यादान ही दिया,और न मैंने फेरे ही लगाये।यदि मेरे-आपके आपसी वाग्दान के विषय में कहा जाय तो वह भी निरर्थक ही साबित होगी....।’
    मीना कहती रही।विमल के मानस पटल पर कई छवियाँ उभरती रहीं-
बकरियों को मृगछौना कहने का रहस्य...गाड़ी में बैठी मीना का विमल को गौर से निहारे जाने का रहस्य...लिपट पड़ने का रहस्य...उस दिन प्रातः आंगन में खाट पर पड़ी मीना के अस्फुट प्रलाप का रहस्य...सबके सब आज विमल को बिन बतलाये ही समझ आते रहे,आते रहे।
    मीना कहती जा रही थी- ....आप अभी युवा हैं।पढ़े लिखे समझदार हैं।अतः इस तथ्य को स्वयं अपने तर्क-तुला पर तौल कर, विवेक की कसौटी पर कस कर देख सकते हैं कि मेरा यह कथन-कनक’ कितना खरा है।अतः मैं आपसे निवेदन करती हूँ कि आप अपने अल्पकालिक प्रेम को पानी के बुदबुदे सा,स्वप्न के महल सा समझकर,किसी दिव्यांगना से सुमधुर स्नेह-सूत्र जोड़ने का प्रयास करें,ताकि गमगीन स्थिति से मुक्ति पाकर स्वर्णिम भविष्य की सरणी में पदार्पण कर सकें।’
    विमल बेटे! तुम्हें इसके लिए बुरा नहीं मानना चहिए।मीना बेटी सही कह रही है।सच्चे प्रेम-प्रसून में स्वार्थ का कीट नहीं होता है।यदि मीना से तुम्हें सच्चा प्यार है,फिर उसके वास्तविक सुख से तुम्हें भी खुशी होनी चाहिए।यह सही है कि तुमने उससे प्यार किया। तुम्हारे प्यार का प्रत्युत्तर भी उससे मिलता रहा।पर वह स्थिति बदलद चुकी है।अतः इससे निराश नहीं होना चाहिए।विपरीत समय में धैर्य और विवेक का सहारा लेना चाहिए।कहा भी गया है- धीरज धर्म मित्र अरु नारी,आपद काल परीखिय चारी।’- कहा उपाध्यायजी ने विमल को समझाते हुए और मन ही मन मीना की वौद्धिक प्रखरता की व्याख्या करने लगे।सोचने लगे- यह सच है कि सात साल की बच्ची गम्भीर दर्शन नहीं वघार सकती।सेक्सपीयर के सोनेट की व्याख्या नहीं कर सकती,और न मानस’ का ज्ञान-भक्ति निरूपण ही उसके माथे में घुस सकता है।पिता की आर्थिकता का डायग्राम भी क्या वह खींच सकती है? वास्तव में इसके पीछे उसके पूर्व जन्म की धूमिल स्मृति ही कार्यरत थी- शुचीनाम् श्रीमताम् गेहे’ के अनुसार,जो इस दुर्घटना के पश्चात् पूर्ण स्वच्छ हो गयी।
    तिवारीजी ने भी कहा,समझाया- विमल बेटे! तुम इतना अधीर मत होओ। तुम विद्याधन सम्पन्न हो।सुन्दर रमणियों से जगती शून्य नहीं है।पाल-पोस कर बड़ी की गयी सन्तान कभी-कभी असमय में ही गुजर जाती है;किन्तु इससे सन्तति-प्रथा का निरोध नहीं हो जाता।तुम यही सोच कर संतोष करो कि मीना तुम्हारे जीवन के रंगमंच पर अल्पकालिक नटी की तरह आयी।प्रेम का वह रंगीन नाटक अब समाप्त हो गया।’
    डॉ.खन्ना ने भी काफी समझाने-बुझाने का प्रयास किया विमल को। किन्तु इन सबकी बातें तीखे तीर सी चुभती रही थी उसके हृदय में।फलतः वहाँ बैठे रहना उसे अच्छा न लगा। पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ को कोसता हुआ, सीढि़यां
उतर,नीचे आ सूने लॉन में टहलने लगा,जो उसके सूने जीवन सा ही शून्य प्रतीत
 हो रहा था।
    वह सोचने लगा- इस उजाड़ से विस्तृत लॉन में तो अब फिर से हरियाली छा जायेगी,कारण कि उसकी मालकिन अब चली आयी है- अपना धरोहर सहेजने किन्तु मेरी जीवन-वाटिका को अब कौन सींचेगा अपने प्यार के मधुर फुहार से? मीना को अपने मन-मन्दिर में बिठाकर देवी की तरह पूजा हूँ अब तक।एक से एक सुन्दर तारिकाओं का साहचर्य मिला, किन्तु मीना की तुलना में वे सब तुच्छ सी जान पड़ी। इन्हीं विचारों के क्रम में याद आ जाते हैं- रामदीन पंडित, और क्रोध से नथुने फड़कने लगते हैं वह मक्कार ढोंगी तान्त्रिक! लगता है- उच्चाटन प्रयोग कर दिया है। मेरी सुख-शान्ति का उच्चाटन हो गया है।हाय मेरी मीना! मेरी शान्ति!! मेरा सुख! मेरा सुकून!!....’
   
   इन्हीं विचारों में गुमसुम अभी वह टहल ही रहा था लॉन में, तभी बाहर गेट के पास एक टैक्सी आ खड़ी हुयी।उसमें से उतरे दो सज्जन- एक न्यून षोड़शी के साथ।विमल की निगाहें बरबस चिपक गयी उस बाला से।मुख से स्पष्ट स्वर फूट पड़े- अरे यह कौन है? नैन-नक्श, रूप-लावण्य की साम्राज्ञी,एक ही कलाकार के हाथों निर्मित दूसरी प्रतिमा- यह तो हू-ब-हू मीना है।हाँ,मीना ही।कोई अन्तर नहीं।अन्तर है तो सिर्फ इतना ही कि उससे कुछ छोटी लग रही है, पर सौन्दर्य-साम्राज्य उससे भी विस्तृत।लगता है मानों उसकी ही जुड़वां बहन हो।
    लड़की की ललचायी निगाह भी उसकी ओर थी,पर कुछ सशंकित। कारण कि उसके मानस के कैमरे में कोई और ही निगेटिव था- जिससे उस पोजेटिव का मिलान कर रही थी।हालाकि नेगेटिव की अपेक्षा पोजेटिव ज्यादा सुन्दर था। हुआ ही करता है सुन्दर,पर इससे उसे तुष्टि नहीं जान पड़ी।
    तीनों व्यक्ति गेट के अन्दर आ विमल के समीप हो गये।प्रौढ़ व्यक्ति ने प्रश्न किया- कमल भट्ट आप ही हैं?’
        जी नहीं।’- संक्षिप्त सा उत्तर दिया और उसके मस्तिष्क में पल भर के लिए चंचला की चमक सी कौंध गयी कई बातें...
     कहीं असली मीना यही न हो!’ सोचा विमल ने और क्षणभर के लिए उसे,उसकी मीना वापस मिल जाने की पूरी उम्मीद हो आयी।
    वे इसी मकान में रहते हैं न?’- आगन्तुक ने प्रश्न किया,और पीछे मुड़कर लड़की की ओर देखा,मानों सही जवाब वही दे सकती है।
    दोनों ओर से एक ही जवाब मिला।
    हाँ।’- कहा विमल ने,और उस लड़की ने भी- मकान तो यही है।’
    आइये मेरे साथ।’- कहता हुआ विमल आगे बढ़ा।उसके पीछे ही सरक आये वे तीनों भी,ईंजन से जुड़े रेल के डब्बे की तरह।
    मिस्टर कमल! आपको कुछ लोग याद कर रहे हैं।’- ऊपर कमरे में पहुँच कर कहा विमल ने,और इसके साथ ही तीनों ने प्रवेश किया कमरे में।मीना भीतर कीचन में व्यस्त थी,चाय बनाने में।
    आगन्तुका कमल को देखते के साथ ही लिपट पड़ी- ओ मेरे कमल’ और चूम ली कमल की पंखुड़ी सदृश होठों को।किन्तु आवाक कमल उसके मधुर प्यार का प्रत्युत्तर न प्रदान कर सका।सीने से थोड़ा हटाते हुये पूछ बैठा- कौन हो तुम?’
     घायल हिरणी सी कांपती हुयी वह बोली- हाय मेरे कमल! कृष्ण ने मीरा
को भी नहीं पहचाना?’- सीने से हट कर गौर से निहारने लगी कमल के मुखड़े को।उपस्थित अन्य लोगों का कौतूहल भी बढ़ गया।
    कमल के आश्चर्य का क्या कहना।कंधा पकड़,ठुड्डी ऊपर करते हुये, चेहरे पर गौर किया- अरे मीरा! तुम? क्या तुम्हारा भी....?’-कमल कह ही रहा था कि आवाज सुन कर मीना आ पहुँची बगल कमरे से।पल भर के लिए दोनों के साश्चर्य विस्फारित नेत्र एक दूसरे से टकराये।फिर लपक कर लिपट पड़ी दोनों ही।मीरा तो भूल ही बैठी- मीना के न होने की बात।
    मीना दीदी!’
    ओ मेरी मीरा!’
    आइये बैठिये।खड़े क्यों हैं?’- कमल के कहने पर दोनों आगन्तुक बैठ गये,पुराने सोफे पर,जो अब तक आश्चर्य चकित थे- एक साथ दो मीरा को देखकर।
    उपाध्यायजी वगैरह भी एक दूसरे का मुंह देख रहे थे।उन्हें भी घोर आश्चर्य हो रहा था मीरा के रूप में मीना के हमशक्ल को देखकर।बेचारा विमल फिर उदास हो गया।कोने में रखे टूटी तिपायी पर जा बैठा।वह तो समझ रहा था कि यह भी कोई मीना ही होगी,जो अपने अधिकार को ढूढ़ने निकली होगी।
    डॉ.खन्ना ने आगन्तुकों की ओर मुखातिब होते हुये पूछा- आपलोगों का कहाँ से आना हुआ है?’
    चिर विरहिणियों के मिलन का ज्वार जब थमा तब संयत होकर दोनों ही बैठ गयी बगल में रखी बेंच पर।दोनों के अन्तस में इतने सारे प्रश्न घुमड़ रहे थे कि मुंह बन्द हो गया था।
    हमलोग इलाहाबाद से आ रहे हैं।वहीं गुरूनानक नगर में मेरा मकान है।मैं वहीं राजकीय चिकित्सालय में चिकित्सक हूँ।आप हैं हमारे सहायक मिस्टर चोपड़ा।’- डॉ.खन्ना के प्रश्न पर,नवागन्तुक ने अपना और अपने मित्र का परिचय दिया,और फिर लड़की की ओर इशारा करते हुये बोले- ये है मेरी बेटी ममता।’
    ैं ममता थी कभी,पर अब तो मीरा हूँ,और आप हैं -डॉ.हिमांशु भट्टाचार्या,जो कभी मेरे यानी ममता के डैडी थे।’
    ये क्या दशकूटक बुझा रही हो बेटी?’- आश्चर्य पूर्वक निर्मलजी ने पूछा।
    ैं बतलाता हूँ इसका अर्थ।’-कहा डॉ.भट्टाचार्या ने चश्मे के फ्रेम को नाक पर टिकाते हुये- पहले आप पूरी कहानी जान लें।फिर स्वयं ही विचार करें।’
    आओ मीरू! हमलोग अन्दर चलें।सुनने दो इन्हें कहानी।मैं तो तुम्हारी कहानी तुम्हारी ही जुबानी सुनूंगी।’-कहती हुयी मीना उठ खड़ी हुयी मीरा का हाथ खीचती।
    मुझे भी तो सुननी है तुम्हारी कहानी।आह,कल्पनातीत मिलन हुआ है आज हमदोनों का।’-कहती हुयी मीरा भी उठ खड़ी हुयी,और गलबहिंयां दिये दोनों बहनें भीतर की ओर चली गयी।तिपायी पर एकान्त में बैठा विमल दोनों रमणियों के पृष्ठ प्रदेश पर नजरें गड़ाये रहा,जब तक कि वे ओझल न हो गयीं।
    कमल ने उपस्थित लोगों का परिचय दिया,नवागन्तुकों को।फिर बोला- हाँ तो कहिये डॉक्टर साहब! आप क्या कह रहे थे।’
    डॉ.भट्टाचार्या ने फिर से थोड़ा ऊपर सरकाया अपने चश्मे को और कहना प्रारम्भ किया- यह मेरी सबसे छोटी बेटी ममता है।हम दम्पति ने बड़ी ममता से पाला है इसे।मेरा कोई लड़का नहीं।अतः सोच रखा था कि विवाहोपरान्त भी इसे अपने पास रखूंगा बुढ़ापे का सहारा बनाकर;किन्तु इसके पूर्व ही मेरी ममता की डोर को तोड़कर दूर भागना चाहती है मेरी ममता।एकाएक इसके दिमाग में मीरा का भूत सवार हो गया,और अपने पुराने प्रेमी से मिलने को बेताब हो गयी।कहने लगी - ैं आपकी बेटी नहीं।यह मेरा घर नहीं।मैं तो वाराणसी के देवान्शु बनर्जी की बेटी हूँ।पिता के निधन के बाद मैं अपने मौसा श्री वंकिंम चटर्जी के साथ कलकत्ते में रहने लगी थी।वहीं मौसा ने अपने अन्तिम समय में कमल भट्ट नामक एक लड़के से मेरी मौखिक सगाई कर दी थी।शादी का अवसर भी न आ पाया कि वे चल बसे....।’
     उनकी बातों के बीच में ही दखल देते हुये डॉ.खन्ना ने टोका-डॉ.भट्टाचार्या! क्या मैं जान सकता हूँ कि किन परिस्थितियों में आपकी ममता ने यह सब कहना प्रारम्भ किया?’
    क्यों नहीं।अवश्य जान सकते हैं।वही तो अब मैं बतलाने जा रहा था।’-कहा डॉ.भट्टाचार्या ने- एक दिन मेरे प्राइवेट क्लीनिक में एक पेसेन्ट आया,बड़ी ही संगीन स्थिति में- सिफलिश के फोर्थ स्टेज का पेसेन्ट।ममता अकसरहाँ क्लीनिक में आती-जाती रहती थी।रोगियों की सुश्रुषा में इसे बड़ी दिलचस्पी थी। वैसे भी मेरी इच्छा इसे डॉक्टर बनाने की है।पर यह तो मेरी सभी हरित आकांक्षाओं पर ओले बर्षा गयी....।’
    ट्रे में चाय के कई प्याले लिये मीना कमरे में आयी।सबको प्याला थमा, एक स्वयं भी लेकर बैठ गयी एक ओर बेंच पर।पीछे से मीरा भी चाय पीती हुयी आ पहुँची।
    ....तीन दिनों तक वह पेसेन्ट मेरे क्लीनिक में रहा।’-चाय की चुस्की लेते हुये डॉ.हिमांशु ने आगे कहा- और हर क्षण उसके साथ साये की तरह उपस्थित रही मेरी बेटी ममता।उन दिनों किसी अन्य रोगियों पर भी ध्यान न दी।चौथे दिन सबेरा होने से पूर्व ही जीवन-मृत्यु-संघर्ष-रत वह रूग्ण चला गया इस संसार से विदा होकर,और साथ ही लेता गया मेरी ममता को भी....।’
   बूढ़े डॉ.हिमांशु की आँखें बरस पड़ी।रूमाल से अपनी सजल आँखों को पोंछते हुये आगे कहा उन्होंने- ...मिस्टर चोपड़ा ने डेरे पर आकर मुझे सूचना दी- रोगी चल बसा,और ममता उसके शव से लिपट कर पछाड़ खा रही है।- मैं दौड़ा पहुँचा क्लीनिक।उसके अभिभावक तब तक ममता को किसी तरह हटाकर,लाश ले जा चुके थे।बेहोश ममता मेरे चेम्बर में पड़ी हुयी थी।काफी कोशिश के बाद इसे होश में लाया,पर बेहोश से भी बदतर स्थिति में...।’
      ओफ! घटनायें भी अजीब-अजीब हुआ करती हैं।’- अचानक निकल पड़ा तिवारीजी के मुंह से।कुछ देर पूर्व तक की अपनी स्थिति नजर आने लगी उन्हें- डॉ.भट्टाचार्या में।
    ....होश में आने के बाद से इसका एक ही रट है..।’-कह रहे थे- डॉ.हिमांशु - मुझे कलकत्ता पहुँचा दो।वहाँ मेरा कमल है।’ फिर अपनी पुरानी कहानी बहुत कुछ सुना गयी।घटना का सिलसिला जोड़ने के लिए हमलोगों ने काफी कोशिश की।इसकी पुरानी तस्वीरों को दिखाया,किन्तु सब नाकामयाब रहा।पुरानी कहानी के क्रम में भी इसे याद नहीं कि पिछली बार जब यह कलकत्ते में बीमार थी, इसके प्रेमी कमल ने इसे पानी पिलाया था। उसके बाद कब क्या हुआ इसे कुछ भी याद नहीं।’- देर से पकड़े खाली प्याले को नीचे रख,नाक पर सरक आये चश्मे को ठीक करते हुये डॉ.हिमांशु ने आगे कहा- एक चिकित्सक होने के नाते मुझे उत्सुकता जगी,इसके कथन के सत्य की परख की।इसी क्रम में यहाँ भागे
 चला आ रहा हूँ।किन्तु यहाँ आकर मामला अजीब सा लग रहा है।लोग और स्थान सब चिरपरिचित सा जान पड़ता है।’
    आपका कथन सही है,डॉ.भट्टाचार्या! ऐसी ही परिस्थिति ने हमलोगों को भी खींच लाया है जशपुरनगर से इस सुदूर महानगरी में।यह जो मीना है,जिसे आपकी ममता अपनी बहन बतला रही है...।’- -डॉ.खन्ना का इशारा मीना की ओर था।
    डॉ.खन्ना की बात को बीच में ही काटते हुये कमल ने कहा- बतला क्या रही है,है ही वह मीरा की बहन।मीना की मौसेरी बहन मीरा।मीना के निधन के बाद अपनी सूनी गृह-वाटिका में वंकिम चाचा ने लाया था मीरा को,और अन्त काल में इसे मेरे हाथों सौंपा था।मगर अफसोस कि यह मेरी भी न रह सकी। मीना के निधन के अठारह महीने बाद यह भी चल बसी मुझे एकाकी बनाकर।’
    अच्छा मिस्टर कमल! यह तो बतलाइये कि मीरा का निधन किन परिस्थितियों में हुआ था?’-पूछा डॉ.खन्ना ने।
    परिस्थितियाँ वही थी,जो अभी-अभी डॉ.भट्टाचार्या ने बतलायी। अन्तर इतना ही कि इनके क्लीनिक में रोगी कोई और था,और मेरे घर में मीरा स्वयं। यह मीरा की वंशानुगत बीमारी थी।यही कारण था कि मुझे जी-जान से चाहती हुयी भी मुझसे शादी करना न चाहती थी।अनजान,वंकिम चाचा ने तो जबरन ही मुझे सौंप दिया था इसे।’- कहते हुये कमल ने मीरा की ओर देखा,मानों उससे अपने कथन की पुष्टि चाहता हो।
    हाँ डॉ.अंकल! कमल जी ठीक ही कह रहे हैं।’-मीरा ने सिर हिला कर स्वीकृति दी।

     स्थिति बिलकुल स्पष्ट है,डॉ.भट्टाचार्या!’- कहा डॉ.खन्ना ने- जिन  परिस्थितियों में तिवारीजी की पुत्री मीना पड़ी है,उन्हीं हालात में आपकी ममता यानी मीरा भी है।ये दोनों ही पूर्वजन्म की स्मृतियों की गिरफ्त में आ गयी हैं।’
    तब आपलोगों ने क्या विचार किया मीनाजी के सम्बन्ध में ?’-देर से मौन बैठे मिस्टर चोपड़ा ने पूछा।
    विचार क्या करना है? इसकी तो शादी हो ही रही थी मेरे लड़के विमल से,विमल की ओर इशारा करते हुये कहा निर्मलजी ने- किन्तु कन्यादान के पूर्व ही दुर्घटनाग्रस्त होकर,अपनी पुरानी स्मृतियों को ताजा कर ली, और पहुँचा दी हमलोगों को भी यहाँ अपने पूर्व प्रेमी कमल भट्ट के पास।’
    कमल और विमल,दोनों की निगाहें मीना और मीरा के मुख- सरोज पर भ्रमर सी मंड़रा रही थी।दोनों के दिमाग में अलग-अलग ढंग की बातें घूम रही थी।दोनों की समस्यायें अपने-अपने ढंग की थी।
    कमल सोच रहा था- इस स्थिति में क्या किया जाय? मीना मेरी हृदयेश्वरी, जिसकी यादों के तपन में विगत सत्रह वर्षों से तप्त हो रहा हूँ। इसे कैसे त्याग सकता हूँ? पर बेचारी मीरा? मीना और शक्ति के अवसान के बाद मेरी समस्त शक्तियाँ- स्नेह-प्रेम-ममता की मूर्ति इस मीरा में ही तो समाहित हो गयी थी। मैंने मीरामय’ बनने की आशा से नयी जिन्दगी प्रारम्भ की थी;किन्तु मुझे स्वीकारे बगैर,असमय में ही मीरा चली गयी, निरामय’बनाकर, और मीरामय’ बनने की चाह अन्तस्थल के चट्टान से दबी हुयी, कराहती ही रह गयी।परन्तु सत्रह वर्षों के महानिशा के पश्चात् भी महाशून्य की ओर कहाँ जा पाया? आज सौभाग्य से उस घोरनिशा का अन्त हो गया, साथ ही मेरे जीवन के गहन
अन्धकार का भी।स्वर्णिम प्रभात का संदेश देने एक साथ दो सूरज मेरे जीवन-
 -प्रांगण में उदित हो आये हैं। ओह! इसमें किसको छोड़ूँ किसको.....?’
    दूसरी ओर बेचारा विमल दोनों के रूप-लावण्य की तुलना करता रहा।मीना की ओर से तो वह पूर्ण रूप से निराश हो ही चुका है।सोच रहा है कि क्या मीना की विकल्प हो सकेगी मीरा?
    क्यों मीरा बेटी?’-मीरा की ओर देखते हुये कहा उपाध्यायजी ने- अब क्या विचार है तुम्हारा? तुम तो इस विचार से आयी होगी कि...।’
    बीच में ही बोल पड़ी मीरा- नहीं अंकल! अब मेरा वह विचार नहीं रहा,जो था यहाँ आने से पहले।यह तो मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है कि मेरी मीना दीदी मुझे वापस मिल गयी।जिस पद के लिए मैं यहाँ आयी थी,उसकी मूल अधिकारिणी तो उपस्थित है, फिर मैं उसके सुख में खलल क्यों डालूं? पर वापस इलाहाबाद भी जाकर मैं क्या करूंगी?’
    क्यों,जब तुम्हारा अपना कोई रहा ही नहीं यहाँ,फिर इन वृद्ध महाशय को क्लेश पहुँचाना क्या उचित है?’-तिवारीजी ने कहा मीरा की ओर देख कर,कारण कि उन्हें अपने आसन्न व्यथा की याद हो आयी।
    अपना क्यों नहीं? मीना दीदी क्या गैर है या कि कमल जीजा? अब तो इन्हें जीजा कहना ही उचित होगा।पहले भी जीजा ही थे।बस मेरा विचार अब यही है कि यहीं रहकर दीदी की सेविका बन जीवन गुजारूँ।’
    बुरा न माने तो मैं एक सुझाव दूँ डॉ.भट्टाचार्या।’-मुस्कुराते हुये कहा डॉ.खन्ना ने।
    निःसंकोच कहिये।आप हमसे बुजुर्ग हैं,वरिष्ठ भी।’- डॉ.भट्टाचार्या ने कहा- अब तो भई गति सांप-छुछुन्दर केरी’ वाली मेरी स्थिति है।क्या उचित-अनुचित है,मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है।सोचा था कि ममता की बात सही निकली तो लाचार होकर इसकी बात माननी पड़ेगी।बात सही निकली भी,किन्तु....।’
    उसी का उपाय मैं बतला रहा हूँ।’-कहा डॉ.खन्ना ने.और सबके कान खड़े हो गये,वरिष्ठ चिकित्सक की वाणी सुनने के लिए,मानों धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में योद्धा खड़े हों तुच्छ सम्पदा के लिए मर मिटने को,और गोविन्द उन्हें ज्ञानामृत पान कराने को प्रस्तुत हों।
    कहिये...कहिये...क्या सुझाव है आपका?’- एक साथ सबने कहा।मौन विमल कुछ कहा नहीं,बस देखा भर।
    जरा ठहर कर डॉ.खन्ना ने कहा- मीना का पूर्व प्रेमी कमल है,और इस जन्म का प्रेमी है विमल।कमल को अपनाकर मीना ने बेचारे विमल के प्रेम-प्रासाद को अधर में ही लटका दिया,अमेरिका के स्काईलैब’ की तरह।अब विचारणीय यह है कि उस अमरीकी अन्तरिक्ष-प्रयोग्याला की तरह इस प्रेम-प्रासाद का पतन हुआ यदि, तो फिर विमल का तो सर्वनाश हो जायेगा। अतः मैं आपसे निवेदन करूंगा,साथ ही मीरा को भी सुझाव दूंगा कि उस प्रयोग्याला में भारतीय अन्तरिक्ष यात्री राकेश शर्मा’ की तरह प्रवेश कर,अधःपतन से बचावें ताकि हम भूतलवासी....’- कमरे में उपस्थित लोगों पर इशारा करते हुये डॉ. खन्ना बोले- ...का कल्याण हो सके।साथ ही मैं विमल को भी परामर्श दूंगा कि मीना की हमशक्ल,बल्कि कुछ मायने में उससे भी अच्छी, मीरा को अपना कर हम सबका उद्धार करे इस मंझधार से।’
      डॉ.खन्ना की बात पर सभी एक साथ हँस पड़े।एक तो उनका सुझाव लगभग सभी को अच्छा लगा,दूसरी बात यह कि उनके कथन का ढंग और हाव-भाव बड़ा रोचक था।काफी देर से चली आरही गम और उदासी की घनेरी बदली लोगों के ठहाके के गर्जन से प्रसन्नता के पानी के रूप में बरस सी पड़ी।सभी एक साथ करतल ध्वनि करते हुये वाह! वाह! कर उठे।
    डॉ.खन्ना की सम्मति का सभी ने समर्थन किया।
    डॉ.भट्टाचार्या ने कहा- मुझे इसमें जरा भी आपत्ति नहीं।अपनी ममता बेटी के सुख-सुकून के लिए मैं सब कुछ करने को राजी हूँ।’
    विमल बेटे को भी इस सुझाव से एतराज नहीं ही होना चाहिए।मीना और मीरा में सच पूछा जाय तो अन्तर नहीं के बराबर है।मीरा को पुत्र-वधु के रूप में पाकर मैं भी स्वयं को धन्य समझूंगा।’- पान का बीड़ा मुंह में रखते हुये उपाध्यायजी ने कहा।
    बेचारे तिवारीजी क्यों चूकते।उन्होंने कहा- मीरा को पाकर विमल बेटे को मीना की कमी महसूस नहीं होनी चाहिये।’
    कमल ने कहा- मुझे क्यों आपत्ति होगी? मैं तो यही चाहूंगा कि- मीना और मीरा दोनों ही प्रसन्न रहें।साथ ही यह भी चाहूंगा कि इस शुभ घड़ी में ही मीरा और विमल का परिणय-सूत्र बन्ध जाय।’
    विमल चुपचाप सिर झुकाये सबकी राय सुनता रहा।
    सबके बाद अब बारी थी मीरा की।उसने कहा- मेरी अब अपनी कोई स्वतन्त्र इच्छा नहीं है।मीना दीदी जो भी कहेगी,मुझे स्वीकार होगा।यदि वे जीवन भर अपने चरणों की दासी बना कर भी रखना चाहें तो भी कोई उज्र नहीं।’
    मीरा-प्रदत्त पद-गरिमा से मीना स्वयं को दबती हुयी सी महसूस की।अतः मुस्कुराती हुयी बोली-

   ैं भी सबकी सहमति की सराहना करती हूँ।इसे मेरी राय मानों या आदेश मैं यह कहना चाहती हूँ कि विमलजी तुम्हारे लिए योग्य पति साबित होंगे। मीरा को इंगित कर मीना कह रही थी- इस बात का मुझे खेद है कि विमल जी के प्यार की प्यास को मैं बुझा न सकी।अतः अपने से भी बढ़कर तुझ-सी मृदु सरिता के पावन जल से उन्हें तृप्त कराना चाहती हूँ।मेरे गुजरने के बाद कमलजी का भी अन्तिम लक्ष्य मीरा ही थी।मुझे विश्वास है कि विमलजी को भी मेरा सुझाव पसन्द आयेगा।’
     मीना विमल की ओर देखने लगी,जो अब भी चुप,कोने में बैठा हुआ था।
     मीना के वक्तव्य के बाद मीरा कुछ कहे वगैर,चुपचाप सिर झुका ली।  विमल की आँखें कभी मीना,कभी मीरा पर घूम रही थी।
    घड़ी देखते हुये निर्मलजी ने कहा- शाम हो गयी।छः बजने वाले हैं।क्यों न हमलोग थोड़ी देर घूम-फिर आवें बाहर से।तब तक ये लोग कुछ और विचार-विमर्श करलें।हम बुजुर्गों की मण्डली में हो सकता है स्पष्ट कहने में कोई हिचक हो।’
    भेरी गुड आइडिया।’- कहते हुये डॉ.खन्ना उठ खड़े हुये।उनके साथ ही अन्य लोग भी उठकर कमरे से बाहर निकल गये।
    सबके बाहर चले जाने के बाद,शेष चतुष्कोणीय मंडली में काफी देर तक तर्क-वितर्क,शिकवे-शिकायत का दौर चलता रहा।तीन दिनों से दबी चली आरही विमल के मन की भड़ास को भी खुलकर बाहर निकलने का मौका मिला।मीरा अपनी कहानी के साथ-साथ मौसा के निधन,उनके बाद एवं पहले कमल की विरहावस्था आदि का विस्तृत वर्णन कर गयी,जिसके परिणामस्वरूप मीना के हृदय में कमल के प्रति प्रेम की दरिया कुछ और अधिक उमड़ आयी।
    गपशप में काफी देर हो गयी।इस बीच चाय का एक और दौर चला।फिर कमल-विमल बाहर निकल गये हवाखोरी के लिए।मीना और मीरा सांध्य कालीन कीचन कार्य में लग गयी।
    रात दस बजे सभी वापस पहुँचे मीना निवास।उपाध्यायजी कुछ अन्य आवश्यक सामान भी लेते आये बाजार से।विमल और कमल कुछ पहले ही आ गये थे।मीना-मीरा भी रसोई से निपट चुकी।बैठक में ही र्फ्य पर दरी बिछा,ता्य की बाजी बिछी हुयी थी।आज लम्बे अरसे के बाद मीना निवास में फिर से मधुर कोलाहल कलरव करने लगा था,और आसपड़ोस अपनी खिड़कियों से ताकझांक कर,आश्चर्य चकित हो रहा था।
    दरवाजा यूँही भिड़काया हुआ था।भीतर पहुँचा जब प्रौढ़ मंडली तो उन्हें भी आश्चर्य हुआ।गम और कसक के बादल फट चुके थे,दो जोड़ी प्रेमियों के हँसी के वयार से,और फिर दोनों प्रौढ़ों ने भी साथ दिया हँसी के फौब्बारों में।
    भोजनोपरान्त भी काफी देर तक गपाष्टक’ चलता रहा।भावी कार्यक्रमों की सूची बनी।सर्वसम्मत्ति से तय हुआ कि तिवारीजी और डॉ.भट्टाचार्या मौजूद हैं ही। दोनों अपनी-अपनी पुत्री का कन्यादान करें।एक ही मंडप में दोनों बहनों की शादी सम्पन्न हो जाय।फिर तिवारी जी यहीं रह कर अपना जीवन गुजारें,आखिर घर जाकर करना ही क्या है? वहाँ तो कुटिल चौधरी का तम्बू गड़ ही चुका होगा।विमल प्रियतमपुर’ जाय अपनी प्रियतमा को लेकर।
    दबी जुबान डॉ.भट्टाचार्या ने कहा- मेरा अधिकार क्या कन्यादान तक ही सीमित रह जायगा?’
    उनके कथन का आशय समझ,उपाध्यायजी ने कहा- मुझे इसमें जरा भी एतराज नहीं।यदि मीरा चाहती हो तो आप भी अपना पूर्वपद सुरक्षित समझें।मेरे दो और भी लड़के हैं।विमल को चाहें तो आप अपने पास रख सकते हैं।वैसे भी कौन कहें कि बेटे को हमेशा मेरे पास ही रहना है।’
     उपाध्यायजी की बात पर फिर एक बार प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। डॉ.भट्टाचार्या स्वयं को रोक न सके।झपट कर उपाध्यायजी के चरणों में सिर रख दिये।तिवारी जी की आँखें नम हो आयी इस दृश्य की पुनरावृत्ति पर। डॉ.खन्ना एवं मिस्टर चोपड़ा हर्ष गदगद हो उठे निर्मलजी की उदारता पर।
   
    खुशियों की नींद को सबके पलकों से खदेड़ कर प्रभात ने अपने आने की सूचना दी।मीना निवास में स्वर्णिम प्रभात का उदय हुआ।सुबह से ही चहल-पहल होने लगी।मीना अपने दौलत का पिटरा खोली,और साथ ही खुल गया धूम-धड़ाके से मीना निवास का भाग्य-पट।नौकर-चाकर,राजमिस्त्री,मजदूर,माली,भंगी,भिस्ती सबकी बहाली होने लगी।लोग आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे- प्रेम-प्रसाद के खण्डहर का जीर्णोद्धार होता हुआ।किसी ने कल्पना भी न की होगी कि फिर कभी इस भूतही हवेली में मानव के मधुर स्वर सुनाई पड़ेंगे।
    मीना के कहने पर उपाध्यायजी ने स्वयं जाकर चितरंजन एभेन्यू स्थित सन्मार्ग दैनिक’ के कार्यालय में सम्पादक से मिलकर इस अद्भुत घटना का वर्णन किया।नतीजा यह हुआ कि दोपहर होते-होते पत्रकारों का हुजूम आ जुटा मीनानिवास में।आकाशवाणी कलकत्ता ने एक विशेष कार्यक्रम का प्रसारण भी किया,इनलोगों के इन्टरभ्यू’ का।
    कमल और मीना यादों को कुरेद-कुरेद कर अपने पुराने परिचितों की नामावली तैयार करने लगे।दस दिनों बाद का एक बढि़या विवाह-मुहुर्त निश्चित किया गया।
    मिस्टर चोपड़ा को वापस भेज दिया डॉ.हिमांशु ने- घर से लोगों को लिवा लाने के लिए।डॉ.खन्ना भी तैयार हुए जाने के लिए,इस विचार से कि विवाहोत्सव के दिन वापस आ जायेंगे;किन्तु मीना ने जिद्द करके रोक लिया उन्हें।फलतः यहाँ की स्थिति से ट्रंककॉल द्वारा अवगत कराया गया जशपुर वासियों को।विमल के दोनों भाइयों को भी सूचना दे दी गयी।पदारथ ओझा को भी आवश्यक ही समझा गया इस अवसर पर उपस्थित होना।दो-चार अन्य व्यक्तियों को भी सूचित किया उपाध्यायजी ने।डॉ.सेन से विशेष आग्रह किया गया अद्भुत विवाह में शामिल होने के लिए।
      सबके सब जुट पड़े नूतन उत्साह से मीना-मीरा के परिणय-प्रासाद की सजावट में।
    इधर रवि-शशि को भी शायद जल्दबाजी हो गयी।फलतः सूर्योदय और चन्द्रोदय भी जल्दी-जल्दी होने लगा।और जब प्रकृति ही साथ देने लगे, तब दस दिन गुजरने में दस दिन थोड़े जो लगते हैं! खुशियों के सुहाने सफर में किसी को पता ही नहीं चला कि समय कैसे उड़ गया कपूर की तरह।
    इलाहाबाद से मीरा(ममता)की माँ के साथ अन्य कई परिवार भी आ गये। प्रीतमपुर से विमल के दोनों भाई सपत्निक पधारे।शक्ति के वगैर शिव अस्तित्त्व- हीन हैं। अतः सविता सहित उपस्थित हुये पदारथ ओझा भी।बेटी के मधुर परिणयोत्सव पर चूकते भी तो कैसे? जशपुर से डॉ.सेन भी आ गये।सूचना तो तिवारीजी दोनों बहनों को भी दिये ही थे,किन्तु न जाने क्यों कोई आया नहीं।खैर जितने आ गये,वे ही कम नहीं थे।मीना निवास ऊपर से नीचे तक खचाखच भर गया आगन्तुकों से।
     आज सुबह में ही कई कनात गड़ गये,मीनानिवास के विस्तृत लॉन में।
रात्रि-प्रहरी- चारो भेपरलाइट भी नया चोंगा पहन कर खड़े हो गये अपने पूर्व स्थान पर।न्योनसाइनबॉक्स भी टंग ही गया होता, पर इस कारण नहीं टंग पाया कि मीना किंचित परिवर्तन युक्त बॉक्स बनवा लायी थी- कमल-निवास’ जो कि कमल को कतई अच्छा न लगा। दुबारा ऑडर दिया गया मीना-निवास’ का बॉक्स अभी तक बन कर आ न पाया।हो सकता है शाम तक आ ही जाय।
    कनातों में- हलवाइयों और बैरा-बटलर की जमात है,तो किसी में तवायफों की जमघट।कहीं भोजन व्यवस्था हो रही है,तो कहीं विवाह मंडप और वेदी सज रही है।किसी में स्थानीय इष्ट मित्रों की जमात बैठी है,तो किसी में मधुर बंगीय गीतों की तैयारी में सजती बंग-बालायें थिरक रही हैं
    ढेर सारे गहने बनवाये गये हैं मीना और मीरा के लिये।कपड़ो का अम्बार लगा है,मानों वस्त्रोद्योग की प्रदर्शनी लगी हो।इन सबकी व्यवस्था में मुख्य योगदान मीना का ही है।कुछ सहयोग दिया है उपाध्यायजी ने और कुछ डॉ.भट्टाचार्या ने भी।पदारथ ओझा भी अपने औकाद भर कुछ तोहफा लाये ही हैं
    आज ही रात्रि के मघ्य प्रहर में परिणय के चार प्रहरियों का मिलन होने वाला है।विमल तो विमल’ है ही,साज-सज्जा ने जीर्ण मीना निवास के साथ-साथ कमल को भी मानों सत्रह बर्ष पीछे खींच लाया है।क्यों न खींच लाये? कमल’ ही तो वास्तव में मीना’ का निवास है।
    और ऐसे अवसर पर ही खिंचा चला आया एक और चार सदस्यीय शिष्ट- मण्डल- इस मनोरम वातावरण में कुछ अशिष्टता प्रकट करने- सियालदह-जम्बू-तवई एक्सप्रेस से सफर करते हुये।
    उधर सूर्य गये अस्ताचल,इधर उदित हुयी एक टैक्सी- मीनानिवास के गेट
पर।उससे ऊतरी दो महिलायें- एक किशोरी,एक युवती; और साथ ही एक युवक,एक प्रौढ़ भी।
    गेट पर उपस्थित प्रहरी से कुछ अता-पता पूछा,और फिर पहुँच गये सीधे,सामने की सीढि़यों से ऊपर बैठक में।
    मीना और मीरा वहीं बैठी गप मार रही थी।एक दूसरे पर चुहलबाजी कर रही थी।तभी नवागन्तुकों के पदचाप से निगाहें जा लगी दरवाजे से,जहाँ पहुँचकर पदचाप अचानक थम गया था- सडेन ब्रेक लगी गाड़ी की तरह।एक साथ चार आँखें बड़े तीखेपन से निहारने लगी थी इन रमणियों को।अभी वह कुछ पूछना ही चाहती थी कि नवीन किशोरी के मुंह से थर्रायी हुयी आवाज निकली- कहीं ैं सपना तो नहीं देख रही हूँ?’ और बगल खड़ी युवती का मुंह निहारने लगी।
    हड़बड़ाकर दोनों बहनें उठ खड़ी हुयी।
    आप कौन हैं?किसे ढूढ़ रही हैं?’- एक साथ दोनों बहनों के मुंह से निकल पड़ा।
    जिसे ढूढ़ रही हूँ,वह तो न मिला, पर मिल गयी एक नागिन- अपने दो आकृतियों में।’- कहती हुयी किशोरी पांव पटकती,दो कदम पीछे हटकर,बालकनी में चली गयी,जहाँ दोनों नवागन्तुक पुरुष खड़े थे।
    किशोरी के पीछे पलटते के साथ ही युवक ने पूछा- क्यों क्या हुआ आयी इतने उत्साह से,और यहाँ आते ही सारा जोश ठंढा पड़ गया- कोकोकोला के गैस की तरह?’
    हुआ क्या,कुछ नहीं।चलो वापस।’-पांव पटकती,तीव्र श्वांस छोड़ती, क्रोध में आँखें पटपटाती हुयी किशोरी ने कहा।
    साथ की युवती अभी भी खड़ी थी- चित्रलिखित की तरह, बैठक के द्वार पर ही,और भीतर खड़ी दोनों बहनें उसे देखे जा रही थी- जिन्हें अभी-अभी नागिन का खिताब मिला था,नव किशोरी द्वारा- साहस कर पूछ बैठी- कौन हैं आप? बतलाये नहीं।’
     मैं...ऽ...ऽ...मैं...।’- हकलाती हुयी सी युवती बोली- तुम...तुम मीना हो... मीना हो तुम...यह कौन हैं?’- इशारा मीरा की ओर था।युवती पत्ते सा कांप रही थी,न जाने क्यों।
     तभी भीतर के दरवाजे से कमल ने प्रवेश किया।           
    अरे तुमलोग यहीं हो? बापू कहाँ हैं?’ और कमरे के मध्य तक पहुँचते के साथ ही निगाहें खिंच गयी बाहरी दरवाजे पर,जहाँ एक हाथ से परदा पकड़े युवती खड़ी थी।उसे देखते ही हठात् निकल पड़ा कमल के मुंह से- अरे मैना! तुम यहाँ कैसे?’
    हाँ भैया! मैं ही हूँ,पर अकेली नहीं...।’- कहती हुयी झपट कर लिपट पड़ी कमल के गले से।उसकी आँखों से अश्रुधार अनवरत प्रवाहित होकर,कमल के स्कन्ध को प्रक्षालित करने लगे। लम्बे अन्तराल के बाद आज भाई-बहन का मिलन हुआ।नदी के दो पाटों के बीच,जहाँ पवित्र प्रेम का अथाह जल प्रवाहित होता था, परिस्थिति ने सुखाड़ ला दिया था।परन्तु आज अचानक कल्याणकारी शिव-जटा की राह भूल, सुर-सरिता इधर ही उमड़ आयी।सुमधुर प्रेम-नीर ने आप्लावित कर दिया दोनों दिलों को।
    ...साथ में भाभी भी हैं।’-अलग होती हुयी मैना ने कहा।
       भाभी! कौन भाभी?’-साश्चर्य पूछा कमल ने,और बाहर झांककर देखना चाहा,
जहाँ परदे की ओट में बाकी लोग खड़े थे।
   मेरी भाभी..जो तुम्हारी अपनी..।’-मैना ने उत्साह से कहा-  क्ति भाभी।’
   शक्ति? क्या कहा- शक्ति? वाह! विधाता भी विचित्र है।खोया तो सबको,पाया तो....।’- कहता हुआ कमल बाहर निकल,बालकनी में आ गया,जहाँ शक्ति सिर झुकाये,दीवार का टेका लगाये,खड़ी थी।पीछे से मैना,मीरा और मीना भी आ गयी।
    कमल कुछ पल तक शक्ति की झुकी पलकों में झांकने का प्रयास करता रहा। शक्ति- वही शक्ति जिसकी हथेली की रेखाओं में एक दिन खो सा गया था कमल...जिसे बड़े खानदान की बहू होने की,सुखमय दाम्पत्य की स्वामिनी होने की भविष्यवाणी की थी कमल ने...जिसे बर्षों बाद काले सलवार-कुरते में देख कर अनदेखा किया था कमल ने...इस अनदेखे में ही,वगैर चाहत के ही वह चली आयी थी- एकदिन उसकी सर्वेश्वरी बनकर।
   त्रेता की तरह ही कलिकाल में भी, वचन का कठोरता पूर्वक निर्वाह हुआ था; और फिर उस निर्वाह ने ही अभागे का जीवन तबाह कर दिया था।
   शादी- कमल और शक्ति की शादी- मीना के हृदय में शाद’ के वजाय अवशाद पैदा कर दिया था,और आवेश में आकर,जीवन से- अपने प्यार से निराश होकर मीना ने आत्महत्या कर ली थी। मीना के बाद कमल का प्रेम शक्ति में ही लय हो जाना चाहा था। शक्ति के प्यार के मरहम से मीना के गम के गहरे घाव को भरने का प्रयास किया था कमल ने;किन्तु इसी बीच एक दिन मीना की चिट्ठियाँ और तस्वीरें कमल के गुप्त बक्से से निकल कर कमल के बेवफाई का सबूत पेश कर दी थी, और सौत की अग्नि में दग्ध शक्ति ने सिर पटक-पटककर दम तोड़ दिया था।
    आज काल ने करवट बदला है।सृष्टि की सारी शक्तियाँ,सारे श्रम- लगता है कि पुनर्निमाण- पुनर्जन्म में समाहित होने लगी है।एक दिन सब चली गयी थी। कमल के हृदय में बना प्रेम का नाट्यमंच सूना पड़ गया था।आज नियंता ने,रचयिता ने,स्रजक ने दया के नेत्र खोल, अमृत-वर्षण किया है।मीना आयी।मीरा आयी।फिर शक्ति क्यों न आती? वह भी चली आयी। साथ में लेती आयी-मुंहबोली बहन मैना को भी,जो किसी जमाने में कमल की राजदार हुआ करती थी। अपने दिल की बातें थोड़ी-बहुत इसे ही तो सुनाया करता था कमल।
    प्रकृति भी विचित्र है।त्रिगुणात्मक सृष्टि- सत्त्व-रज-तम का सम्यक् संतुलित समावेश।तीनों स्वतन्त्र, तीनों ही परतन्त्र भी। तीनों ही अवलम्बित। तीनों निरावल्म्ब।जिनका अलग-अलग रूपों में फिर से आविर्भाव हुआ है आज- अलग-अलग प्रदेशों में।पर आज समस्या है कमल के सामने- किसे कौन सा पद प्रदान करे!
    खैर,मीरा की समस्या तो टल गयी।विमल के गले में उसे लटका दिया गया- मीना की स्मृतियों का ‘लोलक’ बना कर।परन्तु शक्ति? इसका क्या समाधान है? क्या होगा शक्ति का? क्यों कि शक्ति शक्ति’ है- कमल की आह्लादिनी शक्ति।किन्तु अफसोस! विधाता ने इसके स्वभाव-सृजन में तम’ का मिश्रण कुछ अधिक ही कर दिया है शायद।
    आत्महत्या मीना ने की थी।शक्ति ने भी।किन्तु काफी अन्तर है,दोनों की आत्महत्याओं में।नैराश्य-जलद-आच्छादित निष्कलुष मीना ने- कुंआरी मीना ने अपने को अस्तित्त्व विहीन समझकर प्राणत्याग कर दिया; किन्तु शक्ति? शक्ति को तो वह सारा कुछ मिल रहा था,मिल गया था,मिला हुआ था- जो एक नारी को चहिये।जो एक पत्नी को चाहिये। अपने प्रेम-घट का सारा अमृत शक्ति के हृदय में उढेल दिया था कमल ने।शक्ति के प्रति उसे अपरिमित प्रेम था। अकूत स्नेह था। सहानुभूति भी थी।कर्त्तव्य बोध भी था।
    परन्तु इन सबका जरा भी कदर कहाँ कर पायी शक्ति?
    उसकी एक भूल- छोटी सी भूल- कुंआरेपन के प्यार की भूल,जिसके एहसानों तले दबा हुआ था बेचारा।यदि उसके निधन का गम,विछोह की व्यथा-थी ही तो कौन सी गलती थी? शक्ति को अपना पद सुरक्षित रूप से मिल ही चुका,फिर भी जीवन भर एक जीवन-हीन तथाकथित सौत की कब्र खोदती रही,और अन्त में उस ईर्ष्या के कब्र में स्वयं भी दफन हो गयी,साथ ही दफन कर गयी- अभागे कमल की सुख-शान्ति-चैन।
    आज वही शक्ति कमल के सामने खड़ी है- पलकें झुकाये,अपने नये कलेवर में,नये रूप में।नवीनता ने कुछ और ही परिवर्तन ला दिया है। परिष्कार ला दिया है उसके रूपश्री में।शक्ति के सौन्दर्य के सामने मीरा और मीना की तुलना चाँद और खद्योत की तुलना होगी।
    कमल खड़ा है- कुछ चिन्तित मुद्रा में शक्ति के सामने एक अपराधी की तरह।इसके प्रेम की न्यायालय में शक्ति उस बार भी देर से पहुँची थी,और आज भी।मीना और मीरा की तरह शक्ति भी दौड़कर लिपटी नहीं कमल से...चिपटी नहीं...रोयी भी नहीं...चूमी भी नहीं।रोयी,मगर आँखों ही आँखों में,जिससे बहने वाले आँसू कपोलों पर आने के बजाय भीतर- प्रकृति के पम्प की ओर चले गये।उसकी धमनियों ने रक्ताल्पता महसूस की।फलतः ग्लूकोज-स्लाइन के अभाव की पूर्ति इन आँसु ने किया।
    सामने खड़ा कमल अतीत और वर्तमान के महासागर में ऊब-चूब हो रहा था।
    मौन के प्रशान्त-जल में प्रश्न की कंकड़ी फेंकी युवक ने- आप ही हैं कमल भट्ट?’
    जी हाँ।आपका शुभ नाम?’-जवाब के साथ सवाल भी किया कमल ने नजरें उठाते हुये।
    जी,मेरा नाम मृत्युंजय पाण्डेय है।श्रीनगर का रहने वाला हूँ। आप हैं मेरे डैडी श्रीधर पाण्डेय,और यह है मेरी छोटी बहन शक्ति।’- युवक ने परिचय दिया।
    कमल ने हाथ जोड़कर सबका अभिवादन किया।
    आपलोग यहाँ क्यों खड़े हैं? आइये अन्दर,बैठिये।’-कहा कमल ने, और परदा सरका कर बैठक में आ गया।पीछे से वे सब भी चले।शक्ति ठिठकी रही क्षणभर।
    शक्ति! क्या सोच रही हो? चलो अन्दर।’-युवक ने कहा,तो धीरे से कदम बढ़ा दी।पलकें अभी भी झुकी ही हुयी थी।मुख-प्रसून अभी भी कुम्हलाया हुआ ही था।अन्दर आ सभी बैठ गये- सोफे,पलंग,कुर्सी आदि पर यथास्थान।मीरा भीतर वरामदे की ओर चली गयी,शायद उनलोगों के स्वागतार्थ सामग्री जुटाने।
    इत्मीनान से बैठते हुये श्रीधर पाण्डे ने पूछा- आप पहचानते हैं इस लड़की को ?’
    जी?’-थोड़ी देर चुप रह कर कमल ने कहा-जी,ैं इस लड़की को तो नहीं पहचानता...।’
    कमल का जवाब सुन चौंक पड़ी शक्ति।उसका वदन एक बार कांप सा उठा,जिसका अनुभव बगल में बैठी मैना ने भी किया,और सबकी निगाहें ऊपर उठ,जा लगी कमल की ओर।
    ...मगर,इस रूप को अवश्य पहचानता हूँ।’-कमल ने अपना वाक्य पूरा किया।
    मतलब?’- आश्चर्यचकित श्रीधर पांडे ने पूछा।
    मतलब यह कि किसी जमाने में इसी रूप-रंग की मेरी पत्नी रही थी, जिसका नाम भी शक्ति था।शक्ति भट्ट।कलकत्ते के ही देवकान्त भट्ट की पुत्री थी वह।’- कमल के इस कथन से कुछ राहत महसूस हुयी शक्ति को,साथ ही मैना को भी।
    थी,यानी आज नहीं है?’- पूछा युवक मृत्युंजय ने।
    ैंने कहा न- किसी समय में वह रही थी मेरी पत्नी।उसे गुजरे तो सोलह साल हो गये।’-कमल ने उदास सा मुंह बनाकर कहा।
    फिर आपने शादी कब की?’-मृत्युंजय ने पुनः प्रश्न किया।
    शादी? शादी कहाँ की मैंने तब से?’-चौंकता हुआ सा कमल बोला।
    ये?’- इशारा मीना की ओर था- आपकी मिसेस हैं न?’
    जी, अभी तक तो ये मिस मीना हैं।आज ही कुछ देर बाद मिसेस भट्ट हो जाने की बात थी।मगर,अब लगता है......।’- कहता हुआ कमल एकाएक चुप हो गया।बगल की कुर्सी पर बैठी मीना भी चौंक उठी।उसे लगा कि उसकी सजी-सजायी गृहस्थी फिर से ध्वस्त होने जा रही है,शक्ति के संघातिक आणविक प्रहार से।
    आगे की कार्य व्यवस्था समझने के लिए कमल को ढूढ़ते हुये, विमल ऊपर आया बैठक में।थोड़ी देर में उपाध्यायजी और डॉ.खन्ना भी आ गये।
  तिवारी और ओझाजी तो ऊपर मंजिल में थे ही।लगभग सभी मुख्य लोगों की जमात फिर बैठ गयी।
    कृपया स्पष्ट शब्दों में कहें मिस्टर कमल।यह पहेली क्या बुझा रहे हैं? हम स्वयं ही परिस्थिति के मारे हुये हैं।यह लक्षणा-व्यंजना मुझे समझ नहीं आ रहा है।’- सानुनय कहा श्रीधर पाण्डेय ने।
    पहले मैं आपकी आपबीती तो जान लूँ।यहाँ बैठे अन्य लोग भी अचानक की उपस्थिति पर उत्सुक हैं।’- सबकी ओर इशारा करते हुये कहा कमल ने- क्या मीना और मीरा के साथ शक्ति भी पुनर्जन्म धारण कर ली और मेरी शक्ति की परीक्षा लेने चली आयी? कृपया आप मेरी शंका का समाधान करें पहले।’
    क्या कहा भैया! मीना का पुनर्जन्म?’-आश्चर्य चकित मैना मीना को देखने लगी।
    कमल गम्भीर सा भाव बनाये हुये,कुछ देर मौन रहा।अन्य लोग भी कमल की ओर घ्यान लगाये हुये थे-
    हाँ मैना।यह जो मीना है,वह मीना नहीं-जिसे तुम समझ रही हो।तुम जानती ही हो कि वह बेचारी....।’-कमल ने मैना की शंका दूर की।
    हाँ,सो तो मालूम ही है।मैं तब से यही सोच रही हूँ कि यह क्या मामला है? और वह जो अभी-अभी साथ में खड़ी थी?’- मैना कह ही रही थी कि मीरा आ उपस्थित हुयी,नौकरानी के साथ- जिसके हाथ में नास्ते का ट्रे था।
    यह?’- कमल ने कहा मीरा की ओर इशारा करके- यह तो मीरा है,हमारी उस’ मीना की मौसेरी बहन,किन्तु अब तो ममता है- डॉ.भट्टाचार्या की पुत्री। लगता है मेरा मकान पुनर्जन्मधारियों का अखाड़ा बन गया है,और इस बात का आश्चर्य है कि सभी पहलवानों से मुझ अकेले को ही भिड़ना है।’
    अब तो मुझे भी शामिल कर ही लिए इस विचित्र अखाड़े में।’-हँसता हुआ विमल बोला- एक से तो मैं निबट ही लूँगा।’
    विमल की बात पर उपाध्यायजी मुस्कुरा दिये।मीना सिर झुका कर होठों में ही कैद रखी मुस्कुराहट को।मीरा शरमा कर बाहर झांकने लगी।
    नास्ता कीजिये।बातें भी होती रहें।’- तिवारीजी ने कहा,और ओझाजी की ओर देखने लगे,जो बार-बार उन्हें कुरेद रहे थे- कुछ कहने के लिए।
    नास्ता शुरू करते हुये श्रीघरजी ने कहना प्रारम्भ किया-शक्ति मेरी एक मात्र पुत्री है।बच्चे कई हुए,पर वे सब मेरे भाग्य के हिस्से न थे।मुझे मिला मात्र एक लड़का और एक लड़की।दयावान भगवान ने बहुत कुछ दिया है।करोड़ों क्या अरबों का कारोबार है,पर सुख नहीं।एक लड़का है- सो ब्लडकैंसर का मरीज।देश से सुदूर विदेश तक चक्कर मार आया,पर सफलता कोसों दूर।बस,बैठे-बैठे इसके वय की उलटी गिनती गिन रहा हूँ।भगवान से मना रहा हूँ कि इससे पहले मेरी ही अर्जी मंजूर कर ली जाय।अभी तक शादी भी नहीं किया हूँ इसकी।दरवाजे पर बाजे बजता सुनने के लिए मन अधीर रहता है,पर भाग्य के नगाड़े स्वयं बज रहे हैं।सोचा था- इस बर्ष शक्ति बेटी की शादी कर अपना शौक पूरा करूँगा।हालांकि अभी इसकी उम्र ही क्या है- बामुश्किल चौदह....।’
    जरा ठहर,पानी का घूंट भरकर पांडेजी ने आगे कहना शुरू किया- ...बड़े घर की बेटी है न।पढ़ाई-लिखाई में मन तो लगता नहीं।कैम्ब्रीज के चौखट पर आकर बैठ गयी है।इसे चाहिये सारा दिन पेंटिंग, फोटोग्राफी, स्वीमिंग,स्केटिंग...।कितनी बार समझाया-बुझाया,पर सब बेअसर....।’
    पांडेजी अपनी लाडली बेटी के स्वभाव की बखिया उघेड़ ही रहे थे, कि बीच में ही विमल बोल पड़ा- हॉबी तो हाबी होने लायक है।’
    बैठक में बैठे लोग हँस पड़े विमल की बात पर।शक्ति की पलकें क्रोध और शर्म से थोड़ी और झुक आयी।
    ....इतना ही नहीं, एक और भूत सवार है- मेरी बेटी पर- बम्बईया भूत। इसी माह फॉर्म भरी है।’- पाण्डेयजी कह ही रहे थे कि विमल ने पुनः टिप्पणी की-  ओह! क्यों नहीं,फिल्म-तारिका बनने का ख्वाब देखे आपकी शक्ति! दैवी शक्ति ने अपनी सारी शक्ति जो लगा दी है इसके रूप को सजाने-संवारने में।घर की बहू को कितने लोग देखेंगे? हिरोइनों को तो पूरी दुनियाँ देखने को व्याकुल रहती है।’
    विमल की बात पर शक्ति की पलकें ऊपर खिंच गयी,साथ ही गर्दन भी जिराफ की तरह तन गया।पैनी निगाहों से विमल की ओर देखी,फिर कमल को भी।बगल में बैठे मृत्युंजय की आँखें सुर्ख हो आयी।
    हाँ बेटे! ठीक कह रहे हो।’- स्वीकारात्मक सिर हिलाया पांडेजी ने- नीतिकारों ने कहा है-
    ‘‘भार्यारूपवती शत्रुः, पुत्रः शत्रुरपंडितः। ऋणकर्त्ता पिता शत्रुः, माता च व्यभिचारिणी।।’’ किन्तु मेरे लिए इस सिद्धान्त में किंचित परिवर्तन हो गया है। भार्या तो काफी सुन्दर थी,परन्तु कभी चिन्ता न हुयी।उसके पथभ्रष्टता का भय कभी न सताया,पर पुत्री के रूप ने तो आँखों की नींद चुरा ली है। ‘‘पुत्री रूपवती शत्रुः,स च शत्रुरपंडितः।’’ की स्थिति हो गयी है मेरी....।’
    तुनकती हुयी शक्ति इस बार पिता की ओर टेढ़ी दृष्टि डाली। पांडेजी की
तुकबन्दी गम्भीर वातावरण को भी गुदगुदा गयी।उनका वक्तव्य जारी रहा- ...मेरी अन्तर्व्यथा आपलोग स्वयं समझ सकते ह®।मृत्युंजय मृत्यु से जूझ रहा है,और शक्ति शक्तिहीन हो गयी है- वुद्धि-विवेक हीन।कितनी बार समझाया इसे, किन्तु इसके लिए तो ‘विद्याधनं सर्वधनं प्रधानं का उपदेश’ ‘परोपदेशेपाण्डित्यं’ का करारा जवाब सुना जाता है।कहती है- ‘‘डैडी आप तो बिना पढ़े-लिखे इतना बड़ा व्यवसाय चला रहे हैं।पढ़ाई का इतना ही महत्त्व है,तो आपको भी पढ़ना चहिए था।पढ़ाई का उद्देश्य है- ज्ञान,सो यदि मुझे पढ़े वगैर ही मिल जाय,तो फिर पढ़ने की क्या जरूरत?अभिनय और फोटोग्राफी क्या ज्ञान नहीं है’’
    पांडेजी की बात पर विमल ने फिर कहा- हाँ पांडेजी,आपकी शक्ति लगता है अभिमन्यु की तरह गर्भगत ज्ञानार्जन कर आयी है।’
    शक्ति कुंढ़ उठी विमल की बात पर।जी चाहा कि उठ कर उसका मुंह नोच ले,जो बारम्बार पिता की सूत्रों का भाष्य करता जा रहा था।
    डदास,मुंह बनाये पांडेजी ने कहा- इसीलिए तो अभिमन्यु से भी कम ही वय में त्यागना चाह रही है मुझ अर्जुन को।अब जरा सोचो बेटे! इस मूर्खा को क्या समझाऊँ,जिसे ज्ञान’ शब्द के अर्थ का भी ज्ञान नहीं है।मैं मानता हूँ कि स्वयं अधिक पढ़ा-लिखा नहीं हूँ,किन्तु बचपन में ही कान पकड़कर दादाजी ने हितोपदेश’ और अमरकोष’ जो रटा दिये हैं,उतने में तो इसकी नानी मर जायेगी।’
    वह तो कब की मर चुकी।’ शक्ति भुनभुनायी,और मैना का हाथ पकड़कर बाहर निकल गयी बालकनी में- ये खूसट बुड्ढाऽ...ऽ मेरा सर चाट जायेगा।’
    क्यों नाराज होती हो भाभी आखिर तो तुम्हारे पिता हैं।वृद्ध हैं। अपने दिल का दर्द निकाल रहे हैं।’-कहा मैना ने बाहर आने पर।
    खाक निकाल रहे हैं दिल का दर्द।मेरे दिल का दर्द देखने वाला है कोई? ओफ! छाती फटी जा रही है।दम घुट रहा है।’- लम्बी सांस खींचती हुयी शक्ति, दांत पीसने लगी।फिर दीर्घ उच्छ्वास छोड़ती हुयी बोली- तुम्हें भी बरज देती हूँ- अब से मुझे भाभी न कहना।मेरे भाग्य में तुम्हारी भाभी कहलाना नहीं लिखा है।उस चुड़ैल ने प्रतिज्ञा की थी- जन्म-जन्मान्तर तक साथ न छोड़ने की,और साथ ही शायद यह भी प्रतिज्ञा की होगी-  पतीली में रेत डालकर मेरे भाग्य को भुट्टे सा भूनने की...।’
    शक्ति के दांत क्रोध से कटकटा रहे थे।आँखों से अंगारे बरस रहे थे।जरा दम लेकर बोली- ...तुझे याद है न, पढ़ी थी न वह डायरी,अपने भैया वाली.जो बक्से से निकली थी,इस नागिन मीना की तस्वीर के साथ?’
    मैना अपने याददास्त पर बल लगाती,तर्जनी अंगुली से कनपट्टी ठोंकती हुयी बोली- ओफ! वे सब ही तो कारण बने तुम्हारी मौत के।’
    वह नागिन फिर चली आयी है,अपनी प्रतिज्ञा निभाने।फेरे लगाये मैंने,और वचन निभा रही है वह।ओफ! अब मैं कहाँ जाऊँ? क्या करूँ मैना? यह तो निश्चित है कि फिर से जान दे देना पसन्द करूंगी,पर इस बुड्ढे के साथ इसके कालेधन की स्वामिनी बनने न जाऊँगी।ब्राह्मण होकर,अस्पृश्य मदिरा का व्यापार करता है।मैं बहुत पढ़ी-लिखी नहीं हूँ;किन्तु इतना जरूर जानती हूँ कि ब्राह्मण को व्यापार नहीं करना चाहिए।अत्यन्त संकट में भी अन्य कुछ व्यापार करे तो करे,परन्तु मांस-मदिरा,दूध-दही-घी आदि का व्यापार हरगिज न करे....अच्छा हुआ मेरी स्मृति लुप्त हो गयी,पर इसे लुप्त भी कैसे कहूँ? मेरी स्थिति तो पहले से भी बदतर हो गयी।इस जन्म की बात जेहन से जा नहीं रही है,और पिछले जन्म की याद भी उभर कर ज्वालामुखी की तरह धधक रही है।न मैं मर सकती हूँ,और न जिन्दा ही रहने की स्थिति में हूँ।धोबी के कुत्ते सी मेरी हालत हो गयी है।’- कहती हुयी शक्ति फफककर रोने लगती है। अपना सिर पीटने लगती है।केश नोचने लगती है।उसकी छाती धौंकनी की तरह चलने लगती है।आँखें अंगारे सी लाल हो आयी थी।
    मैना किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी खड़ी रही।उसे समझ न आ रहा था कि क्या करे। उधर कमरे में उसके डैडी का प्रलाप चल रहा था।बेटी के स्वभाव का छीछालेदर हो रहा था।
    डॉ.खन्ना ने पूछा- मिस्टर पाण्डेय! आप यह नहीं बतलाये कि इसकी स्मृति वापस किन हालातों में आयी?’
    पाण्डेयजी ने लम्बी सांस खीची,और सोफे की पीठ से टेका लगाते हुये बोले- ैंने कहा न,वह स्केटिंग और स्वीमिंग की शौकीन है।कुछ दिन पूर्व स्केटिंग में गिर गयी थी।सप्ताह भर तक अस्पताल में रही।चौबीस घंटे बाद तो होश आया था।होश में आने पर उटपटांग बकने लगी।हम सबको पहचानने से साफ इनकार कर गयी।अपना जन्म स्थान कलकत्ता बतलायी’ और पिता का नाम...भट्ट।बस एक ही रट्ट लगाये रही- ‘‘मुझे मेरे घर पहुँचा दो।’’ खैर घर क्या पहुँचाता,पहुँचाया- मानसिक अस्पताल।काफी दिनों तक उपचार चला।देश-विदेश का चक्कर लगाया।कुछ लाभ भी मिला।पढ़ाई-लिखाई में थोड़ा मन भी लगने लगा।मैंने निश्चिन्ता की सांस ली....
    ....परन्तु मेरी शान्ति अधिक दिनों तक बरकरार न रही।लाख लानत-मलानत के बावजूद,इसकी कोई आदत में सुधार न हुआ। दिनोंदिन उदण्डता का सीमोलंघन होता रहा।फिर एक दिन मेरे सुख का सर्वनाश कर डाली।ऊपर सीढ़ी से जोर का छलांग लगायी स्वीमिंग-पोल में,और जा टकरायी बीच में बने लाइट-पोस्ट से।और फिर...।’- सूखे अधर को जिह्ना से तर करते हुये पाण्डेयजी ने कहा- फिर पोल का पानी रक्त-रंजित हो गया। साथ की सहेलियाँ शोर मचाती हुयी,कुछ तो भाग गयीं,कुछ ने इसे किसी तरह अस्पताल पहुँचाया।सतत प्रयास के बाद होश आया,पर बेहोशी से भी बदतर स्थिति में।’
    नौकरानी चाय लेआयी।सबने प्याला उठाया।कमल ने प्याला पाण्डेयजी की ओर बढ़ाया,किन्तु लेने से इनकार कर दिये- नहीं,मैं अधिक नहीं पीता। डायबीटिक हूँ।’
    कहिये तो वगैर चीनी के...।’-मीना ने कहा,पर हाथ के इशारे से मना कर दिए।
    हाँ,फिर क्या हुआ?’- उपाध्यायजी और डॉ.खन्ना ने एक साथ पूछा।
    उस बार तो सिर्फ नाम-धाम ही बतलायी थी।अबर तो पूरा इतिहास ही उलट गयी।’- कहने लगे पाण्डेयजी- यहाँ तक कि स्वयं को विवाहिता बतलायी- नौबतगढ़ के कमल भट्ट की पत्नी।धीरे-धीरे मेरा घर अस्पताल और श्मशान भूमि हो गया,जहाँ बड़े-बड़े डॉक्टर से लेकर, नित्य नये औघड़-तांत्रिक अपनी साधना की आजमाईश करने आने लगे।इसी तरह महीनों गुजर गये,पर न तो डॉक्टर ही सफल हुए और न उतीर्ण हो पाये सिद्ध-साधक।मनोविश्लेषक पुनर्जन्म का संशय जताते,औघड़बाबा आशेवी शिकंजा कहते,तो ज्योतिषी राहु-केतु-शनि का कुचक्र बतलाते,और सबसे बड़ी बात कहते पड़ोसी टिप्पणीकार- ‘पांड़े की लाडली लड्डु लुटा रही है.....।’महीने-दो महीने में ही कारोबार का चूल ढीला हो गया...।’
    ...लाचार होकर कुछ शुभेच्छुओं के सुझाव पर अमल करने निकल पड़ा- विवाहिता पुत्री के वर की तलाश में।इसके ही बतलाये पते पर, पत्राचार पहले किया था; किन्तु जवाब न मिलने के कारण, स्वयं निकलना पड़ा,इसे साथ लेकर।खोजते-ढूढ़ते पहुँचा - सुदूर श्रीनगर से सीधे गयाधाम’ अपने सुख-चैन का गयाश्राद्ध करने।वहाँ से वस द्वारा परसों शाम पहुँचा नौबतगढ़- जो गया से तीस-बत्तीस मील पर है।वहाँ पहुँचने पर मालूम हुआ कि आज से काफी पूर्व भट्ट परिवार यहाँ रहता जरूर था;किन्तु अब उनका कोई अता-पता नहीं।कमल भट्ट के पिता तो बहुत पहले ही गुजर चुके थे।विजली गिरने से माँ और छोटी बहन भी मर गयी।उन्हीं के श्राद्ध से निवृत्त हो,वापस जाते,वस दुर्घटना में चाचा-चाची भी चल बसे।कमल भट्ट तो अपनी पत्नी के देहान्त के बाद ही सुनते हैं पागल हो गया...।’
    ओफ! चाचा-चाची भी चल ही दिये।’-अफसोस प्रकट करते हुये कहा कमल ने- दरअसल इस बीच मैं सही में विक्षिप्त सा रहा।यहाँ तक कि माँ की श्राद्ध में भी उपस्थित न हो सका।बाद में तो गांव से भी पत्राचार सम्बन्ध टूट ही गया।’ फिर इधर-उधर देख कर बोला- मैना किधर गयी?’
    आवाज सुन मैना भीतर आगयी,जो शक्ति के साथ बालकनी में खड़ी थी। उसके साथ ही शक्ति भी आकर बैठ गयी बगल में ही सोफे पर।
    चाचा-चाची की मृत्यु की सूचना भी न दी तूने मैना?’- मैना की ओर देखते हुये कमल ने कहा।
    सूचना! सूचना क्या देती खाक!! जब तुम अपनी माँ की श्राद्ध में ही नहीं आये,फिर चाचा-चाची का क्या? दूसरी बात यह कि उस वक्त मैं स्वयं ही सूचना देने की स्थिति में रहती तब न!’- उदास मैना ने कहा। शक्ति उसके बगल में ही सिर झुकाए बैठी रही।
    दरअसल,जिस समय सूचना मिली थी माँ के निधन की,उस समय मैं नीमतल्ला घाट’ से तुरत लौटा ही था,मीरा की अन्तेष्टि करके।तुम खुद ही सोचो,उस समय मेरी मानसिक स्थिति कैसी रही होगी? मीना गयी।शक्ति गयी। अन्त में मीरा भी चली गयी मुझे त्याग कर,फिर माँ-मुन्नी का शव ढोने की ताकत मुझमें रह ही कहाँ गयी? खैर,सो तो हुआ,पर तुम्हें क्या हुआ जो चाचा-चाची के मृत्यु की सूचना तक न दी?’- कमल ने मैना की ओर देखते हुये पूछा।
    हुआ क्या,समझो तो मेरा भी सर्वनाश ही हो गया- जिस बस से चाचा-चाची सफर कर रहे थे,उसी से मेरे बापू भी जा रहे थे।’-डबडबायी आँखों से मैना ने कहा।
    ओफ! तो तेरे बापू भी चले ही गये,फिर तुम्हारी शादी-वादी?’
    वर तो बापू ने ढूढ़ ही रखा था।पर बहुत बड़ी चूक हो गयी- गंवार बिटिया के लिए दामाद ढूढ़े कौलेजिया।’ कहती हुयी मैना ठहर गयी।
    फिर?’-पूछा कमल ने और विमल की ओर देखते हुए बोला-विमल भाई! जरा नीचे जाकर देख तो आओ एक चक्कर लगाकर- व्यवस्था सब ठीक-ठाक चल रही है न मेहमानों की? और हाँ स्पीकर क्यों बन्द हो गया?’
    ैंने ही बन्द करवा दी है।’-कहा मीना ने,और विमल को साथ ले कर बाहर चल दी।बाहर बालकनी तक जाकर विमल के कान में धीरे से कुछ बोली,और फिर वापस आकर बैठ गयी वहीं।
    हाँ फिर?’-कमल मुखातिब हुआ मैना की ओर।
    फिर क्या,कॉलेजियट को हवा लग गयी- परियों की।चाचा ने धूम-धाम से  शादी की।शादी में सप्ताह भर ससुराल रहकर आयी। छः महीनें बाद गौना का दिन रखाया,पर गौना कराकर लेआये पति महाशय किसी और को।मुझे एक लम्बा सा पत्र भेज दिये,जिसे मंगलसूत्र की तरह सहेजे रही बहुत दिनों तक। ग्रामीण प्रतिष्ठा पर कीचड़ उछाले जाने के प्रकोप से बचने के लिए स्वसुर जी मुझे लिवाजाने को तत्पर हुये;किन्तु पुत्र-दण्ड’-प्रहार स्वरूप घुटना-भंग के कारण आजतक मैं पड़ी रही मैके की ड्योढ़ी पर नौबतगढ़ में ही।ससुराल जा पति-सुख भोगने की नौबत ही न आयी।’- कहती हुयी मैना की आँखों से अश्रुधार निकल कर कपोलों पर लुढ़क आये,जिन्हें आंचल की छोर में छिपाने का असफल प्रयास करती हुयी, बोली- बड़ी इच्छा थी तुमसे मिलने की,पर चाहकर भी पत्र न लिख पायी।सोची-  पता नहीं तुम कहाँ-किस हाल में हो...।’
    ैं और कहाँ रहूँगा?क्या करूँगा?बस तब से यहीं पड़ा हुआ हूँ।मीनानिवास को छोड़कर और जाही कहाँ सकता हूँ? अतीत को उकेर रहा हूँ...यहीं बैठे-बैठे...।’- कमल ने कहा।
    ...अभी अचानक परसों शाम,ये लोग पहुँचे।गांव वालों से जानकारी मिल ही चुकी थी सारी स्थिति की।फिर भी शक्ति आयी मेरे दरवाजे पर। मैं उस समय बाहर ही बैठी थी।ये तो देखते ही लिपट पड़ी मुझसे- मैना दीदी’ कहती हुयी।मैं अवाक रही।अधिक अन्धेरा होता तो भूत-भूत कह कर चीख उठती।पर न तो अन्धेरा था,और यह अकेली।फिर इसने आपबीती सुनाते हुये,मेरे रगों में भी भैया-भाभी के मधुर प्यार का सोता बहा गयी, जिस सोते में काल की मोटी काइयाँ पड़ गयी थी।विचार हुआ क्यों न चल कर मैं भी पता लगाऊँ तुम्हारा।यही सोच घर से चली थी कि भाभी मिल गयी, तो भैया को ढूढ़ ही लूंगी...।’-मैना कह रही थी।
    मैना की बातों के बीच में ही टांग अड़ाते हुये,देर से चुप बैठे ओझा जी बोल उठे- आँख मिचौली के खेल में बच्चे दौड़ कर धूहा छूते हैं।जो पहले
पहुँचता है,उसकी ही जीत होती है।मीना बेटी जब पहले पहुँच चुकी है,फिर और
का सवाल ही कहाँ उठता है?’
    ओेझाजी का कथन तो सही था,पर कहने का अंदाज कुछ ऐसा था कि उपस्थित लोगों को कुछ अटपटा सा लगा।बेचारी मैना की तो बोलती ही बन्द हो गयी।अवाक् दृष्टि जा लगी कमल से।
    ओझाजी की बात पर तुनकते हुये मृत्युंजय ने कहा- मगर शक्ति तो पूर्व की ही विवाहिता है।अतः अधिकार मीना से ज्यादा है।मीना तो सिर्फ प्रेमिका भर ही रह गयी।उसके साथ कोई वैवाहिक रस्म तो हुआ नहीं।’
     कमल ने अन्तिम समय में मांग भरी थी- काली-मन्दिर के प्रसाद वाले सिन्दूर से।उसने ही अग्निसंस्कार भी किया था।’ तिवारीजी ने बड़ी नम्रता पूर्वक कहा।
    पर इसे क्या विवाह कहा जायेगा?’-मृत्युंजय ने व्यंग्य किया।
    क्यों नहीं? ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्रजापत्यस्थासुरः गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोधमः। आठ प्रकार के विवाह का विधान मनुस्मृति बतलाता है।खैर अब तो लव-मैरेज,कोर्ट-मैरेज’ का जमाना आ गया है।फिर इस विवाह का महत्त्व नहीं कैसे होगा? पिता ने मानसिक संकल्प कर ही रखा था।बेचारे को संयोग न मिला। पदारथ ओझा ने अपना तर्क दिया।
    चाहे जो भी कहें,किन्तु यह तर्क से परे है कि मीना मात्र प्रेमिका है,जब कि शक्ति पत्नी।’- मृत्युंजय ने ओझाजी की बात काट कर कहा।
    ठीक है,प्रेमिका ही सही;किन्तु मृत्युंजय जी आप यह क्यों भूलते हैं कि अब तक की सर्वश्रेष्ट प्रेमिकाओं में राधा का स्थान है।कृष्ण की अन्तरंगाशक्ति
 राधा के सामने रूक्मिणी-सत्भामादि पटरानियाँ भी फीकी ही रहीं।’-तिवारी जी ने तर्क दिया।
    इसका जवाब तो कृष्ण ही दे सकते हैं।राधा का महत्त्व है या कि अन्यान्य विवाहिताओं का।’- चिढ़ते हुये मृत्युंजय ने कहा।
    साथ ही आपको यह भी ज्ञात होना चाहिये कि कृष्ण की अनन्यता राधा के प्रति देख कर,ब्रह्माजी ने आकर उनका विवाह भी कराया था। हालांकि वह युग कुछ और था।देवता सीधे मनुष्य के सम्पर्क में रहते थे। आज वैसी बात नहीं है।फिर भी इतना मान लेने में क्या आपत्ति है कि दैवी प्रेरणा स्वरूप ही तो देवी के प्रसाद स्वरूप सिन्दूर से कमल ने मीना की मांग भरी।’- कहा ओझाजी ने, और इधर-उधर देखने लगे- लोगों के मनोंभावों को परखने के ख्याल से।
   इधर मीना और शक्ति कुंढ़ रही थी।कमल का मौन दोनों को खल रहा था।
    क्यों कमलजी! आप मौन क्यों हैं? आपही निर्णय कीजिये कुछ।वैसे भी निर्णय तो आपही को लेना है।- निरूत्तर होते हुये मृत्युंजय ने कहा।
    कहना तो मुझे पड़ेगा ही;किन्तु आपलोगों की बहस में दखल देना मुझे ठीक न लग रहा था।सच पूछिये तो मैं इस विषय में निर्णय लेने में स्वयं को असमर्थ पा रहा हूँ।मीना और शक्ति मेरे दो नयनों की ज्योति स्वरूप हैं।दो बाजुओं की तरह हैं।दोनों पैरों की तरह हैं।दोनों कानों की तरह हैं।अतः मैं न तो मीना को त्याग सकता हूँ,और न शक्ति को ही।उस दिन भी जब मरणासन्न मीना मेरी बाहों में पड़ी थी,ैंने यही मांगा था- माँ काली से- माँ मुझे शक्ति दो,सहेजने की इन दोनों के प्रेम को।काश! उसी दिन यह अवसर मिल गया होता तो यह सत्रह वर्षों की विरह-ज्वाला में दग्ध होने से बच गया होता;परन्तु दैव को शायद मंजूर न था।माँ ने मेरी उस प्रार्थना पर लगता है कि आज विचार की
है।अतः माँ के आशीष को अस्वीकार कैसे कर सकता हूँ?’- कमल मौन हो गया,इतना कह कर। 
    कमल की बात पर डॉ.खन्ना और डॉ.भट्टाचार्या मुस्कुराये। उपाध्यायजी चुप बैठे रहे सिर झुकाये।मृत्युंजय की आँखें कुछ और सुर्ख हो आयी।
    विमल भी इस बीच नीचे से आकर मीना के बगल में बैठ गया।उसे इस अवसर पर भी चुहलबाजी सूझ रही थी,पर मीना के आँख दिखाने के कारण वह मौन रहा।
    यह तो कोई तरीका नहीं हुआ कमलजी! स्वयं को तौल कर आप तय क्यों नहीं करते कि इनमें किनका पलड़ा भारी है?आपके इस निर्णय का तो नतीजा होगा कि एक ओर आप स्वयं परेशान होंगे,और दूसरी ओर ये दोनों सौताग्नि में झुलसती रहेंगी,क्यों कि कृष्ण वाला न ये जमाना है, और न आप कृष्ण हैं।’- देर से मौन बैठे श्रीधर पांडे ने कहा।
    तौलने-तौलाने की ताकत मुझमें नहीं है।यदि आप यही चाहते हैं तो फिर इसका निपटारा स्वयं शक्ति और मीना ही करें।मैं उन्हें ही अपने भाग्य का निर्णायक नियुक्त करता हूँ।’- दोनों की ओर देखते हुये कमल बोला।
    शक्ति दीदी का अधिकार मुझसे अधिक है।’- मीना की कांपती हुयी आवाज निकली- वे आपकी विवाहिता हैं।मैं तो ‘वाग्दत्ता’ भी नहीं।उनके और आपके पिताओं ने शपथ ली थी,सम्बन्ध करने की।उन दोनों के बाद, आपकी माताजी निभायी उनके बचनों को।मेरे पापा ने न तो वचन ही दिया था,और न शपथ ही लिए थे।हाँ इतना जरूर कहा करते थे कि कर्त्तव्य कुछ अधूरा है,उसे पूरा करना है कमल के सहयोग से- जिसे वे पूरा न कर पाये।आखिर कर्त्तव्य कर्त्तव्य’ है,शपथ शपथ’।कर्त्तव्य तो बहुत हुआ करता है मानव का।पर समयानुसार उसमें वह स्वयं ही संशोधन करता रहता है; किन्तु वचन और शपथ का कुछ विशेष महत्त्व है।इस स्थिति में मेरा अधिकार ही कहाँ रहा?  जिसके पिता ने कर्त्तव्य ही नहीं किया, उसकी बेटी को अधिकार ही क्या?’-कहती हुयी मीना हांफने लगी।
    पदारथ ओझा भुनभुनाये, जिसे औरों ने सुना हो या नहीं,मीना ने तो सुन ही लिया - अधिकार खोकर बैठ रहना यह महा दुष्कर्म है। न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।।’
    कुछ देर तक चुप रहने के बाद हांफती हुयी मीना पुनः कहने लगी- यह सही है कि मेरे प्रेम में मदहोश होकर,मेरी आत्महत्या का स्वयं को उत्तरदायी समझकर,अपने ऊपर ओढ़े गये पाप के प्रायश्चित स्वरूप,अपनी मानसिक शान्ति के लिए आपने मेरी मांग भर दी।पर वस्तुतः यह वैदिक विवाह तो हुआ नहीं।जैसा कि अभी-अभी पदारथ काका ने तर्क दिया-आठ प्रकार बतलाया विवाह का।तो दूर न जाकर इसी सिद्धान्त पर विचार करें।जहाँ एक ओर प्रेम विवाह यानी गान्धर्व विवाह का स्थान दिया गया धर्म शास्त्र में,वहीं क्रमशः अधमाधम भी तो कहा ही गया।कहाँ ब्राह्म,कहाँ आर्ष और कहाँ तुच्छ गान्धर्व! इस दृष्टि से भी शक्ति दीदी का अधिकार और पद हमसे ऊपर है।अतः मैं यही कहूँगी कि वे पदासीन होकर अपने मौलिक अधिकार का उपभोग करें,उपयोग करें।यदि उन्हें मंजूर होगा तो मैं उनके चरणों की सेविका बनकर स्वयं को धन्य समझूंगी,और यदि वे मुझे इस योग्य भी नहीं समझतीं तो उसमें भी मुझे जरा सा अफसोस नहीं...लोगों ने मुझे प्रेमिका का दर्जा दिया।पर श्रीमानों द्वारा दिया गया यह पद मात्र शरीर के धरातल पर है,जिसे मैं इससे ऊपर उठकर आत्मिक धरातल पर,सत्त्वलोक में देखना चाहती हूँ।मीरा ने राणा को त्यागा,और प्रेम की- श्याम से। श्याम उसके पति नहीं।श्याम ने न तो फेरे ही लगाये और न मांग ही भरे,
फिर भी मीरा उनके नाम की माला जपती,जीवन धन्य कर ली।मैं भी कमल’ नाम की माला जपती, जीवन गुजार दूंगी।मैंने प्रतिज्ञा की थी- जन्म-जन्मान्तर में साथ निभाने की।एक जन्म...दो जन्म...दस जन्म...हजार जन्म...कभी न कभी मीरा होकर रहेगी श्याम की...मीना होकर रहेगी कमल की।’- हांफ-हांफकर बोलती मीना,पत्ते सा कांपने लगी।
    बहुत हुआ...बहुत हुआ...बन्द करो अपनी बकवास। भाषण-सिद्धान्त और उपदेश सुनते-सुनते कान पक गये।’- शक्ति फुफकार उठी एकाएक- नहीं चाहिये मुझे...नहीं चाहिये विषकुम्भ पयोमुखं’ कमल से विवाह कर एक बार भुगत चुकी हूँ।सौताग्नि में दग्ध होकर,झुलस-झुलसकर,तड़प-तड़पकर प्राण त्यागी हूँ। अब क्या उसी डाल को फिर से पकड़ लूँ ,जिसमें सौत का घुन’ लगा हुआ है?उसबार तो धोखा हुआ था- अनजान में।अब जानबूझकर कैसे सम्भव है? मुझे पत्नी का अधिकार देकर,तुम अपने को सेविका कहती हो। हुँऽह! बाज आयी ऐसी सेविका से...सम्राट अशोकवर्द्धन ने परिचारिका श्रेष्ठी तिष्यरक्षिता से राश’ रचाया था,और उसका शिकार बनी.....।क्या आज मैं वैसी ही पुनरावृत्ति का अवसर पैदा करूँ? ैं पदासीन हो जाऊँ पत्नी बनकर पति के हृदसिंहासन पर,और उसके अन्दर घुस कर चुप-चुप बैठी रहे सेविका के प्रेम की नागिन? पति को बाहों में भरकर सोयी रहूँ मैं- पत्नित्त्व के पर्यंक पर,और उसकी कल्पना के आगोश में सोयी रहेगी एक प्रतिवेशिनी, ओफ...ओफ!!’- शक्ति के होठ फड़कने लगे।सांस तेज हो गयी।
    ओफ..ऽ..ऽ.पुरुष!’ गेहुमन सी फुफकार छोड़ती शक्ति कह रही थी- विधाता का भोंड़ा करिश्मा पुरुष! वासना का कीट! कमल का भ्रम देने वाला निलोफर’ ...ओफ! मुझे अब इस पुरुष जाति से ही घृणा हो रही है रचयिता,नियंता से लेकर वपक और भर्ता तक सबके सब तो पुरुष ही हैं...इन कापुरुषों’ ने नारी को कठपुतली बना डाला है...सबला को अबला बना डाला है...‘पुंसत्त्व-महल’ की ‘गन्दगी’ को निकालने वाली नाली समझ रखा है...ओफ! बाज आयी इस छली बेवफा पुरुष से,जिसके रोम-रोम में धोखा और फरेब भरा है....।’
    पुरुष जाति मात्र पर कीचड़ क्यों उछाल रही हो शक्ति? तुम इसका एक ही रूप क्यों देख रही हो?’- शक्ति की ओर देखकर,अफसोस जाहिर करते हुये कहा कमल ने।
    हूँऽह! मैं देख रही हूँ या तुम पुरुष वाध्य कर रहे हो देखने के लिये इसी दृष्टि से? पुरुषों ने सिर्फ एक ही दृष्टि से नारी को देखा है- कुल्हड़ में पड़ी सोंधी चाय की तरह,जिसकी मधुर चुस्की के बाद कुल्हड़ को परे फेंक दिया जाता है। वह अभागा पत्तल जैसा भी नहीं- जिसे कम से कम कुत्तों की कोमल जीभ तो मिलती है।उसे मिलता है- सिर्फ किसी का पादुका प्रहार और चकनाचूर होकर विखर जाना पड़ता है।’- कमल की ओर घृणा की दृष्टि से देखती हुयी शक्ति ने कहा।
    नारी होकर नारी की गरिमा को न समझना तुम्हारी भूल है शक्ति! शक्ति के वगैर तिनका भी नहीं हिल सकता।नारी माता है। नारी भगिनी है। नारी तो देवी है।अनेक रूप हैं नारी के।पत्नी के रूप में भी वह सिर्फ रमणी’ और भोग्या’ नहीं।बहुत से कर्म हैं उसके।बहुत से धर्म भी हैं।तुम स्वयं परखो-अपने में तलाशो, कितने रूपों में हो तुम?इनमें कौन सा गुण है तुममें? दूसरी बात यह कि हो सकता है,मैं दुर्गुणों की खान होऊँ।पर इसका यह अर्थ तो नहीं कि तुम पुरुष मात्र को ही दोषी ठहरा दो।मुझे न चाहो,मुझसे असन्तुष्ट हो,तो कोई बात नहीं।भगवान ने फिर मौका दिया है। इस बार पिताओं के वचनवद्धता की लक्ष्मण रेखा भी नहीं है।इसका यह अर्थ न समझ लेना कि मैं अपना पिण्ड छुड़ाने के लिए ऐसा कह रहा हूँ। आज भी मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति उतना ही स्नेह है।प्रेम है।श्रद्धा भी है, और विश्वास भी।काश! तुम मेरे दिल में झांक कर देख पाती...।’-कातर स्वर में कहा कमल ने।उसकी आवाज भर्रा रही थी।कंठ अवरूद्ध हो रहा था।
    क्या झांकने को कहते हो उस दिल के गवाक्ष से जिसमें नुकीले बरछे लगे हैं,और उसके भीतरी प्रकोष्ठ में किसी और के प्यार की सड़ांध है?’- नाक-भौं सिकोड़ती शक्ति ने क्रोध पूर्वक कहा,मानों सच में बदबू आ रही हो।
    आखिर क्या सोचती हो अपने बारे में?अपने भविष्य के बारे में?’-पूछा कमल ने,किन्तु शक्ति कुछ बोल न पायी।उसके नथुने फड़क रहे थे। होठ थर्रा रहे थे।छाती धौंकनी सी चल रही थी।आँखें सुर्ख अंगारे सी दमक रही थी।अपलक, कमल के चेहरे पर ताकती रही।कमल के लिए यह अपलक दृष्टि नयी नहीं थी। ऐसी ही दृष्टि का सामना सत्रह साल पहले भी वह कर चुका था।
    शक्ति एकाएक चीख उठी- मेरे लिए बस एक ही रास्ता है...एक ही रास्ता...बस एक ही...।’- कहती हुयी सामने के मेज पर धड़ाधड़ सिर पटकने लगी - आत्महत्या के सिवा मेरे लिए दूसरा कोई रास्ता नहीं...।’
    शक्ति की अचानक की हरकत देख सबकी मुखाकृति बदल गयी,किन्तु किंकर्त्तव्यविमूढ़, जढ़ बने यथास्थान ठगे से रह गये सभी- द्रौपदी-चीर-हरण के समय हस्तिनापुर राजदरबारियों की तरह,जिनमें पिता-पुत्र पांडेजी भी थे।
   पदारथ ओझा फिर भुनभुनाये- नारी स्वभाऊ सत्य मह कहऊ, अवगुन आठ सदा उर रहऊ।’
    शक्ति सिर पटकती जा रही थी।लोग बैठे रहे- या तो किसी को कर्म सूझ नहीं रहा था या कि....?
     तभी अचानक आंधी की तरह, एक अनजान युवक ने कमरे में प्रवेश किया परदा उठाकर,जो शायद देर से परदे की ओट में खड़ा इस नाटक का श्रव्यानुभूति कर रहा था,और लपक कर शक्ति को उठा लिया- बच्चों की तरह।
    एक कड़कभरी रौबदार आवाज कमरे में गूंज गयी- खबरदार शक्ति! खबरदार,जो तुमने आत्महत्या का प्रयास किया।तुम्हें शायद पता नहीं कि मैं शक्ति का एक पुराना उपासक हूँ।’
    युवक के फौलादी आगोष का स्पर्श शक्ति में मानों नयी शक्ति का संचार कर दिया।विस्फारित नेत्रों से देखने लगी उस हिप्पीनुमा व्यक्ति को। क्रोध अचानक काफूर हो गया।अन्य व्यक्ति भी मानों चैतन्य हो गये,जो कुछ पल पूर्व तक जढ़ बने हुये थे।उस व्यक्ति ने बड़े सहज भाव से शक्ति को उठा कर यथास्थान बैठा दिया,और बगल में शेष थोड़े सी जगह में ही जबरन घुसबैठा,जैसे लोकल ट्रेनों में तीन आदमी की सीट पर छः बैठ जाते हैं।भौचंकी, शक्ति उसका मुंह देखती,अपने स्मरण पर जोर दे रही थी।और लोगों के चेहरे भी आश्चर्य और प्रश्न चिह्नित थे।
    जरा गौर फरमाते हुये,कमल और मीना अचानक एक साथ बोल उठे-
   अरे बसन्त! तुम कहाँ से आ टपके?’
    यमराज यमपुरी छोड़कर और कहाँ से आ सकता है?’- हँसते हुये कहा बसन्त ने और जेब से चुरूट और लाइटर निकाल,सुलगाने लगा।
    तुम्हारा मसखरापन अभी तक नहीं छूटा।आगे बढ़कर हाथ मिलाते हुये कमल ने कहा।
           अरे यार! यही तो एक बचा हुआ है,बाकी तो अशेष ही है।’
     कब लौटे ओशाका से? टॉमस कहाँ है?’- मीना ने पूछा और बगल में बैठी मीरा को इशारा की नौकरानी से नास्ता आदि के प्रबन्ध की।
    बस,आज सुबह की फ्लाइट से।’- कहा बसन्त ने और पल भर पूर्व के मसखरेपन को खदेड़,उसके चेहरे पर किसी ज्ञाताज्ञात गम और कसक की स्याही पुत सी गयी।मौन,सूने छत को निहारता हुआ चुरूट का कस खींचने लगा।
    मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया तुमने?’- बसन्त के चेहरे पर गौर करती हुयी मीना ने कहा।शक्ति की निगाहें भी चिपकी हुयी थी बसन्त के चेहरे पर।
         नौकरानी नास्ता रखकर पीछे मुड़ ही रही थी कि बसन्त ने मीना की ओर देखते हुये कहा- इसकी अभी जरूरत नहीं,पर तुम्हारी चाय अवश्य पीऊंगा।’
    और फिर गर्दन घुमा शक्ति की ओर देखने लगा,जो बगल में ही दुबकी सी बैठी थी।
    एक जमाना था,जब शक्ति को मन ही मन प्यार किया करता था- किशोर बसन्त।हाँ,स्कूल के छात्र को बालक और फिर किशोर ही तो कहा जा सकता है,युवक नहीं।भले ही वह खुद को कितना हूं बड़ा प्रेमपुजारी क्यों न समझता हो।
    बेचारा बसन्त बेहद चाहता था शक्ति को,किन्तु उम्र ने कभी इजाजत न दी इजहार की।साहस का तो सवाल ही नहीं,और चलता रहा एकचक्रीय प्रेमयान।
    शक्ति,उसकी भाभी की चचेरी बहन शक्ति ने शक्ति पूर्वक खींच लिया था बेचारे बसन्त के कोमल कमजोर दिल को,और छिपा कर रख ली थी अपने हृदय में,जिसे ढूढ़ पाने में वह सफल न हो पाया।आखिर शक्ति के दिल को टटोलने के लिए भी तो शक्ति चाहिये,और साहस भी; जो था नहीं इसके पास।
    जमाने ने पलटा खाया।मातृ-पितृ विहीन हो, शक्ति चली गयी कलकत्ता छोड़कर अपने ननिहाल की रोटी तोड़ने।इधर बेचारा बसन्त शक्ति-मन्दिर के कंगूरे ही ताकता रह गया।उधर कमल पग चुका था मीना के मुहब्ब्त में। बेचारे बसन्त को हाथ लगी- बिना नाक-भौं वाली टॉमस।वह इसे उड़ा ले गयी सुदूर सागर पार जापान के ओशाका नगरी में।
    इधर जमाना कहाँ से कहाँ चला गया।कितने आये,कितने गये। कितने मिले,कितने बिछड़े - इसका हिसाब किसी ने न लगाया।
    ...और अब? जाने वाले फिर से आने लगे।मीना आयी।मीरा आयी।आने वालों का तांता सा लग गया।और आना ही पड़ा- शक्ति को भी।और जब शक्ति आयी,तो बसन्त क्यों न आता? किन्तु सभी आये नया रूप लेकर,पर बसन्त आया पुराने रूप पर ही नयापन का खोल ओढ़कर,नयी दुनियां को पुरानी आँखों से देखने के लिए।स्वदेशी आया विदेशी बनकर।
    क्यों बसन्त क्या सोचने लगे?’- उसे चुप्पीसाधे देखकर कमल ने सवाल किया।मीरा तब तक चाय ले आयी।
    कुछ नहीं,सोचूंगा क्या?’- प्याला बायें हाथ में पकड़ लिया।दायें हाथ में जलता हुआ चुरूट था।चाय की गहरी घूंट भरी।चुरूट के धुएं से उसे भीतर पहुँचाया ठेल कर आंतों तक।फिर कस खींचते हुये बोला- सोच रहा हूँ कि अठारह पर्वों वाला महाभारत कहाँ से शुरू करूँ?’
     बसन्त की बात पर अन्य लोग सोचने लगे- अजीब आदमी है।कोई बात
सीधी तौर पर करता ही नहीं।कभी मसखरापन तो कभी गम्भीरी का लबादा।
    किन्तु कमल समझ रहा था उसके कथन का अभिप्राय।वस्तुतः आज अठारह वर्षों बाद ही तो कमल और मीना से मुलाकात हो रही थी।अतः बोल पड़ा- कोई बात नहीं।ज्यादा दिक्कत हो तो अठारह अध्यायों वाला सर्वशास्त्रों का निचोड़ गीता ही सुना डालो।’
    पर मेरे लिए तो दो-चार अध्याय अधिक ही कहना पड़ेगा।’- आशय समझती हुयी शक्ति ने कहा- कारण कि मैं तो कुछ पहले ही चली गयी थी कलकत्ता छोड़कर।दीदी ने बतलाया था कि तुम किसी लड़की के साथ जापान भाग गये हो।’
    बसन्त के आने से पतझड़ समाप्त हो गया था।मुरझायी शक्ति में नव चेतना संचरित हो आयी थी।क्रोध में जलते शक्ति के होठों पर किंचित मुस्कुराहट खेलने लगी थी।तब से बेचारी स्वयं को अकेली महसूस कर रही थी।पर अब एक चिर परिचित के आगमन से मन ही मन प्रसन्नता हो रही थी।कम से कम एक पक्षधर तो आ ही गया।
    ठीक है,तुम्हारी गीता बाइस अध्यायों वाली ही होगी।’- प्याला खाली कर मेज पर रखते हुये बसन्त ने कहा- तो ऐसा करते हैं कि परिशिष्ट’ ही पहले सुना डालते हैं।तुमसे तो उस बार ही भेट थी जब कमल के भैया की शादी में तुम्हारे मामा के घर गया था।’
    हाँ..हाँ,फिर कहाँ मिलना हो पाया? एक दो बार तुम्हें चिट्ठी भी दी थी,पर...।’- शक्ति कह ही रही थी कि गोल होठों से चिमनी सा धुआं छोड़ता हुआ बसन्त बोल पड़ा- चिट्ठियां तो मिली थी तुम्हारी जब तक कि यहाँ कलकत्ते में था,किन्तु कुछ सोच कर पत्रोत्तर देना उचित न जान पड़ा।’ कहता हुआ बसन्त,शक्ति की आँखों में झांकने लगा।बगल में बैठे मृत्युंजय को बसन्त की इस हरकत से अजीब सा चुभन महसूस हुआ,जो पल भर के लिए तिलमिला गया,पर लाचार,कुछ कह न सका।
    सोचना क्या था पत्रोत्तर देने में?’-साश्चर्य पूछा शक्ति ने,और बसन्त की आँखों में हसरत भरी आँखें डाल दी।आज तैंतीस वर्षीय बसन्त उसे उस दिन सा ही नजर आ रहा था,जब कि वह पहली बार उसकी दीदी की शादी में सहबाला बनकर आया था,अपने दूल्हे भैया के साथ।
    बहुत कुछ सोचना होता है शक्ति।तुम कुंआरी लड़की,ैं कुंआरा लड़का।पता नहीं कौन कब क्या कह डाले।फिर भी मेरा तो कुछ नहीं,पर तुम्हारा बहुत कुछ बिगड़ सकता था।यह सही है कि तुम्हारे प्रति निस्सीम प्यार का सागर उमड़ता रहा मेरे दिल में,पर चाहकर भी चाहत उगल न सका।होठों को खोल न सका। औरों से तो दूर,तुमसे भी न कह सका।इसी बात का भय बना रहा कि कहीं परोक्ष में पत्र के परदे पर मन की बातों का बिम्ब न उभर आये...।’- चरूट के अस्क को मेज पर पड़े खाली कप में झाड़ता हुआ बसन्त,अपने दिल के कोने में छिपे प्रेम-मुत्ताओं को निकालता रहा।
    तुम भी अजीब हो बसन्त।’- शक्ति की निगाहें अभी भी बसन्त के चेहरे पर गड़ी हुयी थी।कहने लगी- सच पूछो तो मैं भी मन ही मन तुम्हें खूब चाहती थी,पर लड़कियां कितनी बुझदिल होती हैं तुम जानते ही हो।तिस पर भी जातिय संस्कार की अमिट छाप।फलतः मैं भी साहस न कर सकी।यहाँ तक कि तुम जब भी मेरे घर आये,मैं भीतर छिप जाया करती तुम्हारी नजरों से,और झीने परदे की ओट में खड़ी निहारती रहती,इस इन्तजार में कि कब पापा आवाज दें- चाय लाने के लिए।बहुत बार तुम चाय पिये वगैर ही चले जाया करते थे,और जानते हो- उस दिन मेरी कैसी हालत होती? काश!.....कभी भी कहे होते तुम इशारों में भी।मुझे नहीं तो अपनी भाभी से ही कम से कम।ओफ! मेरा जीवन दग्ध होने से बच गया होता।’
    शक्ति की आँखें डबडबा आयी थी।ओढ़नी के छोर से पोंछने का प्रयास करती हुयी नजरें नीचे झुका ली।
    तुम शायद नहीं जानती शक्ति!’- बचे टुकड़े से दूसरा चुरूट जलाते हुये बसन्त ने कहा- ैंने कही थी अपने मन की बात तुम्हारी दीदी से एक बार। उन्होंने मेरा प्रस्ताव तम्हारे पापा तक पहुँचाया भी था,पर जानती हो तुम्हारे पापा ने क्या कहा था?’
    गम्भीर मुस्कान विखेर,कस खींचा बसन्त ने।
    क्या?’- शक्ति चौंकी।
    मुस्कुराते हुये तुम्हारे पापा ने कहा था- ‘‘ओह! तो अब समझा,क्यों बसन्त रोज-रोज मड़राता है इस ओर।हालांकि कोई हर्ज नहीं है उससे शादी कर देने में,किन्तु मैं वचनवद्ध हूँ किसी और से।’’ कहा बसन्त ने,और लम्बा कस खींच, इस भांति छोड़ा कि शक्ति का चेहरा उस धुएं में छिप सा गया।
    हुंऽह! वचनवद्ध थे,महाराज दशरथ की तरह।तभी तो राम के वजाय शान्ता का सर्वनाश कर गये।त्रेता के दशरथ ने राम का सर्वनाश किया,और कलयुगी दशरथ ने शान्ता का।’- शक्ति के होठ फिर कांपने लगे क्रोध से।
    दरअसल राशि संयोग भी जुट गया- उधर दशरथ की बेटी शान्ता,इधर देवकान्त की बेटी शक्ति।एक ओर सौम्य शुभ ग्रह राशीश गुरू,तो दूसरी ओर क्रूर पाप ग्रह शनि...।’- हो-हो कर हँस पड़े पदारथ ओझा अपनी ही टिप्पणी पर।कमल भी मुस्कुरा दिया।
    क्या यूँही हर समय मजाक करते रहते रहते हैं ओझाजी?’- खीझते हुये निर्मलजी ने कहा।फिर घड़ी देखते हुये बोले- साढ़े सात बजने लगे।’
    खतम करो न यार अपना चार अध्याय।मुख्य गीता अभी बाकी ही है।’-वातावरण की गम्भीरता में बदलाव के ख्याल से कहा कमल ने।
    अधजले टुकड़े को खाली कप में डालते हुये बसन्त ने कहा- अब मुख्य ही समझो।शक्ति की ओर से मैं निराश हो ही चुका था।कमल का पथ प्रसस्त ही देख रहा था मीना के द्वार तक।लाचार टॉमस को गले लगाया।काश! मुझे यह पता होता कि तुम्हारे पापा की वचनवद्धता की गांठ कमल ही है, जो मीनाक्षी के तड़ाग में खिलने वाला है, तो उसे शक्ति के गले में पड़ने से अवश्य ही बचा लिया होता,उन्हें सही जानकारी देकर।पर अब पछताने से लाभ ही क्या? खैर,देर आया,दुरूस्त आया।’
    मतलब?’-चौंकते हुये कमल ने पूछा,और साथ ही चौंक पड़ी मीना और शक्ति भी।
    मतलब ही तो बतला रहा हूँ।तुम्हारी बात की हड़बड़ी में चुरूट भी फेंक दिया,अब फिर से लाइटर निकालना पड़ेगा,जो मेरे वसूल के खिलाफ है।’-कहते हुये बसन्त ने दूसरा चुरूट मुंह में धर,लाइटर निकाल,जलाते हुये, बात आगे बढ़ायी- उस बार परीक्षा के तुरत बाद ही,यानी कालेश्वर यात्रा से लौटने के महीने भर बाद ही उड़ चला जापान एयरलाइन्स के विमान से।’- फिर कमल की ओर देखकर बोला- तुम कहा करते थे न कि यह परी उड़ा ले जायेगी अपने पंखों पर बिठा कर।सही में उड़ा ले गयी मुझे वह जापानी परी।मेरे पास तो इतने
पैसे भी न थे,जो वहाँ जाने की कल्पना भी करता।उसने ही सारी व्यवस्था की।उसके डैडी ने काफी संरक्षण दिया हमदोनों को।ओशाका में जाकर उसके पुस्तैनी निवास में हमलोग रहने लगे। बाद में मैंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली...।’
    अच्छा,तो उसी दीक्षा में चुरूट पीने का उपदेश मिला होगा?’- हँसती हुयी मीना ने कहा- यही मैं सोच रही थी कि ब्रह्मचारी जी इतना धूम्रपान कब से करने लगे!’
    अरे यह तो बहुत बाद में पकड़ा।’- हाथ में पकड़े चुरूट को निहारता हुआ बोला- पकड़ा क्या,पकड़ना पड़ा।अब तो कुछ नहीं है।इससे भी कुछ ऊपर स्तर में पीया करता था।’- कहता हुआ बसन्त लागातार कई बार कस खींचा..छोड़ा... कमरे में कृत्रिम मेघों का गुच्छा सा बन गया।कप में शेष टुकड़े को डालते हुये बोला - अरे यार चाय तो पिलाओ।क्या कंजूसी सवार है? अच्छा हाँ तो मैं दीक्षा की बात कर रहा था।सच पूछो तो इस दीक्षा में ही प्यार की भिक्षा मिली।वहाँ की रीतिनुसार विवाह-सूत्र में बंधा,और फिर उस बन्धन में गांठ लगाया पूरे पांच साल बाद।टॉमस कहती थी- बच्चे क्या करेंगे? अभी तो हम खुद ही बच्चे हैं।अतः उसकी बात मान एक जुट होकर हमदोनों ने जवानी का लुफ्त उठाया, और साथ ही विजनेश मैनेजमेन्ट की डिग्री हासिल की।टॉमस का विचार था पुनः भारत न लौट कर, वहीं अपना स्वतन्त्र व्यवसाय खड़ा करने का।फलतः सही में नहीं लौटी।पांच वर्ष बाद,छठे वर्ष शादी की वर्षगांठ के साथ नये मेहमान के स्वागत की तैयारी करने लगे हमदोनों....।’
    नौकरानी चाय ले आयी।प्याला पकड़ होठों से लगाते हुये कहने लगा- ‘...पर कैसा स्वागत...किसकी आगवानी? आने वाला आया नहीं...रहने वाले को भी बुला लिया...।’
    बसन्त की बात सुन कमल और मीना अवाक् उसका मुंह देखने लगे।शक्ति का चेहरा भी देखने लायक था,जिसपर अनेक बिम्ब बन रहे थे,मानों तेजी से घूमता प्रोजेक्टर हिल रहा हो,और कोई भी चित्र स्थिर न हो पा रहा हो।
    प्याला खाली कर मेज पर रखा,और दूसरा चुरूट जलाते हुये कहने लगा-‘...मेजर ऑपरेशन जच्चा-बच्चा दोनों को ले गया...।’
    ओफ टॉमस!’- एक साथ कमल और मीना के मुंह से निकला।
    बसन्त कह रहा था- ‘...उस बार मैं नाटक में यमराज बना था।तुम मुझे उसी नाम से चिढ़ाती हो न मीना? जरा ठहर कर फिर बोला- किसी और के प्राण तो मैं कलयुगी यमराज न हर पाया, किन्तु मृत्यु’ के ही प्राण ले लिए मैंने...यम की पत्नी मृत्यु...बसन्त की पत्नी टॉमस...अफसोस! यदि टॉमस को गर्भवती होने से मैं रोका होता, तो आज यह बिछोह न सहना पड़ता...।’-कुछ देर मौन आँखें बन्द किये बैठा रहा कुर्सी का टेका लगाये हुये,फिर कहने लगा- ‘...उसके बाद फिर समय कैसे गुजरा,कहने में भी समय की बरबादी है।कुछ गुजरा मयखाने में, कुछ गुजरा मठों में।उसके बाद भी शान्ति न मिली तब,उस मनहूस टापू को ही छोड़कर उड़ा चला आया वापस स्वदेश।आज सुबह ही देश की प्यारी धरती पर पांव धरते ही याद सताने लगी- पुराने प्रेमियों की,और खिंचा चला आया मीनानिवास’। सोचा था- बच्चों की मधुर किलकारियां मिलेंगी यहाँ,पर अभी देखता हूँ- यहाँ तो शहनाइयाँ भी नहीं बजी हैं।’
    जब तुम आ ही गये हो,तो बजाओ शहनाई,जितना बजाना हो।’- हँस कर कहा कमल ने।
    तुम नहीं बजाओगे क्या?’-बसन्त ने पूछा।
    बजाने तो जा ही रहा था।मीना और मीरा का निपटारा कर ही चुका था,किन्तु बीच में ही शक्ति का दर्शन हो गया।’- गम्भीरता पूर्वक कहा कमल ने।
    तो चिन्ता किस बात की है? ैं तो उनके अभिनन्दनार्थ घुटना टेके ही हुये हूँ।’- कहता हुआ बसन्त नाटकीय ढंग से हड़बड़ाकर कुर्सी से उठ,घुटना टेक दिया,दोनों हाथ जोड़कर- या देवी सर्वभूतेषु, पत्नी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै। नमस्तस्यै। नमस्तस्यै नमो नमः।।’ चुरूट अभी भी उसके हाथ में था।ऐसा लग रहा था मानों हाथों में अगरबत्ती पकड़े,शक्ति का सच्चा साधक साक्षात् देवी के सामने घुटना टेके खड़ा हो।चुरूट का धुआं सीधे ऊपर उठ कर सामने बैठी शक्ति के नथुनों में घुसा जा रहा था।
    बसन्त की नाटकीय मुद्रा पर सभी ठहागा लगाकर हँस दिये। काफी देर तक हँसी का पटाका छूटता रहा कमरे के वातावरण में और अपने धुऐं के साथ उड़ा ले गया- क्रोध,ईर्ष्या और गमों की धूल को।
    हर्ष और उल्लास का वातावरण बन गया।फिर एक बार बसन्त का आगमन सही में रंग गया सबको अपने मोहक रंग में।
    शादी का मुहुर्त कब है महादेवी जी?’ -शक्ति की ओर देखते हुये बसन्त ने पूछा।
    तुम्हें मुहुर्त से क्या लेना-देना? तुम तो मठ में चलकर शादी करोगे न?’- खिलखिलाती हुयी शक्ति ने कहा,और बांह पकड़कर बसन्त को ऊपर उठा,कुर्सी पर बगल में बिठा दी।
    तुम्हारा हठ मान लिया।फिर मठ जाने का क्या काम।अब यहीं सब करमठ होगा।’- हँसते हुये बसन्त ने कहा।
    लम्बे समय से जारी सभा का विसर्जन किया उपाध्यायजी ने अध्यक्षीय भाषण से - विवाह मण्डप सजा हुआ है।आठ बजने ही वाले हैं।मुहुर्त में अधिक विलम्ब नहीं है।सब लोग यहाँ से चलें नीचे,और शेष कार्य का श्री गणेश करें।’
     दबी जुबान पदारथ ओझा ने कहा- एक मंडप में तीन शादी?’
     आपकी बुद्धि की भी दाद देनी चाहिये ओझाजी।अरे भाई! जब यह सृष्टि ही त्रिगुणात्मक है,फिर तीन से इतना खीन’ क्यों हैं आप? मैं कहता हू कि तीन से बढ़कर कोई पवित्र संख्या ही नहीं है।’- कहा तिवारीजी ने-
                    ‘‘मंगलं भगवान विष्णुः मंगलं गरूड़ध्जः।
           मंगलं पुण्डरीकाक्षः मंगलाय तनो हरिः।।"

     शहनाइयों की मधुर घ्वनि मीनानिवास और आसपास के वातावरण को आप्लावित करने लगा।वैदिक मन्त्रोच्चार के बीच नूतन सृष्टि की संरचना का शुभारम्भ होने लगा।
    कमल भट्ट अपनी दोनों हथेलियों को खोलकर गौर से निहार रहा था, जिसके दसों अंगुलियों पर चक्र के निशान थे।मीना ने कंधे पर हाथ रखा-
    क्या देख रहे हो अब, इन हथेलियों में?’
    और क्या देखूँगा?तुम्हारे मुखड़े के सिवा सृष्टि में और है ही क्या देखने लायक?’-कहता हुआ कमल खींच कर मीना को अपनी बाहों में भर लिया

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