गतांश से आगे...
सोंधी सुगन्ध उसके नथुनों में घुस
गयी,जो शेम्पू-शिकाकाई
से भी कहीं अधिक मोहक और मादक प्रतीत हुयी।शायद
वह काली मिट्टी से बाल धोती है।इस गरीब की बेटी के पास आधुनिक प्रसाधन कहाँ?
‘तुम जलपान
करो बेटे।मैं अभी
आया।जरा नहा लूँ।सबेरे से नहाने का भी वक्त नहीं
मिला।’-कंधे
पर धोती-गमछा और हाथ में
लोटा-बाल्टी
लिए तिवारीजी कमरे से बाहर निकल गए।
उनके बाहर जाते ही
मौका पा विमल पूछ बैठा- ‘क्यों मीना, चलोगी न? पापा ने बुलाया है।भाभी भी कह रही
थी।’
‘बुलाया है
तो जरूर चलूंगी,मगर एक-दो
दिन बाद।अभी जरा काम-धाम में लगी हूँ।तुम आज यहीं
रूक
जाओ न।’-खुल आए, अस्त-व्यस्त
कुन्तल-गुच्छों को सम्हालती हुयी मीना ने कहा।
‘नहीं
मीनू!
ठहरना ठीक नहीं।कल ही बाहर से आया हूँ,इतने दिनों बाद,और आज ही इधर चला आया।’- मीना के लिए ‘मीनू’ सम्बोधन स्वयं को शरमा गया। ‘यह तो मीना
थी,मीनू कैसे
हो गयी अचानक?’- विमल सोचने लगा-‘नाम का
कर्तन तो प्यार की कैंची से होता है।तो क्या मीना को प्यार
करता हूँ? क्यों? कैसे?यह कैसे सम्भव
है? गलत बात है
यह।’- तभी उसे
याद आयी. पिछले साल की एक
घटना- क्लास के एक लड़के ने एक पुर्जा लिखकर डाल दिया था,एक लड़की की कॉपी में- “ I
love you.” ओफ! ओफ!! कितना भयंकर परिणाम हुआ था,उन दोटूक शब्दों का कितना बड़ा अर्थ लगाया था उसके बाप ने-
मानों पाणिनी सूत्र का महाभाष्य कर दिया हो।
‘नहीं..नहीं...,मेरा
सोचना गलत है।’- विमल सोचता
है,और क्षण भर
में ही चिन्तन की मुद्रा बदल जाती है- ‘मान लें,मेरा सोचना सही है।फिर भी क्या सिर्फ
मेरे सोचने से ही हो जायेगा? वह भी क्या मुझे प्यार करेगी?’-प्रश्न किया स्वयं से,और,जवाब भी मिला- ‘करेगी।अवश्य
करेगी।आखिर हसरत भरी नजरों से क्यों देखा करती है?’- यह सोचते हुए दृढ़
किया मन को,और निश्चय
किया कि मौका पाकर जरूर पूछेगा उससे कि क्या वह प्यार करती है विमल को?
सिर झुकाये जलपान
सम्पन्न किया।बिना कुछ बोल-चाल किये,मीना भी चुप देखती रही- खड़ी-खड़ी।विमल हाथ
धोकर उठ खड़ा हुआ।
‘अब चलता
हूँ मीना।’
‘क्यों
रूकोगे नहीं?’- तृषित नेत्रों से देखती हुयी मीना बोली।
‘आज नहीं।फिर
कल आ जाऊँगा मीना।क्या रखा है,सायकिल से आने-जाने में लगता ही क्या है?’- कहता हुआ विमल
सायकिल लेने,मकान के पिछवाड़े चल दिया।
‘वापू को तो
आ जाने देते।’-मीना कह ही रही थी कि उधर से तिवारी जी आ पहुँचे।
क्यों बेटे! जाने
को तैयार हो गये?खाना भी नहीं खाये?’-धोती पसारते
हुए तिवारीजी ने पूछा।
‘नहीं
बापू,देर हो जायेगी।आज जरा बाजार होते हुए
जाना है।मीना बोली है,एक दो दिन
बाद चलने को।अतः फिर आ जाऊँगा।’
विमल चल दिया,सायकिल पर सवार होकर।आँखों से जब तक
ओझल न हुआ,मीना उसे
अपलक निरखती रही- दरवाजे पर खड़ी।आज लम्बे समय के बाद विमल आया।कहने पर ठहरा भी नहीं।
थोड़ा बुरा भी लगा,उसका न
ठहरना।फिर
सोचने लगी- ‘बुरा मानने
की क्या बात है।कौन कहें कि यह उसका घर है।मैं क्या उसकी कोई हूँ? बस एक साथ स्कूल
में पढ़ने भर का ही तो सम्पर्क है।
और क्या है उसका मुझसे वास्ता?’-
कहने को तो मीना कह
दी।खुद को समझा गयी।पर मन भी ऐसा ही समझ ले तब न! बार-बार चाह कर भी उसकी याद को
भुला न पायी।उसकी बातचित का,बैठने का,खड़ा होने का,चलने का, उसका हर
अन्दाज ही निराला लगा मीना को।मात्र आठ महीनों का अन्तराल ही काफी बदलाव ला दिया
है विमल में।
फिर वह खड़ी, सोचने
लगती है-
वापू
की बातें- ‘मीना अब सयानी हो गयी है।अच्छा सा घर-वर देख
कर बिठा देना है,हाथ पीले
करके।’
‘‘अच्छा सा घर, क्या अच्छा सा घर? वह फिर सोचने लगती
है- ‘क्या इतनी
भाग्यवान हूँ जो अच्छा सा घर मिलेगा मुझे?कहाँ से लायेंगे इतना पैसा मेरे गरीब
वापू जो बेटी को अच्छे से घर में डाल सकें?’
सेाचते-सोचते, मीना की आँखें अचानक झपकने लगी।मिट्टी का
छोटा सा अपना घर कुछ अजीब सा लगने लगा।लगा- मानों यह उसका घर नहीं
है।और
इसके साथ ही एक दो मंजिले खूबसूरत से मकान की धुंधली छवि आँखों के सामने नाच
गयी।एक बहुत बड़ा मैदान नजर आया,जिसके बीचोबीच एक सुन्दर बंगला दीखा- चारों ओर फूल-पत्तियों
से सजा हुआ सा।लॉन में खड़ी एक गाड़ी नजर आयी।तसवीरें तो धूमिल थी,किन्तु लगा उसे कि ‘फियट’ है।
फिर एकाएक उसे
प्रतीत हुआ,मानों वह
स्वयं बैठी हो उस गाड़ी में,स्टेयरिंग सम्हाले; और बगल में ही एक नवयुवक को भी बैठे पायी-
सपनों के राजकुमार की तरह।गाड़ी अचानक चल पड़ती है; और साथ ही मीना
सहसा चीख पड़ी।
चीख सुन भीतर बैठे तिवारी
जी बाहर आए।देखे- मीना सिर झुकाए दीवार का सहारा लिए खड़ी है,परन्तु उसकी आँखों की झपकी खोयी है कहीं।उन्हें
आश्चर्य हुआ,साथ ही
घबराहट भी- मीना की इस स्थिति पर।झपट कर उसे गोद में उठा लिए,छोटी-सी बच्ची की तरह।
‘क्या हुआ
बेटे? क्या हो
गया तुम्हें?’- कहते हुए
तिवारीजी भीतर लाकर खाट पर चित्त लिटा दिये।पास ही पड़े लोटे से पानी लेकर, दो-चार चुल्लु उसके मुंह पर छींटे।छींटें
पड़ते ही वह चैतन्य हो गयी।उठ कर बैठ गयी।
‘क्या बात
है मीनू बेटे! क्या तकलीफ है?’- कन्धा सहलाते हुए तिवारी जी ने पूछा।
‘कुछ नहीं
वापू!
कहाँ कुछ हुआ है मुझे।?’- कहती हुयी मीना इधर-उधर देखती हुयी बोली- ‘विमल चला गया न? नहीं
ही
माना।कितना कही ठहर जाने को आज भर।’- फिर मन ही मन बुदबुदायी,जिसे तिवारी जी सुन न सके- ‘
बड़ा
आदमी है।अमीर है।मुझ छोटों के घर क्यों ठहरे? क्यों बात करे?क्यों बात माने मेरी?’
तिवारीजी ने कुछ
कहा नहीं।कहना उचित भी नहीं लगा।मीना यूँही कुछ
गुमसुम पड़ी रही।फिर सामान्य हो अपने दिनचर्या में लग गयी।पर वैसे ही गुमसुम सी।
इधर तिवारी जी दो-तीन दिन काफी व्यस्त
रहे,अपने गृह कार्यों में।‘भाल-
-चुम्बी’ दीवार को चार-पांच हाथ ऊँचा किया गया।वांस-लकड़ी का
उपयोग हुआ।सामान रखने हेतु ‘चंचरी’ बनायी गयी।डेढ़
कमरे के ऊपर आधा और बना,
फिर
भी इसे दो कैसे कहा जाए?
इन कार्यों से
निवृत्त हो जाने पर ध्यान आया प्यारेपुर चलने का।अतः विचार किया आज ही भोजनोपरान्त
वहाँ चलने का।उधर से रास्ते में ही पदारथ ओझा को साथ ले लेने का विचार किये,कारण ‘बतुहारी’ में निपुण हैं ओझाजी। सब कुछ तो ठीक है,पर समस्या आयी कि रात में मीना घर
में अकेली कैसे रहेगी।सयानी लड़की,सूना घर,आसपड़ोस भी कोई नहीं।कहते हैं- मानव तो मानव है ही,देवता भी कभी-कभी मौका पाकर दानव बन
जाते हैं। इन्द्र-चन्द्र तो इसमें माहिर हैं ही....।
भोजन समाप्त कर,चिन्तन से मन को,और तिनके से दांतों को बाहर दरवाजे पर
बैठे कुरेद रहे थे तिवारी जी कि कानों में गाड़ी का हॉर्न सुनायी पड़ा।चिन्तन और ‘खरिका’ दोनों से हठात्
मुक्ति मिली।चट उठ खड़े हुये।जिराफ सी गर्दन उठा सामने देखने लगे- चौड़ी पगडंडी की
ओर,जिधर से
गाड़ी आने की सम्भावना थी।पीछे मुड़ कर हांक भी लगाये-
‘मीनू बेटे!
लगता है विमल आ रहा है।कहा था न उस दिन, तुम्हें ले जाने को।अच्छा ही हुआ,मौके पर आ रहा है।’-कहते हुए तिवारी
जी किसी कल्पना लोक में पल भर को हो लिए- ‘काश! एक दिन ऐसी ही
गाड़ी दरवाजे पर आती।विमल जैसा ही कोई होनहार उसमें सवार होता,और सजी-धजी मीना दुल्हन बनी लाल
चुनरी में लिपटी उसके साथ बगल में बैठा दी जाती;और गाड़ी चल पड़ती...।’
विचार-वादियों में तिवारीजी इस कदर
भटक गए कि कब गाड़ी आकर सामने खड़ी हो गयी,उन्हें पता भी न चला।उनका ध्यान तो तब भी
भंग नहीं हुआ जब विमल ने चरण-स्पर्श किया-‘प्रणाम वापू...प्रणाम करता हूँ वापू।’
फिर उसने मीना को
आवाज लगायी-
‘तैयार हो
मीनू? मैं आ गया
तुम्हें लेने।’
तब उनकी तन्द्रा
टूटी- ‘आ गए बेटे? कहो ठीक-ठाक हो न?’
‘हाँ वापू,आपके आशीर्वाद से बिलकुल ठीक हूँ।मैंने दो दफा आवाज लगायी,पर आप न जाने कहाँ खोये हुए थे कि
मेरी बात का जवाब भी न दिए।’- कहता हुआ विमल भीतर
कमरे की ओर चला गया।आवाज सुन मीना भी आंगन में से आ पहुँची, बाहर ही दरवाजे पर।
‘क्यों, आज खुद ही गाड़ी
ड्राईव करना पड़ा?
ड्राईवर?’
‘पापा के
ड्राईवर को छुट्टी दे दी आज मैंने।’-मीना के प्रश्न का उत्तर दिया विमल ने- ‘तुम्हारा
ड्राईवर हाजिर है।’-धीरे से भुनभुनाया,ताकि वापू न सुन सकें।
विमल की बात पर
मीना मुस्कुराती हुयी फिर अन्दर चली गयी,यह कहती हुयी-‘बाहर ही
बैठिये ड्राईवर साहब।मैं तब तक तैयार होती
हूँ।’
विमल सच में बाहर आ
गया,वापू के
पास।उनसे इजाजत लेने।
‘मीना को ले
जाना चाहता हूँ।दो-चार दिनों बाद पहुँचा जाऊँगा। तब तक आप इत्मीनान से बाहर का काम
निपटा आइये।’
‘मैं तो आज ही जाने को
सोच रहा था।तुम अच्छे मौके पर आ गये।’- कहते हुये तिवारीजी कमरे में आ गये।पीछे-पीछे
विमल भी कमरे में आगया। ‘मीना बेटी!
तुम दोनों खाना खा लो।तब तक मैं तैयार होता हूँ।’
विमल के लिए खाना
पहले ही परोस चुकी थी मीना।उसके ना-ना करते रहने पर भी खाना सामने रख,तख्त पर बैठा दी हाथ पकड़कर।
‘आओ
बैठो।खाना तो खाना ही पड़ेगा।उस दिन भी भाग गए थे,खाए वगैर। वापू मुझे डांट रहे थे,कि बिना खाये-पिये मैंने तुम्हें जाने क्यों दिया।’
‘तुम नहीं
खाओगी? अपनी थाली तुम लायी
नहीं?’- कहता हुआ
विमल हाथ खींचकर,बैठा लिया-
‘आओ एक साथ
ही खायें हमदोनों।’
धोती चुनते हुए
तिवारी जी खड़े मुस्कुराते रहे- ‘खालो मीनू। दिक्कत
ही क्या है?’
भोजनादि से निवृत्त
हो मीना चल पड़ी विमल के साथ गाड़ी में बैठ कर। मधुसूदन तिवारी पैदल ही चल पड़े
उधमपुर पदारथ
ओझा
के पास।उन्हें साथ लेकर जाना है,प्यारेपुर निर्मल ओझा के पास।हालाकि विमल ने कहा भी-‘वापू!आप भी
हमलोग के साथ
ही
चल चलते।उधर आपको पहुँचाकर ही हमलोग जाते प्रीतमपुर।’
‘नहीं..नहीं...तुमलोग
जाओ।मुझे रास्ते में कुछ और काम भी है,जिन्हें निपटाते हुए जाऊँगा।तुम कहाँ-कहाँ गाड़ी दौड़ाते
फिरोगे।’-कहते हुए तिवारीजी ने अपनी पद-यात्रा प्रारम्भ कर दी।
विमल और मीना गाड़ी से चले। गाड़ी की दौड़ के साथ ही मीना विचार-
वीथियों में मड़राने लगी।आज विमल अकेला आया है उसे लेने-
गाड़ी लेकर,अपने घर ले
जाने।उसे लग रहा था,मानों विमल
दूल्हा है,और वह उसकी
प्यारी दुल्हन।
विचारों की इसी
श्रृंखला में उसे एक छवि नजर आयी- धूल- धूसरित कच्ची कंकरीली सड़क,उसे किसी महानगर की प्रसस्त पक्की सड़क सी जान पड़ी।फिर महसूस हुआ कि
ड्राईविंग-सीट पर कोई
अनजान-अपरिचित
युवक बैठा है।अतः वह गौर करने लगी।पहचानने का प्रयास करने लगी- उस परिचित मुखड़े
को।किन्तु पल भर में ही विस्मृति की परत हट गयी या कहें घनीभूत हो आयी; और, हाथ बढ़ाकर वर्तुलाकार वाहुपाश बगल में बैठे
युवक के गले में डाल दी।
स्टेरिंग घुमाता
विमल आवाक रह गया- वाहुबन्धन में बन्धकर।उसने कल्पना भी न की थी कि मीना एकाएक इतना
आगे बढ़ सकती है।क्या इसके दिल में उठता प्यार का बयार,प्रबल तूफान का रूप ले बैठा है? काश!
ऐसा ही होता।मन की मुराद मिल जाती।छिपे प्यार का प्रत्यक्ष इजहार हो जाता।’-सोचता
हुआ विमल मौके से लाभ उठाना चाहा।दायां हाथ तो स्टीयरिंग पर था।बायां हाथ पीछे करते
हुए मीना के कमर में डाल दिया।और फिर.....
......प्यार की
मझधार में दो अपरिपक्व तैराक डूबने-उतराने लगे।
मीना पूरी तरह लिपट पड़ी विमल से।उसके कंधे पर सिर टिकाये, आंखें बन्द किये पड़ी रही।इस अप्रत्याशित
सुखद स्पर्श से विमल के रोम-रोम में गुदगुदी होने लगी।ग्रीष्म की तपती दोपहरी में
भी शीत का अनुभव होने लगा।सारा वदन थर-थर कांपने लगा,मानों अभी- अभी ठंढे़ जल में गोता
लगाकर निकला हो।गाड़ी पर कंट्रोल ढीला पड़ता सा लगा।फलतः एक ओर किनारे कर सघन
न्यग्रोध तले गाड़ी खड़ी कर दी।रास्ता सुनसान था विलकुल।दोनों हाथों से कस कर मीना
को आगोश में भर लिया।उसके होठों पर प्यार का एक मोहक मुहर भी लगा दिया।
मीना किसी आरोही
लता की तरह लिपटी रही,विमल के
सीने से।परन्तु थी विलकुल मौन।प्रेम के गहरे क्षण में नारी प्रायः मौन ही रहती
है।आंखें भी मुंदी ही रहती हैं- विमल ने शायद
यही समझा। और खुद भी मौन ही बना रहा।क्या जरूरत है बोलने की? जो परितृप्ति मौन में
प्राप्त हो रही है,मुखर होकर
उसके खोने की भी भी आशंका है।अतः अर्द्ध निमीलित पलकों में सहेजता रहा प्यार की
मधुर सरिता को।
काफी देर तक यही
स्थिति बनी रही।यही क्रम चलता रहा।दोनों आलिंगन-बद्ध रहे दुनियां जहा़न को विसार कर।
न विमल को ही खबर
है,और न मीना
को ही कि वह कुंआरी है,एक गरीब
बाप की बेटी है,जो गया है-उसके
लिए किसी योग्य वर की तलाश में।
किन्तु क्या वह
किसी गैर से लिपटी है? गैरपन का भाव रंच मात्र भी होता यदि उसके मानस में तो क्या अब
तक उन घातक
हाथों
को झटक कर विलग न कर दी होती?
दूसरी ओर यही हाल विमल का भी था।उसे कहाँ पता था
कि वह क्या है?
एक बड़े बाप का,प्रतिष्ठित
बाप का होनहार बेटा है।लोग यदि जान जायेंगे उसकी यह हरकत तो क्या दुष्परिणाम हो
सकता है? पिता ने
उसे भेजा है- लिवा लाने को,एक परायी पुत्री को...एक निर्बल की आह को...एक गरीब को,जो हर प्रकार से विश्वास करता है- उस
परिवार पर...उस पर। पर क्या यह उचित है- जो वह अभी कर रहा है? किए जा रहा है?
विमल सोचने लगता है- बचकानी तर्क से
खुद को तुष्ट करने लगता है-यदि यह गलत है तो भी पहल उसकी ओर से नहीं
हुआ
है।वह तो इतने दिनों से अपने दिल में उठते तूफान को जबरन दबा रखा था।आज वह स्वयं
ही मौका दे दी।कदम आगे बढ़ा दी।फिर क्यों चूके? वह लड़की हो कर
इतना खुल सकती है,तो यह तो
लड़का है...।
परन्तु अभागे विमल
को क्या पता कि जो कुछ भी हो रहा है,वह होशोहवाश में नहीं...मदहोशी में।मीना की बाहों में विमल
खुद को जरूर समझ रहा है।पर वास्तव में मीना इतनी वेशर्म और गिरी हुयी नहीं,जो
एकाएक जवानी के ज्वार में बह चले।मीना की बाहों में वास्तव में विमल नहीं
बल्कि
कोई और है,जो शायद
उसका कोई अपना है...बिलकुल अपना,जिस पर वह न्योछावर हो जाना चाहती है बल्कि इससे भी बड़ा सच तो यह है कि
मीना खुद अभी अपने आप में नहीं है शायद।
एकाएक ज्वार थम
जाता है।भाटा शुरू हो जाता है।मीना के मानस पटल की छवि बदल जाती है।वह देखती है-
वह बैठी पाती है स्वयं को, सघन
वटवृक्ष के नीचे खड़ी गाड़ी में विमल के साथ।दोनों दृढ़ आलिंगन बद्ध हैं।अचानक उसे स्वयं का ज्ञान होता है।और
ग्लानि से भर उठती है।रेंगते सर्प पर पड़ गये हों मानों पांव उसके।झटक देती है
विमल की बाहों को,और परे हट
जाती है।काफी देर तक मौन,प्रस्तर
प्रतिमा सी बनी निहारती रहती है- निर्निमेष दृष्टि से विमल को।फिर रोने लगती
है।क्यों कि उसका स्वप्निल महल वास्तविकता के वज्रपात से धराशायी हो चुका है।पर
उसे समझ नहीं आ रहा है कि यह सब क्या तमाशा है-
अभी-अभी जो हो रहा था,या जो कुछ
हुआ- उसकी धूमिल छवि अभी भी सद्यः स्वप्न दर्शन की भांति बनी हुयी है उसके
मस्तिष्क में।...तो सच वह था या कि सच यह है....? सोच न पा रही
थी।समझ न पा रही थी।वस जार-जार रोये जा रही थी।विमल को काठ मार गया।मीना की रुलायी
का कोई कारण उसे समझ न आ रहा था।बाहें अब भी फड़क रही थी,मीना को लिपटाने के लिए। ओफ! नारी भी
अजीब है।जब तक दूर होती है,अलग रहती है,तब तक इच्छा होती है- आंखों के सामने रखकर निहारते रहने की।
समीप आ जाने पर निहारने भर से संतुष्टि नहीं
मिलती।तब
प्रतीति होती है- स्पर्श और आलिंगन की;और यदि आलिंगन में आकर विलग हो जाए किंचित
कारण से तो फिर तत्काल विरह-वेदना भी सताने लगती है।
और हठात् उसके मुख
से निकल पड़ता है-
‘धिक्तांच
तं च मदनं च,इमांच मां च।’
पिता द्वारा सुनाये गये श्लोक की आधी- अधूरी कड़ी को कुछ देर
बुदबुदाते रहा।अर्थ और शब्द के जाल में उलझा रहा।सोच और समझ ने साथ न दिया पूरे
तौर पर।यह सब जो हुआ – क्यों, कैसे ...सब कुछ अस्पष्ट बना रहा।
उधर मीना के आंखों
की बरसात जब थमी,दिलो-दिमाग
कुछ शान्त हुआ जब,तब स्वयं
को यहाँ इस स्थिति में होने पर आश्चर्य करने लगी।
‘गाड़ी यहाँ
क्यों खड़ी किये हो विमल?’
‘कुछ देर
ठंढी हवा का आनन्द ले लूँ,फिर चला जाय।’
‘तो चलो।या
अभी और रूकने का इरादा है?’
‘जैसी
तुम्हारी मर्जी।’-कहता हुआ गाड़ी स्टार्ट कर दिया।
रास्ते भर दोनों
मौन रहे।अपने-अपने धुन में मस्त,खोये हुए से।
मीना सोचने लगी- ‘क्या वह
स्वप्न देख रही थी,याकि उसे नींद आ गयी थी? तो क्या नींद में ही विमल से जा लिपटी? वह भी कैसा है,लिपटा
लिया, लिपटाये
रहा! क्या सोचता होगा वह? कितनी गिरी हुयी लड़की समझा होगा...।’
विमल सोच रहा था- ‘काश! मीना
लिपटी रहती...प्यासे प्यार को दो घूंट और मिल जाते।सच में मीना बड़ी सुन्दर
है।लगता है, अब इसके प्रेम के
जंजीर से निकलना सम्भव नहीं....जरूरत भी क्या है मुक्त होने की? काश इसे अपना बना
लेता,बिलकुल
अपना।वापू कहते थे- मीना के लिए वर तलाशना है।क्या मैं नहीं
हो
सकता- मीना के लिए योग्य वर....?’
इन्हीं
विचारों
में उलझा घर आ गया- प्रीतमपुर।रास्ते भर किसी ने कुछ नहीं
कहा-
एक दूसरे से।
फिर सप्ताह भर गुजर
गये- प्रीतमपुर में।पूरे दिन भाभी के पास ही बैठे रहते दोनों- उसे ही गपशप का माध्यम
बनाकर।विमल परिवार के रेशमी डोर ने काफी तेजी से लपेटा लगाया मीना के प्यार
पर।फलतः उसके हृदय में प्यार का पौधा लहलहाने लगा,जिसका वास्तविक बीजारोपण अज्ञात अवस्था
में ही हो चुका था।
विमल उसे सुन्दर
लगने लगा।एक दिन मौका पाकर कह ही तो दी- ‘विमल तुम सच में ‘विमल’ हो।’
‘मतलब?’- संक्षिप्त सा
प्रश्न किया विमल ने,और आंखें
डाल दी मीना की आंखों में।
‘मतलब यह कि
तुम बहुत ही सुन्दर लगते हो।’- कहती हुयी मीना नजरें झुका ली,मानों यह कह कर बड़ी धृष्टता कर दी
हो।
सुन्दर शब्द ही
अपने आप में सुन्दर है।यदि इसका तगमा किसी को मिल जाय,फिर कहना क्या?नारी जब हसरत भरी
नजरों से देख लेती है,तब अनगढ़
पत्थर के ढोंकों में भी सरसराहट शुरू हो जाती है।कविता की कडि़याँ कुलबुलाने लगती हैं।फिर
पुरुष क्या चीज है- यदि उसकी सराहना कोई सुन्दर नारी कर दे! भोले,मूर्ख पुरुष को दर्पण की भी आवश्यकता
महसूस नहीं होती,क्यों कि मान ही बैठता है- मैं हूँ हीं
ऐसा।
एक दिन मीना ने
कहा- ‘बहुत दिन
हो गये,हमें यहाँ
आए।अब चलना चाहिये।वापू हमारी राह देख रहे होंगे।’
विमल की इच्छा तो न
थी,मीना को
अभी जाने देने की।फिर भी उसकी बात मान,तैयार हो जाना पड़ा।दोपहर भोजन के बाद चल पड़े दोनों। रास्ते
में मौका पा विमल ने छेड़ा- ‘एक बात पूछूँ मीना! बुरा तो न मानोगी?’
‘पूछो,क्या पूछना चाहते हो?’-विमल की ओर
देखती हुयी मीना ने पूछा।
‘प्रेम करना
बुरी बात क्या?’-सशंकित विमल ने पूछा।क्यों कि उसे आशंका थी कि मीना कुछ उटपटांग
जवाब न देदे।
‘बुरा तो नहीं
है।’- नजरें झुकाये मीना
ने कहा- ‘किन्तु समय
और स्वयं का पहचान रखते हुए प्यार करना उचित होता है।’
‘पर यदि
असमय में हो जाए तो? और फिर स्वयं की पहचान का क्या मतलब?’- मीना की झुकी निगाहों का
कारण ढूढ़ते हुए विमल ने पुनः सवाल किया।
‘यदि हो ही
जाय तो सतर्कता पूर्वक पालन होना चाहिए।यह न कि अवांछित प्रेम में लुढ़क जाय,और फिर मधुकरी वृत्ति अपना ले।’
‘मतलब?’
‘मतलब यह कि
प्रेम-विवश यदि दिल दे ही डाला किसी को तो फिर उसी का सम्यक् पालन होना चाहिए, ‘निर्वाह’ नहीं।साथ ही ध्यान
रहे चंचल चंचरीक की तरह इस-उस फूल पर सूढ़ न मारता फिरे।’
‘यदि वह फूल,जिस पर अनजाने भौंरा बैठ चुका हो.दुस्प्राप्य हो तो?’- फिर प्रश्न किया
विमल ने।कारण इन प्रश्नों के माध्यम से ही मीना का हृदय टटोलना था।
‘तुम जानना
क्या चाहते हो? स्पष्ट
क्यों नहीं कहते? क्या किसी के प्यार
में पड़ गये हो,जो
अप्राप्य है तुम्हारे लिए?’-गाड़ी में लगे आइने में विमल का चेहरा देखती हुयी मीना
ने पूछा।
‘ऐसा ही कुछ
समझो।’- विमल ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
‘कैसा?’- इस बार मीना की
नजरें आइने से हट कर विमल के चेहरे पर जा लगी।
‘प्रेम तो
लगभग हो ही गया है।किन्तु आशंका है उसकी पूर्ण प्राप्ति की।’- मुस्कुराते हुए
विमल ने कहा,मीना की ओर
देखते हुए।
‘क्या मैं जान सकती हूँ कि
कौन है वह भाग्यवान जिसने अपने काले कुन्तलों में बेरहमी से बांध लिया तुम्हारे
कोमल कच्चे नाजुक दिल को?’
‘जान सकती
हो।’- विमल ने
स्वीकारात्मक सिर हिलाया।
‘तो जना
दो।देर किस बात की?’
‘जना तो सकता
हूँ।परन्तु....।’
‘परन्तु क्या?’
‘डर लगता है
जताने में।’
‘डर और मुझसे?
किस बात का डर?’
‘और नहीं तो
क्या।क्या तुमसे डरना नहीं चाहिए?’
‘नहीं।बिलकुल
नहीं।निःसंकोच कह सकते हो।तुम्हें इसी बात का डर होगा न कि मैं कह दूँगी किसी से।मैं इतने छिछले पेट की नहीं
हूँ
, जो ढिंढोरा पीटती
फिरूँ तुम्हारे प्यार का।’-मीना ने अपना स्वभाव जाहिर किया।
‘तो कह ही
दूँ? सुनना ही
चाहती हो?’
‘यदि तुम
सुनाना चाहते हो तो सुना डालो चट पट ताकि मैं भी जरा जान तो लूँ कि कौन है वह ऐश्वर्य-शालिनी,जिससे तुम प्रेम करते हो।’-मीना ने
अपनी बात पर जोर दिया।
‘कह
दूँगा।मगर यूँ ही नहीं,बल्कि फीस लेकर।’
‘फीस,कहने की? अच्छा ले लेना,जब यही विचार है।अभी दे दूँ?’-मीना
अपना पर्स टटोलने लगी।
‘नहीं...
नहीं...
नहीं...।मुझे
पैसे नहीं चाहिए।फीस तो लेना है,मगर पैसे नहीं।कुछ अन्य मदद।’- पर्स पकड़े मीना के
हाथ को दबाता हुआ विमल बोला।
‘यदि सम्भव
हुआ तो मदद भी दे दूँगी।यही न कहना चाहोगे कि मैं तुम्हें अपनी प्रेमिका से मिलने-जुलने,बात करने में सुविधा- संयोग जुटा
दिया करूँ।’- मुस्कुराती
हुयी मीना बोली।
‘हाँ,ऐसा ही समझो।लड़की तो तुम बहुत ही
समझदार हो।’
‘समझदार हूँ
या नहीं,पर तुम्हारी तरह बेवकूफ नहीं जो इस-उस से इश्क
फरमाती फिरूँ।खैर,उससे मुझे
क्या लेना-देना।सिर्फ नाम बतला दो अपनी महबूबा का।’
‘नाम? नाम
तो बिलकुल छोटा सा है,बहुत
प्यारा सा।मेरी महबूबा का नाम है....।’
‘हाँ-हाँ
बोलो।हकलाओ नहीं।’-मीना ने कहा मुस्कुराते हुए,किन्तु विमल अभी भी साहस न जुटा पा
रहा था।
‘....मीना।’- धीरे से कहा विमल
ने।
‘मीना? कहाँ की रहने वाली
है?’
‘हाँ,सही सुना तुमने।रहने वाली है माधोपुर
की।’
‘क्या मजाक
करते हो? माधोपुर
में तो मैं
अकेली, एक ही मीना हूँ। हाँ, माधोपुर ही कोई दूसरा हुआ तो और बात।’
‘तो वही
सही।क्या उसी माधोपुर की वही मीना नहीं हो सकती
मेरी ऐश्वर्या?’- मीना के चेहरे को गौर से देखते हुए विमल कह रहा था- ‘तुम ही हो
वह भाग्यशालिनी,ऐश्वर्यशालिनी,जिसने चुरा लिया है मेरे अल्हड़ दिल
को।वैसे मैंने तो इसे
बहुत ही हिफ़ाजत से रखा था,पर चोरी हो गयी।अब भला चोरों का भी कोई हिसाब कितना रखे?’
मीना की बड़ी-बड़ी श्यामल पलकें शर्म
के बोझ से झुक आयी थी कपोलों की ओर।आज उसके प्यार का इज़हार हो गया।विमल ने स्वयं
ही स्वीकारा है।पर
क्या वह भी उसके प्यार का प्रत्युत्तर दे पाने में सक्षम है?’
शायद नहीं।
मीना
सोच रही थी- वह गरीब है।गंवार सी है। देहातन है।वह क्या जानने गयी- प्यार
व्यार।उसे तो उसी से प्यार करना है,जिसके हाथ में उसका वापू - गरीब वापू हाथ सौंप दे।
‘यदि यह सही
है कि तुम माधोपुर के मीना से प्यार करते हो तो समझो कि तुम्हारा प्यार
दुष्प्राप्य है।मुझे खेद है कि मैं इस मामले
में तुम्हारी कुछ भी मदद नहीं कर सकती।’-संकुचित
मीना ने स्पष्ट कहा।
‘दुष्प्राप्य
ही तो? अप्राप्य तो नहीं??’
‘अप्राप्य
भी कह सकते हो।प्यार का कदम बढ़ाने से पहले तुम्हें
सोच
समझ लेना चाहिए था।तुम्हें जानना चाहिए कि
समस्तरीय प्रेम ही सफल हुआ करता है।पर तुममें और मुझमें कोई साम्य है? तुम कहाँ महत्त
सेट्टि परिवार के होनहार,और मैं फूस की झोपड़ी में रहने वाली भिखारिन।फिर कैसे सम्भव है
ये जमीन-आकाश का
मिलना?’
‘काश! ‘प्रेम, कोशिश-प्रयास करके ‘किया जाने’ वाला कोई वस्तु
होता, तब मैं भी खुद को दोषी मानता।वैसे भी, असम्भव शब्द अभी तक मैं अपनी डिक्शनरी में ढूढ़ नहीं
पाया
हूँ।अतः तुम इसे सम्भव ही समझो।एक बार,बस एक बार साहस करके पापा से कहने भर की देर है।वे कभी टाल नहीं
सकते
मेरे प्रस्ताव को। जानती ही हो कि वे मुझे कितना प्यार करते हैं।’- अपने विश्वास पर
जोर देते हुए विमल कहने लगा-‘और जहाँ तक प्रेम
के सम्बन्ध में स्तर-समानता की बात तुम करती हो,मेरे ख्याल से यह बकवास है।‘स्तर’ एक सामाजिक
व्यवस्था भर है,कुछ बहुत
गहरी बात नहीं। गहरे अर्थ में इसका कोई महत्त्व नहीं।वस्तुतः प्रेम आत्मिक धरातल
पर उपजा हुआ पौधा है,जितना ही दिव्य होगा ऊपर की ओर उठता जाएगा।प्रेम अति पवित्र
है।सभी सीमाओं से मुक्त है।और ये सीमायें तो जमीन पर बनती हैं।’-मीना के हाथ को
विमल अपने हाथ में लेकर कहने लगा-‘मीना! मुझे तुमसे
प्यार है।आवश्यक है- सिर्फ तुम्हारी स्वीकृति।बोलो- तुम्हें स्वीकार है? मेरा प्रणय निवेदन
स्वीकार है तुम्हें?’
बुत्त बनी मीना
सामने देखती रही।विमल की बातों का कुछ भी जवाब न दे पायी।उसके माथे को फिर एक झटका
सा लगा।विमल कहता रहा था।पर सही रूप से वह उसकी बातें सुन भी न पा रही थी।विमल का
चेहरा धीरे-धीरे धुंधला होता नजर आ रहा था मीना को।इधर कुछ दिन से अजीब सा झटका सा
लग रहा था उसे। उस दिन भी कुछ ऐसे ही दौर में वह लिपट पड़ी थी विमल से। आज भी कुछ
वैसा ही लग रहा है।अतः सम्हलने,समझने का प्रयास कर रही थी।थोड़ा बांयीं
ओर
झुक कर गाड़ी की खिड़की पर सिर टेक,ताजी तेज हवा का लाभ लेने का प्रयास करने लगी।क्यों कि भीतर
से अजीब सा लग रहा था।दम घुटता हुआ सा महसूस हुआ।आँखों को पोंछ कर बार-बार यह
जानने का प्रयास करने लगी कि विमल का चेहरा धुंधला क्यों होता जा रहा है।
पर सफलता न मिली
उसे।चेहरा धुंधला होते-होते अचानक लुप्त हो गया। विमल के स्थान पर एक अन्य
अपरिचित-परिचित चेहरा दीख पड़ा- अपना सा,विलकुल अपना सा।अपनत्व ने इतना खींचा कि जी
में आया कि लपक कर उसकी गोद में चली जाय।समा ले उसे अपनी भुजाओं में।बांध ले
सर्पिणी सी कस कर- उस बलिष्ठ देह को।
तभी विमल ने झकझोर
दिया- ‘मीना! क्या
सोच रही हो? बोलो न
मीना। जबाब दो मेरी बातों का।’
मीना ने आँखें
खोली।उसने देखा- धीमी गति से रेंगती कार के स्टीयरिंग-
व्हील पर माथा टेके,कातर कंठों से विमल कह रहा है, उसके कंधे को झकझोरते हुए।उसे ध्यान आया- वह
जा रही है- अपने घर,वापू के
पास।विमल उसे पहुँचाने जा रहा है।वह पूछ रहा है।कुछ जानना चाह रहा है।पर आवाज निकल
नहीं रही है गले से। फेफड़े धौंकनी की भूमिका में हैं।सीने पर हाथ रख,जोरों से दबाती है। फिर कातर दृष्टि
से विमल की ओर देखती हुयी पूछती है- ‘क्या है विमल? क्या पूछ रहे हो?’
‘अरे! भूल
गयी मेरी बात को?
कहाँ
खो जाती हो?’-उसकी
ठुड्डी
पर हाथ रख,थोड़ा ऊपर
उठाते हुए विमल ने कहा।
‘कहीं
तो
नहीं।’-संक्षिप्त सा उत्तर दी मीना।
‘फिर बतलाओ
न।’
‘क्या?’- चौंक कर पूछा मीना
ने।
‘तुम मुझसे
प्रेम करती हो? शादी करोगी मुझसे?’- आशान्वित विमल फिर उसे गौर से देखने लगा,मानों चेहरे पर बन रहे हर भावों के
बिम्ब को पढ़ लेने का प्रयास कर रहा हो।
‘यह अति
विचारणीय प्रश्न है विमल।प्रेम जैसे महान,शादी जैसे पुनीत प्रश्न का उत्तर इतना जल्दी नहीं
दिया
जा सकता।कहूँगी।समय पर कहूँगी।अवसर दो मुझे इस गम्भीर विषय पर थोड़ा सोचने का। तब
तक तुम स्वयं को भी तौल लो।परख लो।कहीं धोखा न हो
जाए।’-कहती हुयी मीना ने अपनी आँखें बन्द कर ली।सामने कारनेट पर सिर टिका दी।
‘मुझे तौलना
नहीं है फिर से।मैं तो तौल
चुका हूँ स्वयं को उसी दिन तुम्हारे वक्ष के तराजू पर सिर रख कर।भावी ‘ईलेक्ट्रोनिक
बैलेन्स’ से भी
सूक्ष्म परख हो गयी है मेरे प्यार की।’- फिर जरा ठहर कर विमल ने पुनः कहा- ‘सच बतलाओ
मीनू! क्या तुम मुझसे प्रेम नहीं करती? और यदि करती हो तो
फिर तौलने-तौलाने की बात क्यों करती हो? मैं तो तब से ही तुम्हारे प्रति प्रेम को अपने हृद्पीठिका पर
उच्चासीन कर उपासते आया हूँ ,जब कि ठीक से ज्ञात भी नहीं
था
कि प्रेम-प्यार होता क्या है? किया किसे जाता है? किया कैसे जाता है?’-
कहता हुआ विमल अतीत के दरीचे में झांकने लगा
था- ‘उस बार
बीमारी की अवस्था में तुम मेरे यहाँ महीनों रही थी।उस समय काफी मौका मिला था-
तुम्हारे साथ रहने का।तुझे भी शायद याद हो- तुम पानी मांगी थी।गिलास से पानी जब मैं दे रहा था,तुम अपने ही हाथों अपना सिर दबा रही
थी।मैंने पूछा
था- मीना! दर्द हो रहा है सिर में? तुमने ‘हाँ’ कहा था- मुंह से नहीं,सिर
हिला कर सिर्फ।पानी पिला,गिलास नीचे
रख,मैं बैठ गया था
तुम्हारे समीप ही विस्तर पर, तुम्हारे
सिर को अपनी गोद में लेकर।तुम संकोच से आंखें बन्द किए हुए थी....।’- विमल कहता जा
रहा था।मीना अपलक निहारती रही उसके मुखड़े को।गाड़ी अपनी रफ्तार खो चुकी थी,क्यों कि एक्सीलेटर का दबाव शिथिल
पड़ चुका था।
‘...शायद तुम्हें
अच्छा न लग रहा था,मुझसे सिर
दबवाना। परन्तु दर्द से परेशान होने के कारण ना भी न कर पायी थी।मैं आहिस्ते-आहिस्ते दबा रहा था तुम्हारे सिर
को।थोड़ी ही देर में तुम्हारा दर्द मानों छू मन्तर हो गया था।आँखें मूंद ही नहीं
गयी
थी,बल्कि
नथुने के स्वर स्पष्ट करने लगे थे कि तुम गहरी नींद में सो चुकी हो।यकीन के लिए मैंने एक दफा पूछा भी- मीना! दर्द कैसा
है?’
‘....किन्तु तुमने
कुछ कहा नहीं।मैं
पूर्ववत
बैठा ही रहा।कारण, तुम्हें आराम
मिलता देख मुझे भी अपूर्व शान्ति मिल रही थी।शान्ति- एक
अद्भुत सुखद शान्ति .....।’
‘....पर कभी-कभी शान्ति ही अशान्ति
का कारण बन जाती है।सृष्टि से ही विनाश का भी बीज सृजित हो जाता है।अचानक लगा कि
मेरे रगो में रक्त संचार तीब्र हो रहा है।मुझे क्या हो रहा है- उस दिन मुझे कुछ
पता न चला था,पर जो भी
हो रहा था- बहुत ही अच्छा लग रहा था।इच्छा हो आयी थी- क्यों न तुम्हारे कपोलों की
सुर्खी को चुरा लूँ थोड़ा मैं भी।यह सोच
कर इधर- उधर देखा।समय दोपहर का था।सभी जहाँ के तहाँ आराम फरमा रहे थे।मैंने आहिस्ते से अपने होठ बिठा दिये
तुम्हारे सुचिक्कन गालों पर।किन्तु इतने से ही सन्तोष न हुआ। अशान्ति और बढ़
गयी।फलतः एक पायदान और आगे बढ़ा- ओड़हुल की पंखुडि़यों की तरह रक्ताभ लुभावने
अधरोष्ठ,जो विपरीत
धन्वां सी आसीन थी तुम्हारे मुख- सरोज पर,रख दिया अपने फड़कते होठ को।तभी पहरेदार सजग
हो गया।भयभीत सा हो, मैं सम्हल कर बैठ गया।’
‘कहते हो तो
याद आ रही है।’-विमल की बातों से मीना भी अतीत में पहुँच गयी- ‘उस दिन तो
छोटी सी थी।अब से कोई ढायी-तीन साल पहले की बात है।दर्द में राहत पा आँखें जा लगी
थी,तब तुमने
ही वैसी हरकत की थी- याद आ गयी,अब मुझे भी। पर
तुम्हें शायद अच्छा लगा हो उस दिन के चुम्बन का स्वाद,किन्तु मुझे....।’
‘स्वाद’ सिर्फ अच्छा ही नहीं
लगा
था मीनू!’- बीच में ही
विमल बोल उठा- ‘बल्कि तब से ही,सच पूछो तो उस स्वाद का,उस परिमल का गुलाम सा हो गया।’
‘इतने छुटपन
से ही तुम्हें प्यार का स्वाद मिल गया था?’-मीना साश्चर्य पूछी।
‘नहीं
मीनू
! उस दिन तो सिर्फ अच्छा लगा था।पर अब धीरे- धीरे उसका अर्थ स्पष्ट होता जा रहा
है।और प्रसुप्त प्रेम-भ्रमर उस परिमल के लिए बेचैन हो रहा है।वय ने बतला दिया,पहचनवा दिया कि उस दिन जो चखा था
तुमने,वही है-
प्रेम-प्रसून का अमीयरस। फलतः भौंरा मचल रहा है,चखने के लिए,उस चिर परिचित पराग को...जवाकुसुम के
मधु रस को......।’
‘मैंने भी चखा है,जवाकुसुम के ही मधुरस को,और साथ ही उसमें छिपे बैठे विष-कीट
के घातक दंश को भी।’- मीना मुस्कुरा कर बोली।
‘मतलब?’-आश्चर्य-चकित
विमल ने पूछा।
‘वापू ने
जवाकुसुम लगाया था आंगन में।मैं रोज उसके खिले फूलों को तोड़-तोड़ कर मधुरस-पान किया करती
थी।एक दिन उसमें बैठा विष-कीट मेरे होठों का ऐसा चुम्बन लिया कि तीन दिनों तक मेरा
चेहरा देखने लायक रहा,और दंश की
याद तो आजीवन रहेगी।’
‘किन्तु यह
भौंरा वैसा नहीं है।फूलों का नुकसान भरसक नहीं
ही
होने देना चाहता।क्या कहूँ मीना,नादान बालक की तरह मचलते दिल को मैंने बहुत बरजा। वह मान भी गया था;किन्तु
उस दिन तुमने स्वयं ही तो जगा दिया फिर से, सोये नटखट शिशु को- अमीय बारी बून्दों की
मधुर फुहार डाल कर।’-जरा ठहर कर विमल ने कहा-‘
काश!
वह क्षण जरा और ठहर गया होता....।’
वह कह रहा था कि
बीच में ही मीना टोक दी- ‘उस दिन की हरकत के लिए मैं स्वयं ही शर्मिन्दा
हूँ विमल।न जाने कब आँखें लग गयी थी;और नींद में तुम्हारी ओर लुढ़क पड़ी थी शायद।’
मीना की बात पर जोरों से हँस पड़ा
विमल- ‘वाह रे
तुम्हारी योग-निद्रा...
...वाह! कितनी देर पड़ी रही मेरी बाहों में,कितनी बार चूमी मेरे होठों को।कितनी
बार मैंने
तुम्हारे प्यार का प्रत्युत्तर दिया....और कहती हो कि नींद में थी। अरे मेरी मीना
रानी! प्यार ही किया है तूने जब,तब एतराज क्यों इसे स्वीकारने में?’
हाथ आगे बढ़ा कर
मीना के कपोलों को छू लेना चाहा,पर वह थोड़ा अलग हट गयी; और रोष पूर्वक कहा
उसने- ‘क्या बकते
हो? यह गलत कह
रहे हो। ऐसा मैंने कब किया
है? अनावश्यक मुझ पर आरोप लगा रहे हो।यह सच है कि तुम मुझे अच्छे लगते हो।मैं तुम्हें चाहती भी हूँ।किन्तु इसका यह अर्थ
तो न हुआ कि व्यभिचारिणी की तरह तुम्हारे आगे अपने दिल की झोली पसार कर प्यार की
भीख मांगूँ? अभी उमर ही
क्या हुयी है जो इतना बेताब होकर प्यार के लिए तड़तने लगूँ?’
मीना रोष में बकती
रही।मन की भड़ास निकालती रही।परन्तु उसके रोष में भी विमल को तोष ही मिल रहा
था।कारण कि मीना उसके अहं प्रश्न का सही उत्तर सच्चाई पूर्वक स्पष्ट रूप से दे
चुकी थी।उसे जो जानना था,वह सहज ही
स्वीकार कर गयी।अतः हँसने लगा मीना के भोलेपन पर।
किन्तु मीना बेचारी को सन्तोष और
विश्वास कैसे हो जाय, विमल की बातों पर? वह
सोचने लगती है- ‘जो कुछ भी कह रहा है विमल,क्या मैं ऐसा कर सकती हूँ? मानसिक रूप से...मौन रूप
से...छिप-छिप कर तो ठीक...पर क्या इतनी बेशर्मी से,इतनी बेहयाई से.....?’- घबरायी हुयी सी
मीना पुनः सोचने को विव्य होती है-
‘....तो क्या अन्तः आलोड़ित
प्रेम,चेतन से जब
पूरा न हुआ तो अचेतन को माध्यम बनाया,परितृप्ति का? यह कैसे सम्भव है?...विमल कहता है कि मैं नींद में नहीं,बल्कि
पूरे होश में थी उस दिन...ओफ! क्या हो रहा है यह सब? क्या होता जा रहा
है मुझे? विमल के कथन में कहाँ तक सच्चाई है...हे भगवान! मुझे शक्ति दो परख सकने
की स्वयं को....।’
मीना पागलों सी बड़बड़ाने लगी।सिर धुनने
लगी।विमल भौंचंका,उसका मुंह
ताकने लगा।उसे समझ न आ रहा था कि यह सब क्या पहेली है।
‘क्या सच
में मीना उस दिन नहीं लिपटी थी? क्या मुझे ही धोखा
हुआ? पर नहीं,धोखा कैसे कहूँ?’- विमल विचारमग्न हो गया।
अचानक ध्यान आया
गाड़ी की गति का- ‘यह क्या, घंटे भर में मील भर भी नहीं? खैर कहो कि
देहात की सूनी सड़क....।’
गाड़ी रफ्तार पकड़ी।फिर भी माधोपुर
पहुँचते-पहुँचते सूर्य अस्ताचल जाने को उतावले हो गये।और उतावला,थोड़ा विमल भी दीखा।
‘काफी देर
हो गयी है।आज रात यहीं ठहर जाओ न।उस बार
भी कहती रही थी,किन्तु
रूके नहीं।’- गाड़ी से
उतरती हुयी कहा मीना ने।
‘नहीं
मीनू!
परसों ही कॉलेज खुल रहा है।कल हर हाल में चले ही जाना चाहिए।’- विमल ने असमर्थता
जातायी।
गाड़ी की आहट सुन
तिवारी जी बाहर निकल आए- ‘वाह,आ गए तुम लोग?’
‘आ तो गयी,पर विमल तुरत जा रहा है।’- मीना ने तिवारी जी
की ओर देख कर कहा।मानों उलाहना दे रही हो।
‘क्यों? अभी आए,अभी ही जाने भी लगे? शाम हो गयी
है।दिक्कत क्या है? रूको आज रात।’- तिवारी जी ने आग्रह पूर्वक कहा।
‘नहीं
वापू!
मैं कह चुकी पहले ही,किन्तु कहता है कि कॉलेज खुल रहा
है।जाना जरूरी है।’
मीना की बात पर
ताड़ गये तिवारी जी- ‘वाह! क्या तुम्हारे कॉलेज में गर्मी
की छुट्टी सिर्फ पन्द्रह दिनों का ही होता है?’
‘नहीं
वापू!
वस्तुतः कॉलेज खुलने में अभी देर है,किन्तु स्पेशल क्लासेज परसों से ही शुरू हो रहे हैं।फॉर्म भी भरना है।पार्ट वन की
परीक्षा इसी बार तो देनी है।अतः पढ़ाई पर ध्यान देना जरूरी है।’- कहता हुआ विमल
तिवारी जी का आग्रह स्वीकार कर अन्दर आ गया।मीना पहले ही जा चुकी थी।
थोड़ी देर में मीना
चाय और कुछ नमकीन लाकर रख गयी।चाय की चुस्की लेते हुए विमल ने कहा- ‘तब वापू, कैसी रही आपकी वरदण्ड यात्रा? कहाँ-कहाँ घूमे?’
‘रहेगी कैसी। आज के जमाने में
बेटी का ब्याह करना चाँद पर चढ़ाई करने से कम थोड़े जो है।’- चाय की घूंट भरते
हुए तिवारी जी कहने लगे- ‘उस दिन तुमलोगों के जाने के बाद,मैं चला गया
था-प्यारेपुर,निर्मल ओझा
के यहाँ।साथ में पदारथ भाई भी थे।पर क्या कहें, जन्मान्ध का नाम ‘नयनसुख’ रख
दिया गया हो,वैसा ही
महसूस हुआ। नाम है- निर्मल ओझा,और गुण- ‘मलबोझा’।’
तिवारीजी की बात पर
विमल ठठा कर हँस पड़ा।दीवार की ओट में खड़ी, जिज्ञासु मीना मुंह में दुपट्टा दबा
उन्मुक्त हँसी पर कर्फ्यू लगाने का विफल प्रयास करती रही।
तिवारीजी कह रहे
थे- ‘हाँ बेटे!
ठीक कह रहा हूँ।पहुँचते के साथ ही न तो पारम्परिक मर्यादा पूर्वक लोटे में पानी
आया,और न
पादुका।फिर जलपान की कौन कहे।स्वागत की अभागी अर्वाचीन पद्धति- चम्मच भर दूध-चीनी
और जंगली पत्ती का काढ़ा भी नसीब न हुआ।’
‘अच्छा,तो कम से कम चाय भी नहीं
पिलायी
महानुभाव ने?’
‘बतुहारी
परम्परा में चाय भी अब पुरानी पड़ गयी है।शहरों में तो गैस भी समय पर नहीं मिलता।देहात में धुआँ-धुक्कुड़ का जहमत कौन उठाये।अतः स्वागत में पेश
हुआ लम्बा सा ‘कोश्चनायर’ यू.पी.एस.सी.
कम्पीटीशन की तरह- ‘‘लड़की कितनी पढ़ी-लिखी है? गोरी है या काली ? लम्बी है या नाटी? मोटी है या पतली? ऊँचाई कितनी है ? कमर कितनी है ? आँखें बड़ी हैं या छोटी ?गर्दन लम्बा है या ठैंचा? नाक
पंजाबियों जैसी ज्यादा लंबी और ऊँची तो नहीं
है? दोनों नाक तो नहीं
छेदवा
ली है? चेहरे पर कोई तिल-मस्सा तो नहीं
है ?होठ पतले हैं या मोटे ? आवाज मोटी है या
पतली? गीत गौनयी
जानती है या नहीं ? उपन्यास,रेडियो पत्रिका आदि का शौक रखती या नहीं
?
सिलाई,कढ़ाई,बुनाई जानती है या नहीं
?
यह-वह, न जाने क्या-क्या
अल्लम-गल्लम सा सवाल। और सब कहने के बाद विरक्ति जताया श्रीमान जी ने- ‘देखिये
तिवारी जी,सच पूछिये
तो हमें क्या वास्ता इन सारी बातों से ? किन्तु आप जानते ही हैं कि आजकल के लड़के
कितने....हाँ,एक बात और
जो विशेष ध्यान देने योग्य है,वह यह कि मैं तिलक-दहेज
का सख्त विरोधी हूँ।अभी हाल में ही हमलोगों ने एक सम्मेलन किया था,जिसमें शपथ लिया गया है- दहेज
उन्मूलन का।मैं ही उस समिति का
महामंत्री हूँ।हमलोगों की योजना है,इस आन्दोलन को राष्ट्रव्यापी बनाने का....।"- -ओझाजी
कहते जा रहे थे,मैं हाँ-हूँ करता जा रहा था।’- तिवारीजी ने कहानी
दुहरायी विमल से।
‘वाह! क्या
खूब फरमाया ओझाजी ने।’-विमल ने टिप्पणी की।
मायूसी पूर्वक तिवारी जी ने आगे कहा-
‘अभी कुछ और
सुनो,ओझा जी की
सुक्तियाँ- ‘‘देखिये तिवारीजी,आज हमारे समाज में दहेज कोढ़-सा रूप
लेलिया है।अतः किसी संक्रामक बीमारी की तरह,इस जानलेवा प्रथा का भी समूल नाश जरूरी
है।आवश्कता है मात्र,कुछ
राष्ट्रभक्त समाज सेवी कर्मठ ईमानदार साहसी समाज सेवियों की।मैंने तो कशम खा ली है- दहेज एक पैसा भी
न लेने की।’- हाथ में
जनेऊ लेकर शपथ ग्रहण की मुद्रा में कहा था ओझा जी ने।उनकी बात से कुछ ढाढ़स
बंधी।मन ही मन श्रद्धा सी उमड़ आयी। ओझा जी ने आगे कहा-‘‘दरअसल पैसा
तो हाथ का मैल है।इसे लेना न लेना बराबर।क्या होगा चंचला लक्ष्मी को लेकर? लेकिन रह गयी बात,सामाजिक मान मर्यादा की।आप जान ही
रहे हैं कि समाज
में कितनी प्रतिष्ठा है मेरी।वारात में गांव के चौधरी से लेकर जिलाधिकारी तक शामिल
होंगे।दारोगा और बी.डी.ओ. की तो गिनती ही नहीं।अब जरा सोचिये न....इन प्रतिष्ठित
पदाधिकारियों की प्रतिष्ठा का ध्यान तो रखना ही होगा न? इनसे रोज-रोज का
सरोकार है।उन्हें आराम से लेजाने, ठहरने,खाने- पीने,सोने और साथ-साथ...समझ ही गये होंगे- कुछ
मनोरंजन का साधन भी मुहैया करना ही होगा।रोज-रोज आपके दरवाजे पर थोड़े ही जायेंगे।"- इत्मीनान से बैठते
हुए आगे कहा था उन्होंने - ‘‘एक बात और रह जाती
है,ध्यान देने
की- मैं न विरक्त
हूँ,किन्तु
लड़का...वह तो कुछ चाहेगा ही, खैर वह तो
आपका परिवार ही हो जायेगा।उसकी खुशी-खयाली का ध्यान रखना तो आपका काम होगा।मैं क्यों सर खपाऊँ।फिर भी जानकारी दिये दे रहा
हूँ- वैसे हमारा लड़का बिलकुल भोला-भाला है।आज की दुनियाँ में फिजूलखर्ची से कोसों
दूर।फिर भी आखिर लड़का ही ठहरा।साथी-दोस्तों को देख कर कुछ तो शौक हो ही जाता
है।कह रहा था कि सूट-बूट,घड़ी,अंगूठी, रेडियो-रेकॉडर,यह सब तो आम बात है।इतना तो लोग अपने
मन से दे ही देते हैं।मांगने की
क्या जरूरत।बस एक अच्छा सा टेलीवीजन दे देते, अभी तो इस पूरे इलाके में रेडियो भी बहुत
घरों में नहीं है।दूसरी बात यह कि पेट्रोल बहुत
मंहगा हो गया है।गाड़ी है जिनके यहाँ,वे भी बहुत कम ही चढ़ते हैं।अतः उसकी जगह सस्ता सुविधा वाला कोई
अच्छा सा मोटर सायकिल ही दे देते...बस, लड़के की
तरफ से हमें और कुछ नहीं कहना है।जेवर वगैरह
तो आप अपने ढंग से बनवा ही लीजियेगा,लड़की के पसन्द का।’
इसके साथ ही निर्मल
ओझा का अनन्तसूत्री मांगपत्र पूरा हुआ,तब कहीं जाकर,पदारथ ओझा को बोलने का मौका मिला।सिर
हिलाते हुये कहा उन्होंने- ‘हाँ-हाँ,युग के अनुसार तो चलना ही चाहिये,नहीं
तो
जगहशायी का भी तो खतरा है।रॉकेट युग में भी पदयात्रा का क्या तुक? तिस पर भी कोई खास
मांग तो है नहीं आपका।खैर, कुण्डली दे देते तो हमलोग गणना विचार कर फिर
आपकी सेवा में उपस्थित होते।’
‘सो तो दे
ही दूँगा।कुण्डली विचार तो अति आवश्यक है।अभी हम लोग इतने आधुनिक नहीं
हुये
हैं कि इस परम्परा को
तोड़ दें।जिस प्रथा में सामाज का नुकशान
है,उसे तो
जड़-मूल से उखाड़ने का बीड़ा हमसब उठा ही लिए हैं।अब लीजिये न प्रसंग वश याद आ गयी-
वैदिक काल में भी कन्या को ‘दुहिता’ कहा जाता था।यानी
कन्यायें अपने पिता का दोहन करने वाली होती हैं।मैं इस कलंकपूर्ण संज्ञा को सदा के लिए समाप्त
कर देने को कृतसंकल्प हूँ।अतः दहेज का प्रबल विरोध करता हूँ।’- जरा ठहर कर ओझा जी
ने आवाज लगायी थी,अपने छोटे
बच्चे को,कुण्डली
वाली कॉपी ले आने को।
‘थोड़ी देर
बाद,कुण्डली
लेकर पिंड छुड़ाया था हमलोगों ने उस कलयुगी दूत से।’- कहा तिवारी जी ने- ‘
हालाकि
शाम हो गयी थी,फिर भी चल
देना ही उचित लगा।कौन जाने,जिस महापुरुष ने पानी तक भी नहीं
पूछा,रात्रि भोजन का क्या भरोसा ?अतः चल
ही दिया।देर रात पहुँचा उधमपुर।रात वितायी- पदारथ भाई के यहाँ।’-तिवारीजी
लम्बा-चौड़ा किस्सा सुना गये।विमल एकाग्रचित्त होकर
उनकी बातें सुनता रहा था,हाथ में चाय का खाली प्याला लिए,मानों अक्षत-पुष्प के वजाय प्याला ही हो
निर्मल-पुराण का साक्षी-स्वरूप।
‘प्याला
पकड़े ही हुए हो अभी तक?’- मुस्कुराते हुए जब कहा तिवारी जी ने तब झट प्याला रख
दिया उसने खाट के नीचे, और उठ खड़ा हुआ हाथ
जोड़कर- ‘अच्छा तो
अब आदेश दीजिये जाने का।’
‘आदेश?’- चौंक कर कहा
तिवारीजी ने।कारण कि ‘पुराण कथन-श्रवण में समय
इतना गुजर गया था कि वापस जाने का प्रश्न ही नहीं
उठता
था।कथा समाप्त जान कर मीना भी बाहर आगयी थी।
‘अब क्या
ढकोशला कर रहे हो घर जाने का? यह भी कोई वक्त है, वापस जाने का?जाना ही था तो उसी समय क्यों नहीं
चले
गये थे, बिना चाय-वाय पीये
? तुम्हारे यहाँ इतने दिन रहती हूँ और एक रात में ही तुम्हारी......?’- मुस्कुराती हुयी
मीना ने मीठे उलाहने दिये।
‘...नानी मरती है।’- धीरे से भुनभुनाया
विमल ने और पलट कर तिवारी जी की ओर देखने लगा।उन्होंने भी मीना की बातों का समर्थन
किया सिर हिला कर,और लोटा
उठा बाहर निकल गये- सायं शौच हेतु। इधर निराला पाकर विमल को भी चुटकी लेने का अवसर
मिल गया।
‘एक क्या,हजारों रात रह सकता हूँ-तुम्हारे
यहाँ।पर यूँ हीं छूंछाछूंछा?’-कहता हुआ विमल जोरों से
हँस पड़ा,जो दूर
जाते तिवारीजी के कानों को भी
गुदगुदा गया,और किसी कल्पना लोक में ढकेल गया।विमल की हँसी में प्रणय की
चुस्की का पुट था,जिसका आशय समझ कर मीना ने शर्म से पलकें
झुका ली।
‘अच्छा,गुजारते रहना हजारों रात।एक का
ठिकाना नहीं, और हजारों की सोचने लगे।’- कहती हुयी मीना
रसोई की ओर जाने लगी,जहाँ
चूल्हे पर सब्जी चढ़ा आयी थी।
‘प्यारेपुर
वाला लड़का क्या करता है,तुम्हें
कुछ पता है मीना?’- मौका पा विमल ने फिर छेड़ा।
‘मुझे क्या
पता,वह क्या
करता है।’-झुंझला कर मीना ने कहा।
‘क्यों
फिजूल का परेशान कर रही हो वापू को मीनू? कहो तो मैं आज ही आवेदन प्रस्तुत कर दूँ।आज ही प्रस्ताव
रख दूँ।इजहार कर दूँ।’
‘तुम्हें जो
करना है,करो।हमसे
क्या इज़ाज़त लेना?’- सब्जी चलाती हुयी मीना बोली- ‘तुम पर तो
प्यार का भूत सवार हो गया है।’
‘और तुम्हें
नींद में,मदहोशी में
लिपटने का.......?’-विमल आगे
कुछ कह न पाया,क्यों कि
तिवारी जी के खाँसने की आवाज निकट जान पड़ी,फलतः दोनों चैतन्य हो गये।मीना रसोई के अन्य
काम में लग गयी।
तिवारीजी और विमल
बाहर सहवान में बैठ गये।विभिन्न विषयों पर चर्चा चल पड़ी,और तब तक चलती रही जब तक मीना ने
रात्रि भोजन के लिए उन्हें आहूत न किया।
भोजन पर बैठते हुए
तिवारीजी ने विमल से पूछा- ‘फिर इधर कब तक आओगे?’
‘देखें कब
तक आ पाता हूँ।अभी कुछ दिन और क्लास चलेगा।फिर, प्रीपरेशन लीभ में भी वहीं
रह
कर पढ़ाई करने का विचार है,क्यों कि घर पर पढ़ाई-लिखाई ठीक से हो नहीं
पाती।आगे
जब तक परीक्षा समाप्त नहीं हो जाती,घर आना सम्भव नहीं
लगता।’- विमल ने कहा।
‘खैर,आते रहना चहिए।मिलते-जुलते रहने से
सम्पर्क-सूत्र की तानी-भरनी बनी रहती है।’- भोजन प्रारम्भ करते हुए कहा तिवारीजी ने।
भोजनोपरान्त भी काफी
देर तक इधर-उधर की बातें होती रही, कुछ विमल
के वर्तमान और भविष्य के विषय में कुछ मीना के सम्बन्ध में।इसी क्रम में तिवारी जी
ने अपनी चिन्ता व्यक्त की।
‘देखें, मीना का भाग्य-पट कब खुल पाता है।निर्मल ओझा
जैसे धन-लोलुपों से तो दुनियाँ भरी पड़ी है।हर कोई दोहरे व्यक्तित्त्व वाला
है।हाथी के दांत की तरह, मानव व्यक्तित्त्व
का मुखौटा पर मुखौटा चढ़ाये हुए है। बाहर कुछ,भीतर कुछ।आज हर इनसान त्रस्त है।कहीं
सुख-शान्ति
नहीं चाहे वह राह का भिखारी हो या करोड़पति....खैर, ऐसी ही दुनियाँ में किसी तरह रहना ही है.....।’
तिवारीजी अपने धुन
में मस्त थे।दुनियाँदारी पर व्याख्यान झाड़े चले जा रहे थे।किन्तु इधर विमल का
अन्तर मन कुरेद रहा था।उसे बारबार इच्छा हो रही थी- कह देने की,हल कर देने की तिवारीजी की
समस्या।उसका मन कह रहा था,व्याकुल हो रहा था- प्रकट होने को- कह दो, कि विमल मीना से प्यार करता है।वह शादी के
लिए तैयार बैठा है।उसे दौलत नहीं चाहिए।उसे चाहिए
सिर्फ तिवारी जी का स्नेह पूर्ण विश्वास और मीना का विश्वास पूर्ण स्नेह।
विमल सोचता
रहा।अपने मन से संघर्ष करता रहा।पर कह न सका। बातों ही बातों में तिवारी जी को नींद
आ गयी,पर विमल
सारी रात करवटें ही बदलते रहा।लड़ता रहा- अपने आप से।यहाँ तक कि सबेरा हो गया, और मुंह-हाथ धोकर, चाय पीकर, चल देना पड़ा अपने घर; बिना कुछ जाहिर
किये ही।
विमल चला गया सो
चला ही गया।परिस्थियों ने निकट क्या, लम्बे
भविष्य में भी आने का अवसर न दिया।
समय चलता रहा।घड़ी
की टिक-टिक की नौकरी बजाता रहा,बन्धुये मजदूर की तरह।एक...दो...तीन कर मास ही नहीं
वर्ष
भी गुजर गये। सूर्योदय होते रहे।सूर्यास्त भी होते ही रहे।जाड़ा-गर्मी और बरसात का
क्या कहना,उसे तो
होना ही था।पतझड़ ने पत्र-दान दिये,वसन्त ने किसलय का अनुदान भी पाया।
मीना उच्चत्तर
माध्यमिक की परीक्षा, प्रथम श्रेणी में
भी काफी अच्छे अंक प्राति के साथ उत्तीर्ण की।चुपके से,धीरे-धीरे पांव दबा कर आने वाला यौवन
अब उसके सीने पर आकर कलियनाग सा फन फैला,फुफकारने लगा,जो पल भर में ही किसी भोले युवक को
डस कर मदहोश करने में पूरी तरह कामयाब है।
तिवारी जी अपनी शैक्षिक
सेवा से अवकाश पा निराश हो,घर बैठ गये।इस बीच उनकी कई जोड़ी जूतियाँ ‘वरान्वेषण
यज्ज्ञ’ में आहूत हुयी। किन्तु फलावाप्ति न हुयी।अधिकांशतः आड़े आया- दहेज
दानव।तिवारी के दिल का नासूर रिसता रहा- पक्के घड़े के रन्ध्रों की तरह।पर उनमें शीतलता
कहाँ थी,जो मीना के
यौवन को तृप्त कर सके।
मीना की पढ़ाई को स्कूल से आगे कॉलेज
तक पहुँचाने हेतु निर्मल उपाध्याय जी ने कई बार सुझाव दिये- ‘क्यों
तिवारीजी,मीना बेटी
की शादी के लिए जितना चिन्तित और प्रयास रत हैं,उतना आगे की पढ़ाई
पर क्यों नहीं विचार करते?’
किन्तु,समाजिक मर्यादा में जकड़े हुए,तिवारीजी को सयानी लड़की को
महाविद्यालय के छात्रावास में रखकर पढ़ाना उचित नहीं
जँच
रहा था।प्रीतमपुर पहुँचकर विमल के बारे में पूछने पर पता चला था कि उसकी पढ़ाई का
सिलसिला,बीच में कुछ
बिगड़ गया था। अन्यान्य विषयों में उलझ कर काफी समय बरबाद किया।खैर इस बार तो
स्नातक हो चुका- जानकर तिवारीजी को प्रसन्नता हुयी थी-
‘चलिए,थोड़ा बचपना ही सही।सफल तो हुआ।इधर
बहुत दिनों से उससे मुलाकात भी नहीं हो पायी है।कहाँ रह
रहा है आजकल.....?’
‘परीक्षा देने के
बाद तुरन्त चला गया था दिल्ली।फ्लाइंग क्लब ज्वायन किया है न।बहुत दिनों से उड्डयन
कर भूत सवार था।इस बार उसकी मनोकामना पूरी हुयी है।अब जल्दी ही आने वाला है। यहाँ
आ जाने पर,आपके यहाँ
न जाये- यह तो असम्भव है।’- उपाध्यायजी ने विमल के कार्यक्रम की जानकारी दी।
तिवारी जी ने कहा-‘खैर,अब आ रहा है,तो भेंट हो ही जायेगी। मीना भी याद
कर रही थी।कहती थी कि कहाँ क्या कर रहा है,जरा चिट्ठी-पत्री से भी जानकारी नहीं
देता।’
‘क्या कहें
तिवारीजी!’- पान का बीड़ा मुंह में दबाते हुए उपाध्यायजी ने कहा- ‘वह अपनी
आदत से लाचार है।इतने दिन हो गए हैं,यहाँ भी कोई पत्र नहीं दिया
है।खैर कहिये कि कोई न कोई अकसर आते-जाते रहता है,जिससे समाचार मिल जाता है।अन्यथा
मुझे भी चिन्ता होती।कहता है कि पत्राचार से एकान्त प्रवास में बाधा उत्पन्न होती
है।पत्र आने पर घर भागने का मन करने लगता है।’
इस बात पर दोनों
मित्र हँसने लगे थे।तिवारी जी जब चलने लगे तब उपाध्यायजी ने कहा -‘मुझे भी
बड़ी इच्छा हो रही है मीना बेटी को देखने की।विमल आ जाय तो उसे ही भेजूँगा
माधोपुर।आपसे भेंट भी कर लेगा और मीना को लिवा लायेगा।’
तिवारी जी के
प्रीतमपुर से प्रस्थान के कुछ देर बाद ही अचानक आ पहुँचे- पदारथ ओझा को साथ लिए
पंडित रामदीन।
पहुँचते के साथ ही
पंडितजी ने अपने तान्त्रिक प्रतिष्ठा का पिटारा जबरन खोल कर रख दिया।बीच-बीच में
पदारथ ओझा घी-शक्कर उढेलते रहे।लम्बी व्याख्यान के बाद आगमन का उद्देश्य प्रकट
किये कि विमल बेटे की जन्म कुण्डली हेतु आना हुआ है-‘क्या ही
अच्छा होता हम दोनों ‘समधी’ बन जाते।मेरी तो बस
एक मात्र पुत्री है।मैं लड़का और लड़की में
जरा भी फर्क नहीं समझता। संकल्प कर लिया हूँ- सारी
सम्पत्ति उसे ही दे डालने को।’
साश्चर्य पूछा उपाध्यायजी
ने-‘एक लड़का
भी है न आपका?’
‘सो तो है
ही।पर ‘पूत सपूत
तो का धन संचय,पूत कपूत
तो का धन संचय,में मेरी
आस्था है।वैसे भी लड़की को जितना दूँगा,उससे कहीं
ज्यादा
फिर इकट्ठा हो जायेगा- चूकि अभी मेरे हाथ-पांव चल रहे हैं,ईश्वर कृपा से।’
इसी तरह की बातें
होती रहीं।निर्मलजी कुछ सोच न पा रहे थे कि क्या कहा जाय इस दौलत के अंधे भूत को।
बड़े सोच विचार के
बाद उन्होंने कहा- ‘पंडितजी! सच पूछिये तो अभी दो-तीन
साल तक मैं विमल की शादी के
पक्ष में हूँ ही नहीं। विमल भी कहता है
कि जब तक कोई अच्छा
स्थान न बना ले शादी नहीं करेगा।और आप ठहरे
लड़की वाले।एक अदने लड़के के लिए नाहक तीन साल इन्तजार क्यों करना!’ ‘यदि आप वचन दें तो
तीन क्या तेरह साल मैं
इन्तजार
कर लूँ।’- दांत
निपोरते हुए रामदीन पंडित ने कहा।
‘नहीं....नहीं....वचन
वद्धता के पक्ष में मैं नहीं हूँ।बस आप इतना
विश्वास रखें कि आपको प्राथमिकता अवश्य दी जायेगी मेरी ओर से।’- किसी तरह बात
समाप्त करने का प्रयास किया उपाध्याय जी ने।
कुछ देर और
अन्यमनष्क सा गपशप करने के बाद दोनों मित्र निराश हो अपने-अपने स्थान को लौट गये।
तीसरे ही दिन विमल
अपने लम्बे प्रवास के बाद घर पहुँचा। किसी तरह रात बितायी भाभियों के सानिध्य में,और अगली सुबह ही चल दिया- माधोपुर
मीना से मिलने।
हालाकि इस लम्बे
अन्तराल में भी वह क्षणभर के लिए भी मीना को विसारा नहीं
था।कोई
अन्य पंकजाक्षी उसके दिल में पैठ भी न पा सकी थी। किन्तु पिछली मुलाकात में मीना
के अस्पष्ट निर्णय ने उसके दिल को थोड़ा झटका भी दिया था।उसे थोड़ी मानसिक चोट भी
लगी थी।अतः मन ही मन सोच रखा था कि अबकी बार लम्बी इन्तजार कराऊँगा उसे।सो उसने
कराया भी। क्यों कि विमल जान गया था कि मीना भी उसे उतना ही चाहती है। सिर्फ वय की
न्यूनता और आर्थिक विपन्नता के कारण ही कुछ स्पष्ट कह नहीं
पाती।
विमल की ओर से देर
और लापरवाही का एक और भी कारण रहा- अध्ययन सम्बन्धी व्यस्तता,साथ ही लज्जा और संकोच का घेरा तो
जकड़े हुए था ही।
इन कई कारणों से
विमल ने तय कर रखा था कि इन सब से निबट कर इत्मिनान से ही घर जाना है,ताकि किसी प्रकार के ना-नुकर का मौका
न मिले। जब कि मन ही मन भयभीत हो रहा था कि कहीं
मीना
की शादी हो न जाय, और उत्तुंग
प्रेम-प्रासाद का स्वर्ण कलश ही निहारता न रह जाना पड़े!
किन्तु लम्बी अवधि
के बाद इस बार जब घर आया तो बातचीत के क्रम में बिना पूछताछ के ही ज्ञात हो गया कि
मीना की शादी हेतु तिवारी जी बहुत चिन्तित रह रहे हैं।
समाचार जान कर
सन्तोष की सांस ली थी विमल ने और किसी तरह रात बिता कर तड़के ही चल पड़ा था
माधोपुर- प्रिया मिलन की आश में।चलते वक्त पिता के आदेश ने मन में असंख्य लड्डू
फोड़ दिये-
‘लौटती दफा मीना को
भी साथ जरूर लेते आना।’
उसे तो मन की मुराद
मिल गयी- आज फिर रास्ते भर इश्क फरमाने का एकान्त अवसर मिलेगा,और लम्बे अरसे से मण्डराती
आकांक्षाओं को जी भर कर पूरा करने का मौका भी।
‘आज जरूर
वचन ले लूंगा- विवाह का, प्यार के परिणति का।’- सोचते हुए गाड़ी
खड़ी कर दी मीना के द्वार पर आम के छांव में।पर, खुद गाड़ी से नीचे उतरने के वजाय जोरों से
हॉर्न बजाया।जी में असीम हुलाश भरा था,हॉर्न सुनते ही दौड़ कर मीना बाहर निकलेगी,
मीठे-मीठे उलाहनों से ढक देगी।
किन्तु काफी देर तक
गाड़ी में बैठा गाड़ी के साथ-साथ अपने अरमानों का हॉर्न बजाता रहा;पर कोई आया नहीं
दरवाजे
पर उसके स्वागत में- न तिवारीजी ही और न उसके दिल की स्वामिनी ही। यहाँ तक कि दिल
में जलता आशाओं का दीप आशंकाओं के वयार से झिलमिलाने लगा,और तब सम्भावनाओं की हथेली से
सम्हाला उस म्रियमाण झिलमिल दीप को;और गाड़ी से उतर कर बढ़ आया द्वार तक।
किवाड़ यूंही
भिड़काया हुआ था।तीखे दस्तक के प्रहार को सह न सका,और सपाट खुल गया।
सामने की चौकी खाली
पड़ी थी,जिसने
बताया कि तिवारीजी कहीं बाहर गये हुए हैं।चौकी के बगल में सदा बिछी रहने वाली
खाट- जो मीना की स्थायी शैय्या थी- उसे
भी
खाली ही पाया विमल ने अपने सूने दिल की तरह।फलतः धड़कन बढ़ जाना स्वभाविक ही था।घर
में इधर-उधर अस्त-व्यस्त पड़ी सामग्रियों ने भी धड़कनों का ही पक्ष लिया। भीतर
रसोई में झांक कर देखा- वहाँ भी वही नीरवता,वही विश्रृंखलता,चौके के बरतन कुछ धोये,कुछ अनधोये- जूठे पड़े....बेतरतीब
सिसकते साज की तरह,जिनका वादक
किसी विकट वादियों में कहीं खो गया हो- ऐसा
प्रतीत हुआ।
विमल समझ न पा रहा
था- यह सब क्या मामला है? तिवारीजी कहाँ चले गये? हालाकि उनका विस्तर
इस बात की गवाही दे रहा था कि रात वह अछूता ही रहा है- स्वामी-शरीर से। हाँ,मीना की खाट के साथ यह शिकायत नहीं
थी।पर
उठ कर वह गयी कहाँ- सवाल यह था- जो विमल को बेचैन किये हुए था।
एक बार फिर आवाज
लगायी विमल ने-‘ मीना...ऽ...ऽ! कहाँ
हो मीना?’-और बढ़ चला भीतर आंगननुमा घेरे की ओर।
वहाँ पहुँच कर जो
कुछ भी देखा उसने, आँखों पर विश्वास न
हुआ।थोड़ी देर तक पाषाण-प्रतिमा सा स्तम्भित खड़ा रह गया।
....आंगन के मध्य
में एक खाट- जिसे सिर्फ खाट कहा ही जा सकता है, पर पड़ी थी मीना।वदन पर पड़े कपड़े
अस्त-व्यस्त स्थिति में- साड़ी ऊपर चढ़ कर कदली थम्म सी सुचिक्कन जघन को दर्शा रही
थी। सिर के बाल उन्मुक्त होकर खाट से नीचे लटक, भू चुम्बन कर रहे थे। सीने का आवरण- ब्लाउज
भी सरक कर, अपने स्वामिनी के
प्रति बेवफाई जता रहा था।फेफड़ा धौंकनी सा चल रहा था।उदर-प्रान्त गहन गह्नर का रूप
लिए बैठा था,कृश कटि
पर।खाट के नीचे पड़ा था एक लोटा,मुंह औंधा किए हुए।उसके बगल में एक गिलास भी था।शायद उसमें
अभी भी थोड़ा जल रहा हो,कारण कि वह
सीधा खड़ा था- तन कर।
कुछ देर तक तो विमल
दरवाजे पर ही ठिठका खड़ा निहारता रहा।
इस स्थिति में उसे
क्या करना चाहिए- समझ न पा रहा था। मीना के पास जाय या शोर मचाये- किसी को बुलाये;किन्तु
अधिक देर तक उसकी यह जढ़ स्थिति न रह सकी।उसकी प्राण- प्यारी,आह्लादिनी मीना इस अवस्था में न जाने
कब से और क्यों पड़ी है;और वह नालायक इस कदर खड़ा तमाशा देखता रहे....हो न सका।
‘मीना...मीना...., आवाज लगाते हुए बढ़ आया खाट तक, यह सोच कर कि शायद बेहोश हो।पर समीप आने पर
साश्चर्य उसने देखा कि मीना की आँखें खुली हैं एक टक शून्य में निहारती हुयी।धूप का एक
छोटा सा टुकड़ा पिछवाड़े लगे नीम की टहनियों से छिप-छिप कर मीना के मुख मण्डल को
टटोल रहा था।
क्षण भर में ही यह
सब देख,झपट कर बगल
में पड़ी पतली सी जीर्ण चादर को उठा कर ढक दिया मीना को गर्दन से नीचे तक जिससे
उसकी नग्न यष्ठि पर झीना आवरण पड़ गया।
विमल ने देखा- मीना
के होठ फड़फड़ा रहे हैं।उसके
कानों में कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ भी प्रवेश की,जिनकी स्पष्टी हेतु और समीप हो
आया।टूटे-फूटे शब्द घुसने लगे विमल के कानों में- ‘छोड़
दो...जाने दो...मरने...मेरा कौन...तुम... यहाँ... मीना...निवास....मीना
का....पापा...आप....’
कुछ देर तक खाट के
समीप सिर झुकाए अस्फुट वाणी का अर्थ जोड़ता रहा।किन्तु कुछ पल्ले न पड़ा- किसे
छोड़ने कह रही है?
पापा
कौन है....?’-
सोचता रहा।अर्थ हीनता पर सिर खपाता रहा।फिर ध्यान आया- गिलास
में रखे पानी को चुल्लु में भर कर मीना के चेहरे पर दो-तीन छींटे मारा।फिर आवाज
लगायी- ‘मीना उठो
मीना,क्या हो
गया है तुझे?’
जल के छिड़काव से
उसकी बड़बड़ाहट बन्द हो गयी,साथ ही खुली पड़ी आँखें भी मर्यादित होकर बन्द हो गयी।फैले-
पसरे दोनों हाथों को समेट कर सीने पर रख ली।
विमल ने फिर पानी
ढाला चुल्लु में,और पुनः एक
छींटा मार कर,जेब से
रूमाल निकाल,पोंछने लगा
मीना के मुख सरोज को।साथ ही आवाज भी लगायी- ‘मीनू...ऽ...ऽ....।’
इस बार विमल की आवाज
मीना के गहरे मानस में प्रवेश कर आभ्यान्तर झकझोर गयी।आँखें खुल गयी।कुछ देर तक
विमल के चेहरे को गौर से निहारती रही,मानों पहचान को स्वीकृति नहीं
दे
पा रहा है उसका मन।फिर एकाएक हड़बड़ा कर उठ बैठी।चादर की मर्यादा का उलंघन कर
सुपुष्ट उरोज पुनः उन्मुक्त हो गये- वक्ष-तड़ाग में खिले दो सरोज की तरह।पर इसकी
परवाह कहाँ थी उसे? उसे भय कहाँ था कि इन पंकज-प्रसूनों पर कोई उन्मादी भ्रमर न आ
बैठे।वैसे पल भर के लिए विमल की चंचल निगाहें वहाँ तक गयी जरूर, पर शीध्र ही वापस उड़ कर मुख सरोज पर लौट
अयी।
पल भर के निरीक्षण
ने शायद बतला दिया कि यह वही है, जिसे तुम
ढूढ़ रही हो।फलतः लपक कर लिपट पड़ी,बाहें फैला कर।विमल के गले में वर्तुलाकार अपनी वाहुलतिका डाल
कर उल्लास भरे स्वर में बोली- ‘आ गए मेरे
प्रियतम?’ और उसके
प्रसस्त सीने में सिर छिपा कर रोने लगी।
विमल आनन्द विभोर
हो उठा।उसे समझ न आ रहा था- आज क्या हो गया है मीना को। कोई ढाई-तीन वर्षों बाद
मिल रहा है आज अपनी हृदयेश्वरी से;पर कल्पना भी न की थी उसने कि इस प्रकार हृदय
खोल कर रख देगी उसकी प्राण वल्लभा।फलतः आलिंगन का जवाब उसने भी दृढ़ आलिंगन से
दिया।मुखड़े को ऊपर उठा,चूम लिया
जवाकुसुम की कोमल पंखुडि़यों को,जो पहले से भी ज्यादा आरक्त हो आयी थी अब।
उसके होठों को परे
हटा कर ठुनकती हुयी मीना ने कहा- ‘धत् ! बेवफा कहीं
के...नहीं
बोलूँगी
तुमसे...कहाँ चले जाते हो छोड़कर? इतने दिन हो गये... वायदा कर गये थे,जल्दी आने के लिए....।’
मीना कहती रही,और चिपकी रही विमल के सीने से,जो अब और रोमश हो आया था।विमल भी सहज
भाव से चिपकाये रहा;और सुनता रहा चुपचाप- मीठे उलाहनों को, क्यों कि उसे इस वक्त बातों के जवाब में
वक्त जाया करना फिजूल सा लग रहा था। अच्छा है,मीना इसी तरह उसके बेताब धड़कते सीने
से घंटों लिपटी रहे,और शिकवे
करती रहे।वह सुनता रहे।दुनियाँ अपनी धुन पर चलती रहे,उससे क्या मतलब?
‘......तुम्हारी
राह देखते-देखते मेरी आँखें पथराने लगी।जी घबराने लगा।कोई
उपाय न सूझा।तुमने समाचार का कोई पत्र भी न दिया।दिल तड़प-तड़प
कर रह गया मेरा।अन्त में लाचार होकर कल गयी थी काली माँ के मन्दिर में मन्नत मानने
तुम्हारे आने के लिए। आह! माँ काली कितनी दयालु हैं- कल मन्नत की,और आज तुम आ गए।चलो,आज फिर चलूँगी- मन्दिर तुम्हें साथ
लेकर।माँ के सामने तुमसे कसम खिलवाऊँगी- कभी जुदा न होने की।क्यों कि तुम बहुत ही
कठोर दिल हो।....ओफ कितना तड़पाया है तुमने मुझे...छली,बेवफा पुरुष! ओफ! एक असहाय औरत
को...ओफ क्या हो गया है मुझे आज,समझ नहीं आता।पर मैं अबला नहीं
हूँ।मुझे
स्वयं....।’- कहती हुयी
मीना एकाएक चुप हो गयी।
क्षण भर में ही
उसका शरीर अकड़ गया।बाहु-बन्धन शिथल पड़ गया। फलतः विमल ने भी अपना आलिंगन ढीला कर
दिया। गोद से हट कर सुला लिया अपनी जंघा पर।
उसने देखा- मीना पुनः बेहोश हो गयी है।धूप का
साम्राज्य पूर्णरूप से कब्जा जमा लिया है आंगन पर।अतः अपनी जंघा से मीना का सिर
नीचे उतार दिया।स्वयं खाट से उतर पड़ा।झुक कर उठाया गोद में,और ला सुलाया भीतर कमरे में उसकी खाट
पर।
घड़े में पानी रखा
हुआ था।गिलास में ढालकर चुल्लु भर, छींटा मारा
मुंह पर।एक...दो...तीन...चार...।पर कोई असर नहीं।
मीना लम्बी सांस खींच
रही थी,पर आँखें
ज्यों के त्यों बन्द ही रही।फिर एक दो छींटा लगाया।साथ ही लगायी जोर की आवाज- ‘मीना।’
तभी द्वार पर पदचाप का आभास
मिला।पीछे मुड़ कर देखा तो तिवारीजी नजर आए।
‘तुम कब आए
विमल बेटे? क्या हुआ
मीना को? ऐसे क्यों
पड़ी है?’- एक ही साथ
तीन प्रश्न कर डाला तिवारीजी ने।
आगे बढ़,चरण स्पर्श के साथ विमल ने कहा- ‘पता नहीं
क्या
हुआ है इसे।मैं तो अभी-अभी ही आया
हूँ।आप थे नहीं।आवाज लगाते भीतर आंगन में गया,तो वहाँ इसे बेसुध पड़ी पाया।धूप था,इस कारण उठाकर अन्दर ले आया।लगता है
गहरी बेहोशी है,पर
क्यों...समझ नहीं आता।’
‘घबराने की
कोई बात नहीं मैं
अभी
इसे ठीक किये देता हूँ। इसी तरह की बेहोशी एक दो बार हो गयी थी- पहले भी।प्यारेपुर के वैद्यजी से
दिखलाकर दवा खिला रहा हूँ।कहा है उन्होंने कि घबराने की कोई बात नहीं।मानसिक तनाव
के कारण ऐसा हो जाया करता है।’- कहते हुए तिवारी जी सामने दीवार में बने छोटे से आले पर
से एक नन्हीं सी शीशी उठा लाये,जिसमें कोई अर्क भरा हुआ था।वहीं
पास
रखे रूई के फोये में थोड़ा सा अर्क लेकर मीना के दोनों नथुनों में सुंघाये।और फिर
इत्मिनान से अपनी चौकी पर बैठते हुये बोले- ‘थोड़ी ही देर में
पूरी तरह ठीक हो जायेगी।’
चिन्ता व्यक्त करते
हुए विमल ने कहा- ‘ऐसी स्थिति में इसे छोड़कर कहीं
आना-जाना
भी अनुचित ही है।’
‘सो तो तुम
ठीक कह रहे हो।काफी दिनों से कहीं आ-जा न रहा था।जब
कि जाना भी इसीके चलते है।इधर दो माह से बिलकुल ठीक थी।एक बार भी दौरा न पड़ा
था।दवा चल ही रही है।सोचा कि ठीक हो चुकी है।परसों ही एक लड़के का पता चला नौवतपुर
में।यहाँ से सिर्फ दो कोस है।सुबह ही गया था कल।यह सोचकर कि शाम तक तो वापस आ ही
जाऊँगा।यह भी बार-बार कहा करती थी- ‘‘आप जायें,अपना काम देखें।मुझे घेरे कब तक बैठे
रहेंगे।’ यही सोच कर
चल दिया।आखिर लड़का ढूढ़ना भी तो जरूरी है।जवान बेटी को घर में बिठा कर कब तक चैन
पा सकता है कोई बाप?’
‘सो तो है
ही।समय पर शादी तो जरूरी है।पर...।’- विमल ने सिर हिलाते हुये कहा।
‘वहाँ
पहुँचा तो यात्रा कर फेर,लड़के के
पिता से भेंट ही नहीं हुयी। मालूम चला कि
शाम तक आयेंगे।और फिर शाम की प्रतीक्षा में रात भी होगयी। आये। बातें भी हुयी।पर
बात बनी नहीं।स्पष्ट शब्दों में कहा उन्होंने- ‘सम में सम्बन्ध
होता है,तब समधी
बनते हैं।हम दोनों
में काफी विषमता है।’ अब सम हों या विषम,रात तो किसी तरह बितानी ही थी।सुबह होते ही
चल दिया.....।’- कह ही रहे
थे तिवारीजी कि विमल बीच में ही टोक दिया-
‘देखिये न
वापू,लगता है
मीना होश में आ रही है।’
तिवारीजी ने देखा,सही में मीना आँखें खोल,कमरे में इधर-उधर देख रही थी। एक बार
जोरों से अंगड़ाई लेकर उठ बैठी।
‘आ गये वापू?’- कहा मीना ने बिलकुल
स्वस्थ की तरह।फिर विमल की ओर देखते हुए चट से उठ खड़ी हुयी- ‘वाह! धन्य
भाग्य मेरे कि आज पधारे आप।मैं तो समझी थी कि हिन्दुस्तान के नक्शे से माधोपुर गायब ही हो
गया है.....।’ मीना कह
रही थी।विमल सोच रहा था-
‘अजीब बीमारी है।इसे
देख कर क्या कोई कह सकता है कि बीमार भी है?अभी-अभी गहरी बेहोशी से उठी है?’
‘.....कहो कैसे याद आ गयी?
या फिर रास्ता भूल गये?’- कहती हुयी मीना कमरे में इधर-उधर देखने लगी- ‘
ओफ!
आज बड़ी देर तक सोयी रह गयी।अभी
तक झाड़ू-पोतन भी नहीं कर पायी।’
मीना के कथन से
तिवारी जी के होठों पर फीकी मुस्कान विखर आयी। विमल आश्चर्य करता रहा,उसकी मानसिकता पर।कुछ सोचते हुये
मीना की ओर देख कर बोला- ‘भूलने और याद आने की बात नहीं
है
मीना।
सच तो यह है कि मैं आया ही कहाँ? निश्चय कर रखा था
कि अब एक ही बार पायलट बन कर ही जाना है तुम्हारे घर, ताकि कोई अड़चन न आये।’
विमल की बातों की
गहराई तक मीना तो सहज ही पहुँच गयी,पर तिवारीजी ने कोई विशेष ध्यान न दिया।
‘हाँ-हाँ,ठीक सोचा तुमने।गाड़ी से आने-जाने
में बड़ी परेशानी होती है।अब जहाज से ही जाया करूँगी प्रीतमपुर। कहती हुयी मीना
इधर-उधर झांकने लगी,मानों कमरे
में ही कुछ ढूढ़ रही हो- ‘अरे! कहीं
दीख
नहीं रहा है।कहाँ रखे हो अपना पुष्पक विमान?’
मीना की मुद्रा और
भाव-भंगिमा पर तिवारीजी के साथ-साथ विमल भी हँसने लगा।मीना रसोई घर की ओर चली गयी,कहती हुयी- ‘अच्छा, तब तक उड़ाओ तुम अपना हवाई जहाज।मैं जरा चाय-वाय का इन्तजाम करती हूँ।’
मीना अन्दर आयी,जहाँ रात के जूठन अभी भी विखरे विलख
रहे थे। उन्हें उठा कर आंगन में ले लायी- नहलाने-धुलाने।
इधर विमल मुखातिव
हुआ तिवारीजी की ओर- ‘तब बापू! अभी तक तो असफल ही रहे।कहीं
काम
न बना?’
‘हाँ बेटे!
घूमते-घामते कई जोड़ी जूतियाँ घिस गयी,पर बला विवाह कहीं तय न हो
पाया।सच पूछो तो आज के जमाने में सतत परिश्रम से भगवान को ढूढ़ना आसान है- वर की
अपेक्षा।’- उदासी की
मुद्रा में कहा तिवारीजी ने,और तकिए का ढासना लगा कर पड़ गये चौकी पर।विमल,जो अब तक साथ में ही बैठा था,उठ कर मीना वाली खाली खाट पर जा
बैठा।
‘वैसे तो मैं विलकुल ही बच्चा हूँ।आप मेरे पिता क्या
पितामह तुल्य हैं,अतः कुछ
कहने में जुवान सटती है....।’- संकोच पूर्वक कहा विमल ने।
‘सो तो
है।तुम्हारे पापा से मैं काफी बड़ा
हूँ।किन्तु वयस्क बालक मित्रवत होता है।अतः निःसंकोच कहो,जो कुछ कहना चाहते हो।’
तिवारीजी की बातों
से हिम्मत बढ़ा विमल का।उसने कहा- ‘
बहुत
दिनों से मेरे मन में एक बात घूम रही है,किन्तु अब तक न मैं इस योग्य था और न समय ही अनुकूल; परन्तु अब लगता है
कि इस आकांक्षा को प्रकट करने में कोई हर्ज नहीं।आप मेरी धृष्टता समझें,किन्तु मैं अब कहे बिना रह नहीं
सकता...।’
‘कहो...कहो।इतना
संकोच क्यों? धृष्टता की
क्या बात है?यह तो अपनेपन की बात है।कुछ सलाह मशविरा ही तो देना चाहते हो मुझे।’-मुस्कुराते
हुये तिवारीजी बोले।
‘हाँ, सलाह ही समझें,या अनुरोध।आपकी परेशानी अब मुझसे
देखी नहीं जाती। इतने दिनों से आप भटक रहे हैं,पर अभी तक कोई
योग्य वर न मिल पाया मीना के लिये। कहीं लड़का ही
अयोग्य तो कहीं आपकी अर्थ व्यवस्था।अतः मैं कहना चाहता हूँ कि
क्या यह सम्भव नहीं हो सकता कि......।’-स्पष्ट
कहने में विमल की जीभ सटने लगी।पता नहीं तिवारीजी
क्या सोचेंगे इसका प्रस्ताव सुनकर।
‘मीना के
लिए परेशान तो हो ही रहा हूँ विमल बेटे,किन्तु कर ही क्या सकता हूँ।यदि कोई उपाय हो
तो बतलाओ।प्रयास करूँगा उस पर पहल करने का।’-आशान्वित होते हुए तिवारीजी बोले- ‘सम्भव-असम्भव
की क्या बात है। कहो,तुम कहना
क्या चाहते हो?कभी-कभी बच्चों की बातें भी महत्त्वपूर्ण और विचारणीय हो जाती हैं।’
साहस बटोर,अतिशय भाउक हो विमल ने कहा- ‘मीना हेतु
योग्यता की मापदण्ड में क्या मैं नहीं आ सकता?’
विमल की बात पर
तिवारीजी को अपने कानों पर विश्वास न हुआ।क्या यह विमल का प्रस्ताव है? निर्मल उपाध्याय के
सुपुत्र विमल का?
इतने
बड़े खानदान का- इतने दौलत वाला,क्या मेरी बेटी- एक अतिधनहीन की बेटी को स्वीकार कर सकता है
अपनी पत्नी के रूप में?- तिवारीजी सपने भी न सोच पाये थे।
उठ कर तो पहले ही
बैठ चुके थे।अब थोड़ा और झुक आए आगे की ओर। हो सकता है विमल के कथन का आशय न समझ
आया हो। अतः बोले- ‘क्या कहा तुमने विमल बेटे? क्या मेरे
भाग्यपट खोलने की बात कह रहे हो? क्या मेरी मीना का हाथ मांग रहे हो? तुम...विमल
बेटे...तुम....?’-
भावोद्रेक
में तिवारीजी की डबडबायी आँखें विमल को अपलक निहारने लगी।जी चाहा था- झपटकर उस
देवदूत के श्रीचरणों में गिर पड़ने को।
ओफ! क्या होता है
कन्या-पिता का हृदय! यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता! और उस नारी के जनक की इतनी हीन स्थिति? क्या कन्या सही में
‘दुहिता’ है? पिता का धन-मान
सर्वस्व दोहन करने को ही आती है?
क्या यह... नहीं...नहीं...,ऐसी
बात नहीं।जिस पृथ्वी पर विमल सरीका देवदूत अवतरित हुआ है,उस धरा की कन्या कभी ‘दुहिता-दुर्विशेषण’ से लांछित नहीं
हो
सकती।- तिवारीजी सोच रहे थे।फटी आँखों से विमल को देखे जा रहे थे।
विमल कह रहा था- ‘हाँ बापू!
मैं हाथ ही मांग रहा
हूँ आपकी मीना का,
वशर्ते
कि योग्यता के माप दण्ड में सही आ सकूँ।’
‘ओह! कितना भाग्यवान हूँ
मैं।मेरी मीना कितनी भाग्यवान है।’- आनन्दा-
तिरेक में कह उठे तिवारीजी।फिर जरा संयत होकर बोले- ‘सच पूछो तो विमल बेटे! मीना के लिये योग्य वर का
मापदण्ड इतना छोटा है कि उससे तुम्हारी महानता,कई आवृत्तियों में भी मापना मुश्किल
है।कहाँ आरक्षी अधीक्षक,करोड़ों की
औकाद वाले,खानदानी
जमींदार तुम्हारे पिता; और कहाँ निरा निपट देहाती, गंवार,कंगला,अकिंचन एक अदना सा मास्टर! मैं तो उनकी चरण पादुका
के क्षुद्र रज कण की बराबरी भी नहीं कर सकता।’
प्रफ्फुल्लित विमल
ने कहा- ‘आपकी दौलत
की क्षुद्रता का सवाल ही नहीं है बापू।बात है
आपके हृदय की विशालता का,जहाँ इतनी
जगह है कि सारा जहाँ समा जाय।दौलत के तुच्छ बटखरे से इसे कतयी तौला ही नहीं
जा
सकता।आपने उस दिन प्यारेपुर वाले ओझाजी की बात बतलायी थी,जिसे सुनकर मुझे घृणा हो आयी।आप
निश्चत जाने- मेरा परिवार इस संकीर्णता से बिलकुल विलग है।अतः यह न सोंचें कि मेरे
पापा दौलत के भूखे हैं...।’
विमल कहता
रहा।तिवारीजी सुनते रहे।उन्हें लग रहा था कि पूर्वजन्म के किसी महान पुण्य का
पुनीत फलोदय हुआ है।याचक बन कर स्वर्ग जाने की आवश्यकता नहीं,वरन् स्वर्ग स्वयं ही
आया है उनके द्वार याचना करने।ऐसे ही एक दिन आया था स्वर्ग- इस भू पर।देवराज
इन्द्र आये थे,भिक्षुक की
तरह,तुच्छ
कवच-कुण्डल के लिए’ और वह निष्कलुश भू-वासी कहाँ चूका था महादान के पुण्य फल को
प्राप्त करने में!
वैसे ही आज
तिवारीजी का भी पुण्य फल उदित हुआ है।वे भी आज चूकेंगे नहीं।स्वीकार कर ही लेंगे।
एक और महादान का अवसर आ ही जायेगा।
विमल ने कहा- ‘....आप आज ही
चलें,मेरे साथ
में ही। पापाजी के पास मेरे सम्बन्ध का प्रस्ताव रखें।मुझे विश्वास है कि वे कदापि
अस्वीकार नहीं करेगे।यदि कर भी दिये तो फिर मैं अपना ‘वीटो’ इस्तेमाल कर राजी
तो करा ही लूँगा।’
‘ठीक है,तुम जैसा कहोगे,किया जायेगा।’
‘मेरी
जल्दबाजी का भी एक कारण है बापू’- विमल कह रहा था कि बीच में ही तिवारी जी बोल पड़े- ‘जल्दबाजी
तो मुझे करनी चाहिये। तुम क्यों परेशान हो रहे हो?’
‘यही तो
बतलाना चाहता हूँ।’- विमल ने स्पष्ट किया- ‘आपके मित्र पदारथ
ओझाजी की विशेष कृपा दृष्टि आजकल हमारे ऊपर है।कल भाभी द्वारा मालूम हुआ- रामदीन
पंडित जो मुझे दौलत से खरीदना चाहते हैं।ओझाजी भी काफी जोर लगा रहे हैं।पगली-काली- कानी सर्वगुण सम्पन्ना
पुत्री को दौलत की डोली में चढ़ा कर मेरी ड्योढ़ी में उतारना चाहते हैं।भला आप ही सोंचे- मेरा जीवन गर्क
करने पर ही तो तुले हैं ओझा जी?’
विमल की बातों पर
तिवारीजी रोमांचित हो उठे।सपने में भी जिस बात की कल्पना न हुयी होगी,आज साकार-साक्षात् है।प्रसन्नता और आशा
के अद्भुत मोती तैरने लगे उनकी आँखों में।
मीना चाय लिये आ
पहुँची।रसोई में बैठी चाय बनाती,काफि देर से इनकी
बातें सुन रही थी। उसके दिल में प्रसन्नता की सुरभि प्रवाहित
हो रही थी; किन्तु साथ
ही एक अज्ञात तूफान भी उठ रहा था,जिसका कोई भी वजह उसे समझ न आ रहा था।
कांपते हाथों में
प्याला थामे जा खड़ी हो गयी वापू और विमल के सामने। आज विमल के सामने आने में उसे
अजीब सी सिहरन होने लगी थी।लाज रूपवती होकर उसके श्यामल पलकों पर आ बैठी थी,जिसके कारण बोझिल पलकें झुक आयी
थी।उर्ध्व भार के वजह से पाटल पंखुडि़यों सा कोमल कपोल कुछ और सुर्ख हो आया
था।धमनियों में रक्त दाब ‘स्फैगनोमैनोमीटर’ के माप से बाहर
निकलने का प्रयास कर रहा था।
‘अब तबियत तो
विलकुल ठीक है ना मीना?’- उसके हाथ से प्याला पकड़ते हुए विमल ने पूछा।
मधुर ध्वनि सुन,मदिर नयनों के रक्षक कुछ निमीलित से
हो गये।हृदय की धड़कन थोड़ी और बढ़ गयी,और साथ ही बढ़ा ले गयी गालों की लालिमा;और
उतर आयी होठों पर थिरकन बनकर शब्दों की नाई-
‘ठीक हूँ।’- अति संक्षिप्त सा
उत्तर था मतवाली का।दूसरा प्याला पिता को देकर,झटपट वापस लौट पड़ी रसोई की ओर।भय था
कि कहीं विमल कुछ और न पूछ बैठे।
किन्तु विमल को
फुरसत ही कहाँ थी कुछ और पूछने की।वह तो चाय की चुसकी लेने लगा होठों से,क्यों कि आज की चाय में कुछ अजीब सी
मादकता थी।मिठास था।लग रहा था मानों चाय की प्याली नहीं
वरन्
दिल के बोतल में ममता,स्नेह और
प्यार का सोमरस भरा हो,जिसे होठों
के ‘निपल’से
प्रेमक्षुधातुर विलखते निरीह बालक को पिलाया जा रहा हो।काफी देर तक चाय की मधुर
चुस्की लेता रहा विमल।
तिवारीजी चाय का
खाली प्याला नीचे रख,माथे में
गमछा और कान में जनेऊ लपेट,लोटा उठाकर बाहर निकल गये,कहते हुये- ‘मैं अभी आया। तुम बैठो तब तक।’
तिवारीजी चल दिये ‘हाजतरफा’ को
और विमल उठ खड़ा हुआ- दिल के हाजत में इजहार करने।आवाज लगायी दरवाजे पर खड़ा होकर-‘मीना क्या
कर रही हो मीना?’
‘नास्ता बना
रही हूँ।’-हाथ में कलछुल लिए मीना पीछे झांकी।
विमल को ठीक पीछे खड़ा हुआ पायी।
‘नास्ते की
क्या आवश्यकता है?जल्दी से खाना ही तैयार कर दो। भोजन करके शीघ्र ही चल देने का
विचार है,बापू को
साथ लेकर।आज लगता है संयोग जुटा है।साहस जुटा कर वर्षों की चाहत उगल सकने का मौका
मिला है।अतः लगे हाथ किला फतह कर लेना है।अन्यथा जीवन-यात्रा-भंजक, एकाक्षी-दर्शन का दुर्योग बन जाने का खतरा
सिर पर मड़रा रहा है।’- मुस्कुराते हुए कहा विमल ने,और विलकुल समीप आकर पीढ़े पर बैठ
गया।
‘तो इतनी
बेताबी हो रही है शादी के लिए?’-हँसी को जबरन दबाने का प्रयास करती हुयी मीना ने
कहा।
‘बेताबी की
बात नहीं है मीनू।बापू की चिन्ता और परेशानी
सही नहीं जाती है अब।’
‘बापू की
परेशानी की फिक्र है या कि खुदगर्जी की बेसब्री?’- आँखें मटकाती,
मुस्कुराती हुयी मीना ने कहा।
‘अब तुम जो
भी अर्थ लगाओ।कुछ तो स्वार्थ है ही।निःस्वार्थ होना बड़ा कठिन है।वैसे तुम जानती
ही होगी- ब्राह्मण की मूल उपाधि ‘शर्मा’ है।‘शर्म’ का असली अर्थ भी
मालूम ही होगा?’
‘हाँ...हाँ,मालूम है।शर्म का अर्थ होता है
कल्याण,और कल्याण
की प्रवृत्ति हो जिसमें,कल्याणकारी
है जो- उसे ही ब्राह्मण कहा जाता है।वैसे ब्रह्म के
ज्ञाता को भी ब्राह्मण ही कहते हैं।’-
मीना
ने स्पष्ट किया।
‘यानी
कल्याण की भावना नहीं है जिसमें वह तो
ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी ही नहीं है।अतः मैं अपने स्वार्थ
सिद्धि की आड़ में ब्रह्मणत्त्व सिद्धि के प्रयास में हूँ।’
‘अच्छा,तो आजकल धर्मशास्त्र के निर्देशानुसार
चल रहे हो?क्यों?’
‘एक बात
बतलाओ मीना।’- विमल ने
प्रसंग को थोड़ा मोड़ते हुये पूछा- ‘सच कहना,जरा मेरी ओर देखकर बोलो- तुम मुझसे
प्रेम करती हो या नहीं? शादी की इच्छा है या नहीं?’
‘यह कैसे कह
दूं कि तुमसे प्रेम नहीं है।कहने की हिम्मत
भी नहीं है।तुम्हारे परिवार का भारी एहसान है
मुझ पर।’
‘छोड़ो भी,एहसान-वेहसान की बात।मैं जो पूछ रहा हूँ
उसका जवाब दो।’
‘वही तो मैं कह रही हूँ।तुम्हारे प्रेम की अस्वीकृति का
प्रश्न ही नहीं।नाकारने की साहस ही नहीं।’
प्रेम-प्रसंग पर
अभी कुछ और चर्चा चलती शायद,किन्तु तिवारी जी के
आने की आहट पा विमल उठकर खड़ा हो गया।बाहर झांक कर देखा- आम
के तने से बंधी अलगनी पर तिवारीजी अपनी धोती पसार रहे थे।
कमरे में खूँटी पर
रखी धोती लेकर विमल आगे बढ़ा।तिवारी जी गीला गमछा लपेटे हाथ में लोटा लिए कमरे में
दाखिल हुए।
‘तुम भी
स्नान करोगे न विमल बेटे?’- विमल के हाथ से धोती लेते हुए पूछा तिवारीजी ने।
‘नहीं
बापू।मैं तो सुबह में ही
स्नान करके चला हूँ घर से।’
‘ठीक है।तुम
बैठो थोड़ी देर।मैं तब तक जरा पूजा कर
लूँ।’-कहते हुए तिवारीजी पास ही तख्त पर आसन बिछा पूजा की तैयारी में लग गए।विमल
पुनः अन्दर चला गया मीना के पास;किन्तु मीना को रसोई के काम में व्यस्त देखकर पुनः
उसी कमरे में आ गया, जहाँ तिवारीजी पूजा
कर रहे थे।
आसनासीन तिवारीजी
प्रारम्भ किए- भगवत चिन्तन और वहीं खाट पर बैठा विमल
डूब गया- भूत से भविष्य तक के प्रेम- चिन्तन में।और इसी में गुजर गया समय करीब
डेढ़ घंटा।तिवारीजी कवच,स्तोत्र और
सहस्रनामों के पन्ने पलटते रहे;और विमल कल्पनाओं की रंगीन वादियों में विचरण करता
रहा। स्वर्णिम भविष्य की कल्पना रग-रग में गुदगुदी पैदा करती रही। मीना- उसके सपनों की रानी...कल्पना का
स्वर्ग...दिल की धड़कन...धमनियों की उष्ण धारा ...आँखों की ज्योति...न जाने
क्या-क्या।उसका सब कुछ एक मात्र मीना के आँचल में अर्पित है।दुनियाँ-जहान की खुशियाँ
समेट कर उसकी सूनी आंचल में शिरीष के कोमल फूलों की तरह उढेल देना चाहता है। विमल
की पूरी दुनियाँ बस इतने में ही सिमट आयी है।
‘खाना निकालो
मीना।पूजा समाप्त हो गयी।’-आसन समेटते हुए कहा तिवारीजी ने,और आवाज सुन विमल ऊतर आया,सीधे ठोस धरा पर- कल्पना के सुरम्य
गगन से।
विमल खाट से उठ कर
चौकी पर आ बैठा।खाट खड़ी कर दी गयी, क्रोधी बकरी की तरह- दो पैरों पर; और उस रिक्त भाग पर
‘ठांव’ देकर आसन लगाया गया,भोजन करने हेतु- भावी स्वसुर-दामाद
के लिए।
आसन पर दोनों विराज
गये।मीना थाली लगाने लगी।
भोजन बनाने की हड़बड़ी
में स्नान के बाद मीना अपने के्य भी न संवार पायी थी।फलतः निगड भंजित उन्मुक्त
अलकें,काली
सर्पिणी की तरह उसके गौर पृष्ठ प्रदे्य पर बलखा रही थी।धानी रंग की साड़ी में
लिपटा मीना का गौर गात विमल को बड़ा ही मनोहर लग रहा था।जी में आया- बाहें पसार कर समेट ले उसे अपने आगोश
में।किन्तु मचलते मनचले मन को किसी प्रकार समझाया, धीरज बँधाया- ‘क्यों
बेचैन हो रहे हो?
अब
तो वह तुम्हारी ही है,बिलकुल
तुम्हारी।दुनियाँ के सारे बन्धनों से मुक्त,तुम्हारी कल्पनाओं की साकार प्रतिमूर्ति..।’
भोजन परोसने के क्रम
में मीना कई बार आयी उस कमरे में- कभी लोटे में जल लेकर,कभी गिलास,कभी थाली और तस्तरी लेकर। हर बार
विमल की चंचल शोख निगाहें उसके रूप-यौवन- सम्पदा को चुराने का प्रयत्न करती रही।
भोजन क्रम में कोई
विशेष बातचित का प्रश्न ही नहीं था,क्यों कि तिवारीजी मौन भोजन के
नियमावलम्बी ठहरे।यह उनकी पुस्तैनी आदत है। उनके मौन ने वाध्य कर दिया, विमल को भी मौन ही रहना पड़ा।
भोजन समाप्त कर
दोनों तैयार हो गये,चलने के
लिए।
विमल ने कहा-‘आते वक्त
पाप ने कहा था,साथ में
मीना को भी लेते आने के लिए।’
‘जाने को तो
बराबर जाती ही रही है।आज भी जा सकती है;किन्तु इस समय हमलोग जिस उद्देश्य से जा
रहे हैं,मीना को
साथ लेकर जाना उचित नहीं लग रहा है।वैसे
तुम्हारा विचार हो
तो
लिए चल सकते हो।’-कहते हुए तिवारीजी कमरे से बाहर आम्र तल में आकर कुछ सोचने लगे।
‘ठीक ही
है।जैसा आप कहें।’-कहता हुआ विमल एक बार पीछे मुड़ कर रसोई घर की दीवार की ओट में
खड़ी मीना का मुखमंडल निहारा, जिस पर
लज्जा,संकोच,चिन्ता और भय के विभिन्न भाव
बारीबारी से आ जा रहे थे। ‘अच्छा मीना अब चल रहा हूँ।’- कहते हुए विमल भी
बाहर आ गया।
‘फिर कब आओगे?’ - प्रश्न मीना की
बतीशी में उलझा ही रह गया।शर्मीली जिह्वा उसे ठेल कर बाहर न निकाल सकी।पांव के
अंगूठे से मिट्टी कुरेदती, चुपचाप खड़ी रही,सिर झुकाये।
कुछ देर बाद,जब आहट से यकीन हुआ कि वे लोग गाड़ी
में बैठ चुके हैं,
तब
लपक कर बाहर दरवाजे तक आ गयी।
गाड़ी जब बढ़ चुकी
आगे,तो तब तक
उसे पीछे से निहारती रही, जब तक कि आँखों से
ओझल न हो गयी।कच्ची सड़क की धूल उड़ाती गाड़ी चली गयी, मीना के अरमानों को ठूढ़ने,प्रीतमपुर की ओर।
अपराह्न
करीब
दो बजे, तिवारी जी पहुँचे,विमल सहित प्रीतमपुर।
उपाध्याय जी भोजन कर,विश्राम कर रहे थे।अहाते में गाड़ी
की आवाज सुनायी पड़ी,तब यह सोचकर
उठ बैठे कि शायद मीना आ गयी।अतः कमरे से बाहर निकल,वरामदे में आए।गाड़ी तब तक बगल के
पोर्टिको में जा लगी थी।
विगत सम्पर्कों ने
मीना के प्रति निर्मल जी के दिल में अटूट स्नेह का सोता प्रवाहित कर दिया था।मीना
को अपनी बेटी से जरा भी कम न समझते थे।जब कभी भी मीना आती,उन्हें ऐसा प्रतीत होता मानों ससुराल
प्रवासिनी पुत्री आयी हो।
मीना के आगमन की
प्रतीक्षा में वे वरामदे में आकर बैठ चुके थे। गाड़ी से उतर कर आये सिर्फ तिवारी
जी और विमल।साथ में मीना को न देख,पल भर के लिए उनका मुख मुरझाये प्रसून सा म्लान पड़ गया।
‘आइये
तिवारीजी।’- कुछ
औपचारिक सा स्वर निकला।फिर चकपक इधर-उधर देखते हुये बोले- ‘क्यों मीना
बेटी नहीं आयी?’- स्वर में उदासी थी।
‘किंचित विशेष
उद्देश्य से मैं चला हूँ।फलतः उसे न
ला सका।’- कहते हुए
तिवारीजी ऊपर वरामदे में आकर निर्मलजी के बगल में कुर्सी पर बैठ गए।विमल सीधे भीतर
चला गया।
‘और सब ठीक
ठाक है न?मीना बेटी कैसी है?उसकी तवियत की चिन्ता बनी रहती है।’-पान की गिलौरी
मुंह में दबाते हुए उपाध्याय जी ने कहा।
‘आपके आशीष
से ठीक है सब कुछ।मीना ठीक ही है।उस दिन मैंने आपसे कहा ही था,इधर महीने भर से ऊपर हो गये,दौरा नहीं
आया
है। किन्तु कल सुबह ही मैं चला गया था वरान्वेषण
के चक्कर में नौबतपुर।उधर से वापस लौटा आज
सुबह,तो उसे बेहोश पाया।’- तिवारी जी ने एक ही क्रम में मीना की
सम्प्रति
स्थिति स्पष्ट करने
के साथ-साथ भावी वार्ता की भी भूमिका बना डाली।
‘देखिये तिवारीजी!’-पान का पीक फेंकते हुए उपाध्यायजी
बोले- ‘मीना बेटी
को बीमारी-उमारी कुछ नहीं है।आप देख ही रहे हैं कि वचपन से ही वह
कितना भाउक है।उम्र की तुलना में वह कितना अधिक समझदार है।इसीका सब नतीजा
है।रात-दिन उसके दिमाग में अभाव-ग्रस्त जीवन की दयनीय स्थिति चक्कर काटती रहती है।
आपको देख ही रही है,हमेशा उसके
लिए वर ढूढ़ने में बेहाल हैं। इन्हीं बातों को सोच-सोच
कर कुंढ़ती रहती है,जिसके कारण
इस तरह से मानसिक दौरे पड़ रहे हैं।’
‘बात तो ठीक
ही कह रहे हैं आप।’-सिर हिलाते
हुए तिवारी जी बोले-‘मैं भी यही सोचता हूँ।इसकी बीमारी का
मुख्य कारण- मानसिक अवसाद ही
है- ऐसा ही वैद्यजी ने भी कहा था।सब समझ रहा हूँ,किन्तु कर ही क्या सकता हूँ? भगवान
ने उसे बुद्धि दे ही दी है,उम्र से ज्यादा।लड़कियाँ कुछ तो स्वाभाविक ही भाउक हुआ करती हैं।तिस पर तो यह विशेष है।धन-जन,हर कुछ का अभाव है ही। इतना दौड़ रहा
हूँ।पर शादी तय हो नहीं पा रही है।तीन साल
से तो चक्कर मार रहा हूँ।कहीं योग्य वर नहीं
तो
कहीं घर नहीं योग्य।योग्यायोग्य
की बात जहाँ नहीं है,वहाँ है- अभी दो-चार साल शादी न करने
की बीमारी।सब कुछ सलट भी गया यदि तो खड़ा मिलता है- विकराल दहेज-दानव।क्या करूँ,समझ में कुछ आ नहीं
रहा
है।इसीलिए चला हूँ आज आपके पास।आप हमसे ज्यादा पढ़े-लिखे, बुद्धिमान, देश-दुनियाँ देखे हुए व्यक्ति हैं।भले ही
उम्र में कम हों,पर अनुभव
हमसे बहुत ज्यादा है।आप ही कोई रास्ता सुझाइये।’
‘उम्र में तो आपसे
काफी छोटा हूँ ही;तिस पर पुलिस विभाग का खफ्त दिमाग। पुलिस वालों को दिमाग की कितना हुआ करता है।’-हँसते
हुए कहा निर्मलजी ने और पान का पीक फेंकते हुए जरा तन कर बैठते हुए बोले-‘सच पूछिए
तो जमाना बड़ी तेजी से बदल रहा है,तिवारीजी।रूढ़ीवादी संकीर्ण परम्परायें भी काफी कष्टप्रद हो
रही हैं।एक ओर
जातिवाद के जीर्ण लवादे को हटाने का प्रयास किया जा रहा है।परम्परागत उपाधियों का
कर्तन हो रहा है-नाम पर अकारण बोझ समझ कर,तो दूसरी ओर हम और भी संकीर्ण होते जा रहे हैं....।’
उनकी बात को बीच
में ही काटते हुए तिवारीजी ने कहा- ‘जाति-उन्मूलन का तो
अच्छा तरीका अपनायी है,हमारी
सरकारें।मेरे विचार से आरक्षण छब्बीस प्रतिशत से बढ़ाकर छियासठ प्रतिशत कर दिया
जाय तो और अच्छा।देश का भी कल्याण होगा।’
‘खैर यह तो
राजनयिकों की कवायद है।वोट बटोरने का बेजोड़ अनोखा नुस्खा है।वास्तविक कल्याण कहाँ
तक हो पाता है,भगवान
जाने।अब देखिये न- हमारे इस्लाम भाई परिवार नियोजन के बन्धन से मुक्त हैं।भारत तो एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ गणराज्य है न,और कुरान शरीफ इजाजत नहीं
देता
‘नियोजन’का।पता
नहीं ‘वेदों’ ने दिया होगा आदेश,जिसे
नेताओं ने सिर्फ पढ़ा होगा।’
‘वैसे जहाँ
तक मुझे पता है- राजा सगर के साठ हजार पुत्र थे,दक्ष प्रजापति की साठ हजार
कन्यायें।कश्यप-पत्नी कद्रु ने सहस्र बलशाली पुत्रों की
कामना की थी।हमारी बड़ी-बूढि़याँ ‘एक से इक्कीश’ होने का आशीष दिया
करती हैं।’
बातें हो ही रही थी,तभी नौकरानी चाय ले आयी।प्याला
पकड़ते हुए
तिवारीजी ने कहा-‘इस तरह की तो कितनी ही बातें हैं,जिन पर विचार भी
तभी किया जा सकता है,जब पेट भरा
और तन ढका हो साथ ही सिर पर कम से कम छप्पर तो जरूर हो...।’
चाय की चुस्की लेते
हुए उपाध्यायजी ने कहा-‘कथन तो आपका सही है तिवारीजी।मैं भी जरा विषयान्तरित हो गया था। व्यक्ति,समाज और तब बारी आती है- राष्ट्र
की।स्वयं को सुधारने का ठिकाना नहीं,और चल देते हैं सुधारने राष्ट्र को।हम संकल्प पूर्वक स्वयं
को सुधारें।फिर अपने बाल-बच्चे परिवार को सुधारें,सुसंस्कृत करें,सुशिक्षित करें।धीरे-धीरे एक नये
समाज का जन्म होगा। आप तो शिक्षक रह चुके हैं तिवारीजी।शिक्षक की महिमा और गरिमा के बारे में मैं क्या समझाऊँ
आपको।किन्तु धीरे-धीरे शिक्षा का जो स्तर गिर रहा है,या कहें सुनियोजित ढंग से गिराया जा
रहा है, उसका परिणाम भी नजर
आने लगा है चन्द वर्षों में ही।‘वोट-बैंक’ बनाने के चक्कर में
ये हमारे नेता गण कौन-कौन सा कुकर्म नहीं कर रहे हैं, कुछ बाकी भी रहा है
इन बेशरमों से?’
‘ठीक कह रहे
हैं उपाध्यायजी आप।किसी
अनुभवि ने ठीक ही कहा है-
‘हंसा रहा सो मरि
गया,सुगना गया
पहाड़,अब हमारे
मंत्री भये कौआ और सियार।’ शिक्षक की तरह ही नेता का भी पद कितना गरिमामय
है,कितनी
जिम्मेवारी वाला है,ये बात
हमारे आज के नेता कहाँ समझ पा रहे हैं? बस सिर्फ अपना उल्लु सीधा करने में पांच साल बिता देते हैं;और फिर बेहयायी
पूर्वक भोली जनता को सब्जबाग दिखाने चले आते हैं- अगले चुनाव के लिए।’
‘दरअसल,सत्चरित्र आगे आयेंगे,तब न जिम्मेवारी निभायेंगे।पर आते हैं छंटे धब्बेदार,जिन्हें किसी ‘डिटर्जेंट’ से स्वच्छ नहीं
किया
जा सकता।इक्के-दुक्के महान,चरित्रवान,सत् नायक आते भी हैं,तो खलनायकों की जमात में उनकी विसात ही क्या
रह जाती है? कौन सुनता
हैं उनकी बातें?’-निर्मलजी
ने बड़े मायूसी से कहा-‘गांधी से सारा संसार प्रभावित
हुआ।अंग्रेज घुटने टेके;किन्तु जरा गहराई में झांक कर देखें- गांधी का दर्द! सच
कहें तो गांधी को सबसे ज्यादा दर्द तथाकथित गांधीवादियों ने ही दिया।’- जरा ठहर कर
उपाध्यायजी ने फिर कहना शुरू किया-‘खैर,इन दूर की बातों को थोड़ा जाने भी
दें।हम अपनी आसन्न समस्या पर ही विचार करें।’
‘हाँ-हाँ,अपनी समस्या से पहले उवरें,तब कुछ और सोचें...।’- सिर हिलाते हुए
तिवारीजी ने कहा।
‘आज आप परेशान
हो रहे हैं मीना बेटी की शादी
के लिए। पर बन्धे हुए हैं- ‘वर्ण’ के भीतर,जाति की भी तह में प्रजाति,और उपजाति के तंग फंदों में भटक रहे
हैं। ‘‘चातुर्वर्ण्यं
मया सृष्टं,गुण कर्म
विभागशः’’ दूर रहा।हम ढूढ़ रहे हैं- फलां शाकद्वीपीय है,तो फलां क्रौंच द्वीपीय है,गौढ़ है, तो फलां कान्यकुब्ज,वह सरयूपारी है,तो वह मैथिल।इतना ही नहीं,मजे की बात
तो यह है कि हर कोई स्वयं को श्रेष्ठ और शेष को अपने से हीन सिद्ध करने को उतारू
है। जब कि सीधा सा उत्तर है कि पूर्व काल से ही दस ‘भूदेव’पृथ्वी
लोक के ब्राह्मण थे।कृष्ण पुत्र शाम्ब ने अपने ‘सौर यज्ञ’ में शाकद्वीप से भी
ब्राह्मणों को आमंत्रित किया, जिन्हें बाद में छल पूर्वक यहीं
रोक
लिया गया।यानी कुल जमा ग्यारह हो गये।ये सभी ब्राह्मण समान हैं।इनमें जतिगत विभेद नहीं
है।क्रिया
लोप भले है सिर्फ। स्वाभाविक है कि कोई पुत्र पिता तुल्य ही हो,और पिता पुत्र तुल्य ही हो यह आवश्यक
नहीं।क्रिया हीनता से संस्करों में कमी अपरिहार्य है।इसका यह अर्थ नहीं
कि
हम उनके साथ ‘बेटी-रोटी’ का सम्बन्ध न
रखें....।’
जरा ठहर कर
उपाध्यायजी फिर बोले-‘ब्राह्मण, ब्राह्मण है।उसका नियत कर्तव्य
है,जो अनिवार्य रुप से पालनीय है।अन्यथा उष्मा रहित आग का
क्या औचित्य?
कहा गया है- ‘‘शमो
दमस्तपः शौर्यं क्षान्तिरार्जवमेव च,
ज्ञानं
विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्म कर्म स्वभावजं।’’......
निर्मलजी की बातों
का आंशिक समर्थन करते हुए तिवारीजी बीच में ही बोल उठे-‘यह तो आपने
बहुत बड़ी बात कह दी। विशाल कर्तव्य बोझ लाद दिया बेचारे आज के निरीह ब्राह्मणों
पर,जबकि मनु महाराज
ने किंचित सहज संकेत दिये हैं- ‘‘अध्यापनमध्ययनं
यजनं याजनं तथा,
दानं
प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत।’’
पर आज बेचारों को मनुस्मृति प्रणीत छः कर्मों में सिर्फ तीन
ही याद रह गये हैं। स्वयं
अध्ययन से कोसों दूर रहते हैं और ‘परोपदेशे
पाण्डित्यं’ को चरितार्थ करते हैं। यजन में दिलचस्पी नहीं,पर याजन याद है।स्वयं
भिखारी को भीख देने से भी परहेज,और यजमान से दान लेने के हजारों तरीके...।’
तिवारीजी को स्वयं की व्याख्या पर ही
हँसी आ गयी।उनके मानस पटल पर उभर आया- पदारथ ओझा का निरीह ब्रह्म-रूप।और इसी क्रम
में याद आयी अपनी दयनीय स्थिति के साथ यहाँ आने का उद्देश्य।वार्ताक्रम में न जाने
कहाँ से कहाँ भटक गये थे;और दूसरे के कर्तव्यों पर टिप्पणी करते,अपना ही कर्तव्य बिसार बैठे थे।
दीवारघड़ी ने जोर का घंटा बजाया...
एक...दो...तीन...।और दोनों मित्रों का ध्यान खिंच आया लम्बे भटकाव से।
पान की दूसरी
गिलौरी मुंह में धरते हुए निर्मलजी ने कहा- ‘हमलोग अनावश्क गप
में उलझ गए,आपके आगमन
का उद्देश्य तो अधर में ही लटका रह गया।मैंने पूछा ही नहीं।’
कुछ देर तक
तिवारीजी मौन रहे।सोचने लगे कि बात किस ढंग से शुरू करें। भूमिका तो लम्बी-चौड़ी
हो गयी।फिर भी असल बात सीधे कह सकने की साहस नहीं
जुटा
पा रहे थे,जबकि विमल
पूरे तौर पर विश्वास दिला चुका था।फिर भी राजा भोज और भोजुआ तेली जैसी बात थी।
उनके दीर्घ मौन पर
उपाध्यायजी ने आपत्ति जतायी।उनकी पुलिसिया निगाहें भांप गयी थी कि तिवारी जी के
मन-मस्तिष्क में भारी द्वन्द्व छिड़ा हुआ है।अतः बोले-‘
क्यों
किस उधेड़ बुन में पड़े हैं? क्या सोच रहे हैं? कोई और समस्या है क्या? यह तो जान ही रहा
हूँ कि आप शादी के लिए परेशान हैं।क्या कहीं बात बनने के आसार
हैं? कुछ अर्थ
याचना के विचार से संकुचित हो रहे हैं?’
‘बात तो कुछ
संकोच वाली ही है।विषय भी याचना ही है; किन्तु ‘अर्थ’ नहीं...।’- अति संकोच में होठ
काटते हुए तिवारीजी बोले।
‘अर्थ नहीं,तब
और....?’- आश्चर्य
पूर्वक पूछा निर्मलजी ने।
‘कर्ण सदृश्य
महादानी के द्वार पर अर्थ जैसी तुच्छ याचना के लिए क्या पधारना।?’- तिवारी जी की
लक्ष्णात्मक वाणी थोड़ी मुखरित हुयी।उनके मुंह से धन के लिए तुच्छ विशेषण सुन कर
निर्मलजी स्वयं में गौरवान्वित हो उठे। वस्तुतः सरस्वती का उपासक लक्ष्मी को प्रायः तुच्छ ही समझता
है।
‘तो मांगिये,जो भी मांगना हो।’- गौरव पूर्वक कहा
उपाध्यायजी ने- ‘जहाँ तक सम्भव होगा अवश्य पूरा
करूँगा।ऐसी कोई भी वस्तु नहीं,जो रहते हुए भी न दे सकूँ आपको।’
‘याचित वस्तु तो है
ही आपके पास।ऐसी कोई वस्तु मैं आपसे मांग
ही नहीं
सकता जो आपके पास न हो।’-मुस्कुराते हुए तिवारी जी ने कहा।
‘तब देर किस
बात की।जल्दी कहिये।फिर कहीं दान मुहुर्त निकल न
जाये।’- उपाध्यायजी
के इस कथन के साथ दोनों ही मित्र हठा कर हँस पड़े।
‘जिस तरह आप
हमेशा कहा करते हैं-
मीना
को बेटी मानते आ रहे हैं।’-तिवारीजी
ने फिर भूमिका बनायी-‘उसी प्रकार मैं भी विमल को अपने
बेटे के समान मानता आ रहा हूँ।’
‘इसमें क्या
संदेह है।मीना मेरी बेटी बन कर उसी दिन मेरे हृदय में आ बसी,जिस दिन बीमार होकर पहली बार मेरे घर
आयी थी।अब तो उसे हृदय से निकालने की कल्पना भी नहीं
कर
सकता। सच कहता हूँ,यदि आपको
कोई और सन्तान होती,तो मैं ही याचना कर बैठता आपसे मीना बेटी के लिए।’-निर्मलजी
ने पुलकित होते हुए अपने दिल की बात कही।
‘सो तो आप
आज भी कर सकते हैं,मगर....।’
‘मगर क्या? स्पष्ट कीजिये।’-प्रसन्न
मुद्रा में उपाध्यायजी ने कहा।
‘....कुछ
प्रतिफल के साथ।’-
हँसते
हुए तिवारीजी बोले।
‘प्रतिफल’ मैं कुछ समझा नहीं।’-कहते हुए निर्मलजी के माथे पर
किंचित सिलवटें उभर आयी।
‘जी
हाँ।प्रतिफल ही।आप मुझे दे दें- विमल बेटे को। बेटी आपकी,बेटा हमारा।मुझे भी तो चाहिये न
बुढ़ापे का कुछ अवल्म्ब। आप मीना को अपने घर ले आवें बहू बनाकर,और विमल मेरा....।’
तिवारी जी की बात
पर उपाध्यायजी ठहाका लगाकर हँसने लगे- ‘ वाह! तब तो
हम ही फायदे में रहे।बेटा तो बेटा है ही।बेटी भी मुफ्त में मिल जायेगी।’
‘बेटी तो
वैसे भी छोड़कर चली ही जाती है।’- तिवारी जी ने धीरे से कहा।
उपाध्यायजी जरा
गम्भीर होकर बोले- ‘इतनी सी बात के लिए आप इतना संकुचित
हुए जा रहे थे? आप सीधे भी
यदि मांगते मेरे विमल को तो भी एतराज न होता।सो तो आप दामाद के रूप में मांग रहे हैं,इसमें मुझे आपत्ति
ही क्यों कर हो सकती है? सच पूछिये तो आपने मेरे अन्तर में सोयी एक भावना को जागृत कर
दिया आज।कभी-कभी मैं सोचा करता था- इस
विषय पर,जिसे आपने
आज स्वयं ही सम्भव बना डाला।खैर,मैं तो राजी हूँ ही,जरा एक बार विमल से भी राय ले
लूँ।वैसे इसमें उसे क्यों एतराज होगा?दोनों एक दूसरे को बचपन से जान रहे हैं।’-कहते हुए पीछे मुड़
कर आवाज लगायी-‘विमल बेटे! जरा बाहर आना।’
हालाकि विमल बगल
कमरे में ही बैठा उन लोगों की बातें सुन रहा था;किन्तु जानबूझ कर बाहर निकलने में
थोड़ी देर लगा दी,मानों कहीं
दूर
से आना हो।
तिवारीजी की खुशी
का तो ठिकाना ही न रहा।उन्हें आज अप्रत्याशित खुशियों का खजाना जो मिल गया था।वे
सोच भी न पाये थे कि एक करोड़पति इतना उदार हो सकता है।महादानी कर्ण ने तो चार
पांडवों को ही अभयदान दिया था।आज मीना को जीवनदान देकर उपाध्यायजी ने मानों
दुनियाँ को जीवनदान दे दिया।उनकी आँखों में अपार आनन्द के आंसू छलक आए।कुर्सी पर से
अचानक उठकर,कटे रूख की
तरह गिर पड़े- उपाध्यायजी के पुनीत पाद पंकज
पर- ‘धन्य हैं आप।धन्य हैं।इस घोर कलिकाल में आप सा दानवीर
हो सकता है,मैं तो कल्पना भी न कर पाया था.....।’
हड़बड़कर
उपाध्यायजी झुक पड़े अपने पैरों की ओर। ‘हैं..ऽ...हैं ! यह क्या कर रहे हैं आप? आप बुजुर्ग हैं।शिक्षक हैं।समाज के गुरू हैं।मेरे पैरों पर पड़ कर मुझे पाप चढ़ा
रहे हैं।’-कहते हुए
उन्हें उठाकर अपने सीने से लगा लिए।
कुछ देर तक
तिवारीजी उनके सीने से चिपके रहे, बच्चों की
तरह।अपने खुशियों के अश्रुधार से पखारते रहे उनके स्कन्ध प्रदेश को। फिर अपनी
कुर्सी पर आसीन होते हुए बोले- ‘ मुझे
बुजुर्गियत का खिताब देना,गुरू कहना,आपकी महानता है।पर मैं तो बेटी का बाप ठहरा,जिसका स्थान बेटे के बाप के चरणों
में ही हुआ करता है।’
कृतज्ञ भाव से
तिवारीजी के दोनों हाथ जुड़े हुए थे।नकारात्मक सिर हिलाते हुए उपाध्यायजी ने कहा- ‘ये क्या कह
रहे हैं आप? यही आत्महीनता
तो हमारी सोच को प्रभावित कर रही है।विकसित सोच तो यह है कि पुत्र या पुत्री के
पिता का प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न है-
मानव और मानवता का।आज यही भावना बेटे वालों का दिमाग सातवें आसमान में चढ़ाये हुए
है।किन्तु मैं उन पातकियों में नहीं
हूँ।
आपने सुना ही होगा- मैंने दो
लड़कों की शादियाँ की पर किसी से लेन-देन की सौदेवाजी न हुयी। अपनी सामर्थ्य और खुशी
से जो कुछ भी बन पड़ा बेटी-दामाद को दिया, उन लोगों ने। लड़की वाले से चूस कर कोई धनी और इज्जतदार
हुआ है क्या आज तक? शादी सम्बन्ध के मामले में बस एक ही बात मैं देखना चाहता हूँ- जोड़ी योग्य है या नहीं।धन-दौलत
तो आने-जाने वाला है।पानी के बुदबुदे सा जब जीवन ही क्षणभंगुर है,फिर दौलत तो और भी तुच्छ है।अब
देखिये न,उसी दिन
रामदीन पंडित आये थे। लाखों का प्रलोभन दे रहे थे। हालांकि मुझे खुटका तो उसी दिन
हुआ था।यही कारण था कि टाल मटोल कर दिया था।बाद में पता चला कि उनकी लड़की कुछ
विकृत मस्तिष्क की है,साथ ही
एकाक्षी भी।अब आप ही सोचिये,उस तरह की लड़की का हाथ विमल के हाथ में देकर बेचारे का जीवन
कैसे बरबाद कर सकता हूँ?उस दिन यदि जल्दबाजी में निर्णय ले लिया होता तो आज पछताने
के सिवा कोई चारा न रहता।’
‘यह
सोचना-समझना तो अभिभावक का कर्तव्य है ही,पर लड़की वालों को अपनी...।’कह ही रहे थे
तिवारीजी कि बगल दरवाजे से निकल कर विमल बाहर वरामदे में आ गया।
‘क्या बात
है पापा?’-विषय से बिलकुल अनजान बनता हुआ पूछा विमल ने।
‘आओ बेटे,बैठो।तुमसे कुछ सलाह लेनी है।’- बगल कुर्सी की ओर इशारा
करते हुए निर्मलजी ने कहा-‘तुम्हारा प्रशिक्षण तो पूरा हो गया न?’
‘जी हाँ।’
‘अब आगे का
क्या कार्यक्रम है?’
‘और आगे
पढ़ने का विचार नहीं है मेरा।बस,स्नातक स्तरीय प्रतियोगिताओं की
तैयारी करना,सफलता के
अनुसार प्रशासनिक सेवा अथवा फिर उड्डयन विभाग में सेवा का प्रयास करना- अभी तो यही
दो उद्देश्य है मेरा।वैसे आपकी जो राय।जो सम्मति देंगे,किया जायेगा।’-पिता की ओर देखते हुए
विमल ने कहा।
‘सो सब तो
होगा ही।इधर कई लोग बराबर आ-जा रहे हैं,तुम्हारे विवाह की चर्चा लेकर।आखिर कब तक लड़की वालों को परेशान
किया जाय?इस सम्बन्ध में तुम्हारी क्या इच्छा है?’-कहते हुए निर्मलजी ने बहुत गौर
से देखा विमल के चेहरे पर,मानों उसके आभ्यन्तर भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहे हों
अपनी अधीक्षकीय निगाहों से।
‘इस विषय में मैं क्या कह सकता हूँ? आप जैसा उचित समझें
करें।’-सिर झुकाये हुए विमल ने कहा।
‘उचित-अनुचित
की बात नहीं है।अब तुम बच्चे नहीं
हो।अपने
बारे में सोच-समझ सकते हो।शादी एक स्थायी निर्णय है।आजीवन-सम्बन्ध है। सोच-विचार
कर कदम बढ़ाने की जरूरत है।अब उसी दिन पदारथ ओझा के फेरे में पड़ कर रामदीन पंडित
को वचन दे दिया रहता तो कितना ही अनर्थ हो जाता।’-कहा निर्मलजी ने विमल की ओर
देखते हुये।
‘वे तो जन्मजात
दुष्ट हैं।’- धीरे से कहा विमल
ने,और तिरछी
नजरों से तिवारी जी की ओर देखने लगा,उनके मनोंभावों को परखने के प्रयास से।
‘वैसे तो
तिवारीजी से मुझे सम्पर्क कराने का श्रेय पदारथ ओझा को ही है।ये दोनों घनिष्ट
मित्र भी हैं।किन्तु,दोनों में कोई तुलना नहीं
है।स्पष्ट
शब्दों कहा जाय तो कह सकते हैं कि पदारथ ओझा घृणा के पात्र हैं,तो दूसरी ओर तिवारी
जी श्रद्धा,प्रेम, और दया के पात्र हैं।’
निर्मलजी की बातों
पर संकुचित तिवारीजी दोनों हाथ जोड़, रगड़ते हुए
अंदाज में कह उठे- ‘आप भी मुझे इतना बनाने लगे।मुझ अधम
को इतनी महत्ता....।’
‘नहीं...नहीं
तिवारीजी,यह कोई मुंह देखी बात नहीं
है।’-कहा
निर्मलजी ने। फिर विमल की ओर देखते हुए बोले- ‘हाँ तो बेटे! मुझे
इन्हीं के बारे में सलाह लेनी थी तुमसे।बिचारे तिवारीजी बहुत
दिनों से परेशान हो रहे हैं,मीना बेटी के लिए।मेरा बिचार है कि वह मेरे घर में बहू बन कर
आ जाए।इसमें तुम्हारी क्या राय है?’- निर्मलजी फिर एक बार विमल के चेहरे पर आँखें गड़ा
दिए।अधिक गौर करने के कारण,उनके ललाट पर ‘त्रिवली’ बन गयी,तथा आँखें संकुचित सी हो
आयी।तिवारीजी की दृष्टि भी उसी पर टिकी रही।विमल सिर नीचे किए चुप बैठा रहा।
कुछ ठहर कर विमल ने
संक्षिप्त सा उत्तर दिया- ‘इस सम्बन्ध में मैं स्वयं को स्वतन्त्र नहीं
समझता।’
‘फिर भी
अपनी राय तो जाहिर करनी ही चाहिए तुम्हें।’
‘अपनी राय
क्या, पापा की
आज्ञा सिर आँखों पर।’
तिवारीजी फिर एक
बार हर्षातिरेक से झूम उठे।उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि विमल कोरी गप्पें नहीं
हांक
रहा था,बल्कि
सच्चाई के सांचे में ढला खरा सोना है वह।
‘लीजिये
तिवारीजी आपके दान और त्याग का प्रतिफल।मैंने कहा था न कि मेरा बेटा उदण्ड नहीं,जो कह
दूंगा,उसे
स्वीकार करेगा सहर्ष।’- अति प्रसन्न होकर कहा उपाध्यायजी ने।
‘फिर क्यों
न इसी शुभ घड़ी में हमलोग आगे की बातें भी तय कर लें...।’- कहते हुए तिवारीजी
उठे,और अपनी
अंगुली में पड़ी सोने की अंगूठी,जिसे आते वक्त बक्से से निकाल कर पहन लिए थे,आगे बढ़ कर विमल की अंगुली में
पहनाने लगे।
‘यह क्या कर
रहे हैं? इसकी क्या आवश्यकता
है?’- एक ही साथ
पिता-पुत्र दोनों कह उठे।
‘कुछ नहीं,यह
तो छोटा सा एक रस्म है,हृदय के
उद्गार का प्रतीक।’-हँसते हुए कहा तिवारीजी ने; और विमल की अंगुली
में पहना दिये ‘जय गणेश’ कहते हुए।
निर्मलजी
मुस्कुराते हुए सस्वर बांचने लगे-
‘मंगलं
भगवान विष्णुः, मंगलं गरूड़ध्वजः।
मंगलं पुण्डरीकाक्षः, मंगलाय तनोहरिः।।’ फिर जोर से आवाज लगाये- ‘अरे वो
विठुआ! मुंह मीठा कराओ सबका।’
विमल उठ कर भीतर
चला गया,भाभियों को
संदेश देने,अपनी सगाई
का। एकाएक मानों घर के ईंट-ईंट से शहनाइयों की गूंज उठने लगी; और इसके साथ ही
विमल का रोम-रोम पुलकित हो उठा। आवाज सुन बड़ी भाभी कमरे से निकल कर आंगन में आयी,जिसके होठों पर बन्ने के बोल थिरक
रहे थे-
‘ खेलो खेलो
कौशल्या के गोद,रामचन्द्र
दूल्हा बने...।’ रसोई घर से छोटी भाभी भी थिरकती हुयी बाहर निकली यह गाती
हुयी- ‘बन्ना बने
हैं कृष्ण जी देखो अभी
अभी,सोने की
मंउरी आपकी देखो अभी अभी...लडि़याँ लगी है आपकी देखो अभी अभी...। और हाथ में लगी
हल्दी का थापा मार दी विमल के दोनों गालों पर। हँसता हुआ विमल एक ओर चल दिया।उसके
हृदय में मीना का प्यार कुलबुला रहा था,किन्तु बड़ी भाभी के गीत के बोल पल भर के
लिए भावी पत्नी के प्रेम को खदेड़ कर ममतामयी माँ की स्नेह सरिता में ऊभ-चुभ कराने
लगा, जो आंखों
की निर्झरणी से स्रवित होने लगी।
काश! आज कौशल्या
होती,और सिर पर
सेहरा बाँधे रामचन्द्र उसकी गोद में इठला पाते।बेचारे विमल की कौशल्या तो कब की जा
चुकी है- अपने राम को त्याग
कर।घूम जाता है एक काल्पनिक दृश्य विमल की आंखों के सामने। हाँ,काल्पनिक ही।क्यों कि जिस काल में
माँ का देहान्त हुआ था,बेचारा
विमल विस्तर पर पड़े हाथ-पांव ही तो चला सकता था सिर्फ।माँ की ममता के रिक्त स्थान
को यथासम्भव भरने का प्रयास किया था बड़ी भाभी ने।थी भी वह इसी पद के योग्य।मंझली
यानी छोटी तो मात्र एक साल ही बड़ी थी-विमल से सिर्फ। वह तो निरी-छूंछी भाभी ही
है।दिन-रात हँसी मजाक के पटाखों में उलझा रखती हैं जब से आयी हैं।इनका स्नेह और लाढ़ अपने आप में बेमिशाल है।यही
कारण कि विमल की इच्छा नहीं होती कि वे कभी
लम्बे समय के लिए मैके भी जाय।
मजाक में एक दिन
छोटी ने कहा था-‘ क्यों विमल बाबू!
बीबी के आने के बाद भी क्या इसी तरह भाभी का....?’
‘क्यों नहीं...क्यों
नहीं।इसमें भी संदेह है क्या? बीबी तो बीबी रहेगी।प्यारी भाभी - मिश्री की डली का
मुकाबला थोड़े जो कर सकती है?’-हँसते हुए विमल ने कहा था,और भाभी के गाल पर चिकोटी काट दिया
था।
आज वही प्रश्न छोटी
ने फिर दुहराया- ‘क्यों विमल बाबू! मीना रानी को पाकर
तो सारी दुनियाँ को ही भूल जाओगे?’
सही में विमल की
कल्पनायें उलझने लगी मीना के चंचरीक सदृश काले कुंतलों में।बहुत दिनों बाद आज मौका
मिला था उसे लिपटा पाने का अपनी बेसब्र बाहों में,जो विगत वर्षों से विकल थी। अब तो
उसके सर्वस्व का स्वामी हो जायेगा वह।
इसी प्रकार की
बातें विमल सोचने लगा।भावी कल्पनाओं का महल ऊँचा, और ऊँचा होता गया।
बाहर बैठे दोनों
भावी समधी पोथी-पतरा में उलझ पड़े।।काफी तर्क-वितर्क, सोच-विचार के बाद इसी माह के अन्त का
शुभ लग्न- मुहूर्त निकाला गया। तिवारी जी की स्थिति का ध्यान रखते हुए निर्मलजी ने
साफ शब्दों में कहा- ‘देखिये तिवारी जी,मैं स्थिति से पूरी तरह
वाकिफ हूँ।वैसे भी मुझे सिर्फ शास्त्रीय कर्मकाण्ड-विधानों से मतलब है केवल; न कि फिजूल के
आडम्बरों से।नाच,बाजा, शहनाई,शमियाना...यह सब सिर्फ दिखावा है।झूठी शान का प्रदर्शन है,जो खास कर गलत संदेश ही दे जाता है
समाज में।और फिर जाहिल समाज भी इसी में उलझा रह जाता है- आवश्यकता और वास्तविकता
से कोसों दूर।एक का प्रदर्शन दूसरे के लिए बोझ बन जाता है।’
‘जैसा आप
कहें,आपके आदेशानुसार
ही सारी व्यवस्था की जायेगी।’-पंचांग समेटते हुए कहा तिवारी जी ने।
‘व्यवस्था
क्या?समझिये तो कुछ नहीं।सामान्य वस्त्र सहित चन्दन,पान, सुपारी,कुछ प्रसाद- फल-फूल-मिष्टान्न, और मात्र ग्यारह रूपये लेकर,आप तिलक के दिन आयें, और वर-वरण कर
जायें।एक दो मित्र जो भी आयें,विशेष आडम्बर का कोई काम नहीं अत्याधुनिक,आदर्श शास्त्रीय विवाह का ढंग सुझाया
निर्मलजी ने- ‘उसी प्रकार मैं भी मात्र चार-पांच की संख्या में ही बारात
लेकर आऊँगा। उतने के लिए ही आप सामान्य नास्ता-भोजन- विश्राम की व्यवस्था रखेंगे। कन्या-दान
हेतु वस्त्र-अलंकार तो आपको व्यवस्था करनी है।लड़के के लिए किसी बात की चिन्ता की
जरूरत नहीं है।लड़का मेरा है।बहू मेरी होगी।अतः
उनके लिए कपड़े और आभूषण की चिन्ता आपको जरा भी नहीं
करनी
है।
‘फिर भी....।’- संकोच पूर्वक कहा
तिवारीजी ने- ‘पिता के नाते मेरा भी तो कुछ कर्तव्य बनता
है।बेटी-दामाद के लिए....।’
‘ठीक है।’-बीच
में ही बोल पड़े उपाध्यायजी- ‘आप अपने शौक और
स्थिति के अनुसार थोड़ा बहुत जो बन पावे,व्यवस्था कर लीजियेगा।किसी चीज के लिए
चिन्ता और परेशानी की बात नहीं।जो भी कमी होगी,मेरे ऊपर छोड़ देंगे।’
विठुआ बाजार से ढेर
सारी मिठाई ले आया।पूरे परिवार में मिठाई बाँटी गयी।छोटी का तो विचार हुआ-
आस-पड़ोस का भी मुंह मीठा कर देने का।किन्तु निर्मल जी ने कहा-‘
क्या
जरूरत इस दिखावे का? एक ही बार तिलक-समारोह में छक कर खिला देना लोगों को।आज तो
खिलाओ सिर्फ तिवारी जी को,जितना खा सकें।’ और हँसते
हुए निर्मलजी ने तिवारी जी के हाथ में एक पैकेट धर दिया, भीतर से लाकर।
‘तो क्या इस
पूरे पैकेट को ही खा जाना है?’- पैकेट पकड़ते हुए तिवारीजी ने हँस कर कहा।
‘खा तो जाना
ही है,मगर सिर्फ
इसके अन्दर की चीजें। पैकेट भी संकोच या लालच में मत खा जाइयेगा।’
उपाध्यायजी की बात
पर दोनों मित्र ठहाका लगा कर हँस पड़े। काफी देर तक दोनों बुजुर्ग बच्चों सा
हँसते-खिलखिलाते रहे।उनकी हँसी तो तब रूकी जब हाथ में ट्रे लिये,जिसमें मिठाइयों से भरे दो प्लेट थे-
लाकर सामने रख दिया मेज पर बिठुआ ने।
‘यह क्या?’-चौंक कर
ऊपर देखने लगे तिवारीजी,बिठुआ के
चेहरे को- ‘मुझे तो पूरा पैकेट ही मिल चुका है।अब यह
किस लिए?’
‘जी!...जी!...वह
तो...जी....।’- बिठुआ के
जी...जी का आशय तिवारी जी समझ न सके,और उपाध्याय जी का मुंह देखने लगे।
‘इसे लेते
जाइयेगा।यह मीना बेटी के लिए है। पैकेट की ओर इशारा करते हुए उपाध्याय जी ने कहा,और ट्रे में से एक प्लेट उठाकर
तिवारीजी के सामने मेज पर सरका दिये,दूसरा स्वयं लिए।
हँसी मजाक के दौर
में मिठाइयाँ चट की गयीं।घड़ी ने पांच का घंटा बजाया। उधर वालक्लॉक का हैमर घंटा
बजा कर स्थिर हुआ और इधर कुर्सी छोड़ कर तिवारी जी अस्थिर हो गये।
‘ओफ! काफी
देर हो गयी।गप-शप में ध्यान ही न रहा।’-कहते हुए तिवारी जी हाथ जोड़कर मुखातिब हुए
निर्मल जी की ओर- ‘अब आज्ञा दें।’
‘शाम के
वक्त किसी को वापस जाने की आज्ञा देना तो शिष्टाचार के विरूद्ध है किन्तु मीना
बेटी अकेली होगी,इस कारण
आपका जाना भी आवश्यक है।’- कहते हुए निर्मलजी भी कुर्सी छोड़ उठ खड़े हो गये।भीतर
कमरे से निकल कर विमल भी बाहर आ गया।
‘जा रहे हैं बापू?पैदल जाने में तो रात हो जायेगी घर
पहुँचने में।चलिये,मैं छोड़ आता हूँ आपको।’-कहता
हुआ विमल वरामदे से नीचे उतर कर पोर्टिको की ओर बढ़ चला।मन ही मन सोचा- चलो आज फिर
मौका मिलेगा रात गुजारने का।देर रात क्या उधर से आने देगी मीना।
तब तक निर्मल जी ने
बिठुआ को आवाज लगायी- ‘मेरा धोती- कुर्ता ले आना।’ फिर तिवारीजी की ओर
देखते हुए बोले- ‘चलिये मैं ही छोड़ आता हूँ
आपको।मीना बेटी को देखे बहुत दिन हो गये हैं।आज अपने हाथों ही मिठाई
खिलाऊँगा उसे।’
विमल गाड़ी निकाल
कर गेट पर ला खड़ा किया।तब तक निर्मलजी भी तैयार हो गये थे।उन्हें तैयार देख,विमल समझ गया कि उसकी आशा को निराशा
मिलने वाली है।
‘क्यों आप
जा रहे हैं
क्या
पापाजी?’-अन्तर भावों को छिपाते हुए विमल ने पूछा,और उत्तर की प्रतीक्षा किये वगैर मन
मसोसता, गाड़ी से नीचे उतर
आया।
‘हाँ,मैं ही पहुँचा आता हूँ
तिवारीजी को।’- कहते हुए निर्मलजी आगे बढ़कर गाड़ी में बैठ गये।तिवारी जी भी बायां
गेट खोल कर आ बैठे।
गाड़ी चल
पड़ी।मिठाइयों का पैकेट चला गया।विमल खड़ा रह गया,वरामदे में कुर्सी के हत्थे का सहारा
लिए,मन मसोसता
हुआ।
गाड़ी निकली गेट
से। और साथ ही निकल गयी बात विवाह समारोह की। भावी तूल-फितूल की।उसकी कटौती
की।काफी देर तक कीचड़ उलीचा जाता रहा- आधुनिक विवाह-शैली और रस्मो-रिवाजों पर।इसी क्रम
में प्यारेपुर के निर्मल ओझा की याद आ गयी,और शुरू हो गयी उन जैसे पाखंड़ी तथा
कथित समाज-सेवी महानुभाव पर टीका-टिप्पणी।रामदीन पंडित के प्रलोभन का भी परिमार्जन
हुआ।फिर इसी क्रम में पदारथ ओझा को घसीट लाना पड़ा,क्यों कि ऐसे चर्चों में वैसे
महानुभाव का आना स्वाभविक है।
खेद प्रकट करते हुए
कहा उपाध्यायजी ने- ‘स्वार्थ मानव को कितना अंधा बना देता
है,इसका
जीवन्त उदाहरण है-
लम्पट
ओझा।’
‘लम्पट ओझा?’- तिवारी जी जरा चौंके।
‘मित्रता का
स्वांग भरने वाला पदारथ ओझा कितना लम्पट है,क्या यह भी
छिपा है मुझसे? क्या उसे जानकारी न होगी- रामदीन पंडित की सुपुत्री के
बारे में?जानबूझ कर धन का प्रलोभन देकर मेरे विमल की जीवन-ग्रीवा घोंटने चला था।वो
तो कहिये कि समय पर मुझे जानकारी हो गयी,अन्यथा मैं स्वयं को कभी माफ न
कर पाता।’
‘क्या कहा
जाय।हैं ही कुछ
अजीब स्वभाव के।मित्रता तो मुझसे काफी है। पर ‘करकट-दमनक’ वाली।सिर्फ मतलबी
यार है।उस बार इन्हीं रामदीन पंडित के
चक्कर में व्यर्थ ही सात-आठ हजार का फेरा हो गया।मुझ सरीखे व्यक्ति के लिये इतनी
रकम कोई मायने रखती है।पर उन्हें तो मेरे बगीचे से मतलब था,मेरी सन्तान से क्या वास्ता? इधर न जाने क्यों
तीन-चार महीनों से मुलाकात भी नहीं किये हैं।’-ओझाजी की बखिया
उघेड़ते हुये तिवारीजी ने कहा।
नाक-भौं सिकोड़ते
हुए उपाध्यायजी ने कहा- ‘मैंने कहा न- वह लम्पट है बिलकुल।शिक्षक
है।बुजुर्ग है।पर अभी भी आशिक मिजाजी का भूत नहीं
उतरा
है सिर से।पत्नी मर गयी कब की।लोग कहते-समझाते रहे।पर दूसरी शादी न की। विरक्ति
दिखलाते रहे।किन्तु कितना विरक्त है-क्या मुझसे भी छिपा है? पापी... नीच...कमीना...विधवा
भाभी को ही....।’
आँखें विस्फारित हो
गयीं तिवारीजी की,निर्मलजी की बात सुन कर।
‘क्या कहा
आपने- विधवा भाभी को ही पत्नीवत रखे हुए हैं पदारथ भाई? ऊँऽह...छीः छीः।यह तो बड़ी शर्मनाक बात है।पर
आपको कैसे मालूम हुआ? मैं इतना नजदीक हूँ ,फिर भी...।’
‘दूर-नजदीक
की बात नहीं।बात है नजरों की।आप जानते ही हैं- पुलिस की निगाहें कितनी पैनी होती हैं।हमलोग को इसी बारीकी का प्रशिक्षण
ही दिया जाता है। पल भर में ही ‘प्रौपर डाग्नोसिस’ न कर लिया तो फिर
पुलिस अफसर ही क्या? आपको यह सुन कर तो और भी आश्चर्य होगा कि स्वयं लगाये हुए
कितने ही पौधों को विधवा की गर्भ-वाटिका से उखाड़ फेंका कुटिल पदारथ ने।’
उपाध्यायजी का
रहस्योद्घाटन पल भर के लिए झकझोर गया तिवारी जी को।गहन सोच के गलियारे में भटक
गये--‘ओफ! कितना
अनर्थ है! परायी खेती में बर्बरता पूर्वक फसल लगाना और फिर उसे तैयार होने से पहले
ही काट फेंकना;जब कि कितने निरीह तरस रहे हैं- दाने-दाने के लिए।’
‘क्या सोचने
लगे तिवारी जी? दुनियाँ
अभी देखी ही कहाँ है आपने?’- व्यंग्यात्मक मुस्कान विखेरते हुए कहा उपाध्यायजी ने,और तेज हॉर्न बजाते हुए गाड़ी खड़ी
कर दी तिवारी जी के मकान के सामने।
तीव्र ध्वनि-तरंगों ने विचारों की श्रृंखला को
तोड़ डाला। संकुचित, अपने आप में लज्जित
से,तिवारीजी
गाड़ी से नीचे उतर आये।उपाध्याय जी भी साथ में आ गये।
किवाड़ यूँ ही
भिड़काया हुआ था।देर से प्रतीक्षा रत मीना अभी-अभी रसोई में गयी थी।गाड़ी की आवाज
सुन झट बाहर आ गयी।
‘आ गए बापू?’-चहक
उठी गौरैया सी।पीछे खड़ें उपाध्यायजी को देखते ही शरमा कर ठिठक गयी,क्षणभर के लिए।फिर आगे बढ़कर उनका
चरण स्पर्श की।
मीना पर निगाह
पड़ते ही निर्मल जी प्रफ्फुलित हो उठे।अपरिमित वात्सल्य और हर्षातिरेक से उनकी
वाणी अवरूद्ध सी हो गयी।पैरों की ओर झुकी मीना को उपर उठाते हुए लपक कर उसके माथे
को चूम लिये,और
बिहंसतते हुए पूछे -‘कैसी हो मीना बेटी?’ और हाथों में मिठाई का पैकेट पकड़ाते
हुए बोले-‘ये लो मेरी ओर से बधाई।’
मुस्कुराती हुयी
मीना आरक्त हो आए कपोलों पर शर्म की परत को समेटती भीतर चली गयी।पीछे से दोनों
मित्र या कहें भावी समधी,कमरे में
चौकी पर आ विराजे।
‘चाय बनाओ
मीनू।’- बैठते हुए तिवारीजी ने कहा।
‘नहीं...नहीं,चाय
वाय की जरुरत नहीं।देर हो जायेगी।मैं सिर्फ अपने
हाथों मीना को मिठाई देने आया था।बहुत दिन हो गये थे मिले हुए भी।’
‘यह कैसे हो
सकता है,वगैर चाय
पीये चले जायेंगे?’-कहते हुए
तिवारीजी कुर्ता उतार खूंटी पर टांग,हाथ में ताड़ का खूबसूरत पंखा लेकर झलने लगे।
‘चाय बना
रही हूँ पापाजी।पीकर जाना होगा।’-चूल्हे पर केटली चढ़ाती हुयी,भीतर से मीना ने आवाज लगायी।
तिवारीजी के हाथ से
पंखा लेते हुए उपाध्यायजी बोले- ‘पंखा बड़ा ही
सुन्दर है।कितने में लिये हैं?’
‘लिया नहीं
हूँ।मीना
ने बनाया है।फुरसत के समय कुछ न कुछ हस्त-लाघव दिखाते रहती है।’- मुस्कुराते हुए
तिवारीजी ने कहा।
हाथ में पंखा लिये
उपाध्यायजी उलट-पलट कर देखते रहे कुछ देर तक- साधारण वस्तु पर असाधारण
हस्तकला।उनके भीतर कुछ अजीब सा तरंगित हो रहा था,जो अवगुण्ठित हो चेहरे पर झलकने लगा
था।रोम-रोम कुछ कहने को व्याकुल हो उठा।
मीना चाय ले आयी,साथ में कुछ नमकीन भी- केले और आलू
की छोटी-छोटी बड़ियाँ।आज ही बड़े शौक से बनायी थी इसे।उसे पूरी उम्मीद थी कि शाम
को विमल जरूर आयेगा,बापू को
छोड़ने के लिए।किन्तु विमल को आज यह सौभाग्य न मिल सका।
चाय-नमकीन से
निवृत्त हो उपाध्यायजी वापस चल दिए।रास्ते भर केले और आलू की बडि़याँ,और ताड़ के पंखे पर नकली मोती की
लडि़याँ-याद आती रहीं उन्हें।
कहने को तो उपाध्यायजी ने कह दिया था- ‘कुछ भी
तूल- फतूल नहीं करना है मुझे भी।’ परन्तु दूसरे दिन
से ही घर का रौनक बदलने लगा।झाड़-बुहार,पेन्ट-पोचारा होने लगा। बहुओं का कहना था-‘छोटे देवर
की शादी है-इस पीढ़ी की अन्तिम शादी, सादा-सादी
कैसे रहेगा? कुछ तो होना ही चाहिये।’
....और होने भी
लगा।निर्मल उपाध्याय की गाड़ी प्रीतमपुर की संकीर्ण गलियों को छोड़,प्रसस्त चौड़ी सड़कों पर दौड़ने
लगी।वनारसी और बंगलोरी साडि़याँ,फिरोजावादी चूडि़याँ,कोल्हापुरी चप्पल,बीकानेरी जेवर....न जाने क्या-
क्या...एक से एक सामग्रियों की सूची बनायी जाने लगी;और यथासम्भव उनका जुटान भी
होने लगा।बाजार का प्रायः काम दोनों भाभियों को साथ लेकर विमल ही किया करता। दोनों
भाइयों को टेलीग्राम द्वारा सूचना भेज दी गयी।कुछ संक्षिप्त क्रम में
निमन्त्रण-पत्र भी छपने का आदेश दे दिया गया प्रेस को।
इधर मधुसूदन तिवारी
भी जुट गये वैवाहिक व्यवस्था में।घर का लिपाई-पुताई कर दिया गया।हस्तलिखित पत्र
नापित द्वारा, निकटवर्तियों को
भेज दिया गया।हालांकि आने वाले ही कितने हैं- एक-दो भांजे,दो बहनें, एक-दो और कोई। श्रीहीनों के कुटुम्ब भी तो
प्रायः सीमित ही हुआ करते हैं।तेल रहित ‘अलसी’ जैसे सूखी, अलसायी सी रहती है,वैसा ही होता है अर्थहीनों का
सम्पर्क भी। नापित द्वारा ही परम मित्र पदारथ ओझा को खास तौर पर अग्रिम बुलावा
भेजा गया- राय-मशविरा के लिए।किन्तु मालूम हुआ कि वे किसी अर्थ-सुपुष्ट यजमान की
अन्त्येष्ठि क्रिया में महानिर्वाण की नगरी- काशीजी गये हुए हैं।श्राद्धादि
सम्पन्न कराकर,पूरे
पन्द्रह दिनों बाद ही शायद लौट पायें।
सेवा-निवृत्ति के
पश्चात प्राप्त रकम का अधिकांश तो खर्च ही हो चुका था। अल्प शेष राशि को भी
डाकघर-बचत-खाते से निकाल, मीना के कन्यादान हेतु
आवश्यक वस्त्रालंकार आदि की व्यवस्था स्वयं ही बाजार जाकर कर लिये।संक्षिप्त वराती
एवं अन्य आमन्त्रितों के लिये दस-पन्द्रह दिनों की भोजन व्यवस्था भी लगभग पूरी हो
गयी।
तिलकोत्सव के दो दिन पूर्व स्वयं गये
उधमपुर- मीना के विद्यालय के शिक्षक समुदाय को आमन्त्रित करने।उधर से निबट कर
पहुँचे पदारथ ओझा के घर।किन्तु आज भी मुलाकात न हो सकी।उनका प्रतिनिधित्व की विधवा
भाभी।
किवाड़ की आड़ में
खड़ी- तृण धरि ओट कहत वैदेही को चरितार्थ करती,आंचल के छोर को चेहरे पर रखती हुयी
बोली- ‘पदारथ बाबू
तो बाबा बैजनाथ धाम गये हुए हैं,किसी यजमान के काम से।उधर से ही वद्रीकाश्रम जाने का विचार है
उनका।लगता है अब बारात के दिन ही पहुँच सकेंगे।’
फिर थोड़ा संकोच
पूर्वक बोली- ‘बुरा न माने तो एक बात कहूँ।’
‘कहिये...कहिये...बुरा
मानने की क्या बात है।’- नकारात्मक सिर हिलाते हुए प्रसन्नता पूर्वक तिवारीजी बोले।
‘बहुत दिनों
से लालसा थी,मीना बेटी
को देखने की।इनसे कई बार कही मैंने, पर ये तो
सुनते ही नहीं।कम से कम उसके विवाह में मुझे भी शामिल होने का सौभाग्य....।’-कहती
हुयी प्रौढ़ा के झुर्रीदार रसहीन कपोलों पर अश्रुधार चू पड़े।आगे के शब्द उसके गले
में ही अटके रह गये।
‘यह तो बड़ी
खुशी की बात है।आप मेरे यहाँ चलना चाहती हैं- मेरे लिए परम सौभाग्य की बात है।मैं तो स्वयं ही सोच रहा था आपसे निवेदन करने को
कि आपने ही प्रस्ताव रख दिया।आप तो मीना की माँ के समान हैं। निःसंकोच, जब कहें मैं ले चल सकता हूँ।काश! आज उसकी माँ होती...।’-कहते
हुए तिवारी जी का गला भर आया।
‘मीना की माँ वाक्यांश उस सहृदया
प्रमदा के किसी ‘अज्ञात अभिज्ञा’ को झकझोर गया,और फफक कर रो पड़ी।उसके इस करूण रूदन
का अर्थ बेचारे तिवारीजी क्या लगा पाते! नारी-उर की अन्तर्वेदना सिर्फ नारी ही समझ
सकती है।पुरूष में क्या शक्ति है,जो स्वयं स्वज्ञा विहीन है।
‘ठीक है।कल
दोपहर में किसी को भेज देंगे आप।मैं साथ में
चली आऊँगी।’ - सिसकते, रूंधे गले से आवाज आयी।
‘ठीक
है।अवश्य भेज दूँगा।’- कह कर तिवारी जी चल पड़े लम्बे-लम्बे डग भरते माधोपुर की ओर,कारण कि शाम के साथ अंधकार भी दौड़ते
हुये चला आ रहा था।
‘परसों तिलक
जाना है।अभी ढेर सारा काम बाकी है।काम कितना हूँ कम हो,है तो आखिर शादी ही।वह भी लड़की
की।इसी बीच नोटिस भी मिल चुकी है।धमकी भी दे ही चुका है चौधरी। सरकारी जमीन पर बनी
झोपड़ी- लगता है,अब छोड़ना
ही पड़ेगा।इस बला के निवारण का कोई रास्ता भी तो नजर नहीं
आता।’- इन्हीं विचारों में उलझे,चलते रहे अपने गन्तव्य की ओर परिचित
पगडंडियों पर पांव धरते बेचारे मधुसूदन।
समय पर तिलकोत्सव सम्पन्न हो गया।नापित के अलावे
स्वयं, दोनों भांजे एवं एक
बहनोई- मात्र पांच व्यक्ति उपस्थित हुये उनकी ओर से।
उपाध्यायजी ने दिल
खोल कर स्वागत किया।उनके सुझावानुसार मात्र चन्दन,पान,सुपारी,चाँदी के खानदानी कटोरे में ले कर
उपस्थित हुए थे तिवारी जी।
मंगल सामग्रियों के
साथ कुछ नगदी का न होना अमंगल-सा माना जाता है। फलतः मात्र ग्यारह रूपये रख दिये-
रजत पात्र में।पर रूपये ‘रूपये’ थे- चाँदी के सिक्के,न कि जनता को भुलावे में रखने वाली,रिजर्व बैंक के गवर्नर द्वारा हस्ताक्षरित,कागजी हुण्डी।हालाकि इससे कोई खास
फर्क नह°
पड़ता; क्यों कि जनता
अभ्यस्त हो गयी है- लुढ़कती अर्थव्यवस्था के मृयमाण हुण्डियों को सहेजते- सहेजते।
विदाई के समय
उपाध्यायजी ने कहा-‘मेरे कथन से कुछ अधिक ही आडम्बर कर
दिया है इन लोगों ने।आप इसे अन्यथा न मानेंगे। आप स्वयं यथासम्भव संक्षिप्त
व्यवस्था ही रखेंगे।सही में वारात हम पांच से ज्यादा न लायेंगे।
तिलक के चौथे दिन
ही विवाह की बात तय थी।फिर चार दिन गुजरने में दिन ही कितने लगने
थे।एक...दो...तीन...के बाद आ गया चार।
सब के सब हो गये
तैयार।
इस दिन की तैयारी
सिर्फ तिवारीजी के यहाँ ही नहीं बल्कि अन्य कई घरों
में हो रही थी,बड़े धूमधाम के साथ।क्यों कि वे सब बड़े लोग थे।संभ्रांत लोग।
शायद ‘संस्कृत’ भी।
कड़ाह बाल्टा से
लेकर दरी,चादर,मसनद तक का बयाना पहले ही हो चुका
है।गांव के मजदूर वर्ग,हलवाई,खानसामा,सबके सब ‘रिजर्व’ हो
गये हैं।बेचारे
तिवारी जी के हिस्से- नापित के एक ‘पॉकेट एडीशन’ के सिवा कुछ भी नहीं
आया।कुछ
की तो इन्हें जरूरत भी न थी।
किन्तु सच कहें तो
आये ही कौन इनके यहाँ? कौन कहें कि पंचरंगी मिठाइयों का पेड़ गिरना है, जलेबियों के रस की
बाढ़ आनी है? बहुत होगा
तो प्रीतमपुर के मंगरू साव की दुकान से एक-दो किलो ‘मोतीचूर’ आ जायेगा, दालमोट का एकाध पैकेट होगा, कुछ थोड़े बहुत केले-संतरे...और क्या? न तो यहाँ नाच होना
है।न शहनाइयाँ बजनी है।आतिबाजियों के धूमधड़ाके का तो सवाल ही नहीं।
और उधर...गांव में?
मत पूछो,बहुत कुछ...।बहुत कुछ।कलकत्ते से ग्रैंडहोटल का खानसामा और बैरा आया
है।सिंगापुर का केला...कश्मीरी सेव...दार्जिलिंगी संतरे... नेतरहाट का नाशपाती...मुज्जफ्फरपुर
का लीची...कितना गिनाऊँ? चाय पत्ती तक सीधे आसाम के चाय बागान से चुन कर मंगवाया गया
है।चौधरी ने तो वृन्दावन से राशलीला मण्डली भी बुलवा ली है।पन्द्रह दिन पहले से ही
उसके दरवाजे पर भीड़ लगी है।
ये सब तो चौधरी की
अपनी व्यवस्था है।वारात के तरफ से बम्बई की नामी-गिरामी झबेरी बाई आ रही है।यही
कारण है कि युवा वर्ग की जेबों में हफ्तों पूर्व से ही कन्नौजी और लखनौआ हीना,मोतिया, मजमुआं धमधमाने लगा है।
‘नौचेड़े’ आपस में बातें करते
नहीं अघाते- ‘साली बनारस की
रंडियाँ तो सब बूढ़ी हो गयी,कौन पूछता है अब उनको?अरे यार मारो न मजा....इस बार तो सीधे
फिल्मिस्तान से झबेरी और गुलेरी आ रही है...जिसे परदे पर देखने के लिये मार होती
है...अब सामने स्टेज पर देखेंगे...चौधरी काका ने गांव को ‘इन्दर का
सुअर्ग’ बना दिया
है...ससुरी बिजूलिया कट कट जाती है...अबकी तो बड़का ‘जिनरेटरवा’ चलेगा...।’
किसी ने गेंहू का
बोझा बेंचा,किसी ने
काका का कम्बल।किसी ने माँ का जेवर बेच डाला तो किसी ने बीबी का....कुछ न कुछ
बेंच-बांच कर,किसी ने
कुछ उधार-पैंच लेकर
झबेरी बाई के लिए उपहार की व्यवस्था कर रखी है।विष्णु प्रदत्त नारद का मरकट का सा
रूप रचा रखा है नवयुवक मंडली ने।सबको पूरा भरोसा है कि उसके गले में जरूर बाहें
डालेगी झबेरी बाई।
ग्रामिणों की जमात
देखने लायक है-एक ओर लौंड्री के धुले लकदक कपड़े- लखनौआ परिमल से गमागम- रइसों के वदन पर;तो दूसरी ओर सोडा और
‘रेह’ में मलमल कर
परिमार्जित परिधान-धारी भोले गरीब ग्रामीण।कुछ ने तो वस्त्र प्रक्षालन की आवश्यकता
भी नहीं समझी इस असामान्य से ‘सामान्य’ अवसर के लिए।कुछ ने
दादा और काका के कुरते को ही अंगरखे का रूप दे,मानों भैंसे के भय से फसल भरे खेतों में मानवी
सृष्टि का मानव खड़ा हो, सड़ासड़ नाक
सुड़कते- कुरते के आस्तीन को ही रूमाल का कार्यभार सौंप,किसी ने केवल कुरता पहन,किसी ने सिर्फ जांघिया ही,किसी ने तो ‘दिगम्बर’ का झंडा लिए, यथाशीघ्र उपस्थित हो जाना ही अपना कर्तव्य
समझा।
इसी तरह,शामियाने के इर्द-गिर्द कोउ मुख हीन विपुल मुख काहू....का दिगदर्शन
कराता भूतभावन भोलेनाथ के वारात की तरह जा जुटा ग्रामीण बच्चों का समूह।
धर्मावतार चौधरी के
चार-चार नौकर कनात के चारों ओर इसी कार्य के लिए मुस्तैद रखे गये थे कि कोई अभद्र
बालक तवायफ दर्शन के क्रम में शामियाना वासियों के किसी सामग्री का विदर्शन न कर
जाय।वे दो टके के नौकर मोटे-मोटे लट्ठ लेकर डांट-डांट कर उन्हें खदेड़ रहे थे-‘जाओ भागो, तुम्हें क्या देखना है यहाँ?’
व्यवस्था उचित ही
थी।रोज-रोज तो उन्हें यह सब देखने को मिलना नहीं
है।
फिर एक दिन देखने से क्या...? किन्तु बेवकूफ बच्चे इस गूढ़ रहस्य को समझें तब न!
काले-कलूटे,नंग-धड़ंग
निरीह बच्चे नाक पांछते, आंखें मटकाते खेतों
के मेढ़ की आड़ में जा छिपते उन मुछैलों के भय से,और मौका देख फिर घेर लेते दूर से ही
इन्द्र की अप्सरा- झबेरी बाई को।और यही क्रम लगभग रात भर जारी रहा।
लगभग सारा गांव ही
जा चुका था- उन्हीं बड़े शामियानों की ओर।
इधर मधुसूदन का
द्वार तो सूना पड़ा था।न गोपियां थीं न ग्वाल- वाल,और न उद्धव ही। फिर संदेशा कौन ले
जाये? यहाँ तो जेठ
की तपती दोपहरी और पूस की रात सा गहरा सन्नाटा था।अभागे कुत्तों का भी भाव बढ़ गया
है- वे भी शायद उधर ही नाच देखने चले गये हैं।कई कुत्ते जूझते नजर आये- सांसदों की तरह-
सूखे पत्तलों और बिलखते कुल्हड़ों पर ही,मानों ‘सस्ती रोटी’ की दुकान हो।उन्हें
शायद नीरस नाच में अभिरूचि नहीं।वैसे भी जब दोपाये ही चौपाया बनने को बेताब हों,फिर बेचारे ये चौपाये करें तो क्या
करें?जायें तो कहाँ जायें?
बाहर द्वार पर चौकी
निकाल,एक साधारण
सा विस्तर डाल दिया था तिवारी जी ने।उसके बगल में तीन खाट भी बिछा दिये, और वहीं
पास
में ही आम के पेड़ के नीचे खाटों के अगल-बगल बिछा दी गयी- छोटी- छोटी दो-तीन
दरियाँ। उन्हीं
में
एक पर शान्त शरीर,अशान्त
चित्त मधुसूदन तिवारी बैठ कर वारातियों के आगतन की प्रतीक्षा कर रहे थे।मस्तिष्क
में अभी कल की बातें- चौधरी की धमकी,लम्बे अतीत की परछाइयाँ बारी- बारी से आ-जा रही थी।तभी दूर से
आते हुए पदारथ ओझा नजर आये थे हांफते- कांपते।लम्बे समय के बाद राम को सुग्रीव से
मुलाकात हुयी थी।और उनसे बातों का क्रम जारी ही था कि वाराती गण आ धमके। विचारों
का सिलसिला बरबस ही टूट गया।उठ खडे़ हुये उनके स्वागत हेतु।
द्वार-पूजा,पाद-प्रक्षालन,मंगलाचरण,जलपानादि के बाद सभी विराजे प्रकृति
के शामियाने- आम्रतल की शैय्याओं पर।
‘क्यों
ओझाजी!आप तो हम पर बहुत नाराज होंगे?’-अपनी मुस्कुराहट को दबाते हुए निर्मल
उपाध्यायजी ने पदारथ ओझा को सम्बोधित किया।
‘नाराजगी की
क्या बात है?आप बड़े लोगों के...।’-तपाक से कहा पदारथ ओझा ने और जिराफ सा गर्दन
घुमा कर इधर-उधर देखने लगे।
‘मैं बड़ा कितना भी क्यों न होंऊँ,पर आपके परम
मित्र रामदीन जी का मुकाबला तो नहीं ही कर सकता।’- इस बार उपाध्याय जी
की दबी मुस्कान बाहर आ गयी होठों पर।उनके साथ ही बगल की खाट पर बैठे दोनों लड़के
भी हँस पड़े।रामदीन पंडित की काली कानी पदारथ ओझा के पलकों पर शर्म बन कर आ बैठी,फलतः बोझ से सिर नीचे झुक गया।
‘ओह!
मधुसूदन भाई ने बतलाया भी नहीं कि विवाह का लग्न
कब है।’-प्रसंग बदलते,दांत निपोर
कर पदारथ ओझा ने कहा।
तिवारीजी ने कहा- ‘चिन्ता की
बात नहीं।अभी दो घंटे की देरी है।तब तक आप चाहें तो दो-चार घर से बुंदिया-पूड़ी
तसील कर आ सकते हैं।’
तिवारीजी की बात पर
सभी हँसने लगे।ओझाजी ने अपना पोथी-पतरा समेटा और लाठी टेकते हुये चल दिये- ‘आता हूँ
थोड़ी देर में,एक घर में
द्वार पूजा कराना अभी बाकी ही रह गया है।’-यह कहते हुये।
उधर गये ओझाजी
बुंछिया-पूड़ी के चक्कर में और इधर तिवारी जी चल दिये अपने वारात की भोजन व्यवस्था
देखने।
घर के पिछवाड़े,ताड़ की पत्तियों से घेर-घार कर भोजन
निर्माण का कार्य चल रहा था।किन्तु वहाँ पहुँचने पर कनात बिलकुल खाली मिला।था ही
कौन जो मिलता? दोनों
बहनें शायद चली गयी थी ग्राम देवी की पूजा करने।अतः थोड़ा आगे बढ़े।पिछले दरवाजे
से आंगन में प्रवेश किये,और बढ़ चले
कमरे की ओर। घर के एक कोने में पूजा स्थल बना हुआ था।वहीं
बैठ
कर रस्म के मुताबिक वारात आगमन के बाद कन्या द्वारा माता सहित गौरी पूजन का विधान
है-मुंह में सुपारी रखकर,बिलकुल मौन
होकर- सो किया जा
रहा था,किंचित
परिवर्तित रूप से...
माँ का अभाव, आज सर्वाधिक खला था- मीना को।सर्व सम्मत्ति
से आज माँ का ओहदा मिला-
इस
रस्मोअदायगी के लिये- पदारथ ओझा की भाभी- सविता देवी को।
उस दिन उधमपुर से
आने के दूसरे दिन ही छोटे भांजे को भेज कर सविता भाभी को बुलवा लिया था तिवारी जी
ने।सविता देवी वास्तव में सविता ही हैं।सुघड़ नैन-नक्श,गौर शरीर- इस ढलती उम्र में भी इस बात की
साक्षी है कि अपनी युवत्यावस्था में सविता ‘सविता’ तुल्य ही तेजस्वी रही होंगी।
आते के साथ ही मीना
को लपक कर सीने से लगा ली थी, और काफी
देर तक लिपटाये रखी थी।उनकी आँखों से अविरल अश्रुधार प्रवाहित होता रहा था, मानों वनवास के बाद राम घर लौटे हों,और कौशल्या की आँखें मिलन के जल से
पुत्राभिषेक कर रही हों।वहाँ उपस्थित लोगों के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा था- ‘यह तो
बिलकुल ही मीना की माँ जैसी हैं।सही में भगवान ने एक सा चेहरा दिया है दोनों को।लगता है- एक ही प्रकाशक द्वारा एक पुस्तक की
दो प्रतियाँ दो आकारों में दो समय में प्रकाशित की गयी हों।
आने के दिन से ही
घर का सारा काम ‘घरनी’ जैसी सम्हाल ली
सविता। एक क्षण भी मीना को स्वयं से अलग न होने दी।किन्तु हर पल उन्हें लगता मानों
उनके अन्तः के मंच पर कोई काल वैशाखी का नृत्य चल रहा हो।वास्तव में बात भी कुछ
ऐसी ही है।किन्तु अभी तक अवसर न मिल पाया था बेचारी को कुछ कह सकने का।
अभी देवी पूजन के
कारण पूरा घर जब शान्त हो गया,तब उनके अशान्त अन्तस के उद्गारों को भी निकलने का मौका मिला।
उनके जीवन की एक
लम्बी कहानी है।उस कहानी को वे सुनाना चाहती हैं-किसी योग्य
अत्याधिकारी स्रोता को;किन्तु अति गोपनीय रीति से।
क्यों कि कोई जान जायेगा तो क्या कहेगा! वैसे
कहने को तो नहीं ही आयेगा,पर सोचेगा जरूर।और तब व्यक्तित्त्व
के धवल चादर में धब्बा ही नहीं लगेगा,बल्कि बड़ा सा छेद हो जायेगा,जिसकी खुली खिड़की से ऐरागैरा भी
झांकने लगेगा।मगर परिणाम की परिकल्पना वगैर ही वे जताना भी चाहती हैं, क्यों कि न जताने
से भी कोमल नारी उर के विदीर्ण हो जाने का खतरा है।
लम्बी प्रतीक्षा के
बाद उस कहानी का उचित स्रोता भी आज मिल गया है। आज काकभुशुण्डी को गरुड़ से भेंट
हो गयी है,फिर क्यों
चूके ‘राम कथा’ सुनाने में?
सविता आज सुना
डालना चाहती है- अपनी पूरी रामकहानी को, परम शक्ति मातेश्वरी गोबर-गौरी,और विघ्न-नाशक गोबर-गणेश की साक्षी
में- परम स्रोता मीना को।हाँ मीना को ही।क्यों कि सम्पूर्ण सृष्टि में मात्र वही
एक उचित अधिकारिणी है- सुन सकने की,इस करूण कथा को- सीता परित्याग से राम जन्म तक।हाँ इस विपरीत
क्रम में ही,चूँकि यह
कथा ही ऐसी है।सविता सुना रही थी।मीना सुन रही थी।गोबर-गौरी-गणेश समक्ष साक्षी
स्वरूप उपस्थित थे ही। उधर दीवार की ओट में खड़े मधुसूदन तिवारी भी सुनते जा रहे
थे-
‘......इसी तरह
हमारा समय गुजरने लगा।किसी तरह उनका श्राद्धादि कार्य सम्पन्न हुआ।दूसरे दिन ही
बड़े भाईजी लड़झगड़ कर,बांट-बखरा
अलग कर दिये। अल्प वया,अनाथ विधवा,यौवन के दुष्ट दुस्सह भार से नत,कहाँ जाती! क्या करती! कोई सहारा नजर
न आ रहा था।किन्तु दयावान भगवान ने पदारथ बाबू को सुबुद्धि दी।एक और लक्ष्मण का
अवतार हुआ-घोर कलिकाल में,जो परिवार परित्यक्ता सीता को लेकर निकल पड़े अलग घर
बसाने।साथ में उर्मिला भी थी।बेचारे पदारथ ने मुझ डूबते को उबार लिया।हम तीनों चैन
से रहने लगे....
‘.....समय गुजरता
गया।मगर क्या गुजरा? दैव को शायद यही मंजूर था। चौथे महीने ही छोटकी गुजर गयी,अचानक ही बिना किसी रोग बीमारी के। पदारथ
पर तो मानों पहाड़ टूट पड़ा।कहने वालों को भी मौका मिला-
‘बड़े चल थे
समाज से संघर्ष मोलने।जो नागिन,कात्यायनी अपने पति को न बकशी...डायन चीन्हे बरामन के
बच्चा...वह क्या देवर-गोतिनी की होगी? कुशल चाहो तो पदारथ,उसे अब से भी निकाल बाहर करो अपने घर
से,नहीं
तो
तुम्हें भी खा-चबा जायेगी.....
‘.....इसी तरह की
अफवाहें उड़ती रही।पर सबका अनसुना कर,कान में रूई डाले,पड़े रहे पदारथ बाबू।हालाकि मैं कितना कही-समझायी,किन्तु दूसरी शादी न किये- क्या होगा
भऊजी शादी वादी करके? एक किया सो तो चली गयी छोड़ कर...।- कह कर टाल जाते पदारथ।’
सविता कहती
रही।बीच-बीच में आंचल के छोर से आँखों के कोरों को पोंछती रही।भाउक मीना चुप बैठी
सुनती रही सविता ‘माँ’ की करूण कहानी को। सुनने
में वह इतना निमग्न हो गयी कि भुला बैठी- गौरी पूजन का पावन कर्तव्य भी।उसे यह भी
याद न रही कि दरवाजे पर उसकी वारात आयी है। विमल- उसका अपना विमल दुल्हा बन कर आया
हुआ है।
वह तो वह ही।तिवारी
जी भी भूल बैठे कि वे भोजन व्यवस्था का निरीक्षण करने भीतर आये थे।वे भी चोरों की
तरह कान सटाये रहे दीवार से,किसी आहट की प्रतीक्षा में।
सविता कह रही थी- ‘...नहीं
माना
तो मैं भी ज्यादा जोर न
लगायी।जब इसी का मन नहीं तो मैं क्या कर सकती हूँ।समय सरकता गया सर्प
सा।पदारथ की स्नेह-सरिता ने प्रक्षालित कर दिया था मेरी वैधव्य-व्यथा की ‘काई’ को।मेरी हर आवश्कता
को स्वामी- भक्त सेवक सा पूरा कर देता बिलकुल समय पर ही बिचारा पदारथ।कब मुझे
कपड़ा चाहिये,कब मुझे
भोजन,कब
दवा-दारू, कहना न पड़ा कभी
भी।सोचना न पड़ा कुछ भी।किन्तु दुर्भाग्य...जब सोचना पड़ा तो बहुत कुछ....
‘.....पदारथ के प्यार में,जवानी के ज्वार में,वासना के वयार में एक दिन मेरे विवेक
की चादर उड़ गयी,और तब? ओफ! जुबान सटने लगती
है- कहने में भी....पांव के नूपुर पहचानने वाले लक्ष्मण की निगाहें धीरे-धीरे उठ
कर कंचुकी में घुसने लगी...और फिर अंगुलियाँ भी।एक दिन जब विवेक ने ठोंकर मारा तब
भीतर झांक कर देखी- अदम्य वासना का काला कीड़ा मेरे कोख-कुसुम में कुलबुला रहा
था।जान कर पदारथ की हेकड़ी गुम हो गयी....।’
दीवार की ओट में
खड़े तिवारीजी के कानों में गूंज गयी फिर से निर्मलजी की बात- ‘‘कुरंग-मातंग-पतंग-भृगं, मीना हताः पंचभिरेव
पंचः। एकः प्रमादी सकथं न हन्यते,यः सेवते पंचभिरेव
पंचः।।’’ पुलिस की निगाह बहुत पैनी होती है तिवारी जी...पदारथ अब्बल
दर्जे का लम्पट है।’
मीना की आँखें
विस्फारित होकर गड़ गयी- सविता के आनन पर- ‘क्या कहा- पदारथ काका के पाप
का कीड़ा तुम्हारी कोख में? हे भगवान! अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,आंचल में है दूध औ
आँखों मे पानी...।’
बेचारी मीना का लघु
मस्तिष्क उमड़ने-घुमड़ने लगा।जिस पदारथ काका को वह इतनी श्रद्धा से देखती है,उनके कारनामें इतने काले? हा दैव! कैसा दोहरा
व्यक्तित्त्व होता है मनुष्य का!- वह सोचती रही।सविता कहती रही-
‘....शुरू में तो
काफी घबरायी।तूल-फतूल बांधी।फिर न जाने कितनी ही ‘महाप्रवर्तक’ बटियां हजम हो गयी।
उत्कंटक,उल्टकमल, इन्द्रायण...कुछ भी काम न आया।तब विचार आया-
सरकारी अस्पताल का शरणार्थी बनने का।पर वह जमाना कुछ और था।आज जैसा नहीं
कि
हँसती-खेलती कुँआरी-विधवायें जायेंऔर जवानी का पाप धो-पोंछ कर अस्पताल की त्रिवेणी
में प्रवाहित कर पवित्र तन-मन वापस आ जायें...
‘......हर तरफ से
थके-मादे पदारथ की बुद्धि नदारथ हो गयी थी।अन्त में ढाढ़स बन्धाया एक दिन-‘‘घबराओ मत
भऊजी! कोई कुछ जान नहीं पायेगा। सम्पर्क ही
मुझे कितनों से है?यहाँ तो वैसे भी कोई आता-जाता नहीं।समय गुजरने दो।चार-पांच हो
ही गया है।थोड़ा और सही।फिर एक ही दफा निवृत्त हुआ जायेगा।....।’’
‘.....मैं चौंक पड़ी थी-
क्या नवजात शिशु का गला घोंट दोगे पदारथ?- मेरे पूछने पर हाथ हिलाते हुए पदारथ ने कहा
था-‘‘नहीं
भऊजी!
मैं इतना नीच नहीं।एक
तो यह पाप किया कि माता तुल्य भाभी के साथ... दूसरा और करूंगा? राम राम छीः छीः !!
यह सब न होगा मुझसे....’’
‘....समय गुजरता
गया।एक दिन वह समय भी आ गया जब पदारथ को जाकर जगाना पड़ा आधी रात के समय- ‘पदारथ बाबू
उठिये न।मैं
दर्द
से बेचैन हूँ,और आप
खर्राटे ले रहे हैं?.....
‘....मेरी आवाज
उसके कानों में पड़ी।तपाक से उठ बैठा पदारथ।शीघ्र ही जुट गया मेरी सुश्रुषा
में।पहर भर रात रहते एक बच्ची ने जन्म लिया....
....देवर-भाभी की जारज सन्तान...फूल सी बच्ची,वासना के कणों से सर्वथा निर्लिप्त-
एक नारी मूर्ति।जी चाहा उठा कर उसे सूनी छाती से लगा लूँ।नौ महीने जिसे कोख में
ढोयी थी,रक्त-वारी
से सिंचित की थी जिस बीज को,भले ही वह विष वृक्ष क्यों न हो,ममता की चादर से ढक कर छिपा लेना
चाही थी।पर सच पूछो तो अबला नारी कभी-कभी प्रबल सबला भी हो जाया करती है।सौम्या
सीता क्रूर काली भी हो जाती है।मुझ अबला पर भी क्षण भर के लिये काली सवार हो
आयी।गर्भोदक से परिष्कृत वालिका को एक बार उठायी ऊपर,गौर से निहारी उसके निर्दोष भोले
मुखड़े को,और आंचल के
टुकड़े में ही दिल के टुकड़े को लपेट कर सामने खड़े पदारथ के हाथों सौंप दी, मानों समाज रूपी कंस से त्रस्त देवकी कृष्ण
को सौंप रही हो वसुदेव के हाथों- इसकी समुचित व्यवस्था करो पदारथ- मुंह से तो निकल
गया था,पर सोच कर
बेचैन होने लगी कि आखिर क्या करेगा इस नवजात बालिका का...
‘....मेरी मौन
भंगिमाओं का आशय समझ गया पदारथ।मुस्कुराते हुये बोला- ‘‘घबराओ मत
भऊजी! मारूँगा नहीं इसे....।’
‘.....तब क्या
यूंही फेंक आओगे कहीं राम राम ओफ! ऐसा
अनर्थ न करो... कुत्ता-सियार खा जायेगा....कातर स्वर में कही थी मैं।जी चाहा था छीन लूँ झपट कर,जो होगा देखा जायेगा।पर हँसते हुए
पदारथ ने कहा-‘‘इसी का नाम है मात्सल्य। क्या करोगी?आंखिर
इस कलंकिनी को रखकर पाला तो नहीं ही जा सकता।’’ मेरे माथे में
चक्कर आने लगा था।कुछ सूझ न रहा था- इसके लिये समुचित उपाय।समीप में कोई अनाथाश्रम
भी होता तो इसे भिजवा देती।सोच ही रही थी कि मुस्कुराते हुए पदारथ बोल पड़े- ‘‘मैंने सोच रखा है - पहले से ही एक
निष्कंटक मार्ग- सन्तानाकांक्षी किसी ‘नंद’ के दरवाजे पर छोड़
आने की, चुपके से
जाकर।’
‘.....वसुदेव चले
गये किसी नन्द के द्वार,देवकी
तड़पती रही मानसिक संताप से....देवकी के दर्द को वस्तुतः यहाँ समझने वाला ही कौन था?
‘वह
भाग्यवान,निःसन्तान
नन्द कौन था चाची,जिसकी
छत्रछाया में रखने जा रहे थे पदारथ काका उस कलंकिनी को?’- सजल नेत्रों को ऊपर
उठाती हुयी मीना ने पूछा।दीवार की ओट में खड़े तिवारीजी के कान खड़े हो गये खरगोश
की तरह।दिल की धड़कने तेज हो आयी,इस जिज्ञासा से कि कौन है वह भाग्यवान-दयावान जिसने शरण दी
अपनी गोद में सप्तपर्णी की छांव बन कर!
‘एक परम
मित्र के दरवाजे पर...।’- सविता कह रही थी. तभी तिवारी जी का भांजा छोटू दौड़ा हुआ आया।
‘मामाजी आप
यहाँ खड़े हैं? मैं कब से ढूढ़ रहा
हूँ।समधी जी बुला रहे हैं।’
छोटू के असामयिक
कथन ने तिवारीजी की जिज्ञाशा को अधर में ही लटका दिया त्रिशंकु की तरह।तत्क्षण ही
चल देना पड़ा वहाँ से,इस भय से
कि कहीं संदेह न हो जाय।उधर छोटू की तेज आवाज
सुन,सविता पल
भर के लिये मौन हो गयी।
पल भर का ही मौन
मीना के लिये असह्य हो उठा- ‘उस मित्र का नाम नहीं
बतलायी
चाची?’
‘चाची!
ओफ!!...पैने नस्तर सा चुभ जाता है दिल में यह शब्द।’- लम्बी उच्छ्वास के
साथ सविता बोली।मीना की आँखें विस्फारित होकर ऊपर की ओर उठ गयी,सविता के चेहरे पर,जो आत्मग्लानि और क्षोभ से अब कोलतार
सा हो आया था।
‘मैं कुछ समझी नहीं।आप कहना क्या चाहती हैं? क्या आप नाम नहीं
कह
सकती उस मित्र का?
चाची
शब्द के तीखापन का क्या मतलब? एक ही साथ तीन प्रश्न,गोलियों सी दाग दी मीना।
सविता के हृदय में
मानों त्रिशूल चुभ गया।होठ थर्राने लगे।
‘सत्य के अन्तिम
आवरण को भी चीर कर दिखाना ही पड़ेगा सत्यार्थी को।’-कहती हुयी सविता अपने धड़कते
सीने को जोरों से दबाने लगी दोनों हाथों से-
-‘....उस
भाग्यवान निःसंतान का नाम था...मधुसूदन....।’
‘मधुसूदन?’- चौंक पड़ी मीना।
‘हाँ
मधुसूदन ही...पूरा नाम मधुसूदन तिवारी।’- सविता के स्वर में कंपन था,और आंखों में पानी।
‘मधुसूदन
तिवारी,यानी मेरे
बापू?’- मीना के
स्वर में आश्चर्य भरा कम्पन था,और थी अकुलाहट।
‘हाँ,तुम्हारे बापू ही;और वह कलंकिनी
सन्तान तुम ही हो,जिसे देखने
के लिए साढ़े पन्द्रह वर्षों से तड़प रही थी मैं।अपने ही जिगर का टुकड़ा,अपने ही खून का ढेला,अपनी ही आँखों की ज्योति, अपने ही आंगन का सूरज,अपनी की कोख की औलाद ‘माँ’ के मधुर सम्बोधन के
वजाय ‘चाची’ सा तीखा तीर चुभो
रही है;किन्तु साहस नहीं है कि समाज के
सामने सिर उठा कर कह सकूँ कि विधवा हूँ,पर वन्ध्या नहीं।मेरी भी एक औलाद है।आज यह
वारात मेरे दरवाजे पर आयी होती,यदि मैं इसके काबिल
होती।हृदय हाहाकार कर रहा है,जिसके अन्तस में महाभारत सा युद्ध छिड़ा हुआ है- दोनों ओर
अपने ही हैं;किन्तु
कुन्ती कह नहीं सकती कि कर्ण मेरा है।सच पूछो तो
कुन्ती से मेरी क्या तुलना?वैसे मुझे इसकी आवश्यकता भी नहीं
है।वह
बेटे वाली थी।गयी भी बेटे के लिए ही अभय दान मांगने।परन्तु अभय दान मुझे नहीं
चाहिये।मुझको
चाहिये मात्र अपना ‘पद’ वह भी जालिम,जाहिल दुनियां को दिखाने के लिए नहीं।जताने
के लिए नहीं।सुनाने के लिए नहीं।बल्कि सिर्फ अपने मन के सन्तोष के लिए।अपनी तड़पती
आत्मा की शान्ति के लिए।अपने बेताब हृदय के सुकून के लिए।बस मेरी बेटी- माँ कह
दो...माँ कह दो मीना...माँ! बस एक बार, फिर कभी न
कहूँगी........न कहूँगी तुझे इस कुलघातिनी को माँ कहने के लिए...।’-सविता पागलों
की तरह प्रलाप करने लगी।मीना के कंधे पकड़ कर दोनों हाथों से झकझोरने लगी;किन्तु
मीना प्रस्तर-प्रतिमा सी जड़ हो गयी।उसकी आँखें झपकना भूल गयी।एक टक निहारती रही
सचिता के करूण मुख मंडल को; और अश्रुधार अनवरत प्रवाहित होते रहे-उसकी बड़ी बड़ी
आँखों से।सविता उस नेत्र निर्झरणी को रोकने का असफल प्रयत्न करती रही अपने सूने
आंचल से।फिर उसकी पीठ थपथपाने लगी।
‘मीना...बेटी...बेटी...मीना...क्या
हो गया तुझे...क्या हो गया?’- विलखने लगी सविता।
पीठ पर थपकी का
कोमल स्पर्श पाकर मीना थोड़ी चैतन्य हुयी।गौर से निहारी सविता के चेहरे को।दोनों
बाहें फैला कर लिपटा ली विलखती सविता को,और फफक कर रो पड़ी- ‘माँ...ऽ...ऽ..ऽ!’
एक अद्भुत पवित्र
ध्वनि गुँजायमान हो गया।दीर्घकाल तक सविता के दिल की घाटियों से टकरा-टकरा कर
परावर्तित होता रहा, जिसे माँ-बेटी
दोनों ही सुनती रही।सुनती रही।चिपटी रही।लिपटी रही। न जाने ये मंगलमय
दृश्य कब तक जारी रहता? संवादहीनता का संवाद कब तक चलता रहता; किन्तु फिर एक
व्यवधान आन उपस्थित हुआ- ‘भाभी! मीना को तैयार कर दीजिये।मण्डप
में अब ले जाना होगा।’-आवाज तिवारीजी की थी.जिसे सुनते ही सविता का स्वर्णिम स्वप्न भंग
सा हो गया।मीना के प्रिय हिंडोले के रेशमी डोर को भी अचानक झटका लगा,और जोरदार धक्के ने भीतर बहुत कुछ
तोड़ डाला।
उधर से देवी गीत के
मधुर गुंजन-‘सिंह चढ़ल माता गरजत आवली,सूतल बलका डेरायेल हे माता मोहिनी भवानी जगतारन माता नगर के लोगवा
डेरायेल माता मोहिनी...।’- के साथ पूरा आंगन गुंजायमान हो गया।देवीपूजन को गयी मीना
की दोनों फूफियाँ एवं कुछ अन्य औरतें आ पहुँची।छोटा सा आंगन लगभग भर सा गया।
शीघ्र ही मीना को
अलंकृत किया जाने लगा।दुल्हे को आंगन में लाया गया। पड़ोस से मांग कर एक कुर्सी भी
लायी गयी,जिस पर
दुल्हे को बैठा कर परिछन का कार्य प्रारम्भ हुआ-
‘रघुवर के
नयना रसीले हो,परिछन चलो आली।धन राजा जनक जनकपुर वासी,धन धन जनक दुलारी
हो...परिछन चलो आली।कंचन थार कपूर के बाती आरती उतारे सुकुमारी हो परिछन चलो आली....’
पूजा और परिछन की
थाल के साथ सविता भी बाहर निकल गयी-मंडप में। मीना कमरे में अकेली रह गयी।सामने
बैठे थे- प्रतीकात्मक गौरी-गणेश,और दिल में उमड़ रहा था भयंकर प्रलयंकारी तूफान,जो अभी-अभी साढ़े पन्द्रह साल पुराने
इतिहास के पन्नों से उभर कर बाहर आया था।
अचानक बाहर से
हड़बड़ाये हुए छोटू आया कमरे में- ‘मीना दी...मीना
दी...मामाजी ने उस दिन जो सोने वाली अंगूठी दी थी,सो मांग रहे हैं।’
‘अभी क्या
उसकी जरूरत पड़ गयी? ओ तो ऊपर चंचरी पर बक्से में रखी हुयी है।’-प्रचंड वायु-वेग
से टकराती मीना मुंह घुमाकर आंचल के छोर से आंखें पोंछती हुयी बोली।उसके अन्तस में
असंख्य फौजी घोड़े दौड़ रहे थे,जिनके टापों की स्पष्ट ध्वनि वह सुन रही थी,अपने अशान्त मस्तिष्क में।आज एक गहन
रहस्य का पर्दाफाश कर सत्य को नंगा नचाया गया था,उसकी कोरी आँखों के सामने, जिसकी प्रखर रौशनी में उसकी आँखें चौंधिया गयी
थी, और भावी गहन अन्धकार का आभास दे रही थी।आज तक वह जिस स्नेह मूर्ति को बापू
समझे हुए थी- बापू- बाप-अर्थात् वपन कर्ता,जो वस्तुतः उसका ‘वपक’ नहीं
है।वह
तो मात्र परिपालक है- ‘पा रक्षणे’ वाला पिता मात्र।स्वयं जारज सन्तान है वह- पाप
के पंक में उपजा घृणित-कुंठित वासना का ‘उपोत्पाद’।कलंकिनी
है वह.....।
मीना कुछ ऐसा ही सोचे जा रही थी।मस्तिष्क के तूफान को शमित करने का असफल
प्रयत्न कर रही थी।कुछ देर पूर्व तक खुशियों की फुलझडि़याँ चमक रही थी।मधुर कल्पनाओं
के आसमान तारे छूट रहे थे।आशा के दीप जल रह थे।उसके दिल में दीवाली मन रही थी।दीप
मालिका के सुनहरे प्रकाश में स्वर्णिम भविष्य की झांकियाँ चल रही थी।
किन्तु अब?अब क्या?
अब तो लगने लगा
मानों सब शेष हो गया।फुलझडि़याँ बुझा दी गयी- अचानक अनदेखे अतीत
के कठोर हाथों से मसल कर। आसमान तारे टपक पड़े उल्कापात की तरह घातक बन कर।दीप
मालिका बुझ गयी- अन्तः के झंझावात में आलोड़ित होकर।स्वर्णिम भविष्य की झांकियों
पर डरावनी शक्लें हावी हो गयी, अन्धकार का सह पाकर।वह कुछ नहीं
रह
गया,जो था कुछ पल पूर्व तक।
वह सोचने लगी- ‘यदि
जानकारी हो जाय विमल को- इस कटु सत्य की कि उसने जिससे प्रेम किया है,जिसे जीवन सहचरी बनाने जा रहा है,उसकी पैदाइश का बीज एक सड़े-कनाये फल
का है,जिसे प्रेम
के गमले के वजाय वासना की नाली में ‘बो’ कर उपजाया गया है,वैसी कलंकिनी को अपना कर अपने खानदान
के उज्जवल भविष्य को धूमिल होने से बचाने हेतु कहीं
त्याग
दिया तो...फिर क्या होगा? ओफ! सत्यं ब्रुयात् प्रियं ब्रुयात् न
ब्रुयात्सत्यमप्रियं.... इस नीति उपदेश पर विचार करने लगी।मन- मस्तिष्क के
बवण्डर को रोकने का प्रयास करती रही; किन्तु रूका नहीं। रोका नहीं
जा
सका कुछ भी;प्रत्युत उस चक्रवात का एक हिस्सा बन कर रह जाना पड़ा।
मीना को जोरों से
चक्कर सा आने लगा।किन्तु आन्तरिक व्यथा को समझने वाला है ही कौन यहाँ इस जटिल गुत्थि को
सुलझाये भी तो कौन? सविता ने तो गांठ लगा दी- उसके वर्तमान और भविष्य की सन्धि पर
कठोर ग्रन्थि पड़ गयी।उसे शायद शान्ति मिल गयी होगी-‘माँ’ के शीतल सम्बोधन
से। पर अति अशान्त कर गयी बेचारी मीना को।यह अब कहाँ जाय शान्ति ढूढ़ने? किससे
सुनाये अपना दुखड़ा.....?
ऐसे ही असंख्य
सवाल....।अनुत्तरित प्रश्न।प्रश्नों की कतार....।
कमरे की दीवार को
भेद कर मधुर गीतों की लडि़याँ- ‘राजा दशरथ जी की ऊँची अंटरिया...राम लखन
दूजे लगले दुअरिया-
गरम
पिघले शीशे की बून्दों की तरह उसके कानों में पड़ रही थी।
देर से सामने खड़ा छोटू मुस्कुराते
हुये टोका-
‘क्या सोच रही हो
दीदी? जल्दी लाओ
न अंगूठी।मामाजी बिगड़ने लगेंगे हम पर- इत्ती देर लगा दी।’
छोटू के तगादे पर
मानों मीना की तंद्रा टूटी।फिर वही प्रश्न दुहरायी-
‘
क्या
करना है,अभी उस
अंगूठी का?’
‘अभी नहीं
तो
और कभी? कन्यादान के समय ही तो जरूरत होगी।थोड़ी देर बाद तुम तो चली जाओगी मंडप
में।फिर कौन निकालेगा तुम्हारे बक्से से उस अंगूठी को....?’
‘अच्छा देती
हूँ।’-अन्यमनष्क भाव से कहा मीना ने,और बांस की सीढ़ी पर खटाखट चढ़ने लगी।बांस-लकड़ी के पाटन से
कमरे को ऊँचाई में विभाजित किया गया था,जिसके ऊपर पड़ी थी योगिता की अमानत- एक दो
बक्शे- जिसकी मालकिन अब उसकी तथाकथित पुत्री मीना ही थी।उन्हीं में रखी हुयी दी दो
अंगूठियाँ- एक जिसे निकाल कर तिवारीजी लेते गये थे,विमल को भेंट करने के लिये-सगाई के
उपलक्ष में,और दूसरी
अभी भी रखी हुयी थी मीना के नीजी बक्शे में यह सोच कर कि कन्यादान के दक्षिणा
स्वरूप भी तो वर को देने के लिये सुवर्ण का ही विधान है।
बक्से से अंगूठी
निकाल कर वहीं से फेंक दी छोटू के हाथ पर,जिसे छोटू ने कुशल वीकेट कीपर की तरह
कैच कर बाउण्डरी से बाहर भाग गया, और साथ ही ‘बैट्समैन’ को भी आउट करता
गया।
मीना सीढि़याँ उतर
रही थी...एक...दो...और फिर धड़ाम..ऽ..ऽ...की ध्वनि के साथ उल्टे पांव छोटू खिंचा
चला आया कमरे में।
पलक झपकते ही कमरे
का नक्शा बदल चुका था।सीढ़ी के ठीक नीचे ही मसाला पीसने का ‘सील’ रखा हुआ था,जो हल्दी-धनिया के बजाय मीना का सिर
ही पीस डाला।
उसी सील के बगल में
पड़ी थी अवसन्न मीना लहुलुहान होकर।
मस्तिष्क में उठते बवण्डर ने चक्कर खिला कर उसे नीचे ढकेल
दिया था पत्थर के सील पर,और कुछ काल
बाद सिन्दूर से पीली होने वाली मांग पूर्णतया लाल हो गयी- रक्त-रंजित।
छोटू के मुंह से
चीख निकल गयी-‘मामाजी...ऽ...ऽ...! जल्दी आइये।’
तिवारीजी
स्वस्तिवाचन हेतु हाथ में अक्षत, अभी उठा ही
रहे थे कि ‘अस्वस्ति’ की सूचना मिल गयी।अ‘क्षत’ का स्पर्श अन्तः का
क्षत कर गया।दौड़ कर दाखिल हुये कमरे में।उनके पीछे ही दोनों बहनें और सविता भी आ
पहुँची। मधुर गीतों के गुंजार की जगह ‘हाय यह क्या हुआ?’ का आर्तस्वर सबके
होंठो पर कौंध गया- कर्कश तड़ित की तरह।
तिवारीजी नीचे झुक
कर उठाने लगे-‘हाय मेरी मीना।’
सविता भी लिपट
पड़ी- ‘हाय यह
कैसे हो गया मीना बेटी को?’
दोनों फूफियाँ चीख
मार कर रोने लगी।कमरे में कुहराम मच गया।
हो-हल्ला सुन कर
बाहर बैठे निर्मलजी आ पहँचे,साथ ही विमल भी।कमरे का करूण दृश्य देखकर सिर पर बंधा सेहरा
कांटो का ताज लगने लगा। उसने तो गुलाब की मृदुल पंखुडि़याँ पकड़ी थी, किन्तु यह कांटा क्योंकर चुभ गया?
खून से लथपथ मीना
का शरीर एक ओर लुढ़का पड़ा था। आँखें फटी हुयी सी थी।लोग उसे लिपटा कर रो रहे
थे।सबका विवेक हवा खाने चला गया था।
कुछ देर तक निर्मल
जी भी मौन हक्केबक्के रह गये।फिर कठोर स्वर में बोले- ‘ये क्या
तमाशा लगा रखे हैं
आप
लोग? पहले इसे
होश में लाने का प्रयास किया जाय।खून रोकने का उपाय किया जाय।’
उपाध्यायजी के ‘होश’ शब्द
से सबको मानों होश आ गया।पहले तो लोग उसकी स्थिति कुछ और ही समझ लिये थे।विमल झपट
कर बाहर गया,और लोटे
में पानी लाकर मीना के मुंह पर छींटा मारने लगा।सविता उबटन के लिए पिसी हुयी हल्दी
का बड़ा गोला सीधे माथे के खुले जख्म पर थोप दी,ताकि रक्त प्रवाह रूक जाय।
‘छोड़िये
इसकी कोई आवश्कता नहीं।?’-कहते हुए निर्मलजी ने विमल को आदेश दिया- ‘देखते क्या
हो, जल्दी से
जाकर गाड़ी में से ‘फस्ट-एड-बॉक्स’ निकाल लाओ।’
पिता का आदेश सुन
विमल दौड़ पड़ा।तिवारीजी को भी याद आगयी- वैद्यजी की एक दवा।आलमारी में से एक शीशी
निकाल कर निर्मलजी के हाथ में देते हुए बोले- ‘ये वैद्यजी की दवा
है।पहले भी जब कभी बेहोश हो जाया करती थी तो इस दवा के प्रयोग से शीघ्र ही होश
आजाया करता था।’
उनके हाथ से दवा की
शीशी लेकर निर्मलजी ने उस पर लगे लेबल को पढ़ा, फिर आश्वस्त होकर ‘डॉट’ खोल कर मीना के
नथुनों से लगा दिये।तब तक विमल भी आ गया प्राथमिक चिकित्सा की छोटी संदूकड़ी ले
कर।
उसमें से रूई,पट्टी,स्प्रीट,मर्क्यूरोक्रोम आदि निकाल कर
उपाध्यायजी ने मीना के माथे के दुर्घटनाग्रस्त भाग को साफ सुथरा कर पट्टी बांध दी।
ललाट के बायें भाग में आँख से थोड़ा ऊपर कोई दो ईंच लम्बा,एक ईंच गहरा सा कटान था,जिससे होकर काफी रक्त निकल चुका था
अब तक।
ड्रेसिंग करने के
बाद शीशी वाली दवा पुनः रूई के फोये में लेकर सुंघाने लगे निर्मलजी।इसी प्रकार
काफी देर तक मीना को होश में लाने का प्रयास किया जाता रहा।
इसी बीच गांव से घूम-घाम
कर पदारथ ओझा भी आ पहुंचे।देखते ही कहने लगे- ‘ओफ! बड़ा ही अशगुन
हो गया।ऐन मौके पर
ही
यह विकट स्थिति पैदा हो गयी।कहीं कोई टोना-टोटका
तो....ठीक मांगलिक कन्यादान के समय ही अमंगल कर दिया।विवाह मुहूर्त बीता जा रहा
है।कैसे क्या होगा...?’
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