मीना-निवास- तब
का नहीं।अब का। तब से कोई सत्रह वर्ष बाद का। भूतल पर पड़े मांस के लोथड़े को देख,गगन-विहारी गरुड़ का वंशज- चील,जिस तरह आकाश में मड़रा-मड़रा कर
उड़ता जाता है,उड़ता रहता
है;कुछ वैसे ही तो विगत सत्रह वर्ष गुजर गए।
धरती के सीने को रौंदती
हुयी दौड़ने वाली ट्राम गाडि़यों का अभाव सा हो गया है; किन्तु इस कारण नहीं
कि
माँ धरित्री पर
मोहित
होकर,द्रवित
होकर कुछ रहम कर दिया- इन विद्युत-चालित यानों ने;बल्कि,किसी दुर्दान्त दस्यु द्वारा सीने पर
टिकायी गयी कटार
अब
ऊपर के वजाय भीतर की ओर सीने की गहराई में जा घुसी है।धरती के सीने को अब चीर डाला गया
है। विदीर्ण कर दिया गया है- ‘पलीते’ लगा कर,और उस रिक्त भूखण्ड पर विछा दी गयी
है- भूगर्भ रेल लाईनों की जाल।हम उसे गर्व से ‘मेट्रो’ कहते हैं।हमारे विकास का एक नमूना...
विकासशील मानव ऊपर
से असन्तुष्ट होकर भीतर जा घुसा- भीतर और भीतर।एक ओर ऊपर और ऊपर उड़ान भरने की हबश,तो दूसरी ओर
भीतर से भीतर घुसने की अमानुषिक अदम्य लालसा।
सत्रह साल में मानव
न जाने कहाँ से कहाँ चला गया।बेतार के तार का बौनापन दूरदर्शन की छवि में उलझ कर
रह गया।बहुत
कुछ
किया मानव ने,
किन्तु
सच पूछा जाय तो अपरिमित प्रकृति के समक्ष अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न होकर भी मानव कितना बौना है...।
कलकत्ते के बागड़ी
बाजार के नुक्कड़ पर बना हुआ मीना निवास दिनानुदिन ह्रासोन्मुख प्रतीत हो रहा
है।कहाँ कुछ हो पाया है उसमें विकास! बस सिर्फ ह्रास ही ह्रास तो हुआ है।उसके
निर्माता से लेकर संरक्षक तक- कोई भी अब रहे ही कहाँ! सबके सब विकराल काल के गाल
में,समय की
दरार में समाते चले गये।
एक समय था- जब ‘मीना-निवास’ नवोढा दुल्हन सी
सजी होती थी। विस्तृत लॉन के बीचो-बीच बना हुआ दो मंजिला छोटा सा मकान- एक खुशनुमा
घरौंदे की तरह,न जाने
कितनी सुमधुर
भावनाओं
को संजोये हुए है स्वयं में।किसी आधुनिक छायागृह में अलग-अलग कोनों में अलग-अलग स्टैण्डों
पर खड़े सहस्र शक्ति
विद्युत-बल्बों
के चकाचौंध की तरह ही तो लॉन के चारो कोनों पर लगे ‘भेपर लाईट’ रात्रि में भी मध्याह्न
का आभास कराते थे।
क्यारियों में करीने से लगे गुल-बूटे- बेली,चमेली,डहेलिया,रजनीगंधा न जाने क्या क्या....।सदर
फाटक पर हार के लोलक सा लटकता-किसी महापुरुष के प्रसस्त भाल सा देदीप्यमान ‘न्योनसाईन’ एक गरिमामय नाम- ‘मीनानिवास’ को संजोये...।ओफ!
खो सा जाता है
मन
उस घरौंदे में।
विकास का एक दौर था,एक क्रम था।पर,अब है बारी ह्रास की।फिर कभी आए शायद
वह क्षण विकास और सजावट का।
राह चलते
परिचित-अपरिचित राहियों की तर्जनी अनायास ही उठ जाती है उस मकान की ओर- ‘यह भूतही
हवेली है’ एक नहीं
अनेक
सौन्दर्य सौष्ठव दफन हुए हैं- निस्सीम प्रेम का प्रतीक...जिसके ईंट-ईंट में...नहीं
नहीं
अणु-अणु
में मीना के स्नेह-सलिल की धार प्रवाहित होता रहा है।परन्तु अब?
आज भी,जब कभी बादल गरजते हैं,बिजली कड़कती है,अभ्र रुदन करते हैं,रात्रि के घोर अन्धकार
को चीर कर एक कर्कश चित्कार सुनने को मिलता है- मीना...ऽ...ऽ...ऽ और तब?
आस-पड़ोस के बच्चे
ही नहीं, बड़े भी दुबक कर कोने में चले जाते हैं। भयंकर प्रलयंकारी अट्टहास गूंजता
है।लगता है कि
ज्वालामुखी
फूट पड़ेगा।
प्रेम - कैसा हृदय
विदारक रूप है तेरा! ज्येष्ठ की तपती दोपहरी में रास्ता जब सुनसान हो जाता है,या फिर जाड़े की घनेरी अन्धेरी रात
में,खास कर जब
रौशनी गुल हो जाती है- तब कभी कभार देखा जाता है- मैले-कुचैले एक गौरांग पुरुष को-
जिसके शरीर पर मैल की मोटी पपड़ी जम चुकी है,सिर के बेतरतीब बढ़े बाल- जो लगभग
जटा का रूप धारण कर चुके हैं,लम्बी दाढ़ी, बड़ी-बड़ी
भयंकर आँखें,पीत दन्त,म्लान मुख,छरहरी काया....बच्चे उसे देखते ही
भाग कर माँ की आँचल के शरणार्थी बनते हैं।स्त्रियाँ भय से आँखें मींच लेती हैं।साहसी पुरुष- जिनके हृदय में कुछ
कोमल भावनायें होती हैं-
कह
उठते हैं- यही है...यही है वह,जिसने देखा है- प्रेम के हृद्विदारक
रूप को।कभी कभार उसका स्वगत कथन, सुनने
वालों का भ्रम दूर करता- ‘कमल! तुझे जीना है मीना के लिए....।’
परन्तु यह दृष्टि
भ्रम नहीं,श्रवणेन्द्रिय भ्रम नहीं।वास्तविकता है।यह कमल ही है।कमल यानि कमल भट्ट,प्रकाण्ड उद्भट्ट तान्त्रिक विक्रम भट्ट का वंशज कमल भट्ट, जिसकी दसों अंगुलियों पर चक्र के निशान हैं।
इसे विश्वास है- एक
ना एक दिन वह आयेगी,अवश्य आयेगी;और
इस विरही को अंगीकार करेगी।
परन्तु कब आयेगी? यह कैसे कहा जाए?
मीना! कमल की
आह्लादिनी शक्ति मीना,जिसे गुजरे
कोई सत्रह वर्ष गुजर गये।जमाने ने कितने ही सूर्योदय और सूर्यास्त देखे,कितने ही दिवस का अवसान हुआ,अमा चुरा ले गयी चन्दा को,और पूनम का चाँद भी कई बार आँख
मिचौनी खेल खेला गया-इसकी तो कोई गणना भी न किया होगा आज तक।क्यों करे? क्या जरूरत फिजूल
का वक्त जाया करने की!किन्तु बेचारे कमल ने तो इसी गणना में अपना समय व्यतीत किया है। पाण्डवों के वनवास और
अज्ञातवास की काल-गणना
करने मे कुटिल शकुनि भला कब चूकेगा?चूक भी कैसे सकेगा?
चूकेगा।अवश्य
चूकेगा।मगर अनजाने में नहीं,शायद जानबूझ कर। क्यों? ऐसा क्यों?मीना अकेली तो नहीं
थी-
उसकी प्रेयसी,दो और भी
तो थी-
एक,जिसे पत्नी
का गरुत्व मिला- शक्ति! और दूसरी ‘बे’चारी मीरा।उसे
तो कोई ‘पद’ कोई
दर्जा,कोई स्थान
न मिल पाया।मिलेगा भी नहीं।मिल पायेगा भी नहीं।फिर ‘मीरामय’ का
औचित्य? ‘मीरा तू
मेरी हाला है,मैं तेरा प्यासा प्याला’ .... कथन...नहीं बोध- सुबोध
की प्रासंगिकता?
किन्तु आश्चर्य
होता है- प्रेम की यह पूरी की पूरी ऊर्जा,ये सारी शक्तियाँ क्यों कर केन्द्रित हो आयी हैं मात्र मीना में? एक अद्भुत घनीभूत प्रेम-पुंज की सृष्टि
हो गयी है।कमल के प्रेम की सारी ऊर्जा, प्रेम की पूरी- गहन अनुभूति, विरह-वेदना का प्रत्येक तन्तु,छःफुटी काया की एक-एक कोशिका,अगनित रोम कूप- सबके सब मात्र,एक मात्र मीना के विरह से व्यथित हैं।उसकी
व्यथा की पराकाष्ठा तब लक्षित होती है,दर्शित होती है- जब कभी वह भाग्य्याली हथेलियों को देखता है,जिस पर प्रबल भाग्योदय बोधक रेखायें हैं।अंगुलियों के सभी पोरुओं पर- दशों
पोरुओं पर चक्र के
निशान
हैं।स्वयं प्रकाण्ड ज्योतिषराज है। एक उद्भट्ट तान्त्रिक का कुल-दीपक है...
एक ओर ये सारी
उपलब्धियाँ,ये सारी
स्थितियाँ,और दूसरी ओर
उसका, स्वयं का विलखता
व्यक्तित्व।क्या कोई साम्य है- इन दोनों में? दो विपरीत ध्रुवों
में सामन्जस्य भले हो सकता है,साम्य कहाँ?तन्त्र और ज्योतिष उसके लिए मात्र उपहास का विषय
बन कर रह गया है।प्रेम,शान्ति,सुख,सौभाग्य- ये सब सिर्फ शब्दकोष में रह
गये हैं।स्वप्न का
हवामहल साबित हो चुका है;इतना ही नहीं इस उत्तुंग अट्टालिका में डाका पड़ चुका है।सब
छिन्न-भिन्न हो चुका है,वह भी बड़ी
ही बरबरता पूर्वक।प्रेम के विशाल पोत में आग लग चुकी है।रूई के गट्ठर की तरह ‘लहर’ चुका है,जिसकी कटु धूम अभी भी डठ रहे हैं।
फिर भी न जाने किसी
क्षीण आशा किरण का दर्शन हो जाया करता है यदा-कदा उसके भूरे धूसर नेत्रों से और
मर्माहत-मृयमाण हृद्तन्त्री में नयी चेतना का संचार हो उठता है।उसे याद आ जाती है-
मृत्यु-शैय्यासीन मीना की वाणी - ‘कमल! मैं तेरी हूँ।तेरी ही रहूँगी - जन्म-जन्मान्तर
में भी।सावित्री के लिए सत्यवान के सिवा और कौन हो सकता है?’
और फिर याद आ जाती है-
‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि,नैनं दहति पावकः।
न चैनं
क्लेदयन्त्यापो,न शोषयति
मारुतः।।’
और साथ ही याद आ
जाती है-
‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म
मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।’
और उसे ढाढ़स बंध
जाती है।गीता के गोविन्द का अवलम्ब मिल जाता है।निविड़ अन्धकार में भटकते जीवन को आधार सूत्र मिल
जाता है।विश्वास हो जाता है- दृढ़ विश्वास- वह आयेगी,आज न कल।कभी न कभी मिलेगी।अवश्य.. अवश्य...अवश्य...।
यह क्षीण
आशा रश्मि ही उसके जीवन का आसार है।
अन्यथा कब का छलांग लगा चुका होता पतितपावनी
जाह्ववी में। न जाने कितनी बार जाता रहा है- हावड़ा पुल पर चहलकदमी करते- रात की
काली चादर में मुंह लपेटे सारा महानगर सोता रहता है, वैसे समय में वह जाता है- इस विचार से कि
नीचे कूद पड़ा जाय। परन्तु एक अज्ञात शक्ति उसे खींच कर पुनः ला बिठाती है, पुराने घोसले- मीना निवास में।
कभी-कभी याद आ जाया
करती, पुरानी बातें-‘....अब
इस मीना निवास में रह ही क्या गया है,जो बाँध कर रख सके?’ और साथ ही याद आजाती है- मरणासन्न मीरा
का कथन- ‘मानती हूँ
कि अब रही नहीं मीना दीदी,ना ही रही मौसी,न रहे मौसा, पर अभी भी बहुत कुछ है- इस घरौंदे में,जो तुम्हें बांधे रह सकता है।’- ऐसा ही तो कुछ कहा
करती थी मीरा।
और वास्तव में उस
अल्हड़ हठी किशोरी को भी गुजरे हुए कोई पन्द्रह वर्ष गुजर ही गये।पर अभी भी बँधा ही है, उस घरौदे से- प्रेम के स्मारक- उस मीना निवास
से।
आंखिर जाय तो जाय
तो कहाँ? कौन रह गया
है इतनी ‘बड़ी’ कही जाने दुनियाँ
में, जो इस बेचारे को
अपना कह सके?
पिताजी,माँ,मुन्नी,वंकिम चाचा,चाची,मीना,शक्ति,मीरा भी...सबके सब तो चले ही गए हैं इसे पूर्णतया निरामय बनाकर।पर वास्तव में वह
निरामय भी कहाँ हो पाया है? बहुत से ‘मय’ अभी विद्यमान ही हैं- गमों के कसक हैं- दिल में...प्यार की
तड़पन है बाहों में...अतृप्त फड़कन है होठों पर...एकाकीपन की आह है...सर्द-गर्म
उच्छ्वास है....न जाने
क्या-क्या हैं जुड़े हुए।फिर कैसे
कहा जाए कि कमल निरामय हो गया है।वस्तुतः निरामय होने पर ‘निरामय’ होने
के भाव का भी अभाव हो जाता है।हो भी कैसे सकता है कोई निरामय! निरामय तो एक और एक
मात्र परब्रह्म परमेश्वर ही है,जो ‘पद्मपत्र
मिवांभसा’ है।अनुपमेय
है।सर्वोपरि है।अचिन्य है।अविराम है।
मानव तो मानव है।वह
निरामय नहीं हो सकता।हाँ,थोड़ी देर के लिए मान लिया जाय तो
निरामय-सा हो सकता है।सो तो वह हो ही चुका है।परन्तु अन्तःप्रेरणा-प्रेरित जीजिविषा
अभी भी सजग है उसके अन्दर,जिसके कारण अवसान के समीप जा जाकर भी दूर छिटक जाता है।अभी भी
मरने की इच्छा नहीं है।एक जीवन्त चेतना- निस्प्राण नहीं,
अभी
भी है उसके भीतर।आशा है। अदम्य लालसा है।ललक है......बहुत कुछ है।
एक ओर महानगर
कलकत्ता के कोलाहल भरे वतावरण के मध्य अवस्थित, किन्तु अब बिलकुल शान्त,नीरव,उदास सा मीनानिवास,और दूसरी ओर सोणभद्र के पावन तट पर,प्रकृति की सुरम्य गोद में सोया हुआ
ग्राम माधोपुर आज पूरे तौर पर जगा हुआ है।सिर्फ जगा हुआ ही नहीं
है,बल्कि नौशे की तरह सजा हुआ भी है।
क्यों न सजे!
सौ-सवासौ घरों की छोटी सी वस्ती में एक दो नहीं,पूरे सात वारात आये हुए हैं- बीगन राम,सोहन चौधरी,पलटू भगत, दीपन सिंह, राम खेलावन पाण्डेय, और पता नहीं
क्या
नाम है।कौन याद करने जाए यह नामावली? क्या जरूरत पड़ी है इसकी? सबके सब ग्रामवासी- पंडित पुरोहित से
लेकर भंगी मेहतर तक,आज किसी को
चैन नहीं। पाकशास्त्र का ‘ककहरा’ भी
जिसे ज्ञात नहीं- वैसे को भी कारीगर
यानी पाकविशारद की उपाधि देकर खुशामद किया जा रहा है।बोलने-चलने का भी जिसे सऊर नहीं, उसे भी ‘वशिष्टनाथ’ कह कर बुलाना पड़
रहा है।गर्दभरागी को भी किन्नरीबाई कहना पड़ रहा है।
पंडित जी- जो
ग्राम-पुरोहित,आचार्य और
वृत्तेश्वर सब कुछ हैं-
प्रातः
पांच बजे ही एक गिलास धारोष्ण गोरस पान कर चल पड़े हैं घर से- शंख-शालिग्राम और सत्यनारायण पोथी
लेकर,साथ
ही सुगम विवाह-पद्धति भी है,जो दुर्गम जीवन-मार्गों पर चलने में
पथ-प्रदर्शक का काम करता है- थोड़ा बहुत।
शाम हो गयी,पर अभी तक एक दाना भी मुंह में डाल न
पाये हैं।कैसे डाल
पाते?यह नहीं
कि
उन्हें मिला ही नहीं कुछ खाने-पीने को,बल्कि समय नहीं
मिला।क्षुद्र
उदर-भरण में जो समय- बहुमूल्य समय नष्ट करते,उतने में कई घृतढारी-वंशरोपण हाँ ‘वंश’रोपन
सम्पन्न कराया जा सकता है,और ‘खर्वस्थूल’ गोबर-गणेश पर से
द्रव्य-संचय किया जा सकता है।क्षुधा देवी तो दूर,यदि मृत्यु-देवी भी आज उन्हें लेने आ जायें तो कुछ
समय का मोहलत मांग लें।क्यों कि ऐसा मूल्यवान समय बार-बार थोड़े जो आता है।
छोटे-बड़े कई शामियाने
और रेवटियों का चक्कर लगाते,कन्धे पर ‘अंख्खा झोला’ में ‘हाथीकान’ पूडि़यों और रसदार
बून्दियों का
बोझ
ढोये- जिससे मधुर रस चू-चू कर ‘अंगरखे’ के पूर्ण पृष्ठ
प्रदेश को चिटचिटा बना गया है, श्री पंडित
पदारथ ओझा हाथ में
‘बंकुली’ थामे बढ़े चले जा
रहे हैं- लपकते हुए अपनी मंजिल
की ओर।जब कि मंजिल कोई अधिक दूर नहीं है। बगल में ही
गांव से जरा हट कर,ब्राह्मणों
की जमात है-छोटी
सी;जहाँ
एक ही चने के
तीन टुकड़े हुए दाल की तरह तीन ब्राह्मण परिवार बसा है।उन्हीं
में
से एक है- स्थानीय प्राथमिक विद्यालय के अवकाश प्राप्त वयोवृद्ध शिक्षक श्री मधुसूदन
तिवारी का घर।हाँ ‘घर’।मकान नहीं,इमारत नहीं,कोठी नहीं,भवन
भी नहीं...।भवन कहाँ से हो?
एक समय था,जब इसी स्थान पर किलानुमा खण्डहर
था।अब तो वह भी न रहा।जमीदारों की जमीदारी छिन गयी,और अपनी कही जाने वाली सरकार की
रंगदारी शुरू हो गयी।धर्मनिरपेक्ष,साम्य वादी, समाज वादी,जन वादी- प्रजातान्त्रिक सरकार
बनी।रोटी, कपड़ा और मकान
-मूलभूत आवश्यकता को समझा जाने लगा।दलितों का उद्धार होने लगा।कर्तव्य को थोड़ा
पीछे ढकेल कर अधिकार को आगे घसीट लाया गया।समानाधिकार की बात कही-समझायी जाने
लगी।इसी क्रम में गांव की सारी ‘गैरमजरूआ’ जमीन अमीनी की
दूरबीन से ढूढ़-ढूढ़ कर सरकारी खाते में डाली जाने लगी।फिर उन
खातों का जमकर बन्दरबांट भी हुआ।प्रायः सुदृढ़-सुसम्पन्न लोगों को ही जो चौधराने मिजाज
वाले थे,लाभान्वित
होने का सहज सौभाग्य मिला।वास्तविक भूमिहीनों में तो मात्र यही एक हैं- हमारे मधुसूदन
तिवारी जी- गांव के गुरूजी,जिन्हें रहने का ठौर बनाने हेतु मात्र चार ‘डिसमिल’ जमीन मिली है,या कहें दी गयी है- ग्राम ‘सांसदों की
महती कृपा-प्रसाद स्वरूप।उस पर भी इधर कुछ दिनों से ग्राम-सेवक चौधरी का ‘वक’ ध्यान लगा हुआ है;जो
कल ही आया था सूचना देने-
‘सुनिये तिवारी जी!
एक सप्ताह का मोहलत और दे रहा हूँ,बस।फिर न कहियेगा कि पहले अगाह किया नहीं।आप अपना ठौर कहीं
और
ढूढि़ये।यह तो
सरकारी जमीन है,स्कूल के नाम पर।इस पर ‘गेंड़ुर’मारे अब न
बैठे रहिये।
चौधरी की बात सुन
घबड़ाकर,गिड़गिड़ाते
हुए तिवारीजी ने कहा था- ‘बस भैया,दश-पन्द्रह दिनों की
तो बात है, ज्यादा नहीं कहता;इतने का ही आग्रह है।’
मुंह बनाते,नाक-भौं सिकोड़ते,आँखें तरेर कर चौधरी ने कहा- ‘छोड़ क्या शौक से
देंगे?यह क्या आपके बाप की जमीदारी है, जो तीन साल
हो गये रिटायर किये,और अभी तक
दखल जमाये हुए हैं?
कई
बार कहा,पर आपके
कान पर जूँ भी नहीं रेंगते।या लगता है कान में रूई ठूँसे हुए हैं,कान खोल कर सुन
लीजिये-
उससे
आगे एक दिन का भी मोहलत नहीं मिलने वाला है।एक
ओर मेरे दरवाजे पर वारात आयी है,और दूसरी ओर स्कूल इन्सपेक्टर की नोटिस।आखिर कब तक इन्तजार
करूँ आपके इन्तजाम का? मैं ही हूँ जो अब तक
रूका रहा,मेरी जगह
कोई और सेक्रेटरी होता तो कान पकड़ कर चांद दिखा दिया होता कब का ही।’
बरबर समाज के कठघरे
में गीता-कुरान के बदले हाथों में ‘ब्रह्मसूत्र’ जनेऊ लेकर तिवारी
जी गिड़गिड़ाने लगे-
‘बस चौधरी भैया!
चार-पाँच दिन तो और मांग रहा हूँ सिर्फ,सप्ताह भर तुम स्वयं ही कह रहे हो।मैं थोड़ा....।’
‘सो सब अब नहीं
होने
को है।चार-पांच दिन तो बहुत होते हैं,चार-पांच घंटे भी उसके बाद नहीं
रूकूँगा।मेरा
आदेश अब ब्रह्मा की लकीर समझो।’- कहते हुए चौधरी ने अपनी छड़ी से सामने की जमीन पर तीन बार लकीरें खींच दी।
किंकर्त्तव्यविमूढ़, तिवारीजी हाथों की सूत्र-बेड़ी को सरकाते
हुए सिर झुका
कर जमीन पर देखने लगे,जहाँ
नवोदित ब्रह्मा की लम्बी भाग्य-लेखनी चल रही थी- भूमि के कोरे कागज पर।उन्हें समझ
न आ रहा था कि कैसे सलटाया जाए- इस मामले को।विद्यालय से अवकाश ग्रहण किये तीन वर्ष
गुजर चुके थे। इस बीच सच में चौधरी ने कई बार ‘अलतिमेथम’ दिया था- आवास
त्यागने हेतु।
आवास ही क्या था? छः-सात फुट ऊँची मिट्टी
की दीवार,जिस पर
पड़ा ‘फूस’ का छप्पर।बाहर गड़ा
हुआ एक क्षुद्र-प्राण खूँटा, और उससे बँधी-
अल्प प्राण- एक मरियल सी गाय- सिर्फ कहने भर की गाय-जो अभी हाल में ही बीगन महतो
की माँ के श्राद्ध में मिली थी।पता नहीं इस मरियल
सी गाय की सडि़यल सी पूँछ पकड़ कर बैतरनी की दुस्सह दुर्गम धार को कैसे पार की
होगी उस वृद्धा की प्रेतात्मा! इससे तो कहीं
अच्छा
होता कि एक दुधारू बकरी ही दान कर दिया होता- ‘अजा’ में जो मजा था,इस गाय में वह कहाँ?
उसी गाय की पूँछ
पकड़ कर,चौधरी आगे
बढ़ तिवारीजी के हाथ में पकड़ा दिया,मानों इसे पकड़ कर प्रपंची भवसागर से इन्हें भी पार पा ही
जाना है;और कड़क कर बोला-
‘वैसे काम नहीं
चलेगा
तिवारी बाबा! गेंदड़ा सीने वाले डोरे से बने जनेऊ को हाथों में लपेट कर ‘किरिया-कस्ठा’ खाने से काम नहीं
चलने
को है।इस तरह गाय की पूँछ पकड़ कर वाकायदा कसम खानी होगी कि दस दिनों बाद निश्चित
रूप से छोड़ देंगे इस सरकारी जमीन को- कोई अन्य व्यवस्था हो न हो।’ और फिर वजाप्ता शपथ
वाक्य कह गया।हाथ में अपनी ही गाय की पूँछ पकड़े तिवारी जी ने चौधरी के कथन को शब्दशः
दुहरा दिया,बिना कुछ ‘मीन-मेष’ के-मानों मन्त्री
पद का शपथ- ग्रहण कर रहे हों।
शपथ से आश्वस्त हो
चौधरी चल दिया,यह कहते
हुए- ‘बुरा न
मानेंगे तिवारी जी मेरे सामने भी मजबूरी
है।विवशता है- कानून की...समाज की।’
जबकि तिवारी जी वखूबी जानते हैं कि कितनी और कैसी मजबूरी है चौधरी महाशय के साथ।वास्तव
में यह जमीन सरकारी है यदि- यानी विद्यालय के नाम, फिर उस दिन जब किसी आवश्यक कार्यवश व्याज पर
कुछ रुपयों की याचना की थी तिवारी जी ने चौधरी से, तो क्यों कह रहा था-
‘रुपया तो मैं दे दे सकता हूँ- आप जितना कहें।भगवान की
कृपा से काफी कुछ है मेरे पास।ब्राह्मण होने के नाते व्याज दर में भी कुछ रियायत
कर दूँगा; किन्तु
सवाल है उस मूलधन की वसूली का।’
हाथ में पकड़े
हुक्के की मूठ को होठों से लगाकर एकबार
जोरों से गड़गड़ाया था चौधरी ने।फिर धूम्रपान के पश्चात् धूम्ररेचन करते हुए बोला था- ‘जगह-जमीन
आपके पास है नहीं जिसे बेंच-बांच कर मेरा कर्ज भरेंगे।रिटायरमेन्ट के बाद जो मिला
थोड़ा बहुत सो कहते हैं कि खर्च ही हो
गया।अन्य कुछ आय का स्रोत है नहीं।फिर किस जरिये से...क्या देह बेंच कर....?’- सिर हिलाते हुए
गुड़गुड़ा फिर होठों से लगा लिया था चौधरी।
कुछ सोचते हुए
गम्भीर हो गए थे मधुसूदन तिवारी।अधर को होठ से दबाते हुए सिर हिलाये और चिन्तित
मुद्रा में बोले थे-
‘बात तो सही
कह रहे हो चौधरी भैया।पर विश्वास रखो,किसी प्रकार तुम्हारा हिसाब चुकता कर ही दूँगा।कर्ज खाकर अपना परलोक थोड़े ही बिगाड़ूँगा।’
कुटिल मुस्कान सहित
श्मश्रु सहलाया कूटनीतिज्ञ चौधरी ने और ‘सटक’ (हुक्का) समेटते हुए, थोड़ा समीप आकर आहिस्ते से बोला-
‘मैं जो कहता हूँ उसे आप
समझने की कोशिश करें,आपही के
फायदे की बात बतला रहा हूँ।’
‘कहिये,क्या कहना चाहते हैं?’-चुन्दी सहलाते हुए
तिवारी जी बोले और इत्मिनान से बैठ गए चौधरी के साथ ही चौकी पर।
‘सुनिये,वह जो जमीन आपके पास है- जिस पर मकान
बना कर रह रहे हैं, वास्तव में स्कूल
की जमीन है।अब तक तो सेवा में थे,सरकार की।अतः किसी ने आपत्ति न जतायी।किन्तु अब सेवा-निवृत्त हो चुके हैं।आज न कल इस सार्वजनिक सम्पत्ति को त्यागना ही पड़ेगा।’- चौधरी ने भूमिका
बनायी।
‘सो तो है
ही।पर उस गैर-हकी जमीन को...।’-तिवारी जी कहना ही चाह रहे थे कुछ आगे कि मुस्कुराते
हुए चौधरी ने कहा- ‘उसी वास्ते तो मैं रास्ता सुझा रहा
हूँ।क्यों न उस जमीन को मेरे पास ‘रेहन’ रख दें।रुपया मिल
जायगा।आपका तत्कालिक काम निकल जायगा।कागज-पत्तर की बारीकी मैं समझ लूँगा।आप समय पर कर्ज भरने में असमर्थ
रहे तो भी मैं आपको वाध्य न
करूँगा रकम वापसी के लिए।सरकार का सतसल्ला इजा़रा कानून लागू ही
हो गया है....।’-चौधरी कहता जा रहा था,और तिवारी जी पास बैठे,उसकी आँखों में तैरते किसी भावी
कुटिल योजना की स्पष्ट छवि निहारते रहे थे।उसी दिन तो मुखिया जी कह रहे थे कि शीघ्र
ही इस गांव में सरकारी योजना से गन्ना मिल बनने वाली है।साथ ही बाजार समीति का विशाल
प्रांगण भी बनना है।साल दो साल में छोटा सा माधोपुर ‘माधवनगर’ का चोंगा पहन
लेगा।यहीं पास में, तिवारीजी के मकान के पीछे ही सिनेमा हॉल भी
बनने वाला है। फिर आज दो टके की जमीन कल दो लाख की हो जायगी।
किन्तु अब तो पंछी
उड़ चुका पिंजरे से- गाय की पूँछ पकड़ कर प्रतिज्ञा-वद्ध हो जाना पड़ा।जमीन पूरी
तरह सरकारी हो या गैर सरकारी,दो टके की हो या दो करोड़ की- अब तो छोड़ ही देना है दस दिनों
बाद।बस किसी तरह शादी-व्याह का मामला सलट जाय,एक मात्र बच्ची खुशी-खुशी विदा हो
जाय किसी की गृह-लक्ष्मी बन कर,फिर तो यहाँ शेष रह जायगी ‘उनकी बहन-
दरिद्रा’ का
साम्राज्य,जिसे त्याग
कर कहीं भी निश्चिन्त होकर जाया जा सकता है, डफली उठा- ‘भज
गोविन्दम् भज गोविन्दम् गोविन्दम् भज मूढ़ मते...’ का रट लगाते।
दरवाजे पर दरी
विछाकर,शान्त शरीर अशान्त
मन बैठे तिवारी जी बीते कल के साथ और भी कई ‘कल’ के स्मरण-चिन्तन
में काफी देर से निमग्न थे कि सामने से आते हुए नजर आये श्रीमान पदारथ ओझा।
‘पाँड़े’ ब्राण्ड मच्छरदानीनुमा
पीली धोती से उनका जर्जर शरीर झांक रहा था।ऊपरी भाग पर आक्षादित ‘अंगरखे’ में बने थे असंख्य
वातायन ।माथे पर बँधी थी- एक और वैसी ही, धोती की ही पगड़ी, जिसे विशेष कर दान-सुपात्र ब्राह्मणों के लिए ही धर्म-मर्मज्ञ
उद्योगपतियों ने निर्मित किया है।बेचारा पगड़ी सम्राट-भाल पर विराजमान राजमुकुट सा
स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा था।नाक के मध्य खण्ड से भाल के उर्ध्व खण्ड तक
फैला- विहंसता हुआ गोपी चन्दन- एक सौ ग्यारह बटा नाक का गणितीय विभ्रम पैदा कर रहा
था।कंधे पर लटक रहा था- युगल-वाहु झोला, जिसके अग्र भाग में सत्यनारायण,दुर्गा से सांग
विवाह-पद्धति तक,कई
पोथियाँ- मुड़-चिमुड़ कर खास्ता परौठे का भ्रम पैदा कर रही थी।साथ ही बँधा था,एक लाल टुकड़े में सोणभद्र का एक
छोटा सा- अतिक्षुद्र पाषाण-पिण्ड,जो आज शालग्राम का पवित्र श्रेणी पाकर अपने सौभाग्य पर इठला
रहा था,मानों सीधे
गंडकी से ही उद्भित हुआ हो।क्यों न सराहे! तीन खण्डों में विभक्त भीमकाय शंख- सुतरी से
आवद्ध हो कर भी प्रसन्न था जब।ऐसी स्थिति में शंख-शालग्राम का सानिध्य, एक दूसरे की पीठ आधुनिक नेताओं की तरह थपथपा
रहे थे- यह सब था ओझाजी का ‘मुख-भाग’और पृष्ठ
भाग पर लटक रहा था-झोली का एक सरस खण्ड,जिसमें था- पाँच किलो भर पूडि़याँ,रसदार बून्दिया,आलू-पटल का दमादम ‘दम’ कद्दू का रायता,इमली की खटमिठ चटनी, और पता नहीं
और
क्या-क्या- आपस में गडमड सी होकर एक दूजे के अस्तित्त्व क्षेत्र में प्रवेश कर
स्वयं को ही अस्तित्त्व विहीन कर लिए थे,फलतः कहना कठिन है कि कौन क्या है।वैसे भी
आज कल तो ‘वानरा इव कुर्वन्ति,सर्वे बफे डीनरः’ के जमाने में
पार्टी-फंक्शन में पता ही कहाँ चल पाता है कि ‘डीनर प्लेट’ में क्या-क्या
खाद्य-अखाद्य भरा पड़ा है! बस आये जाओ,खाये जाओ रूमाल में हाथ पोछते जाये जाओ।बाकी चीजों से न
मेहमान को मतलब है,और न मेजवान
को।
खैर,हमें भी कोई मतलब नहीं
है
इन सब से।ग्रीष्म-तपन-तप्त श्वान सा वालिस्त वरोबर जिह्ना निकाले,हांफते,छड़ी टेकते चले आ रहे पदारथ ओझा पर
दृष्टि पड़ते ही तिवारी जी अपना अतीत चिन्तन विसार कर वर्तमान में आ गिरे- उठ खड़े
हुए उनकी आगवानी में।
पदारथ ओझाजी चबूतरे
पर चढ़,बगल में
पड़ी चौकी पर अपना ‘बोझ’ उतार कर रख दिए,और चारो खाने चित पड़ गए।
उनकी यह दयनीय दशा
देख तिवारीजी अपनी अन्तर्व्यथा सब भूल बैठे। तुलसी बाबा ने ऐसी ही परिस्थिति में अगाह किया होगा
शायद- ‘जे न मित्र
सम होहीं दुखारि,तवहुँ विलोकत पातक भारी...।’
और तिवारी जी
हड़बड़ा कर ओझा जी की ओर लपक पड़े- ‘क्या हुआ ओझा जी! तवियत ठीक नहीं
है
क्या?आज बहुत दिनों बाद दर्शन दिए!’
माथे पर छलक आयी
पसीने की बूंदों को गमछे की छोर से पोंछते हुए ओझाजी दिन भर की अपनी डायरी बाँच गए।उनकी पूरी
कहानी सुनने के बाद तिवारी जी बोले- ‘क्यों जान
दिए जा रहे हो? मर जाओगे
इस भीषण लू के चपेट में आकर तो क्या यह यजमनिका ही साथ जायेगी?दिन भर व्यर्थ
मारे-मारे फिरे।कुछ खाये-पीये भी नहीं।कौन कहें कि आगे-पीछे दो-चार-दस पड़े हैं
रोने-विलखने वाले।’
टांग समेट ओझाजी उठ कर बैठ गये- जरा
चैतन्य होकर,और
हँसते
हुए कहने लगे,-‘क्या बात करते हो मधुसूदन
भाई! मेरे मरने पर दो-चार-दस जन नहीं, इलाके भर के
स्वान-श्रृगाल सब रोयेंगे और उनका आँसू पोंछने वाला भी कोई नहीं
होगा।’
‘क्यों नहीं...क्यों
नहीं...इन चौपायों को छोड़ कर और किसी के पास समय ही कहाँ है- तुम्हारे मौत का
मातम मनाने को। सच पूछो तो मातम भी वे ही मनायेंगे और जश्न भी वे ही मनायेंगे।’- कहते हुए तिवारी जी
भी हँसने लगे।
कुछ देर इसी भांति
दोनों मित्र हँसते रहे।फिर अचानक पदारथ ओझा ने प्रसंग बदला-
‘अरे मधुसूदन
भाई! तुम्हारे यहाँ भी आज ही बारात आने वाली है न? और तुम इतने
इत्मिनान से चबूतरे पर पलथी मारे आम्रतल में विराज रहे हो?न भीड़-भाड़ न किसी
प्रकार की तैयारी?
ओझाजी की बात सुन
तिवारी जी के प्रशान्त मुख मण्डल पर थोड़ी झुर्रियाँ झलक आयी।लम्बी-गहरी सांस खींचते हुए बोले-
‘किस बात की
मेरे द्वार पर भीड़-भाड़ हो पदारथ भाई? तुम देख ही रहे हो कि आज पूरे गांव में
वारातों की प्रदर्शनी लगी है।गाड़ी-मोटरों की दौड़ से लगता है कि माधोपुर ‘माधोमहानगर’ हो गया है।पवित्र-शान्त
ग्रामीण वातावरण में तवायफों के घुँघरूओं का गुंजार हो रहा है।आतिशवाजियों की कर्कश
ध्वनि और तीक्ष्ण प्रकाश तृतीय विश्वयुद्ध का भ्रम पैदा कर रहा है।रंगीन क्षुद्र विद्युत
बल्व वसुधा पर नक्षत्र मण्डल उतार लाए हैं।ध्वनि विस्तारक चोंगा
आधुनिक वेदध्वनि गुंजा रहा है।फिर इस रंगीन मोहक माहौल को त्याग कर कौन झांकने आए इस अकिंचन की
झोपड़ी की ओर?शहनाईयाँ बजती हैं।नृत्य-गान होते हैं।अगनित भोज्य भण्डारों का पट खुलता है,और न जाने क्या-क्या होता है; परन्तु इन सबके
अन्तरगत मात्र एक ही बात होती है- दो अज्ञात-अपरिचित हृदय का स्थायी मिलन-योजन।फिर
चिन्ता किस बात की? बाह्याडम्बर हो,ना हो,क्या अन्तर पड़ता है? वैसे भी उपाध्याय जी ने महती कृपा की है हम
पर।न जाने किस जन्म के मेरे पुण्य उदित हुए हैं,जो उन सरीखा ‘समधी’ मिला मुझ दीन पुरुष
को....।’
तिवारी जी अभी अपना
दीर्ध प्रवचन शायद जारी ही रखते कि बीच में ही ओझा जी चौंक पड़े- उनकी अन्तिम बात
पर। उनका चौंकना भी वाजिब था;कारण कि एक ओर तो पदारथ जी इधर कोई डेढ़-दो महीनों से
वैवाहिक लग्नों के रेलमपेल में इस कदर
उलझे रहे कि प्यारे मित्र मधुसूदन तिवारी से मुलाकात तक करने का मौका न मिल
पाया।दूसरी बात यह कि वे इस बात की कल्पना भी न कर पाये थे कि निर्मल उपाध्याय जी
का स्नेह-सूत्र यहाँ तक खींच ला बाँधेगा तिवारी जी को।वैसे भी सर्व विदित था कि
उनके लड़के की शादी रामदीन पंडित की पुत्री से तय प्रायः थी। पूरे पचास हजार नगद
दहेज देने को तैयार थे पंडित रामदीन। फिर अचानक यह पाशा पलट कैसे गया?
आश्चर्य चकित पदारथ
ओझा आँखें तरेर,तिवारीजी
की ओर देखते हुए बोले- ‘क्या उपाध्याय जी की बात कर रहे हो? वे तुम्हारे समधी
होने जा रहे हैं?’
‘....और क्या,तुम किसके बारे में समझ रहे हो?’-तिवारी जी ने जिज्ञासा प्रकट की।
‘मैं तब से समझ रहा था कि प्यारेपुर वाले निर्मल
जी की स्नेह-सरिता उमड़ आयी तुम्हारी ओर।मगर तुम तो प्रीतमपुर वाले निर्मल उपाध्याय की बात कर रहे हो,जो अवकाश-प्राप्त आरक्षी-अधीक्षक हैं?’- पटापट आँखें मटकाते
पदारथ ओझा ने कहा-‘वाह! सच में आश्चर्य वाली बात है- कैसे
राजी हो गये तुम्हारे यहाँ सम्बन्ध करने को,वह भी रामदीन पंडित की लाखों की दौलत को
ठोंकर मार कर? मोटे नगद-नारायण के साथ-साथ गाड़ी-बाड़ी- सब जोड़ो तो
पचासों लाख की सम्पदा।क्या पागल कुत्ता काटे है उस पुलिस अफसर को?’
मुस्कुराते हुए मधुसूदन
तिवारी बोले- ‘दौलत लाख-करोड़ का पा ले कोई दहेज के नाम पर,किन्तु दिल तो खाकों बराबर हुआ करता
है।भगवान ने बहुत कुछ दिया है निर्मल जी को।नामानुरूप हृदय भी।सबसे छोटा लड़का है।अभी उम्र
ही क्या है उसकी,जो शादी की जल्दी थी।अभी,इसी साल तो बी.ए. पास किया है।पर न
जाने कौन सा मोहिनी मन्त्र मार गयी हमारी विटिया उस दिन बाबाधाम का चूड़ा और पेड़ा
खिलाकर!’
‘वाह! मैं क्या जान ही नहीं
रहा
हूँ,उस लड़के
को! शील-स्वभाव-शिक्षा, अरे ये तो नानी के आगे ननिहाल का वखान करने वाली बात हो
गयी।परन्तु उपाध्याय जी तो एक तरह बेटी ही मान लिए थे तुम्हारी.....।’
‘ओझाजी की बात को
बीच में ही काटते हुए तिवारी जी बोलने लगे - ‘हाँ भाई! एक तरह से
बेटी क्या,अब तो हर
तरह से बेटी बना रहे हैं। बेटी और
बहू
में तो जरा सा ही अन्तर है,मात्र भावनात्मक ही तो।काश! इसी तरह
हर बेटी ससुराल में भी बेटी ही बनी रहती- पितृ-गृह सा स्नेह पा पाती।’- कहते हुए
तिवारी जी का गला भर आया था,पु़त्री की भावी सुख-कल्पना से ओत-प्रोत होकर।
ओझाजी आगे कुछ कहना ही चाह रहे थे कि उधर से दौड़ते हुए,तिवारी जी का
भांजा- छोटकू आ पहुँचा- ‘मामाजी! मामाजी! वे
लोग आ पहुँचे।’
छोटकू की बात सुन
कर तिवारी जी के साथ-साथ ओझाजी भी उठ खड़े हुए।
तब तक एक चमचमाती
हुयी बिलकुल नयी मोटर गाड़ी उनके दरवाजे के सामने आ खड़ी हुयी; जिसमें से बाहर
पदार्पण किया-
एक
पंच सदस्यीय शिष्ट मण्डल- श्री निर्मल जी,उनका कनिष्ट पुत्र विमलेन्दु,मध्यम- मधेश्वर,अग्रज- अच्युत,और साथ ही भृत्य- बिठुआ।इतने ही मात्र
वाराती- जिनका स्वागत करना था तिवारी जी को।स्वागत भी ‘स्व-आगत’ की तरह-
नास्ता-भोजन,
वैदिक
वैवाहिक
कार्यक्रम
और चटपट विदाई- सारा कार्य कुल जमा चार-पांच घंटों का, बस।
ईश्वर की असीम
अनुकम्पा से आज मधुसूदन तिवारी जी की पुत्री- मीना का वैवाहिक समारोह है,जिसमें पधारा है-पंचतत्त्वात्मक शिष्टमण्डल।
मीना- तिवारी जी
की इकलौती बेटी,एक मात्र
सन्तान,उनकी अरमानों का ताज,दिल की धड़कन,आँखों का नूर,ज़हाँ का जन्नत।यही तो एक मात्र
सहारा है उनकी रीते जिन्दगी का।अर्द्धांगिनी तो कब की जा चुकी।मीना के प्रादुर्भाव
के कुछ ही वर्ष बाद तो वह चली गयी थी सुरधाम को।बेचारे तिवारी जी तब से अर्द्धांग ही तो रहे- पूरा भी क्या कभी हो पाता है-
वस्तुतः छिटका हुआ अंग!
अब मीना षोडशी हो चुकी है,यानी तिवारी जी के एकाकी जीवन का
तेरहवाँ पतझड़ गुजर रहा है।
क्षण भर में ही घूम जाती है उनकी आँखों
के सामने- विगत वर्षों की
अनेक परछाईयाँ।खो से जाते हैं तिवारी जी भीड़ में-उन्हीं
परछाईयों
की। और फिर भीड़ तो सिर्फ भीड़ ही होती है- आदमी कहाँ रह जाता है? युवावस्था से
लेकर आज प्रवयावस्था तक न जाने कितने ही पड़ाव पड़े उनकी जीवन-यात्रा में।
वह भी एक दिन था-
नयी-नयी नौकरी मिली
थी।शादी भी हाल में ही हुयी थी। न जाने कितने सपने संजोये थे मधुसूदन तिवारी
वाल्यावस्था से किशोरावस्था तक।अर्द्धांगिनी के रूप में रूपसी योगिता को पाकर उनका
मन मयूर नाच उठा था।जीवन की बगिया में वसन्त की बहार आ गयी थी।
वह भी एक समय था-
आज की तरह नियोजनालय का लौह द्वार नहीं खटखटाना
पड़ता था,शिक्षितों को।शिक्षित
ही कितने होते थे- मुट्ठी भर,मगर ठोंके पीटे,सजे-मंजे।यह नहीं कि बी.ए. की डिग्री टांग लिए और अपना नाम भी
शुद्ध लिखने में हाथ कांपे।जो भी था- शुद्ध घी,डालडा नहीं।और इतने से ही संतुष्ट थी
भोली जनता। हालांकि तिवारी जी को काफी ठोकरें खानी पड़ी थी। बहुत तरह के पापड़
बेलने पड़े थे।दरअसल थे भी निरे ‘बाबाजी’।काफी
मस्सकत के बाद स्थानीय प्राथमिक विद्यालय का शिक्षक बनने का सौभाग्य मिला था।पदारथ
ओझा -बचपन के साथी,बिलकुल
लंगौटिया यार,हर
सुख-दुःख के साथी-साझेदार।उन्होंने ही तो आकर सूचना दी थी तिवारी जी को इस ओहदेदार
पद की,और खुशी से
झूमते हुए मधुसूदन तिवारी ने बोइयाम में
से ग्रामीण कलाकन्द- ‘बताशा’ बरबस ही ठूंस दिया
था,उनके मुंह
में-
‘लो पदारथ!
पहले मुंह मीठा करो।ईश्वर कृपा से अब हम दोनों के जीवन का नया अध्याय आरम्भ हो
जायगा।हम दोनों साथ-साथ एक ही विद्यालय में अध्यापन कार्य करते हुए अपनी जिन्दगी
का बोझ भी एक दूजे के लिए वैशाखी बन कर ढोयेंगे।’
ऐसा ही कुछ कहा था
उस दिन मधुसूदन तिवारी ने।परन्तु क्या पता था वेचारे को कि नौकरी की खुशी में मुंह
में घुलते
बताशे-सा
ही उनका भविष्य भी अन्धकार में घुल जायगा! घोर निराशा और हताशा का सामना करना पड़
जायेगा! यह तो कल्पनासे भी परे था।
कोई महीने भर बाद
ही तो बेचारे पदारथ ओझा गंवा बैठे थे अपनी गृह-लक्ष्मी को।युवा पदारथ की पत्नी ही नदारथ हो गयी थी।
फिर रह ही क्या गया बेचारे ओझा का- जीवन-बोझा के सिवा! सही में उनका जीवन स्वयं
में बोझ बन कर रह गया।फिर शादी भी नहीं की दूरदर्शी
विचारक ने।जीवन गुजार डाला ग्रमीण बच्चों की किलकारियों के बीच।परन्तु खुद का घर
कभी गूंजित न हो पाया अपने औरस की किलकारी
से।अब तो अवकाश पा,निराश हो
बैठ गए।
पर कौन कहें कि मधुसूदन
तिवारी ही बहुत सुख लूटे अपनी चाहत का? तीन साल हो गए शादी के,पर सन्तान का सौभाग्य न हो
पाया।घर-परिवार,
पास-पड़ोस
कुरेदने लगा-
‘कैसी कुलक्षिणी
बहू उठा ले आए हो मधुसूदन,जो अभी तक गोद भी न भर पायी?’
और धीरे-धीरे यही
बात हर कोई की जिह्वा पर तैरने लगी।बूढ़ी माँ के कान पकने लगे,समाज के व्यंग्य वाणों से;उस समाज के
जिसे अपनों से ज्यादा आस-पड़ोस की ही चिन्ता अधिक सताती है।अधीर होकर कहा एक दिन
वृद्धा ने अपने इकलौते बेटे-मधुसूदन से- ‘बेटा! अब तो मुझे
जरा भी आश नहीं इस बहू से पोता-पोती देख पाने की।बच्चों की
किलकारी के लिए तरसती ही
रह जाऊँगी।’
वृद्धा की बात सुन
सिर खुजाने लगे मधुसूदन।उन्हें कोई शब्द न मिला सान्त्वना के लिए,जिसे माँ की सूनी आँचल में डाल सकें सन्तान के विकल्प में।
‘मेरी
मानों...’- माँ ने आगे सुझाया-
‘ठीक से
कुण्डली विचार
कर
किसी प्रबल सन्तान-योग्या लड़की से विवाह कर लो।’
माँ की बातों से मधुसूदन
का म्लान मुख कौये की चोंच सा खुला रह गया।घुंघराले काले केशों को कुरेदती अंगुली मानों
चिपक कर रह गयी
सिर से ही।
उधर किवाड़ की ओट
में खड़ी योगिता सिर पकड़ कर बैठ गयी- ‘ओफ! इतना अनर्थ! पांच साल बीत क्या
गये,लगता है मैं बांझ ही हो गयी।इतना ही शौक था बच्चे का तो
क्यों नहीं किसी ऐसी लड़की से शादी की थी,जो कुआंरी ही जनमा चुकी हो दो-चार...।’- मन ही मन भुनभुनाकर
रह गयी थी अभागन।
माँ के मुखड़े को,जिस पर अपने प्रस्ताव-सुझाव की
प्रतिक्रिया की उत्सुकता वश आशा-निराशा के विम्ब बन-बिगड़ रहे थे,मधुसूदन कुछ पल तक गौर से निहारते रहे।फिर
थूक घुटक कर गला तर
करते
हुए बोले-
‘क्या कहती
हो माँ! तुम भी पड़ गयी लोगों के कहने में?अभी उमर ही क्या बीती है बेचारी योगिता
की,जो तुम शादी
कर एक और बहू
लाने को कह रही हो? मान लिया उसे भी न हुयी सन्तान,फिर क्या तीसरी को ले आऊँगा? और फिर
चौथी को? घर में
बहुओं की नुमाइश लगा दूँ?’
‘नहीं
बेटा!,सन्तानेच्छु,पुत्र-भीता वृद्धा युवा पुत्र के कंधे
पर हाथ रखती हुयी बोली- ‘यह बात नहीं
है।दुनियाँ
की हर औरतें क्या इसी तरह की होगी? देखो तो चार महीने सिर्फ हो रहे हैं,भरोसवा की बहू को
आए हुए,और गर्भवती
हो गयी।कल ही कह
रही
थी उसकी माँ कि ‘कनाईं’ को उल्टी आ रही है।’
‘उल्टी आए या सीधा।मैं कहता हूँ- कुछ दिन सब्र
करो।धीरज
धरो
माँ।अभी तो वह स्वयं ही बच्ची है- सोलह-सत्रह की।बच्चा होने की क्या उमर गुजर गयी?’-माँ
को समझाते हुए मधुसूदन ने कहा था।
बेटे की बात सुन
वृद्धा कुछ देर तक उसका मुंह ताकते रही,फिर एक ओर चल दी विना कुछ कहे-बोले।तिवारी
जी ने भी सोचा कि माँ उसकी बातों पर यकीन कर ली है।अतः लम्बे डग भरते दूसरे कमरे की ओर चले गये,जहाँ सिर पकड़े,नत निगाहें युवती योगिता अपने आँसू
से धरित्री सिंचित कर रही थी।
कमरे में पहुँच कर
तिवारी बैठ गए खाट पर,किन्तु
ध्यान गया
जब
योगिता के म्लान-मुख पर,जो
सान्ध्यकालीन कमलिनी सा कुम्हलाया हुआ था,और रात्रि के आगमन के पूर्व ही ओस की बूंदें
टपक रही थी,जिसे देखकर
उनसे सहा न गया।लपक कर उसका हाथ पकड़ लिए।
‘क्या बात
है योगिता! क्यों रो रही हो?’-सवाल इस लहजे में था मानों रूलाई के कारण का इन्हें
कुछ अता-पता ही न हो।जब कि उन्हें अच्छी तरह ज्ञात है कि इस असामयिक रूदन में हृदय
की कौन सी व्यथा छिपी है।आए दिन बेचारी को सिर्फ सास ही नहीं
आस-पड़ोस
की भी भंगिमाओं का शिकार होना पड़ता है।आंगन में आने वाली प्रायः हर औरत का पहला
सवाल यही होता कि बहू का क्या हाल है?अभी कुछ....?’
और घिसा-पिटा सा
उत्तर होता है वुढि़या सास का- ‘अभी कुछ क्या? कभी
कुछ नहीं।मेरे भाग्य में इतना सुख कहाँ लिखा है,जो पोते-पोतियों का मुंह देख सकूँ।’
टोले-मुहल्ले का यह
एक औपचारिक और अनिवार्य सा प्रश्न है।परन्तु प्रश्न का उत्तर कितना कठिन है,यह उन्हें क्या पता।इसी प्रश्न से सदा
के लिए छुटकारा पाने हेतु ही तो उपाय सुझाया था वुढ़िया ने अपने एक मात्र कुल-दीपक
को,जिस पर यदि
अमल कर लिया जाय
तो कुलदीपक का प्रेम-दीप ही बुझ जाने की आशंका है।
आज से कुछ दिन पहले
तक तो सिर्फ मुहल्ले वाले ही कहा करते थे। आज सास ने भी कह दिया।कल हो सकता है,प्रेम-प्रतीक पति भी कह बैठे। उसके
दिमाग में भी ‘पुम् त्रायते इति
पुत्रः’ का भूत भर जाये।‘पुम्’ नामक नरक से उद्धार
करना ही तो पुत्र का पुनीत कर्म है।इसी कामना से तो पुत्र की अनिवार्यता दर्शित
होती है।उस व्यक्ति का जीवन ही क्या,जिसकी कोई सन्तान न हो! कौन सम्पन्न करेगा उसकी उर्ध्वदैहिक
क्रियाओं को?शारदीय पितृपक्ष के पावन अवसर पर
किसी धर्मभीरू के भींगे अंगोछे से टपकायी गयी वारी-बूंदें ही तो तृषा-तृप्ति हेतु
प्राप्त हो सकेंगी?ओफ! स्मृतिकारों ने भी कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया है,सन्तान की महत्ता को- ऐसा ही कुछ सोचती
जा रही थी बेचारी योगिता और आँखें सावन-भादों की घनेरी वदली सी बरसती जा रही थी,कि अचानक कमरे में उपस्थित होकर मधुसूदन
ने उसकी कोमल कलायी थाम ली।
मधुसूदन तिवारी
बारबार पूछे जा रहे थे- उसके रूलाई का कारण,और उसका हृदय फटा जा
रहा था,किसी भावी
भय की आशंका से।
वह सोच रही थी-
प्रताड़ना का यदि यही क्रम रहा तो फिर आज न कल ‘इनका’ भी विचार बदल
जायगा।अभी नयी हूँ।प्रेम-सागर के असीम जल से आप्लावित हो रहा है इनका तन-मन।पर कुछ
काल बाद प्रेम की जब परितृप्ति हो जायेगी,तब इसी सागर का जल खारा लगने लगेगा।ढलती
जवानी में यौवन के उभार ढलक पड़ेंगे- कमल के पत्ते पर पड़े पानी की बूंदों की तरह,और तब खूँटे से उन्मुक्त वृषभ जिस-तिस
की क्यारियों में मुंह मारने लगेगा।तब घर क्या घर ही रह जायेगा? बच्चों की
किलकारियों के लिए तड़पती कमरे की दीवारें और छत क्या काट खाने को न दौड़ेंगी? परायी खेती में
लहलहाते तृणों पर मुंह मारते-मारते,मन जब कभी थक जायेगा,तो हो सकता है कि वापस भी आये- पुराने वसेरे
की ओर,पर अकेले नहीं
वरन्
किसी नयी गाय का पल्लू पकड़ कर।ओफ! उस दिन क्या मेरा सुहाग रह कर भी,न रहने के बराबर न हो जायेगा? माँजी तो आज ही कह
रही है...।’
योगिता के गम्भीर
विचारों के तड़ाग में मधुसूदन ने अपने
पुनर्प्रश्न की कंकड़ी फेंककर,और भी उद्वेलित कर दिया-‘क्यों योगिता!
बोलती क्यों नहीं? मैं समझ रहा हूँ,माँ की बातों से दुःखी हो तुम।पर
मेरी बातें भी तो सुनी ही होओगी? क्या यह सम्भव हो सकता है कि अपनी हृदयेश्वरी को त्याग कर
किसी और को ला बिठाऊँगा इस प्रेम-प्रासाद में?’- योगिता के कपोलों
पर लुढकते
अश्रुबून्दों
को उसी की आंचल में छिपाते हुए मधुसूदन ने कहा-
‘सूरज पूरब के वजाय
पश्चिम में उगने लगे,चाँद गरम
हो जाय- सूरज की तरह,अग्नि शीतल
हो जाये-बर्फ की तरह,जल ठोस हो
जाय-लोहे की तरह,धरती तरल हो
जाय-मदिरा की तरह,प्रकृति का प्रत्येक नियम परिवर्तित हो जाय,पर तुम विश्वास रखो- मैं कदापि बदल नहीं
सकता।’
योगिता पूर्ववत जड़
बनी,भू-दर्शन
करती रही।मधुसूदन ने बच्चे की तरह उसे गोद में उठा कर खाट पर ला बिठाया।फिर प्यार
से थपथपाते हुए,सहलाते हुए
कहने लगे-
‘तुम्हारे वक्षस्थल
के इन सुरभित घटों को क्या मैं भुला सकता
हूँ,कभी भी? मुझ सरीखे अशान्त
मानव के लिए यह परम
विश्रान्तिस्थल
नहीं है क्या? काश! इन युगल सुमेरुओं पर सिर टिका कर महा निर्वाण तक
पहुँच जाता।सच में कुछ-कुछ वैसी ही सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है- इन घाटियों
में।’
मधुसूदन ने अपना
सिर टिका दिया था,उसके उन्नत
उरोजों पर,मानों
पर्यंक पर सजाये हुए गुदगुदे मसनदों के जोड़े हों।
‘हाँऽ...ऽहाँ’- देर से दबी योगिता
की जुबान में जान आयी-
‘पर यह क्या
सिर्फ मुझमें ही है?औरों में न होगी यह शक्ति जो आपको श्रान्ति दे सके? वैसे यह सच है कि
आप हमें बहुत चाहते हैं।अटूट
प्रेम है मेरे प्रति आपके दिल में।पर प्रेम-सरिता के नीर मात्र से परिसिंचित होकर,क्या वंश-वृक्ष
विकसित
होता चला जायगा?अभी जवानी है।कल वुढ़ापा आयेगा।फिर, क्या प्रेम के इस घट का कभी नाश नहीं
होगा-जिसे
आप अक्षय समझ रहे हैं?थोड़ी देर
के लिए मान लें कि ‘न’ ही हो,फिर भी....।’
‘फिर भी क्या?’- अपनी तर्जनी से
योगिता की ठुड्डी थोड़ा ऊपर उठाते हुए मधुसूदन ने पूछा- ‘पुम्
त्रायते,पर त्रायते’
की बात ही क्या?जब ‘इह त्रायते,भूः त्रायते’ ही न हुआ? जीवन दग्ध
होता रहेगा प्रेम-सहचरी-विरह-ज्वाला में, ‘इह’ ही सुखमय न हो पाया,फिर ‘पर’ की कौन कहे? कोई
देखा भी है आज तक कि मरने के बाद क्या होता है? ‘अपना’ कहने
लायक अनुभव है किसी के पास- इन सब बातों का? बस,सुनी-सुनायी,रटी-रटायी,घिसी-पिटी बातों को हमसब दुहराते जा
रहे हैं।सन्तान को
महद् महिमा-मण्डित किया जाता रहा है। अन्य पत्नी से मान लें कि सन्तान प्राप्ति हो
ही जाय, फिर भी क्या होने
मात्र से ही ‘तरण-तारण’ सुनिश्चित हो जाता है? कितने पुत्र हैं संसार में सच्चे अर्थों में कुल-तारण-योग्य? अंगुलिओं पर गिने
जाने भर...फिर....?’
इसी तरह की
खट्टी-मीठी वाग्जाल बुनते रहे थे काफी देर तक मधुसूदन तिवारी।अन्यत्र उलझाने का
प्रयत्न करते रहे,अपनी
प्रिया के विषण्ण मन को; किन्तु उसके अन्तस्थल के किसी गुप्त खण्ड की दरार में जा छिपा
भय- भावी प्रतिवेशिनी के आगमन का, किसी
प्रकार निकल न पाया।उसका सुहाग सरेआम नीलाम होता सा प्रतीत होता रहा।और वह निरंतर
सोचती रही...।
क्यों न हो! कई
प्रकार के ऋण-बोझ को लेकर मानव जन्म ग्रहण करता है- देवऋण,पितृऋण,गुरुऋण,मातृभूमिऋण..आदि-आदि।इन
सबसे ऊपर,सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण होता है- मातृऋण/पितृऋण।ईश्वर की आराधना,गुरु सुश्रुषा,समाज और देश की सेवा
आदि द्वारा, क्रमशः अन्यान्य ऋणों से तो मुक्ति मिल जाती है।मातृ-पितृऋण से पूर्णतः
मुक्ति सिर्फ ‘सेवा’ से ही पूरा नहीं
हो
पाता,क्योंकि
उनकी प्रबल लालशा होती है- अपने सन्तान के सन्तान को देखने की- यानी अपनी वंश
परम्परा को सतत प्रवहमान रहने की....।
....यदि मधुसूदन
पिता न बन पाये,यदि योगिता
माँ न बन पायी
फिर
क्या समाज का ‘सेट्ठि उनके भारी ऋणमोचन हेतु सरेआम नीलाम न कर देगा- योगिता के सुहाग को?और
उसे ऊँची बोली
लगा
कर कोई प्रबल ‘पंचम भाव’ वाली नारी खरीद न
लेगी?और तब योगिता के नारीत्व का,मातृत्व का मोल ही क्या रह जायेगा?‘मातृत्व’ अपने आप में कितना
गरिमामय शब्द है। हालांकि इस पद के अर्जन में नारी का बहुत कुछ नष्ट हो जाता है।क्षरण
हो जाता है।परन्तु गुसाईं बाबा की उक्ति- ‘...अवगुन आठ सदा उर रहहू’-वाली नारी को
गरिमामय पद प्रदान करने वाला एकमात्र मातृत्व ही है।इससे रहित नारी अस्तित्व हीन सी प्रतीत होती
है।
यही कुछ सोचे जा
रही थी- योगिता,पति के पास
बैठी-बैठी, और अभी-हाल
की घटी घटना पुनः उसकी आँखों तले घट गयी
छायाचित्र की तरह-
पड़ोस में शादी थी-
योगिता के मुंह बोले देवर की।वर-यात्रा के समय मुहल्ले की प्रायः सभी स्त्रियाँ जुटी
थी।वर-परिछन हो रहा था।गोबर के लोइये को उछाल-उछाल कर फेंक रही थी गोपू की
माँ।परिछन में उपस्थित औरतों के समूह में गोपू की एक चाची भी थी।एक ओर माँ का
आभ्यान्तर थिरकन,तो दूसरी
ओर चाची का कुम्हलाया हुआ मुख-सरोज।योगिता समझ न पा रही थी-उस मौन म्लान मुख का
रहस्य।सोच ही रही थी कि कंधे पर स्पर्श पा चौंक गयी-
‘इधर आओ बहू।’- कहती हुयी योगिता
का हाथ पकड़ कर एक ओर किनारे ले गयी,उस भीड़ से।
‘क्या बात है दीदी?’- योगिता दीदी ही कहा
करती थी,क्यों कि
वह मैके के रिस्ते से दीदी ही थी।आश्चर्य चकित उसके चेहरे पर गौर करती हुयी,पीछे हो ली।आंगन में आने पर वह
बतलायी,अपने मौन
का रहस्य-
‘क्या खड़ी
हो यहाँ? कौन है
यहाँ हमें महत्त्व देने वाला?’
योगिता को पुनः
आश्चर्य हुआ कि दीदी किस महत्ता की बात बतला रही है।
‘क्या कह
रही हो दीदी! मैं कुछ समझी नहीं?’-आश्चर्य
से विस्फारित नेत्रों को ऊपर उठाती हुयी योगिता ने पूछा।
‘तुम अभी
बच्ची हो।दुनियाँ का प्रपंच तुम अभी क्या समझ पाओगी।सुबह से ही गोपू की माँ और
दादी कोसती रही है मुझे। मेरी सूनी गोद को लेकर छींटाकशी करती रही है।परन्तु यह कहाँ
कोई देखता है कि दोष सिर्फ औरत में ही है या मर्द में भी।’- कहा गोपू की चाची ने,और योगिता पुनः आश्चर्यचकित हो उन्हें
देखने लगी।
‘हेंऽ..! तो
क्या मर्द में भी दोष होता है,जिसके कारण बच्चा न हो पाता हो?’- योगिता की आँखें फैली हुयी थी,अद्भुत जिज्ञासु होकर।
विशाद के उस वातावरण
में भी गोपू की चाची हँसती-हँसती लोट गयी, योगिता के भोले प्रश्न को सुन कर।वुत्त बनी
योगिता खड़ी ताकती रही उसका मुंह।अवसाद को धो-पोंछ,हँसी की सरजना करने जैसी बात उसके
दिमाग में आ न रही थी।
‘क्यों हँस
रही हो दीदी?’-पुनः सवाल किया योगिता ने। गोपू की चाची ने उसका हाथ पकड़, एक ओर एकान्त में ले गयी,और फिर ‘सहस्रानन शेषावतार
भाष्यकार पतंजली की तरह
सारा का सारा- कायतन्त्र-
नारी-शरीर-क्रिया-विज्ञान
से लेकर वात्स्यायन-कामसूत्र तक बिना ‘कौमा-फुलस्टॉप’ के समझा डाली।
उसकी बातों को सुन कर,एक ओर योगिता के पांव तले की धरती खिसकती
हुयी महसूस हुयी तो दूसरी ओर निराधार व्योममण्डल में किसी ठोस आधार का दिग्दर्शन
हुआ,मानों
अचानक किसी अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के
कंगूरे पर पांव पड़ गए हों।
योगिता सोचती रही,साथ ही साथ सुनती भी रही,जो कुछ उसे सुनाया जा रहा था।विभिन्न
सिद्धान्तों को स-भाष्य सुनाया जाता रहा।फिर अचानक उसके प्रवचन का कैसेट बदल गया,और सिद्धान्त से ‘पुराण’ पर
उतर आया,और फिर जा
ठहरा महाभारत के पाण्डु पर।पाण्डु को सुन-जान,योगिता को याद आ गयी- शैय्या कालिक मधुसूदन
के चेहरे का पाण्डु रंग।
गोपू की चाची कहे
जा रही थी- ‘शास्त्रकारों ने पौराणिक चरित्र नायकों पर मोटा नकाब डाल दिया है।क्या इसी नकाब ने नपुंसक
पाण्डु की परिणीता पृथा को वाध्य न किया होगा- सन्तान की कामना को लेकर ‘नियोग
पद्धति के शरण में
जाने को? वैसे वह एक अद्भुत सामाजिक व्यवस्था थी,जिसने सहर्ष मान्यता दी थी इस विधान
को।इससे नारी के नारीत्व और सतीत्व के आंचल पर किसी प्रकार का धब्बा न लगता था,उन दिनों।थोड़ा बहुत यदि लगता भी तो
मातृत्व के ‘फास्ट रिमूभर’ से उड़ंछू हो जाता
था।’
‘अच्छा! तो
यह पर पुरुष सम्पर्क नहीं माना जाता था?’- योगिता साश्चर्य
पूछी,और चाची की आँखों
में झांक कर उसका हल ढूढ़ने लगी।
‘था।पर पुरुष-समागम
ही था,किन्तु
स्मृतिकारों ने उसे सक्त
‘वर्म’ पहना
रखा था- धर्म का सुरक्षित कवच। ‘धर्मस्य तत्त्वं
निहिते
गुहायाम्....महाजनः ये न गतः स
पन्था....’ धर्म -एक मोटा आवरण है,जिसकी आड़ में बड़े से बड़े अधर्म को
ढांक रखा जा सकता है।जरा तुम ही सोचो योगिता- एक ओर नारी का सतीत्व,जिसकी दुहायी की धवल चादर राजपुत्री
सावित्री से लेकर ऋषिपत्नी अरुन्धती तक फैली है,तो दूसरी ओर बहुपतिगामिनी कुलबधुओं
की नैतिक
गाथायें भी उच्चस्वर से गायी गयी हैं।और भी जरा सोचो- क्या जरुरत थी सती साध्वी कुन्ती को एक के
बाद भी क्रमशः दो और पुत्रों की?’
‘कुन्ती को
तो एक ‘कानीन’ भी था न? ’-योगिता
को कर्ण की याद आ गयी प्रसंगवश।
‘हाँ....हाँ।वह
तो था ही,जिसे जन्म
देने के बाद भी कौमार्य भंग न माना गया,और न सतीत्व पर ही आँच आयी।सुनते हैं कि
सूर्य ने कुन्ती-भोग के पश्चात वचन या कि आशीष दिया था। फिर भी एक पुरुष से तृप्ति
न हुयी तो सन्तान के नाम पर कई दरवाजे झांक आयी।पर क्या करोगी?’- अफसोस की मुद्रा में चाची ने कहा- ‘यह उदारता
पूर्ण व्यवस्था थी
तत्कालीन
समाज की।या कहो-‘समरथ के नहीं
दोष
गोसाईं’।मगर
अफसोस
तो इस बात का है कि आज भी सन्तान की महत्ता तो वही है,वन्ध्या की सामाजिक स्थिति वही है,जब कि नियोग की अद्भुत व्यवस्था को
भुला दिया गया है,या कहो
मिटा दिया गया है।रोक लगा दिया गया
स्मृतिकारों द्वारा।साथ ही गौर तलब है कि आज न ‘चरु’ प्रदाता ऋषि ही हैं,और न देवताओं को खींच
लाने वाले मन्त्र वेत्ता ही। द्वादश सन्तान क्रम में ‘औरस’ के बाद सीधे दत्तक
को स्वीकार लिया गया है।बीच के- क्षेत्रादि पुत्र व्यवस्था लुप्त हो गयी।ओफ! जी
चाहता है, समाज की पैनी
अंगुलियों को तोड़ डालूँ।गोल-मटोल मटकती आँखों को फोड़ डालूँ थूहर के दूध डाल कर,या फिर निकल पड़ू कुल-बधुत्त्व के
महावर को मिटाकर,खुलेआम
नीलाम करने सतीत्त्व के थोथेपन को- मातृत्त्व के मंच पर आरुढ़ होकर....।’
योगिता सुनती रही
चाची के प्रलाप को,उनके
अन्तरमन की भड़ास को।पर उसके हृदय में तो हाहाकार मचा हुआ था।वह चुप बैठी अपने
प्यारे पति मधुसूदन के शैय्याकालिक ‘पाण्डु रंग’ के रहस्य की तलाश
में खोयी-उलझी हुयी थी।....तो क्या उसका पति नपुंसक है,जैसा कि अभी-अभी दीदी सुना-समझा गयी
वात्स्यायन काम सूत्रों को,जिसमें क्लीवों के कई प्रकार बतलाये गये हैं? परन्तु इसकी
जाँच-परख कैसे हो? मगर जैसे भी हो करना ही होगा। ऐसा ही दृढ़ निश्चय करती उठ खड़ी
हुयी योगिता।
गोपू का परिछन
समाप्त हो चुका था।वारात प्रस्थान कर चुकी थी।किसी कुँआरी को परिणय-सूत्र में बाँध
लाने हेतु एक और पुरुष प्रस्थान कर चुका था। ‘बच्चा कब तक होगा? बहू
के गोद कब तक भरेंगे?’ आदि सनातन प्रश्नों की कतार में एक कड़ी,कल से और जुड़ जायेगी।
योगिता के
मन-मस्तिष्क में ‘काल वैशाखी’ का तूफान मचा हुआ
था। चौखट की परिधि में पांव धरते ही सास की बातें कानों में आ पड़ी- पिघले हुए
गर्म शीशे की तरह।दबे पांव अपने कमरे में जा घुसी।सिर में चक्कर सा महसूस होने लगा।फलतः सिर पकड़
कर बैठ गयी,खाट के
नीचे ही,और घुटनों
में सिर छिपा कर रोने लगी।देर तक रोती ही रही थी।
और आज- अभी भी तो
सच में रोही रही थी।मधुसूदन पूछे जा रहे थे- रूदन-रहस्य;और कारण जान कर भी अनजान
बने,झाड़े जा
रहे थे अपना व्याख्यान।
निराधार योगिता को
एक ठोस आधार सुझायी थी,गोपू की
चाची-यानी योगिता की वह शुभेच्छुणी दीदी।अतः साहस संजो कर कहा उसने,जिसकी पीठ पर मधुसूदन के पुष्ट हाथ
की अंगुलियाँ थिरक रही थी-
‘एक काम
कीजिये न!’
‘कहो क्या
कहती हो?’- प्रसन्नता पूर्वक पूछा था मधुसूदन ने। उन्हें लगा मानों उनके मृदु
हथेली के कोमल स्पर्श ने नारी उर को स्निग्ध कर दिया है। योगिता शायद अब प्रसन्न
हो गयी है।माँ की कटु वाणी का नासूर भर चुका है- पति के प्यार के मरहम से।
‘माँजी को
इतना ही शौक है- दादी बनने का तो क्यों नहीं
दूसरी
शादी कर लेते हैं आप?’- कहा योगिता ने,और,कल्पना के मनोरम गगन में विहार करते
मधुसूदन एकाएक मानों धरती पर आ गिरे।
‘कुत्ते की
दुम लाख तेल मालिस के बावजूद टेढ़ी ही रह जाती है।’ -मधुसूदन की मुद्रा अचानक बदल गयी- ‘तब से इतना
समझाये जा रहा हूँ मैं। क्या
उसका यही असर हुआ तुम्हारे उपर? दादी बनने की ललक और जल्दबाजी माँ को है,न कि मुझे।मैं बाप बनने को बेताब
नहीं हूँ जरा भी।अभी तो सिर्फ पांच साल ही गुजरे हैं,हमारे विवाह के।कौन
कहें कि उमर बीत गयी?’
मधुसूदन अभी कुछ और
कहते शायद,किन्तु
योगिता बीच में ही बोल पड़ी- ‘हाँ-हाँ,कुछ दिन और देख लीजिये।मुझे बिंधने
दीजिये व्यंग्य बाणों से। फिर दूसरी शादी कर लीजियेगा।’
‘अरे
भाग्यवान! मैं यह कब कह रहा हूँ?’-
हाथ मटकाते हुए मधुसूदन ने कहा।
‘तो और क्या
कह रहे हैं?’- तुनकती हुयी योगिता
ने कहा-
‘कितनी बार
कही आपको, किसी वैद्य-डॉक्टर
से सलाह लेने के लिए,पर आप तो
भाग्यवाद का चोंगा पहन कर बैठे हुए हैं।अब वह पुराना जमाना गया।एक से एक दवाइयाँ निकल गयी हैं आज कल।सुना नहीं
आपने
उस बार मेरी भाभी को कितने दिनों बाद बच्ची हुयी थी-प्यारेपुर के बैद्यजी की दवा
से,जब कि लोग एकदम
निराश हो चुके थे,और भैया
दूसरी शादी करने की तैयारी कर रहे थे।’
अन्धकार में भटकते
पथिक को टिमटिमाती लौ का क्षीण प्रकाश लक्षित हुआ- योगिता के सुझाव से,और दूसरे ही
दिन अपने परम मित्र पदारथ ओझा से परामर्श कर बैठे।ओझा स्वयं ही धर्मान्ध ठहरे।
उन्हें कब भरोसा होता चिकित्सा-शास्त्र पर।
ज्यों ही मधुसूदन
ने वहाँ पहँच कर दुखड़ा और सुझाव सुनाया,ओझा जी टांग पसार कर बैठ गये,और अपने
सुझाओं का पोथा खोल डाले-
‘सुनो तिवारी!
तुम भी पड़ गये इन जाहिल औरतों के फेर में? जानते नहीं
ये
औरत जात बड़ी ही विचित्र होती हैं।बुद्धि नाम की चीज तो ब्रह्मा ने इनके हिस्से में डाला ही नहीं
है।कहीं
से
सुन ली होगी बैद्य-हकीम की बात,और उड़ चली -कौआ कान ले गया। बैद्य क्या भगवान धन्वन्तरी के
अवतार हैं या साक्षात्
अश्विनी
कुमार,जो कुंए में पड़े उपमन्यु को दिव्य दर्शन
से कृतार्थ कर देंगे?
वह एक और ही युग था- जब लोगों का
व्यक्तिगत तेज-तपस्या बल था। आज के युग में वह ओजस्विता है कहाँ? फिर घांस-फूस की
चूरन-चटनी से क्या होना है?’
‘तो क्या करने को
कहते हो पदारथ भाई?जैसा तुम कहो वैसा ही करूँ। आँखिर कुछ न कुछ उपाय तो करना ही
होगा,वरना मेरी योगिता यूँ ही पिसती रह जायेगी
बर्बर समाज की चक्की में।’-कहते हुए आशा,विश्वास और श्रद्धा से भरे मधुसूदन मित्र
पदारथ का मुंह ताकने लगे।
सिर हिलाते हुए
पदारथ ने पूछा- ‘रामदीन पंडित का नाम तो जरूर सुने
होओगे?’
‘हाँ...हाँ,क्यों नहीं।’- अपनी जानकारी पर
गर्व पूर्वक तिवारी ने कहा- ‘वही न जो प्यारेपुर
वाले वैद्यजी के समधी होते हैं?’
‘हाँ,वही रामदीन पंडित।’- सिर और तर्जनी
दोनों ही एक साथ हिलाया पदारथ ओझा ने- ‘बहुत ही योग्य
व्यक्ति हैं।कितने ही
निःसन्तानों की वंश-वाटिका में मनमोहक कलियाँ खिला चुके हैं। विचार हो तो कल चला जाए, उन्हीं
के
पास।जैसा कहेंगे,किया
जायेगा। फिर दैव तो सबसे ऊपर बैठा ही है, सर्व्यक्तिमान बनकर।’
तिवारी ने
स्वीकृति-मुद्रा में सिर हिलाया- ‘हर्ज ही क्या है।
एक बार अवश्य ही मिला जाय उनसे।’
‘तो कल का
ही कार्यक्रम रखा जाय।’-कहते हुए पदारथ ओझा उठ खड़े हुए थे।कारण किसी यजमान के
यहाँ सत्यनारायण की कथा कहने की हड़बड़ी थी,साथ ही ‘तीखुर’ के हलवे की
काल्पनिक सुगन्ध उनके सुरंगनुमा नथुनों में बरबस ही घुसा जा रहा था।चट-पट
झोला-झक्कड़ सम्हाले, चल पड़े।
अगले दिन,दोपहर के वक्त ओझा-तिवारी का युगल
मित्र-मंडल
पहुँच
गया रामदीन पंडित के द्वार पर।
उस समय पंडित
रामदीन मोटी-मोटी पुस्तकों से घिरे एक ऊँची चौकी पर आसीन थे,और उनके सर्वांग
प्रायः आसीन था- गोपी चन्दन।शरीर के किन-किन अंगो पर चन्दन लगाना चाहिए, इसका मात्र ज्ञान ही नहीं
रखा
था महानुभाव ने,प्रत्युत
उसका सम्यक् पालन भी किया था।ओझा से पूर्व घनिष्टता थी।देखते के साथ ही उनके चेहरे
पर मुस्कान की गहरी रेखा खिंच आयी।
बड़े हर्षित भाव से
पूछा उन्होंने-‘कहो पदारथ भाई! कैसे आना हुआ?और भीतर दरवाजे
की ओर मुंह करके हांक लगायी-‘ओ मुन्ना! जरा इधर
तो आना।’
थोड़ी देर बाद ही उधर
से उनका कनिष्ट पुत्र उपस्थित हुआ, उनकी चौकी
के समीप।भीमकाय गौरांग रामदीन पंडित के दीनहीन सा श्याम वर्ण किशोर का पल भर में
ही आपादमस्तक पर्यवेक्षण कर डाला मधुसूदन तिवारी ने, जिसके कुरते के आस्तीन नासा-निष्कासित श्लेष्मा से आक्षादित
थे।
‘ये देखो’- उंगली का इशारा
बताते हुए पंडित जी ने कहा- ‘पदारथ चाचा हैं।प्रणाम करो इन्हें,और माँ से कह दो- इन लोगों के लिए
भोजन की व्यवस्था करने के लिए।’
धन्वा सी झुक कर किशोर
ने ओझा जी का चरणस्पर्श किया,और जिज्ञासा भरी दृष्टि डाला पिता की ओर, जिसका आशय समझ ओझाजी ने कहा-‘हाँ-हाँ,इन्हें भी प्रणाम करो बेटे।ये भी
चाचा ही हैं।’
‘प्रणाम
पाती से संस्कार बनता है।’-मुस्कुराते हुए कहा पंडित जी ने,फिर औपचारिकता वश बोल पड़े-‘दोपहर का
समय है।इतनी दूर से आ रहे हैं आप लोग।समय
भोजन का हो रहा है।’
अभी वे कुछ और कहते
शायद,कि बीच में
ही ओझाजी बोल पड़े-‘नहीं
पंडित
जी,हमलोग सब
निश्चिन्त हैं।बस,आपके दर्शन
हेतु चले आए हैं।भोजन-छाजन के लिए कष्ट न करें।’
पिता की आँखों का इशारा
पा बच्चा नाक सुड़कता हुआ अन्दर चला गया। इधर तिवारी जी का परिचय दिया ओझाजी ने-‘ ये हैं,हमारे परम मित्र माधोपुर
के मधुसूदन तिवारी।मेरे ही विद्यालय में शिक्षक भी हैं।बेचारे बड़े संकट में हैं।मित्र के दुःख से दुःखी होना ही
मित्र का धर्म है...।’
‘क्यों नहीं।क्यों
नहीं।’- हँसते हुए
कहा रामदीन पंडित ने। तभी.बच्चा पुनः बाहर आया।हाथ में लिए था- शाहंशाह जहांगीर के
जमाने का भीमकाय जलपात्र,जिस पर दग्ध
ब्रण के छाले की तरह काई की मोटी सी परत जमी हुयी थी।लोटा रख कर बच्चा पुनः भीतर
चला गया।तिवारी जी कभी उस लोटे को,कभी पंडित जी के तोंद को निहाने लगे,जिन दोनों में ईषत् ही अन्तर जान
पड़ा।उधर से बच्चा एक विशाल कटोरे को दोनों ही हाथों से थामें,पुनःउपस्थित हुआ;और तिवारी जी का
ध्यान तोंदनुमा लोटे,और
लोटेनुमा तोंद की तुलनात्मक मापन से जरा हट कर कटोरे पर जा लगा, जो लोटे से भी दो-चार पीढ़ी पूर्व का होने
का स्वाभिमान प्रदर्शित कर रहा था।मानों तैमूरलंग के साथ ही वह भी पवित्र आर्यावर्त
में पदार्पण किया हो।साथ ही यह भी स्पष्ट हो रहा था कि पंडितजी का खानदान मुगल वादशाहों
का भी पौरोहित्य शायद कर चुका है।
इसी निर्णय में
निमग्न थे कि कटोरा सरक कर सामने आ विराजा- चौकी पर,जिसके दो छोर पर ओझा और तिवारी बैठे
थे।
‘लीजिये,भोजन करने की इच्छा नहीं
है,तो कम से कम जलपान ही करें। गरीब की
कुटिया का कुछ तो...।’- कहते हुए पंडित जी होऽहोऽहो...कर हँसते हुए अपनी तोंद पर हाथ
फेरने लगे।
प्यास तो दोनों को
ही लगी थी।फलतः दोनों आगन्तुक मित्र एक साथ झुक पड़े सुदीर्घ व्यास वाले कटोरे की ओर।परन्तु झांक
कर यह पता लगाने के लिए कि क्या है उसमें रखा हुआ,बिना अणुवीक्षण यन्त्र के, शायद सम्भव नहीं
जान
पड़ा।वैसे था भी नहीं उन दोनों के
पास।फलतः सिर उठा कर दोनों ने एक दूसरे को देखा,और फिर ‘क्षीर समुद्र में अनन्तफल ढूंढ़ने’ जैसा कर्म
प्रतीत हुआ जान, दोनों मित्र पंडित
जी की ओर देखने लगे।
पंडित ही अपने ही ‘भाव’ में थे।
‘हाँ-हाँ,लीजिये,जलपान कीजिये।जल्दबाजी में जो कुछ
सुलभ हो सका इस निरे देहात में,वही कुछ अर्पण किया मित्र की सेवा में।’- बगल में दाबे चावल
की पोटली लिए,कृष्ण भक्त
सुदामा की तरह भाव मय होकर पंडित रामदीन ने कहा।किन्तु वास्तव में वही पवित्र सखा
भाव यहाँ था क्या?
तिवारी जी की
सूक्ष्मदर्शी निगाहें,तब तक
ढूढ़ने में सफल हो गयी थी- कटोरे के एक कोने की परिधि पर चिपका सा पड़ा मटर के
दानों सा- मिश्री के दो टुकड़े,जिसे शायद भौतिक तुला... नहीं..यह तो बहुत स्थूल मापक है, रासायनिक तुला पर तौलकर एक सा आकार
दिया गया था।
टुकड़े को उठा मुंह
में डाल,महातृप्ति
की मुद्रा में सिर झुका, हाथ बढ़ाया लोटे की
ओर,जो पास ही
चौकी के पाये का शागिर्द
बना
बैठा हुआ था।दो-चार चुल्लु किसी प्रकार,नाक बन्द कर,हलक में उतार,पुनः बैठ गये शान्त चित्त होकर दोनों
मित्र तब बात आगे बढ़ायी पंडित जी ने-‘हाँ,तो आप मित्र के कर्तव्य की बात कर
रहे थे न पदारथ भाई?’
‘हाँ
पंडितजी।’- बगल में
बैठे मधुसूदन तिवारी की ओर हाथ का इशारा करते हुए कहा पदारथ ओझा ने- ‘यह जो
हमारे मित्र तिवारीजी हैं,बेचारे बहुत
ही दुःखी हैं।वैसे तो
भगवान ने इन्हें सब कुछ दिया है- माँ-बाप,घर-परिवार, नौकरी-चाकरी सब कुछ है;पर एक बड़ा सा
अभाव है जीवन में।शादी के पांच साल हो गये।पर, बच्चे का मुंह न देख पाये।बेचारी बृद्धा माँ
लगता है कि तरसती ही चली जायेगी पोते-पोती के लिए।’
ओझाजी की बातें सुन
पंडित जी के मुख सरोज पर प्रसन्नता के भ्रमर मंड़राने लगे,जो छोटी-छोटी निरीह मधुमक्खियों
द्वारा संजोये
गये
मधुरस को चुरा कर पान करने के आदी हो गये थे।
अपनी दीर्घवृत्त
तोंद पर सहजता से हाथ फेरते हुए पंडित जी मुस्काये-
‘ कोई बात नहीं।अब
यहाँ आ गये हैं,तो सब कुछ
सहज में ही ठीक हो जायेगा।’और अगल-बगल बिखरी पुस्तकों के ढेर में से पंचांग खींच
निकाले। कुछ पन्ने पलटे।बगल में पड़ा ‘श्याम-पट’ उठाये,और कुछ योगायोग करने लगे।
कोई आध घंटे के
योग-बाकी के बाद पुनः बोले- ‘देखिये जी, तिवारीजी! मैंने आपके प्रश्न-कुण्डली के आधार पर
गहन विचार किया।जन्म पत्रिका तो आप लाए नहीं
हैं।फिर भी मैं स्पष्ट कर दूँ कि
अगले चार बर्षों के अन्दर ही आपके सन्तान-भाव पति की शुभ दशा प्रारम्भ होने जारही
है।यदि इधर न भी हो सका तो भी,उस काल में तो अवश्य ही सन्तान-लाभ-योग बनेगा।किन्तु यूँ ही नहीं,इसके
लिए कुछ विशिष्ट उपाय करने होंगे।’
पंडितजी की गहन
भविष्यवाणी सुन दोनों मित्रों की निगाहें उनके चेहरे पर टिक गयी।तिवारी जी ने पूछा-
‘क्या उपाय
करना होगा महाराज?’
‘कुछ विशेष
नहीं।’-कहते हुए पंडितजी तिर्यक् दृष्टिपात किये ओझाजी की ओर,और बोले-‘आपकी
स्थिति और आपके ग्रहों की स्थिति के अनुसार ही मैं यथासम्भव सरल-सुलभ उपचार सुझाऊँगा।आप चिन्ता
न करें,ओझाजी के
मित्र हैं।इनके
द्वारा मेरे पास लाए गए हैं।-ये दोनों बातें महत्त्वपूर्ण हैं।’
‘कहिये
न।स्पष्ट कहिये।क्या करना है मुझे?’- तिवारी जी ने उत्सुकता व्यक्त की।
‘सबसे पहले
तो ‘वन्ध्या
तन्त्र’ का एक
प्रयोग बतलाऊँगा,जिसे
विशेष विधान से सम्पन्न करूँगा मैं।इस पर कोई पांच सौ रुपये खर्च
आयेंगे।’
रामदीन पंडित कह ही
रहे थे कि बीच में ही बोल पड़े ओझाजी- ‘इतने के लिए कब भाग
रहे हैं श्रद्धालु तिवारी भाई।और
कहिये आगे क्या करना होगा?’
‘तत्पश्चात्
‘सन्तानगोपाल’ मन्त्र का ‘कलौ संख्या
चतुर्गुणाः’ के अनुसार
चौआलिस हजार पाठ और सपादलक्ष जप सम्पन्न कराना
होगा।और सबके अन्त में कम से कम सात आवृति ‘हरिवंश’ का श्रवण करना
होगा।मैं दावे के साथ कह
सकता हूँ कि इतना कुछ कर लेने पर सहस्र जन्मों के
पाप क्षय होकर वंशोद्भव अवश्य होगा,इसमें कोई दो मत नहीं।’- कहते हुए रामदीन
पंडित पुनः अपनी तोंद पर हाथ फरने लगे,जिसके पुनर्विस्तार की सम्भावना आसन्न प्रतीत हो रही थी।
इस प्रकार थोड़ी
देर और उन लोगों की वार्ता चली,जिसमें कार्यक्रम सम्बन्धी समय और अर्थव्यय का
हिसाब लगाया गया।अन्त में पंडित जी ने कहा- ‘समय तो सर्वोत्तम
रहेगा देवोत्थान एकादशी वाला ही।जहाँ तक व्यय का प्रश्न है,तो ओझाजी के मित्र के नाते दस हजार
से अधिक कहने का कोई औचित्य नहीं है।’
‘क्यों नहीं...क्यों
नहीं।’- पदारथ ओझा
ने उनके दही में सही किया।
‘इसी कारण तो दक्षिणा अति न्यून रखा
मैंने।’- कहते हुए पंडित जी
उठ खड़े हुए,मानों कहीं
जाने
की जल्दबाजी हो।वस्तुतः उन्हें डर था कि और अधिक उलझाये रहा बातों में तो फिर दो
जनों का रात्रि भोजन-विश्राम व्यवस्था का भी खतरा मोल लेना पड़ेगा।
तिवारी जी बेचारे
मौन चिन्तन में थे।उन्हें दीख रहा था- दीर्घ अनुष्ठानिक व्यय-व्यवस्था का भारी
बोझ।माँ कहेगी- ‘इतने में तो दूसरी शादी निपट
जायेगी।क्या जरूरत,धर्म के विशात
पर पाशे फेंकने के?’ पर जो भी हो योगिता के लिए तो उन्हें सब कुछ करना ही है,सहना ही है।
वहाँ से प्रस्थान
के पश्चात् रास्ते भर ओझाजी पंडित-पुराण अलापते रहे,और मौन मधुसूदन भावी खर्चों का खाका
बनाते रहे मानस के तलपट पर।उन्हें सिर्फ इसी बात का सन्तोष था कि यदि सन्तान लाभ न
भी हुआ,फिर भी कम
से कम आगामी
चार-पांच बर्षों के लिए समाज का मुंह बन्द करने का नुस्खा मिल जा रहा है।वैसे यह रकम है तो भारी, किन्तु योगिता के सुख-शान्ति के लिए इतना
त्याग तुच्छ त्याग ही कहलायेगा।
किन्तु व्यवस्था
कहाँ से होगी,इस मोटी
रकम की- सोच कर तिवारी जी कुछ देर के लिए काफी अशान्त हो गये,मानसिक रूप से;जिसका अन्दाजा
प्रलाप-मग्न पदारथ ओझा कदापि न लगा सके।
तीब्र उच्छ्वास सहित
तिवारीजी सोचने लगे-
‘और कुछ
जगह-जमीन तो बचा नहीं।वह जो आम वाला बगीचा है,उसे ही बेच डाला जाय,क्यों कि ‘रेहन-इजारा’ से तो काम चलेगा नहीं।उसमें मिलेगा ही कितना? क्या फर्क पड़ता है,
बेच ही डाला जाय।’
सोच तो लिया।मन ही
मन निर्णय भी कर लिया- बेंच डालने का,किन्तु एक मात्र शेष पैत्रिक सम्पदा के भावी वियोग की मात्र
कल्पना ही काफी था- मधुसूदन के मृदु कलेजे में ऐंठन पैदा करने के लिए।और याद आ
गयी- मरणासन्न पिता की बात-‘बेटा! चाहे कितना
भी कष्ट झेलना पड़े,उस बगीचे
को मत गंवाना,क्यों कि उसके पत्ते-पत्ते से मेरी कोमल भावनायें जुड़ी हैं।’
सच में वृद्ध
तिवारी ने कितना श्रम किया था,उस बगीचे के पोषण में।उन दिनों नजदीक में कोई जलस्रोत भी न
था।दूर तड़ाग से माथे पर जल भरी गगरी उठा लाते थे बेचारे वृद्ध तिवारी,और बड़े स्नेह से उन पौधों का सिंचन
करते थे,मानों माता
अपने नवजात शिशु को स्तनपान करा रही हो।पिता के स्नेह-सलिल से सिंचित उस रसाल-बाग
को,जिसमें
दो-चार अन्य फलदार वृक्ष भी मौजूद हैं, आज बेंचना
पड़ेगा- सोच कर ही मधुसूदन का कलेजा मुंह को आने लगा।किन्तु योगिता के लिए यह सौदा
भी इन्हें महंगा नहीं लग रहा था। फलतः
निर्णय को पुष्ट कर मन ही मन उचित ग्राहक की भी तलाश करने लगे।पांडे से लेकर चौधरी
तक -कई आए, उनके दिमाग में। अदेश
काले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्।।- पर भी गम्भीरता से
विचार किए,और अन्त में
मन आ टिका परम मित्र पदारथ पर- दान नहीं,विक्रय ही करने की बात है,फिर भी सतपात्रता विचार तो करना ही
चाहिए।
विगत बर्षों में कई
बार ओझा ने कहा है उन्हें- उस रसभरे रसालों के बगीचे के बारे में।पदारथ जब कभी भी उस ओर से
गुजरते- पतझड़ में खाली ठूंठ को भी देख कर,उनकी जिह्ना से लार टपकने लगती।उन्हें भी
खूब पता था कि तिवारी के पास उस प्रिय रसाल-बाग के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं, जिससे
इतनी मोटी रकम जुटायी जा सके।अब उन्हें वह सुनहला अवसर स्वतः ही आता प्रतीत हुआ-
वगैर ‘हींग-फिटकिरी’ के।
‘तब पदारथ
भाई! रूपयों का प्रबन्ध करना होगा न? कैसे हो पायेगी व्यवस्था? समय बहुत कम है।कोई महीने भर बाद ही तो
कार्यक्रम प्रारम्भ करने को कहा है पंडित जी नें।’- गांव के समीप
पहुँचने पर तिवारी जी ने कहा मित्र ओझाजी से।
‘उसकी
चिन्ता छोड़ो मदुसूदन भाई।मैं जब तक जीवित हूँ,कोई काम बिगड़ने नहीं
दूँगा
तुम्हारा।कहो तो कल ही रुपये का प्रबन्ध कर दूँ कहीं
से।
हालाकि इतने के लिए मुझे भी मामूली पापड़ नहीं
बेलना
पड़ेगा।’-कहते हुए ओझाजी अपने गांव की ओर चल दिये।क्यों कि शाम होने को आयी।अभी
कोई मील भर पैदल जाना भी तो है उन्हें और आगे।
पदारथ के पैर चलते
रहे पगडंडियों पर,और विचार
चलता रहा था-
उनके
छोटे-कुटिल-लोभी-मस्तिष्क में।मन ही मन हुलसते रहे।बर्षों की चाहत पूरी होने जा
रही है आज।इस सुअवसर पर भला क्यों कर चूका जा सकता है!
करवट बदलते किसी
तरह आँखों ही आँखों में रात गुजरी। खुशी के क्षणों में भी नींद गायब ही हो जाती है,गम तो नींद का शत्रु है ही।
होत प्रात,पदारथ पहुँचे- रुपयों का बन्डल धोती
में लपेटे,मित्रता का
प्रमाणपत्र लेकर- मधुसूदन तिवारी के द्वार पर।
क्षण भर के लिए तिवारी की आँखों में
बाल-सुलभ चंचलता छा गयी,साथ ही
कामना पूर्ति की प्रौढ़ प्रसन्नता भी चमक उठी।लगा,मानों एक पुत्र क्या,पुत्रों की जमात अठखेलियाँ कर रही
हों उनके प्रांगण में।पल भर के लिए भूल बैठे, धर्मभीरू-धर्मान्ध हो कर कि पुत्र
पैदा करने में सामर्थ्य हीन हैं।उनका हृदय आनन्दातिरेक से आप्लावित हो उठा।लपक कर आगे बढ़े,और ओझा को गले लगा लिए।
‘धन्य हो
पदारथ भाई।धन्य हो।आज तुम्हारे बदौलत ही मुझे भी भावी सुख का सद्यः आभास मिल
गया।तुम न होते तो सही में सरेआम नीलाम हो जाता- मेरी योगिता का सुहाग।वह मेरी रह कर
भी ‘न’ रह पाती।’
तिवारी का उत्साह देख
ओझा का मुखमण्डल भी पूनो की चाँद सा चमक उठा।हँसते हुए बोले- ‘क्या कहते
हो तिवारी भाई!भूल गए गोसाईं जी की बात- धीरज धरम मित्र अरु नारी,आपत काल परीखिये
चारी। मेरा तो यह कर्तव्य बनता है,कोई एहसान थोड़े जो लाद रहा हूँ
तुम्हारे ऊपर?’
‘हाँ पदारथ
भाई! ठीक कहते हो तुम।तुम्हारे जैसे ही मित्र होंगे गोसाईं जी
के भी।तभी
तो कहा है,उन्होंने-
‘जे न मित्र दुःख होहीं
दुखारी, तिनहीं
बिलोकत पातक भारी।’
आह! कितना ही गहन परख था,उन्हें मित्रों का।आज के घोर कलिकाल
में वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना वाले लोग कहाँ मिलते हैं?’-गदगद कंठ से तिवारी
ने कहा।
‘इसका नतीजा देख रहे
हो? दुनियाँ रसातल में जा रही है। छोटी-छोटी बातों को लेकर बड़े-बड़े परमाणविक
युद्ध के व्यूह रचे जा रहे हैं।मित्र का कर्त्तव्य और सन्धिवार्तायें मात्र ‘कागजी’ हो कर रह
गयी हैं।कल तक हम हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा
लगाते थे।आज वही हमारा प्रबल प्रतियोगी और शत्रु बन कर चैन की नींद हराम
किये हुए है।’- गम्भीर भाव
से पदारथ ने कहा।
‘अब देखो न
पदारथ भाई! बाहरी तो बाहरी है,देश के अन्दर ही कितनी दरारें हैं- प्रान्तीयता,जातियता,क्षेत्रीयता,भाषा,रंग,धर्म,सम्प्रदाय- अगनित खाइयाँ, अगनित दरारें।‘गणतन्त्र ’ ‘स्वतन्त्र
’ ‘जनतन्त्र ’ सब सिर्फ शब्दजाल
भर रह गये हैं,तथ्यहीन, दिशा हीन,विचार हीन। भगत,आजाद की लहु से सने तिरंगे का दर्द
हम भूल बैठे हैं। राष्ट्रीय एकता के विखण्डन का बीज इसी प्रकार पनपा था एक दिन,और चरकी चमड़ी के सिर पर पवित्र
आर्यावर्त का राजमुकुट ‘सरक’ कर चला गया था,वह राजमुकुट जिसमें हमारा प्यारा ‘कोहीनूर’ भी जड़ा है।’
‘बात तो लाख
टके की कहते हो तिवारी भाई।’
‘हाँ,हम सिर्फ बातें ही न कर रहे हैं।हो क्या रहा है,सो तो देखो- पछुआ वयार पुनः तेज हो रहा
है।बंगाली भाई कहते हैं-
बंगाल मेरा है।तमिलों को तमिल चाहिए।मराठियों
को मराठा।नागाओं को नागादेश।सिक्खों को खालिस्तान चाहिये।असमियों को असम।क्या यह
सब राष्ट्रीय एकता का घुन नहीं है?विहार कहता
है-सारी भू- सम्पदा मेरे पास है।कोई कहे- फैक्ट्रियाँ मेरे राज्य में हैं।हम गैरों को क्यों
इसमें प्रवेश दें?क्या यही गणतन्त्र बनाया था ‘पटेल’ ने? अब जरा सोचो- हर
प्राणी के पास एक पेट है।हाथ-पांव जी तोड़ कर कमाता है,और पेट निठल्ला बैठे खाता है।तोंद
सहलाने को भी हाथ को ही कहता है।पर यदि हम उस पेट को भोजन देना बन्द कर दें,तो क्या यह शरीर चलेगा?’
‘हर अंग का
अपना महत्त्व है,तिवारी
भाई।’- दांत
निपोरते हुए ओझा ने कहा- ‘सबमिल कर एक शरीर बनता है।अलग-अलग वे सभी महत्त्वहीन, ओजहीन,तेजहीन,शक्तिहीन हैं।पंजाब का गेहूँ हो या बंगाल का चावल,केरल का नारियल हो या झारखण्ड का
खनिज,इन सब
अंगुलियों की एकत्र बन्द मुट्ठी का नाम भारत है।’
हामी भरते हुए तिवारी ने कहा- ‘पंजाब
सिर्फ गेहूं फांक कर नहीं रह सकता,और न बंगाल का काम ‘पानता भात’ से पूरा हो जायेगा,डाभ का पानी पीकर केरल सिर उठाये रह
सकेगा?असम के लिए किरासन तेल ही काफी है क्या? नहीं
न?
राष्ट्र के सर्वांगीर्ण विकास में इन सबका योगदान जरूरी है।इतना ही नहीं,
इस
लघु परिधि से बाहर सुदूर सागर पार तक निगाहें दौड़ानी होंगी। जहाँ तक मानव जाति है,मानवता का नियम वहाँ तक फैला है।इसका
जड़ प्रशान्त महासागर के अतल जल में है,तो फुनगी- शनि लोक से भी ऊपर।’
‘बिलकुल सही
कह रहे हो तिवारी भाई।’- ओझा ने सिर हिलाते हुए कहा।
‘किन्तु
पदारथ भाई! चौकी पर बैठ कर गप्पें लगाने से,खादी पहन कर गांधी को माल्यार्पण करने से,लालकिला के प्राचीर पर सिर्फ भाषण देने
से सब कुछ नहीं हो जायेगा।होगा तब,जब हम सच्चे अर्थों में जगेंगे।हमारे
अन्दर एक राम है,एक अर्जुन
है;तो एक रावण और एक दुर्योधन भी है।हमें उस आसुरी सम्पदा युक्त तमोगुण को परास्त
करना होगा। पहले स्वयं को सुधारना होगा,फिर विश्ववन्धुत्व की बात की सार्थकता सिद्ध
होगी।या यूँ कहें कि हर कोई यदि स्वयं को सुधारने में तत्पर हो जाय,फिर ऊँचे मंचों के प्रलाप का कोई
औचित्य ही नहीं रह जायेगा।’
‘इसीलिए तो
मैं अपना कर्त्तव्य याद
किया- मित्र की सहायता।’- पदारथ अपने मुंह ‘मियां मिट्ठु’ बनने लगे- ‘इसी तरह हर
कोई अपना ‘कर्म’ समझ ले तो फिर वापू
का रामराज्य दूर थोड़े जो रहेगा?’
इसी तरह के राग
अलापे जाते रहे।देशप्रेम और मानवता का धुन बजता रहा काफी देर तक।फिर पदारथ ओझा
अपने गांव चले गये।इधर तिवारी जी ने नोटों की गड्डी को बाँधा अंगोछे में और चले
योगिता की आंचल में खुशियों का खजाना सौंपने।
पैत्रिक आम का
बगीचा अब ‘आम’ हो गया।उस शस्यश्यामला भूमि पर मधुसूदन का अधिकार समाप्त हो
गया।बगीचे के चारों ओर ईंट-गारे की मदद से घेराबन्दी होने लगी।ओझा के मुंह से बरबस
चू पड़ने वाले लालारस,अब जिह्वा
में ही लटपटाये रहेंगे। सहृदय ग्रामिणों के मुंह से यदाकदा निकल पड़ता- ‘बेचारे
तिवारी का रहा-सहा बपौती जायदाद भी ओझा की अनूठी कलावाजी से समाप्त हो गया...अब तो
मकान भर रह गया सिर्फ।’
इधर तिवारी जी के
मकान के सामने फूस-पतेले गिरने लगे।पुत्रेष्ठि यज्ञ समारोह के सम्यक् सम्पादन हेतु
ओझा जी-जान से प्रयत्नशील हो गये। यज्ञमण्डप का निर्माणकार्य प्रारम्भ हो गया।बड़े-बड़े पंडित,याज्ञिक, होता, अग्निहोत्री, त्रिदण्डी,नारद- सबका जमात चील- कौए सा मड़राने
लगा- माधोपुर के निरभ्र व्योम मण्डल के तल में।कम से कम दो महीने का आश्रय तो हो
ही गया माधोपुर।
ओझाजी बारम्बार
ढाढ़स बन्धाये जा रहे थे- ‘देखो मधुसूदन!घबराना नहीं चाहिए।बड़े
काज-प्रयोजन में भीड़भाड़ होती ही है।हर कोई अपना अंश ग्रहण करता है।किसी और का
हिस्सा किसी और ने खाया नहीं है आज तक।दाने-दाने
पर खाने वाले का नाम लिखा होता है।मान लो पैसे कम पड़े तो निःसंकोच मांग लोगे।मुझे अपने से भिन्न न समझो।मेरा-तुम्हारा
कुछ अलग नहीं है।’
‘मैं कब कह रहा हूँ कि तुम गैर हो।’-मधुसूदन ने
कहा।
निर्धारित समय पर
यानी एकादशी से यज्ञानुष्ठान प्रारम्भ हो गया।कोई इक्कीस दिनों बाद प्रथम चरण का
समापन हुआ।और उसके बाद सप्ताहान्त तक सम्पन्न हो गया वृद्ध माता जी का इहलौकिक
प्रवास।बेचारे मधुसूदन का अन्तः कराह उठा माँ के निधन से।परन्तु पदारथ की मधुर सान्त्वना की थपकी से
दब कर रह गयी बेचारे की ‘आह’।किसी प्रकार आँसू पोछते हुए
श्राद्धादि सम्पन्न किया गया,और लगे हाथ ‘वार्षिकी’ भी निपटा ही डाला
गया। कारण कि आगे अनुष्ठान का अगला चरण बाधित होने की चिन्ता भी थी।
तिवारी का अन्तःस आलोड़ित हो रहा था- प्रथम चरण की आहुति बनी
माँ।पता नहीं आगे क्या अनिष्ट होनेवाला है!
किन्तु कलेजे पर
पत्थर रख कर अगला चरण भी पूरा किया ही गया। फिर शेष दो चरण भी किसी प्रकार पूरे
करके ‘कलौ संख्या
चतुर्गुणाः’ को सार्थक
किया गया।यज्ञान्त तक कोई पांच-छः हजार के ऋणबोझ-तले आ दबे तिवारी जी,और ढाढ़स के ‘बेलचे’ से उनके साहस के ‘ढूह’ का मलवा हटाते रहे
कलियुगी मित्र पदारथ ओझा।किन्तु उनके अल्प प्राण बेलचे में इतनी सामर्थ्य
कहाँ जो पूरी तौर पर बोझ-मुक्त कर सके बेचारे तिवारी को। हुआ
यह कि तिवारी शनैः-शनैः और भी फँसते गए दलदल में।नतीजा यह हुआ कि एक दिन पुस्तैनी
मकान से भी हाथ धोना पड़ा।
समय गुजरता
गया।तीब्रगामी यान में सवार होने पर,जिस प्रकार अगल-बगल के पेड़-पौधे पीछे भागते हुए नजर आते हैं,उसी प्रकार समय
भागता रहा- वैसे भी ‘वह’ आज तक किसी के लिए
ठहरा थोड़े जो है,और जर्जर
गृहस्थी के भारी बोझ को सिर झुकाये मूक ‘वैशाख नन्दन’ की तरह ढोते रहे
बेचारे तिवारी।
यज्ञानुष्ठान
सम्पन्न हुए भी तीन साल गुजर गये।इन्तजार के लिए तीन साल बहुत होते हैं।अब तो राह चलते भी
कोई न कोई टोक बैठता- ‘क्यों तिवारीजी! कब बजा रहे हैं ढोल-तासा? कब खिला रहे हैं हलवा-हल्दी-सोंठ-ओछवानी?’- पूछने वालों को
क्या लगना था! बस जरा सी जुबान हिलानी पड़ी।पर यहाँ तो तिवारी के नाक पर प्याज कट
रहे थे।
एक दिन योगिता ने
कहा- ‘मैं तो पहले ही कह रही थी कि यह सब ढोंग-ढकोसला
है।अब त्रेता-द्वापर नहीं रहा।पुत्रेष्ठियज्ञ
का सिद्धान्त वूढ़ा हो गया है।न वे याज्ञिक रहे,न वे कर्मकाण्डी। फिर फिजूल का अन्धेरे
में तीर चलाने से क्या होना-जाना है? पर आपकी बुद्धि और विवेक तो बिक चुका था पदारथ ओझा के
हाथों।फिर मेरी कौन सुनता!
‘सुनाओ,तुम्हारी भी सुन लें।’- मायूस मधुसूदन ने
कहा।
योगिता ने याद
दिलायी फिर वही प्यारेपुर के वैद्यजी की-‘उस बार भी कही थी आपसे,फिर कह रही हूँ- प्यारेपुर के वैद्यजी
से मिलकर एक बार परामर्श लेने में क्या हर्ज है? मुर्दे पर जैसा मन
भर,वैसा ही
सवा मन।कल ही आप जायें वहाँ।हो सकता है यश
उन्हीं के हाथ से मिलना हो।’
‘ठीक है।सुन
लिया,तुम्हारी
भी...।एक समधी से निपट चुका, पदारथ के
कथनानुसार,अब दूसरे
से भी निपट ही लूँ तुम्हारे कथन से।’- कहा मधुसूदन ने और दूसरे दिन की प्रतीक्षा किये वगैर,चल दिये उसी दिन प्यारेपुर जो माधोपुर
से कोई पांच-छः मील की दूरी पर था।
थकेमादे,अस्ताचल गमनोद्यत सूर्य के साथ-साथ मधुसूदन
तिवारी पहुँच गये प्यारेपुर- ग्रामिणों के प्यारे वैद्य साक्षात् अश्विनी कुमार के
पास।मन ही मन तिवारी जी वैद्यजी के अभिनन्दनार्थ एक श्लोक सोच रखे थे-
‘वैद्यराज
नमस्तुभ्यं,यमराजस्य सोदरः।
यमो हरति वै प्राणः,त्वं तु प्राणान् धनानि च।।’
गत धार्मिक
आडम्बरों ने तिवारीजी को प्रायः तोड़ कर रख दिया था।अब न श्रद्धा रही थी, और न विश्वास।फिर भी किये जा रहे थे सब कुछ
अकर्तृत्त्व भाव से।
दरवाजे पर पहुँचते
ही खल-बट्टों की खन-खन,टुन-टुन की
ध्वनि कानों को तृप्त करने लगे थे,किसी मन्दिर के घंटे-घलियालों की तरह।
विस्तृत प्रांगण- जिसमें
एक से एक जड़ी-बूटियाँ- हड़जोड़ से लेकर कमरतोड़ तक लगी हुयी थी।उन्हें पार कर ऊपर
वरामदे में पधारे,जहाँ कोई
दस-बारह व्यक्तियों से घिरे बैठे थे- यमराज के सहोदर- महाशय वैद्यराजजी,जो बारी बारी से आतुरों की नाड़ी परीक्षा
कर औषधि-निर्देश
देते
जा रहे थे।बगल में ही बैठे थे,एक छोटी सी चौकी पर, स्तूपाकार छोटे-बड़े मृत्तिका-पात्रों से घिरे,एक सज्जन जो सम्भवतः धन्वन्तरी-दरवार के ‘मिश्रक’ रहे होंगे।कुशल
सम्वेष्ठक
सा
शीघ्रातिशीघ्र औषध-निर्देशिका का निरीक्षण करते हुए औषधियों की पुड़िया बनाते जा
रहे थे।उनके ठीक बगल में लिपिकनुमा एक व्यक्ति उन पुडि़यों पर यथावश्यक - खाने से
पहले,और खाने के
बाद,सोने से
पहले और सोने के बाद,जगने से पहले- और पता नहीं
क्या-क्या
निर्देश अंकित करता जा रहा था।एक ओर कोने में वृहदाकार कड़ाह में तेल खौल रहा था,मानों धन्वन्तरी के वारातियों के
स्वागतार्थ पकौड़ियाँ तलनी हों।छोटे-बड़े मृत्तिका पात्रों में विभिन्न प्रकार के
चूर्ण-वटी,अवलेह आदि
सजे पड़े थे-‘औषधि-कूट’ की प्रदर्शनी की तरह।वरामदे के पिछले
भाग में रूग्णों की शैय्यायें थी,करीने से सजी- कोई बीस-पचीस।एक धवलधारिणी प्रवया कुप्पी से ढाल-ढाल कर कोई खास आसव-पान
प्रायः प्रत्येक रोगियों को कराती जा रही थी।बीच-बीच में दरवार की भीड़ को भी
निहारती जा रही थी।
कुछ देर तक
तिवारीजी एक कोने में खड़े होकर, निरीक्षण करते
रहे- वैद्य-दरवार का,और
दरवारियों का भी।फिर एक ओर तख्त पर आसन ग्रहण किए।
कोई घंटे भर बाद
उनकी भी बारी आयी।आतुरों में सबसे पीछे पहुँचे थे।फलतः बारी आने तक सान्ध्य कालीन
दरबार करीब खाली हो गया था। इनकी ओर मुखातिब होते हुए वैद्यजी ने पूछा-
‘कहिये,कैसे आना हुआ?’
हालाकि तिवारी जी
को पहले भी एक-दो दफा मुलाकात थी, परन्तु
परिचय प्रगाढ़ नहीं था।श्रद्धा-अश्रद्धा
के झूले में झूलते हुए
तिवारीजी
आद्योपान्त अपनी रामकहानी सुना गए।ध्यानस्थ हो वैद्यजी सुनते रहे,बीच-बीच में कभी दायीं,कभी बायीं
नाड़ी
का परीक्षण भी करते रहे।अन्त में बोले-
‘आप एक काम
करें तिवारी जी- सन्तानोत्पत्ति का एक अति सामान्य परीक्षण हम पहले करायेंगे;तत्पश्चात्
ही कुछ स्पष्ट निर्देश दे पायेंगे।’
‘कहिये,मुझे क्या करना होगा,इसके लिए?’-तिवारीजी ने पूछा।
वैद्यजी ने विधि
बतलायी-‘मिट्टी के दो
प्याली ले लें।उन दोनों प्यालों में मूंग,चना,और गेहूं के कुछ दाने डाल दें।प्यालों के
पहचान के लिए पति-पत्नी अपना नाम अंकित कर दें।अब,लागातार तीन दिनों तक,नित्य प्रातः शैय्या त्याग के
पश्चात् अपने-अपने प्यालों में मूत्र त्याग करें।चौथे दिन उन प्यालों को लेकर
हमारे पास आवें।’
रात हो ही चुकी
थी।अब प्रभात की प्रतीक्षा है।आतुरालय के नियमानुसार मूंगदाल और पुराने चावल की
खिचड़ी,अन्य लोगों
के साथ-साथ तिवारी जी को भी मिली।खा-पीकर एक चौकी पर आसन लगाये,सुबह के इन्तजार में।
घर पहुँच कर
वैद्यराज का नुस्खा बतलाये योगिता को- ‘उधर, बर्षों तक तिल,जौ,अक्षत,घी ढोया;अब ढोना है मल-मूत्र।’
‘कितना हूँ
कुछ ढोना पड़े,बांझपन के
असह्य बोझ से कम ही है- कुछ और।’- कहती हुयी योगिता पति के स्नान के लिए जल लाने कुएं की
ओर चली गयी।
तीन दिनों तक
वैद्यजी के निर्देश का पालन हुआ।चौथे दिन, प्रथम प्रहर में ही प्रस्थान किये उनके पुनर्दर्शन हेतु।
वैद्य-दरवार में
पहुँचते के साथ ही आज बुलावा आ गया। प्यालों की पोटली लिए तिवारीजी समीप पहुँच कर,दर्शन-पात्र की तरह समक्ष
प्रस्तुत
किये।
कुछ देर तक दोनों
सिकोरों को गौर से देखते रहे वैद्यजी।फिर बोले- ‘यह बड़ा
सिकोरा आपका है न?
ये
देखिये,इसमें पड़े
किसी भी दाने में जरा भी अंकुरण नहीं है।एक दाना अंकुरित
होने का संघर्ष भी किया है,तो अंकुरण काला पड़ कर रह गया है।और दूसरी ओर आपकी पत्नी वाले
सिकोरे में लगभग सभी दाने अंकुरित हैं।
जिज्ञासु भाव से मधुसूदन
ने प्रश्न किया- ‘इसका क्या अर्थ लगाया अपने महाराज?’
और, जो कुछ अर्थ
बतलाया वैद्यराज ने,उसे जान कर
तिवारी को स्वयं का जीवन अर्थहीन लगने लगा।उन्होंने कहा- ‘आपके
प्याले में काले अंकुर या अंकुरण का सर्वथा अभाव यह स्पष्ट करता है कि आपमें
सन्तानोत्पादन क्षमता का अभाव है;जब कि पत्नी पूर्ण उत्पादन-क्षमता वाली है।अतः
आपको पुनर्विवाह से भी कोई लाभ नहीं मिल सकता।बीज ही नहीं
फिर
अंकुरण क्या? पौधा क्या?’
उदास होकर तिवारीजी
ने पूछा-‘इसका कोई
उपचार महाराज?’
‘खैर उपचार
तो हर बीमारी का है,किन्तु देर
बहुत हो गयी है।वैसे मैं कुछ दवा दे देरहा
हूँ आपको।कम से कम एक बर्ष तक इसका सेवन अनिवार्य है।इस बीच यथासम्भव ब्रह्मचर्य
व्रत का सम्यक् पालन भी होना चाहिये।साथ ही अन्य छोटे-मोटे परहेज भी जरूरी हैं- जैसे खट्टा-तीता तो
बिलकुल ही नहीं खाना है;साथ ही एक और बात-जो सर्वाधिक
ध्यातव्य है,वह यह कि
मेरी औषधि को मात्र औषधि न समझें,प्रत्युत एक धार्मिक अनुष्ठान समझें।वस्तुतः मैं जो दे रहा हूँ वह सब मन्त्र-पूरित तान्त्रिक
योग है।इसे निरा घास-पत्ता न जान लें।अतः इसे सेवन करते रहने तक बाहर का कोई सामान
नहीं खाना है।’
‘बाहर का
सामान?’-तिवारी जी चौंक कर पूछे।
‘हाँ,कहने का मतलब है कि बाहर का बना बनाया खाद्य
पदार्थ वर्जित है।किसी समारोह में खाने-पीने से भी बचें।’-कहते हुए वैद्यजी ने
अपने मिश्रक की ओर एक पुर्जा बढ़ायी।मिश्रक महोदय ने कुछ जोड़-घटाव किया।दो बार अपनी
नाक-कान भी खुजलाये।फिर
थोड़ी
देर बाद उसका हिसाब लगाकर उन्होंने बतलाया- साढ़े सात सौ रुपये मात्र,तीन माह के लिए,यानी पूरे बर्ष की दवा की कीमत हुयी
तीन हजार रुपये।
कीमत सुन कर बेचारे
तिवारी जी मानो आसमान से गिर कर खजूर पर अटक गये।
‘बाप रे तीन
हजार रुपये! तिस पर भी कोई गारण्टी जैसी बात नहीं।
मन
ही मन बुदबुदाये;और स्पष्ट तौर पर बोले- ‘इतनी रकम तो अभी
मेरे पास है भी नहीं।’
‘कोई बात नहीं।दवा
जब विचार हो आकर ले लें।इस पर्ची को अपने पास सुरक्षित रखें,और वैद्यजी का परीक्षण शुल्क एक सौ एक
रुपये मात्र अभी जमा कर दें।’- कहते हुए मिश्रक ने पर्ची तिवारी जी की ओर बढ़ा दी।
तिवारीजी ने जेब
में हाथ डाला, ‘बख्तरबन्द’ के बत्तीसों जेबों
को टटोलने पर भी बामुश्किल पचहत्तर रुपये छः आने दो पैसे मात्र निकल पाये।उन्हें
ससंकोच वैद्यराज के श्रीचरणों में अर्पित कर पिंड छुड़ाया- ‘यमसोदर’ के दरवार से।
घर आकर,हताश-निराश तिवारी चारों खाने चित्त
पड़ गये,आंगन में रखी झिनगा खाट पर।घबरायी हुयी
योगिता पास आकर उनका कुशल-क्षेम पूछने लगी- ‘क्या कहा वैद्यजी ने?इतने
उदास क्यों हैं आप?’
‘कहेंगे
क्या! वैद्य और यम में थोड़ा ही तो अन्तर है।बेचारा यम तो मात्र प्राण हरण करता है,किन्तु वैद्य तो उनके बड़े भाई हैं।पहले खून चूसते हैं- धन हरण कर,फिर जरूरत के मुताबिक प्राण भी हरण करते हैं-इस टिप्पणी के साथ
तिवारी जी ने वहाँ की ‘रनिंग कमेन्ट्री’ सुना डाली।
‘तो क्या
हुआ,ले लेना
चाहिए था।दवा के वगैर वैद्य की दुआ से तो काम चलना नहीं
है।’- कहती हुयी योगिता
पास में खड़ी होकर पंखा झलने लगी।
‘लगता है
रुपयों का ‘रूख’ उगा हो आंगन में।’-क्रोध और झल्लाहट पूर्वक तिवारी जी ने कहा- ‘कहाँ से
आयेंगे तीन हजार,तुम्हारे
मैके से? अब जो भी
हो,सन्तान हो, ना हो; मुझे कुछ भी नहीं
करना
है।’
तिवारी अभी और
बकते- निकालते अपने मन की भड़ास, किन्तु
अचानक उठकर बाहर चले जाना पड़ा; क्यों कि पदारथ ओझा की सुबह से तीसरी आवृत्ति थी- ‘आये हो!
तिवारी भाई?’
बाहर तख्त पर
विराजते हुए ‘वैद्य-पुराण’ सुनाया गया ओझाजी को,जिसे सुन कर वे हँसने लगे- ‘अरे मित्र!
कहाँ जा फँसे उस मक्कार के पास? क्या दुनियाँ में सभी रामदीन पंडित ही हैं? खैर, छोड़ो अब यह सब।अनुष्ठान-पूजा सब करा ही
लिए।कोई सतयुग तो है नहीं,जो इस हाथ का दान उस हाथ का दक्षिणा हो जाए। देखो, भाग्य में जो होगा सो मिल कर रहेगा।आज न कल
तुम्हें सन्तान लाभ हो कर ही रहेगा।’
और तिवारी ने अक्षरसः
पालन किया- ओझा के उपदेश का।हाथ पर हाथ धर कर,भाग्य भरोसे समय गुजारने लगे।
‘भरोसा, एक बहुत बड़ा अवलम्ब होता है,चाहे वो व्यक्ति का हो या भगवान का
या कि भाग्य का।
काल का पहिया बहुत
तेजी से घूम गया;
जब
कि तिवारी दम्पति को उसे घुमाने में सत्रह-अठारह बर्ष लग गये।तिवारी की उम्र कोई पैंतालिस बर्ष हो गयी, तदनुसार योगिता की उम्र भी चालिस से
पार हो ही गया।इस बीच एक विचित्र घटना घटी-
एक दिन तड़के ही
तिवारी जी को तलब हुआ- शौच का। विस्तर छोड़, चट-पट उठाये लोटा,सम्हाले धोती,और चल पड़े- मुंह अन्धेरे में ही पास
के बगीचे की ओर।
अभी अपने घर से- जो
मात्र अब घर कहने भर को था; असली घर से तो कब के बेघर हो चुके थे,रामदीन-पदारथ की कृपा से।चौधरी की
दूरगामी व्यवस्था के तहत पुरानी खण्डहर का ही एक हिस्सा मिल गया था,उसी में झोपड़ी डाल कर गुजर कर रहे
थे,दीन-हीन
तिवारी दम्पति। कुछ ही आगे बढ़े थे कि एक सद्यः जात शिशु का करुण क्रन्दन कानों
में पड़ा।शुष्क धरा के कठोर स्पर्श से,साथ ही वातावरण के सर्द से व्यथित शिशु क्षुधा-तृषा से भी
सन्तप्त हो रहा था।फलतः उच्च स्वर में क्रन्दन कर रहा था।
शिशु-क्रन्दन सुन मधुसूदन
की शौच-जन्य उदर-पीड़ा प्रसवोत्तर प्रमदा की उदर-वेदना सी शमित हो गयी,मानों उनका ही प्रसव हो गया हो।तिवारी
का वात्सल्य हृदय करूणा-विह्नल हो उठा।पलट पड़े उस वृक्ष
की
ओर,जहाँ उन्नत
तरुमूल का तकिया बनाये, भूमि के पर्यंक पर
चिथड़े का विस्तर डाले एक बालिका पड़ी थी।
तिवारी का हृदय हर्ष-गदगद
हो आया।एक ओर उस कठोर-हृदया जननी की बात सोचने लगे,जिसने नौ मास अपने कुक्षि में वहन
करने के पश्चात्,ला फेंका
था- इस विजन प्रान्तर में,तो दूसरी ओर अतिशय सहृदय सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा की असीम अनुकम्पा
पर रोमांच हो आया;
साथ
ही उन्हें आश्चर्य हुआ,वहाँ लगे पक्षियों
के जमघट को देखकर।
शिशु का मुख
क्षुधा-तृषा से खुला देख निर्विवेक शकुन्तगण समीपवर्ती सरिता से जल लाकर अपने चंचुओं
से उसके मुंह में डाल रहे थे।प्रकृति के इस ‘दिव्य’ दृश्य को विस्फारित
‘सामान्य’ दृगों से कुछ पल तक
तिवारी जी देखते रहे।फिर लपक कर उठा लिये उसे।अपने अंक में भर लिया उस अबोध बालिका
को,और लौट
पड़े वापस।
घर आकर उस असहाय
कन्या को योगिता की गोद में डाल दिया, और शकुन्तों
की अद्भुत व्यवहार की गाथा गा गये।हर्ष से विह्नल योगिता ने कहा- ‘आप कहते थे
न- पूजा-पाठ,यज्ञ-याग
सब ढोंग-ढकोशला है।देख लिये न यज्ञ का अक्षय फल? दयावान प्रभु के
दरवार में देर तो है,पर अन्धेर
नहीं।द्वापर की पृथा सन्तान की आकांक्षा लेकर गयी थी- पंचदेवों के पास।पर इस घोर
कलिकाल में मुझ अभागिन को भाग्यवान बनाया,भगवान ने स्वयं आकर। साध्वी कुन्ती के कानीन
कर्ण को पाकर,सुनते हैं कि सूतराज्ञी राधा के
स्तनों में दूध उतर आया था।मैं भी आज माँ बन गयी,वगैर प्रसव वेदना के ही। अब देखियेगा, मेरे ढलते शुष्क मांसल पिण्ड भी
अन्तःसलिला सी, पयश्विनी हो
जायेंगे।’- कहती हुयी
योगिता ने अपने अपुष्ट उरोजों को विवस्त्र कर शिशु के रक्ताभ अधर से लगा दिया।
नादान शिशु शुष्क,नीरस
चुचुकों को सेवती की पंखुडि़यों जैसी अपने कोमल नन्हें हथेलियों से पकड़ कर
महातृप्ति पाने लगा। योगिता का रोम-रोम हर्षित हो उठा।
प्राच्य क्षितिज का
बाल रवि अपने स्निग्ध ज्योत्सना से पूरे माधोपुर को जगा गया,साथ ही उन्हें एक नया संदेशा भी सुना
गया। फलतः पहर भर दिन चढ़ने तक मधुसूदन तिवारी के द्वार पर त्रिवेणी-संगम सा
जनसमागम हो गया। हर व्यक्ति के मुंह से बस एक ही बात निकलती थी- ‘हे ईश्वर
तू कितना दयावान है!’
आगन्तुकों की भीड़
को चीरते पदारथ ओझा भी पहुँच गये।तिवारीजी की पीठ ठोंकते हुए भावविभोर हो बोल उठे-
‘यज्ञ का
कितना मधुर फल आज तुम्हें मिला मधुसूदन भाई! रामदीन पंडित कोई साधारण थोड़े ही हैं।उनके
अनुष्ठान के सुपरिणाम से आज साक्षात् आद्याशक्ति योगमाया ने
अवतार लिया
है तुम्हारे यहाँ।वंध्या योगिता यशोदा बन गयी आज......।’
भीड़ में किसी ने
भुनभुनाया- ‘मामूली थोड़े हैं रामदीन पंडित,
दस-बीस हजार चूस कर, पचीस बर्ष बाद योगमाया का अवतार- कुलक्षणी कन्या भेजे हैं....अरे
ये तो किसी कुआंरी अथवा विधवा का पाप ही तो बटोर लाये तिवारी...लगता है पिण्डा देकर उद्धार
ही कर देगी.....।’
‘अब क्या है,नाचो-गाओ,खुशियाँ मनाओ।ढोल-नगाड़े बजाओ,मिठाइयाँ बाँटो।’- कहते हुए अपनी कमर
टटोले पदारथ ओझा,और धोती की
गांठ खोल कड़कड़ाते एक सौ रुपये का नोट निकाल कर महामाया के उस बालरूप के चरणों
में अर्पित कर दिया।
‘यह क्या कर
रहे ह® पदारथ भाई’- कृतज्ञ तिवारी ने
कहा।
‘कुछ मेरा
भी अधिकार बनता है।या कहें, मैं अपना कर्त्तव्य कर रहा हूँ।क्यों, मेरा इतना भी हक नहीं?अभी क्या देखे हो,जरा इसे बड़ी तो होने दो।इसकी शादी-ब्याह
सब कुछ मैं ही करूँगा।
तुम्हारा काम सिर्फ कन्यादान करना ही रहेगा।’-बड़े उत्साह से कहा पदारथ ओझा ने,ड्डर मद्दुसूदन की गोद से लेकर योगिता की गोद में डाल
दिया नवजात को।
‘अरे! जरा
इसकी आँखें तो देखो,कितनी भोली
लग रही हैं। एकदम
मछलियों सी चंचल आँखें।मैं तो इसे मीना कहूँगी।’-बच्ची
को गोद में लेती हुयी योगिता ने कहा था।
और अज्ञात
कुल-गोत्र शिशु मीना नाम ‘लेकर’ मधुसूदन तिवारी और
योगिता बाली के शयन कालिक आलिंगन की सहचरी बन गयी।
तिवारी दम्पति की
दुनियाँ अब मात्र उन चंचल दृगों तक ही सिमट कर रह गयी।मधुसूदन को अब स्कूल से
जल्दी घर आने की हड़बड़ी रहने लगी। पूजा-पाठ अपेक्षाकृत कम होने लगा।बस एक ही काम
मुख्य रह गया- योगिता की गोद में पड़ी उस सजीव मांस-पिण्ड सी नवजात कन्या को
निहारते रहना, बस निहारते रहना।
सम्पूर्ण मानवी पूर्णता से रहित,नारी शरीर की आकृति के संकेत मात्र कच्ची कोमलता और अपूर्णता
ही तो उस शिशु का सौन्दर्य था। पिलपिले से सिर पर भूरी रोमावली- तड़ाग-तट पर उगे ‘सेवार’ जैसे,छोटे-छोटे नीले वन्य-प्रसून से दो
नेत्र,श्वांसोच्छ्वास
हेतु चींटे के बिल की तरह छोटे-छोटे नासारन्ध्र,दन्त रहित- वह भी प्रायः खुला रहने
वाला रक्ताभ मुख- ऐसा लगता मानों सद्यः कटे मांस में उभरे रक्त ब्रण हों।बालिका
अपने छोटे-छोटे,नितान्त
अक्षम-पंगु से हाथ-पांव
हिला-डुला
भर ही तो सकती थी,जिसकी
इच्छा और आवश्यकता का सूचक- मात्र किलक वा क्रन्दन हुआ करता है।किन्तु इस दिव्य
सौन्दर्य को,रूप-लावण्य
की पुंज मीना में देख कर तिवारी दम्पति को महाराज उदयन के महार्घ वीणा की तारों से
निकले दिव्य संगीत-झंकृति की अनुभूति होती,और,वे ब्रह्मानन्द सहोदर के सत्त्व लोक में
विचरण करने लगते।शिशु को हँसाने हेतु दोनों हाथों में थामकर ऊपर उछालने लग
जाते।कभी गोद में लेकर तिवारीजी सघन श्मश्रु से घिरे होठों को उसके कोमल कपोलों पर
बिठा,पुचकार
उठते,और बालिका
का मधुर हास्य- करूण क्रन्दन में परिवर्तित हो जाता,तीखे श्मश्रु-तुणीर के घातक स्पर्श
से।योगिता झपट कर उनकी गोद से ले लेती,बालिका को-
‘धत् ! आपको
तो बच्चों को दुलारना भी नहीं आता।’और मुस्कुराते
हुए तिवारी अपनी मूंछ सहलाने लगते।
किलक-हास्य के इन्हीं
समवेत
स्वरों में काल का आवाध चक्र चलता रहा।नन्हीं बालिका कुछ बड़ी हो
गयी।अब सर्प सा सरक कर चलना छोड़,अपने पुष्ट पांवों पर चलना सीख गयी।उसके दोनों हाथों को दो ओर
से पकड़,तिवारी
दम्पति उसे चलना सिखाते,और नन्द-यशोदा
सा वाल्य-लीला-सुख-लाभ करते। कभी कभार चुपके से किया गया मृत्तिका-भक्षण पल भर के
लिए माता योगिता की भृकुटि को गान्डीव की प्रत्यंचा सा तनने को विवश कर देता,और ऊखल से बँधे दामोदर की तरह अपना
मुंह फाड़कर,बालिका
क्षण भर में ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड-दिग्दर्शन करा जाती।बच्ची को गोद में उठा,योगिता आत्मविभोर हो उठती।
‘झूठ-मूठ का
तुम बच्ची पर आरोप लगाती हो।कहाँ खायी है इसने मिट्टी?’- तिवारी जी हँसकर
कहते।
किन्तु दुर्भाग्य!
योगिता का यह बाल-लीला-दर्शन अधिक दिनों तक दैव से देखा न गया,शायद ईर्ष्यावश।फलतः
कृष्ण-वधार्थ प्रेषित असुर,गोकुल के वजाय माधोपुर में डेरा डाल लिया,और एक दिन वकासुर के वजाय सर्पासुर का
रूप धर कर,कृष्ण के
स्थान पर यशोदा को ही डस गया।
तिवारी जी की
दुनियाँ लुट गयी।स्वप्नों का स्वर्ग मिट गया पानी के बुदबुदे सा।शकुन्तला को
छोड़कर मेनका चली गयी अपने दिव्य लोक में।काल-सर्प-दंशित योगिता चली गयी इस धरा-धाम
को त्याग कर।सुकन्या-पालित उर्वशी-पुत्र आयु को जब पाया था पुरूरवा ने,उसी क्षण अभागी उर्वशी को चले जाना
पड़ा था त्याग कर इस मृत्यु-भूमि को।पर वहाँ तो उसे लाढ़-प्यार देनेवाली एक और थी-
औशिनरी।किन्तु यहाँ कौन है? हाँ,वहाँ गयी थी- जननी उर्वशी,यहाँ गयी- माता औशिनरी।एक और भरत के श्राप
का उद्भव हुआ।
हाय! तिवारी का
सर्वस्व लुट गया। रो-रोकर एक ओर आसमान सिर पर उठाये थी- तृवर्षीय मीना,तो दूसरी ओर पछाड़ खा रहे थे मधुसूदन।किन्तु
कुटिल काल पर किसका बस चला है?
और फिर ?
फिर वही,जो हुआ करता है,होते रहना नियति है जो। शुक्ल पक्ष
की
चन्दा की तरह चन्द्रवदनी मीना अपने जीवन- सोपान पर खटाखट चढने लगी-एकाकी ही,मातृहीना होकर।पदारथ ओझा अब पदारथ
काका कहलाने लगे।क्यों न कहलाते? उन्हीं के रूपल्लों से
खरीदी गयी गाय का दुग्धपान कर तो इतनी जल्दी प्रस्फुटित हुयी कुमुदनी कलिका।
धूल-धूसरित बालापन
आम्रकुंजों में व्यतीत हुआ,और फिर उन आम्रमंजरियों में बौर लग गये।धूल में लोटने वाली मीना, अब स्कूल जाने लगी।आस पड़ोस की कई सहेलियाँ
बना ली।
प्रारम्भिक शिक्षा
तो पिता के ही प्राथमिक विद्यालय में मिली-
माधोपुर में ही।किन्तु जब प्राथमिक सोपान पूरा हुआ,तब समस्या खड़ी हुयी- आगे की पढ़ाई
की।क्यों कि गांव क्या, आसपास में भी
माघ्यमिक विद्यालय का अभाव था।तिवारी चाहते थे- मीना को यथासम्भव उच्च शिक्षा
देना।परन्तु मार्ग में अनेकानेक विघ्न थे।
माँ के गुजने के
बाद मीना प्रायः गुमसुम रहा करती।वय था मात्र आठ का,किन्तु वौद्धिक प्रतिभा सामान्य जन
को भ्रमित किये रहती।उसकी बातचित, हाव-भाव,कार्य-कलाप से कोई भी उसे पांच बर्ष आगे का मानने में उज्र न
करता।विधाता ने अद्भुत तेज प्रदान किया था उस मातृहीना को।सान्ध्य बेला में जब सभी
समवयस्क
बच्चे
आम्रकुंजों में गुंजार किये रहते,उस मधुर क्रीड़ाकाल में भी मीना अपनी लघु गृह-परिधि में ही घिरी,गुमसुम बैठी रहती।मात्र आठ बर्ष की
बालिका,और लघु
गृहस्थी का लगभग बोझ एक कुशल गृहणी की तरह सम्हाल लेती।समय पर शैय्या-त्याग,नित्य कृत्यादि से निवृत्त होकर,घर की सफाई आदि सम्पन्न कर रंधनकार्य
में जुट जाती।विद्यालय प्रस्थान से पूर्व पिता को भोजन कराना,स्वयं भोजन करना,पिता के साथ ही विद्यालय जाना,पूरे दिन विद्यालय में सतत पठनशील
रहना,सायंकाल
पुनः पिता सहित वापस आ,
गृहकार्य
में लग जाना।रात्रि भोजनोपरान्त दो घंटे पढ़ना,फिर सो जाना- यही उसकी दिनचर्या हो
गयी थी।
तिवारीजी मन ही मन
हर्षित होते रहते,और प्रभु के
इस कृपा प्रसाद पर इठलाते रहते;किन्तु यदा-कदा मीना का मौन चिन्तन सहृदय पिता को
आलोड़ित कर देता।
इधर जब से प्राथमिक
विद्यालय की शिक्षा समाप्त हुयी है,तब से घर में रहने का अधिक अवसर मिलने लगा है।इस बीच वह सारा
दिन घर में रहते हुये,किसी धार्मिक
पुस्तक या पिता की उच्च स्तरीय पुस्तकों का अध्ययन करती रहती।
उत्सुकता और हर्ष
सहित एक दिन तिवारीजी ने पूछ दिया-‘इन पुस्तकों में
क्या पढ़ती हो मीनू? समझ में आता है कुछ?’
तपाक से
मीना ने जवाब दिया- ‘क्यों नहीं
समझ
में आयेगा बापू?आखिर ये भी तो आदमियों के लिये ही लिखी गयी हैं।इन्हें पढ़ने कोई देवदूत थोड़े जो
आयेगा।’
तिवारीजी चुप हो
गये।उन्हें फिर कोई तात्कालिक प्रश्न न सूझा। मौन बैठे निहारते रहे,मीना के भोले मुखड़े को।उधर मीना ने
अपनी समझदारी का प्रमाण स्वयं ही प्रस्तुत करने लगी- ‘अष्टाध्यायी’ के दुरूह सूत्रों को ‘वृत्ति-वार्तिक’ सहित सस्वर सुना कर।
एक दिन संध्या समय
तिवारीजी स्कूल से वापस आए।साथ में पदारथ ओझा भी थे।दरवाजे पर दस्तक देने से पूर्व
ही कानों में सेक्सपीयर के ‘सोनेट’ प्रवेश करने
लगे।ओझाजी चौंके-
‘यह
अंग्रेजी कविता कौन पढ़ रहा है तुम्हारे घर में?’
मुस्कुराते हुये
तिवारीजी ने कहा- ‘और कौन हो सकता है मेरे घर में- मीना
के सिवा? वही दिन-रात यह-वह पढ़ते रहती है।समझ नहीं
आता-
इतनी वुद्धि इस बालपन में ही कहाँ से आ गयी, लगता है,साक्षात् वागीश्वरी ही अवतार लेली हैं मेरे घर में।’
दरवाजा खटखटाते हुए
पदारथ ने कहा- ‘मैंने कितनी बार तुमसे कहा कि इस बच्ची का जीवन
बरबाद न करो।सही तरीके से इसकी पढ़ाई की
व्यवस्था करो।’
किताब एक ओर ताक पर
रखती हुयी.मीना ने
किवाड़ खोल दिये।वापू और काका एक साथ कमरे में प्रवेश किये।मीना अन्दर चली गयी,जहाँ कमरे के पीछे पांच-छः फुट ऊँची
मिट्टी की दीवार बना कर आंगन की घेराबन्दी की गयी थी।
विस्तर पर बैठते हुये तिवारी ने कहा-
‘सुझाव तो
तुम्हारा सही है पदारथ
भाई,किन्तु
लाचारी भी तुम समझ ही रहे हो- गांव में स्कूल है नहींजहाँ आगे पढ़ाया जा सके।इतना
अर्थ-साधन भी नहीं है कि अन्यत्र भेजा जा सके।दूसरी बात
यह कि मान लो पैसे के लिए ‘देह नाप दूँ’ ।पर गंवई मामला
है।बच्ची का सवाल है।और सबसे बड़ी बात यह कि इसे दूर कर क्या मैं चैन से रह पाऊँगा?’
‘नहीं
रह
पाओगे तो हनन करते रहो इस प्रतिभा की मूर्ति का।’ जरा रोष पूर्वक
पदारथ ने कहा- ‘इतनी तपस्या से एक बच्ची मिली है,उसकी भी लालन-पालन की समुचित
व्यवस्था तुमसे नहीं हो पा रही है।’
‘आखिर क्या
करूँ? क्या मुझे
इच्छा नहीं है कि समुचित विकास हो सके इसकी
प्रतिभा का? पढ़े-लिखे,किसी बड़े घर की बहू बने।’- तिवारी जी ने अपनी
अन्तर्वेदना जाहिर की।
‘तो एक काम
करो।’-ओझाजी ने अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा का परिचय दिया- ‘कल ही मैं जाकर प्रीतमपुर के निर्मलजी से बात करता
हूँ।आशा है कि आजकल वे गांव में ही होंगे।तुम जानते ही हो कि मेरे गांव में जो
स्कूल चल रहा है,उसके
संस्थापक वे ही हैं।यदि वे
राजी हो जाँयें,और एक पत्र
देदें- प्रधानाध्यापक के नाम,तो फिर समझो पौ-बारह।दो सौ रुपये मासिक खर्च कर आवासीय
विद्यालय में रख कर बच्चों को पढ़ाना सबके बस की बात थोड़े जो है....।’
बीच में ही तिवारी
जी बोल पड़े- ‘मान लिया तुम्हारी बात मान कर निर्मल जी निःशुल्क शिक्षा की
स्वीकृति देदें अपने यहाँ आवासीय विद्यालय में; किन्तु क्या बच्ची
को छोड़ कर मैं चैन से रह पाऊँगा?’
‘आखिर क्या करोगे?इसे
पढ़ाना तो है ही।जहाँ तक तुम्हारे चैन-बेचैन की
बात है, तो कहो
सप्ताह में एक के वजाय दो दिनों के लिए उसे स्कूल से घर लाने की इजाजत दिलवा दूँगा।क्यों
अब तो खुश हो न?’-
पुलकित
हो,पदारथ ने
सिर हिलाते हुये पूछा।
‘ठीक
है।जैसी तुम्हारी मर्जी।’- कहते हुए तिवारी जी बैठ गये पैर पसार कर आराम से।
उधर आंगन में बरतन
मांजती मीना इन दोनों की बातें सुन रही थी। प्रसन्नता हो रही थी उसे आगे की पढ़ाई
की बात सुन कर;किन्तु सप्ताह में सिर्फ दो बार ही पिता के साथ घर पर रहने का अवसर
मिल पायेगा,यह जान कर
क्षोभ भी हुआ।
पत्नी की मृत्यु के पश्चात् यही तो एक मात्र आधार
रह गयी थी,तिवारी जी
के जीवन का।पल भर भी आँखों से ओझल न होने देना चाहते थे; किन्तु ममता की डोर
में बाँध कर सन्तान का भविष्य अन्धकार मय बना देना भी तो उचित न लगेगा किसी पिता
को।
तिवारीजी सोचने
लगे- ‘दौलत तो
इतनी है नहीं जो बड़े घर में भेज सकूँगा बेटी
को।किसी तरह यदि कुछ पढ़-लिख गयी,तो
रूप-गुणोपासक
कोई सहृदय, स्वीकारने वाला मिल
ही जायेगा।’-और इस सोच ने ओझा की सोच को बल दिया- अमल करने को।
अगले ही दिन ओझाजी
निर्मलजी से मिले,और स्थिति
का सारा इतिहास-भूगोल सुनाकर,वाक्पटु पदारथ सायंकाल तक उनकी स्वीकृति का सुसंवाद एवं प्रधानाध्यापक
के नाम, पत्र लेकर माधोपुर वापस आ गये,तिवारी जी की राम मडैया में।
वास्तव में निर्मल
जी ने अपनी सहज निर्मलता का परिचय दिया।उदार चित्त,सहृदय,उच्च कुल,उच्च शिक्षा,उच्च पद- आरक्षी विभाग
का पद- इतनी सारी उच्चताओं ने उन्हें फलदार वृक्ष
सा
झुका दिया है- अतिशय विनम्र बना दिया है।ओझाजी की बात पर, बिना मीन-मेष के स्वीकृति दे दिये।
‘मैं चाहता हूँ ओझाजी कि मेरे देश के हर
बच्चे-बच्चियाँ सिर्फ साक्षर ही नहीं,प्रत्युत उच्च शिक्षा प्राप्त करें।हालांकि
हमारी सरकार इस कार्य में सतत प्रयत्नशील दीखती है,पर ये सब हाथी के दांत हैं।नारा तो है- ‘गरीबी हटाओ’ ‘निरक्षरता
मिटाओ’ किन्तु होता क्या है?हो क्या रहा है? मर रहे हैं, मर नहीं- आत्महत्या
कर रहे हैं- किसान,गरीब,भूखे,नंगे,पढ़े-बेपढ़े।हमारा बाहरी दांत बहुत
सुन्दर,चिकना, खूबसूरत है।मगर अन्दर झांको तो सब पोलमपोल
है।भ्रष्टाचार का कीड़ा जड़ से फुनगी तक लगा हुआ है।जनतन्त्र के चारों स्तम्भ
कमोवेश रोग ग्रस्त हैं।और बीमारी
कोई नयी नहीं है। दरअसल स्वतन्त्रता हासिल ही दूषित
सोच से हुयी है।फिर विकृत बीज से अंकुरित पौधे से कितना आश लगायें। यही सब सोच
विचार कर, मैंने यह योजना बनायी।गांव ही हमारा
मेरूदण्ड है,अतः इसे
मजबूत किया जाय।गांव में शिक्षा का विकास- मैंने अपना जीवन-लक्ष्य रखा है।आपके
गांव उधमपुर का यह आवासीय बाल-विकास विद्यालय मेरे लक्ष्य पूर्ति का एक ‘माइलस्टोन’
है।’- निर्मल जी
ने अपने उद्देश्य और कार्य-कलाप पर टिप्पणी की,जिसे सुन कर ओझाजी गदगद हो गये।
आज गांव शहरों की
ओर भाग रहा है।पर इसके विपरीत हमारे निर्मल उपाध्याय जी शहरी सभ्यता को लात मार
गांव में आ गये हैं।अवकाश का
ज्यादा हिस्सा गांव में ही गुजारते हैं।अपने छोटे बेटे- विमल का नामांकन भी अपने उसी विद्यालय में
करा दिये हैं।कहते हैं- शहर में रह कर लड़के
पढ़ते कम हैं,घुमक्कड़ी
ज्यादा करते हैं।दूसरी बात
यह कि गांव में रहने से गांव का महत्त्व समझ में आयेगा।आजकल के बच्चे तो भूल ही
गये हैं कि हमारे भारत की
आत्मा तो गांवों में ही बसती है।ये गांव ही हमारा आधार स्तम्भ है।इसे ही हर तरह से
संवारना है पहले।’
निर्मल उपाध्याय के
पत्र प्राप्ति के तीसरे दिन ही मीना का नामांकन ‘‘उपाध्याय
आवासीय बाल विकास विद्यालय,उधमपुर " में हो गया।ओझाजी के सहयोग और तत्परता से मीना फिर एकबार
घर-गृहस्थी के दायरे से निकल कर सरस्वती की सम्यक् सेवा में आ जुटी।किंचित कुंठाओं
से मुक्ति मिली। अतिशय प्रसन्नता हुयी।परन्तु पिता से अलगाव की वेदना भी सतायी।
कुछ ही दिनों के
विद्यालय-प्रवास क्रम में सम्पूर्ण शिक्षक समुदाय पर अपनी तेजस्विता की मुहर लगा
दी।प्रत्येक के मुंह पर बस एक ही नाम रहता- मीना।
मीना का नामांकन
पंचम वर्ग में हुआ था,और अष्टम्
वर्ग में था- विमल उपाध्याय।एक समय था,जब विमल के व्यक्तित्त्व की तूती बोलती थी विद्यालय भर
में।रूप,गुण,प्रतिभा,ऐश्वर्य सब कुछ था उस बालक में;किन्तु
मीना के आगमन के बाद उसके व्यक्तित्त्व और प्रतिभा की चमक थोड़ी फीकी पड़ गयी। ऐसा
लगने लगा मानों उसकी प्रतिभा मौलिक न हो,बल्कि विद्यालय-कर्णधार-पुत्र का प्रभुत्व
मात्र हो,जब कि मीना
की प्रतिभा ‘दैविक’ सी प्रतीत होती
थी-ऐसा ही कहने लगे थे,सब लोग।
था भी कुछ ऐसा
ही।पांचवीं कक्षा के किस बच्चे को सोनेट,गीतांजली, अमरकोष और अष्टाध्यायी- सब कण्ठस्त
होते हैं? क्या इसे दैवी
सम्पदा स्वीकारना अनुचित होगा?
खैर जो भी हो,जिस प्रकार तत्रोपस्थित अन्य जन को
मीना ने आकर्षित किया था,उसी प्रकार
विमल भी बरबस आकृष्ट हो आया था- मीना के प्रति,साथ ही विद्यालय के अन्य छात्र-छात्राओं की अपेक्षा विमल को ही अधिक चाहने लगी
थी,मीना भी।
कक्षा की दूरी के
साथ,दोनों के शयन
कक्ष भी बिलकुल ही अलग थे- दो भवनों में।फिर भी अवकाश का अधिकाधिक उपयोग साथ
गुजारने में ही दोनों करते।
सप्ताह में दो बार
मीना अपने गांव आती- माधोपुर- पिता के पास। ओझाजी स्कूल आते-जाते नित्य प्रति एक
बार अवश्य उससे मिल लिया करते। कभी कभार तिवारी जी भी विद्यालय जाकर मीना से
मुलाकात कर लिया करते।
उधमपुर,ओझाजी के गांव में मीना के स्थायी
प्रवास से एक और बात सामने आयी- दैनिक मुलाकात ने ओझाजी के मन को विशेष रूप से खींच
लिया मीना की ओर।वैसे तो पहले से ही वे उसे अपनी बेटी जैसा प्यार करते थे।क्यों न
करते! था ही क्या बेचारे को! पत्नी तो विवाह के कुछ काल बाद ही चली गयी थी, सदा के लिए विधुर का तगमा पहना कर।घर में
तीन बड़े भाई थे।एक विधवा भाभी भी थी।अन्य भाइयों का अपना-अपना छोटा- बड़ा संसार
भी था।सब एक ही छत के नीचे थे।फिर भी अपना कह सकने जैसा कुछ नजर नहीं
आता
था।
कितनी बार कहा था मधुसूदन
तिवारी ने -‘क्यों पदारथ भाई,
‘पुनर्भू’ के बन्धन में बँध
कर अपने उजड़े नीड़ को संवार क्यों नहीं लेते?हँसी-खेल
में जवानी तो गुजार लोगे-बाजारू दूध पी-पीकर,पर बुढ़ापा?’
‘तुम भी
मजाक करने से बाज न आते हो मधुसूदन।’-हँसते हुए पदारथ कहते- ‘अब तो ‘ऑस्टर मिल्क’ का जमाना है,गाय पालने में बड़ा झंझट है।’-फिर
एकाएक उदास हो जाते पदारथ,और सूने आकाश में मण्डराते काले मेघों को निहारते हुए कहते,ऊपर अंगुली उठा कर- ‘वह देखो,ओ जो काली बदरिया है न,किस तरह चमकते-दमकते सूर्य को क्षण भर
में ढक लेती है।उसी तरह की, बल्कि उससे
भी घनेरी बदली मेरे जीवन-आकाश में छा गयी है। वयार के झोंको से आकाश की बदली तो
छंट जाती है,परन्तु
मेरे जीवन की बदली कभी छंटने-हटने वाली नहीं
है।अब
तक का वक्त जैसे गुजरा,आगे भी
किसी तरह गुजर ही जायेगा।’
परम मित्र तिवारी
के अलावे अन्य लोग भी,यहाँ तक कि
प्यारी भाभी भी कई बार कहती रही थी,किन्तु पदारथ- जड़भरत बने सबकी सुनते रहे।
समय गुजरता गया।काल
की बलिष्ट श्रृंखला में एक ओर मीना और पदारथ,तो दूसरी ओर विमल और मीना बंधते गए,बंधते चले गए।
इसी बीच एक बार
मीना काफी बीमार हो गयी।स्थानीय उपचार से लाभ न हो सका,अतः निर्मलजी ने अपनी देखरेख में उसे
बाहर लेजाकर समुचित चिकित्सा का प्रबन्ध किया।उस समय दशहरे की छुट्टी थी- पूरे
डेढ़ माह की; फलतः विमल भी बराबर साथ रहा,और मीना की सेवा-सुश्रुषा में सतत तत्पर रहा।
मीना की प्रतिभा-रश्मि
उधमपुर विद्यालय से बाहर निकल कर प्रीतमपुर तक पहुँच चुकी थी।विद्यालय-सचिव होने
के नाते प्रत्येक
विद्यार्थियों
का ‘प्रौग्रेस
रिपोर्ट’ देखने का
अवसर मिला ही करता था।किन्तु इस बार लम्बे समय तक
प्रीतमपुर प्रवास ने निर्मलजी को अत्यधिक अवसर दे दिया,मीना को परखने
का-करीब से देखने का।
मीना की प्रतिभा तो प्रतिभा थी,स्वभाव भी बरबस आकृष्ट करने वाला था,जिसने उपाध्याय जी को चुम्बक सा खींच
लिया अपनी ओर।यदा-कदा विमल के मुंह से भी प्रसंसा सुनने को मिल ही जाता था।
मीना की
अस्वस्थता-काल में तिवारी जी भी प्रायः आते-जातें रहते-मीना से मुलाकात
करने।प्रारम्भ में तो लागातार पन्द्रह दिन साथ ही रहे।परन्तु बाद में निर्मलजी ने
उन्हें आश्वस्त कर वापस भेज दिया-
‘आप चिन्ता
न करें तिवारी जी,निश्चिन्त
होकर जाँयें- अपनी ड्यूटी करें।मीना जैसी आपकी बच्ची है,वैसी ही मेरी भी।भगवान ने हमें सब कुछ दिया है,किन्तु एक चीज का अभाव हमेशा खटकता
है- पुत्र तो तीन हैं,पर पुत्री
के लिये मेरा मन मचलता ही रह गया।बड़ी लालसा थी- एक लड़की होती,धूम-धाम से उसकी शादी
करता।सज-धज कर दरवाजे पर वारात आती,पर....।’-कहते हुए निर्मलजी इतने भाउक हो उठते कि बलात् बरस
पड़ते उनके नेत्र।
रूमाल निकाल आँखें पोंछते हुए फिर कहा था उन्होंने-‘.....सच
पूछिये तिवारी जी,आपकी कोई और
सन्तान होती तो मीना को मैं कतयी वापस आपके पास जाने न देता।इसे मैं अपनी बेटी बना कर
अपने प्यासे अरमान को तृप्त करता...।’
‘तो क्या
फर्क पड़ता है?’-
बगल
में बैठे पदारथ ओझा बोले- ‘मीना बेटी को आप रखें या मधुसूदन
भाई।आपकी निष्ठा और स्नेह ने तो वास्तविक पालनकर्ता और जीवनदाता का पद प्रदान कर ही दिया।’
निर्मल परिवार के निर्मल व्यवहार और
परिचर्या से मीना धीरे-धीरे
शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य लाभ करने लगी।कोई महीने भर और
वहाँ गुजार कर पूर्णतया स्वस्थ होकर वापस चली आयी विद्यालय-छात्रावास में; किन्तु दिल का एक बड़ा सा हिस्सा वहीं
छोड़
आयी- प्रीतमपुर में ही,निर्मल
परिवार के पास।
मधुसूदन तिवारी
पिता थे।पदारथ ओझा पिता तुल्य स्नेहदायक मुंह बोले चाचा;किन्तु इन दोनों के अलावे
एक और ने बाँध रख लिया उसके दिल को।वे थे- श्री निर्मल जी।वस्तुतः वे इसके कोई नहीं,पर
‘कोई न’ कहना भी कृतघ्नता
ही होगी।विगत मासों में निर्मल परिवार ने जो स्नेह दिया मीना को वह तो अनमोल है।
इन्हीं
विचारों
में कभी-कभी खो सी जाती मीना और कभी पढ़ी गयी कविता याद आ जाती-
^^Sympathy is a similer fealling of
heart…
if we lay in
sorrow greef and trouble…. Anybody come to sympathyes….”
पिता में सामर्थ्य
कहाँ थी जो प्राथमिक से माध्यमिक विद्यालय में भेज सकते,और उससे भी महत्त्वपूर्ण हो गया था-
अभी हाल की गम्भीर बीमारी।खुले तौर पर कहें तो कह सकते हैं कि मीना का पुनर्जन्म हुआ है- निर्मलजी की
कृपा से।
समय सरकता
गया।सप्तम की छात्रा हो गयी मीना,और विमल एकादश का।यानी विद्यालय प्रवास का अन्तिम वर्ष है विमल
का। उसका विचार है- आगे
सामान्य स्नातक बन कर पिता का अनुशरण न करने का।उसे तो खींच
रहा
है- उड्डयन।
वादलों को चीर कर
नीले नभ-गर्भ में रौंदता फिरता वायुयान बरबस उसे अपनी ओर खींचता रहा।जब कभी भी ऊपर
आकाश में घोर गर्जना करते हुये वायुयान गुजरते, उनके गुजरने के काफी देर बाद तक भी सूने शून्य
को ललचायी नजरों से निहारता रहता भोला विमल।इसी तरह ‘रीशेस’ में एक दिन स्कूल
लॉन में बैठा विमल नील नभ को निहार रहा था।शकुन्त चंचु सा उसका खुला मुंह ऊपर आकाश
की ओर था,और विचित्र
प्रकार से धड़क रहा कदली-पुष्प सा हृदय,जिसका नियन्त्रक- मस्तिष्क तो खोपड़े में
कैद था,किन्तु मन
कहीं सुदूर पहाड़ियों-वन प्रान्तरों में....तभी अचानक पीछे से
चुपके-चुपके आकर मीना उसकी आँखें बन्द कर दी।
‘कौन है इस
तरह बदतमीजी करने वाला?’- झल्लाते हुये विमल ने दोनों हाथों से नोच फेंकना चाहा था,उन कोमल कलाइयों को,जो भूगत ‘सांडे’ सा चिपक गये तो
चिपक गये;और विमल झल्लाता रहा- ‘कौन है?कौन है?’
फिर उसे स्वतः ही
भान हुआ- मीना के सिवा पूरे विद्यालय में इतनी धृष्टता करने वाला और हो ही कौन
सकता है! पुनः उन्हें हटाने का प्रयास करते हुए बोला- ‘मीना! हाथ
हटाओ न।जान तो गया कि तुम हो मेरे पापा की राजदुलारी- मीना तिवारी।अब क्या मेरी आखें
ही फोड़ डालोगी?’
‘बाप रे! इतनी नाजुक
हैं इनकी आँखें जो हाथ
रखने भर से फूट जायेंगी।’- कहती हुयी मीना अपने हाथ हटा ली,और नीचे पड़ी किताब उठाकर एक ओर चलने को उद्यत
हुयी।
‘क्यों बुरा
मान गयी क्या?’- विमल ने
लपक कर मीना की कलाई पकड़ ली।
‘और नहीं
तो
क्या....बदतमीज भी बनाये,और
आँखें फोड़ने का इलजाम भी लगाये....।’-तुनकती हुयी मीना अपना हाथ छुड़ाने का
प्रयास करने लगी।
‘नहीं
मीना,बुरा मत मानों,प्लीज।दरअसल मैं कुछ देख रहा था, तभी अचानक तुमने आँखें बंद कर दी मेरी।इसी
कारण गुस्सा आ गया।’- मीना की कलाई छोड़ते हुए विमल ने कहा।
‘क्या देख
रहे थे? हवाई जहाज न?
अजीब हो तुम भी।बच्चों जैसा मचल उठते हो- उड़ते जहाज को देख कर।’- कहती हुयी मीना
खिलखिला उठी।
‘तुम नहीं
जानती
हो मीना! इस कलयुगी गरुड़ से मुझे कितना लगाव है,कितना प्रेम है।जब भी देखता हूँ,जी चाहता है- मैं भी पंख लगा कर उड़ पड़ू उसी के साथ।ओफ! कितना ही अच्छा लगता होगा- ऊपर नीलगगन में पक्षियों की तरह
उड़ते हुए। ऊपर आकाश में उड़ते हुए नीचे जमीन की हरीतिमा का विहंगावलोकन करते
हुए.....।’-कहता हुआ विमल चुप हो गया,मानों सही में उड़ गया हो उसका मन।क्षण भर बाद ही उसके मुंह
से निकला-‘काश! मैं पायलट होता।’
ऊपर शून्य में
निहारते हुये विमल का मुंह कौवे के चोंच सा खुल गया।उसकी इस हरकत को देख कर मीना
को कुछ शरारत सूझी-
‘काश मैं पायलट होती,और कौवे सा मुंह बाकर आकाश ताकती...।’- बगल में पड़ी एक
कंकड़ी उठाकर,विमल के
खुले मुंह में डालती हुयी जोर से हँसने लगी।
‘धत्, यह क्या कर दी?’-कंकड़ी थूकता हुआ विमल
बोला।
तभी बैठक की घंटी
हो गयी।दोनों अपने-अपने ‘बस्ते’ उठाकर अपनी-अपनी कक्षा
की ओर चल पड़े।
‘चार बजे
मुलाकात करना,छुट्टी के
बाद।कुछ जरूरी बात करनी है।’-कहा विमल ने।
‘उड्डयन-प्रशिक्षण
हेतु आवेदन लिखवाना है क्या मुझसे?’- मीना ने हँसते हुये कहा,और विमल की ओर बिना देखे अपनी कक्षा
में घुस गयी।
संध्या चार बजे
विद्यालय-प्रांगण में ही दोनों की पुनः मुलाकात हुयी। विमल ने कहा- ‘आज पापा
आने वाले हैं।मैं उनके साथ घर चला जाऊँगा। मंझले भैया की शादी
है।तुम भी चलोगी मेरे साथ? बड़ा मजा आता यदि तुम भी वहाँ रहती।’
‘चलती तो।’- मीना ने मुंह
बिचकाते हुये कहा- ‘मगर वापू से फिर भेंट कैसे होगी? पिछले सप्ताह भी
तुम जिद्द करके जाने न दिये थे।’
बातें हो ही रही थी
कि प्रांगण के प्रवेश द्वार से एक चमचमाती हुयी गाड़ी भीतर प्रवेश की।गाड़ी
उपाध्याय जी की थी।
प्रधानाध्यापक सहित अन्य शिक्षक गण भी
कार्यालय से बाहर निकल आये, उनकी आगवानी के लिए।
गाड़ी से उतर कर निर्मल जी प्रधानाध्यापक-कक्ष
में
प्रवेश किये।कुछ
देर तक अन्यान्य बातें होती रही,खास कर विद्यालय के विकास के सम्बन्ध
में। फिर उठते हुये बोले- ‘निमंत्रण पत्र
तो आपलोगों को डाक द्वारा भेजा ही जा चुका है।मौखिक तौर पर भी कह जा रहा हूँ-
विवाहोत्सव में शामिल होने का
कष्ट करेंगे।दूसरी
बात यह कि सप्ताह भर के लिए विमल और मीना को घर ले जाना चाहता हूँ।’
‘ओह,तो इसमें अनुमति की क्या आवश्यकता है?आप
तो स्वयं ही विद्यालय के .....।’-नम्रतापूर्वक प्रधानाध्यापक ने कहा।
‘अनुमति
क्यों नहीं?यह तो विद्यालय का नियम है,चाहे वह जिस किसी के लिये हो- सचिव हो या समाहर्ता।’- कहते हुये निर्मल
जी कक्ष से बाहर निकल आये।
वरामदे में खड़ा विमल मीना से बातें
कर रहा था।पिता को आते देख बढ़ चला उसी ओर।
‘चलो न मीना,पापा से बात करते हैं- तुम्हारे बारे में।’- विमल ने कहा।
विमल अपने पापा से
कुछ कहता,कि इसके
पूर्व ही निर्मल जी स्वयं ही बोल पड़े- ‘चलो मीना बेटी,तुम्हें भी चलना है आज मेरे यहाँ।तुम
दोनों को छुट्टी मिल गयी है।जाओ जरूरी सामान लेकर जल्दी आजाओ।’
किन्तु मीना ठिठकी
खड़ी रही।उसे चुप खड़ी देख विमल ने कहा- ‘पापा! मीना को जाने
की इच्छा तो है,पर कहती है
कि वापू से भेंट कैसे हो पायेगी?’
‘इसमें क्या लगा है,चलो माधोपुर होते ही चलेंगे।’-निर्मल
जी की बात सुन
मीना और विमल चल पड़े दोनों छात्रावास की ओर अपना सामान सहेजने।गाड़ी में बैठे
निर्मलजी चश्में की आँखों से निहारते रहे- मनमोहक दो कलियों को।
छात्रावास-कक्ष
में
जाकर मीना अपने कपड़े सहेजने लगी।तभी उसे ध्यान आया- उसके पास तो विद्यालय के
स्कर्ट-गॉन के तीन- चार सेट के अलावे बाहर पहनने लायक कपड़े ही कहाँ हैं,जो वहाँ जाकर
विवाहोत्सव में पहन पायेगी।फिर सोचने लगी- बेकार की बला कहाँ से सिर पर लाद ली...क्या
बहाना बनाया जा सकता है- वहाँ न जाने का....?’- इसी उहापोह में ठिठकी खड़ी रही,चिन्तित मुद्रा में- पल भर के लिये
घर और पिता की दयनीय स्थिति, उसकी आँखों के सामने चलचित्र के समान घूम गयी।ध्यान तो तब
भंग हुआ जब कंधे पर स्पर्श पायी।
‘खड़ी क्या
देख रही हो?’- हाथ में
बैग लिये खड़े विमल ने मीना के कंधे पर हाथ रखकर पूछा।
‘ओ....ओ...ओ...हवाई
जहाज उड़ा जा रहा था....।’- हकलाती हुयी मीना ने वस्तुस्थिति से उसे अनवगत रखने का
प्रयास किया।
‘हवाई जहाज
नहीं था मेमसाहब! कहिये तो मैं बतला जाऊँ,कि आप क्या सोच रही थीं।’- मुस्कुराते हुये
विमल ने कहा।
‘तो क्या
तुम ज्योतिषी हो या अन्तर्यामी? बतलाओ तो मैं क्या सोच रही थी?’- झेंप मिटाती मीना पीछे पलट कर बोली।
अचानक निकला सम्बोधन
‘मेमसाहब’ विमल को स्वयं ही शरमा
गया था। चौकी पर बैठते हुये बोला- ‘बता ही दूँ?’
‘क्यों नहीं।जब
जानते हो तो फिर कहने में संकोच क्यों?’-धृष्टता पूर्वक मीना बोली,और नीचे पड़े सूने बक्से को निहारने
लगी।
‘सोच रही थी
तुम कि अच्छे कपड़ों के अभाव में मेरे यहाँ कैसे जाओगी- क्यों यही बात थी न?’-मीना की
ओर देख,मुस्कुरा दिया विमल।मीना आवाक रह गयी।उसे
आश्चर्य हो रहा था कि विमल उसके मन की बात जान कैसे गया।अभी वह कुछ कहना ही चाह
रही थी कि चपरासी आ टपका कमरे में।
‘साब
आपलोगों को जल्दी बुला रहे हैं।देर हो रही है,जाने के लिये।’
उसकी बात सुन दोनों ही उठ खड़े
हुए।उपलब्ध दो-तीन कपड़े एक छोटे से बैग में रख कर मीना,चल पड़ी विमल के साथ।
‘सोचने का
तुम्हारा अन्दाज बड़ा अनोखा है मीना।’-चपरासी के थोड़ा आगे बढ़ जाने पर विमल ने
कहा।
‘सो कैसे?’- आँखें तरेर मीना
बोली।
‘इसलिए कि
अगले को भी जानकारी मिल जाया करती है कि क्या सोचा जा रहा है।’- हँसते हुए विमल ने
कहा।
‘अच्छा-अच्छा।मैं समझी तुम्हारी कलावाजी।मैं बड़बड़ा रही थी, और तुम पीछे चुप खड़े मेरी बातें सुनते रहे
थे।’- मुंह बिचका
कर मीना ने कहा और अपनी चाल स्वाभाविक रूप से कुछ धीमा कर दी ताकि विमल आगे निकल
जाए।
कोई पन्द्रह-बीस
कदम आगे,स्कूल गेट
के बाहर गाड़ी में बैठे
निर्मलजी
इनलोगों की प्रतीक्षा कर रहे थे।
‘कहाँ इत्ती
देर लगा दिए तुम लोग?’- गाड़ी का गेट खोलते हुए निर्मलजी ने पूछा।
पीछे मुड़ कर विमल
ने देखा- मीना कुछ पीछे ही रह गयी है।सिर झुकाए बैग लटकाए चली आ रही है।
‘मैं तो कब से तैयार बैठा था।यही देर लगा रही थी।’- मीना की ओर ईंगित करते हुए विमल ने कहा,और भीतर घुस गाड़ी में बैठ गया।समीप आ,संकोच-भरी नजरों से एक बार
पिता-पुत्र को निहार,मीना भी
बैठ गयी विमल के बांयी ओर खाली सीट पर।मन ही मन घबड़ा रही थी- कहीं
विमल
खोल न दिया हो उसके संकोच और मनोमालिन्य का राज।
‘क्यों मीना
बेटी! माधोपुर होते हुए ही चला जाए न? गाड़ी स्टार्ट करते हुए निर्मल जी ने पूछा।
‘चलते तो
अच्छा होता।’- संकुचित
मीना संक्षिप्त सा उत्तर दे बाहर खिड़की से देखने लगी।
गाड़ी चल पड़ी,अगल-बगल
के पेड़-पौधों को पीछे छोड़ती हुयी बढ़ती रही-कच्ची कंकरीली लाल सड़क पर,और मीना सोचती रही।उसके जीवन में पहला
अवसर था- जब किसी मोटरकार में बैठने का अवसर मिला था।कुछ देर तक तो इस सोच में रही कि जमीन पर दौड़ने वाली गाड़ी में
बैठने पर जब इतना आनन्द आता है,फिर ऊपर आसमान में उड़ने वाले जहाज में कितना आनन्द आता होगा!
जहाज की बात याद आकर उसके चिन्तन ने भी उड़ान भरी।धीरे-धीरे रफ्तार बढ़ने लगा।यहाँ
तक कि कई वर्ष भूत,और कितने ही
भविष्य के चित्र घूम गये आँखों के सामने- माँ की कहानी से लेकर पिता की दयनीयता तक,पूँजीवाद,साम्यवाद,समाजवाद, आशावाद,निराशावाद,धर्मवाद,अधर्मवाद न जाने कितने ही वाद- हैदरावाद,जहानावाद,औरंगावाद,फरीदावाद,हुसैनावाद.... और इन्हीं
वादों
के चक्कर में उसके मस्तिष्क में विवाद शुरू हो गये....
उसने देखा- बाहर
सड़कों पर अगल-बगल से पीछे भागते हुए वगीचों में,झुरमुटों में- मृगशावक कुलांचे मार
रहे हैं।उन्हें देख कर उसका मन मचल उठा- उन नन्हें भोले शावकों को पकड़ने के
लिए। वह नन्हा है,अ-बल है,लाचार है।उसे आसानी से पकड़ा जा सकता
है।हथिआया जा सकता है। पूँजीवादी सिद्धान्त की तरह- हथिया लो उसे,जो तुमसे छोटा है;जो तुम्हारी मुट्ठी
में समा कर खो जा सके।छोटों को हथिआओगे,आत्मसात करोगे- तभी बड़ा बन सकोगे।वह
तुम्हारा साधन होगा- मनबहलाव का।मनोरंजन का......।
‘देखो...देखो
न,मृगछौने
दौड़ लगा रहे हैं....।’- बगल में बैठे विमल
को कुरेदती हुयी बोली।उसके दिमाग में यह फितूल चल रहा था शायद कि छोटा छौना इतनी
स्वतन्त्रता पूर्वक दौड़ क्यों लगा रहा है! उसे क्या अधिकार है कि स्वतन्त्र रहे? उसे
तो किसी वलिष्ठ की बाहों में कैद होना
चाहिए।
‘कहाँ हैं मृगछौने?’- बाहर की ओर झांक कर
देखते हुए विमल ने कहा- ‘अरे, वे तो बकरियाँ हैं।’
‘बकरियाँ!’- मीना के माथे को एक
झटका सा लगा। पूँजीवाद की अट्टालिका से बलात् च्युत होकर यथार्थवाद की धरा पर आ
गिरी।फलतः निराशावाद से भी साक्षात्कार हो गया।अपनी भूल का अहसास हो आया- इस निरे
देहाती क्षेत्र में वनवासी मृग भला क्यों आ सकते हैं? यह तो विवेकी
मानवों की वस्ती है। अविवेकी मृग क्यों कर यहाँ हो सकते हैं? बकरियाँ हैं। हो सकती हैं यहाँ- इसलिए कि
विवेकी मानव से समझौता कर ली हैं वे सब- दूध
पिलाने का,या कहें
अपने पोषित रक्त के एक खास अंश को देने का वायदा कर लिया है उन सबने।इतना ही नहीं, जरूरत पड़ने पर अपने आप को –अपनी
सन्तानों को भी बलिवेदी पर चढ़ा सकती हैं- धर्म की वेदी पर,रस-लोलुप जिह्ना की वेदी पर,और इन सबके अन्तस में छिपे बैठे
खटमली पूँजीवाद की वेदी पर।हो सकता है- कोई कहे-
बलि तो सिर्फ छाग का ही नहीं, मगृ का भी होता है-
उदर बलि भी और धर्म बलि भी।पर विचारणीय है कि सफेदपोश निरामिषों
से मृग का समझौता क्यों कर हो सकता है? मांस खाना नहीं
है,दूध मिलना
नहीं है....।
विचारों को नया
झटका लगता है।मीना आँखें मलने लगती है।बाहर की ओर झांक कर देखने लगती है।सच्ची बात
कही है विमल ने - बकरियाँ ही तो हैं।मृग नहीं। किन्तु यह भ्रम
क्यों हुआ? बकरियाँ मृग कैसे नजर आ गयी?
गाड़ी चलती रही-
सड़क पर।विचार चलते रहे- मस्तिष्क में।
मृगछौने के भ्रम का निवारण न हो सका।कारण कुछ सूझ न पाया। अभी
वह सोच ही रही थी- इस समस्या का हल कि उसे महसूस हुआ- बगल में बैठा विमल ‘विमल’ नहीं
है।वह
कोई और है।और ही है- उसका कोई अपना ही। फलतः मुड़ कर गौर से उसे देखने लगी।
उसकी निर्निमेष
दृष्टि से तिलमिला उठा विमल।
‘क्या देख रही हो
मीना?’- हड़बड़ाकर
पूछ बैठा।
मीना कुछ कहना ही चाह रही थी कि
गाड़ी का हॉर्न बज उठा।उसके विचार-तन्तु विखर गए। गाड़ी ठहर गयी माधोपुर मधुसूदन
तिवारी के दरवाजे पर।
हॉर्न सुनकर
हड़बड़ाकर बाहर आए तिवारी जी।गाड़ी में निर्मल जी के साथ ही विमल और मीना को देख
कर प्रफ्फुलित हो उठे।
‘धन्यभाग्य!
आप आज पधारे इस गरीब की झोपड़ी पर।’-दोनों हाथ जोड़े तिवारीजी गाड़ी के समीप सावधान सी
मुद्रा में खड़े हो गए।
‘मीना को मैं अपने यहाँ ले जा रहा हूँ।मंझलू की शादी है।
कोई सप्ताह भर बाद लौटेगी उधर से।सोचा आपसे भेंट करता चलूँ।मीना से भी आप मिल
लेंगे।’-
कहते हुए निर्मल जी ने भी हाथ जोड़ लिया अभिवादन की मुद्रा
में।
‘मीना तो
आपकी है ही।जहाँ चाहें ले जाँए।खैर अच्छा ही किये,लेते आए। मैं सोच ही रहा था कल ही जाने को- इससे मिलने के
लिए।पिछले सप्ताह भी आ न पायी थी यहाँ।’-फिर मीना की ओर देखते हुए कहा तिवारीजी
ने- ‘नीचे उतरो
मीना,तुम भी
उतरो बेटे।’-पुनः निर्मल जी की ओर मुखातिब हुए-‘आइये
उपाध्याय जी! इस झोपड़ी को पवित्र कीजिये।’
तीनों जन गाड़ी से
नीचे उतरे।बाहर दरवाजे पर पड़ी खाट पर आ विराजे- पिता-पुत्र,और मीना अन्दर भाग गयी- पिता का इशारा
पा, उनके
जलपानादि-व्यवस्था में।पीछे से तिवारी जी भी अन्दर आए।
मीना नास्ते का
प्रवन्ध करने लगी।इसी बीच मौका पा संकुचित भाव से विशेष वस्त्र की आवश्यकता व्यक्त
की।अगले दिन प्रीतमपुर
कपड़े
की व्यवस्था कर पहुँचा जाने का आश्वासन दे,तिवारी जी बाहर निकल गये,जहाँ पिता-पुत्र विराज रहे थे।
उधर तिवारी जी जब
अन्दर चले गये मीना के साथ तब विमल को मौका मिला अपने पापा से मीना के बारे में
कुछ कहने का।विमल से यह जान कर कि वस्त्राभाव के संकोच में मीना देर लगा रही थी
छात्रावास से चलने में,
उपाध्याय
जी के चेहरे पर थोड़ी उदासी झलकने लगी।
‘यही है
बेटे अर्थाभाव की विवशता।हम अमीर लोग सोच क्या,कल्पना भी नहीं
कर
सकते कि अभाव क्या चीज है।रूपये-दो रूपये के अभाव में किसी गरीब का सर्वनाश भी हो
सकता है- इसका अन्दाजा हम अमीरों को कहाँ हो पाता है? पूँजीवाद का हौआ,कनक-कामिनी की हबश ने हम मनु-सन्तति
को मानवता की
परिधि
से परे खदेड़ दिया है।‘मानव’ मात्र सभ्य ‘आदमी’ बन कर रह गया है,या कहो ‘अदिति’ के वंशज...।अभाव,गरीबी,भूख- यह कई तरह का हुआ करता है बेटे-
एक होता है धन का अभाव,और उससे भी
खतरनाक है- बुद्धि-विवेक का अभाव।भूख एक कटु सत्य है,जो सब कुछ करने को वाध्य कर देता है।’-निर्मलजी
विमल को समझा रहे थे,इसी बीच
तिवारी जी आगये।अतः - ‘खैर,उसके लिए कपड़े की व्यवस्था मैं कर दूँगा।’- कहते हुए
उपाध्यायजी ने प्रसंग बदला-’
‘कहिये तिवारीजी और
सब तो ठीक ठाक है न?’
‘जी
हाँ।आपके आशीर्वाद से सब कुशल ही है।’ हाथ जोड़ कर तिवारीजी ने कहा।निर्मलजी कुछ कहना ही चाहते
थे कि मीना तीन तस्तरियों में जलपान लिए आ गयी।
‘ये सब क्या
करने लगे तिवारी जी,इसकी अभी
क्या आवश्यकता थी?औपचारिकता तो गैरों के लिए निभाना जरूरी होता है।’-कहते हुए
उपाध्यायजी मीना की ओर देखने लगे जो तस्तरी रख कर वापस मुड़ रही थी- ‘मीना बेटी!
कपड़े आदि के लिए बापू को परेशान न करना।इसकी व्यवस्था मैं कर दूँगा।’
तिवारी जी संकोच
में सिर झुकाए सोचने लगे- शायद इन्होंने सुन लिया है भीतर बातचित करते हुए।और अभाव
के पैने नाखून से खुजाते रहे अपने अन्तर्मन को।उधर निर्मलजी पिता-पुत्र ने जलपान
सम्पन्न किया।
थोड़ी देर बाद सभी
पुनः गाड़ी में सवार हुए,और चल पड़े
अपने गन्तव्य की ओर।
अचानक विमल को ध्यान आया।उसने मीना
की ओर देखते हुए
कहा-
‘क्यों
मीना! उस समय तुम मुझे अजनवी की तरह क्यों देख
रही थी? और वहाँ बगीचे में बकरियाँ तुझे हिरन दिखलाई पड़ रही थी?’
विमल की बात पर
मीना चौंकती हुयी बोली- ‘धत्! क्या कहते हो, बकरियाँ हिरन दिखलाई पड़ रही थी मुझे?
इतनी उमर निरे देहात में गुजारी हूँ।क्या बकरी और हिरन का अन्तर नहीं
पता
है मुझे?
विमल की बात का
समर्थन उसके पिता ने भी किया।किन्तु मीना को कुछ याद न आयी कि ऐसा भी कुछ कही हो
कभी।अतः बात बदलती हुयी बोली- ‘आज बापू की तबियत
ठीक नहीं थी।दो दिनों से स्कूल भी नहीं
गये
हैं।’
‘तो घर में
पड़े रहने से काम थोड़े जो हो जाना है। किसी डॉक्टर से दिखा कर दवा वगैरह लेनी
चाहिए।’- मीना की ओर
देखते हुए विमल ने कहा।
‘दवा लेनी
चाहिए वीमार होने पर- यह सिद्धान्त की बात है, विमल बाबू।’ -सिर झुकाए मीना ने कहा,जिसकी व्याख्या विमल के पल्ले न
पड़ी।स्टियरिंग घुमाते निर्मलजी आहिस्ते से सिर हिलाये।उन्हें यह सिद्धान्त बिना भाष्य के ही समझ आ
रहा था।
पुनः बात विमल ने
प्रारम्भ की- ‘अच्छा मीना! तुम्हारे बापू तो काफी उमरदार
हो गये हैं।अभी कितने
दिनों की सेवा शेष है?’
मीना से प्रश्न
करते हुए विमल अपने पिता की ओर देखने लगा था,मानों इसका उत्तर वेही सही रूप से दे
सकते हैं।
‘नहीं
विमल, बापू की उम्र ज्यादा नहीं
है।अभी
दो-ढाई साल
शेष
हैं सेवा के।’-मीना ने
विमल की शंका का समाधन किया। उसकी बातों का स्पष्टीकरण देते हुए निर्मलजी ने कहा- ‘गरीबी और
अभाव बड़ी खतरनाक बीमारी है।इस बीमारी का वैक्टीरिया कम उम्र में ही बूढ़ा बना देता
है इन्सान को।नित अभाव के अल्कोहल में घुल-घुल कर आदमी, अपनी आयु को स्वयं ही पीछे घसीट लाता
है।इसीलिए तो चिन्ता की तुलना चिता से की गयी है....।’
निर्मलजी कहे जा
रहे थे।मीना उनकी बातों को सुनती हुयी भी अनसुनी किए जा रही थी।क्यों कि वह अपने
ही विचारों में निमग्न थी।उम्र तो महज ग्यारह-बारह की है उसकी,परन्तु परिस्थितियों ने काफी प्रौढ़
बना दिया है उसे। उससे कोई चार-पाँच साल बड़ा है विमल;किन्तु स्वभाव और सोच में मीना से भी
चार-पाँच साल छोटा प्रतीत होता है।उसे कब चिन्ता हो सकती है कि उसके घर में कब
क्या हो रहा है। वस्तुतः अभाव
इन्सान को असमय में प्रौढ़ बना देता है।
मीना जब कोई तीन
साल की थी,तभी उसकी माँ का देहान्त हो गया था।पर उसे अच्छी तरह याद है- जब माँ की
अर्थी निकाली जा रही थी,बापू पछाड़
खाकर रोरहे थे उसके शव पर।पदारथ काका कह रहे थे-‘सांप काटे
को तो जलाना नहीं चाहिए।’ फिर सुदूर किसी गांव से मांत्रिक
बुलाया गया था,जो बहुत
देर तक झाड़-फूंक करता रहा था।पर नतीजा कुछ न निकला था।उसने यह भी आशंका जतायी थी
कि उसका मंत्र तो स्वयंसिद्ध है,पर सर्प ही स्वाभाविक न होकर कृत्या-प्रेषित जान पड़ता है।और
अन्ततः अग्नि-संस्कार सम्पन्न कर दिया गया गया था.......।
मीना सोचे जा रही
थी।गाड़ी चली जा रही थी।यदा-कदा बज उठता गाड़ी का हॉर्न मीना के अतीत-चिन्तन को तोड़,वर्तमान-वीथियों में ला खड़ा कर देता।थोड़ी सुगबुगाहट
होती, किन्तु फिर हॉर्न
के चुप्पी के साथ भूत-चिन्तन प्रारम्भ हो जाता।उसे याद आ गयी अपने पड़ोसन चाची की
बात,जो अनबूझे
ही अपरिपक्व मस्तिष्क-घट में उढेल दी थी- इसके जन्म-पूर्व के बृतान्त-
‘तुम्हारी
माँ को बहुत ही तकलीफ दी जाती थी घर में।उसे सभी बांझी कह कर पुकारते थे।आस-पड़ोस शादी-ब्याह
के अवसरों पर शामिल होना भी वह लगभग छोड़ चुकी थी।हमेशा घर में ही गुमसुम बैठी रहा
करती थी।धीरे-धीरे कोई घातक बीमारी उसे घर कर गयी।वैसे वास्तव में वह तुम्हारी....।’-कहती-कहती
अचानक वह ठहर गयी थी।आगे के शब्द किसी अज्ञात कारण से अटके ही रह गए थे उसके मुंह
में।मीना ने काफी जिद्द किया था,पर बतलायी नहीं।यूँहीं बात बदल कर रह गयी।उसके मौन ने मीना के
सुकोमल मस्तिष्क में अज्ञात भ्रम भर दिया।वह उसका निवारण ढूढ़ने लगी- ‘वह
तुम्हारी......’
के
बाद अनेकानेक शब्दों को बैठा-बैठाकर अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास करने लगी।
तिवारीजी के सन्दूक
में एक तसवीर रखी हुयी रहती थी,जो उनकी पत्नी की थी- मीना के हाथ लग गयी एक दिन;और उसके मस्तिष्क के कनवैश पर कितने सारे
तसवीरों की रचना कर गयी।वह चित्र योगिता के युवत्यावस्था का चित्रण करता था।तिवारी
जी जब कभी
बाहर होते-
मौका
पाकर मीना,बापू की
पेटिका खोल,तसवीर
निकाल,बैठ जाती,घंटों निहारा करती- ममतामयी माँ की
चित्रमूर्ति को।
फिर आईना उठा,उसमें झांक कर ढूढ़ती- अपनी तसवीर को।पर मूर्ख दर्पण उसकी ‘माँ
की बेटी’ की तसवीर न दिखाकर किसी और की ही दिखा जाता। दर्पण के बिम्ब और माँ की
तस्वीर में पर्याप्त वैसम्य पाती।माँ-बेटी का चेहरा इतना अन्तर रख सकता है- यह क्यों कर
सम्भव है? इसका कोई कारण,कोई निदान
उसे ढूढ़े न मिलता।आखिर इसका जवाब पूछे भी तो किससे?
इन्हीं
विचारों
की झाडि़यों में उलझी चली जा रही थी कि विमल ने कंधे पर दस्तक दी-‘मीना! कहाँ
खोयी हो? देखो तो हम हमलोग कहाँ पहुँच गए?’
मीना पहुँच गयी थी
प्रीतमपुर।पहुँची ही नहीं,वल्कि हँसी-खुशी गुजार दी सप्ताह भर।आने के दूसरे दिन ही
उपाध्यायजी ढेर सारे कपड़े ले आए थे- विमल और मीना के लिए।एक साधारण सा फ्रॉक लेकर
तिवारीजी भी आए थे।
एक दिन मीना
नहा-धोकर,निर्मलजी
द्वारा लाए गए वस्त्रों से सुसज्जित, आईने के सामने खड़ी,अपने केश संवार रही थी; तभी अचानक विमल आ
पहुँचा उस कमरे में।कुछ देर,दर्पण में बनते आदमकद प्रतिविम्ब को देखता रहा।फिर सामने आ,मीना को निहारने लगा- आपादमस्तक।मीना
ताड़ गयी- उसकी इस बेतुकी हरकत को।
‘क्या देख
रहे हो विमल,कहीं
कुछ.....?’-झेंपती
हुयी मीना ने कहा,और झटपट
बालों में बैंड लगाने
लगी।
अचानक के इस प्रश्न
से विमल सकपका गया।उसकी चोरी पकड़ी गयी थी।
‘कुछ नहीं
मीना।यूँहीं
देख
रहा था।यह सलवार-फ्रॉक बड़ा ही फब रहा है तुम पर।’- मुस्कुराते हुए
विमल ने अपनी झेंप मिटायी।
‘तो फबने दो।’-तपाक
से मीना ने कहा-‘तुमको क्या इसके निरीक्षण के लिए बुलायी थी कि मेरा
ड्रेस कैसा है?’
विमल की बातों का
मुंहतोड़ जवाब देकर मीना झटपट कमरे से बाहर निकल गयी थी; किन्तु उसकी हरकत
का प्रभाव सारा दिन
उसके
मस्तिष्क से निकल न पाया था।विमल का ध्यान भी बारम्बार मीना के श्रृंगार पर ही टिका रहा,जब कि श्रृंगार के नाम पर कुछ भी नहीं
था-सफेद
सलवार,नीली फ्रॉक,बैंड लगा-
हॉर्स-टेल-हेयर
न
क्रीम,न पाउडर;और
‘गोंद’ का तो सवाल ही नहीं,
जो
चिपका ले किसी की नजर को।पर चिपक गया था- बेचारे विमल का मन।
मीना भी कनखियों से
देख लिया करती,कभी-कभार
उसकी हरकतों को।जब भी देखी,विमल को इधर-उधर चलते-फिरते- उसकी निगाहों को खुद से चिपकी
हुयी ही पायी।हर बार वह शरमा कर परे हट जाती।फिर सोचती- अबर
देखूँगी,
क्या करता है- पर फिर वही पुरानी हरकत।
प्रीतमपुर का
साप्ताहिक प्रवास काफी परिवर्तन ला दिया मीना में।साथ ही विमल में भी।हालांकि
स्कूल में दोनों नित्य ही मिला करते थे,पर इतना अवसर कहाँ मिल पाता था- साथ गुजारने
का! मिलता भी
था जो कुछ,वह
विद्यालयीय वातावारण में बंधा हुआ सा- घिसा-पिटा सा अवसर।पर यहाँ,सप्ताह भर साथ की स्वतन्त्रता दोनों को ही एक दूसरे को समझने का
काफी मौका दे गया।विमल तो चाह रहा था- शादी का यह रस्म अभी और सप्ताह-दो सप्ताह
चलता रहे। नयी-नवेली ‘समवया’ भाभी आयी थी।छोड़कर क्षण भर भी अलग हटने की इच्छा न
हो रही थी।सारा दिन धेरे बैठे रहता।साथ में मीना भी होती; और समय कब फुर्र हो
जाता,पता भी न
चलता।दिन गुजर जाता,रात
आती।भोजनोपरान्त दस बजे बड़ी भाभी या पापा कहते- ‘क्यों
विमल! सारी रात बैठे गप्पें ही लगाते रहोगे?जाओ सोओ न अब...।’
मन ही मन कुंढ़
उठता,और
धीरे-धीरे पांव उठाते दूसरे कमरे में चला जाता। उसके पीछे मीना भी उठ खड़ी होती,अपने शयन कक्ष
की
ओर जाने को;और सबके पीछे ‘मंझलू’ धीरे से जा घुसता ‘उस’ कमरे में,जहाँ से औरों को विवश होकर हटना पड़ा
था।
सप्ताहोपरान्त कुछ
दिन और बीते।कुछ क्या, एक और भी नया सप्ताह गुजर गया।तब एक दिन पापा ने
कहा-‘
विमल, आज तुम लोगों को स्कूल पहुँचा देना है।बहुत
दिन हो गये।सप्ताह भर का ही अवकाश लिया था....।’
और, अपराह्न
भोजनोपरान्त
चल देना पड़ा दोनों को ही-प्रीत की नगरी को त्याग कर,उछृंखलता की नगरी में।
विद्यालय में पहुँच कर पुनः ढल गए-
उस परिवेश में।जुट गए दोनों अपनी
पढ़ाई पर।विमल इधर कुछ अधिक ही ध्यान देने लगा पढ़ाई-लिखाई पर,कारण कि जल्दी ही उच्चत्तर माध्यमिक
की ‘वोर्ड’ परीक्षा में शामिल होना है।साथ ही
पायलट बनने का ख्वाब भी पूरा करना है।इस विषय पर फिर एक दिन मीना से जम कर चर्चा
छिड़ी थी- कॉलेज में दाखिला लेकर ‘कोरे’ स्नातक बनना
विमल को कतयी मंजूर न था।पिता या अन्य के
दबाव में आकर यदि यही करना पड़ा तो बात ही और है।उसके लिए दुनियाँ का सर्वश्रेष्ट नौकरी है- हवाई जहाज उड़ाना। विमल की
बात मीना हमेशा काटती,और कहती-‘इससे तो
खराब कोई नौकरी ही नहीं है...कहाँ से यह
भूत सवार हो गया है तुम्हारे सर पर?’
समय कुछ और सयाना हुआ,साथ ही सयानी हुयी मीना।विमल ने भी
साथ दिया समय का।पायलट बनने का सपना साकार न हो सका।इसमें सर्वाधिक वाधक रही मीना,कुछ अन्य शुभेच्छु भी।फलतः डिग्री कॉलेज में दाखिला लेना
पड़ा।और सबसे बड़ी दुःखद घटना यह थी कि मीना से बहुत दूर हो जाना पड़ा। कमरे की
दूरी जहाँ
भारी
पड़ती थी,वहाँ बीस
मील का फासला...विमल के लिये असह्य सा हो गया।
बड़ी मुश्किल से
दो-तीन सप्ताह पर किसी तरह मिलना हो पाता,खास कर जब मीना रविवार या अन्य अवकाश का लाभ
लेकर माधोपुर
पिता के पास होती। छुट्टी के दिन सबेरे-सबेरे ही विमल अपनी सायकिल सम्हाले पहुँच जाता;
और फिर सारा दिन धमाचौकड़ी में निकल जाता।
कॉलेज का जीवन
लड़कों को एकाएक बौद्धिकता की तराई से खींच कर सीधे चोटी पर ला बिठाता है।फिर विमल इससे अछूता क्यों
रहे? मीना से
कोई पाँच-छः साल पहले वह आया है- इस हरीभरी धरती पर।सत्रह वसन्त देख भी चुका है।फिर
क्यों न पड़े
छाप-
इन सारे सुरम्य चित्रों की,उसके मन-मस्तिष्क पर?मीना अभी बारह से थोड़ी ही ऊपर आयी है,पर कितनी नजाकत आ गयी है
उसमें।यही कोई एक साल हुआ होगा- उस दिन आइने के सामने केश
संवारती मीना कैसे भाग खड़ी हुयी थी,जब गौर से देखा था विमल ने उसके ‘गौर’ मुखड़े को और सीधे
कहने की साहस न जुटा पा सकने के कारण ही तो उसके कपड़ों की प्रशंसा करने लगा था।
इस बार जब दशहरे की
छुट्टी में विमल माधोपुर आया,कोई चार-पांच महीनों बाद भेंट हो पायी मीना से, तब अचानक मीना ने
कह दिया- ‘चन्द पांच महीनों में ही बहुत बदल गये हो
विमल। नाक के नीचे होठों के ऊपर काजल की लकीरें सी खिंच आयी हैं।चेहरे पर अजीव सा सलोनापन छा गया
है।पल-पल छलकता बचपना लगता है,जबरन प्रौढ़त्व ओढ़ लिया है।’
मीना की बात पर
विमल को हँसी आ गयी थी,पर कुछ
कहने के वजाय अपनी नजरों को मीना के चेहरे के हवाले कर दिया था।कुछ देर बाद ही
चेहरे के चिकनेपन से फिसल कर लाचार नजरें नीचे जा गिरी थी- जहाँ फ्रॉक के
उर्ध्वांग पर पर्दानसीन नूतन प्रस्फुटित दाडिम द्वय दृष्टिगोचर हो रहे थे।
देखने-परखने का यह अंदाज विमल ने अपने मंझले भैया से सीखा था; और इस अभिनव ज्ञान
का प्रयोग भी ‘उन्हीं’
नयी
भाभी पर किया था।नारी-सहज स्वभाव वश भाभी का ध्यान अनचाहे ही अपने श्रीफल-द्वय पर
चला गया था,और आंचल
सम्हालने लग गयी थी।मीना के सीने पर आंचल तो न था,और सम्हालने-सहेजने जैसी कोई स्थिति
भी तो न थी।पर सहज-स्वभाव,सहेजने से बेपरवाह भी न होने दिया। विमल की पैनी निगाहें उसे अपने सीने पर चुभती
हुयी प्रतीत हुयी,जो भीतर
घुसकर कर कुछ टटोलती
सी लगी,फलतः सटाक
से सम्हाल
ली
ओढ़नी को खींच कर सीने पर।
मीना की हरकत देख
विमल को हँसी आ गयी- ‘तुम भी तो
बहुत बदल गयी हो मीना।चार-पांच महीने पहले मिला था तब यह ओढ़नी भी नहीं
थी।
अबकी दफा यदि मिलूंगा तो हो सकता है कि यह फ्रॉक भी अपनी जगह बदल लिया हो,तुम्हारे शरीर का साथ शायद इसे भी तब
रास न आए।’
और सही में हुआ भी
कुछ ऐसा ही।दशहरे की लंबी मुलाकात के बाद अगले आठ-नौ महीने गुजर गये।चाह कर भी
विमल आ न पाया माधोपुर,और न मिलना
ही हो सका किसी तरह मीना से।
उस बार जब मध्यवर्ती
परीक्षा देकर ग्रीष्मावकाश में घर आया तो बरबस ही मीना की याद खींच लायी माधोपुर।भाभी के लाख मना
करने पर भी ठहरा नहीं,चला ही आया मीना के गांव।महीने भर की लम्बी छुट्टी पर मीना
भी घर आ गयी थी।उसे देखते के साथ ही विमल कुछ पल तक ठिठका खड़ा रह गया। अपनी खुली
आँखों पर भी यकीन न रहा था।वह सोचने लगा था- ‘क्या यह वही मीना
है जिसे....?’
मीना में परिवर्तन
सच में हो गया था- मोर छाप चौड़े पाड़ की धवल साड़ी,ऊपर में चटकीला लाल ब्लाउज,माथे पर काला सा बेणी-सर्पिणी सा
कुण्डली मारे,केश-गुच्छों
को सहेजे,लिपटा हुआ
था।मिट्टी के मटके में गोबर-मिट्टी-घोल लिए ‘पोतन’ से घर के बाहरी भाग
में बने चबूतरे को लीप रही थी- विमल जिस समय पहुँचा, उसके दरवाजे पर।वह तो अपने काम में म्शगूल
थी।अचानक ही विमल सामने आकर खड़ा हो गया जो काफी देर से पीछे खड़ा,पीठ निहारे जा रहा था।
सामने आने पर दोनों
की आँखें मिली।कुछ देर के लिए वाणी मूक हो गयी- गिरा अलिनी मुख पंकज रोकी,प्रकटि न लाज न्यिा
अवलोकि -की तरह।कुछ देर मौन
बना,मीना के
नेत्र दर्पण में झांक कर,विमल अपने
विम्ब की तलाश करता रहा।वह ढूढ़ता रहा-
आज और अभी भी क्या कुछ अस्तित्त्व शेष है,मीना के अन्तरतम में या
कि....।किन्तु अधिक देर तक टिक न पायी उसकी निगाहें- मीना के मीन दृगों से लम्बा
साक्षात्कार न हो सका,फलतः चारों
ओर घूम कर सर्वांगीण सर्वेक्षण कर डाला;और तब पाया उसने कि इसके सौन्दर्य के सामने
‘सहस्राक्ष’ की दरबारी
अप्सरायें भी फीकी पड़ जांयें।वैसी ही फीकी जैसे कि अगनित तारागण का चमक भी मात्र
एक- हिमांशु की
ज्योत्सना का मुकाबला नहीं कर सकता। मीना के
काय-सौष्ठव पर चम्पा और केशर का सामन्जस्य नजर आया।नेत्रों और कपोलों पर ठहर कर
पंकज और पाटल ने भी अपने भाग्य की सराहना की थी,क्यों कि मीना के सौन्दर्य में उनका
भी योगदान लिया गया था।बिम्बा अपनी रक्तिमा ला छोड़ा था- मीना के अधरोष्ठों पर,किन्तु अभागा मुक्ता अपनी कठोरता के
कारण कोमलांगी के वाह्य काय पर कहीं भी शरण न पा
सका।फलतः लजाकर जा छिपा था भीतर दन्त-पंक्तियों में।इस अनोखे,अनदेखे सौन्दर्य को देखकर बरवस ही
उसके होठों ने बुदबुदाया-
‘इन्दीवरेण
नयना,मुखम्बुजेन,कुन्देन दन्तमधरम्
नव पल्लवेन।
अंगानि चम्पक दलै
सविधाय वेधा,कान्ते कथं घटित वानुपलेन चेतः।।’
‘आदत नहीं
बदली
तुम्हारी,जमाना
कितना भी क्यों न बदल गया हो।मुझे क्यों कोस रहे हो क्या मेरा हृदय
काठोर है या तम्हारा? इतने दिनों तक कहाँ थे? क्या किसी कॉलेजियट परी...।?’-कहती हुयी मीना अपनी जीभ- शरमायी
काली की तरह निकाल दी। आज अचानक उसे क्या हो गया,इतने दिनों बाद विमल को देख कर?किस
अधिकार से उसे उलाहना देरही है?’- सोचती हुयी मीना स्वयं ही शर्म से लाल हो गयी।
विमल का ध्यान अभी
भी मीना के चेहरे पर टिका था।गोबर-मिट्टी के छींटे जहाँ-तहाँ पड़ कर और भी सलोना
कर दिये थे चेहरे को - लगता है,सफेद-लाल वुन्दकियों से दुल्हन के कपोलों को सजाया गया
हो।रस-लोलुप चंचरीक सा काफी देर तक मण्डराता रहा- उसकी निगाहों के श्याम भ्रमर,चम्पा के उस प्रसून पर।फिर पूछ बैठा-
‘क्यों मीना
नाराज हो क्या?’-और जवाब का इन्तजार किये वगैर,इधर-उधर देखते हुए बोला- ‘वापू किधर
हैं?’
‘आते ही
होंगे अब।सुबह से ही निकले हैं,कुछ लकड़ी-बांस के जुगाड़ में।’- मीना ने कहा।
‘लकड़ी-बांस?’- चौंकते हुए विमल ने
कहा-‘क्या करना
है?’
‘मेरी अर्थी
सजाने के लिए।’-हँस कर कहा मीना ने।
‘तेरी या
मेरी? क्या बकती
हो? यह कोई
तरीका है,बात करने का?’- बनावटी रोष पूर्वक
विमल बोला।
‘बात करने
का मेरा ‘सलीका तो गलत है,परन्तु निहारने का तुम्हारा....?’-विमल
की लोलुप दृगों से तंग आकर मीना ने कहा।
मुस्कुराते हुए विमल ने सर से सरका
ली अपनी प्यासी नजरों को, और नीचे पड़े
मिट्टी के मटके को देखने लगा।
विमल को चिढ़ाती हुयी,मीना ने कहा- ‘तुम्हें
क्यों दुःख होता है,मेरी अर्थी
का नाम सुन कर? मैं जीऊँ या मरूँ,इससे तुम्हें क्या वास्ता?’- और हाथ का
मटका एक ओर रख कर,बगल में रखी हुयी बालटी के पानी से हांथ-पांव धोने लगी।
‘तुम्हारी
आदत नहीं सुधरी।कभी तो गुमसुम वुढ़िया बन
जाओगी कभी मसखरी, छल्लो रानी।यह क्या वेष बना रखी हो साड़ी
लपेट कर छः गज वाली?’
‘तो क्या
करूँ,जिन्दगी भर
कच्छी-वनियान में ही रहूँ?जानते हो एक बात?’- आंचल से हांथ
पोंछती मीना ने कहा।
‘क्या?’-आँखें तरेर,हाथ मटकाते हुए विमल ने पूछा,और पास ही पड़ी हुयी खाट पर बैठ गया,यह कहते हुए-‘अब स्वयं
ही बैठना पड़ेगा।इतनी देर से खड़ा हूँ,तुमने मुझे बैठने को भी नहीं
कहा।’
‘तुम क्या
कोई मेहमान हो,जो.....?’-तपाक से मीना बोली।
‘अच्छा बाबा,मेहमान ना,इनसान तो सही।बतलाओ न,कौन सी बात
बतला रही थी?’-पूछा विमल ने।
‘वापू कह
रहे थे,पदारथ काका
से....।’-कहती हुयी मीना पीछे की ओर देखने लगी,जहाँ कुछ आहट का आभास हुआ।
‘क्या कह
रहे थे वापू,कहो न। चुप क्यों हो गयी?’
‘नहीं
कहूँगी
तब।’
‘मत कहो।मैं सुनता भी नहीं
तुम्हारी
बात।’-फिर इधर-उधर देख कर विमल ने कहा- ‘वैसे मैं जानता हूँ,क्या कह रहे होंगे तुम्हारे वापू।’
‘जानते हो, तो बतलाओ।’
‘नहीं
बतलाउँगा,तब?’
‘इसका मतलब, जानते ही नहीं।झूठी डींग हांक रहे हो।अच्छा, छोड़ो,मैं ही बतला देती
हूँ।मगर तुम पहले ये बतलाओ कि कब आए बाहर से?’
‘कल शाम।’
‘और आज ही यहाँ चले
आए? आगये,सो अच्छा किये।रूकोगे न आज यहीं
पर?’-मीना
पूछ ही रही थी कि पीछे की ओर धड़ाक की आवाज सुन,दौड़ कर कमरे में होते हुए पिछवाड़े
की ओर भागी,यह कहते
हुए कि लगता है,वापू आ गए।
कंधे पर से लकड़ी-बांस का गट्ठर एक
ओर पटक कर तिवारी जी इस ओर आए, जिधर विमल
बैठा था।उधर पहुँचकर मीना उन्हें पहले ही बतला चुकी- उसके बारे में।
‘अरे विमल
बेटे! इधर क्यों बैठे हो?भीतर आ जाओ।धूप भी लग रही है।’-फिर मीना की ओर मुखातिब होते
हुए बोले-
‘कुछ
खिलायी-पिलायी भी या यूँ हीं धूप में सुखाये जा
रही हो?’
‘अभी अभी तो
आया ही है।कई बार कही उसे,अन्दर आकर बैठने को। परन्तु कहने लगा कि बाहर ठण्ढी हवा लग
रही है।’- मीना की धवल
मिथ्या पर विमल मुस्कुराते हुए उठकर अन्दर आ गया।
अन्दर क्या? मात्र डेढ़ कमरा
यानी एक ही कमरे को बीच से पार्टीशन देकर दो कमरे का रूप बनाया हुआ।पीछे की ओर छोटा सा
आंगननुमा खुला भाग- बस यही थी उनकी गृह-परिसीमा। वहीं
खाट
पर बैठते हुए तिवारी जी ने कहा- ‘जगह छोटी है।बड़ी परेशानी होती
है।सोचता हूँ-इसी दीवार को थोड़ा ऊँचा कर दो-चार ‘मिट्टी’ देकर।फिर
लकड़ी-बांस से पाट दूँगा
ताकि
ऊपर कुछ जगह
निकल आए,सामान रखने के लिए।’
‘इस ‘फूस-फास’ को हटाकर,खपरैल क्यों नहीं
डाल
देते?’-मीना और विमल ने एक साथ,एक ही सवाल किया।
लम्बी सांस लेकर
तिवारी जी ने कहा- ‘क्या खपरैल और क्या ‘लिंटर’कुछ
दिन की की तो बात है,मीना अब
सयानी हो गयी है।साल दो साल के भीतर छोड़ कर चली जायेगी मुझे।फिर अकेली जान,जहाँ सांझ वहाँ विहान।घर बना कर क्या
करना है?’
वापू की बातों पर शरमाती हुयी मीना
आंगन की ओर चली गयी।कमरे में विमल और तिवारी जी रह गये।
विमल ने कहा- ‘आते वक्त
पापा ने कहा था,मीना को
लेते आने के लिए।भाभी भी कह रही थी।यदि आपकी अनुमति हो तो कल गाड़ी लेकर आ जाता।’
‘गाड़ी-छकड़ा
की क्या बात है,जब जी हो जा-आ सकती है।तुम्हारा घर, अपना घर- कोई दो थोड़े जो है।विमल
बेटे! मीना पर जितना अधिकार निर्मलजी को है,उतना तो मैं अपना भी नहीं
समझता।आज
यदि उनकी कृपा न होती तो मीना जो आज है वह न होती।’-तकिये का ढासना लिए तिवारी जी
कहते रहे- ‘अब तो नवीं
समाप्त
करने जा रही है।इसी बीच कहीं योग्य वर देख कर इसे बैठा देना है,हाथ पीले करके।सोचता हूँ,एक दो दिन में इस मिट्टी-पानी के काम
से निपट लूँ, फिर पदारथ भाई को
साथ लेकर
प्यारेपुर
जाऊँ।वहाँ एक लड़का है।सुना है- बड़ा ही अच्छा है।ईश्वर कृपा यदि सस्ते में पट जाए तो चट-पट शादी
कर डालूँ।मेरी नौकरी
भी
अब तो कुछ ही शेष रह गयी है।पेंसन का जो पैसा मिलता,उसे लगा देता मीना में ही.......।’- तिवारीजी
कहते रहे,विमल सुनता
रहा।बीच-बीच में हाँ-हूँ भी कर दिया करता।किन्तु उसे कुछ अजीब सा लग रहा था। मीना
सयानी हो गयी...अब उसकी शादी हो जायेगी...क्या सच में सयानी हो गयी? क्या सच में शादी
हो जायेगी?’-विमल सोचने लगा,और
भाभी
का कथन याद हो आया- ‘विमल बाबू, बहुत पटती है न
आपको मीना से? हरदम उसकी ही याद में डूबते-उतराते रहते हैं।
कहीं कुछ ऐसा-वैसा चक्कर तो नहीं?’-
आँखें
मटकाती हुयी भाभी हँसने लगी थी।आज जब घर से चला उस वक्त भी भाभी हँस रही थी,यह कहते हुए- ‘मीना
दुल्हन से मिलने जा रहे हो न विमल बाबू? मुझे नहीं
मिलवाओगे?’
विमल सोचने लगा-
भाभी ऐसा क्यों सोचा करती है? क्या मीना विमल की दुल्हन है....? जो भी हो दुल्हन हो,ना हो,देखने में तो बहुत ही सुन्दर लगती
है- विमल की दोनों भाभियों से सुन्दर। वे दोनों समृद्ध घराने से आयी हैं।अच्छे-अच्छे कीमती कपड़े
पहना करती है®।आधुनिक
श्रृंगार-प्रसाधनों से सुसज्जित रहती हैं; फिर भी मीना उनसे ज्यादा अच्छी दीखती है- साधारण कपड़ों
में भी,विना किसी
साज-श्रृंगार के।सुन्दरता कपड़ों से थोड़े जो आती है।कपड़ा तो सुन्दरता के
परिष्कार के लिए है....।
फिर सोचने लगता है-
आज की ही बात- मीना उस समय कैसी लग रही थी! मछलियों सी चंचल-कजरारी आँखें, आम की फांक सी बड़ी-बड़ी आँखें,आह कैसी मोहक हैं- उसकी आँखें।गुलाब सा मुखड़ा,मैली साड़ी में भी लग रहा था,मानों बदली को चीर कर पूनम का चाँद निकला हो।--विमल सोचे
जा रहा था,सोचे जा
रहा था।
मीना
नास्ता बना कर ले आयी।हाथ में पकड़े तस्तरी को झुक कर खाट पर रखने लगी।झुकने के
क्रम में दोनों का चेहरा थोड़ा समीप हुआ।मिट्टी की
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