गतांश से आगे....
ओझाजी की बात पर उपाध्यायजी झुंझलाकर बोले- ‘आप भी अजीब
हैं ओझाजी।यहाँ
मीना बेटी की जान पर पड़ी है; और अपको लग्न-मुहूर्त ही सूझ रहा है।जो होगा देखा
जायेगा।आगे क्या फिर मुहूर्त ही नदादथ हो जायेगा ‘मुहूर्त
चिन्तामणि’ से? फिर
तिवारीजी की ओर देखते हुये बोले- ‘अच्छा होता हमलोग इसे अस्पताल ले चलते।घंटा
भर से अधिक हो गया, अभी तक होश नहीं
हो
पाया।’
‘यही तो मैं भी सोंच रहा हूँ।’-तिवारी जी ने कहा- ‘पहले इसी
दवा से १०-१५ मिनट में होश हो जाता था।आज लगता है गहरी चोट के कारण दवा भी बेअसर
हो रही है।’
‘देख ही रहे
हैं- चोट कितनी
गहरी है।खून भी काफी निकल गया है।जल्द ही बाहर ले चलना चाहिये।’- उपाध्याय जी के
कहते ही तिवारीजी तैयारी में जुट गये।
उपस्थित औरतों में
कानाफूसी होने लगी।एक ओर मुंह लटकाये, कोने में
पदारथ ओझा खड़े रहे- किंकर्त्तव्यविमूढ़।
वहीं
एक
ओर विमल भी खड़ा था,और उसके
सामने खड़ा था- अट्टहास करता अदृष्ट- मुंह चिढ़ाता हुआ सा।उसे लगने लगा मानों इस
अस्वस्तिकर घटना की सूचना का ‘वार्निंगबेल’ पहले ही उसके
मस्तिष्क में बज चुका हो- बर परिछन के बाद जैसे ही आगे बढ़ा था अपने घर से,काली बिल्ली सामने से दौड़ती हुयी
बायें से दायें निकल गयी थी।रास्ते भर उसकी बायीं
आँख
भी फड़कती रही थी।उसने यह भी देखा था कि चलते समय बड़ी भाभी अपनी नाक मल कर,छींक रोकने का प्रयास
करने में विफल रही थी।पर मदमस्त जवानी के
धुन में, आधुनिकता के रंग में ‘दकियानूसी
विचार’ कह कर टाल
दिया था-
प्रकृति
के इन संकेतों को।
‘तो क्या यह
सब पूर्वाग्रह नहीं कहा जा सकता? ओफ! अनर्थ हो
गया।खैर जो भी हो,ईश्वर करें
मीना जल्दी ठीक हो जाय।’- स्वयं को ही समझा कर सान्त्वना प्रदान कर रहा था विमल-‘
ज्यादा
घबराने की कोई बात नहीं।ऐसी बेहोशी तो वह पहले भी देख चुका है।आज चोट के कारण कुछ ज्यादा है।ठीक तो
होना ही है।रही बात शादी की...वह तो कभी भी हो सकती है।वाग्दान हो ही गया है।बापू
तैयार हैं।मीना राजी
है।फिर ना का सवाल कहाँ पैदा होता है? आज न कल...आज भी वह मेरी ही है। वरण हो चुका है।न जाने
कितने ही ‘बन्ने’और ‘जोग’ गाये जा चुके हैं...हमदोनों के नामों
को सम्पुटित कर-करके।बाकी तो रहा सिर्फ कन्यादान,और फिर...फिर क्या...कुछ नहीं...।’
विमल सोंचता
रहा।उसका कोमल,किशोर हृदय
ऐंठा जा रहा था-केंचुये की तरह।लगता था,जैसे भीमकाय बर्बर हाथों द्वारा मसला जा रहा
हो,कोमल कलिका को
निचोड़ा
जा रहा हो।
तिवारीजी ने उसके
कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- ‘चलो बेटे! चला जाय
अब अस्पताल।मेरे भाग्य में यही वदा है।खुशियों की झोली हाथ आकर भी दूर हो गयी।’
बूढ़े तिवारी की
आँखें बरसने लगी।उन्हें देख,देर से दबाया गया विमल के नेत्र का सोता भी फूट पड़ा।फफक कर
रोने लगा बच्चों की तरह।सही में बच्चा ही तो था- उम्र में भी,प्रेम में भी...।
सविता की इच्छा
हुयी, उसे भी साथ चलने
की- अस्पताल तक।क्यों कि बेचारी का हृदय फटा जा रहा था।उसे लग रहा था- इस घटना का
वास्तविक गुनहगार वही है।उसने ही तो छेड़ दी थी आज- अतीत-बीणा के बेसुरे तारों को।
तभी से मीना का ‘मूड’ बदल गया था।सविता
स्वयं की करनी पर पश्चाताप करने लगी।
‘मेरे ही
चलते हुयी उसकी यह दुर्गति...हे भगवान! मीना बेटी को कुछ होने न पाये...हे
ईश्वर!...’- भावावेश
में कितने ही देवी- देवताओं की मनौती कर गयी सविता।फिर साहस करके तिवारीजी से
बोली-‘मैं भी साथ चलती तो
क्या हर्ज?’
तिवारीजी के विचार
से तो वस्तुतः कोई हर्ज नहीं,किन्तु वहीं कोने में खड़े पदारथ कांप गये।उन्हें तो
भारी हर्ज लग रहा था।नारी की कमजोरी का उन्हें भय था।कहीं
भावावेश
में आकर सविता उगल न दे कुछ उलटा-सीधा- इसी बात का भय था पदारथ ओझा को।फलतः मुंह
से हठात ही निकल पड़ा- ‘तुम भी जाओगी भाभी?’
‘क्या हर्ज
है, जाने दो
पदारथ भाई।’- नम्र स्वर
में कहा तिवारीजी ने,जिन्हें
पदारथ के अन्तःकम्पन का ज्ञान न था।हालाकि ज्ञान रहने से भी अब क्या होना था? बाकी
ही क्या रह गया है अब? सब तो उगल चुकी है सविता।तिवारी जी भी जान चुके हैं- पदारथ की
करतूत।सिर्फ एक बात रह गयी है- जिसे जान न पाये बेचारे तिवारीजी- मीना ही है वह ‘लघु सविता’।
खेमे उजड़
गये।रौनक बदल गयी।रात वही रही।बारात लौट चली।बिन ब्याही दुलहन बिदा हो गयी घर
से।दरवाजे पर खड़ा आम का पेड़ रो रहा था। ओस की बूंदें टपक-टपक कर सूखी धरती को
जगा रही थी- देखो- आज मीना जा रही है।जा रही है।पता नहीं
कब
आवे वापस इस झोपड़ी में,वह भी किस
अवस्था में! आम्रवृक्ष अफसोस कर रहा था-ओफ! कितना जल्दी गुजर गया समय।अभी ठीक से
सोलह साल भी तो नहीं हुआ है,जब एक दिन मौका मिला था- अपने मूल के
गावतकिए पर सिर रखकर सुलाया था नवजात मीना को।
उसी रसाल वृक्ष के
कोटर में गौरैयों का एक परिवार भी रहता था। आम्र का रूदन सुन उसकी भी निद्रा भंग
हो गयी।चूँ..चूँ..चूँ...कि करूण ध्वनि से विलाप करते हुए,उसने भी अपने कर्त्तव्य निष्ठा की
याद दिलायी-
‘तूने तो सिर्फ
तरूमूल का तकिया दिया था...मैंने तो सींचा था उसके शुष्क कंठ को...भूल गये...हमलोग सोच ही
रहे थे, उसे उठाकर ले चलने
को अपने कोटर में,कि तभी
तिवारी बाबा आ पहुँचे...
कोटर में बैठी
गौरैया विलाप करती रही।पर किसी ने ध्यान नहीं
दिया।
अपने धुन में मस्त मानव को क्या पता है कि प्रकृति के कण-कण में आत्मा बसती है!
दुर्घटनाग्रस्त
दुल्हन और चिन्ताग्रस्त दुल्हे को लेकर निर्मल उपाध्याय लौट चले।साथ में चली सविता,और चले तिवारीजी उदास, मन मारे हुए।शेष तीन वाराती-विमल के दोनों
भाई और विठुआ,गाड़ी में
जगह न रहने के कारण वहीं ठहर गये।निर्मलजी
ने कहा-‘मीना को
अस्पताल पहुँचा कर मैं
आऊँगा।तब
तक तुमलोग यहीं रूको।’......और गाड़ी चल पड़ी।
मीना की स्थिति
पूर्ववत ही रही।होश में आयी नहीं अब तक। रक्तस्राव
लाख कोशिश के बावजूद पूरे तौर पर थम न पाया।हालांकि पट्टी बाँधने के बाद हल्की कमी
आयी थी।किन्तु गाड़ी की गतिशीलता के साथ पुनः जारी हो गया।मीना का शरीर धीरे-धीरे
नीलाभ होने लगा।लोगों की चिन्ता बढ़ने लगी।सभी अपने-अपने ढंग से चिन्ता व्यक्त कर
रहे थे।
कोई डेढ़ घंटे के
अथक प्रयास के बाद किसी तरह बेढंगी कंटकाकीर्ण कच्ची सड़क पर धीरे-धीरे गाड़ी
चलाते हुए निर्मल जी अस्पताल पहुँचे।
सरकारी बड़े
अस्पताल के आपात कक्ष में मीना को स्थान दिया गया। डॉक्टर आए।निरीक्षण-परीक्षण कर
चिन्तित मुद्रा में बोले- ‘आपलोग बहुत देर कर दिये हैं।ब्लीडिंग बहुत हो गया है।तत्क्षण
खून की आवश्यकता है...।’
तिवारीजी ने
आश्चर्य और चिन्ता व्यक्त की- ‘कटान तो थोड़ा ही
है...पर इतना रक्तस्राव...ओफ! कहाँ से लाया जाय खून इस समय? निकट में ब्लड बैंक भी तो नहीं
ही
है।’
‘डॉक्टर!
यदि मेरा ब्लड मैच करता हो तो यथाशीघ्र दे दें।’- कहा विमल ने। फिर
स्वयं ही सोचने लगा- ‘रक्त के अणु-अणु में तो मीना का
प्यार व्याप्त है,फिर क्यों
न मेल खायेगा उसके ग्रूप से!’ किन्तु काश ऐसा होता! गहन प्रेम रक्त की धार को भी बदल
देता...!
कूल्हे पर इन्जेक्शन
लगाते हुए डॉ.सेन ने कहा-‘ठीक है।जाँच कर लिया जा रहा है,आपके खून का।!- और एक पुर्जा लिख
कर विमल के हाथ में देते हुए बोले- ‘रूम नम्बर बीस में
चले जांय।वहीं जांच हो जायगा।’
बेड से उठा कर मीना
को शल्य कक्ष में ले जाया गया।साथ में उपाध्याय जी भी गये।तिवारीजी जाने को आगे
बढ़े,किन्तु एक
साथ डॉक्टर और निर्मलजी ने यह कह कर रोक दिया कि अभी आपलोग बाहर ही इन्तजार करें।’
थोड़ी देर बाद हाथ
में पुर्जा लिए,मुंह
लटकाये विमल वापस आया। उसके हाथ में दो पुर्जे थे।एक पर मीना के रक्त का एवं दूसरे
पर विमल के रक्त का
रिपोर्ट अंकित
था।विमल का रक्त प्रेम तुला पर तुल न पाया।नाकामयाब रहा। तिवारीजी का मुंह काला
पड़ गया।
‘क्या होगा
इस हालत में?’-कहते हुए
तिवारीजी चल पड़े, विमल के हाथ से
पुर्जा लेकर,परीक्षण-कक्ष
की ओर-अपने स्नेह का परीक्षण कराने। साथ में सविता भी चली।
‘मधुसूदन
बाबू! मेरा खून जांच करवाकर देखें।हो सकता है मेल खा जाय। मीना बेटी की जान से बढ़
कर मेरे खून की कीमत थोड़े ही है।’-साथ चलती सविता ने कहा।
विकल-चिन्तातुर तिवारीजी
परीक्षण कक्ष में प्रवेश किये।कमरे के बाहर ही दरवाजे के पास,दोनों हाथों से सिर थामें सविता
चिन्तित, दुःखी,घबरायी हुयी सी प्रतीक्षारत खड़ी
रही-‘काश! मेरा
खून कामयाब हो जाता...मीना को फिर एक बार अपने रक्त से सिंचित कर नया जीवन....।’
थोड़ी देर बाद बाहर
आकर तिवारीजी ने हाथ के इशारे से उन्हें भीतर बुलाया।अबकी परीक्षा की बारी
थी-सविता की। तिवारी जी तो परीक्षित हो चुके।
‘आपलोग
थोड़ी देर बाहर इन्तजार करें।’- रक्त के नमूने लेने के बाद परीक्षक ने कहा।
दोनों ही बाहर आकर
बेंच पर बैठ गये।दोनों के मन-मस्तिष्क में तूफान मचा हुआ था।मगर अलग-अलग रूपों
में।सविता के नेत्रों से निर्झरणी फूट-फूट कर उसके विगत कर्मों का परिमार्जन करता
रहा,जिन्हें
अपने आंचल में छिपाने का असफल प्रयास करती रही।
उधर विमल शल्य-कक्ष
के दरवाजे से कान लगाये,अन्तर्ध्वनि को सुनने का प्रयास करता रहा।किन्तु शल्य-कक्ष
के स्थान पर उसके, स्वयं के
प्रेम-कक्ष की अन्तर्ध्वनियाँ ही प्रतिध्वनित होकर गूँजती रही उसके कानों में-
अनहत नाद के कलरव की तरह।
अभी इसी रसहीन काठ की कठोर चादर से
मुंह सटाये अपने दिल की करूण रागिनी सुन ही रहा था कि उधर से तिवारीजी आते हुए नजर
आये।उनके हाथ में एक पुर्जा था।तिवारी जी फहराती मूंछें किसी आसन्न विजयी
राष्ट्रध्वज सी लहराती हुयी प्रतीत हो रही थी।विषाद के इन क्षणों में भी होठों पर
हर्ष की टुकड़ी नजर आयी- लगता है,विजय का सेहरा पिता के माथे पर ही बँध गया-
सोचा विमल ने,और दरवाजे से अलग हटते हुये पूछ बैठा-‘क्यों वापू! ब्लड-ग्रूप मैच किया आपका?’
काफी देर से उदास आनन पर कुछ देर पूर्व आ बैठी
मुस्कुराहट अपनी मद्धिम आभा विखेर गया।
‘खून तो मिल
गया।परन्तु मेरा नहीं सविता भाभी का।’- कहते हुए तिवारी जी के कानों में किसी
अज्ञात लोक की मधुर ध्वनियाँ गूँजने लगी- ‘वही तो है माँ...फिर
क्यों न....।’
तिवारीजी के हाथ से पुर्जे को लेते
हुए विमल ने पूछा-‘कहाँ हैं सविता चाची?’; और उत्तर की
प्रतीक्षा किये वगैर शल्य कक्ष की ओर चल दिया।
‘वहीं
हैं अभी।डॉक्टर ने कहा है,उन्हें थोड़ी देर विश्राम करने के
लिए।’-कहते हुए तिवारीजी भी विमल के पीछे हो लिए।
प्रतीक्षा कक्ष का द्वार खुला।डॉ.
सेन बाहर आये।पुर्जा उनके हाथ में देते हुए विमल ने पूछा-‘कैसी है
मीना?’
‘ठीक
है।ब्लीडिंग बन्द हो गया है।’-विमल के हाथ से पुर्जा लेते हुए डॉ.सेन ने कहा-‘अब आपलोग
चिन्ता न करें।खून मिल गया तो समझिये की नया जीवन मिल गया।’
कुछ देर बाद
निर्मलजी बाहर आये।डॉक्टर के कथनानुसार मीना की स्थिति अब सन्तोषजनक थी।खून चढ़ाया जा रहा था।घड़ी देखते हुए
निर्मलजी ने कहा- ‘चार बज रहे हैं।मैं तब तक हो आता हूँ,माधोपुर से उनलोगों को घर पहँचाकर।’
उपाध्यायजी की
गाड़ी फिर एक बार कच्ची सड़कों पर रेंगने लगी।हाँ, रेंग ही रही थी,दौड़ने की शक्ति शायद समाप्त हो चुकी थी।फिर दौड़ने का उत्साह भी कहाँ?
प्राच्य क्षितिज अरूणाई लिए सूर्य के
आगमन की सूचना देने लगा था। उनींदी पलकों पर से आलस को खदेड़ दोनों बहुयें प्रातचर्या
में लग गयी थी- इस खुशी में कि अब उन्हें तीन हो जाना है।पूर्व परिचित नयी बहू के
स्वागत की तैयारियाँ होने लगी थी।गोबर से लीप-पोत कर चौरेठा और हल्दी-कुमकुम से
दरवाजे पर रंगोली बनायी जा चुकी थी।सुसंस्कृत दक्षिण भारतीय ढंग से वाह्य प्रांगण
के जमीन पर लगता था- किसी कुशल शिल्पी द्वारा कारचोबी का काम किया गया था।
प्रत्याशित समय से
पूर्व ही गाड़ी का हॉर्न सुन चौंक पड़े घर में सबके सब।
दोनों पुत्रों सहित
विठुआ को लेकर उपाध्यायजी घर पहुँचे- प्रीतमपुर।औरतें दौड़ कर बाहर दरवाजे पर
दाखिल हुयी।उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि इतनी जल्दी बहू कैसे आ गयी।
परन्तु गाड़ी जब
गेट के अन्दर आ घुसी- दुर्दान्त दस्यु के कटार की तरह तो सब सन्न हो गये।न दुल्हा,न दुल्हन,और न किसी के चेहरे पर चमक।गले से
फूट पड़ती परिछन की मधुर रागिनी-
‘धन-धन
भाग्य तोहरा निर्मल देव,बेटा पूतोह
घर आयो जी....।’-कंठ में ही अंटकी रह गयी,मानों किसी ने अचानक गला दबोच दिया हो। ‘वे लोग
पीछे से आ रहे हैं क्या?’-साहस बटोर
कर बड़ी ने पूछा, और निर्मल का जवाब
सुन मानों धरती ही खिसक गयी हो,उनलोगों के पांव तले की।
‘हे भगवान!
ये क्या हो गया?’-
एक
साथ ही दोनों के मुंह से निकल पड़ा। छोटी को दमित छिक्का की याद आ गयी,जिसे चाह कर भी बड़ी ने दबा न पाया
था।काली बिल्ली ने फिर एक बार रास्ता काट दिया-मस्तिष्क का।
‘चाय पिलाओ
बहू।तुरत ही जाना है अस्पताल।’-गमगीन चित्त,सोफे पर लेटते हुए उपाध्यायजी ने कहा।
थोड़ी देर बाद
गाड़ी फिर चल पड़ी अस्पताल की ओर, निर्मलजी
के साथ दोनों बहुओं को लेकर।इस बार गाड़ी लगभग दौड़ रही थी।मगर उत्साह से नहीं,बल्कि
चाबुक की मार पर,हांफते-दौड़ते
टमटम के थके घोड़े की तरह।
अस्पताल पहुँचने पर
मालूम हुआ कि मीना की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं
हुआ
है।खून चढ़ाने का काम पर्याप्त मात्रा में हो जाने पर भी,होश अभी तक नहीं
आया
है।- ये जानकारी दिये तिवारीजी, जो बाहर
वरामदे में ही बेंच पर उदास मुंह लटकाये बैठे हुए थे।
सविता को वहाँ न
पाकर,जिज्ञासा
स्वाभाविक थी निर्मलजी की। उनके पूछने पर बतलाया तिवारीजी ने- ‘खून देने
के बाद भाभी काफी कमजोरी अनुभव कर रही थी।चलने में चक्कर आ रहा था।अतः बगल के कमरे
में लेटी हुयी हैं।’
‘आइये भाभी।’- कहता हुआ विमल,दोनों भाभियों को साथ लेकर सविता के
कमरे की ओर बढ़ चला।उपाध्यायजी वहीं बेंच पर बैठ,तिवारी से बातें करने लगे।
पूर्वाह्न
करीब
दस बजे जीवन-मृत्यु से अनवरत जूझती मीना ने आँखें खोली। उस समय उसके पास मात्र एक
परिचारिका बैठी थी। डॉक्टर ने मना किया था- परिवार के लोगों को,फिलहाल पास न रहने के लिए।
आँखें खोल,एक बार पूरे कक्ष का निरीक्षण किया
मीना ने,जो उसे
बिलकुल ही अपरिचित सा लगा।न तो वहाँ उसे कूलर नजर आया,न सोफा,न सेल्फ,न पलंग, न ड्रेसिंग टेबल ही,जिसे वह ढूढ़ रही थी- आँखें घुमा-घुमा कर।यहाँ तक कि कोई व्यक्ति
भी न मिला- सुपरिचित।हाँ,बगल में
सिर के पीछे से आकर एक अपरिचिता को खड़ी अवश्य पायी।फटी-फटी प्यासी आँखों से उसे
आपादमस्तक निहार गयी; किन्तु उसके सर्वांगीण निरीक्षण के बावजूद पंचफुटी काया के
किसी भी कोशिका को परिचित कहने से अस्वीकार कर दिया उसका मस्तिष्क।
‘आप कौन हैं? यह जगह कौन सी है?कमल
कहाँ है? अस्फुट
स्वर होठों से निकले।
‘अभी बुलाती
हूँ।’- उसके
प्रश्नोत्तर की अवहेलना करती हुयी परिचारिका
बाहर निकल गयी किवाड़ खोल कर।
उसके जाने के बाद मीना के हाथ अचानक
माथे पर गये,जिसका
अधिकांश पट्टियों से ढका हुआ था।
‘यह क्या, मेरे माथे पर पट्टी
कैसी? तो क्या यह
हॉस्पीटल है?’ अपने आप से
सवाल-जवाब करती मीना फिर इधर-उधर देखने लगी।आस-पास के अपरिचित दीवारों से परिचय
प्राप्त करने का प्रयास करने लगी।तब उसे लगा कि वह ‘मारवाड़ी
रिलीफ सोसायटी’ अस्पताल के
किसी कक्ष में है।किन्तु यहाँ कब-कैसे-क्यों आयी- के कई प्रश्न उदित हो आये उसके
मानस पटल पर,और साथ ही
बदन में जोरों का दर्द भी अनुभव होने लगा।उठकर बेड पर बैठना चाही, पर हिम्मत जवाब दे गया।
तभी कई जोड़ी आँखें
एक साथ घुस आयी कमरे में,और बड़े
हसरत से घेर ली उसके बेड को।सबके होठों से समान सा सवाल उभरा- ‘कैसी हो
मीना?’
किन्तु इस प्रश्न
का जवाब वह जिसे देना चाहती थी,चारों ओर निगाह दौड़ाने के बावजूद,दीख न पड़ा वहाँ उपस्थित चेहरों
में।सबके सब अपरिचित ही थे।यहाँ तक कि पूर्व दर्शित- जिसे आँखें खोलने के बाद पहली
बार देखी थी,वह भी नजर
न आया।उसे समझ न आ रहा था कि आज एक साथ इतने सारे शुभेच्छु कहाँ से आ उपस्थित हो गये!
मौन मीना के म्लान
मुख को निहारते हुए इर्द-गिर्द उपस्थित विभिन्न आकृतियों से भिन्न-भिन्न प्रश्न
उभरे- ‘कैसी हो
मीना?...तबियत तो ठीक है? ....क्या हो गया तुझे अचानक?....चक्कर आ गया था?...उपर क्यों चढ़ गयी थी?...क्या
काम आ पड़ा था?....कैसे गिर गयी?...दर्द कहाँ है.....?
किन्तु इनमें किसी
भी प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक प्रतीत न हुआ उसे।ये सबके सब औपचारिक प्रश्न से
लगे उसे,-
अकाल
पीड़ितों की सरकारी सहायता की तरह।उन प्रश्नों से उसे मात्र इतना ही हल मिला कि
किसी प्रकार गिर कर ही वह चोट-ग्रस्त हुयी है,जिसके कारण उसे अस्पताल में भर्ती
करा दिया गया है।
परिचारिका पुनः
कमरे में आयी।उसके पीछे-पीछे साथ में एक और
अपरिचित ने प्रवेश किया,जो शक्ल-सूरत से डॉक्टर प्रतीत हो रहा था।हाँ, डॉक्टर ही,कारण कि परिचय-पत्र स्वरूप उनके गले
में स्टेथोस्कोप की माला लटक रही थी।
‘आपलोग इसे
ज्यादा डिस्टर्व न करें।’-कहते हुए डॉक्टर ने स्टेथोस्कोप उसके सीने से सटा दिया,किसी विरही की बाहों की तरह।फिर
बी.पी.टेस्ट भी किया,जिसका
पारदीय दाब उसके स्वास्थ्य का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा था।
‘क्या पोजीशन
है डॉक्टर?’-निर्मलजी ने पूछा,जिसके साथ ही कई कान खिंच गये उस ओर,डॉक्टर का जवाब सुनने के लिए।
‘ठीक
है।बिलकुल ठीक।किन्तु अति दुर्बल मर्म प्रताडि़त हुआ है,फलतः सावधानी की आवश्कता है।अभी
ज्यादा छेड़-छाड़ न किया जाय रोगी के साथ।’- बाहर निकलते हुए
डॉक्टर ने धीरे से कहा।
तभी मीना ने तेज
स्वर में कहा- ‘प्लीज कम हियर डॉक्टर।’
‘क्या बात है?
कोई दिक्कत?’- पलट कर
पीछे आते हुए डॉक्टर ने बड़े स्नेह से पूछा।पूर्ववत तीव्र स्वर में ही जवाब भी
मिला- ‘कोई दिक्कत
नहीं है,
यही
सबसे बड़ी दिक्कत है।’
‘मतलब?’-आश्चर्य
चकित डॉक्टर ने पूछा,और पास आकर
मीना का नब्ज
टटोलने लगे,मानों क्लिष्ट शब्दों का कोष पलट रहे हों।
‘मतलब यह कि
मुझे कोई तकलीफ नहीं है।फिर इस कदर कैद
सा क्यों रखा गया है? मैं कहाँ हूँ? कहाँ है मेरा कमल?’-बड़ी-बड़ी
आँखों से प्रश्नात्मक दृष्टि डॉक्टर के चेहरे पर डालती हुयी मीना ने पूछा,और उठने का प्रयास करने लगी।
सिर के नीचे अपने
हाथ का सहारा देकर डॉक्टर ने तकिये के सहारे बैठा दिया,और पीछे मुड़ कर प्रश्नात्मक दृष्टि
उपस्थित लोगों पर डाली,जो जानना
चाहती थी कि कमल कौन है।
‘विमल यहीं
है
मीनू बेटे।’-कहते हुये तिवारीजी ने बगल में खड़े विमल की बांह पकड़ कर मीना के
बिलकुल निकट खड़ा कर दिया,जो अब तक पीछे उदास खड़ा शून्य में निहार रहा था।
‘यह विमल है,मेरा छोटा लड़का।इसी के साथ मीना की शादी
हो रही थी,तभी अचानक
दुर्घटना घट गयी।’-डॉक्टर की शंकित नेत्रों का समाधान करना चाहा उपाध्याय जी ने।
‘किन्तु यह
तो कमल को ढूढ़ रही है।कमल कौन है?’- डॉक्टर ने पुनः शंका व्यक्त की।
‘लगता है कि
नाम विस्मृत हो गया है,चोट के
कारण।’- तिवारी जी
ने कहा।
‘नहीं
डॉक्टर!
मुझे कुछ भी विस्मृत नहीं हुआ है।फिर भी मैं कह नहीं
सकती
कि ये लोग कौन हैं।’-उपस्थित लोगों
को इंगित करते हुये मीना ने तीखे स्वर में कहा।
‘मुझे
पहचाना नहीं बेटे! मैं तुम्हारा बापू...मुझे पहचानी नहीं
मीना
बेटी मैं तुम्हारा पापा,और ये रही तुम्हारी दोनों
भाभियाँ...मैं सविता हूँ मीना बेटी...तुम्हारी...।’- एक साथ कई ‘परिचय-पत्र’ स्वरवद्ध होकर उभर
आये, कमरे के वातावरण
में- अपने खोये रिस्तों को उजागर करने के लिए। बेचारा विमल वुत्त बना खड़ा रहा एक
ओर।सिर्फ इतना ही कह पाया- ‘मुझे भी नहीं
पहचानी
मीनू?’
‘मैं किसी को भी नहीं
पहचानती
डॉक्टर! किसी को भी नहीं। कोई भी नहीं दीख रहा है इनमें
मेरा अपना।न मम्मी,न पापा,न मेरा कमल।’- क्रोध भरे स्वर में
मीना ने कहा,और विमल की
ओर अंगुली का इशारा करती हुयी बोली- ‘ये जो जनाब अपने आप
को मेरा पति घोषित कर रहे हैं,इन्हें मालूम होना चाहिये कि कमल मेरा पति है।क्या मेरी मांग
से सिन्दूर की लालिमा भी गायब हो गयी?’ अपने माथे की ओर हाथ लेजाती हुयी मीना ने
कहा- ‘मैं कुछ नहीं
जानती
डॉक्टर,कुछ नहीं जानती।आप मुझे मेरे
मम्मी-पापा से मिलावा दें।मेरे कमल से मिलवा दें,मैं आपसे निवेदन...।’
डाक्टर ने पास खड़ी
नर्स को कुछ इशारा किया।वह बाहर चली गयी।वहाँ उपस्थित लोगों के चेहरे पर बारह बजने
लगे,जब कि घड़ी
में बारह बजने में अभी घंटा भर देर है।तिवारी जी ओर देखते हुये धीरे से सविता
बोली- ‘लगता है
किसी ने टोना-टोटका कर दिया।लगनउती लड़की घर में अकेली रहती थी....।
बड़ी बहू ने कहा-‘लगता है,गहरी चोट के कारण दिमाग सही काम नहीं
कर
रहा है।’
‘पहले भी तो
इसी प्रकार की उटपटांग बातें किया ही करती थी।उसी का कुछ विकृत रूप हो सकता है।’-उपाध्याय
जी ने अपनी राय जाहिर की।इसी प्रकार की बातों की कानाफूसी होती रही कुछ देर तक।इसी
बीच नर्स,कोई इन्जेक्शन
लाकर शिरान्तर्गत वेध दी।
डॉक्टर ने सबको
बाहर निकलने का संकेत किया।नर्स पूर्ववत अपनी ड्यूटी पर आ बिराजी।
आदेशानुसार सभी शुभेच्छु
बाहर आ गये- बोझिल कदमों से धीरे-धीरे, रेंगते हुए
से।बारह बजने को आये।पर अभी तक भूख-प्यास की तलब किसी को न हो रही थी।निर्मल जी तो
घर जाकर चाय पी आये थे,किन्तु
सविता विमल और तिवारीजी अभी तक निर्जला ही थे।
‘जाओ बेटे
कुछ खा पी लो।’-तिवारीजी ने विमल से कहा- ‘उधर से ही कुछ फल
वगैरह सविता भाभी के लिये भी लेते आना।’
‘क्यों आप न
जायेंगे?’- तिवारी जी
से पूछा निर्मल जी ने,और फिर
सविता की ओर देखते हुए बोले- ‘आप इस कमजोर हालत
में व्यर्थ ही अस्पताल का फितूल उठा रही हैं।बहुयें भी भेंट कर ही चुकी।अच्छा होता मैं सबको धर छोड़ आता।’-कहते
हुये तिवारीजी की ओर देखने लगे।
‘ठीक ही
है।आप इन सबों को घर छोड़ आइये।सविता भाभी को भी इधर से ही छोड़ते जाइयेगा।पदारथ
भाई व्यर्थ चिन्तित हो रहे होंगे।आना चाहें तो लौटती दफा उन्हें भी साथ ले
लेंगे।आप भी
घर
जाकर कुछ खा पी लीजिए।मुझे तो जरा भी इच्छा नहीं
है।’
घर जाकर कुछ खा पी लीजिए।मुझे तो जरा भी इच्छा नहीं
है।’-निर्मल
जी से कहा तिवारीजी ने।
‘नहीं...नहीं...आप
दोनों साथ जायें,और जो भी
जी करे थोड़ा खा-पी लें। आखिर ऐसे मन मारने से कैसे काम चलेगा।’-निर्मलजी ने दबाव
पूर्वक कहा।
‘देखता हूँ।’-कहते
हुए तिवारीजी विमल को साथ लेकर चल दिये।
अभी वे दोनों बाहर
निकले ही थे कि दूसरी ओर से पदारथ ओझा,हाथ में फल और विस्कुट वगैरह लिए पधारे।
‘कैसी है
मीना? तिवारीजी
और विमल कहाँ हैं?’- आते ही ओझाजी ने
पूछा।
‘ठीक है।अभी
सो रही है।उसकी स्मृति अभी ठीक से काम नहीं कर रही
है।फलतः नींद की दवा देकर सुलाया गया है।रात काफी परेशानी उठानी पड़ी।खून बहुत
निकल गया था।खून चढ़ाने की आवश्यकता पड़ गयी।बेचारी सविता भाभी न होती तो मीना की
जान न बचती।’-संक्षेप में ही विस्तृत जानकारी दे गये निर्मल जी,कारण उन्हें ओझा जी के स्वभाव का पता
था।छोटी-छोटी बातों का जिरह कर माथा चाटने की उनकी पुरानी आदत है।मगर उन्हें
जोरदार झटका सा लगा,उपाध्याय
जी की बातों को सुन कर,जिसका
अनुभव कुछ-कुछ इन्हें भी हो गया,कारण ओझा जी का चेहरा गिरगिट सा रंग बदल रहा था- इन बातों से।
सविता बगल में ही
दूसरे बेंच पर बैठी थी,जिसके
चेहरे को गौर से देखा एक बार पदारथ ओझा ने,और पल भर के लिए कांप गये किसी आन्तरिक भय
से।उन्हें लगा-कहीं भाउकता में उनकी
बखिया ही न उघाड़ दी गयी हो सविता द्वारा।फिर कुछ सोच कर स्वयं ही आश्वस्त हो गये।
दीर्घ श्वांस लेते
हुए बोले ओझाजी- ‘रात आपलोगों के चले
जाने के बाद बाकी लोगों को भोजन कराया गया।सभी चिन्तित हो उठे थे।पूरी रात कोई सो
नहीं पाया।सुबह मुंह अन्धेरे में ही मैं चल दिया था,एक यजमान के काम से।कोई दस बजे लौटा
उधर से;मालूम हुआ कि आप आकर बाकी लोगों को ले गये। विशेष समाचार कुछ जान न पाया।फलतः
यहाँ चला आया ढूढ़ते हुए।’
ये लोग बात कर ही
रहे थे कि जलपानादि से निवृत्त होकर विमल ओैर तिवारीजी आ पहुँचे।राम-सलाम के बाद
संक्षिप्त औपचारिक संवेदना व्यक्त करते हुए ओझाजी बोले- ‘ओफ! भगवान
भी बड़ा ही अन्याय करते हैं कभी-कभी
इतने संकट के बाद एक बच्ची दिये,तो उसकी भी स्मृति लुप्त कर दिये।हाय! अब क्या होगा मधुसूदन
भाई?’
‘होगा क्या,जो मंजूर होगा ऊपर वाले को वही तो
होगा? दैव पर
किसका बस चला है आज तक?’- तिवारी जी कहा।
‘मैं अभी यहीं
रहती
तो क्या हर्ज?’- तिवारी जी
की ओर देखकर सविता ने कहा।
‘क्या जरूरत
है अब यहाँ फिजूल का भीड़-भाड़ लगाये रखने की?’-तपाक से कहा पदारथ ओझा ने- ‘मैं भी चलूँगा ही,पहले जरा मीना बेटी को देख लूँ।शाम
को चौधरी के यहाँ सत्यनारायण पूजा कराना है।’
‘देखना क्या
है मीना को।वह तो सोयी हुयी है।डॉक्टर की भी हिदायत है किसी से न मिलने की।’-कहते
हुए उपाध्यायजी उठ खड़े हुये।
दोनों बहुयें भी
खड़ी हो गयी चलने को।मन मारे सविता को भी खड़ा हो जाना पड़ा।
वापस जाने को उद्यत सभी लोग खड़े ही थे कि
परिचारिका किवाड़ खोल बाहर आयी-‘ बच्ची होश
में आ गयी है।’
नर्स की बात सुन
सभी प्रसन्न मुद्रा में बढ़ चले मीना के कक्ष की ओर। किन्तु वहाँ पहुँच कर सबकी
प्रसन्नता पर स्याही पुत गयी।नर्स को झंझोटते हुये मीना ने कहा-
‘मैं बार बार कहती हूँ- मेरे पापा-मम्मी को
बुलाने के लिए, कमल से मिलवाने के
लिए,और आप हैं कि रावण की सेना को ला खड़ी कर देती हैं।’ फिर स्वतः ही कहने
लगी,सूनी छत को
निहारती हुयी,भुनभुनाती
रही-
‘ओफ! लगता है,किसी भारी षड़यन्त्र की शिकार हो गयी
हूँ।कोई मुझे अपनी बेटी कहता है,कोई बहू,कोई विवाहिता...दूर हटाओ इन मक्कारों को।’ मीना चीख उठी जोरों से।
ढरकते अश्रुजल को
गमछे के छोर से पोंछते हुये,तिवारीजी आगे बढ़ कर अपना हाथ मीना के माथे पर रख दिये।
‘तुझे किसी
षड़यन्त्र का शिकार नहीं बनाया गया है बेटी।शपथ
ईश्वर की! तुम मेरी बेटी हो- मीना बेटी।सिर्फ मेरी।तुम्हीं
तो
आश हो,लालसा हो
मेरे सूने जीवन की।कुछ न रहा।पर तुम्हारा भोला मुखड़ा देख-देख कर कितने ही दारूण
दुःखों को झेल गया अब तक।तुम्हारी ही इच्छा से विमल से शादी तय की, तुम्हारी ही खुशियों के लिये।किन्तु
नियति ने बीच में ही रोड़ा अटका दिया।हाय मेरी मीना,और क्या कहूँ? बस यही कि तुम मेरी
मीना हो,मैं तुम्हारा बापू।कोई पापा नहीं,कोई मम्मी नहीं।मैं ही मम्मी-पापा दोनों हूँ।’- कहते हुए तिवारीजी
उसके शरीर पर सिर टिका कर बच्चों की तरह विलखने लगे।उनके करूण रूदन से उपस्थित
लोगों के भी नेत्र सजल हो आये।अन्य लोग भी हर प्रकार से समझाने-बुझाने का प्रयत्न
करते रहे; किन्तु
किसी की बात का कुछ भी असर न हो रहा था मीना पर।उसे बस एक ही रट थी- ‘मुझे मेरे कमल से
मिला दो... पापा से मिला दो..मम्मी से मिला दो।’
परिचारिका जाकर
डॉक्टर को बुला लायी।डॉक्टर ने पुनः कई तरह के
परीक्षण किये।किन्तु कुछ खास नतीजा न निकला।मीना पूर्ववत रटती
रही,बकती रही-
‘मुझे मेरे
पापा से मिलवा दें डॉक्टर,मैं आपसे अनुनय करती
हूँ। या फिर मुझे छोड़ दें।मुक्त कर दे इस कैदखाने से।मुझे कुछ भी तकलीफ नहीं
है।मैं आराम से चल फिर सकती हूँ।इस तरह से नींद की सूई
दे-देकर कब तक बनावटी बेहोशी में रखे रहेंगे? छोड़ दें,मैं चली जाऊँगी स्वतः
ही अपने घर तक।मुझे किसी भी सहारे की आवश्यकता नहीं।’-मीना के स्वर में अनुनय
था।विनम्रता थी।साथ ही भय मिश्रित आक्रोश भी।उसे लग रहा था कि ये सब के सब किसी
दस्यु गिरोह के सदस्य हैं।प्रेम और अपनापन का ढोंग रचाकर उसके यौवन से खिलवाड़
करना चाहते हैं।सौदा करना
चाहते हैं।निश्चित
ही लड़कियों की तस्करी करने वाले ही हैं ये लोग।
डॉक्टर ने लोगों को
बाहर जाने को कहा- ‘मैं जरा एकान्त में बात करना चाहता हूँ।’
आदेशानुसार सभी
बाहर निकल गये।तरह-तरह की बातें होने लगी आपस में।निर्मलजी,जो औरों की तुलना में कुछ निश्चिन्त
से थे,इस बार की
स्थिति देख काफी चिन्तित हो गये।पुरानपंथी पदारथ और सविता को जादू- टोने,भूत-प्रेत की करामात लग रही थी।
‘हो-न-हो
इसे अन्तरिक्ष बाधा ही है।या तो स्वयं ही कहीं
फेर
में पड़ गयी है,या किसी ने
कुछ कर-करा दिया है।शायद कृत्या का ही प्रकोप है।’-गाल पर हाथ रखे गमगीन,ओझाजी ने कहा।
उनकी बात का समर्थन
करती सविता ने कहा- ‘मैं तो पहले ही कह रही
थी कि यही कुछ है।अस्पताल से कुछ होना-जाना नहीं
है।इसे
ले चलना चाहिये,
किसी
ओझा-गुनी-तान्त्रिक के पास।’
हालाकि यह कहते हुए,स्वयं की उसकी आत्मा कोस रही थी
उसे।उसने ही तो उभारा था उसके अतीत को।यह क्यों न माना जाय कि यह उसी का प्रभाव है,उसके लघु मस्तिष्क पर,और इन्हीं
विचारों
के झंझावात में उलझ कर,झटका खाकर
गिर पड़ी।किन्तु इस झटके का भी रहस्य समझ न आ रहा था बेचारी सविता को।क्या चोट के
कारण दिमाग खराब हो सकता है किसी का? यदि दिमाग भी खराब मान लिया जाय फिर यह कमल कौन है? मम्मी कौन है?पापा
कौन है?ओफ! किसे वह याद कर रही है बारबार....।
लाख सोचती रही
सविता,पर कुछ
पल्ले न पड़ा।
ऐसा ही कुछ सोच रहे
थे तिवारीजी भी।सविता और मीना की बातों को ‘लगभग’ सुन ही चुके
थे।इसके पूर्व की भी बेढंगी बातें याद आने लगी उन्हें,पर इन सबके बावजूद रहस्य पर से पर्दा
उठ न सका।समझ न आया- आखिर कारण क्या है मीना की विस्मृति का।
एक ओर अलग-थलग सा
उदास खड़ा विमल किसी और ही विचारों में निमग्न था-उसको याद आ रही थी बकरियों की
जिसे मीना ने मृगछौना कहा था।उसे याद आ रही थी- मदहोश मीना के आलिंगन की।वह सोचने
लगा-‘
तो
क्या मान लिया जाय कि मीना पहले से ही विकृत मस्तिष्क की रही है? पर यह भी कैसे कहा
जाय? क्या कोई मानस-विकार-ग्रस्त मानव हर प्रकार से प्रतिभा- सम्पन्न हो सकता है?मीना
पढ़ने-लिखने में काफी प्रखर बुद्धि वाली है। कला और संगीत का भी अच्छा ज्ञान है
उसे।समाजिक मान- मर्यादाओं का समुचित ख्याल रखती है।फिर पागल कैसे कहा जाय? उसे याद आ जाती है-
किसी समय डॉक्टरी की किताब में पढ़ी गयी बात कि हिस्टीरिया के तीब्र दौरे की
स्थिति में इस प्रकार प्रायः हो जाया करता है।स्मृति विलुप्त हो जाती है कुछ काल
के लिये।पहले भी तो ऐसा ही हो चुका है।हो सकता है कि उसके अवचेतन में किसी के
प्रति प्यार का बिम्ब बन गया हो।वही अब कल्पित कमल के रूप में साकार हो गया है
उसके चेतन में।आखिर कमल और विमल में थोड़ा ही तो अन्तर है।किन्तु चेहरा तो याद
रहना चाहिये था कम से कम।मगर अफसोस, सबकुछ भुला चुकी....
सभी गुम सुम थे,अपने आप में खोये हुये से।विमल सोचता
ही रहा।सोचता ही रहा।
वरामदे से बाहर
अस्पताल के प्रांगण में यूकलिप्टस और पाम के पेड़ मौन खड़े थे,मनस्वियों की तरह।उन्हें भी शायद
विमल की मानसिकता ने कुछ सोचने पर विवश कर दिया था।गेट के दोनों ओर थूजा और झाऊ भी
खड़े थे।झाऊ की एक टहनी ने थूजा की ओर झुक कर इशारा किया।थूजा ने देखा,भीतर वरामदे की ओर- जहाँ विमल बैठा
हुआ था।मानव के मन की बातें मानव जान नहीं पाता। पास
बैठे उसके पापा,बापू,भाभियाँ,सविता चाची,पदारथ काका- किसी ने न जान पाया कि
विमल क्या सोच रहा है।किन्तु बेजान सी दीखने वाली प्रकृति वस्तुतः बहुत ही जानदार
है,जीवन्त
है।झाऊ ने थूजा से कहा- विमल के बारे में।विमल सोच रहा है-
‘यदि यही
क्रम रहा मीना की मानसिक स्थिति का,फिर क्या होगा मेरा... मेरे प्यार का?ओफ मैं कैसे उलझ पड़ा इसके
प्यार में? कहीं ऐसा तो नहीं
कि
वह सच में मुझे प्यार करती ही नहीं हो और इसी कारण
विस्मृति का स्वांग रचा रही हो? मगर यह भी कैसे कहा जाय? शादी की बात पक्की हुये महीने
भर हो गये।चाहती तो इस बीच किसी तरह भी इनकार कर सकती थी।ऐन शादी के मौके पर यह
क्या हो गया? कहीं किसी ने मुझसे मन फेरने के लिये कुछ
कर-करा तो नहीं दिया?’
और यह बात दिमाग
में आते ही घूम गयी तस्वीर- एक कानी लड़की की...एक तान्त्रिक की...रामदीन पंडित की.....एक
ढोंगी की......एक सामाजिक शोषक की....
अस्पताल के प्रांगण
से सटे ही काफी उमरदार एक पीपल का दरख्त था। थूजा और झाऊ की बातें उसने भी गौर से
सुनी,किन्तु सुन
कर पाम और यूकलिप्टस की तरह मौन नहीं रहा।ठठा कर हँस
दिया।उसकी हँसी के कर्कश ध्वनि से भयभीत चिडि़यों का समूह उड़ कर पंख फड़फड़ाने
लगा।विमल का भी ध्यान भंग हो गया। सिर उठा कर उस ओर देखा।यूकलिप्टस को बिलकुल ही
अच्छा न लगा पीपल का यह अट्टहास।
हवा के तेज झोंके
में पीपल का पेड़ एक बार कस कर हिला।बहुत सारे पीले पत्ते टपक पड़े,बृद्ध के रोंयें की तरह।पीपल ने
मानों सिर हिलाकर बोला-
‘देखते क्या
हो? तुम्हारी
उमर ही क्या है अभी? मैं
शताब्दियों
से यहाँ खड़ा हूँ।प्रेम की कितनी ही अट्टालिकाओं को ध्वस्त होते हुये देखा है मैंने इसी अस्पताल के
प्रांगण में,अपनी बूढ़ी आँखों से। कितनी ही चूडि़याँ टूटी हैं,कितने ही मांग धुली हैं,कितने ही आंचल भरे
हैं,कितने ही
गोद खाली हुये हैं....देखते-देखते
मेरी आँखें पथरा गयी हैं।एक बार तो
यहाँ तक हुआ कि एक प्रेमी महाशय मेरे ही तने में फंदा डाल दिये अपनी फांसी का,क्यों कि उनकी प्रेमिका का देहान्त
हो गया था....।
किन्तु पीपल की
बातों पर,अनुभव पर जरा
भी ध्यान न दिया किसी ने। सबकी निगाहें वरामदे की ओर थी,जहाँ विमल के विचार धीरे-धीरे सिमट
कर एक बिन्दु पर आ इकट्ठे हो रहे थे।पीपल को फिर हँसी आ गयी यह जान कर कि विमल
जैसे पढ़े-लिखे अत्याधुनिक लोगों का भी दिमाग फिर गया है।
विमल सोचने लगा-
‘...तब यह
निश्चित है कि उसी ने कुछ किया है।उस तोंदैल तान्त्रिक ने ही।तान्त्रिक तो है
ही।हो सकता है उसका सम्मोहन काम कर गया हो।पापा ने उसकी काली चंडी का सम्बन्ध
अस्वीकार किया।इस स्थिति में क्रुद्ध हो कर मीना पर ही विद्वेषण-प्रयोग कर
दिया।ओफ!....
इसी प्रकार काफी
देर तक खुद-व-खुद मगजपच्ची करता रहा विमल।अन्त में लम्बी सांस छोड़ते हुये निर्मल
जी की ओर देखते हुये बोला- ‘पापाजी! हालांकि आप
इसे दकियानूसी विचार कहेंगे,पर न जाने मुझे भी कुछ ऐसा ही लगता है।पदारथ काका और सविता
चाची की बातो में निश्चित ही किंचित सच्चाई झलकती है।
‘क्यों? इस विश्वास का क्या
कारण है? क्या आधार है? तुम्हारे भी मन में ऐसी ही बात क्यों उठ रही है?’- साश्चर्य
पूछा निर्मलजी ने,और सबकी
निगाहें जा लगी,विमल के
चेहरे पर।
‘ठीक कहता
है,विमल बेटा।’-अपनी
बातों का समर्थन पा सविता और पदारथ ओझा एक साथ ही बोल पड़े।
‘कारण कुछ
और नहीं है पापा!आप जानते ही हैं कि रामदीन पंडित इस इलाके के लब्ध
प्रतिष्ठित तान्त्रिक हैं।उनकी बेटी
का वैवाहिक सम्बन्ध हमलोगों ने ठुकरा दिया।एक ही साथ- तन्त्र,ज्योतिष और दौलत तीनों को ही अंगूठा
दिखाया है हमलोगों ने।उसी का परिणाम प्रतीत होता है-मीना की दुर्घटना।’-कहा विमल
ने,और पल भर
के लिए अनुभवी अधीक्षक निर्मलजी भी वाध्य हो गये विचार करने पर।इस तथ्य के आधार को
ढूढ़ने पर।कुछ देर तक तो मौन रहे। किसी गहन सोच-विचार में। कभी-कभी सामान्य जन की बात भी
विचारणीय होजाती है।
ऐसा ही तर्क-वितर्क करते रहे,अपने आप से।फिर उन्हें भी लगने लगा
कि विमल की बातों में किंचित सच्चाई हो सकती है।
बगल में बैठे
तिवारीजी का भी माथा डोल गया,क्यों कि रामदीन पंडित के स्वभाव से पूर्णतया अवगत थे।
‘क्या उपाय
हो सकता है आखिर इसका?’-प्रश्नात्मक दृष्टि डाली- तिवारीजी ने सब पर।
‘करना क्या
है, अभी दो-चार
दिन तो यहीं अस्पताल में ही गुजारना पड़ेगा। घाव
भर जाय फिर घर ले चला जाय किसी तरह। फिर किसी अच्छे गुणी-तान्त्रिक से परामर्श
लिया जाय।’-निर्मलजी ने अपनी राय दी।
‘अस्पताल
में तो रखना आवश्क है ही।किन्तु इसी बीच किसी ओझा-गुनी से सहायता लेनी चाहिये।दवा
और दुआ दोनों ही साथ चले तो क्या हर्ज है?’- निर्मलजी की ओर
देखते हुये तिवारीजी ने कहा।
‘किसी गुनी
से काम नहीं चलेगा मधुसूदन भाई।एक तो इस इलाके में कोई गुनी तान्त्रिक दीख ही नहीं
रहा
है।यदि दीखे भी तो रामदीन पंडित के टक्कर का नहीं।दूसरी बात यह कि यदि अनुमान है,आपलोगों को उन्हीं
के
कृत्य का,
फिर
दूसरे के पास जाकर भी क्या फायदा?’-मौका देख रामदीन पंडित के नमक- हलाली का डंका
बजाया ओझाजी ने।
‘तब क्या
विचार है आपका?’-
उपाध्यायजी
ने पूछा।
‘विचार क्या,बस यही कि आज हमलोग चलें रामदीन
पंडित के पास ही। काम निकालना है तो कुछ नम्र होना ही पड़ेगा।तिवारीजी जाकर माफी
मांगें उनसे। कहें कि अनजान में सम्बन्ध तय कर लिया है।फलतः आपके कोप का भाजन होना
पड़ रहा है।’-ओझाजी ने सुझाया।
‘वाह!
तिवारीजी तो अनजान बन कर माफी मांग लेंगे।किन्तु मैं? मैं क्या सफाई दूँगा? क्या मैं कह दूँ कि जान बूझकर चुनौती दिया हूँ आपके
तन्त्र बल को?’- हाथ मटकाते
हुये निर्मलजी बोले- ‘अजीब बात करते हैं,आप भी ओझा जी।’
‘कुछ तो
अपनी गलती दिखानी ही होगी आपको।कुछ नहीं तो बेटे का
ही जिद्द जाहिर करना होगा;और क्षमा मांगनी होगी।’- पदारथ ओझा ने अपने
प्रसस्त पथ की पुष्टि की।
उनकी बातों का खंडन
करते हुये विमल ने कहा- ‘क्या जरूरत है बापू या पापा को
क्षमा-याचना करने की? यह सब कह कर तो जाहिर कर देना है कि उनका कृत्य हमलोग जान गये
हैं।सीधी सी
बात है- परिचय है ही बापू को।सिर्फ वे ही जाँय उनके पास, और स्थिति से अवगत
करायें।सारी राम कहानी अक्षरशः कहने की कोई आवश्कता नहीं।कब गिरी,कैसे गिरी आदि बातें हम क्या बतायें, इतने बड़े
तान्त्रिक हैं,तो स्वयं
ही जान लेना चाहिये उन्हें।यदि न भी जान पाते हैं,तो इससे कोई फर्क नहीं
पड़ने
को।हमलोग को तो अपने काम से काम है केवल। जो उपाय बतलायेंगे,सो किया जायेगा।’
विमल की बातों का
समर्थन किया सबने।बात तय हुयी कि आज ही जाकर तिवारी जी उनसे मिलें।पदारथ ओझा ने भी
हामी भरी।सिर हिलाते हुए बोले-‘ठीक है।यही करना
चाहिये।फिर तिवारी जी की ओर देखते हुये बोले- ‘मधुसूदन भाई! आप
बाजार जाकर थोड़ा अरवा चावल और सवा भर लौंग ले आवें।’
‘अभी बाजार
क्या जाना है।चलें सभी लोग।बहूओं को घर छोड़ दूंगा।सविता भाभी भी चली ही
जायेंगी।विमल तब तक यहाँ रहेगा।मेरा वहाँ तक जाना तो उचित नहीं
है,फिर भी सबको पहुँचाने के चलते जाना
ही होगा।’- कहते हुये निर्मलजी उठ खड़े हुये।उनके साथ ही सभी लोग वाध्य होकर खड़े
हो गये।
विमल वहीं
बैठा
रहा।घड़ी देखते हुये बोला- ‘दो बजने को हैं। अभी तक आपलोगों ने कुछ खाया भी
नहीं।’
‘खाया
जायेगा,इन सबसे
निश्चिन्त होकर ही।इस चिन्ता में अभी भूख किसको है?’
सभी चल पड़े।सबके
पीछे सविता चल रही थी-
मनमारे,और मुड़-मुड़ कर देखती रही मीना के
कमरे की बन्द किवाड़ को ही, जहाँ
एकान्त में बैठे डॉक्टर सेन मीना के रोग की गुत्थी सुलझाने का प्रयास कर रहे थे।
डॉक्टर द्वारा पूछे
जाने पर उसने अपना नाम बतलाया था- मीना चटर्जी।
‘....अच्छा तो
मिस चटर्जी! आप कलकत्ते में कितने दिनों से रह रही है?’- पूछा डॉक्टर सेन ने
और धीरे से पॉकेट रेकॉर्डर ऑन करने के बाद हाथ में लिये लेटर पैड पर कुछ लिखने
लगे। रेकॉर्डर तो पहले भी ऑन ही रहा था,किन्तु बीच में कुछ कारण से बन्द करना पड़ा
था।
‘...मैं क्या,मेरे पापा ही आ बसे हैं कलकत्ते में।इनके पूर्व,यानी मेरे दादाजी गोकुलपुर के पास
रहते थे,जो बंगाल
के ही मेदिनीपुर जिले में पड़ता है। वहीं के
बहुत बड़े जमींदार थे हमारे दादाजी।’- मीना अपना इतिहास
वयान कर रही थी।
‘ये तो
बतलाइए मिस चटर्जी....।’
‘ओफ!
डॉक्टर! आप बार बार मुझे मिस क्यों कह रहे हैं? मैं पहले ही आपको बतला
चुकी हूँ कि मैं शादी-शुदा
हूँ।कमल जी मेरे पति हैं।’-डॉ. सेन की
बात पर आपत्ति जताकर,झल्लायी
हुयी मीना बोली।
‘हाँ हाँ,अभी कुछ देर पहले ही आपने कहा
था।किन्तु आपके इस प्रेम रहस्य को आपके पापा....ओह! आइ ऐम सौरी,क्या नाम कहा था आपने अपने पापा का?’-डॉ. ने जानबूझ कर
उसके पिता का नाम फिर से कहलवाने की चेष्टा की।
‘आप डॉक्टर
होकर भी इतने भुलक्कड़ हैं, फिर तो हो गया आपके
रोगियों का कल्याण।इतनी ही देर में तीन बार तो आप पूछ चुके एक ही बात को।हर बार मैंने कहा- मेरे पापा का नाम श्री
वंकिंम चटर्जी है,चटर्जी
यानी चट्टोपाध्याय। मैं फिर से दुहरा दूँ
कि विद्यालय अधीक्षक हैं मेरे पापा।ठीक से
याद कर लीजिये।फिर न बताऊँगी।’-झल्ला कर मीना ने कहा।
इस बार डॉ.सेन ने
नाम को अपने लेटर पैड पर लिख लिया।फिर पूछा-‘हाँ तो मैं कह रहा था- यह शादी तो कोई शादी नहीं
हुयी-
जैसा कि आपने कहा,पापा-मम्मी
की अनुपस्थिति में ही आपने काली मन्दिर के प्रसाद स्वरूप सुहाग-रज को कमल भट्ट के
द्वारा,जो आपका
पूर्व प्रेमी था,अपनी मांग
में भरवा लिया।’
‘वाह क्यों
नहीं हुयी शादी?’- तुनकती हुयी मीना बीच में ही बोल पड़ी-‘निरर्थक
बेबूझ वैदिक मन्त्रों को जबरन,मुंह से कहलवा देने से,या फिर अदालत में जाकर शपथ पूर्वक कुछ घिसे
पिटे शब्द कह-लिख देने से ही जब शदी हो सकती है,तो अन्तरात्मा की अदालत में इजहार के
बाद शादी क्यों नहीं हो सकती? हमलोगों ने वचपन से
ही चाहा है,एक दूसरे
को।मन ही मन प्रतिज्ञा की थी- अपने सत्यवान सरीके पति परमेश्वर को।फिर शेष ही क्या
रह गया करने को- झूठा दिखावा,धूम-धड़ाका...और क्या...बस इतना ही तो बाकी रहा?’
‘क्या आपके
पापा-मम्मी राजी हो जाते इस सम्बन्ध पर?’- डॉ. सेन ने फिर सवाल किया।
‘राजी? क्या बोलते हैं आप? लगता है कि आप मेरी सारी बातें गम्भीरता से
सुन नहीं रहे हैं।मैं कह चुकी हूँ कि पापा-मम्मी ने ही तो रास्ता
सुझाया था हमदोनों को।कई बार आपस में उन लोगों को बातें करते सुनी थी कि ऐसी जोड़ी
बार बार नहीं मिलती।
‘जैसा कि
आपने अभी बतलाया- कमल भट्ट निर्धन परिवार का लड़का है। फिर आप इतने सम्भ्रान्त
परिवार की होकर उस गरीब से...?’
डॉक्टर की बात पर
मीना को खीझ हो आयी- ‘कमाल हैं आप भी डॉक्टर। गरीबी
क्या टी.बी. की बीमारी हो गयी,संक्रामक रोग...छूत की बीमारी? मेरे पास इतनी दौलत है।कोई और
तो उत्तराधिकारी है नहीं इसका।फिर उनकी
गरीबी से क्या लेना-देना? पापा को या मुझे ही मतलब तो उनके गुण और प्रतिभा से है।’
‘सब कुछ तो
हुआ,किन्तु एक
बात आप नहीं बतला रही हैं मीनाजी- आप ट्रेन से गिर कैसे पड़ी? क्या कुछ....?’- पूछते हुये डॉक्टर
सेन ने उसके गहरे अतीत में झांकने का प्रयास किया।
‘सौरी
डॉक्टर।मैं यह पहले ही कह चुकी
हूँ कि यह मेरा व्यक्तिगत मामला
है।इसमें दखल देने की कोशिश न करें।इतनी सारी बातें भी मुझे
आपको बतलानी न चहिये थी,किन्तु मैं यह सोच कर आपको बतला गयी कि आप मेरी
वास्तविकता से वाकिफ हो जायें।मुझे उन तस्करों से मुक्ति दिलावें।मैं तो यहाँ तक कहती हूँ कि आप मुझे स्वतन्त्र
छोड़ दें।मैं चली जाऊँगी वापस
कलकत्ता,
अपने
पापा के पास।’
‘जैसा कि आप
बतलायी,आपके
पापा-मम्मी तो अभी कलकत्ते में होंगे नहीं? आप लोग तो
ट्रेन से कहीं के सफर में थीं?’
‘इसी बात का
तो मुझे आश्यर्च हो रहा है कि पापा-मम्मी मुझे छोड़ कर आखिर चले कहाँ गये? दूसरी बात यह कि
मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं पीएमसीएच के हथुआ वार्ड में बेड नम्बर सेवन पर भर्ती हुयी
थी।वहीं मेरे मम्मी-पापा,कमल सभी थे।कमल ने मेरी मांग भरी
थी।फिर मैं सो गयी थी।सिर का
बोझ हल्का हो गया था,माथे में
सिन्दूर पड़ जाने के कारण।कमल भी वहीं सो गया- बेड पर ही एक ओर टेका लगाये हुये।
पापा-मम्मी बाहर वरामदे में दरी बिछाकर सोये हुये थे।’-मीना कहे जा रही थी- ‘इतनी
स्पष्टी के बाद भी आप संदेह प्रकट कर रहे हैं डॉक्टर! मेरे और कमल के सम्बन्ध पर? यदि रंचमात्र भी
अन्य भावना रही होती मापा-मम्मी को तो क्या इतनी छूट दिये होते हमें?मगर अफसोस! वे
सब के सब कहाँ चले गये मुझे अकेली छोड़ कर? मैं देखती हूँ- न तो वह इमर्जेन्सी वार्ड है,और न वह कमरा और न वह नर्स,न डॉक्टर ही।मुझे लगता है कि यह ‘वह’अस्पताल ही नहीं
है।’-कहती
हुयी मीना बेड पर बैठ गयी उठ कर।और बाहर झांक कर देखने का प्रयास करने लगी। किन्तु
रंगीन वेलजियम ग्लास बाहर का कोई दृष्य न दिखा सका।लाचार होकर बेचारी पूर्ववत पड़
गयी बेड पर।
फिलहाल मीना के शरीर
में किसी तरह की तकलीफ न थी। माथे में जहाँ पट्टी बंधी थी,हल्का-हल्का दर्द हो रहा था
सिर्फ।फिर भी भूख भाग गयी थी- मानसिक चिन्ता के कारण।दोपहर में होश आने के बाद दो
टोस्ट के साथ एक गिलास दूध ली थी।परिचारिका आकर फल-दूध वगैरह रख गयी थी,जो कि ज्यों का त्यों पड़ा है अब भी।
मीना की बात पर
मुस्कुराते हुये कहा डॉक्टर ने- ‘आपका अनुमान सही है
मीना जी।यह पीएमसीएच नहीं है।न तो यह बिहार
है, और न आपका बंगाल।यह है- मध्यप्रदेश का एक छोटा सा शहर- जशपुरनगर। जिसके सरकारी
अस्पताल में आप कल रात से भर्ती हैं।प्रीतमपुर निवासी,रिटायर्ड पुलिस अधीक्षक श्री निर्मल
उपाध्याय आपके होने जा रहे स्वसुर हैं।जिन्होंने यहाँ लाकर भर्ती कराया है।साथ में आपके भावी पति
विमल उपाध्याय और बापू मधुसूदन तिवारी भी थे। उन्होंने अपने घर का पता माधोपुर
लिखवाया है,जो कि
उधमपुर डाकखाने में पड़ता है।यहाँ से करीब ही है यह जगह- यही कोई आठ-दस मील।’
‘और भी कुछ
बतलाया उनलोगों ने?’-डॉक्टर की बात पर आश्चर्य व्यक्त करती हुयी मीना ने पूछा।
‘रात,एडमिट कराते समय तो नाम पता के अलावे
विशेष जानने की जरूरत न पड़ी।स्वयं उनलोगों ने सिर्फ इतना ही बतलाया कि सीढ़ी से
गिर पड़ी है।नीचे पड़े पत्थर से टकरा कर सिर फट गया है।चूँकि साथ में उपाध्यायजी
स्वयं थे,वह भी भावी
स्वसुर के रूप में,जो कि
इलाके के एक मानिंद व्यक्ति हैं।ऐसी स्थिति में किसी तरह के संदेह या अविश्वास का सवाल ही नहीं
उठता;
किन्तु सुबह जब आप होश में आकर,उनलोगों को पहचानने से इनकार कर गयी, जब कि परीक्षण-क्रम में मुझे किसी प्रकार की
मानसिक विकृति का लक्षण न मिला,तो कुछ संदेह होने लगा।कई तरह के सवाल उठने लगे।अतः तत्काल
आपको नींद की सूई दे दी गयी,और इस बीच उनलोगों से भी विस्तृत जानकारी ली गयी।’-मिस्टर
सेन ने अब तक की स्थिति से अवगत कराया मीना को।
काफी देर तक इसी
प्रकार की बातें होती रही।डॉ.सेन हर प्रकार से तर्क-वितर्क कर मीना के वौद्धिक एवं
मानसिक स्थिति का अध्ययन-परीक्षण करते रहे।किन्तु कहीं
भी
लेशमात्र भी त्रुटि न मिली उन्हें।फलतः इस विचित्र रूग्णा की स्थिति ने पल भर के
लिये उन्हें चिन्तित-विचलित कर दिया।लाचार,वे उठ खड़े हुये।
‘अच्छा मीनाजी! अब
आप आराम करें।पुनः शाम को बातें करूँगा।’-कहते हुये डॉ.सेन बाहर निकलने लगे।
‘एक्शक्यूज
मी डॉक्टर! मैं कुछ निवेदन करना चाहती
हूँ आपसे।’-मुस्कुराती हुयी मीना बोली।
जाने को उद्यत
मिस्टर सेन के पांव थम गये।पीछे पलट कर बोले -‘ऑफकोर्स! कहिये,क्या कहना चाहती हैं आप?’
‘अभी मैं बिलकुल एकान्त चाहती हूँ।अतः कोई मुझे
डिस्टर्व करने न आये कमरे में,आप हिदायत कर दें।हाँ,यदि सम्भव हो तो कोई पत्रिका भेजवा देते, ताकि...।’- अनुनय भरे स्वर में मीना
ने कहा।
‘कोई बात नहीं।अभी
भिजवा देता हूँ।’-कहते हुये डॉक्टर सेन बाहर निकल गये,हाथ में मीना की केश-हिस्ट्री की
फाइल लिये।
वरामदे में विमल
अकेला बैठा था।उसकी निगाह सामने के दरख्त पर थी, जिसकी फुनगी पर बैठी दो चिडि़याँ आपस
में चोंच मिला रही थी। विमल का हृदय कुछ सोंच कर ऐंठ सा गया।जी में आया पत्थर
उठाकर मार बैठे उन चिड़ियों को।तभी डॉक्टर के जूते की आहट से जरा चैतन्य हुआ,और ध्यान उधर ही खिंच गया।
‘हेलो
डॉक्टर! कैसी है मीना? क्या बातें हुयी?’
‘बिलकुल ठीक
है,शरीरिक एवं
मानसिक दोनों रूप से।बातें तो बहुत कुछ हुयी।पर अभी मैं कुछ निर्णय नहीं
ले
पा रहा हूँ।हाँ एक बात का घ्यान रखेंगे- कोई उसके कमरे में न जाय।अभी उसे बिलकुल
ही अकेली छोड़ दें।’- कहते हुये डॉ.सेन चल दिये अपने चेम्बर की ओर।
डॉक्टर के बाहर
जाने के बाद मीना स्वयं उठ कर कमरे को भीतर से बोल्ट कर पुनः आकर पड़ रही बेड
पर।वह सोचने लगी-
‘अभी-अभी डॉक्टर ने
जो जानकारी दी - वर्तमान के संदर्भ में- उसे वह सब कुछ काल्पनिक सी लगी;किन्तु
अपने वास्तविक कहानी के पात्रों को भी अचानक गुम हो जाने का भी रहस्य उसके पल्ले न
पड़ा।और तो और,कमल भी
कहाँ चला गया उसे छोड़ कर?आखिर क्या रहस्य है- कैसे आ गयी इस मध्यप्रदेश में अपने
बंगाल और बिहार को छोड़कर? यह प्रीतमपुर-माधोपुर क्या बला है? कहाँ से टपक पड़े
इतने सारे शुभचिन्तक?’-सोचती रही।बस सोचती ही रही।यहाँ तक कि सोचते-सोचते सिर
दुखने लग गया। और अन्त में आँखें बन्द कर चित्त लेट गयी।तभी दरवाजे पर दस्तक सुनाई
पड़ी।
‘कौन है?’
‘मैं हूँ सिस्टर।डॉक्टर साहब ने आपके लिये
पत्रिका भेजी है।’- सुन कर आश्वस्त हुयी,और उठ कर किवाड़ खोल दी।सामने
ड्यूटी-नर्स खड़ी थी,एक
और नॉवेल लिये हुये।
‘थैंक्स।’-लघु
औपचारिकता के साथ पत्रिका और नॉवेल उसके हाथ से ले ली।
‘और कोई
जरूरत?’-नम्र,व्यवसायिक
लहजे में पूछा परिचारिका ने।
‘सम्भव हो
तो चाय भिजवा दें।’
‘अभी लायी।’-कहती
हुयी वह वापस चल दी।मीना ने किवाड़ पुनः बन्द कर लिये,और विस्तर पर पांव पसार सामने पड़ी
कुर्सी पर बैठ गयी।उड़ती निगाह से पहले उपन्यास को पलट गयी।किसी आधुनिक लेखिका का रोमान्टिक
उपन्यास था,जिसकी भाषा-शैली
बिलकुल छिछली सी लगी,एकदम
बाजारू...।फलतः नाक सिकोड़ती हुयी विस्तर पर फेंक दी;और पत्रिका उठा कर पलटने लगी,पीछे की ओर से- अपनी पुरानी आदत के
मुताबिक।थोड़ी देर में दरवाजे पर दस्तक हुयी।
इस बार पूछने की
आवश्यकता न थी,क्यों कि आश्वस्त
थी कि चाय लिये परिचारिका ही होगी।अतः उठ कर किवाड़ खोल दी।
‘चाय के साथ
कुछ नमकीन भी लेना पसन्द करेंगी?’-अन्दर आकर मेज पर चाय का प्याला रखती हुयी
परिचारिका ने पूछा।
‘नो।थैंक्स।और कुछ नहीं
चाहिये।आप
जा सकती हैं।’-कहती हुयी
मीना कुर्सी पर आ बैठी।एक हाथ में पत्रिका पकड़े,दूसरे हाथ से प्याला उठा, ‘शिप’ करने लगी।परिचारिका खड़ी ही रही,हाथ में ट्रे लिये।
‘चाय पी लें
आप।कप लेती ही जाऊँगी।’-कहती हुयी परिचारिका, विस्तर पर पड़ा उपन्यास उठाकर पलटने लगी- ‘क्यों आपने
इसे पढ़ा नहीं?’
‘देखी
थी।अच्छा नहीं लगा।’
थोड़ी देर में खाली
प्याला मेज पर रखती हुयी बोली- ‘डॉक्टर साहब कहाँ हैं?’
‘अपने
चेम्बर में।फोन पर किसी से बात कर रहे थे,चाय लाती दफा मैंने सुना था।’
मीना किवाड़ बन्द
कर पुनः आ बैठी कुर्सी पर ही।विस्तर पर पैर फैला कर,पत्रिका पलटने लगी।कुछ देर तक यही
क्रम रहा-सिर्फ पन्ने पलटना,कहीं रूकना नहीं।व्यावसायिक
विज्ञापन के चित्रों में अधिकाधिक नग्न नारी-सौष्ठव पर नाक-भौंसिकोड़ती रही-
‘ओफ! हद हो
गयी,विज्ञापन
वाजी की।एक तो ७५% विज्ञापन, वह भी
सामान का प्रदर्शन कम,नारी-शरीर
का ज्यादा...हाँ,नारी-शरीर
भी तो एक वस्तु ही है सामान्य उपभोग के लिये।कीमती सामानों की जरूरत हो न हो, पर नारी शरीर तो चाहिये ही चाहिये हर पुरूष
को...।’-क्रोध में भुनभुनाती हुयी पत्रिका एक ओर फेंक दी विस्तर पर।तभी अचानक
निगाहें आकृष्ट हुयी,पत्रिका के
मुखपृष्ठ पर,जो अब तक
भीतर के किसी विज्ञापन पर चिपक न पायी थी। चौंक कर पत्रिका पुनः उठा ली।ऊपर दायीं
ओर
छपा था- ‘वर्ष-७,अंक-५,मई १९८३ई.’
आश्चर्यचकित हो,मुखपृष्ट पलट फिर भीतर झांकने लगी,जहाँ पत्रिका का पूर्ण विवरण छपा
था।यहाँ भी वे ही सूचनायें थी।
‘मई १९८३ई.’
चौंकती हुयी, माथे पर बल देती
हुयी,दो-तीन बार
भुनभुनायी- ‘मई १९८३ई.’...यह क्या तमाशा है? अभी तो मई १९६६ई.
ही है। फिर ये सत्रह साल एडभांस की मेगजीन क्यूंकर छप गयी? विचित्र है!’
काफी देर तक
मगजपच्ची करती रही।पर इसका कुछ कारण समझ न आया।मिसप्रिंट एक जगह हो सकती
है।पत्रिका के हर पन्ने में ऐसी ही भूल की जरा भी गुंजाएश नहीं...।’
माथे पर पसीने की
बूंदें छलक आयी।उन्हें पोंछती हुयी,किवाड़ खोल, बाहर निकल
आयी वरामदे में।
वरामदा खाली
था।सामने का बेंच भी खाली था।बाहर मैदान में खड़े पीपल की टहनियाँ भी लगभग खाली हो
चुकी थी,और रिक्त
भाग पर आ बैठी थी,सांध्य
कालीन सूर्य की अरुणिमा।यूकलिप्टस की टहनियों से छन कर प्रकाश का एक छोटा सा
टुकड़ा झाऊ की फुनगी पर आ बैठा था- नन्ह°
फूलसुंघनी
चिडि़यां की तरह। वातावरण बड़ा ही मोहक लग रहा था। फिर भी प्रकृति का सलोनापन जरा
भी आकर्ड्ढित न कर पाया मीना को।
धीरे-धीरे आगे बढ़ी
पूरब की ओर।दरवाजों पर लगी पट्टिकाओं को पढ़ती जा रही थी।
अभी पांच-छः दरवाजे
पार कर आगे बढ़ी होगी कि परिचित स्वर सुन अचानक ठिठक गयी।दरवाजे के चौखट से चिपका
था नाम-पट्टिका-
‘डॉ.आर.के.सेन’।
‘अरे,यह आवाज तो उन्ही की है।शायद फोन पर
किसी से बात कर रहे हैं,क्यों कि
आवाज रूक-रूक कर आ रही है।’-सोचती हुयी पर्दे की ओट में खड़ी हो गयी।
अन्दर से आवाज आ
रही थी- ‘यस,रियेली केस बड़ी टीपिकल है। इसकी
कहानी,और अभिभावकों
द्वारा दी गयी जानकारी में कोई तालमेल नहीं...किन्तु
हिस्टीरिकल भी कैसे कहा जाय...?’
कुछ देर बाद फिर
आवाज आने लगी।डॉ.सेन ने चौंक कर कहा ‘ह्वॉऽट! पूर्वजन्म? यह क्या कहते हैं आप?क्या आपको संदेह हो रहा है कि पिछले जन्म
की बातें याद आ रही हैं
इसे?’-
फिर कुछ देर तक उधर से बात होती रही।फिर चौंकते हुए डॉक्टर सेन ने कहा-
‘ठीक है।मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।आप यथाशीघ्र आने
का प्रयास करें।’
उधर डॉक्टर सेन ने ‘क्रेडल’
पर रिसीभर रखा।इधर मीना हड़बड़ा कर दो पग पीछे हट गयी।फिर कुछ सोच कर आगे बढ़,कक्ष का पर्दा सरका दी।पत्रिका अभी
भी उसके हाथ में ही थी।
‘मे आई कम
इन डॉक्टर?’
‘ओह मीना!
कम इन...कम इन।’-मुस्कुराते हुए कहा डॉ.सेन ने और इशारा किया सामने की खाली कुर्सी
की ओर- ‘टेक योर
सीट प्लीज।’
‘किससे
बातें हो रही थी डॉक्टर,क्या मैं जान सकती हूँ?’- अन्दर आ कुर्सी पर
बैठती हुयी मीना ने कहा,साथ ही
नजरें घुमा इधर-उधर देखने लगी कमरे में।अचानक उसकी निगाह अटक गयी सामने की दीवार
पर टंगे कैलेण्डर पर,जो
मध्यप्रदेश का सरकारी कैलेण्डर था।इस कैलेण्डर पर अंकित तिथि और वर्ष फिर एक बार चौंका
गया मीना को।पत्रिका की तरह कैलेण्डर भी सन् १९८३ई. का था।
‘तुम्हारे
बारे में ही बातें हो रही थी मीना।’-किसी अज्ञात स्नेह ने ‘आप’ के औपचारिक सम्बोधन
को दूर खदेड़ दिया।मुस्कुराते हुए डॉ.सेन ने कहा-‘तुम्हारा
केस बड़ा ही इन्टरेस्टिंग है।उसी सम्बन्ध में जिला-चिकित्सा-पदाधिकारी से बातें कर
रहा था।’
‘क्या कहा
उन्होंने मेरे बारे में?’-उत्सुकता जाहिर की मीना ने,जब कि उसके दिमाग में अभी भी
कैलेण्डर का कौतूहल बना हुआ था।
‘वे स्वयं
ही आकर तुम्हारा परीक्षण करना चाहते हैं।अभी आधे घंटे में वे आ रहे हैं।’-कहते हुए डॉक्टर उठ
खड़े हुए।
‘क्यों कहीं
जा रहे हैं क्या?’
‘नहीं...नहीं।तुम
इत्मिनान से बैठो।मैं कहीं
जा
नहीं रहा हूँ।’- कहते हुए डॉ.सेन बगल मेज के पास गये,और मीना की नजरें बचाते हुए,दराज में रखे टेपरेकॉर्डर ऑन कर
दिये।
‘मुझे एक
बात की जिज्ञासा है डॉक्टर अंकल।’
‘कहो क्या
जानना चाहती हो?’
‘आज तारीख
कौन सी है?’-कैलेण्डर की ओर देखती हुयी मीना ने कहा।
‘२५ मई।’-संक्षिप्त सा
उत्तर दिया डॉ.सेन ने,और उसके
चेहरे पर गौर करने लगे,जिससे
उन्हें आभास मिला कि वह उनके उत्तर से संतुष्ट नहीं
है।अतः
बोले-‘क्यों
तुम्हें कुछ शंका है क्या? कैलेण्डर तो सामने टंगा है,खुद ही देख लो।’
‘सो तो देख
ही रही हूँ।तारीख आप सही बतला रहे हैं।जैसा कि मुझे याद आ रही है- सत्रह मार्च से मेरी परीक्षा थी
हाईयर सेकेन्डरी की,और अन्तिम
सप्ताह में समाप्त भी हो गयी थी।इसके बाद सप्ताहान्त में मैं गयी थी कमल के साथ
कालेश्वर घूमने।वहाँ से आने के बाद वह घर चला गया था।कोई डेढ़ महीने बाद,यानी कि २१ या २२ मई के प्रातः हमलोग
प्रस्थान किये थे कलकत्ते से वाराणसी के लिए,जहाँ मेरे मौसा रहते थे।इसी क्रम में
मैं गिर पड़ी
टेªन से...।’-कहती
हुयी मीना कुछ सोचने लगी।उसके माथे पर पसीने की बूदें मोती की लड़ियों की तरह उभर
आयी,जिन्हें
हाथ से पोंछती हुयी वह सामने की दीवार पर देखे जा रही थी।
सामने बैठे डॉक्टर
उसके चेहर पर गौर करते रहे।उधर दराज में छिपा टेपरिकॉर्डर का स्पूल घूमता
रहा।चुपके-चुपके,मीना की
बातों को उतारता रहा- अपने ‘भौतिक जेहन’ में।डॉक्टर जिज्ञासा भरी दृष्टि उसके
चेहरे पर डाले,सोच रहे थे
कि आखिर यह कहना क्या चाह रही है?
सामान्य सी बात- एक
तारीख याद करने के लिये समूचा इतिहास पढ़ने का तो कोई प्रयोजन नहीं
है।
मीना को मौन साधे
कोई पांच मिनट से अधिक हो गये।तब उत्सुक होकर डॉक्टर ने पूछा-‘क्यों, चुप क्यों हो गयी? फिर क्या हुआ?’
‘बतलाती हूँ।’- लम्बी सांस खींचती
हुयी मीना बोली- ‘ पटना के आसपास ही कहीं
एक्सीडेन्ट
हुआ था। फलतः पटना के बड़े अस्पताल में भर्ती हुयी थी। टेलीग्राम द्वारा शायद डैडी
ने सूचित कर कमल को बुलाया था...ओफ कमल! कहाँ हो तुम?’- अचानक उसके मुंह से
उच्छ्वास निकल गया।कुछ देर के मौन के बाद फिर बोली-‘सब कुछ तो
ठीक है डॉक्टर,तारीख भी
ठीक है,महीना भी
ठीक ही है,किन्तु
ई.सन् को लेकर मुझे इतना कन्फ्यूजन क्यों हो रहा है? पत्रिका और
कैलेण्डर के ई.सन् से मेरे याददास्त का मेल नहीं
खाता।यह
मुझे बिलकुल ही गलत लग रहा है।
‘क्या कहा- ई.सन् गलत...? गलत है... सो कैसे?’- चौंक कर पूछा
डॉ.सेन ने।
‘गलत या
सही- ये तो आप ही बता सकते हैं।मुझे याद है जहाँ तक, आज तो
२५मई १९६६ई. है।जब कि कैलेण्डर और पत्रिका मई १९८३ई. बता रहा
है।’-
अपनी जानकारी पर जोर देती हुयी मीना ने कहा।
सामने बैठे डॉक्टर
सेन को मानों अल्लाउदीन का चिराग मिल गया हो अचानक।कुर्सी पर ही उछल पड़े खुशी के
मारे।फिर हाथ पर हाथ की मुट्ठी मारते हुए चिल्ला उठे- ‘
ओह!
मिल गया...मिल गया...।’
‘क्या मिल
गया डॉक्टर अंकल? क्या मिला जो आप इतना खुश हो गये अचानक?’-आश्चर्य चकित मीना ने
कहा।
डॉ.सेन कुछ कहना ही
चाहते थे कि तभी कक्ष का पर्दा उठा, और एक स्थूल
काय भव्य मूर्ति का प्रवेश हुआ,जिन्हें देखते ही डॉक्टर सेन खटाक से उठ कर खड़े हो गये।
‘आइये डॉ.
माथुर।कहिये कैसे आना हुआ?’- हाथ मिलाते हुए डॉ. सेन ने पूछा।
‘डी.एम.ओ.साहब
बाहर गाड़ी में हैं।’-नवागन्तुक
मिस्टर माथुर बोले।
चिन्तानिमग्न मीना
वहीं मुंह लटकाये बैठी रह गयी।उसकी समस्या का हल न निकल
पाया।दोनों डॉक्टर बाहर निकल गये।
कोई पांच मिनट बाद
डॉक्टर सेन के साथ डॉ.माथुर एवं जिला-चिकित्सा-पदाधिकारी ने कक्ष में प्रवेश
किया।
परिचय कराते हुए
डॉ. सेन ने कहा-‘आप हैं डी.एम.ओ मिस्टर खन्ना एवं यह है हमारा
पिक्यूलियर पेशेन्ट मीना तिवारी जो अब खुद को मीना चटर्जी कहती है।’
सौम्य औपचारिक
मुस्कान के साथ,उठ कर मीना
ने दोनों को नमस्ते कहा,हाथ जोड़ कर।फिर
बाहर जाने लगी,यह कहती
हुयी- ‘आपलोग
बातें करें।मैं
जरा
विश्राम करना चाहती हूँ।’
‘ठीक है।आप
जा सकती हैं मिस मीना तिवारी।’-मधुर
स्वर में कहा वरिष्ठ डॉक्टर खन्ना ने।पर मीना को तीखे तीर सी लगी उनकी मधुर आवाज।
‘ओफ! मिस
मीना तिवारी!’-भुनभुनाती हुयी बाहर निकल आयी।
मीना के बाहर चले
जाने के बाद डॉ.सेन ने टेवल की दराज से टेपरेकॉर्डर निकाला,और साथ ही उसकी केस-हिस्ट्री की
फाइल। फाइल को डॉ.खन्ना के सामने मेज पर रखते हुये कैसेट-स्पूल रिबैंड कर,प्ले कर दिये।डॉ.सेन और मीना की आवाज
कमरे में गूंजने लगी।
इधर चिकित्सकों की
गहन वार्ता चल रही थी- आधुनिक चिकित्सा और परामनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर
तर्क-वितर्क,और ठीक उसी
समय उधर पंडित रामदीन तान्त्रिक के दरवार में तन्त्र का राग अलापा जा रहा था।
उस समय अस्पताल से
प्रस्थान कर,रास्ते में
लौंग-चावल लेते हुए निर्मल जी पहले अपने घर गये।वहाँ दोनों बहुओं को छोड़,उधमपुर चले गये सविता को पहुँचाने।और
वहाँ से चल दिये पंडित रामदीन के दिव्य दरवार का दर्शन करने।
गांव के बाहर ही
गाड़ी लगा दी।निर्मलजी स्वयं गाड़ी में ही बैठे रहे।वहाँ जाना उन्हें उचित न
लगा।पदारथ ओझा को लेकर तिवारीजी पहुँचे पंडितजी के द्वार पर।
तिवारीजी को देख कर
मन ही मन कुंढ़ गये पंडित रामदीन, किन्तु ओझाजी
को साथ देख कर कुछ राहत महसूस किये।औपचारिक अभिनन्दन के बाद
विषय-वार्ता प्रारम्भ हुयी।
तिवारी जी के हाथ
से चावल और लौंग लेकर सामने रख लिया पंडितजी ने।बहुत देर तक नाक-कान खुजलाते
रहे।माथे पर बँधी गोक्षुरी शिखा पर हाथ फेरते रहे।फिर भीमकाय तोंद पर हाथ फेरते
हुये,उदास सा
मुंह बना कर बोले- ‘आप कहाँ से
फेर में पड़ गये तिवारी भाई?’
‘क्यों क्या
बात है महाराज?’-विनीत भाव से तिवारीजी ने पूछा।
सामने रखे लौंग को
उठा कर,पल भर के
लिए दाहिने कान के पास ले गये रामदीन पंडित,मानों क्रेडल से घनघनाता दूरभाष यन्त्र उठा
कर कानों से लगाया हो।फिर उसी तरह बात भी करने लगे मानों टेलीफोन पर ही बात कर रहे
हों।
‘ठीक
है...ठीक है...हाँ तो...अच्छा ये बात...अच्छा और...बहुत दिनों से... अच्छा...बाप
रे...ऊँह...और...तब...कैसे...ओ...ठीक हो जायेगा...अच्छा..।’
इसी तरह कोई पांच-सात
मिनट तक उनकी अलौकिक फोन-वार्ता चलती रही।फिर इत्मिनान से तोंद सहलाते हुये बोले- ‘लौंग का
संवाद तो स्पष्ट कर रहा है कि अभी आप अपनी पुत्री...जिसका नाम सिंह राशि के
द्वितीय चरणाक्षर यानी ‘मी’ से प्रारम्भ है,उसी की समस्या लेकर उपस्थित हुये हैं।’
आश्चर्य चकित
तिवारीजी ने स्वीकृति की मुद्रा में सिर हिलाया। उनकी पीठ पर हाथ से ठोंकते हुये
पदारथ ओझा ने कहा-
‘देख लिये न
हमारे तान्त्रिक जी का चमत्कार? इन्हें क्या पता था कि हमलोग अभी मीना के
स्वास्थ्य की समस्या लेकर उपस्थित हुये हैं। बेचारी कल
से...।’-ओझाजी अभी कुछ चापलूसी बतियाते,पर बीच में ही बोल पड़े तिवारीजी-
‘रूकिये न।पंडित जी तो कह ही रहे हैं।मैं क्या नया आया हूँ इनके पास इन्हीं
की
कृपा से तो मुझे वुढ़ापे में पुत्री-रत्न की प्राप्ति हुयी है। क्या मैं इनका गुण कभी भूल
सकता हूँ?’
‘सब ऊपर
वाले की कृपा है।मैं
क्या
करूँगा? मुझमें
सामर्थ्य कहाँ है किसी को बेटा-बेटी दे सकने की? अब यही देखिये न,अभी जो कुछ मैं आपको बतला गया,क्या मुझे कुछ दीख-सुन रहा है? नहीं...कुछ नहीं।ये
सब मातेश्वरी की महिमा है सिर्फ।वही कह जाती हैं कानों में आकर।मैं तो मात्र उनका अनुचर ठहरा।’-कहते हुये
पंडितजी बगल में रखी एक छोटी सी पुस्तिका- ‘केरल प्रश्न संग्रह’ उठा ली।उसे पलटते
रहे कुछ देर।फिर कहने लगे-
‘....हाँ तो मैं कह रहा था कि आप अपनी पुत्री की शारीरिक
समस्या को लेकर उपस्थित हुये हैं।मगर यह जान कर आश्चर्य होगा कि आपकी बच्ची शारीरिक रूप से
नाम मात्र की ही अस्वस्थ है।’
पंडितजी की बात सुन
कर सिर नीचे कर चुप बैठ रहे तिवारीजी। ओझा जी ने चापलूसी की- ‘घबराइये नहीं
मधुसूदन
भाई। पंडित जी का कथन कुछ और ही है।’-कहते हुये कुछ खास अन्दाज में अपना हाथ
घुमाया ओझा जी ने जिसका अर्थ या भाव तिवारी जी जान-समझ न पाये।ओझा जी कुछ देर तक
अपने माथे पर भी हाथ फेरते रहे।
पंडितजी का ध्यान
इसी ओर था।कुछ देर की मौन साधना के बाद,कहने लगे- ‘पहले मेरी
बात तो सुनिये तिवारी जी।शारीरिक स्वास्थ्य का मतलब यह नहीं
कि
उसे कुछ हुआ ही नहीं है।’
फिर एक लौंग उठा कर
कान के पास ले गये।अद्भुत यन्त्र वार्ता पुनः प्रारम्भ हुयी- ‘अच्छा...हाँ..हाँ..ओ!तो
माथे में गड़बड़ी है...चोट...समझा..कल रात से...हाँ..अस्पताल....ना...ठीक...बेहोशी...पहले
से भी...अच्छा...होता ही था... अन्तरिक्ष...क्या...।’
‘सुन लिए न
मधुसूदन भाई क्या कहा पंडितजी ने? तुम तो जरा सी बात में बच्चों जैसा घबराने लगते हो।’- दांत निपोरते हुए
पदारथ ओझा ने कहा। तिवारीजी बेचारे चुप सिर झुकाये रहे।
‘कहने का
मतलब यह है कि तिवारी जी! आपकी बच्ची के माथे में कोई गड़बड़ी आ गयी है,कल रात से।अभी वह अस्पताल में है।पर
सच पूछिये तो यह औषधोपचार से सुधरने वाला मामला नहीं
है...।’-पंडितजी
कह ही रहे थे कि ओझाजी बीच में ही बोल उठे- ‘तो क्या कुछ पूजा-
पाठ...क्रिया-अनुष्ठान....?’
‘हाँ भाई!
तान्त्रिक अनुष्ठान से नहीं तो क्या डॉक्टरी
दवा से ठीक होने वाली है? वैसे यह समस्या भी कोई नयी नहीं है।पिछले कई वर्षों
से,या कहें कि
बचपन से ही गड़बड़ी चल रही है।बच्ची अन्तरिक्ष बाधा के चपेट में पड़ गयी है।’
‘यह अन्तरिक्ष-बाधा
क्या होता है महाराज?’- अनभिज्ञ सा मुंह बनाये तिवारी जी ने पूछा।
मुस्कुराते हुये
रामदीन पंडित ने कहा- ‘नहीं
समझे
इसका मतलब? कहने का
मतलब यह है कि आकाशचारी प्रभाव से ग्रस्त है।’
मन ही मन खीझ उठे
तिवारीजी।सोचने लगे कि कहाँ से फंस गये फिर इस लोभी पंडित के चक्कर में!एक बार तो
बगीचा बेंचवाये,अब क्या
देह बेचना पड़ेगा?
अतः
खीझते हुए बोले- ‘स्पष्ट क्यों नहीं
कहते
पंडित जी? मैं ठहरा गंवार आदमी।
क्या समझ पाऊँगा यह सब तान्त्रिक शब्दावली।आकाश में तो हवाई जहाज उड़ता है,चील-कौये उड़ते हैं....।’
तिवारीजी की बात पर
ओझा और तान्त्रिक दोनों ही खिलखिला उठे। कुछ देर तक हँसी से तोंद हिलते रहा- समुद्र
की लहर की तरह।फिर जरा स्थिर होकर बोले- ‘आप भी बड़े भोले हैं तिवारी जी।आकाश में क्या सिर्फ हवाई जहाज, और पक्षी ही उड़ते हैं? ग्रह-नक्षत्र,भूत-प्रेत आदि सबका स्थान तो आकाश ही
है।आपकी बच्ची प्रेत-बाधा-ग्रस्त हो गयी है।तदहेतु विशेष अनुष्ठान करना पड़ेगा।
अन्यथा बड़ी परेशानी होगी।
‘करेंगे नहीं।करना
ही होगा।गुजारा है अब किये बिना। जो भी उपाय हो आप बतला दें।’-माथे पर हाथ फेरते हुए
पदारथ ओझा बोले।
‘उपाय तो
बतलाऊँगा ही।पर जैसी विकट बाधा है,उपाय भी तो वैसा ही करना पड़ेगा।वैसे तो कई तरह के उपाय हैं;किन्तु मेरे विचार से सबसे आसान और
कारगर उपाय है- प्रचण्ड महाविद्या की क्रिया- तैंतिस दिनों की इस क्रिया से भयंकर
से भयंकर प्रेत,वैताल,ब्रह्मराक्षस सब के सब भाग खड़े होते
हैं,या कहिये
कि भस्म हो जाते हैं-
जैसे
रूई के ढेर पर माचिस की तिल्ली डालने से होता है।’
‘यह क्या
होता है पंडितजी कितना क्या
चाहिये इसके लिए सो भी बतला दें तब न। चापलूसी की ओझा ने और फिर अपने ‘सिगनल’ का प्रयोग किया,माथे पर हाथ फेर कर।’
‘सो तो बतला
ही रहा हूँ।सबसे पहले तो इक्कीश सेर शुद्ध गोघृत की व्यवस्था करनी होगी।यह तो जान
ही रहे हैं कि आज के जमाने में
यह ‘शुद्ध’ शब्द
भी शुद्ध नहीं रह गया है।फिर किसी सामग्री की शुद्धता
पर विश्वास कैसे किया जाय...।’- लोभी रामदीन ने भूमिका बनायी।
तिवारीजी मन ही मन
भुनभुनाये- यही बात व्यक्ति के साथ भी है।जब
सामान ही शुद्ध नहीं तो फिर
नीयत शुद्ध कहाँ से हो!
‘...यही कारण
है कि आजकल अनुष्ठान-पूजा में सफलता नहीं मिलती,और धर्मशास्त्र नाहक ही बदनाम हो
जाता है।’- तोंद
सहलाते हुए पंडितजी कहने लगे- ‘हाँ तो पहला सामान
हुआ गोघृत,इसके अलावे
चौदह सेर मधु,वह भी शिरीष
के बगीचे का।ग्यारह सेर तिल,ग्यारह सेर उड़द, सवा मन
गोदुग्ध,बीस सेर
दही,बीस सेर
गुड़,सवा मन
अरवा चावल एवं पांच मन बड़ की लकड़ी।ये सब सामग्री आप पहले इकट्ठा कर लें।साथ ही
कुछ और छोटे-मोटे सामानों की सूची मैं बना कर दे
रहा हूँ।एक बात जो सर्वाधिक ध्यातव्य है- हर सामान की शुद्धता अनिवार्य है, अन्यथा मैं परिणाम के असफलता के लिए दोषी नहीं।’
‘किन्तु यह
तो काफी खर्चीला उपाय लग रहा है महाराज।’- उदासीन होकर तिवारी जी बोले।
‘आप यही
समझिये कि सर्वाधिक सुलभ क्रिया मैं सुझा रहा
हूँ।इस क्रिया को शंकर का तीसरा नेत्र ही समझें- कामदेव की तरह सारे विघ्न भस्म हो
जाते हैं।जान पर
खेल कर कठिन तान्त्रिक क्रियायें करनी पड़ती हैं।जीवन गुजर जाता है साधना करते, तब कहीं
जाकर
सिद्धि थोड़ी हाथ लगती है।गँवई ओझा-गुनियों की तरह थोड़े जो है कि पावभर लोहवान और
सफेद सरसो से भयंकर भूत भगाने का ढिंढोरा पीटते हैं।उन लोगों को कभी असली भूत से पाला
पड़ जाय तब छट्ठी का दूध याद आ जाये।’-तोंद पर हाथ फेरते हुए रामदीन पंडित बोले-‘वैसे आपकी
इच्छा,क्रिया
कराये न करायें।’
और
अपना पोथी-पतरा समेंटने लगे।
‘नहीं...नहीं...
महाराज!
उपाय तो करना ही पड़ेगा।नहीं तो क्या इकलौती
बेटी की जान लेंगें? आप फेहरिस्त तो बनाइये।’-बीच में ही टपक पड़े ओझाजी।
उन्हें भय हो रहा था कि कहीं
मुकर
गये तिवारीजी तो सब गुड़ गोबर हो जायेगा
कोई आध घंटे बाद,लम्बा-चौड़ा फेहरिस्त लेकर चल पड़े
तिवारीजी,यह कहते
हुए - ‘सप्ताह-दस
दिन तो लग ही जायेंगे इतना कुछ करने-जुटाने में। सामग्री की व्यवस्था हो जाय फिर दर्शन
करूँगा श्रीचरणों का।’
‘ठीक है,कोई बात नहीं।’
औपचारिक
दण्ड-प्रणाम के बाद दोनों मित्र विदा लेकर आगे बढ़े,जहाँ दो घंटे से तपस्या कर रहे थे, बेचारे उपाध्यायजी वट वृक्ष की छांव में।
रास्ते भर ओझाजी मक्खन-मालिश
करते रहे।तिवारीजी को समझा-बुझा कर हर तरह से राजी करने का प्रयास करते रहे
अनुष्ठान के लिए;किन्तु तिवारी जी ने साफ शब्दों में कहा-
‘जो भी हो,उपाध्यायजी के कथनानुसार ही होगा।अब
मीना मात्र मेरी बेटी ही नहीं,बल्कि उनकी बहू भी...।’
‘वाह!’-बीच
में ही बात काटकर ओझाजी ने कहा- ‘ क्या बात
करते हो? अभी न
कन्यादान हुआ,और न फेरे
लगे।बहू कैसे बन गयी? दुनियाँ की सारी लड़कियों को क्या केकड़ा खा गया,जो तुम्हारी रोगी लड़की को...। हो
सकता है,वे अब शादी
करना ही न चाहें।’
ओझा की बातों का
कुछ भी जवाब देना जरूरी न समझा तिवारी ने।
पास पहुँचते ही
उपाध्यायजी बोले- ‘बहुत देर लगा दी आपलोगों ने।’
‘उनके पास
पहुँच जाने के बाद पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता है।’-कहते हुये तिवारीजी आ बैठे
गाड़ी में।साथ ही ओझाजी भी आ बैठे।
‘क्या कहा
पंडितजी ने?’-उपाध्यायजी
ने पूछा।
‘कहेंगे क्या? यही कोई दो-तीन
हजार का अनुपूरक बजट पेश किये।’-कहते हुये तिवारीजी ने विधाता की जन्मपत्री सी
लम्बी सूची, अपनी जेब से निकाल
कर आगे बढ़ा दी।
खीझते हुये ओझाजी
बोले- ‘तुम भी
अजीब हो मधुसूदन! सारा कुछ तो उगल दिया पंडितजी ने,जो भी घटना घटी है।अब क्या चाहते हो,इतनी बड़ी बला क्या फोकट में सलटा दें?’-फिर
निर्मलजी को सम्बोधित करते हुए,रामदीन पंडित की पूरी कीर्ति कुछ मधुवेष्ठित रूप में
आद्योपान्त सुना डाली ओझाजी ने।
व्याख्यान सुन कर
अकल ही गुम हो गयी उपाध्यायजी की। अफसोस के साथ आश्चर्य प्रकट करते हुए बोले- ‘ओफ! अजीब
हाल है।एक से एक विचित्र बातें हैं- इस प्रपंची दुनियाँ में।अब बतलाइये न यह अन्तरिक्ष बाधा कहाँ
से आ ग्रसी बेचारी मीना बेटी को?’
‘आखिर आपका
विचार क्या है? मधुसूदन
भाई तो कहते हैं कि मीना अब आपकी
बहू है।आप जो कहेंगे,वही होगा।’-दांत
निपोरते हुये ओझाजी बोले।
‘इसमें संदेह
की क्या बात है?असल बात बेटी या बहू होने की नहीं
है,स्नेह और प्रेम की है।रही बात
अनुष्ठान की,तो उसके
लिये हड़बड़ी ही क्या है?दो-चार दिन तो
अस्पताल में ही लगेंगे।फिर जैसी सलाह होगी डॉक्टरों की, उस मुताबिक किया जायेगा।पहले तो समुचित इलाज
की जरूरत है।’-उपाध्यायजी ने अपना स्पष्ट विचार दिया।
उपाध्यायजी की
बातों से साफ हो गया कि अभी ओझा की दाल गलने वाली नहीं
है।अतः
प्रसंग बदलते हुये ओझा ने कहा- ‘अरे मैं तो भूल ही गया था,शाम का समय दिया था
माधोपुर चौधरी को।वे प्रतीक्षा में होंगे।’
‘ठीक है।कौन
कहें कि रात हो गयी।मैं
भी
जरा घर हो लूँ।बहनें वहाँ चिन्तित होंगी।उधमपुर तो जाने की अब तो जरूरत ही नहीं
रही।अच्छा
होता माधोपुर ही होते चलते।’-तिवारीजी बोले।
‘ठीक ही है।’-कहते
हुये उपाध्यायजी ने गाड़ी बढ़ा दी।
रास्ते भर सभी लोग
खोये रहे अपने आप में ही।फलतःकोई बातचित न हुयी।करीब आधे घंटे बाद लोग पहुँचे
माधोपुर,तिवारीजी
के दरवाजे पर।ओझाजी गाड़ी से उतर कर चल दिये चौधरी के घर की ओर।उन्हें जरा रोकते
हुए तिवारीजी ने कहा-
‘पदारथ
भाई!चौधरी से मेरा राम-सलाम बोल दोगे,साथ ही मेरी स्थिति से भी अवगत करा दोगे।कौन जाने अभी कब तक
यह सब चक्कर चलेगा।मकान छोड़ने के लिए दस दिनों का मोहलत मांगा था। आधा वक्त तो
खतम हो गया। अभी तक कुछ सोच भी न पाया हूँ।
कहते हुए तिवारीजी
का गला भर आया।सान्त्वना देते हुए उपाध्यायजी ने कहा- ‘चिन्ता न
करें तिवारीजी।मेरे जीवन भर आपको कोई कष्ट न होगा।वैसे एक दफा कह कर देखिये।यदि नहीं
मानता
तो फिर छोडि़ये मोह- घास-फूस की इस ‘एहसानी’ झोपड़ी की।आखिर एक
न एक दिन वह परेशान तो करेगा ही। दौलत वाले अक्ल के अंधे होते हैं।उन्हें यह विश्वास होता है कि दौलत
साथ लेते जायेंगे।’
‘आखिर रहने
का कोई ठौर तो चाहिये ही न भाईजी?’-रूआँसे होकर कहा तिवारीजी ने।
‘इसकी
चिन्ता भी मुझ पर छोड़ दें,या कहें कि ऊपर वाले पर ही छोड़ दें।
वही प्रबन्ध करेगा, जो उचित समझेगा।वैसे जब आपकी इच्छा हो निःसंकोच चले आवें
मेरे यहाँ।छोटा सा एक उदर और छः फुटी काया...।’
‘यह तो आपकी
महानता है।पर निठल्ले बैठे कब तक आपके द्वार पर रोटी तोड़ता रहूँगा?कौन कहें कि
मेरे मौत का परवाना जल्दी ही आने वाला है?’
‘ऐसा ही है
तो मैं किसी प्राइवेट
स्कूल में ही रखवा दूंगा।तब कमा कर खाने में आपको भी एहसान मन्द नहीं
होना
पड़ेगा।’
उपाध्यायजी की
बातों पर तिवारीजी निरूत्तर हो गये।उनका गला भर आया। मन ही मन सोचने लगे- ‘ओह! निर्मल
जी साक्षात् देवता हैं।आसुरी
सम्पदा युक्त चौधरी और दैवी सम्पदा-विभूषित उपाध्यायजी- दोनों के चरित्र मूर्तिमान
हो उठे उनकी मानस-नेत्रों के समक्ष।उधर,पास खड़े पदारथ मन ही मन जलते-भुनते-कुंढ़ते
रहे- ‘भाग्यवानों
का भूत हल जोतता है...।’अतः यह कहते हुए चल दिये-‘ठीक है,मधुसूदन भाई! चलता हूँ। कल समय मिला
तो किसी समय मुलाकात करूँगा।’
गाड़ी की आवाज सुन,तिवारीजी की दोनों बहनें किवाड़ की
ओट में आ गयी- देखें कौन आया है।
छोटू बाहर निकल आया-
‘मीना दीदी
कैसी हैं मामा जी?’
‘ठीक है बाबू।’-
कहते हुए गाड़ी से उतर कर अन्दर आये तिवारीजी,साथ ही उपाध्यायजी भी।
चौकी पर बैठते हुए
संक्षिप्त जानकारी दिये,दोनों
बहनों को मीना के बारे में,फिर अन्दर रसोई की ओर बढ़ चले।
‘जो भी
तैयार हो,हमलोगों को
खिलाओ जल्दी से।’-कह कर पुनः चौकी पर
आ बैठे तिवारीजी।
‘तब क्या सोच रहे हैं- रामदीन पंडित के दिशा-निर्देश
पर?- पूछा
निर्मलजी ने।
‘मुझे कुछ
समझ नहीं आ रहा है।दूध का जला,मट्ठा फूंकता है।एक बार इन्हीं
पदारथ
भाई की दलाली में पड़कर सात-आठ हजार गंवा चुका हूँ- सन्तति-साधना में।फिर वैसा ही
फेरा लगा रहे हैं।’-तिवारीजी
ने अपना दर्द और अनुभव जाहिर किया।
‘मुझे समझ नहीं
आता,इन सब बातों में कुछ तथ्य भी है या
यूँ ही सिर्फ कमाने-खाने का ढोंग-ढकोसला?’-जेब से खिलबट्टी निकाल,पान की गिलौरी मुंह में धरते हुए
उपाध्यायजी ने कहा- ‘ये आत्मा-परमात्मा की बातें मेरे
पल्ले नहीं पड़ती।मैं तो सिर्फ यही जानता
हूँ कि पंचभूतात्मक शरीर जल जाता है।व्यष्टि समाहित हो जाता है समष्टि में।फिर रह
ही क्या गया जो भूत-प्रेत बन कर इधर-उधर भटकता फिरे?’
उपाध्यायजी की
बातें वृद्ध तिवारी जी की सुप्त दार्शनिकता को कुरेद कर जगा गयी।सिर हिलाते हुए
बोले- ‘आपका कथन
तो बिलकुल सही है भाईजी। किन्तु एक बात आती है दिमाग में- यदि इसे ही सही मान लिया
जाय,फिर-
‘‘आत्मानं रथिनं
विद्धि शरीरं रथमेव तु....’’ का क्या अर्थ होगा?’
थोड़ा झुक कर,बाहर की ओर पीक फेंका उपाध्यायजी ने।फिर
धीरे से मुस्कुराते हुये बोले- ‘आपके कथन का
तात्पर्य यही है न कि शरीर रूपी रथ मृत्योपरान्त नष्ट हो जाता है,फिर भी आत्मा रूपी रथी तो शेष ही रह
जाता है। यह तो कोई नियम नहीं कि रथ के नाश के
साथ ही रथी का भी नाश हो जाय?’
‘बिलकुल ही
सही समझा आपने।रथ नष्ट हो गया।रथी बचा रह गया।चूंकि यह उसका पेशा था अतः पुनः किसी
रथ प्राप्ति का प्रयास वह करेगा ही।’-तिवारीजी ने बात स्पष्ट की।
‘सो तो
है।इससे यही स्पष्ट होता है कि आत्मा चूंकि ‘अछेद्योयं
अदाह्योयं’ के अनुसार
नाशवान नहीं है,फिर निश्चित है कि इधर-उधर कुछ काल
तक भटकना पड़ सकता है,जैसे कि एक
रथ के टूट जाने पर दूसरे रथ के लिए रथी को भटकना पड़ सकता है।किन्तु एक बात मुझे
फिर भी समझ नहीं आती कि क्या गाड़ी की ‘स्टेपनी’ की तरह शरीर रूपी
रथ का भी स्टेपनी होता है?’- निर्मलजी ने जिज्ञासा व्यक्त की।
‘मतलब?’-चौंकते
हुए तिवारीजी ने पूछा और झांक कर रसोई की ओर देखने लगे।
‘मतलब यह कि
आप भूत-प्रेत के अस्तित्त्व को स्वीकार रहे हैं? आपका कहना यह है कि
मृत शरीर से निकली आत्मा पुनः किसी अनुकूल शरीर की खोज में रहती है।और इसी बीच
मौका पाकर किसी अन्य शरीर में प्रवेश करती है।पर मैं यह नहीं
कह
रहा हूँ। मेरा कहना है कि एक आत्मा के रहते भर में दूसरी आत्मा प्रवेश कैसे कर
सकती है? यदि नहीं तो इससे भी आपके कथन- आत्मानं रथिनं
विद्धि...की स्पष्टी कहाँ हो पा रहा है?’
निर्मलजी कह ही रहे
थे कि तभी छोटू आ उपस्थित हुआ-एक हाथ में ‘झारी’ में जल और दूसरे
हाथ में आसनी लिए हुए।
आसनी बिछाते हुए
उसने कहा-‘मामाजी भोजन तैयार है।’
‘आइये
उपाध्यायजी।इधर दोनों रथियों को उलझने दीजिये।तब तक हमलोग
भोजन कर लें।’
मुंह-हाथ धोकर
दोनों ‘समधी’ भोजन प्रारम्भ किये। भोजनोपरान्त छोटू ने प्रस्ताव रखा-‘मामाजी! माँ
और मौसी कह रही थी कि मीना दीदी को एक बार देख लेते,फिर गांव वापस जाते।
‘अभी एक-दो
दिन रूको।फिर तुमलोग जाना।तब तक मैं भी इधर-उधर
के कामों से निबट लूँ।’-हाथ धोते हुए तिवारीजी ने कहा।
दोनों जन प्रस्थान
किये पुनः अस्पताल के लिए।विमल के लिए भी साथ में खाना ले लिए।
गाड़ी में बैठते
हुए फिर पूर्व विषय पर चर्चा छिड़ गयी। उपाध्यायजी के दिमाग में एक रथ के दो रथी
वाली बात उतर न रही थी।
‘क्यों
तिवारीजी! रथ का मालिक तो एक ही हो सकता है न?’
गाड़ी चल पड़ी।
निर्मलजी की शंका का समाधान करते हुए
तिवारीजी ने कहा- ‘आप अभी इस गाड़ी में बैठे हुए हैं।इस गाड़ी के मालिक भी हैं।’
‘हाँ,हैं तो।’-पान का बीड़ा
मुंह में दबाते हुए कहा उपाध्यायजी ने।
‘मान लीजिये,जैसा कि अभी रात का समय है।रास्ते
में सुनसान पाकर मौका देख कोई दुष्ट दस्यु धावा बोल दे सकता है आप पर?’
‘हाँ,ऐसा हो सकता है।’-स्वीकृति मुद्रा
में सिर हिलाते हुए उपाध्यायजी ने कहा।
‘उस स्थिति
में यथासम्भव संघर्ष भी करेंगे ही आप?’
‘जरूर
करेंगे।शक्ति और साहस रहते भर में गाड़ी छोड़ कर भाग थोड़े जो जायेंगे।’
‘तो बस समझ
लीजिये,यही है शरीर
पर यानी आत्मा पर अन्य आत्मा का धावा बोलना।अधिक स्पष्टी के लिए इसे जीवात्मा कहें
तो ज्यादा अच्छा होगा। दूसरे शब्दों में इसे और भी स्पष्ट करें तो हम कहेंगे कि शरीर
रूपी रथ से विहीन जीवात्मा,जिसे साधारण बोलचाल की भाषा में भूत-प्रेत कहते हैं,के द्वारा शरीरी
जीवात्मा पर आक्रमण हुआ।इस प्रकार हमारा शरीर उन दो आत्माओं-एक जीवात्मा और दूसरे
को सुविधा के लिये हम प्रेतात्मा कहेंगे,का युद्ध स्थल बन जाता है।’- तिवारीजी ने इस
दृष्टान्त द्वारा कथन की स्पष्टी दी। ‘इसका मतलब यह हुआ
कि प्रेत-प्रभाव एक प्रकार का युद्ध है,न कि कब्जा?’-उपाध्यायजी ने पुनः आशंका
व्यक्त की।
‘नहीं, मात्र
युद्ध नहीं है।इसे स्पष्ट करने हेतु आप पूर्व
उदाहरण को ही लें- वह दस्यु आप पर घात करता है।आप उसका मुकाबला करते हैं।यदि आप
युद्ध में पराजित हो जाते हैं तो उस
स्थिति में वह आपकी गाड़ी पर अपना कब्जा भी जमा लेता है।गाड़ी जब तक उसके कब्जे
में है,तब तक तो
आप मालिक पद से च्युत ही कहे जायेंगे न?’
‘लेकिन इससे
भी हमारी मूल समस्या का निदान कहाँ हो पाया?’
‘क्यों?’-तिवारीजी
आश्चर्य पूर्वक पूछे।क्यों कि बात बहुत साधारण सी थी,फिर भी उपाध्यायजी तर्क किये जा रहे
थे।
‘एक शरीर
में तो एक ही आत्मा रह सकती है- इस सिद्धान्त के अनुसार, तत्कालीन शरीर का स्वामी जीवात्मा
कहाँ गयी,उतने समय
के लिये जब तक कि उस पर किसी विजयी प्रेतात्मा का प्रभुत्त्व होता है?’- नयी आशंका जतायी
उपाध्यायजी ने।
‘ठीक उसी
तरह,जिस तरह कि
आपको अपनी गाड़ी से हटा कर वह दस्यु आ बैठा आपकी गाड़ी में,मूल जीवात्मा बाहर हो गयी परास्त
होकर, एवं विजयी
प्रेतात्मा का प्रभुत्त्व कायम हो गया।मगर युद्ध यहीं
समाप्त
नहीं हो गया।बल्कि सिर्फ ढंग बदल गया।पहले गाड़ी के बाहर वह
था,और अब आप हैं।फिर भी आप प्रयास तो करेंगे ही पुनः
अपने स्वामित्त्व हेतु?’
‘हाँ,ऐसा तो होता ही है।हम झगड़ेंगे ही
अपनी औकाद भर।’
‘बस,तो समझ लें कि इसी प्रकार जीवात्मा
और प्रेतात्मा का युद्ध भी चला करता है।व्यक्ति का शरीर युद्ध-क्षेत्र बन कर रह
जाता है।यही कारण है कि प्रेत-ग्रस्त मानव परेशान रहता है।भटकती आत्मा एक स्थान पर
जब अड्डा बना लेती है,फिर वहाँ
से हटने का नाम नहीं लेती।’-तिवारी जी
ने स्पष्ट किया।
‘आखिर इसका
हल क्या हो सकता है?’- उपाध्यायजी ने पूछा।
‘हल वही है,जो प्रत्यक्ष दस्यु के लिये है,यानी पुलिस-अदालत...।’
‘मतलब?’
‘सुनिये,इसका भी तर्क स्पष्ट है।शत्रु को
पराजित करने के लिए शाम,दाम,दण्ड,और भेद -चार प्रकार की नीतियाँ कही
गयी हैं।प्रारम्भ
में तो हम सामान्य अनुनय-विनय से उसे शान्त करने का प्रयास करते हैं।इससे काम नहीं
बनने
पर बड़ी शक्ति- देवी-देवता का शरण लेना पड़ता है।तन्त्र की क्रियाओं के क्रम में
उभय पक्ष की दलीलें सुनी जाती हैं।पुलिस,प्रशासन,कारा,कचहरी आदि सभी व्यवस्था है। तदनुसार वकील,ताइद,मुन्शी,मजिस्ट्रेट आदि भी हैं।ओझा-गुनी,मुल्ला-तान्त्रिक अदालती कार्यकर्ता
हैं।कैद और
फांसी जैसी सजायें भी हैं-यानी बन्धन
और मुक्ति की व्यवस्था है।’
तिवारीजी के
दृष्टान्त से उपाध्यायजी को सोचने पर विवश होना पड़ा।
कुछ देर मौन विचार-विमर्श में रहे।फिर बोले- ‘तब तो
प्रेत-प्रभावों को नकारा नहीं जा सकता?’
‘नहीं।बिलकुल नहीं।प्रेत
हैं ही।उनका प्रभाव है
ही।तब रही बात शक्ति की। यहाँ शक्ति का अर्थ शारीरिक शक्ति मात्र तक ही सीमित नहीं,बल्कि
आध्यात्मिक शक्ति और सामर्थ्य से है।जो जितना शक्ति-सम्पन्न होगा,वह उतना ही सुरक्षित रहेगा,इन बाहरी चपेटों से।कारण कि भटकती
आत्मायें सदा इस खोज में रहती हैं कि कब मौका
मिले और धर दबोचें।’
तिवारी का अकाट्य
तर्क और अनूठा दृष्टान्त उपाध्यायजी को बरबस ही मौन बना दिया।हालांकि अभी भी उनके
मस्तिष्क में अनेकानेक प्रश्न कुलबुला रहे थे।पर अधिक बहस उचित न समझ, प्रसंग बदल दिये।
‘रामदीन
पंडित की बात यदि जंच रही है आपको,तब तो उपाय कुछ करना ही पड़ेगा।’
‘मेरे इस
तर्क का यह अर्थ नहीं कि आपकी राय को
नजरअन्दाज कर,मैं उनकी बात मान ही लूँ।वे तो जालिया आदमी हैं।लोभ वश उल्टा सीधा जाल बुन जाते हैं।मेरा कहना सिर्फ इतना ही है कि यह
सिद्धान्त गलत नहीं है।अतः पहले तो यह
निश्चित होना चाहिये कि मीना सच में प्रेत-वाधा-ग्रसित है या मानसिक व्याधि से
पीडि़त?’-कहते हुए तिवारीजी,उपाध्यायजी की ओर देखने लगे।
‘आधि-व्याधि
का निदान तो चिकित्सक कर ही रहे हैं।’-रास्ते में सोये कुत्ते
को देख कर हॉर्न बजाते हुए उपाध्यायजी ने कहा- ‘न हो तो कल
ही डी.एम.ओ.साहब से भी बात कर ली जाए।वे एक अच्छे मनोचिकित्सक भी हैं।’
‘सो तो होना
ही चाहिए।सामान्य चिकित्सक के अलावे मनोचिकित्सक की राय जाननी भी आवश्यक है।किन्तु
मेरा विचार है,एक बार किसी
योग्य तान्त्रिक से भी परामर्श लिया जाता,तो अच्छा होता।’
‘है कोई
तान्त्रिक-गुनी आपकी जानकारी में? विचार है तो चला जा सकता है।राय-मशविरा करने में क्या
हर्ज है? जहाँ तक
तन्त्र शस्त्र का सवाल है,इस पर मुझे जरा भी अविश्वास नहीं
है।यह
तो सनातन विद्या है,पर,सवाल है योग्य तान्त्रिक का।आजकल तो
ज्यादातर ठग-उचक्के ही मिलते हैं।धूनी रमा,दाढ़ी बढ़ा, रूद्राक्ष का बोझ गले में डाल,बन गये तान्त्रिक।उसमें भी कसर न रहे,इसके लिये कब्रगाह से खोपड़ी उखाड़
लाये।वह भी न मिला तो गाय-बैल की हड्डी ही रख लिये झोली में।एक दो बाजीगरी सीख
लिये- मिश्री-छुहारा खिलाने का।इतने आडंबर के बाद,जाहिल जनता को उनके चक्कर में पड़
जाना आश्चर्य ही क्या? हाँ,यदि किसी सुख्यात, स्वनामधन्य
राजनेता ‘भगवान’ की कृपा हो गयी,तो फिर उन्हें भी भगवान बनने में देर
ही कितनी लगनी है।आप देख ही रहे हैं- आजकल कितने
सारे भगवान अवतार ले लिये हैं।दुनियाँ में कोई काम न मिले तो सबसे आसान है- साधु बन
जाना।आत्मा से महात्मा बन कर एकाएक उच्चपद प्राप्त कर लेना- जटिलो मुण्डी,लुंचित केशः,काषायाम्बर
बहुकृत वेषः।पश्यन्नपि न च पश्यति मूढः,उदरनिमित्तं बहुकृत
वेषः।। - के सिवा कुछ और तो नहीं?’
उपाध्यायजी की
उक्ति पल भर के लिये उदास मधुसूदन को गोपियों सी गुदगुदा गयी,मानों मधुसूदन का ही दर्शन हो गया
हो। गाड़ी अस्पताल के प्रांगण में आ रूकी।विमल वरामदे में ही टहल रहा था।उन्हें
आता देख आगे बढ़ आया।
‘क्या हाल
है मीना का?’- टिफिन
बॉक्स विमल के हाथ में देते हुये,तिवारी जी बोले- ‘यह
तुम्हारा खाना है।हमलोग घर से ही खा-पीकर आ रहे हैं।’
विमल डब्बा लेकर
आगे बढ़ गया वरामदे की ओर- ‘डी.एम.ओ.साहब आये
हुये हैं।परीक्षण कक्ष
में मीना को ले जाया गया है।’
तिवारीजी के
साथ-साथ उपाध्यायजी भी गाड़ी से उतर कर वरामदे में आ गये।बेंच पर बैठते हुये पूछे-
‘इस बीच
उसके कमरे में नहीं गये तुम?’
‘कहाँ जा
पाया।आपलोग के जाने के बाद काफी देर बाद तक तो डॉक्टर ही पूछताछ करते रहे,एकान्त में।फिर वे जाने लगे तो मैंने उनसे मीना की स्थिति पूछा।बतलाये
कि ठीक है,किन्तु अभी
उसे बिलकुल ही एकान्त की आवश्कता है।मैं भी यहाँ
अकेला बैठे बोर हो रहा था।अतः बाजार की ओर निकल गया।अभी दस मिनट पहले आया तो देखा
कि उसका कमरा खाली है।सिस्टर से पूछने पर जानकारी मिली कि बड़े साहब आये हुये हैं,जाँच चल रही है।’ -हाथ में खाने का डब्बा लिए, बेंच पर बैठते हुये विमल ने कहा।फिर डब्बे
को रखते हुये तिवारी जी की ओर देख कर पूछा- ‘वहाँ रामदीन पंडित
ने क्या कहा?’
‘उनका तो
अनुमान अजीब है।कहते हैं- प्रेत-वाधा ग्रसित
हो गयी है।’-उपाध्यायजी ने विमल की बातों का जवाब दिया।
‘प्रेत वाधा!’-चौंकते
हुये विमल बोला- ‘तब इसका क्या उपाय है? मेरा अनुमान तो
कुछ और ही था।मैंने कहा भी
था आपलोगों से कि इसमें उन्हीं महानुभाव का कुछ
कृत्य है।’
‘खैर जो भी
हो।अपना कुकृत्य कह थोड़े ही देता है कोई? अब तो जैसे नाच नचावें,नाचना ही पड़ेगा।’-उपाध्यायजी ने
कहा।
‘तुम जाकर
पहले खाना खा लो बेटे।’-तिवारीजी ने कहा ।
‘अभी तो आठ
भी नहीं बजे हैं।’-घड़ी देखते हुये
विमल बोला- ‘बाद में खाया जायेगा।शाम में बाहर जाकर
नास्ता कर आया हूँ।खैर,और कुछ
सोचें-विचारें,आगे क्या
करना है मीना के लिए।’
‘तिवारीजी
का विचार है-
किसी
अन्य योग्य गुनी से मिलने का।’- विमल की बातों का जवाब देते हुये निर्मलजी ने तिवारीजी
की ओर देखते हुये कहा-‘तब मधुसूदन भाई! योग्य तान्त्रिक आया
आपके स्मरण में कोई?’
‘मेरी नजर
में तो कोई नहीं है।’-मुंह बिचकाते हुये तिवारीजी
बोले।
‘अच्छा
पापा! उस बार की बात याद हो शायद आपको भी- हमलोग टांगीनाथ के दर्शन हेतु गये
थे।वहाँ एक वयोवृद्ध सिद्ध योगी का भी दर्शन हुआ था।’-सिर खुजलाते हुये विमल अपने
स्मरण पर बल देते हुये बोला।
‘हाँ,हाँ,याद आयी।’-प्रसन्न होकर उपाध्यायजी
बोले-‘पहले तो
हमारे दिमाग में यह बात न थी,किन्तु अभी तुमने कहा तो याद आ गयी।वे तो बहुत ही सिद्ध पुरुष
हैं।प्रायः लोग आते-जाते रहते हैं उनके पास
अपनी जटिल समस्याओं को लेकर।किन्तु मुश्किल है उनका दर्शन ही।हमेशा वे तो गर्भगत
गुफा में तप-लीन रहते हैं।कभी कभार
बाहर आते भी हैं
तो
जन- सम्पर्क से दूर ही रहना चाहते हैं।खैर,यदि विचार है तो प्रयास करने में क्या हर्ज? शायद मीना बेटी
के भाग्य से दर्शन हो ही जाय।’
‘सोचना क्या
है।क्यों न हमलोग कल ही वहाँ चलें।’-तिवारीजी ने प्रसन्नता पूर्वक कहा।
फिर थोड़ी देर इधर-उधर की बातें होती रही।‘आया’
आकर निर्मलजी को
बुला ले गयी,जहाँ डॉक्टर लोग बैठे विचार-गोष्ठी कर रहे थे।
कक्ष में प्रवेश
करते ही,बगल की एक
खाली कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- ‘मिस्टर
उपाध्याय! इस प्रमाण के लिए कि मीना आपकी बच्ची है,आपके पास कुछ सबूत है?’
डॉक्टर खन्ना की
बात पर अचानक चौंक पड़े उपाध्यायजी।ऐसे प्रश्न के लिए वे उम्मीद भी न किये
होंगे।मीना की स्थिति,एक वरिष्ठ
पुलिस-पदाधिकारी से,उनकी बेटी
को ‘बेटी’ होने का प्रमाण
प्रस्तुत करने को वाध्य करेगी-स्वप्न में भी इसका गुमान न रहा होगा। पल भर के लिये मानसिक
रूप से विचलित हो उठे।हृदय सिकुड़ता हुआ सा महसूस हुआ,मानों बरबरता पूर्वक उसे कस कर
मुट्ठी में मींच लिया गया हो।धमनियों में एकाएक रक्त के स्थान पर लगा कि वर्फ के
ठोस कण प्रवाहित होने लगे हों,या किसी यान्त्रिक अवयव के वाधा स्वरूप विटामीन ‘के’ की अचानक वृद्धि हो
गयी हो, और तेजी से रक्त-स्कन्दन होने लगा हो।उन्हें समझ न आया कि क्या जवाब दिया
जाय इस प्रश्न का।अतः कमरे में इधर-उधर दृष्टि दौड़ने लगे,किन्तु मीना वहाँ कहीं
नजर
न आयी।शायद किसी दूसरे कमरे में भेज दिया गया था उसे।
‘क्यों
मिस्टर उपाध्याय! क्या सोचने लगे?’-उनके चेहरे पर गौर करते हुए डॉ.सेन ने
पूछा।प्रश्न की पुनरावृत्ति से तिलमिला से गये निर्मल जी,साथ ही इतने भाउक हो उठे कि बरबस ही
उनकी आँखों के किनारे गीले हो आये।हकलाते हुये से बोले,मानों अपराधी का
अपराध स्पष्ट हो गया हो-
‘मीना मेरे
मित्र मधुसूदन तिवारी की बच्ची है।मैं इसे बचपन
से ही प्यार करता हूँ।मेरी कोई बेटी नहीं है।मैं इसे अपनी बहू बनाने
जा रहा था। इससे अधिक और क्या कहूँ? यदि इतने मात्र से
मेरा जवाब पूरा न माना जायगा तो विशेष के लिए मुझे सोचना पड़ेगा।’
‘घबराइये नहीं
मिस्टर
उपाध्याय।आप कोई मुजरिम नहीं हैं,और न यह कोई अदालत है।न आप पर कोई इलज़ाम ही
है।किन्तु कभी कभी सत्य को भी सत्य सिद्ध करने के लिए सत्य की आवश्यकता होती
है।हमलोगों के सामने भी कुछ ऐसी ही समस्या आ खड़ी हुयी है।यह सही है कि मीना
तिवारी जी की बच्ची है।आप उसे बचपन से ही जानते ह®।उसे बहू बनाना चाहते हैं, किन्तु समस्या है
कि वह आपलोग को अपना कहने से बिलकुल इनकार कर रही है। हमलोगों ने काफी प्रयास किया
उसे समझाने का;किन्तु उसकी एक ही रट है- वह अपने मम्मी-पापा और पति को ढूढ़ रही
है।किन्तु यह भी शत-प्रतिशत सत्य है कि उसके मस्तिष्क में भी किसी तरह का विकार नहीं
हैं।’- डॉ.खन्ना ने बात
स्पष्ट की।
‘यदि कुछ भी
विकृति नहीं है तो फिर ये सब क्या और क्यों हो
रहा है?’-साश्चर्य पूछा उपाध्यायजी ने।
‘इस सम्बन्ध
में हमलोग पुनः बैठक करेंगे।अब तक के विचार- विमर्श से कुछ तथ्य सामने आये हैं।कल हमारे सहायक मिस्टर सेन ने एक
पत्रिका दी थी उसे पढ़ने के लिए,जिस पर वर्तमान तारीख छपी थी।उसे देख कर मीना को आश्चर्य हुआ
कि यह सत्रह वर्ष आगे की तारीख क्यों कर छपी है पत्रिका पर।वह अपनी समस्या को
डॉ.सेन के सामने रखी।इसी क्रम में विगत सत्रह वर्ष पूर्व के पन्द्रह-सोलह वर्षों
की बातें सुना गयी।यानी कि २५ मई १९६६ई.से लेकर पीछे की ओर लगभग १९५०-५२ई.तक की
सभी घटनायें सिलसिलेवार ढंग से सुना
गयी। पर २५ मई १९६६ई.
के बाद की बातें उसे कुछ भी याद नहीं है।यहाँ तक कि आज २५
मई १९८३ई. को भी वह १९६६ ई. ही समझ रही है।’
‘आखिर आपलोग
क्या अर्थ लगा रहे हैं
डॉक्टर?’-चिन्तित
स्वर में पूछा उपाध्यायजी ने।
‘यह तो अभी
विचाराधीन है।तदहेतु ही आपसे यथासम्भव कुछ प्रमाण प्रस्तुत करने को कहा जा रहा
है।यदि उसके बचपन की तसवीर वगैरह कुछ उपलब्ध हो,जिससे उसे विगत सत्रह वर्षों की बात
समझायी जा सके,विश्वास
दिलाया जा सके तो हो सकता है कि कुछ काम बने।’-डॉ.खन्ना ने स्पष्ट किया।
तसवीर की बात पर उपाध्यायजी
के दिमाग में कई तसवीरें घूम गयी। पिछली बार मंझलू की शादी में बहुत सारी तसवीरें
खीची गयी थी। उम्मीद है,
उनमें
मीना भी होगी ही।इसके अलावे स्कूल के वार्षिकोत्सव में मीना प्रायः हर वर्ष भाग
लेती ही रही है -सोचते हुए कहा निर्मलजी ने- ‘ठीक है,इसके लिए मुझे मौका दिया जाय।घर जाकर
देखता हूँ। एलबम में इसका चित्र अवश्य मिल जाना चाहिये।’
‘ठीक है,आप जायें।कल ग्यारह बजे तक ये सब
एकत्र कर हमसे मिलें।तब तक हमलोग भी विचार करेंगे इस सम्बन्ध में।’-कहा डॉ.खन्ना
ने।
‘अभी कहाँ
है मीना ? ’ -खड़े होते हुये उपाध्यायजी ने पूछा।
‘बगल कमरे
में है।अभी आपलोगों से उसका मिलना उचित नहीं
जान
पड़ता।’-डॉ.खन्ना के कथन पर मायूस हुये उपाध्यायजी कक्ष से बाहर निकल गये।
तिवारीजी के पूछने
पर सारी बात बतलायी उन्हें निर्मलजी ने।वहीं
बैठा
विमल खाना खा रहा था।हाथ धोते हुए बोला- ‘पापाजी!
मीना की तसवीरें तो बहुत सारी हैं।साथ ही एक और चीज की मुझे ध्यान आ रही है।’
‘सो क्या?’- उत्सुकता पूर्वक एक
साथ तिवारीजी और उपाध्यायजी दोनों ही बोल पड़े।
विमल ने बतलाया- ‘मीना हमेशा
डायरी लिखा करती है।सच पूछिये तो वह डायरी नहीं
बल्कि
एक मोटी पुस्तिका है- उसके जीवन-वृत्त की।’
‘तुम कैसे
जानते हो?’-निर्मल जी ने पूछा।
‘रखती तो
उसे वह बड़े यत्न से है।जी-जान से बढ़ कर उसकी हिफाजत करती है।किसी को छूने नहीं
देती।पर
एक बार मुझे कुछ शंका हुयी,तो उसके पीछे पड़ गया।बड़ी कठिनाई से हाथ लगी। विशेष पढ़ तो न
पाया,पर यूँ ही
जहाँ-तहाँ से पलट कर देखा।बहुत सी रहस्य मय बातें अंकित थी उसमें।यदि मिल जाय तो
हो सकता है कि उसके जीवन की कुछ गुत्थियाँ सुलझ सकें।’- कहता हुआ विमल
तिवारी जी की ओर देखने लगा।
‘आखिर कहाँ
ढूढ़ूँ उस पुस्तिका को? चार हाथ के घर में कौन सी ऐसी जगह है, जहाँ छिपा कर रख सकती है?’-तिवारीजी ने
असमर्थता जाहिर की।
‘कहीं
दूर
ढूढ़ने की जरूरत नहीं। एक दो अनुमानित स्थान बतला रहा हूँ। वहीं
देखा
जाय।’-मुस्कुराते हुये विमल बोला।
‘बतलाओ,कौन सी जगह है वह?’-उत्सुकता पूर्वक
पूछा तिवारी जी ने।
‘सबसे पहले
तो आप जिस चौकी पर सोते हैं,उसी के दराज में देखें।दूसरा स्थान है- उस बांस की चचरी पर
रखा,उसकी माँ
का बक्सा,जिसमें से
अंगूठी निकालते समय वह नीचे गिरी।’-विमल ने स्पष्ट किया। तिवारीजी थोड़े चकित भी
हुये,विमल की
सूक्ष्म परख पर।
‘लेकिन यह
काम यथाशीघ्र हो जाना चाहिये।कल प्रातः दस-ग्यारह बजे तक डॉक्टर ने कहा है- इन सामानों
को प्रस्तुत करने के लिये।’- निर्मल जी ने समय का ध्यान दिलाया।
‘एक बात और-
शीघ्र ही इधर से निवट कर टांगीनाथ के महात्माजी से मिल लेना भी आवश्यक है।’- तिवारीजी ने याद
दिलायी।
‘इसमें लगा
ही क्या है। वैसे भी
डॉक्टरों के कथनानुसार अभी हम लोगों का यहाँ रहना,न रहना बराबर है।क्यों न इसी समय चल
कर यह काम निपटा लिया जाय?’- घड़ी देखते हुये निर्मलजी ने कहा- ‘अभी तो
मात्र नौ बज रहे हैं।यहाँ रह कर
करना ही क्या है?
सुबह
ही आया जायेगा।’
‘तो फिर चला
जाय।’-विमल ने कहा।
थोड़ी देर में सभी
चल पड़े वापस।रात्रि के गहन अन्धकार को चीरती अपनी दोनों भयंकर आँखों से जंगल को
निहारती हुयी उपाध्यायजी की गाड़ी चल पड़ी,सड़कों की धूल फांकती प्रीतमपुर की ओर।
कोई दस बजे ये लोग
वहाँ पहुँच गये।पूर्व विवाह वाला एलबम निकाला गया,जिसमें लगे प्रायः हर फोटो में मीना
उपस्थित थी- कहीं साड़ी में,कहीं
सलवार
में,कहीं
घांघरा
में,तो कहीं मैक्सी
में....।विमल के भी फोटो थे कहीं-कहीं। चित्रों की भाव-भंगिमा,पल भर के लिए अतीत में झांकने को विवश
कर गया विमल को,अन्य को
भी।एक फोटो ऐसा भी मिला-
मिला
क्या,आतुरता में
विमल ने स्वयं ही निकाल कर दिया- अपनी डायरी से-विमल और मीना की युगल छवि, जिसमें दोनों ही किसी बगीचे में
गाड़ी के पास टेका लगाये खड़े थे। मुस्कुराते हुये विमल एक फूल दे रहा था मीना
को।मुस्कुराती मीना हाथ बढ़ा कर उसे ले रही थी।तभी कैमरे की आँखों ने गुस्ताखी कर
दी।
विमल ने बतलाया- ‘यह फोटो मैंने भैया की शादी के बाद ऑटोमेटिक
कैमरे से लिया था,पीछे वाले
बगीचे में।’
इन सारे चित्रों से
निर्मलजी को बहुत सारे हरित चित्र नजर आने लगे। आशालता,जो पिछले समय से कुम्लायी सी थी,सावन की फुहार से चुलबुलाने सी लगी।
चित्र-मंजूसा को
सहेज कर गाड़ी फिर दौड़ पड़ी माधोपुर की ओर।
वहाँ पहुँचकर सी.बी.आई. की खोजी निगाहों से पल
भर में ही पूरे कमरे का निरीक्षण कर डाला विमल ने;किन्तु पूर्व कथित दो स्थानों के
सिवा तीसरा कोई स्थान नजर न आया,जहाँ वह पुस्तिका हो सकती थी।
पेशेवर तस्कर सा एक
ही हाथ से उमेठ कर दराज का ताला तोड़ डाला, कारण कि उसकी चाभी मीना के पास रहा करती थी।परन्तु
उसमें मिला कुछ भी नहीं।
अगली चढ़ाई थी
चंचरी पर।वहाँ दो बक्से रखे हुये थे।एक की चाभी तो तिवारीजी के जनेऊ में सदा बंधी
रहती थी,उसमें तो
होने का सवाल ही नहीं था। दूसरे बक्से की
मालकिन थी मीना। उसकी चाभी का भी पता नहीं था,फलतः ताला तोड़ना ही पड़ा।
बक्सा खोला गया।उसे
देखने में तिवारीजी लम्बे-ठिगने अतीत की कई झांकियाँ देख गये।कुछ देर के लिए खो से
गये उन्हीं झांकियों में।आम्रमूल पर पड़ी नवजात
बालिका से लेकर वर्तमान मीना तक की छवि नजर आयी बक्से के कोने-कोने में।
विमल एक-एक कर
बक्से से समान निकालता रहा।उलट-पुलट कर देखता भी रहा- कहीं
कुछ
और सबूत भी मिल जाय।तिवारी जी का ध्यान तो तब भंग हुआ,जब विमलके मुंह से उल्लास भरा स्वर
निकला- ‘यह रहा
बापू! ’- कहते हुये पीले कपड़े में बंधी एक मोटी सी पुस्तिका तिवारीजी के हाथ में
दे दी।
निर्मलजी ने उसे
तिवारीजी के हाथ से लेकर उलट-पुलट कर देखा-
‘वाह! क्या व्यवस्था
है मीना बेटी की,किसी सामान
को सहेज कर रखने की।’
विमल अपनी उत्सुकता
का संवरण नहीं कर पा रहा था।उसे तब से ही जिज्ञासा
थी,उस डायरी को
पढ़ने की,जब पहली
बार मीना की आँख बचा कर निकाला था दराज से,किन्तु जल्दबाजी में पढ़ न पाया था।
‘पढ़ कर देखिये
न पापा! क्या लिखी है इसमें।’-विमल ने कहा।
‘छोड़ो अभी
क्या हड़बड़ी है।पहले सारे प्रमाण तो जुटाओ।’- कहते हुये निर्मलजी
हाथ में पुस्तिका लिए बाहर निकल आये।
छोटू सो चुका
था।उपाध्यायजी को आया देख तिवारीजी की दोनों बहनें भीतर आंगन की ओर चली गयी थी।
‘किवाड़
बन्द कर लेना।हमलोग जा रहे हैं।कुछ जरूरी कागजात के लिए आना पड़ा था।’-कहते हुये तिवारीजी
कमरे से निकल गये बाहर।साथ ही उत्कंठा दबाये विमल भी बाहर आ गया।
इन लोगों की अगली
मंजिल थी- उधमपुर विद्यालय।
वहाँ
पहुँचते-पहुँचते पूनम के चांद का मंझला भाई ‘शुक्र’ पूर्व क्षितिज पर
झांकने चला आया था।उसे आश्चर्य हो रहा था कि आज अवकाश प्राप्त अधीक्षक इतने दिनों
बाद मेरा साथ क्यों देने आया है।
हांफती हुयी गाड़ी
पहुँच गयी उधमपुर विद्यालय के फाटक पर।गाड़ी का तेज हॉर्न सुन ऊँघता हुआ चौकीदार
तन कर मूंछें फहराने लगा।भय के मारे शरीर से ओस की बूंदें टपक कर इस बात को प्रमाणित
करने लगी कि बेचारा अब तक शीत में खड़ा रहा है।इतने दिनों से सेवा में है,पर कभी भी धोखा न हुआ- हरामखोरी का।आज अभागा पकड़ाया भी तो
सीधे रंगे हाथ सेक्रेटरी साहब से ही। झेंपता हुआ दांत निपोर, पलटन सा पांव पटक सलामी दागा।
‘प्रधानाध्यापक
को जानकारी दो,मेरे आने
की।’-गाड़ी में बैठे ही बैठे कहा उपाध्यायजी ने।
प्रहरी चल पड़ा
विद्यालय के पीछे बने आवास की ओर।थोड़ी देर बाद हांफते हुये से प्रधानाध्यापक
महोदय पधारे।
‘कहिये।इस
असमय में याद किये?’-हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हुये कहा उन्होंने।
‘हाँ,कुछ ऐसी ही बात आ पड़ी।’- कहते हुये
गाड़ी से उतर कर निर्मलजी नीचे आये,साथ ही विमल और तिवारीजी भी।
‘प्रणाम
गुरूजी।’-विमल ने हाथ जोड़ कर अभिवादन किया,तो चौंक पड़े प्रधानाध्यापक।
‘अरे विमल!
तुम!! बहुत बड़ें
हो गये हो।कहाँ रह रहे हो आजकल?’- पूछा प्रधानाध्यापक महोदय ने।फिर बातें करते सभी चल पड़े
विद्यालय भवन की ओर।
प्रधानाध्यापक ने
पहले तो माफी मांगी-
वैवाहिक
कार्यक्रम में अनुपस्थित रहने के कारण,फिर पूछा आगमन का उद्देश्य।संक्षिप्त रूप से कुछ बातें बतलायी
उपाध्यायजी ने और विद्यालय के वार्षिकोत्सव में लिये गये चित्रों की संचिका की
मांग की।
‘यहाँ तो
बहुत सारे फोटों हैं।प्रायः
प्रत्येक समारोह में विमल और मीना भाग लेते ही रहे हैं।और मात्र चित्र ही
नहीं,बल्कि जैसा कि आप जानते ही होंगे- मीना एक कुशल संगीतज्ञा भी है।अतः उसके
द्वारा गाये भजन और अन्य गीतों के कैसेट भी मौजूद हैं।’- दफ्तर में पहुँच,आलमारी खोलते हुये कहा प्रधानाध्यापक
महोदय ने, जिसे जान कर सभी को
काफी प्रसन्नता हुयी।
‘तब तो पर्याप्त
प्रमाण हमलोगों को प्राप्त हो गये- लिखावट, चित्र और आवाज भी...।’- प्रसन्न मुद्रा में कहा तिवारीजी
ने।उन्हें विश्वास हो आया कि इन सारे पुष्ट प्रमाणों के बागडोर में बाँध कर मीना
को निरापद वापस ला सकते हैं अपनी बेटी
के रूप में।
कोई २०-२५
फोटो-फ्रेम,१०-१२ कैसेट,मोटी सी पुस्तिका और दो एलबम आदि
सामग्री लेकर निर्मलजी पुनः अपने घर प्रीतमपुर पहुँच गये।यह सब काम निपटाते काफी
रात बीत गयी।घड़ी देखते हुये उन्होंने कहा- ‘अब तो पौने तीन बज
गये।क्या विचार है तिवारीजी! एक दो घंटे विश्राम कर लिया जाय?गत रात भी विश्राम न हो
पाया था।’
तिवारीजी ने हामी
भरी।और थोड़ी ही देर में सभी विस्तर के मेहमान हो गये।परन्तु सिर्फ मेहमान ही बन
पाये।नींद कोसों दूर थी। सबके दिमाग में अपनी-अपनी चिन्तायें थी।
सबेरा होने पर
प्रातः कृत्य,जलपानादि
से निवृत्त हो तीनों चल पड़े पुनः जशपुर नगर की ओर।चलते समय विमल अपना टेपरिकॉर्डर
साथ ले लिया था।
गाड़ी चल पड़ी तो
विमल ने भजनों का एक कैसेट,जो मीना और विमल की युगल बन्दी में गाया गया था,लगा दिया।संगीत की मदिर रागिनी
वातावरण के आलस्य को दूर खदेड़ने लगी।काफी देर तक मधुर रागिनी की गूंज में सभी आप्लावित
होते रहे।भावविभोर रहे।
विमल की उत्कंठा
अभी भी बनी हुयी थी-
मीना
की रहस्यमयी पुस्तिका को पढ़ने की,किन्तु रात में भी उपाध्यायजी उसे अपने पास ही
रखे रह गये। फलतः उसे मौका न मिला।
रास्ते भर विमल
सोचता रहा- ‘अब निश्चित है कि इन सारे प्रमाणों से मीना अवश्य
पहचान जायेगी।पुरानी बातें याद आ जायेंगी। मतलब आज का दिन उसके विरह-तड़पन और कसक
का आखरी दिन है।’
अस्पताल के प्रांगण
में प्रवेश करते समय सबके चेहरे पर प्रफ्फुलता की चमक थी।साथ लाये सामानों को सहेज
कर,तीनों जन
चल पड़े कक्ष की ओर। हालाकि डॉक्टर के आने में अभी घंटे भर देर थी।पर उत्सुकता वश
कोई ठहर न पाये बाहर।मगर अफसोस- वहाँ पहुँचने पर कुछ और ही ज्ञात हुआ।
इनके पूछे वगैर ही
वार्डनर ने कहा- ‘रात आपलोगों के जाने के बाद फिर साहब
लोगों ने मीटिंग की।उस समय आपकी मरीज भी वहीं
थी।
काफी समझाया-बुझाया गया।शुरू में तो वह सीधे तौर पर बात सुनती रही।किन्तु बाद में
काफी हो हल्ला मचाने लगी।गुस्से में डॉक्टरों को ही उल्टा-पुल्टा सुनाने लगी। यहाँ
तक कि पुलिस में रिपोर्ट लिखाने की धमकी देने लगी।इससे भी जी न माना तो आत्महत्या
करने की बात करने लगी।अन्त में किसी तरह कुछ कह समझा कर या शायद नींद की सूई दे कर
लोग ले गये हैं
यहाँ
से राँची।बड़े साहब भी साथ में गये हैं।’
वार्डनर की बात सुन
विमल को तो मानो गश आ गया।
‘हमलोग के
बारे में कुछ नहीं कहा साहब ने?’-उदास,मन मारे पूछा तिवारी जी ने।
‘बोले,उनलोगों को शाम में मिलने बोलना।तब
तक आ जायेंगे राँची से लौट कर।’-जवाब सुन तीनों एक दूसरे का मुंह ताकने लगे।
‘आखिर किया
ही क्या जा सकता है? भगवान को जब यही मंजूर है,फिर हम इनसान क्या कर सकते हैं?’- गाड़ी की ओर वापस
चलते हुये उपाध्यायजी बोले।
‘लेकिन मुझे
समझ नहीं आ रहा है कि वह अचानक इतना हो हल्ला
क्यों मचाने लगी? कहीं कुछ दिमागी गड़बड़ी
तो नहीं हो गयी?’
कुछ ऐसी ही आशंका
से राँची ले जाना मुनासिब समझा होगा।’- विमल ने कहा।
‘कुछ भी हो
सकता है।हमलोग तो सिर्फ अटकल ही लगा सकते हैं।’-गाड़ी के पास पहुँच कर निर्मल जी
बोले।
‘यह तो
देखिये कि सरकारी डॉक्टर लोग कितना ध्यान दे रहे हैं, पर मेरे भाग्य का
लेखा कौन मिटा सकता है?’-मायूस हुये तिवारी जी बोले।
‘भाग्य तो
है हीं,पर आगे अब हमलोगों को अपना कर्तव्य भी सोचना है।’-घड़ी देखते हुये विमल ने
कहा।वह चाह रहा था कि यहाँ-वहाँ रह कर व्यर्थ का
समय न गंवाया जाय।
‘करना क्या
है,दिन भर यूँ ही उन लोगों की प्रतीक्षा में गंवाने से अच्छा है कि हमलोग
महात्माजी का दर्शन कर आवें।समय भी अनुकूल है।’
अब से चलकर दोपहर तक
तो वहाँ पहुँच ही जायेंगे।दर्शन हो जाये तो कुछ नया रास्ता सूझ जाय।’-निर्मलजी ने
राय दी।
उनकी राय को सभी ने
पसन्द किया।
स्प्रीट-डेटॉल की बदबू से बाहर निकल कर गाड़ी
फिर एक बार वन्य-प्रसूनों की खुसबू लेने प्रसस्त राजमार्ग पर दौड़ने लगी।जशपुर नगर
से कोई तैंतीस मील की
दूरी पर उत्तर की ओर है चैनपुर नामक छोटा सा शहर।वहीं
से
पूरब की ओर पांच-छः मील दूर टांगीनाथ की पहाड़ियों का सुरम्य सिलसिला शुरू हो जाता
है।सघन कानन के मध्य शंख नदी इस प्रकार निकली है मानों किसी आधुनिका ने सिन्दूर
लगाने के लिए अपने केश राशियों को संवार कर, मांग सीधी करना चाहा हो,पर सतत अभ्यास के अभाव में
टेढ़ा-मेढ़ा हो गया हो।सिर के विभाजन रेखा- मांग की तरह दो प्रान्तों के विभाजन
रेखा का काम करती है यह नदी।जैसे-जैसे जंगल की गहराई में पैठती गई गाड़ी,पहाड़ी लाल कंकरीली मिट्टी की बनी
सड़कों पर- जो नवविवाहिता के मांग के सिन्दूर का भ्रम पैदा कर रही थी,जंगल गहन से गहनतर होता चला
गया।हालांकि आज वन विभाग का ‘उजारन’ खण्ड ज्यादा सक्रिय
है ‘वसावन’ खण्ड की तुलना में, फिर भी काफी घना जंगल है इस भाग का। पहाड़ों
में प्राकृतिक रूप से बने खोह और दर्रे कुदरत की कला का नमूना पेश करते हुये बरबस
ही पर्यटकों को खींच लेते हैं।जंगली पेड़ों में साखू,सलई,तेंद,कुरैया,धौ,पियार,जिगना,गिजिन,असन,सानन, पानन, आदि बहुतायत से देखे जाते हैं इस आसपास।हालांकि यह मौसम भीषण गर्मी का है,फिर भी प्राकृतिक सौन्दर्य यौवन पर
ही प्रतीत होता है। खास कर उनके लिये तो और,जिन्होंने कभी जंगल देखने का सौभाग्य ही न
पाया हो। आधुनिक ‘आग्नेय धनुर्धरों’ की कृपा से वन्य पशुओं
का अभाव सा हो गया है। वैसे भी वनराज-दर्शन का आनन्द लोग चिड़याघरों में ही
सुरक्षित समझते हैं। फिर भी
ऐसा नहीं कहा जा सकता कि काबुल में गधे होते
ही नहीं।पशु तो पशु,परिन्दे भी एक से एक नजर आयेंगे इन प्रान्तरों में।
खैर,चाहे कितनी भी रौनकता और मोहकता
क्यों न हो इस प्राकृतिक प्रांगण में,पर मीना के मृगनयनों सी मादकता कहाँ है? प्रकृति की सारी शक्ति
की तो इति हो गयी मीना को ही मोहक बनाने में।फिर क्या मजाल जो आकर्षित कर सके यह
रस-हीन वातावरण बेचारे विमल को।
उसका तो लक्ष्य है- यथाशीघ्र ऊपर पहाड़ी पर
पहुँच जाना। प्राकृतिक सिकंजों को तोड़ती हुयी गाड़ी आगे बढ़ती रही। राजमार्ग कब
का छूट चुका था। पर सिन्दूरी सड़क जरा भी कम न थी काली सड़क के मुकाबले।
कोई डेढ़ घंटे बाद
गाड़ी आ लगी टांगीनाथ कस्बे के उच्च विद्यालय के प्रांगण में।प्रधानाध्यापक पाठकजी,जो कुछ दिन माधोपुर भी रह चुके थे,घनिष्ट मित्र भी हैं तिवारीजी के।उन्हीं
के
संरक्षण में गाड़ी छोड़ कर लोग आगे बढ़े। पाठकजी ने काफी आग्रह किया लोगों को
जलपान-भोजन आदि के लिये;किन्तु औपचारिक चाय-शर्बत के बाद ही चल पड़े लोग पहाड़ी की
चढ़ाई पर।
तराई से करीब तीन
मील की चढ़ाई पर, पहाड़ी कुछ प्रसस्त
हो गया है।उसी सुरम्य भाग पर है- भूत-भावन भोलेनाथ का अति प्राचीन स्थल।वैसे इस
पूरे क्षेत्र में ही शिव-मन्दिरों की भरमार है।लगता है कि उस क्षेत्र पर शिव की
महती कृपा रही हो।
घर से चलते वक्त ही
‘वाटर वॉटल’ में पानी और कुछ
सामान्य कलेवा आदि लेकर चला था विमल।कंधे पर छोटा सा एयर बैग,और हाथ में कैसेट रिकॉडर लटकाये,पितृ द्वय सहित जल्दी-जल्दी, पर सम्हल-सम्हल कर चला जा रहा था बेचारा
विमल विचारों की कंटकाकीर्ण वीथियों में खोया हुआ सा।अभी भी मीना द्वारा गाये
भजनों का कैसेट चल रहा था।
अगल-बगल जंगली
फल-फूल बहुतायत से थे।ग्रीष्म अपने प्रौढत्व पर था, फिर भी एक ओर मनोरम वातावरण तो दूसरी ओर
लक्ष्य पर पहुँचने की बेताबी ने जरा भी अनुभव न होने दिया- तीन मील की दुर्गम
चढ़ाई।अपराह्न पौने एक बजे लोग पहुँच गये ऊपर
मन्दिर के पास।हालांकि इस पावन स्थली में भक्त मण्डली का जमावड़ा सदा ही लगा रहता
है। भंग और बूटियाँ छनती रहती हैं।गांजे की गुलेरी सुलगती रहती है, किन्तु उस दिन पास ही कस्बे में कोई
नौटंकी-पार्टी का पदार्पण हो गया था,फलतः इक्के-दुक्के विशिष्ट भक्तों के अलावे कोई खास भीड़ न
थी।
मन्दिर के विशाल
सभामण्डप में पालथी मार कर बैठ गया विमल। थकान काफी महसूस होने लगी थी अब।बोतल का
पानी तो रास्ते में ही शेष हो चुका था। प्यास से जीभ चटपटा रहा था। और लोग भी
प्यास से परेशान थे।
महात्माजी का एक शिष्य
बाहर सहन में ही पड़ा विश्राम कर रहा था। इनलोगों की आवाज सुन कर उठ बैठा।
‘यहाँ
पानी-वानी मिल सकता है क्या?’-नम्रता पूर्वक विमल ने पूछा।
‘क्यों नहीं
जरूर
मिलेगा।जूते वहीं उतार कर अन्दर आ जाइये।’-शिष्य ने
कहा।
तीनों लोग जूते
उतार कर ऊपर बढ़ चले।विमल के हाथ में रिकॉडर देख कर शिष्य ने कहा- ‘इस पर चमड़े
का खोल चढ़ा हुआ है।इसे भी उतार कर बाहर ही छोड़ दें।’
‘कहीं...कुछ...।’-विमल
ने आशंका व्यक्त की।
‘नहीं..नहीं...इसकी
चिन्ता न करें।महात्माजी की कृपा से यहाँ कुछ नहीं
होगा।’-कहता
हुआ शिष्य आगे बढ़ गया।
अन्दर जाकर शिष्य
एक छोटी सी ‘लुटिया’ उठा लाया,जिसमें जल भरा हुआ था।देख कर विमल मन
ही मन कुंढ़ गया।
‘ओह! हम तीन जन
प्यास से व्याकुल हैं,और यह
क्षुद्र जलपात्र! इतना तो कंठ में ही अटका रह जायेगा।’- विमल मन ही मन भुनभुनाया,पिता की ओर देखते हुये।
जलपात्र रखकर शिष्य
चला गया वापस।
थोड़ी देर बाद पुनः
उपस्थित हुआ,साखू के दोने
में मिश्री की डली लिए हुए।
‘लीजिये, ‘जल-पान’ कीजिये।’-विमल के हाथ
में दोना पकड़ाते हुये कहा शिष्य ने,और विमल की विवशता भरी दृष्टि,पल भर के लिये क्षुद्र जलपात्र से
टकराकर ऊपर उठ,शिष्य के आनन
से जा लगी।
शिष्य शायद मनोभाव
समझ गया।मुस्कुराते हुये बोला- ‘क्यों,जल ग्रहण
कीजिये।आवश्यकता होगी तो और मिलेगा।इस पहाड़ी पर जल की कमी
थोड़े जो है।’
विमल मुंह में
मिश्री का एक टुकड़ा डाल,जलपात्र
उठा चुल्लु से पानी पीने लगा।
‘पर यह क्या?’-चौंक
पड़ा खुद ही।महातृप्ति के पश्चात भी जलपात्र में जल ‘कनखे’ से थोड़ा ही नीचे
आया था।
...और फिर बारी
बारी से गंजेडि़यों के चिलम की तरह लघु जलपात्र क्रमशः तीनों के हाथों में जा,महातृप्ति प्रदान कर गया।विमल पुनः
जलपात्र को हाथ में लेकर गौर से देखने लगा।जल अभी भी कुछ बाकी ही था उसमें।विमल की
आश्चर्य चकित नजरें ऊपर उठ,सामने खड़े शिष्य के चेहरे को निहारने लगी।
‘क्यों, और चाहिये जल?’-मुस्कुराते हुये पूछा शिष्य
ने,और जलपात्र
ले लिया विमल के हाथ से।
‘नहीं
महाराज।पर्याप्त
है।अति तुष्टि मिली,इस विचित्र
जलपात्र से।तीन आदमी भर पेट जल पी लिये,और इस छोटी सी लोटनी का जल आधे से थोड़ा ही
कम हुआ।’
‘इसे
जलपात्र की विशेषता कहूँ या कि महात्माजी की महिमा! यह तो द्रौपदी के
बटुये में चिपका हुआ साग हो गया,जिसे चखने मात्र से भक्त वत्सल भगवान श्रीकृष्ण ने क्रोधी
दुर्वासा के दस सहस्र शिष्यों को परितुष्ट कर दिया था।’- हँसते हुये कहा
निर्मलजी ने।
‘बाबा
भोलेनाथ की कृपा है।इस ऊँची पहाड़ी पर एक छोटा सा कुण्ड है,जिसमें शीतल जल का अक्षय भंडार है।’-कहा
शिष्य ने और जल पात्र लेकर कुटिया की ओर चला गया।
‘महात्माजी
कब दर्शन देंगे?’-थोड़ी देर बाद पुनः शिष्य के उपस्थित होने पर पूछा उपाध्यायजी
ने।
‘अभी तो
भीतर गर्भगृह में हैं।अब समय हो
ही रहा है,उनके
फलाहार का। आते ही होंगे।’-कहता हुआ शिष्य वहीं
संगमरमरी
फर्श पर पसर गया।
थोड़ी देर तक
इधर-उधर की बातें होती रही।तभी त्रिपुण्ड धारी महात्मा जी मृगछाला लपेटे,हाथ में आदम कद त्रिशूल लिए,खटाखट खड़ाऊँ चटकाते,आ उपस्थित हुए- साक्षात् शिव की तरह।
सभामण्डप में बैठे
तीनों जन उठ कर साष्टांग दण्डवत किये।।
‘कहिये किधर
आना हुआ?’- वरद मुद्रा
में हाथ उठाये दिव्य महात्मा ने पूछा।
‘बस चले आये
हैं श्रीचरणों का दर्शन
करने।आप पहले फलाहार आदि से निवृत्त हो लें,फिर कुछ निवेदन करना चाहूँगा।’- हाथ जोड़ कर नम्रता
पूर्वक कहा निर्मलजी ने।
‘कोई बात नहीं,फलाहार
की अभी हड़बड़ी नहीं है।निःसंकोच आपलोग
निवेदन करें।’-कहते हुये महात्माजी वहीं बिछे व्याघ्रचर्म
पर एक ओर बैठ गये वीरासन मुद्रा में।
‘मैं अपनी बच्ची की
समस्या को लेकर उपस्थित हुआ हूँ, भोलेनाथ के
दरबार में।’- हाथ जोड़कर तिवारीजी ने कहा।
‘कहिये क्या
समस्या है?’-कहते हुये महात्माजी ने त्रिशूल को स्पर्श किया, जिसे बैठते समय बगल में रख दिये थे।
तिवारीजी विस्तृत
रूप से मीना की घटना सुना गये।महात्माजी बड़े ही मनोयोग पूर्वक सुनते रहे,ध्यानस्थ होकर उनकी लम्बी दास्तान।
बीच बीच में दो तीन बार त्रिशूल का स्पर्श किये,मानों घटना को रेकॉर्ड करने के लिये
बटन दबा रहे हों।यहाँ न तो लौंग की आवश्यकता पड़ी और न चावल की।प्रश्न कुण्डली और ‘केरलीया’ की तो बात ही
दूर।वार्ता समाप्त होने पर, पल भर के
लिये मौन हो गये, आँखें मूंद कर।कुछ
देर बाद आँखें खोल,विमल की ओर
इशारा करते हुये पूछे-
‘यही है वह
बच्चा जिसे आप अपना जामाता बना रहे थे?’
‘जी हाँ
महाराज।’-हाथ जोड़े तिवारी जी ने हामी भरी।
‘आओ बच्चा,इधर आ जाओ,मेरे करीब।’-हाथ के इशारे से पास
बुलाया विमल को महात्माजी ने,और उपाध्यायजी की ओर देखते हुये बोले- ‘शायद आपको
ज्ञात हो,समस्याओं
की स्पष्टी के लिये मैं दो विधियाँ अपनाता
हूँ- एक तो स्वयं ही कह जाता हूँ,और दूसरी विधि है- सामने उपस्थित किसी व्यक्ति के मुंह से
कहवाना।आप इन दोनों विधियों में क्या पसन्द करेंगे?’
‘मेरे मुंह
से ही कहवाइये श्रीमान् !’- निर्मलजी के कुछ कहने से पूर्व ही विमल ने हाथ जोड़ कर
कहा।
‘ठीक है।ऐसा
ही होगा।’-दिव्य मुस्कान सहित कहा महात्माजी ने-‘हाँ, आजकल अधिकतर लोग ‘‘स्वमुख-संवाद-शैली’’ ही पसन्द करते हैं।किन्तु
एक बात...।’
‘कहिये
श्रीमान्!’
‘तुम कहोगे
अवश्य,परन्तु
स्वयं सुन या जान नहीं पाओगे कि क्या
निकला तुम्हारे मुंह से।’
‘इसके बारे
में मैं अवगत हूँ महात्मन् !
इस कारण इसका समाधान भी लेता आया हूँ।’-कहता हुआ विमल बगल में रखा हुआ टेप रिकॉडर
सामने रख दिया।
महात्मा जी
मुस्कुराते हुये सिर हिलाये,मानों विमल की चतुराई पर मुग्ध हो रहे हों।
महात्माजी अपनी
क्रिया प्रारम्भ किये।बगल में पड़े त्रिशूल को उठाकर अपने ललाट से लगाये,कुछ देर तक एक अनबूझ भाषा में कुछ
वाचिक, कुछ उपांशु मन्त्र
जप चला,और इसके
बाद त्रिशूल को विमल के माथे से लगा दिये।
माथे से त्रिशूल का
लगना था कि विमल का वदन क्षण भर के लिये थर्राया, और अगले ही पल धड़ाम से गिर पड़ा
नीरस फर्श पर।
तिवारीजी घबड़ा उठे
- ‘अरे यह
क्या हुआ?’
‘कुछ नहीं,बेहोश
हो गया है सिर्फ,मन्त्र के
प्रभाव से।’-कहते हुये महात्माजी ने अपने होठों पर अंगुली रख कर सबको चुप- शान्त
रहने का इशारा किया;और हाथ में त्रिशूल ले,खड़े होकर,चित्त पड़े विमल को चारों ओर से घेर
दिये,मानों
लक्ष्मण ने घेर दिया हो वनचरों के भय से सती साध्वी सीता को।
उपाध्याय जी और
तिवाजी चुप बैठे देखते रहे महात्माजी का अद्भुत क्रिया-कलाप।कोई पांच मिनट तक विमल
बेहोश पड़ा रहा। इस बीच पुनः एक बार त्रिशूल का स्पर्श कराया महात्माजी ने,जिसके
प्रभाव से पहले की तरह ही एक बार वदन झटका और चैतन्य होकर उठ बैठा।कुछ देर तक एकटक
निहारते रहा महात्मा जी के दिव्य मुखारविंद को,वगैर इधर-उधर देखे हुये।बगल में ही
पिता द्वय बैठे हुये थे,किन्तु
लगता था कि महात्माजी के नेत्र द्वय के सिवा उसे कुछ भी दीख ही न रहा हो- मानों धनुर्धर पार्थ को मात्र अपना
लक्ष्य- मीनाक्ष ही दीख रहा हो।
‘कौन हो तुम?’-सौम्य
स्वर में पूछा महात्मा ने।
‘एक इनसान।’-विमल
के मुंह से आवाज निकली,किन्तु
आश्चर्य- यह स्वर उसका अपना
न था,प्रत्युत
एक नारी स्वर था।
‘नाम क्या
है तुम्हारा?’-महात्माजी ने अगला प्रश्न करते हुये इशारा किया रिकॉर्डर की ओर,उपाध्यायजी जी की ओर देखते हुये।
निर्मलजी ने इशारे
का अनुपालन किया,रिकॉर्डर
ऑन कर।
‘मुझे नहीं
पहचानते?मेरा
नाम मीना है।’- कहा विमल
ने,और चौंक
पड़े दोनों पिता।आवाज सही में मीना की थी,पर किंचित अन्तर था- ध्वनि तरंगों में। लगता
था मानों दूरभाष यन्त्र की ध्वनि हो।
‘पूरा नाम?’
‘मीना चटर्जी।’-कहा
विमल ने और सुसौम्य महात्मन् कड़क उठे एकाएक, मानों क्रोधित शेर की दहाड़ हो- ‘ठीक-ठीक
बतलाओ,मीना चटर्जी
या कि मीना तिवारी?’
‘गलत क्यों
बतलाऊँगी महाराज? सच में मेरा नाम मीना चटर्जी ही है।’-विमल के मुंह से आवाज निकली,और पास बैठे तिवारीजी के साथ-साथ
उपाध्यायजी भी सहम कर एक दूसरे का मुंह ताकने लगे।
‘कहाँ की
रहने वाली हो?’- अगला सवाल था।
‘कलकत्ते की।’
‘फिर गलत
कहती हो।’-कड़क कर बोले महात्माजी।
‘नहीं
महराज!
गलत बोलने की आदत नहीं।आप महात्मा हैं, जिसमें यह
ताकत है कि सुदूर पूर्व से पल भर में ही यहाँ खींच लाया घोर कानन में,उसमें क्या
मेरे सत्य और झूठ के विश्लेषण की क्षमता नहीं
है?’-कहता
हुआ विमल मुस्कुरा उठा।
‘इस समय
कहाँ से आ रही हो तुम?’-सौम्य भाव से पूछा महात्मा ने।
‘मानसिक
चिकित्सालय राँची से।’-शान्त स्वर में जवाब दिया विमल ने।
‘वहाँ क्यों
और कब से हो?’
‘हूँ नहीं,बल्कि
लायी गयी हूँ।आज सुबह ही यहाँ पहुँची हूँ।यहाँ लाया गया है मुझे जशपुर के सरकारी
अस्पताल से,मेरी
मानसिक जाँच के लिए।’
‘किसने लाया?’
‘वहाँ के
वरिष्ठ डॉक्टर ने।’
‘अभी क्या
कर रही थी,जब मैंने तुम्हें बुलाया?’
‘आने के बाद
से ही वरिष्ठ डॉक्टरों एवं अद्भुत आधुनिक संयंत्रों से घिरी रही। तरह-तरह से मेरी
जाँच होती रही।किसी को किसी प्रकार की मानसिक गड़बड़ी का पता न चला।फलतः उनलोगों
ने मुझे विश्राम करने के लिए एकान्त कमरे में भेज दिया।कक्ष का किवाड़ बन्द कर सोना
चाह रही थी,तभी आपका
संदेश पहुँचा।’
‘क्या तुम
माधोपुर के तिवारी जी की पुत्री को जानती हो?’
‘जानती
हूँ।अच्छी तरह जानती हूँ।उसका भी नाम मीना ही है।’
‘कैसे परिचय
हुआ उससे? क्या कभी
इधर तुम्हें आने का मौका....?’
‘परिचय का
प्रश्न ही नहीं है।कारण कि मैं स्पष्ट बता दूँ कि मीना तिवारी और मीना
चटर्जी कोई दो नहीं,बल्कि एक ही है।’
‘क्या बकती
हो? यह कैसे हो सकता है, दो आदमी और एक?’- क्रोध प्रकट करते
हुये महात्माजी ने कहा।
‘दो एक नहीं
महाराज,वरन् एक ही एक।’-अपनी बात पर जोर
देकर कहा विमल ने।
‘यह क्या
पहेली है? साफ क्यों
नहीं कहती?’-कड़क कर कहा संतजी ने।इस बार उनकी आवाज कुछ अधिक
ऊँची थी,साथ ही कुछ
भयद भी।फलतः रो पड़ा विमल,और दोनों हाथ जोड़ कर महात्माजी के चरणों में औंधा गिर गया।
‘रोती क्यों
हो? क्या कष्ट
है तुम्हें?’-अपने दोनों हाथों से पकड़, उठा कर सीधा बैठाते हुये महात्माजी ने कहा।
‘बहुत कष्ट
है हमें महात्मन्! बहुत कष्ट है।क्या बतलाऊँ,आप स्वयं त्रिकालदर्शी हैं।किंचित
प्रयास से ही जान सकते हैं।’-कहता हुआ
विमल बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोने लगा।
‘घबराओ नहीं।शान्ति
पूर्वक कहो,क्या कष्ट
है तुम्हें? तुम्हारी
कहानी तुम्हारे ही मुख से सुनना चाहता हूँ।कुछ और लोग भी हैं,जो सुनने को आकुल हैं।’-कहते हुये
महात्माजी बगल में पड़े अंगोछे से उसके गीले चेहरे को,पुचकारते हुये पोंछने लगे।
‘सुनना ही
चाहते हैं
तो
सुन लीजिये मेरी कहानी,मेरी ही
जुबानी। कितनी लम्बी है,कितनी
करूण...।मगर एक शर्त....।’- कह कर चुप हो गया विमल।
‘शर्त! क्या शर्त है?कहो।’
‘पहले वचन
दीजिये महाराज! पूरी करेंगे मेरी इच्छा। मेरे कष्ट का निवारण कर देंगे आप।’
‘प्रयास
करूँगा।’-सौम्य स्वर में कहा महात्माजी ने।
‘केवल
प्रयास नहीं,बल्कि पूर्ति; क्यों कि मैं जानती हूँ
कि आप इसमें पूर्णतया समर्थ हैं।आप वचन दें महाराज! वचन दें मेरे खोये हुए अधिकार को वापस
दिलवाने का।’- कहता हुआ विमल फिर लोट गया महात्मा के श्री चरणों में।
‘ठीक है।मैं वचन देता हूँ, पूरी करूँगा तुम्हारी इच्छा।’- कहा महाराज
ने और बगल में बैठे तिवारी जी किसी भावी आशंका से कांप उठे।
‘तो सुनिये।’-वचन
से प्रसन्न हो कर कहना प्रारम्भ किया विमल ने-
‘अब से कोई बत्तीश
वर्ष पूर्व,यानी २
जनवरी १९५० ई. को मेरा जन्म हुआ था,कलकत्ते के श्री वंकिम चट्टोपाध्याय जी के घर में।मैं उनकी एकलौती सन्तान
हूँ। सम्भ्रांत परिवार की लाडिली।प्रारम्भिक शिक्षा के बाद स्थानीय विवेकानन्द
उच्च विद्यालय में मेरा नामांकन हुआ।मेरे साथ ही पढ़ता था एक लड़का- कमल भट्ट,जो बिहार प्रान्त के गया नगर से बीस
मील पश्चिम नौबतगढ़ का रहने वाला था।पढ़ने में जितना ही तेज,आर्थिक रूप से उतना ही मन्द।मेरे
पिता उसकी प्रतिभा से आकर्षित होकर उसे अपने घर ले आए।हमदोनों साथ रहने लगे।एक बार
हमदोनों को सरस्वती पूजा के अवसर पर नाट्य मंच पर अभिनय का अवसर मिला।उस समय
हमदोनों उच्चत्तर माध्यमिक के छात्र थे।नाटक में मैं सावित्री बनी, और वह बना सत्यवान।न जाने क्यों कर मेरे
अन्तस में वह नाट्य -छवि गहरी छाप छोड़ गयी।मेरा यह मनोभाव मेरे अभिभावकों से भी
छिपा न रहा।मन ही मन वे भी कमल को सत्यवान के रूप में देखने लगे।मेरे लिये तो वह
सत्यवान हो ही चुका था।’- कहता हुआ विमल कुछ पल के लिए मौन हो गया।
‘फिर आगे
क्या हुआ?’-महात्माजी ने पूछा।
गहरी सांस लेकर विमल पुनः कहने लगा- ‘मगर अफसोस!
अपनी कहूँ या भाग्य को दोष दूँ? स्पष्ट रूप से मैं कभी अपने मन की बात उससे कह न पायी। हालांकि वह भी मुझे
जी जान से चाहता था।किन्तु अपनी दयनीय आर्थिकता को मेरे ऐश्वर्य की तराजू पर तौल न
पाया,जिस पर
मेरे निच्छल और पवित्र प्रेम का सुनहरा ‘वाट’ रखा हुआ था।परीक्षा
के बाद वह चला गया अपने गांव एवं पारिवारिक बन्धन में जकड़ गया....
‘....उसकी राह
देखती रही।एक दिन,शायद वह २२
मई १९६६ई. था,मैं अपने परिवार सहित वाराणसी जा रही थी,अपने मौसा के यहाँ।रास्ते में पापा
ने एक लिफाफा दिया,जो उसी दिन
सुबह घर से चलते वक्त उन्हें मिला था।पत्र मेरे उसी प्रियतम का था।झट खोल डाली।मगर
पढ़ते-पढ़ते मेरी आँखों के सामने अन्धकार फैलने लगा।उसकी शादी हो गयी थी- जानकर मेरे दिल में अजीब सा तूफान
उठा,और बिना
कुछ बताये चल पड़ी वहाँ से। तूफान एक्सप्रेस तूफान से बातें
करती चली जा रही थी,और मैंने अपने अन्तः के तूफान में झोंक
दिया स्वयं को। फिर पता न चला,कब क्या हुआ....
‘....आँख खुली तो स्वयं
को पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल में पायी।मेरा प्यारा कमल बगल में बैठा पश्चाताप के
आँसू बहा रहा था।उसे अहसास हो आया अपनी गलती का,और पाप का प्रायश्चित ढूढ़ने लगा।मैंने उसे रास्ता सुझाया- उसने मेरी
मांग भर दी।पश्चाताप के आँसू प्रसन्नता के मोतियों में परिणत हो गये।उसने शपथ ली-
माँ काली को साक्षी रखकर - जीवन भर साथ निभाने का; और मैंने प्रतिज्ञा की जन्म-जन्मान्तर में
भी साथ न छोड़ने की......फिर... प्रतिज्ञावद्ध होकर हमदोनों को बहुत सुकून
मिला....
‘......फिर मुझे नींद
आ गयी।गहरी नींद।किन्तु जब आँख खुली तो सब कुछ बदल चुका था।कठोर भूमि पर,आम्रतल में नवजात शिशु के रूप में
पड़ी पायी स्वयं को,क्षुधा-तृषा
से व्याकुल होकर। तिवारी जी ने मुझे उठा कर अपने घर लाया।अपनी बच्ची बनाकर रखने
लगे।तब से वहीं रहने लगी।पला-पुसा कर बड़ी
हुयी।धीरे-धीरे भूलने लगी स्वयं को।अपना कर्तव्य बोध जाता रहा।जिस मिट्टी में पली,लोट-लोट कर बड़ी हुयी,वहीं
की
हो गयी।हालांकि कभी कभार मुझे अपने अस्तित्त्व का ज्ञान और भान हो जाया करता था,और
उस क्षण बहुत व्याकुल होती थी,किन्तु थोड़ी देर बाद ही फिर खो जाती उसी मनोहर दुनियाँ
में।उसे ही समझ लेती अपना...
‘....उस काल में
ही यानी जब मैं मीना चटर्जी से
मीना तिवारी बन गयी,मुझे लगाव
हुआ प्रीतमपुर के श्री निर्मल उपाध्याय के पुत्र विमल से। फिर धीरे-धीरे उम्र के
करवट बदलने के साथ- साथ हमदोनों के प्रेम ने भी करवटें बदली।पर यहाँ भी कुछ वैसी
ही विडम्बना- वहाँ कमल निर्धन था तो यहाँ मीना धन-विहीन।इसके अलावे और भी कई कारण
रहे,जिसके कारण
इजहार न हो सका प्यार का।किन्तु मौन प्रेम की भाषा का वास्तविक अध्ययन किया विमल
ने।बात आगे बढ़ कर शादी तक पहुँच गयी।राधा को कृष्ण का प्यार मिला,फिर चूकने का सवाल कहाँ? विमल के रूप में
मुझे कमल मिला था शायद...
‘....किन्तु ऐन शादी
के समय ही दुर्घटना ग्रस्त हो गयी दुबारा- ट्रेन से गिर कर कमल को खोयी,सीढ़ी से गिर कर विमल को।एक को खोकर
ही शायद दूसरे को पाया जा सकता है।कमल मुझे खींच ले गया अतीत में वापस,और मेरा वर्तमान फीका पड़ गया अतीत
के सामने।मगर अफसोस तड़प रही हूँ कैद होकर अस्पताली कारागार में,क्यों कि मुझे मानसिक रोगी करार किया
जा रहा है।मैं तड़प रही हूँ
महात्मन्! अपने अधिकार के लिए,जिसे विगत वर्षों में गंवा चुकी हूँ।इसीलिए आपसे अनुनय करती
हूँ कि मेरा खोया हुआ,छिना हुआ
अधिकार मुझे वापस दिलाने की कृपा करें।’- कहता हुआ विमल झुक गया महात्मा के चरणों
में।
‘हुँ..ह!
सुन लिया तुम्हारी कहानी।जान लिया तुम्हारा अधिकार। पर तुम यह क्यों भूल रही हो कि
जिस शरीर से तुमने प्रेम किया था कमल से वह तो नष्ट हो चुका;और आज जिस शरीर को
लेकर तुम अपने पुराने अधिकार को ढूढ़ने चली हो वह तो विमल का हो चुका।’- कठोर शब्दों में
कहा महात्मा ने और विमल को अपने पैरों पर से उठा कर सीधा बैठा दिया।
‘जीवन-दर्शन
की यह व्याख्या सही है भगवन्।यह भी सही है कि आज के विमल को भी मैंने उतना ही उच्च स्थान दिया है अपने
हृदय में, जितना कि मीना
चटर्जी के शरीर से कमल को;किन्तु मेरे उस शपथ का क्या होगा,जो उस दिन...।’-विमल कह ही रहा था कि
महात्माजी बीच में ही बोल उठे-
‘होगा क्या शपथ
शरीर ने लिया था।उस शरीर ने जो कबका ढेर हो चुका। अब न तो वह शरीर है,और न उस शपथ की ही मर्यादा।’
‘वाह! खूब
कहा आपने।शरीर नष्ट हो गया तो क्या उसके साथ शपथ की मर्यादा भी समाप्त हो गयी? जरा ध्यान दें फिर
से मेरे शपथ-वाक्य पर- जन्म-जन्मान्तर में भी साथ न छोड़ने की कशम खायी थी मैंने।’-जोर दे कर कहा विमल ने।
‘पर यह कैसे
सम्भव है?’
‘असम्भव ही
कहाँ है? अब क्या मैं, निरीह अल्पज्ञा
आपको अर्थ समझाऊँ- शचीनां श्रीमतां गेहे.... का?’-मुस्कुराता हुआ विमल
व्यंग्यात्मक लहजे में बोला-‘जन्म तो जन्म है,जन्मान्तर का अर्थ ही है- शरीर बदलने
के बाद की बात...।’
‘तौल
लिया...परख लिया तुम्हारे प्यार की कशौटी को...देख लिया उसकी पराकाष्ठा।’-प्रसन्न
मुद्रा में कहा महात्माजी ने- ‘तो तुम वापस कलकत्ता
जाना चाहती हो या.....?’
‘और कहाँ
जाऊँगी महाराज अपने प्रियतम को छोड़कर? सावित्री कहाँ जा सकती है सत्यवान को
छोड़कर- आप स्वयं सोचें।’- गिड़गिड़ाते हुये कहा विमल ने।
‘किन्तु
तुम्हें पता होना चाहिये कि जमाना कहाँ से कहाँ जा चुका है,आज पता नहीं
कहाँ
होगा तुम्हारा कमल,कहाँ होंगे
अन्य लोग? मान लो हों
भी,तो क्या
तुम्हें आशा है कि वे स्वीकार कर लेंगे पुराने पद पर?’
‘अवश्य स्वीकार
करेंगे महाराज।सत्यवान शान्त और प्रसन्न कैसे रह सकता है सावित्री के वगैर? पवित्र प्रेम के
लिए धर्म, जाति, समाज,राष्ट्र कोई सीमा नहीं
है
महाराज,फिर ‘उम्र’ की क्या मजाल जो
वाधित कर सके दो प्रिय जनों को मिलने में?मैं मानती हूँ कि आज वह ३२-३३वर्ष का हो चुका
होगा।पर मैं
भी
वही हूँ।दुनियाँ चाहे मुझे जो भी समझे।’-इतना कह कर विमल मौन हो गया।
‘ठीक है।मान
लिया तुम्हारी बात,तुम्हारे
सारे तर्क।किन्तु इस संदर्भ में तुम मुझसे क्या सहयोग चाहती हो?’-बड़े स्नेह से
पूछा महात्माजी ने।
‘विशेष कुछ
नहीं महाराज।बस इतना ही कि आप उन बेरहम, बेदर्द डॉक्टरों को समझा दें,या आदेश दें कि वे मुझे या तो मेरी
मंजिल तक पहँचा दें, अथवा मुझे
स्वतन्त्र छोड़ दें।मैं स्वयं चली जाऊँगी।’-नम्रता
और आग्रह पूर्वक कहा विमल ने।
‘मान लो मैं तुम्हें इस तथाकथित कारा से मुक्ति दिला
दूँ।तुम वहाँ जाओ,या पहुँचा
दी जाओ,किन्तु
तुम्हें स्वीकार करने वाला वहाँ कोई न हो,अथवा हो भी तो स्वीकार न करे;उस स्थिति में
क्या होगा?’-महात्माजी ने नयी समस्या रखी।
‘वहाँ होने
पर, अस्वीकार करने का
तो कोई सवाल ही नहीं उठता। हाँ,न होने पर,न मिल पाने पर मैं वचन देती हूँ कि वापस श्रीचरणों में आ
उपस्थित होऊँगी।फिर आप जैसा कहेंगे वैसा ही करने को वाध्य हूँ मैं। किन्तु एक बार मुझे वहाँ जाकर
प्रयास करने का अवसर तो दें श्रीमान।मुझे दृढ़ विश्वास है कि निराश नहीं
होना
पड़ेगा।वापस लौटना नहीं पड़ेगा।बस महाराज
अब मुझे छुट्टी दें।अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं।आप स्वयं समझदार हैं।’-इतना कह कर विमल
पुनः मौन हो गया।
महात्माजी ने पुनः
उठाया अपने त्रिशूल को,और लगा
दिया विमल के माथे से।त्रिशूल के स्पर्श से विमल का शरीर फिर एक बार पहले की तरह
ही कंपित हुआ और अचेत हो कर धराशायी हो गया।इशारा पाकर शिष्य बगल की झोंपड़ी में
जाकर एक जीर्ण कुष्माण्ड-तुम्बा उठा लाया। उसमें से जल ले,अभिमंत्रित कर,विमल के शरीर पर छिड़का महात्माजी ने।और
इसके साथ ही वह चैतन्य हो कर उठ बैठा,मानों गहरी नींद से अभी अभी जागा हो।
इससे पूर्व ही
निर्मल जी ने टेप रिकॉर्डर विमल के सामने से हटा लिया था।होश में आने पर विमल ने
अपनी कलाई पर बँधी घड़ी देखी।
‘सवा दो बज
गये।’-धीरे से भुनभुनाया,और पास
बैठे तिवारी जी की ओर देखने लगा,जिनके मुंह से तीव्र निःस्वास निकल पड़ा था अचानक ही- ‘हाय मेरी
मीना।’ फिर वे मन
ही मन सोचने लगे थे- ‘अब क्या होगा आगे? यह तो महा अनर्थ हो
गया।चाह कर भी अब मीना को बेटी नहीं कह सकता.....।’
‘क्यों क्या
हुआ वापू? आप इतने
अधीर क्यों हो रहे हैं?’- आश्चर्य चकित विमल
ने पूछा।
तिवारीजी की ओर कुछ
इशारा किया उपाध्यायजी ने,और बोले- ‘तब अब चला जाय? बहुत देर हो गयी है।’
‘क्या कहा
महात्मा जी ने?’-
उत्सुकता
पूर्वक पूछा विमल ने।
‘बहुत कुछ
बतलाया।चलो रास्ते में ही बातचित होगी।शीघ्र चलना चाहिये यहाँ से,अन्यथा समय पर वहाँ पहुँच नहीं
सकेंगे।
उम्मीद है वे लोग राँची से लौट आये होंगे।’-कहते हुये उपाध्यायजी जेब से एक सौ एक
रूपये निकाल कर महात्माजी की ओर बढ़ाये, किन्तु लोभी रामदीन पंडित की तरह हाथ नहीं
पसारा
महात्मा जी ने।रूपये स्वीकारने से साफ इनकार कर दिये।
‘नहीं...नहीं...।इसकी
कोई आवश्यकता नहीं।यह औघड़दानी बाबा भोलेनाथ का दरबार है।तन्त्र के अधिष्ठाता का
दरबार।तुच्छ मुद्रा की तुला पर तौल कर अमूल्य तन्त्र-निधि को बेचा नहीं
जा
सकता।यह अतुलनीय है।अनुपमेय है। ‘अवेश्य’ है।सिर्फ लोक
कल्याणार्थ...।’
‘फिर भी
महाराज...कुछ तो...आखिर,मुझे सन्तोष
कैसे होगा?’- हाथ जोड़
कर कहा उपाध्याय जी ने।
‘कुछ नहीं।कुछ
नहीं।इस दरबार में कुछ नहीं।मैं तो यहाँ
मन्दिर में मूर्ति पर पैसे चढ़ाने से भी मना करता हूँ भक्तों को।यदि कुछ दिये वगैर
तुम्हें सन्तोष नहीं होता तो इस रकम को
किसी दरिद्र-कंगले को दे देना। जानते हो भगवान इन पत्थरों में नहीं
बसते।
कभी बसे भी नहीं।यह तो निर्गुण का सगुण प्रतीक मात्र है।चंचल मन को एकाग्र कर बांध
रखने का साधन मात्र।यह भ्रम है कि भगवान मन्दिरों में होते हैं।भगवान होते हैं- सिर्फ भक्तों के
हृदय में। जाओ,
प्रत्यक्ष
‘देव’ दरिद्रनारायण की
सेवा करो।तुम्हें शान्ति और सन्तोष मिल जायेगा।’ -मृदु मुस्कान विखेरते हुये कहा
महात्माजी ने, और त्रिशूल उठा कर
खटाखट चल पड़े।
आगे बढ़ कर उपस्थित
भक्तों ने चरण र्स्प्य करना चाहा।पर इसका भी अवसर न दिया महापुरुष ने।
‘यह क्या मैं इतना महान नहीं
जो
मेरा चरण स्पर्श किया जाय।’
तीनों व्यक्ति
पूर्ववत दण्डवत प्रणाम कर,प्रस्थान किये।निर्मलजी ने कहा-‘हमलोगों को
जल्दी चलना चाहिये।स्कूल में छुट्टि होने से पूर्व वहाँ पहुँच जाना चहिये।अन्यथा
पाठकजी को प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।’
सभामण्डप से अन्दर
जाकर,भोलेनाथ की
भव्य मूर्ति के सामने साष्टांग प्रणाम कर,तीनों वापस चल दिये।सबके अन्तस में
अपने-अपने ढंग का तूफान मचा हुआ था।सब अपने-अपने अधिकार के लिए चिन्तित थे।पर
अभागे विमल को तो यह भी पता नहीं कि उसका अधिकार छिन
चुका है,किसी प्रबल
प्रतियोगी के हाथों।कई बार पूछा भी कि महात्माजी ने क्या कहा।किन्तु,कोई खास नहीं- कह कर, निर्मलजी हर बार बात बदल दिये।रेकॉडर तो
विमल के हाथ में ही था,
परन्तु
असली कैसेट उपाध्यायजी की जेब में पड़ा विलख रहा था,तिवारीजी के करूण हृदय की तरह।
धीरे-धीरे
पहाडि़याँ उतरते रहे सभी।
निर्मलजी
विचार-मग्न रहे।आज उन्हें आत्मा-परमात्मा की बात समझ आने लगी,महात्मा जी की बात से।रामदीन पंडित
का रंगीन चोंगा सरकता हुआ सा प्रतीत हुआ।उन्होंने तो प्रेतात्मा की बात बतलायी थी,और ठगी की भूमिका बाँधी थी।
तिवारीजी के दिमाग
में भी अनेकानेक प्रश्न उदित और अस्त होते रहे।वे सोच रहे थे- ‘इतनी बातों
की जानकारी मिली,यह भी पूछ
लेना चाहिये था कि जहाँ वह जाना चाहती है,वहाँ क्या सफलता मिल जायेगी? मगर अफसोस,पूछ भी न पाया कुछ विशेष। समय पर
बुद्धि मारी गयी।ओफ! कुछ उपाय तो कम से कम पूछ ही लेना चहिये था।’ फिर खुद को ही संतोष
दिलाये- ‘भगवान करें,उसे निराशा ही हाथ लगे।फिर तो कही ही
है,महात्माजी
की बात मानने के लिए। परन्तु क्या छोड़ दिया जाय स्वतन्त्र रूप से उसे यहाँ-वहाँ
भटकने के लिए? नहीं..नहीं...ऐसा
नहीं हो सकता।’-अचानक उनके मुंह से उच्छ्वास निकल पड़ा-‘ओफ!...’
ऐसे ही विचार-मन्थन
में उलझे चलते रहे तीनों।किन्तु निर्णय का नवनीत निकल न पाया।यहाँ तक कि काले
पत्थरों की पहाड़ी शेष हो गयी,कंकड़ीली लाल सड़क भी शेष हो गयी।काली सड़कों को काटती
सरसराती हुयी गाड़ी सफेद भवन के सामने आ रूकी। रास्ते की समस्या साथ छोड़ दी,मगर मानसिक उलझन साथ छोड़े तब न! शायद
छोड़ेगा भी नहीं- इसी आशय को अलग-अलग रूपों में
अपने-अपने भाव-शब्दों में सोंचा तीनों लोगों ने,और गाड़ी से उतर कर चल पड़े वरामदे
को पार कर सीधे वार्ड की ओर,जहाँ पहले मीना का बेड था।गाड़ी में पड़ा तस्वीरों का पिटारा,गीतों का कैसेट और मीना की डायरी साथ
ले ली गयी।
सूरज छिप चुका
प्रतीची क्षितिज में।क्यों कि उसे जानकारी मिल गयी थी कि अब यहाँ रहने की आवश्कता
नहीं है उजाले की।सूरज को यह भी पता था कि खुशियों की शवयात्रा,अब प्रारम्भ होने वाली है।विरह,कसक और तड़पन के ‘तम’ का साम्राज्य अपने
फतह का डंका बजाने को तैयार है,राँची के वरिष्ठ डॉक्टरों के रिपोर्ट का पताका हाथ में लिये
हुये।
वरामदे को पार करते
हुये विमल की बायीं आँख जोरों से फड़क
रही थी। पर,दिल की
बेताब धड़कानों में उनका फड़कन खो सा गया था। उसे तो उत्सुकता थी सिर्फ इस बात की
कि अस्पताल पहुँचते ही आहूत आत्मा के
अनूठे स्वर का कैसेट सुनने को मिलेगा।
आगे बढ़ कर तीनों
व्यक्ति मीना के कक्ष के सामने पहुँचे।किन्तु उसे अन्दर से बन्द पाये।बाहर वरामदे
में ही आया टहल रही थी। देखते के साथ बोली- ‘कहाँ चले गये थे
आपलोग?साहब कब से आपलोगों का इन्तजार कर रहे हैं।’
‘मीना कहाँ
है?’- पूछा
उपाध्याय जी ने।किन्तु न जाने क्यों उनके स्वर में किंचित परिवर्तन आ गया था।उनकी
आवाज में वह मिठास अब न रह गया था,जो टांगीनाथ जाने से पूर्व था।वे समझ चुके थे कि अब मीना उनकी
नहीं हो सकती।जब वह तिवारी जी की बेटी ही नहीं
तो
विमल की पत्नी कैसे? और जब विमल की पत्नी ही नहीं
तो
बहू का प्रश्न ही कहाँ’- उनके मुंह से लम्बा उच्छ्वास निकल पड़ा।सिर झुकाये बढ़ गये
डॉक्टर-चेम्बर की ओर।
धड़कते कलेजे को
थामे हुये विमल ने चिकित्सक-कक्ष का पर्दा उठाया। उसके साथ ही उपाध्यायजी एवं
तिवारीजी भी कमरे में प्रवेश किये।
‘आइये
मिस्टर उपाध्याय!हमलोग कब से प्रतीक्षा कर रहे हैं।कहाँ चले गये थे आपलोग?’-पूछा
डॉक्टर खन्ना ने और हाथ का इशारा किया खाली कुर्सियों की ओर।
तीनों आकर यथास्थान
बैठ गये।उपाध्यायजी ने कहा- ‘आपलोग तो अपना
कर्तव्य कर ही रहे हैं।हमलोग
विचार किये कि क्यों न विज्ञान के साथ-साथ तन्त्र-मन्त्र का भी थोड़ा-बहुत सहयोग
लिया जाय- निदान की दिशा में।यही सोच कर टांगीनाथ चले गये थे हमलोग।’
निर्मल जी की बात
सुन कर हँसते हुये डॉ.खन्ना ने कहा- ‘आप जैसे समझदार लोग
भी साधु-महात्माओं के चंगुल में कैसे फंस जाते हैं; मुझे आश्चर्य होता
है।’
‘मैं नहीं
फंसा
मिस्टर खन्ना! परिस्थिति ही फंसा डाली तो क्या करूँ? खैर छोड़िये।यह तो
बतलाइये कि क्या निर्णय लिया आपलोगों ने?’
उपाध्यायजी की
बातों का जवाब के वजाय,डॉ.सेन ने
सवाल कर दिया-
आपको कुछ प्रमाण लाने के लिए कहा गया था न, मिला कुछ?’
‘जी हाँ,बहुत कुछ मिला।तस्वीरें,लिखावट,स्वर...।’-कहते हुये विमल ने सारा
सामान बैग से निकाल कर आगे मेज पर रख दिया।
प्रमाण तो काफी
जुटाया है आपने,किन्तु वह
इन्हें स्वीकार करे तब न।’ एक एलबम पलटते हुये उॉ.खन्ना ने कहा।थोड़ी देर तक यूँ ही
पलटते रहे,फिर उसे
लिये हुये उठ खड़े हुये,यह कहते
हुये- ‘आपलोग जरा
इन्तजार करें।मैं उसे दिखला लाता
हूँ।देखें क्या कहती है।’
डायरी और एलबम लेकर
डॉ.खन्ना चले गये,दूसरे कमरे
में जहाँ मीना पड़ी हुयी थी।डॉक्टर लोग अभी उसे इन लोगों के सामने लाना उचित न समझ
रहे थे।
दरवाजे पर दस्तक
सुन मीना उठ खड़ी हुयी। ‘उफ! जरा विश्राम भी नहीं
कर
पाती।’ भुनभुनाती
हुयी बोली,और उठ कर
किवाड़ खोल दी।
‘आइये
डॉक्टर! कहिये,ये सब क्या
लिए आ रहे हैं?’-कहती हुयी
मीना बेड पर आकर बैठ गयी।माथे का घाव काफी हद तक ठीक हो चुका है।सफेद पट्टी के जगह
अब मात्र लिकोप्लास्ट चिपकाया हुआ है।
‘ये कुछ
फोटोग्राफ्स हैं।तुम्हें
दिखाने के लिये लाया हूँ।’-कहते हुये एलबम मीना के हाथ में दे कर खुद कुर्सी पर
बैठ गये।
एलबम लेकर मीना
उसके प्रत्येक चित्र को बड़े गौर से देखने लगी। फिर फोटोफ्रेम को देखी।काफी देर तक
निहारती रही।सोचती रही।परन्तु कुछ समझ न पायी।हालांकि क्षण भर के लिये उसके दिमाग
में एक झटका सा लगा,और कुछ समय
पूर्व देखे गये एक सपने की बात याद आने लगी।
‘ओफ! मुझे
समझ नहीं आता डॉक्टर! यह सब क्या तमाशा है? मैं मानसिक रूप से
पूर्ण स्वस्थ हूँ।आप सभी वरिष्ठ गण भी मेरी अस्वस्थ्यता का कोई प्रमाण ढूढ़ नहीं
पा
रहे हैं।फिर भी यह
सब तमाशा क्या है?’-माथे पर छलक आयी पसीने की बूंदों को पोंछती हुयी मीना ने कहा।
‘कौन...क्या
तमाशा...?’- पूछा डॉक्टर ने।
‘यही कुछ जो
हो रहे हैं पिछले दो
दिनों से।अब देखिये न, अभी कुछ घंटे पहले
आपलोगों से इजाजत लेकर मैं सोने के लिये यहाँ
आ गयी थी न; पर कहाँ सो
पायी।’
‘क्यों?’
‘ज्यों
आँखें बन्द की कि अजीब-अजीब दृष्य नजर आने लगे।न उसे मैं नींद कह सकती हूँ
और न जागरण।किन्तु दृष्य जारी रहे।’
‘कैसा दृष्य?कुछ
कहो तो स्पष्ट हो।’
‘मुझे लगा
मानों मैं किसी दूर पहाड़ी पर
किसी प्राचीन मन्दिर में, जटाजूट धारी एक
दिव्य महात्मा के सामने बैठी हूँ।वे मुझसे मेरे अतीत की कहानियाँ पूछ रहे हैं।मैं उनको अपना अतीत सुना रही हूँ।उसी क्रम में
मुझे मिट्टी का एक छोटा सा मकान भी नजर आया, जो फूस-पतेले से छाया हुआ था।उसमें एक वृद्ध ब्राह्मण रह
रहा था।फिर एक विद्यालय भी मैंने देखा।बहुत सारे बच्चे थे उसमें। उन्हीं
में
मैंने स्वयं
को भी देखा,साथ ही इस
लड़के को भी।’- कहती हुयी
मीना एक फाटोफ्रेम उठा कर विमल की तसवीर पर अंगुली रख दी।फिर कहने लगी-‘किन्तु
डॉक्टर! यह सब क्या नाटक है?इन सारे चित्रों में मैं मौजूद हूँ,पर किसी को भी पहचान नहीं
पाती।और
न मुझे यह ही याद है कि ये चित्र कब,कहाँ लिये गये।’
‘जरा इस
तसवीर को तो देखो।’-कहते हुये डॉ.खन्ना ने विमल और मीना का एकाकी युगल चित्र सामने
रख दिया।
चित्र देखते ही
मीना चौंक उठी।फिर अचानक चीख पड़ी-‘ये क्या बदतमीजी है? मेरा फोटो इस लड़के
के साथ क्यों आ गया? क्या इन फरेबी चित्रों से मुझे छलने का प्रयास किया जा रहा है? यह तो उसी लड़के का
फोटो है जो उस दिन मुझे देखने आया था,और खुद को मेरा भावी पति कह रहा था।’
‘एक समझदार
लड़की होकर तुम्हें इस तरह चीखना-चिल्लाना नहीं
चाहिये।’
संयत स्वर में कहा डॉ.खन्ना ने,और पीली आवरण वाली पुस्तिका खोल कर उसके सामने रख दी,यह कहते हुये- ‘जरा इसे तो
पहचानो।यह लिखावट किसकी है?’
पुस्तिका को हाथ
में लेकर गौर से देखने लगी मीना।उलट- पुलट कर कई प्रसंग को पढ़ गयी।फिर उसे बन्द
करती हुयी बोली- ‘यह तो और भी आश्चर्य की बात है।लिखावट
मेरी ही है।सभी जगह तो नहीं,पर जहाँ-तहाँ मेरी ही घटनायें झलक रही हैं। पर, आश्चर्य होता है कि इसे कब लिखी, कहाँ रखी थी, और अब यह आपलोगों को क्यूं कर हाथ लगी?’
‘खैर इसका
कारण जो भी हो।मुझे एक बात बतलाओ मीना- क्या तुम्हें संगीत से भी लगाव है? तुम गाती भी हो?’-पूछा
डॉ.सेन ने।
‘यह तो मैं पहले भी बतला चुकी
हूँ डॉ.सेन अंकल- अपने विद्यालय में मैं कई बार प्रोग्राम दे चुकी हूँ- नाट्य-संगीत
का।क्यों इसका भी कुछ प्रमाण मिला
है क्या ?’- पुस्तिका
डॉ.खन्ना की ओर बढ़ाती हुयी पूछी।
‘छोड़ो
इसे।यह बतलाओ कि अब आगे क्या सोच रही हो, क्या विचार है तुम्हारा?’-प्रसंग बदलते हुये
डॉ.खन्ना ने पूछा।
‘विचार मैं अपना क्या कहूँ?आपलोग तो मुझे एक पहेली बना
कर रखे हुये हैं,जिसका अर्थ
ही नहीं लगता।मानसिक,शारीरिक किसी प्रकार का कोई बिकार तो
मिला नहीं, फिर भी न तो आप अपना निर्णय सुनाते हैं, और न मुझे इस
जहन्नुम से छुटकारा ही दे रहे हैं।मैं तो कह रही
हूँ- विश्वास न हो रहा है न, तो मेरे साथ चलिये।चल कर मेरे साथ देख लीजिये कि वहाँ
मेरा क्या है,कौन है।मैं तड़प रही हूँ अपनों
से बिछुड़ कर,और आप
डॉक्टरों को तमाशा सूझ रहा है।मुझे इनसान नहीं,बल्कि एक जीता-जागता प्रयोगशाला समझ लिया है आपलोगों ने।
अभी तक अपलोगों ने मुझे यह भी नहीं बतलाया कि राँची के
मनोचिकित्सकों ने क्या सलाह दी मेरे बारे में?’-कहती हुयी मीना के नथुने फड़कने
लगे थे क्रोध के मारे। ललाट पर स्वेद-विन्दु,दुर्वांकुर पर पड़े ओस कणों की तरह
चमकने लगे थे,जिसे दूर
कर सकने में बिजली का पंखा भी असमर्थ हो रहा था।
‘अच्छा।अब
तुम्हें ज्यादा परेशान होने की आवश्यकता नहीं
है।
हमलोगों ने निर्णय ले लिया है तुम्हारे बारे में।आओ मेरे साथ चलो। वहाँ अन्य लोग
भी बैठे हुये हैं।वहीं
चल
कर विस्तृत जानकारी दूँगा।’-कहते हुये डॉ.खन्ना लाये गये सारे सामान को समेट कर उठ
खड़े हुये।उत्सुकता पूर्वक मीना भी खड़ी हो गयी।
चिकित्सक कक्ष का
परदा सरका कर डॉ.खन्ना कमरे में प्रवेश किये;किन्तु मीना ठिठक कर बाहर ही खड़ी रह
गयी,कक्ष में
बैठे लोगों को देख कर।
‘आओ बेटी
अन्दर आ जाओ।’-कहा उपाध्यायजी ने।बेचारा विमल हसरत भरी निगाहों से,परदे की झीनी छिद्रों से झांक कर
देखने की कोशिश करता रहा। उसकी जबान सूख रही थी।बेचारे तिवारी जी का गला भर
आया।पन्द्रह-सोलह वर्षों के अटूट स्नेह और श्रद्धा के सुदृढ़ ईंटों से बनायी गयी
अरमानों की ऊँची अट्टालिका पल भर में ही भुने हुये पापड़ की तरह चूर-चूर होती
प्रतीत हुयी,मानों विवशता
के बमवर्षकों का प्रलयंकारी प्रहार हो गया हो।
‘आओ मीना।अन्दर
आ जाओ।वहाँ क्यों खड़ी हो?आज तुम्हारे भाग्य का फैसला करने हेतु यह गोष्ठी आयोजित
हुयी है,और तुम
बाहर खड़ी हो?’-जरा हँस कर कहा डॉ.सेन ने।
झिझक भरे भारी कदमों
से मीना ने कमरे में प्रवेश किया,और कोने में एक खाली कुर्सी देख,जा बैठी।विमल अभी भी पूर्ववत निहारे
जा रहा था,जो अब
स्पष्ट दीख रही थी।एक बार गर्दन घुमाकर मीना ने भी उसकी ओर देखा,पर तुरन्त ही नजरें घुमा ली, मानों किसी अनजान और अस्पृश्य की ओर निगाहें
उठ गयी हों।
‘मिसेस भट्ट!’- कहा डॉ.खन्ना ने और
चौंक कर मीना की निगाहें जा लगी सामने बैठे डॉक्टर के चेहरे पर।उसके कानों में
मधुर जलतरंग बज उठे। ‘मंजुघोष’ वीणा की झंकार सी
सुनाई पड़ी। पल भर के लिये तो यकीन न आया कि उसे ही पुकारा जा रहा है,इतने मधुर सम्बोधन से।इसी सम्बोधन के
लिये तो आज तीन दिनों से तड़प रही थी वह।
प्रसन्नता से चहकती
मीना की निगाहों के साथ-साथ कई कातर, अप्रसन्न
और आतंकित निगाहें भी उठ कर जा लगी डॉ.खन्ना के चेहरे पर।विमल ने सोचा- ‘लगता है,मरीज के साथ-साथ डॉक्टर का भी दिमाग
खराब हो गया है।’
किन्तु
कुछ कह न सका।
‘कहिये डॉ.
अंकल!’- अपूर्व
मुस्कान विखेरती मीना ने कहा। इस तरह की मदिर मुस्कान आज पहली बार देखने को मिली,सिर्फ डॉक्टरों को ही नहीं,विमल को
भी।
‘हर प्रकार
के जाँच-पड़ताल के बाद हमलोगों ने अपना रिपोर्ट तैयार किया है।’- डॉ.खन्ना की बात
पर सबके कान खिंच गये ट्रान्जिस्टर के एरियल की तरह। ‘काक चेष्टा
बको ध्यानं’ की तरह
सच्चे गुण-ग्राहक सा भाव बना लिया उपस्थित लोगों ने।
‘....यह सही है
कि आप श्री मधुसूदन तिवारी की..’- तिवारीजी की ओर इशारा करते हुये डॉ.खन्ना ने
कहा- ‘....पुत्री
मीना तिवारी हैं...’
मीना चौंक
उठी।डॉ.खन्ना के शब्द तीखे तीर की तरह आ लगे उसके सीने में।तिवारीजी के साथ-साथ
विमल और निर्मलजी के चेहरे पर भी हल्की सी प्रसन्नता झलकी,पर डॉ.खन्ना के अगले ही वाक्य से,बिजली सी कौंध कर गहन अन्धकार में
विलीन हो गयी- सबकी खुशियाँ।ऐसा लगा मानों धनुर्धर लक्ष्य विचलित हो गया हो, वस्तुतः वह तीर तो विमल के लिए था।
‘....किन्तु,यह भी उतना ही सत्य है कि आप मिसेस
भट्ट हैं।’- डॉ. खन्ना ने आगे
कहा।
मीना फिर चौंकी- ‘यह क्या
पहेली बुझा रहे हैं डॉक्टर अंकल?साफ क्यों नहीं
कहते,बात क्या है?’
‘धैर्य और शान्ति
पूर्वक पहले सुनो तो।पिछले तीन दिनों से जो पहेली
चल रही है,उसके स्पष्टीकरण के लिए ही हमलोग आज यहाँ एकत्रित हुये हैं।’
डॉ.खन्ना की बात से
मीना थोड़ी शरमा गयी।उसे अपनी भूल का एहसास हो आया।अतः ‘सौरी’ कह कर शान्त बैठ
गयी।अन्य लोगों का भी घ्यान फिर एकाग्र हो गया डॉ.खन्ना की ओर।
‘हाँ,तो मैं कह रहा था...।’-डॉ.खन्ना ने आगे कहा- ‘आप मिसेस
भट्ट हैं।श्री कमल
भट्ट ने आपके मरणासन्न स्थिति में आपकी मांग भरी। आप दोनों ने जी जान से एक दूसरे
को चाहा था,पर जरा सी
चूक के कारण आप अपना सर्वनाश कर लीं।आपको पत्र मिला,और आवेश में कूद पड़ी रनिंग ट्रेन
से...।’
पल भर के लिए रूके
डॉ.खन्ना,और सामने
पड़ी संचिका के पन्ने पलटने के बाद फिर कहने लगे- ‘आप अपनी
जीवनी लिखने के क्रम में बतला गयी हैं कि २२-२३ मई
१९६६ई. को वाराणसी के लिए प्रस्थान की थी,अपने पिता श्री वंकिम चट्टोपाध्याय एवं माँ
के साथ।रास्ते में ही वह दुर्घटना घटी,और आपको पटना बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया।इस सम्बन्ध
में आपके कथित संकेत पर ट्रंक कॉल द्वारा मैं उक्त अस्पताल से तत्कालीन घटना का रिपोर्ट मांगा। वहाँ
से जो जानकारी मिली,वह वास्तव
में विचारणीय है....
संचिका से एक कागज
निकाल कर बगल में बैठे उपाध्यायजी की ओर बढ़ा दिये डॉ.खन्ना,यह कहते हुये-‘ ...आपके कथन
की पुष्टि मिली वहाँ से,साथ ही
ज्ञात हुआ कि उक्त मीना चटर्जी का देहान्त दुर्घटना के दूसरे दिन ही यानी २४ मई
१९६६ ई. को रात्रि दो बजे हृदय गति अवरूद्ध हो जाने के कारण हो गया। कारण कि
दुर्घटना के क्रम में हृदय और फेफड़े पर काफी चोट आयी थी। इसके बाद स्थानीय बांस घाट पर अन्त्येष्ठि
क्रिया भी सम्पन्न हुयी, जिसका रिपोर्ट
सरकारी शव-दाह-गृह से मुझे प्राप्त हो चुका है। कमल भट्ट ने ही अग्नि-संस्कार किया
था।आप कहती हैं
कि
मांग भरने के कुछ देर बाद आपको नींद आ गयी थी,और उसके बाद की बातें कुछ भी नहीं
मालूम।यहाँ
तक कि कल जब आपकी आँख खुली,यहाँ के अस्पताल में तो आप अपने को उसी अस्पताल में समझ रही
थी।तदनुसार २५ मई १९६६ई. की तारीख भी बतला रही थी।यही कारण है कि पत्रिका पर छपी
तिथि- मई१९८३ई.अंक, देखकर आपको महद्
आश्चर्य हुआ।किन्तु सच पूछिये तो यह सही तारीख है।यह वास्तव में मई १९८३ई.ही है,न कि मई १९६६ई.।’
डॉ.खन्ना की बात
सुन मीना ने आश्चर्य पूर्वक पूछा- ‘आपकी सारी बातें
मान लेती हूँ।फिर भी यह प्रश्न उठता है कि विगत सत्रह वर्षों में मैं कहाँ रही? जब मर ही गयी,फिर सारी बातें मुझे याद क्यूं कर है?
मुस्कुराते हुये
डॉ.खन्ना ने कहा- ‘इसी गुत्थी को सुलझाने में हमलोग दो
दिनों से परेशान हैं।हर प्रकार
के छानबीन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि उक्त तिथि को निधन के बाद यथासमय आपका पुनर्जन्म
हुआ।आप माधोपुर के श्री मधुसूदन तिवारी की पुत्री बनी।’-तिवारी जी की ओर इशारा
करते हुये डॉ. खन्ना ने कहा- ‘समयानुसार अध्ययन
के लिए आपका नामांकन उधमपुर बाल विकास विद्यालय में हुआ,जहाँ श्री निर्मल उपाध्याय के कनिष्ट
पुत्र विमल उपाध्याय से आपका परिचय हुआ।समय के करवट के साथ आपदोनों का परिचय
प्रगाढ़ प्रेम में परिणत हो गया।इसकी साक्षी हैं ये सब तस्वीरें एवं आपकी डायरी....।’-कहते
हुये डॉ.खन्ना ने तस्वीरों को फिर से मीना के सामने रख दिया।
मीना उन तस्वीरों
पर गौर करने लगी।अपने याददास्त पर जोर देने लगी। पर कुछ भी काम न आया,काफी माथा-पच्ची के बावजूद। यहाँ तक
कि वह
पसीने से तर-ब-तर हो गयी।
‘ओफ डॉक्टर!
मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा है।’- कहती
हुयी मीना तस्वीरों को एक ओर रख,अपने आंचल से चेहरा पोंछने लगी।
‘कोई बात नहीं।घबराने
की जरूरत नहीं है।पहले आप मेरी बात सुनिये।’- कहते हुये डॉ.खन्ना
मीना की गत जीवनी-जो मीना तिवारी के रूप में गुजारी,जिसकी जानकारी इन दो दिनों के छानबीन
में हासिल हुयी, शब्दशः
सुना गये मीना को।मीना बड़े मनोयोग से उन्हें सुनती रही।
और अन्त में
डॉ.खन्ना ने कहा- ‘यहाँ अस्पताल में भर्ती होने के बाद
आप एक चुनौती बन गयी- हम चिकित्सकों के लिए और चिकित्सा विज्ञान के लिए। अन्त में
हमें वरिष्ठ मनोविश्लेषक एवं आधुनिक जाँच-संयंत्रों का सहारा लेना पड़ा। इस क्रम
में आपको आधुनिक पद्धति से हिप्नोटाइज करके, आपके अवचेतन को उभारा गया,जिससे यह सब रहस्य ज्ञात हुआ।यह
पूर्णतया स्पष्ट हो गया कि इस दुर्घटना के कारण माथे में गहरी चोट आयी,जिससे ‘पीट्यूट्री
ग्लैंड’ यानी
पीयूषग्रन्थि प्रभावित
हो गया,और आप अपनी
वर्तमान स्मृति खो बैठी। संयोगवश आपके अवचेतन में संचित पूर्वजन्म की स्मृति जागृत
हो उठी...।’
डॉ.खन्ना अभी कुछ
और कहना ही चाहते थे कि बीच में ही बोल उठे उपाध्यायजी- ‘तब डॉक्टर,अब क्या कोई उपाय नहीं
है
पुनः इसकी वर्तमान स्मृति को सुधारने का?’
‘डॉक्टर
साहब! मैं आपके पांव पड़ता
हूँ,कोई उपाय
हो अभी बाकी तो सुझायें हमें।मेरी एक मात्र बेटी है,मेरे जीवन का सहारा। हाय! मैं इसे क्यों कर छोड़
सकता हूँ?’-कहते हुये तिवारीजी रो पड़े फफक कर।
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