श्रीधन्वन्तर्यैनमः
वनस्पतितन्त्रम्
वि ष
य प्र वे श
तन्त्र
और आयुर्वेद का आपसी सम्बन्ध बड़ा गहन है।वैसे आयुर्वेदज्ञ होने के लिए तान्त्रिक
होना आवश्यक नहीं,किन्तु तान्त्रिक होने के लिए आयुर्वेदज्ञ होना जरूरी सा है।
विशेष नहीं तो कम से कम आयुर्वेदिक द्रव्य की सम्यक् पहचान और तत् द्रव्यगुणों का किंचित
ज्ञान ।द्रव्य,गुण,कर्म,प्रभाव,विपाक,और आमयिक
प्रयोगों का भी ज्ञान हो जाय,फिर क्या
कहना।आयुर्वेद के पदार्थ-विज्ञान और इसके गूढ़ रहस्यों को भी यदि आत्मसात कर लिया जाय,तो सोने में सुगन्ध आ जाय। प्रकृति में प्राप्त प्रत्येक पदार्थ का
गुण वैशिष्ट्य है।ध्यातव्य है कि त्रिगुणात्मक
सृष्टि में दृश्य-अदृश्य जो भी है- सब पंचभूतात्मक है,भले ही मात्रा वैशम्य
हो।क्यों कि ये मात्रा-वैशम्य ही पदार्थ के रूप-गुण वैशम्य का मूल कारण है।
आधि वा व्याधि(मानसिक और शारीरिक) यानी उभय
प्रकार की विकृति का मूल कारण है- निर्धारित पंचभूतों में यत्किंचित कारणों से
व्यवधान वा विपर्यय की उपस्थिति; और इससे मुक्ति का एक मात्र उपाय है- व्यवधान वा
विपर्यय का विपरीतिकरण।सीधे तौर पर कहें, तो कह सकते हैं कि तत्वों के असंतुलन को
येन-केन-प्रकारेण पूर्व रूप में ला देना ही निवारण,अथवा रोग-मुक्ति है।
आयुर्वेद में स्वस्थ की परिभाषा है- समदोषः
समाग्निश्च, समधातुमलक्रियः। प्रसन्नात्मेन्द्रिय मनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते।। (सू.सू.१/२/४४) (त्रिदोष,पंचमाग्नि,सप्तधातु,मलादि
उत्सर्जन का संतुलन तथा आत्मा,इन्द्रिय और मन की प्रसन्नता ही पूर्ण स्वास्थ्य का
लक्षण है।)
मात्र शरीर के स्वस्थ रहने से ही हमारा
काम नहीं चल सकता।जैसा कि कहा गया है- आदि सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर होवे
माया,तीजा सुख सुशीला नारी,चौथा सुख सुत आज्ञाकारी...।
उक्त सुखों की प्राप्ति और मनोनुकूलता के
लिए हमारे शुभेच्छु दूरदर्शी मनीषियों ने अनेक कल्याणकारी उपाय सुझायें हैं।उन्हीं
में एक है- आयुर्वेदीय द्रव्यों(स्थावर-जांगम) का तन्त्रात्मक प्रयोग। वस्तुतः ये
चमत्कारिक प्रयोग हैं।किन्तु सदा इस बात का ध्यान रखना है कि संतों के इस कृपा-प्रसाद
का हम सिर्फ लोक कल्याणकारी प्रयोग ही करें। लोभ,मोह, काम,क्रोध,स्वार्थ से अन्धे
होकर अकल्याणकारी प्रयोग न कर बैठें।क्यों कि अन्ततः यह तन्त्र है,जो अतिशय शक्ति
शाली है।सुपरिणाम हैं, तो दुष्परिणाम भी पीछे छिपा हुआ है। अपने इस लघुसंग्रह में कुछ ऐसे ही विशिष्ट
लोक-कल्याणकारी प्रयोगों की चर्चा करेगें। इनमें कुछ स्वानुभूत हैं,कुछ गुरू
प्रसाद,कुछ परानुभूत-स्वदृश्य मात्र।
इनका प्रयोग आपके लिए उपयोगी और
कल्याणकारी हो तो मैं अपना सौभाग्य समझूँ।प्रयोग विधि यथासम्भव स्पष्ट करने का
प्रयास किया गया है।शास्त्र की मर्यादा का विचार रखते हुए कुछ बातें इशारे में कही
गयी हैं।हमारे विद्वान बन्धु सहजता से उन गुत्थियों को खोल लेंगे- ऐसा मेरा पूर्ण
विश्वास है।मेरी कुछ बातें उन्हें बचकानी भी लगेंगी। किन्तु विलकुल नये लोगों को इससे
थोड़ी आपत्ति और परेशानी भी हो सकती है।वे चाहें तो निसंकोच मुझसे सम्पर्क कर सकते
हैं।किंचित पात्रता का विचार तो करना ही पड़ेगा। वैसे भी बच्चे के हाथ तोपखाने की
चाभी सौंपना न बुद्धि-सम्मत है और न न्याय-संगत।
प्रसंगवश,यह भी स्पष्ट कर दूँ कि मैं तन्त्र–गुरू
होने की क्षमता नहीं रखता। गुरू बनने की लालसा भी नहीं है।आदर और स्नेहवश लोगों ने
गुरूजी कहना प्रारम्भ कर दिया, और अब तो यह उपनाम सा हो गया है।फिर भी एक वरिष्ठ
मित्र के नाते स्नेहासिक्त होकर जिज्ञासुओं का यथोचित मार्गदर्शन करने को अहर्निश
प्रस्तुत और तत्पर हूँ।
और अन्त में- औषधीश सुधान्शु से प्रार्थना
करता हूँ कि वे हम पर, और इस संग्रह के प्रयोग कर्ताओं पर अपनी कृपा सदा बनाये
रखें।माँ वागीश्वरी और विघ्नेश्वर गणपति से प्रार्थी हूँ कि वे सदा सद्बुद्धि
प्रदान करें।
मार्गशीर्ष,शुक्ल
प्रतिपदा,भौमे,विक्रमाब्द २०७०
निवेदक/संग्राहक
– कमलेश पुण्यार्क
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