(5) अश्वत्थ(पीपल)
का बाँदा-
(क) आम,पीपल,वट,पाकर,और
गूलर ये पवित्र पंचपल्लव श्रेणी में आते हैं;जिनमें पाकड़,पीपल,और वट क्रमशः
सृष्टि के मूल ब्रह्मा-बिष्णु-महेश कहे जाते हैं।इन तीनों पौधों को एकत्र(एक ही थल
में)लगाने का बड़ा ही शास्त्रीय महत्त्व है- इसे त्रिसंकट कहते हैं।त्रिसंकट-वृक्ष
स्थापन,पूजन,दर्शन को बड़ा ही धार्मिक कार्य माना गया है।ये वृक्ष आसानी से प्रायः
सभी जगह पाये जाते हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनका बीज सामान्य वातावरण में
उत्पन्न नहीं होते, यानी आप बीज लगाना चाहें तो अंकुरित नहीं होंगे;किन्तु इनके
मीठे सुस्वादु फलों को पक्षी भक्षण करते हैं।उनके उदर की उष्मा से बीजों को
अंकुरित होने की क्षमता प्राप्त होती है।इस प्रकार पक्षियों के बीटों(मल) से
प्राप्त बीज सहज ही उग आते हैं।
वास्तु शास्त्र में पीपल वृक्ष का स्थान
भवन के पश्चिम दिशा में होना लाभकारी कहा गया है,यानी वट के ठीक विपरीत।वहाँ
अवस्थित होकर भवन-रक्षा का कार्य करता है पीपल का पौधा।
आयुर्वेद एवं तन्त्र ग्रन्थों में इनके सैकड़ों
प्रयोग भरे पड़े हैं।यहाँ हमारा प्रसंग पीपल वृक्ष का बाँदा-विवेचन है।यदि सौभाग्य
से पीपल का बाँदा प्राप्त हो जाय तो पूर्व निर्दिष्ट विधियों से उसे अश्विनी
नक्षत्र में ग्रहण करें और विधिवत स्थापन- पूजनोंपरान्त किसी इच्छुक स्त्री को
लोककल्याणार्थ प्रदान करें।उसे गाय के कच्चे दूध के साथ पीस कर,गाय के ही कच्चे
दूध के साथ पिला दें- रविपुष्य/गुरुपुष्य योग में तो निश्चित ही वन्ध्या को
भी सुन्दर-स्वस्थ संतान की प्राप्ति होगी। ध्यातव्य है कि यह अन्यान्य स्त्री
दोषों का भी अमोघ निवारण है।हाँ,यदि पुरुष में भी दोष हो तो उसका निवारण पहले कर
लेना चाहिए।तभी स्त्री पर उसकी सफलता प्राप्त होगी।यहाँ एक बात का और भी ध्यान
रखना है कि शिव एवं शक्ति मंत्रों के साथ-साथ संतानगोपालमंत्र का भी
पुरश्चरण(या कम से कम चौआलिस हजार जप)विधिवत दशांश हवन, तर्पण,मार्जन,एवं पांच
वटुक भोजन दक्षिणा सहित होना अति आवश्यक है।
(ख)पीपल के अन्य प्रयोग- १. श्रीकृष्ण ने गीता के विभूतियोग में
स्वयं को पीपल कहा है।हम ऊपर कह आये हैं कि पीपल साक्षात् बिष्णु का स्वरुप है।एक
पौराणिक प्रसंग के अनुसार शनिवार को शनिदेव का वास पीपल में होता है।यही कारण है
कि शनि की प्रसन्नता हेतु शनिवार को पीपल में गूड़ मिश्रित जल प्रदान करने का
विधान है।यह कार्य पश्चिमाभिमुख करना चाहिये।सायं काल पीपल-तल में दीप-दान से भी
शनि प्रसन्न होते हैं।
२. देव वर्ग से इतर- प्रेत,वैताल,भैरव,यक्षिणी आदि
का भी प्रिय वृक्ष पीपल है।ये क्षुद्र योनियाँ पीपल पर प्रायः वास करती हैं।पीपल
के जड़ में नित्य जलार्पण से ये प्रेत योनियाँ प्रसन्न होती हैं।हिन्दु रीति के
अनुसार दशगात्र तक पीपल के जड़ में यथाविधि जल डालने का विधान है।किसी व्यक्ति को
किसी तरह की अन्तरिक्ष वाधा हो तो नित्य, पीपल की पंचोपचार सेवा से अवश्य लाभ
होगा।किसी अनाड़ी ओझा-गुनी-तान्त्रिक के पास भटकने से अच्छा है कि श्रद्धा-विश्वास
पूर्वक पीपल की पूजा करे। किसी जटिल रोग-बीमारी की स्थिति में (जहाँ डॉक्टरी निदान
और उपचार कारगर न हो रहा हो)पीपल के पत्ते पर सायंकाल में दही और साबूत उड़द रख कर
पीपल के जड़ के समीप रख दें,और थोड़ा जल देकर प्रार्थना करे- हे प्रभो! आप मेरा
संकट दूर करें।सप्ताह भर के इस प्रयोग से अद्भुत लाभ होगा।मैंने हजारों प्रयोग
कराकर देखा है,शायद ही कभी निराश होना पड़ा हो।
३. धर्मशास्त्रों में पीपल का गुणगान भरा
पड़ा है।वैज्ञानिक दृष्टि से भी पीपल बहुत महत्त्वपूर्ण है।किसी शुभ मुहूर्त(पंचांग
में वृक्षारोपण मुहूर्त देखकर) में पीपल का वृक्ष लगाकर उसकी सेवा करें।जैसे-जैसे
वृक्ष बड़ा होगा आपकी यश-कीर्ति,मान-सम्मान,धन-सम्पदा,आरोग्य की वृद्धि होती
जायेगी।
४. दरिद्रता निवारण के लिए किसी अनुकूल पीपल
वृक्ष-तल में शिवलिंग(आठ अंगुल से अधिक नहीं)स्थापित कर,पंचोपचार पूजनोपरान्त
नित्य ग्यारह माला शिव पंचाक्षर मंत्र का जप करें। थोड़े ही दिनों में चमत्कारिक
लाभ होगा।
५. हनुमद्दर्शन—सामान्य नियम है कि किसी वृक्ष के नीचे
शयन नहीं करना चाहिए, विशेष कर रात्रि में तो बिलकुल ही नहीं;विशेष परिस्थिति में
पीपल इसका अपवाद है।किसी पवित्र वातावरण में लगे पीपल वृक्ष के समीप(नीचे) बैठकर
अठारह /इक्कीश दिनों तक हनुमान की पूजा,जप,
स्तवन,एवं
रात्रि शयन आदि करने से प्रत्यक्ष, या कम से कम स्वप्न में तो निश्चित ही दर्शन हो
सकता है।इसके लिए किसी शुभ नक्षत्र-योगादि का विचार करके कठोर ब्रह्मचर्य पालन
करते हुए सप्तशती के दूसरे(लक्ष्मी)बीज,आदि प्रणव,अन्त नमः तथा हनुमते रामदूताय-
मन्त्र का ग्यारह माला नित्य के हिसाव से जप करने से अभीष्ट सिद्धि अवश्य होती
है।अनुष्ठान समाप्ति पर षोडशोपचार पूजन सहित रोट(सिर्फ दूध में सने हुए गुड़
मिश्रित आटे की मोटी रोटी के आकार का शुद्ध धी में तला हुआ पकवान) का नैवेद्य
अर्पण करे,तथा कुल जप का दशांश हवन-तर्पणादि के बाद, दो बटुक और भिक्षुक का
दक्षिणा सहित भोजन भी अनिवार्य है।
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