(13) सम्भालू-(निर्गुण्डी)- सम्भालु चावल की एक प्रजाति है-
राजभोग,देहरादून,वासमती आदि की तरह
किन्तु
यहाँ मेरा वर्ण्यविषय निर्गुण्डी है।इसका एक संस्कृत नाम शेफालिका भी है।शेफालिका
के पौधे मध्यम आकार- दस-पन्द्रह फीट के करीब होते हैं,जिनकी पत्तियाँ अरहर की
पत्तियों जैसी होती हैं,किन्तु रहर की पती हरे रंग की होती है,जबकि शेफालिका की
पत्तियों पर लगता है कि प्रकृति ने धूल भरे चूने का छिड़काव कर दिया हो।इसके हल्के
नीले फूल बड़े ही सुहावने लगते हैं।बिहार में इसे सिन्दूवार के नाम से जाना जाता
है।इसके और भी कई क्षेत्रीय नाम हैं- मेउडी,भूत केशी,सिन्धुर,अर्थ
सिद्धक,इन्द्राणी आदि।इन्द्राणी नाम से भ्रमित नहीं होना चाहिए, क्योंकि इन्द्रायण
या इन्द्रवारुण नाम का एक अन्य वनस्पति(लता) भी है।निर्गुण्डी बिहार-झारखंड के
जंगलों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।किन्तु इसका बाँदा अति दुर्लभ
है।आयर्वेद में निर्गुण्डी के पंचांग(फल,फूल,मूल,त्वक,पत्र) का उपयोग होता है।यह
उत्तम कोटि का वेदनाहर है।तन्त्र में इसके मूल और बाँदा ही उपयोगी हैं।
(क)
बाँदा-
सौभाग्य से कहीं इसका बाँदा दीख पड़ें तो हस्ता नक्षत्र में पूर्व वर्णित
विधि से घर लाकर स्थापन-पूजन करके तिजोरी में स्थान देदें।आर्थिक समृद्धि के लिए
यह अति उपयोगी है।अर्थोपार्जन के नये-नये क्षेत्र दीखने लगते हैं,और थोड़े प्रयास
में पर्याप्त सफलता भी लब्ध हो जाती है।
(ख)मूल- निर्गुण्डी-मूल के कई प्रयोग हैं।इसके
ग्रहण के लिए रविपुष्य/गुरुपुष्य योग का विचार करके पूर्व निर्दिष्ट विधि से घर लाना चाहिए।मूल का
स्थापन-पूजन भी पूर्ववत अनिवार्य शर्त है।पूजन के बाद सुरक्षित रख देना चाहिए,ताकि
आवश्यकतानुसार उपयोग किया जा सके।यहाँ बतलाये जा रहे सभी प्रयोग आयुर्वेदीय मत से
ग्राह्य हैं।इनका उपयोग वैसे भी किया जा सकता है;किन्तु तान्त्रिक विधि से
ग्रहित-साधित वनस्पतियों का अपना ही चमत्कार है।
o 1.स्वर-शोधन- पूर्व साधित निर्गुण्डी-मूल को सुखाकर
चूर्ण वनालें।आधे चम्मच चूर्ण को सुसुम पानी के साथ प्रातः-सायं कुछ दिनों तक लेते
रहने से कंठ-स्वर सुरीला होगा।गले की अन्य समस्याओं में भी इसे प्रयोग किया जा
सकता है।
§ 2.कृशता-निवारण- पूर्व साधित निर्गुण्डी-मूल को सुखाकर
चूर्ण वनालें।आधे चम्मच चूर्ण को सुसुम दूध के साथ नित्य प्रातः-सायं कम से कम एकतीस
दिनों तक लेने से पाचन-क्रिया ठीक होती है,और बल-वीर्य-ओज की वृद्धि होती है।इस
चूर्ण को आयुर्वेदिक अन्य पुष्टिकर योगों के साथ मिला कर भी लिया जा सकता है।
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3.रक्त शोधन- विभिन्न प्रकार के चर्मरोगों(दाद,खाज,खुजली,एक्जीमा आदि सत्ताइश
प्रकार के क्षुद्र कुष्ट)में पूर्व साधित
निर्गुण्डी-मूल को सुखाकर चूर्ण वनालें।आधे चम्मच चूर्ण को मधु के साथ नित्य
प्रातः-सायं छः महीने तक लागातार सेवन करने से समस्त रक्त दोषों का निवारण होता
है।
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4.शान्तिदायी- पूर्व कथित विधि से निर्गुण्डी मूल का स्थापन-पूजन करके घर में किसी
पवित्र स्थान पर रख दें।नित्य प्रति और कुछ नहीं तो कम से कम श्रद्धापूर्वक प्रणाम
ही कर लिया करें।इस क्रिया से अनेक लाभ
होंगे- घर में शान्ति-सुख-समृद्धि आयेगी।टोने-टोटके से घर की रक्षा होगी।
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5. व्यापार-वृद्धि- विधिवत ग्रहण किए गये निर्गुण्डी मूल (वा पंचाग) को पीले
वस्त्र में,पीले सरसो के साथ बांधकर दुकान के चौखट में लटका देने से रुके हुए
ग्राहक का आगमन होने लगता है।व्यापार में अप्रत्याशित रुप से विकास होने लगता है।
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6.सुरक्षा- निर्गुण्डी-मूल को ताबीज में भर कर धारण करने से भूत-प्रेत,जादू-टोने
आदि से सुरक्षा होती है।पहले से प्रभाव-ग्रस्त रोगी भी थोड़े ही दिनों में ठीक हो
जाता है।
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7.गर्भरक्षा- जिस स्त्री को प्रायः गर्भपात हो जाता हो,उसे पूर्व साधित
निर्गुण्डी-मूल को पुनः गर्भरक्षा मंत्र से अभिमंत्रित करके चांदी या तांवे
के ताबीज में भर कर, लाल धागे में परोकर रवि या मंगलवार को धारण करा देना चाहिए।
8.निर्गुण्डी-कल्प- तन्त्रात्मक आयुर्वेद में निर्गुण्डी कायाकल्प का
विधान है। पूर्व साधित निर्गुण्डी-मूल को सुखाकर चूर्ण वनालें।आधे चम्मच चूर्ण को
बकरी के मूत्र के साथ प्रातः-सायं एक बर्ष तक सेवन करने से अद्भुत चमत्कार हो सकता
है- यह क्रिया सिर्फ औषध सेवन नहीं,अपितु एक साधना की तरह है।पूरे समय
शुद्ध-सात्विक जीवन निर्वाह करते हुए शिव पंचाक्षर एवं देवी नवार्ण जप का अनुष्ठान
भी चलता रहेगा।सामान्य गृहस्थ जीवन में मर्यादा पूर्वक रहते हुए भी एक बर्ष की यह
साधना- कल्पक्रिया की जा सकती है।कोई पूर्ण ब्रह्मचर्य पूर्वक करे तो सोने में
सुगन्ध जैसी बात होगी।इस कायाकल्प के चमत्कारों का वर्णन कितना हूँ किया जाय थोड़ा
है।आज के समय में आश्चर्यजनक ही कहा जा सकता है- शरीर इतना शुद्ध हो जाता है कि
शस्त्र-स्तम्भन,जल-स्तम्भन,अग्नि-स्तम्भन आदि सारी क्रियायें- खेचरी विद्या की तरह
सम्भव होजाती हैं।------)()()(-----
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