पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम् 4

                द्वितीय परिच्छेद- प्रयोग पूर्व की तैयारी
         वर्तमान समय में भागदौड़ के जटिल जीवन में मनुष्य की लालसायें और जरुरतें तो दिनानुदिन विकराल होती जा रही हैं;किन्तु दूसरी ओर उन लालसाओं और जरुरतों को पूरा करने हेतु समुचित समय,प्रयास और श्रम के प्रति उदासीनता,लापरवाही और जल्दवाजी भी देखी जा रही है।विद्यार्थी टेक्टबुक के वजाय,गेसपेपर का शॉर्टकट पसन्द करता है। धनार्थी रातों रात लखपति-करोड़पति बनना चाहता है।"कम मेहनत,ज्यादा आमदनी "या कहें बिना श्रम किए धन बरसने का ख्वाब देखना आम बात है।धर्मार्थी-मोक्षार्थी-साधक भी वैसे ही शॉर्टकट की तलाश में रहता है। दीर्घकालिक अनुष्ठान-क्रिया-जप-पुरश्चरण,योग-याग आदि से यथासम्भव कतराता है।एक तरफ ईश्वर,स्वर्ग और मोक्ष जैसी अनमोल निधि चाहिए और दूसरी ओर क्षुद्र "वैश्य" जैसा व्यवहार- बात-बात में हानि-लाभ का हिसाब-किताब।
               साधना व्यापार नहीं है।यहाँ वैश्य बुद्धि से काम नहीं चलने को है।साधना करने के लिए "ब्राह्मण" होना सर्वाधिक अनिवार्य शर्त है।मेरी बात पर ध्यान देंगे।यहाँ ब्राह्मण पुत्र ब्राह्मण की बात मैं नहीं कर रहा हूँ।मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि एक डोम का बेटा भी ब्राह्मण हो सकता है,और इसके विपरीत ब्राह्मण का बेटा भी चाण्डाल हो सकता है।बात यहाँ "ब्रह्मणत्त्व" की हो रही है,जाति की नहीं। "जन्मना जायते शूद्रः, संस्कार द्विज उच्च्यते। " वचन है- शास्त्र का।हम सभी शूद्र ही पैदा होते हैं।या और स्पष्ट कहें कि ईश्वर का अंश ईश्वर ही पैदा होता है। मनुष्य या राक्षस तो वह जन्म के बाद बनता है।कोई हिन्दु, ईसाई,  मुसलमान,बौद्ध,जैन,पारसी पैदा नहीं होता। एक बालक सर्वदा-सर्वथा निर्मल-निर्विकार ही इस पावन धरती पर आता है।ये धर्म,जाति,सम्प्रदाय,संकीर्णता और,कूपमण्डूकता के परिणाम हैं। सारी लड़ाई परिधि पर है।सारी दूरियाँ परिधि पर ही हैं।केन्द्र निर्विकार और अक्षुण्ण है।







        साधक को  सर्वेभवन्तु सुखिनः,सर्वेसन्तु निरामयाः।सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत् ।। - की भावना से ओतप्रोत होना चाहिए।क्योंकि उसका लक्ष्य केन्द्र है। उसका हर कदम निरन्तर केन्द्र की ओर अग्रसर है।वह परिधि पर भटकता पथिक नहीं,बल्कि केन्द्र की ओर सरकता प्रबुद्ध यात्री है।नीचे के चित्र में इसी तथ्य को दर्शाने का प्रयास है मेरा।हम पाते हैं कि ज्यों-ज्यों परिधि से केन्द्र की ओर बढ़ते हैं,आसपास के अर्द्धव्यासों के बीच की दूरियाँ सिमटती जाती हैं;और एक समय ऐसा आता है कि सबकुछ विलीन हो जाता है।भेद की समस्त भित्तियाँ ढह जाती हैं,और एक मात्र ब्रह्म की सत्ता ही शेष रहती है,और फिर कुछ काल बाद वह भी निर्गुण-निराकार हो जाता है। 


     कहने का यह अर्थ नहीं कि प्रयोग से पूर्व प्रयोग-कर्ता की यह स्थिति अनिवार्य है। प्रसंगवश तन्त्र के परिपाकफल को मैंनें लक्षित किया है यहाँ।तन्त्र–मार्ग से पुरूषार्थ चतुष्टय (धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष)को पाया जा सकता है- इशारा इस ओर है।सांसारिक जीवन का सही रूप में उपयोग(उपभोग नहीं) करते हुए,लोककल्याण की भावना और कामना सहित"आत्मलाभ" की ओर अग्रसर होना है।
       तन्त्र में चमत्कार तो पग-पग पर है।यहाँ बताये जा रहे विभिन्न प्रयोग किसी न किसी चमत्कार को ही ईंगित करते हैं।किन्तु एक साधक को इन पगडंडियों में भटक नहीं जाना चाहिए।प्रत्युत अपने मूल लक्ष्य की ओर अग्रसर होना चाहिए।
     अब सीधे प्रयोगाधिकार की बात करते हैं-
       भवन-निर्माण से पूर्व भवन-योजना बनायी जाती है।भवन की ऊँचाई को ध्यान में रखते हुए,उसकी नीव की स्थापना होती है।यदि कोई चाहे कि जमीन के भीतर दब जाने वाले ईंटों को खपाये वगैर ही सपाट जमीन पर दीवार खड़ी कर ली जाए तो उस दीवार की क्या स्थिति होगी? उसी प्रकार साधना की सफलता के लिए,साधना से पूर्व कुछ क्रियायें अनिवार्य हैं।इसे अन्य उदाहरण से भी स्पष्ट करें- हम आत्मरक्षा के लिए बन्दूक खरीदना चाहते हैं।ऐसा नहीं कि बाजार गए और बन्दूक लेकर आ गये।उचित है कि लाइसेन्स प्राप्त करें।और फिर बन्दूक चलाने की कला भी सीखनी होगी किसी योग्य व्यक्ति से,अन्यथा इन दोनों शर्तों के पालन के वगैर हम अपना भारी अहित कर लेंगे।एक ओर कानून हमें दण्डित करेगा,और दूसरी ओर चलाने की कला न मालूम होने से गोली खुद भी लगने का  खतरा है।
       तन्त्र साधना और प्रयोग से पूर्व अपने कुल-परम्परानुसार इष्ट साधना करनी चाहिए। द्विजों में यज्ञोपवीत संस्कार की परम्परा है।वस्तुतः यह जमीनी तैयारी का सूत्रपात है। ध्यातव्य है कि जनेऊ देने के साथ ही संध्या-गायत्री की दीक्षा दे दी जाती है।यदि समय पर यह संस्कार हो गया है,और उसके बाद नियमित संध्या-गायत्री जारी है, तो समझिये कि आपका जमीन काफी हद तक दुरूस्त है।अन्यथा किसी कार्यसिद्धि में कठिनाई होगी। आपका बहुत समय और श्रम तो असंस्करिता के दाग-धब्बों को मिटाने में ही खप जायेगा; और आप उबने लगेंगे।निराश और हताश होने लगेंगे।यह सब कह-बतलाकर आपको हताश-निराश करना,या सर्वथा अयोग्य ठहराना मेरा उद्देश्य नहीं है,बल्कि आपको सचेत करना है।
मार्ग-दर्शन और दिशा-निर्देश स्वरूप यहाँ कुछ बातें बतलायी जा रही हैं।इनका पालन अवश्य करें।ईश्वर की कृपा से यशलाभार्जन होगा।यह मैं बिलकुल अनुभूत बात कह रहा हूः—
(क)  उत्तरायण सूर्य( चौदह जनवरी से लगभग चौदह जुलाई) के महीनों में- गुरू-शुक्रादि शुभग्रहों की शुद्धि,पंचांग शुद्धि के साथ सर्वार्थ सिद्धियोग का विचार करते हुए कायगत शुद्धि हेतु मुण्डन,नवीन यज्ञोपवीत, वस्त्रादि धारण करके माता-पिता का आशीष ग्रहण करें।उनसे आदेश लें अपने मन्तव्य प्रयोग हेतु।माता-पिता स्वर्गीय हों तो भावात्मक आशीष-आदेश लेना चाहिए।योग्य गुरू की समस्या हर युग में रही है।वर्तमान आडम्बरी परिवेश में तो यह और भी कठिन हो गया है।किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि गुरू का सर्वथा अभाव हो गया है।और अभाव की बात करते हैं तो, सच पूछें तो सदगुरू के साथ समर्पित शिष्य का भी अभाव है। खैर,इसके लिए बहुत चिन्तित होने की बात नहीं है।मेरे इन संकेतों का पालन कीजिये।अपनी जमीन बनाइये। शिल्पी स्वयमेव उपस्थित होकर भवन निर्माण कर देगा- ऐसा अटूट विश्वास रखें। माता-पिता ही प्रारम्भिक गुरू होते हैं।अतः निर्द्वन्द्व होकर श्रीगणेश यहीं से करें।
    (ख) अपने कुल देवता की यथोचित जानकारी करें।आजकल प्रायः इसका लोप हो गया है। आधुनिक जीवन शैली हमें अपने मूल स्थान से विमुख कर दी है।अन्य कई कारणों से भी इस मामले में अज्ञानता का बाहुल्य है।
    (ग) नये वस्त्र के साथ नवीन आसन भी अनिवार्य है।सर्वोत्तम होगा सफेद कम्बल का आसन,जो प्रायः सुलभ है,और सर्वकार्यग्राही भी।ध्यान रहे – असनं वसनं चैव,दारा पत्नी कमण्डलु...शास्त्रों का संकेत है- आसन,वस्त्रादि विलकुल व्यक्तिगत होना चाहिए।प्राचीन धर्म नहीं, तो कम से कम आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से ही इसे अनिवार्य समझें।
    (घ) अपने कुल देवता के समीप आसन लगा कर पूर्व निर्दिष्ट शुभ समय में एकाग्रचित होकर कम से कम तीन दिन(प्रतिदिन कम से कम २४मिनट) बैठें।सिर्फ बैठें,और कुछ नहीं।।आज के युग में मैं समझता हूँ "सिर्फ बैठना" बहुत कठिन कार्य है।तीन दिनों के इन चौवीस मिनटों में बस एक ही विचार आपके मन में आए- हमें अपने कुलदेवता का कृपा-प्रसाद प्राप्त हो।यह कार्य तीनों दिन निश्चित समय पर प्रातः-सायं करें।
    (ङ) प्रसंगवश पहले भी कह चुका हूँ,पुनः स्मरण दिया दूँ- आहार-विहार का बड़ा महत्व है। सात्विक आहार सदा सत्व की ओर अग्रसर करेगा।मैं यहाँ वामाचार और कौलाचार की बात नहीं कर रहा हूँ।आगे आप पायेंगे कि मुख्य रूप से शिव और शक्ति की आराधना का संकेत है,किन्तु मैं जिस शक्ति-उपासना की बात कर रहा हूँ इसमें तामसी आहार-विहार सर्वथा वर्जित ही समझें।राजसी आहार से भी यथासम्भव बचने का प्रयास करें,फिर भी अपेक्षाकृत क्षम्य है।आहार की व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय के श्लोक संख्या ८,९,१० के अनुसार तय करें तो अच्छा है।
    (च) तीन दिनों के बाद आसपास के किसी शिव मन्दिर(पुराना प्रतिष्ठित स्थान,न कि जमीन दखलाने के लिए सड़क किनारे वनाया गया गंजेड़ियों का अड्डा)में जाकर पंचोपचार पूजन के साथ दही,हल्दी,और दूर्वा समर्पित कर पूरी निष्ठा से,श्रद्धा और समर्पण के साथ गुरू बनने का आग्रह करें।ध्यातव्य है कि तन्त्र-साधना के परमगुरू शिव ही हैं। प्रायः समस्त तान्त्रिक ग्रन्थ शिव-शिवा संवाद में ही हैं।(इस दिन सिर्फ पूजन और निवेदन कर चले आयें)।उस दिन अकेले ही रात्रि शयन करें।रात सोते समय, दिन में किये गये निवेदन का स्मरण बनाये रखें।पचहत्तर प्रतिशत मामलों में देखा गया है कि स्वप्न में कुछ न कुछ शुभ संकेत अवश्य मिल जाता है।शुभ स्वप्न का अर्थ है- भूत भावन भोलेनाथ आशुतोष सहज ही निवेदन स्वीकार कर लिए।यदि ऐसा नहीं होता है तो भी निराश होने की बात नहीं है।सभी प्रतियोगी आई.ए.एस. की प्रतियोगिता एक ही बार में उतीर्ण नहीं  होजाते। ऐसी स्थिति में आगामी ग्यारह दिनों तक पूर्व निर्दिष्ट क्रिया- शिव-पूजन,एकल शयनादि जारी रखें।
      (छ) अब,बारहवें दिन से(सामान्य स्थिति में दूसरे ही दिन से)श्री शिव पंचाक्षर मंत्र-जप का संकल्प लें। संकल्प वाक्य में "शिव प्रीत्यर्थं" का भाव रहे,कोई अन्य काम नहीं।क्यों कि इस अनुष्ठान का मूल उद्देश्य है- आत्म शुद्धि सहित अधिकार प्राप्ति।संकल्प सवा लाख का हो तो अति उत्तम।कम से कम चौआलिस हजार तो होना ही चाहिए।घंटे में चार हजार की गति से आसानी से जप किया जा सकता है। घर या मंदिर में बैठ कर,सुविधानुसार निर्धारित संख्या प्रतिदिन,प्रतिबैठक के हिसाब से जप पूरा करें।संकल्प पूरा होजाने के बाद दशांश या कम से कम ग्यारह सौ मंत्राहुति सिर्फ धी अथवा शाकल्य(सवा किलो काला तिल, तदर्ध चावल,तदर्ध जौ,तदर्ध गूड़,तदर्ध घी,धूना,गूगल आदि सुगन्धित द्रव्य अल्पांश)से प्रदान करें।(नियम है- जप का दशांश हवन, तत् दशांश तर्पण,तत् दशांश मार्जन,तत् दशांश ब्राह्मण और दरिद्रनारायण भोजन(यथाशक्ति दक्षिणा सहित)।
    (ज) अब,अगले दिन से,या सुविधानुसार थोड़े अन्तराल के बाद(अधिक समय बाद नहीं) अगले अनुष्ठान की तैयारी करनी है।अगला कार्यक्रम है- शक्ति-आराधना।इस क्रम में पुनः उसी भांति सवालाख अथवा कम से कम छतीश हजार सप्तशती के नवार्ण मन्त्र का जप करना चाहिए।ध्यातव्य है कि श्री दुर्गासप्तशती में दिए गये विधान से जप का न्यास अवश्य करें।जप समाप्ति के पश्चात् तदभांति ही हवन से दक्षिणा तक की क्रियायें सम्पन्न करें।
     अब तक इतना कुछ जो करना पड़ा वह सब भावी साधना की नींव स्वरुप व्यय हुआ। नींव की ये ईंटें ही भावी महल की मजबूती की साक्षी होंगी।ये क्रियायें बारबार करने की आवश्यकता नहीं है।इसे यों समझें कि आपका सामान्य अस्त्र तैयार हो गया।या कहें- कलम की व्यवस्था आपने कर ली।अब इससे जिस रंग में लिखना हो- वैसी स्याही डालने की आवश्यकता होगी।विशेष बात ये है कि अलग-अलग रंगों के लिए सिर्फ स्याही बदलनी है,लेखनी तो वही रहेगी।हाँ,एक बात का ध्यान रखना है- समय-समय पर या विशेष अवसरों (नवरात्र,ग्रहण,आमावश्या,पूर्णिमा,आदि) पर दोनों मन्त्रों का एक-एक हजार जप कर लेना चाहिए ताकि प्रभाव की तीव्रता बनी रहे।आप चाहें तो स्थायी तौर पर अपनी नित्य क्रिया में इसे शामिल कर लें- ये सर्वाधिक अनुकूल होगा।अभ्यास के बाद इतनी क्रिया- एक-एक हजार दोनों मंत्रो का जप- मात्र आधे घंटे का काम है।
       एक आवश्यक जानकारीः- शिव पंचाक्षर मंत्र का पूर्ण पुरश्चरण पांच लाख एवं नवार्ण मंत्र का नौ लाख होता है।धैर्य पूर्वक इतना कर लें तो फिर क्या कहना।वैसे साधना में अभिरुचि रखने वालों को अवश्य कर लेना चाहिए।यह कार्य किसी विषय में मास्टर डिग्री हासिल करने जैसा है।
       इस प्रकार अब आपकी साधना भूमि पूरे तौर पर तैयार हो गयी।
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