पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम् 24

(१८) गुञ्जा(घुंघची)- गुञ्जा एक जंगली लता है।चिरमिट्टी,रत्ती आदि इसके अन्य नाम हैं।इसके जड़ को ही मुलहठी कहते हैं।बरसात के प्रारम्भ में ही ये अंकुरित हो जाता है,और फाल्गुन आते-आते इसकी पत्तियां मुरझाने लगती हैं।गर्मी में तो दीखना भी मुश्किल है।अन्दर में जड़ें पुष्ट होती रहती हैं,ऊपर की लता प्रायः सूख जाती हैं।इसकी पत्तियाँ इमली की पत्तियों जैसी होती हैं।सुन्दर गुलाबी फूल बड़े ही मोहक लगते हैं। फल गुच्छों में लगते हैं,जो थोड़ी चपटी,किन्तु छोटे मटर जैसी होती हैं।आश्विन महीने में फूल लगते हैं, अगहन में फलियाँ नजर आने लगती हैं।फाल्गुन में पक कर तैयार हो जाती हैं।इसी समय रविपुष्य योग देख कर इन्हें ग्रहण करना चाहिए,अन्यथा यदि विलम्ब हुआ तो फिर फलियां चटक कर विखर जायेंगी।
         गुञ्जा की तीन प्रजातियां तो मैं देख चुका हूँ- स्वेत,रक्त,और गुलाबी।काफी दिनों तक मेरे गृहवाटिका में थी यह लता।इसके अतिरिक्त पीत और श्याम सिर्फ सुनने में आया है।वैसे तन्त्र शास्त्रों में स्वेत का अधिक महत्व है।पुराने समय में इसके सुन्दर बीजों से ही सोनार लोग माप-तौल का काम करते थे।माप का ‘रत्ती’ शब्द इसी का द्योतक है।
         भगवान श्री कृष्ण का यह अतिशय प्रिय वनस्पति है।वे वैजयन्ती और कौस्तुभ के साथ गुञ्जा की माला भी धारण करते थे।गुञ्जा की श्रेष्ठता का यह प्रमाण- नवेत्ति यो यस्य गुणं प्रकर्षं,सतं सदा निन्दति नाऽत्र चित्रम्।यथा किराती करिकुम्भ लब्धः,मुक्ता परित्यज्य विभर्ति गुञ्जाम्।।- यथेष्ठ है।
        स्वेत के अभाव में रक्त का प्रयोग किया जासकता है- ऐसा तन्त्र-ग्रन्थों में वर्णन है,और यह भेद सिर्फ बीज के लिए ही है।गुञ्जा-मूल यानी ज्येष्ठीमधु(मुलहठी)जेठीमध के लिए रंग भेद की बात नहीं है। जेठीमधु का प्रयोग आयुर्वेद में महाकफनिस्सारक औषधि के रुप में होता है।यहाँ प्रसंगवश मैं एक और बात बतला दूँ कि गुञ्जामूल- मुलहठी उत्तमकोटि का कीटाणुनाशक(antibiotic) भी है।शरीर में रोग प्रतिरोधी क्षमता के विकास और पोषण में भी इसका योगदान है।Antihistamine भी है यह।स्वरमंडल पर इसका अद्भुत प्रभाव है।
       ग्रहण-मुहूर्त- किसी भी कार्य की सफलता द्रव्य शुद्धि,और क्रियाशुद्धि पर निर्भर है।द्रव्यशुद्धि में ही सही मुहूर्त की बात आती है।गुञ्जा-बीज अथवा मूल ग्रहण के लिए कार्य-भेद से कई शुभ मुहूर्त सुझाये गए हैं-यथा- रविपुष्य योग,शुक्र-रोहिणी योग,कृष्णाष्टमीहस्त योग,कृष्णचतुर्दशीस्वाति योग,कृष्णचतुर्दशीशतभिषा योग,(किंचित मत से गुरुपुष्य योग भी)।उक्त विवरण के अनुसार स्थिति न बन रही हो तो विशेष स्थिति में सिद्धियोग,अमृतसिद्धि योग,सर्वार्थ सिद्धि योगादि भी ग्रहण किए जा सकते हैं।यदि उक्त किसी भी काल में सूर्यचन्द्रादि ग्रहण योग भी मिल जाय तो फिर क्या कहना।
    गुञ्जा के तान्त्रिक प्रयोग-
Ø १. अलौकिक शक्ति-दर्शन- जड़वादी भौतिक विज्ञान के युग में ऐसी बातें करना मात्र उपहास का विषय हो सकता है,किन्तु जिन्हें तन्त्र की आत्मा का अनुभव और ज्ञान है उनके लिए कुछ भी आश्चर्य नहीं।पूर्व वर्णित विधियों का सम्यक् पालन करते हुए घुंघची मूल को साधित करने के बाद शुद्ध मधु के साथ घिस कर आंखों में अंजन की तरह लगा ले।ध्यातव्य है कि साधित मूल का पुनः प्रयोग करने के लिए भी उक्त मुहूर्तों का विचार करना आवश्यक है।कुछ नहीं तो रविपुष्य योग,या फिर कम से कम मंगलवार ही सही।अंजन लगा कर किसी एकान्त स्थान में एकाग्रता पूर्वक बैठ कर बस यह चिन्तना करे कि "मुझे किसी अलौकिक शक्ति का दर्शन हो।"आपका चिन्तन जितना गहन होगा,दर्शन भी उतना ही शीघ्र होगा-(मिनटों से घंटों के बीच)।यहाँ यह स्पष्ट कर देना भी उचित है कि ये अलौकिक शक्तियाँ सात्त्विक,राजस,तामस कुछ भी हो सकती है।अतः साहसी व्यक्ति ही यह प्रयोग करें।दूसरी बात यह कि यह पहले से ही निश्चित कर लें कि उनके आगमन के बाद आपको उनसे क्या संवाद करना है- किस उद्देश्य से आपने उन्हें आहूत किया...आप उनसे चाहते क्या हैं....आदि...आदि।
      इस सम्बन्ध में एक पुरानी घटना का जिक्र करना समयोचित लग रहा है।बात अब से कोई चालीस साल पहले की है।मेरे पितृव्य उन दिनों कलकत्ते के बड़ा बाजार,वाराणसी घोष स्ट्रीट में किराये के एक जीर्णशीर्ण मकान में रहते थे।उनके पास पाण्डुलिपियों का कुछ धरोहर था,जिसे बरसात के बाद धूप सेवन करा रहे थे- खुली छत पर,और वहीं चटाई विछाकर विश्राम भी कर रहे थे।आंख लग गयी थी।इसी बीच हवा के झोंके से कुछ पन्ने उड़कर पास के सीढ़ी पर चले गये,जिन्हें एक अन्य किरायेदार की पुत्री ने उठा लिया।संयोग से वह सामान्य संस्कृत की जानकार थी।पन्ने को पाकर उसने प्रयोग साध लिया,और पूरी सफलता भी मिल गयी।किन्तु बात बर्षों बाद तब खुली जब अर्धरात्रि को आहूत किसी तामसी शक्ति का शिकार होकर वह चिल्लाई।लोग दौड़ पड़े।भय से थरथर कांपती लड़की ने अपनी नादानी और मूर्खता का वयान किया,और पाण्डुलिपि का वह पृष्ट पितृव्य के चरणों में रखकर दया की भीख मांगी।इस घटना को लिख कर साधकों को भयभीत नहीं, सावधान करना चाह रहा हूँ।
Ø २.गुप्त धनादि दर्शन- साधित गुञ्जामूल को अंकोल(अंकोल के अन्य प्रयोग अलग अध्याय में देखें) के तेल के साथ घिसकर आँखों में अंजन लगाने से कुछ काल के लिए दिव्यदृष्टि सी प्राप्त हो जाती है,जिससे साधक जमीन में गड़े-छिपे खजाने का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।यह प्रयोग करने के लिए पुनः योगादि का विचार करते हुए भूमिविदारण मंत्र की अलग से साधना कर लेनी चाहिए।जीवन में एक बार भी जिस मंत्र का पुरश्चरण कर लिया जाय तो फिर-फिर प्रयोग करने के लिए विशेष कठिनाई नहीं होती,वस समय-समय पर (ग्रहणादि विशेष अवसरों पर)पुनर्जागृत करते रहना चाहिए।दूसरी बात यह कि मंत्र की मर्यादा का ध्यान रखना भी जरुरी है।किसी भी परिस्थिति में(लोभ-मोह वस)दुरुपयोग न हो।इस प्रयोग को अन्य भूगर्भीय ज्ञान(जल,शल्यादि) के लिए भी किया जा सकता है।
Ø ३.मृत-चैतन्य प्रयोग- अपने आप में यह अति आश्चर्यजनक है,किन्तु तन्त्र की अमोघ शक्तियों पर अविश्वास नहीं करना चाहिए।यदि कहीं असफलता दीख पड़े तो साधक में त्रुटिवस,न कि सिद्धान्त में खोट है।गुलाब के फूलों के स्वरस में साधित गुञ्जामूल को घिस कर किसी तत्काल मृत के शरीर पर सर्वांग(विशेष कर समस्त नाड़ियों पर)लेप कर दें तो कुछ काल के लिए मृतक की चेतना वापस लौट सकती है।किन्तु यहाँ विचारणीय यह है कि ऐसे क्षणिक कार्य-सिद्धि के लिए इतना कठोर प्रयोग करके हम क्या लब्ध करेंगे? तान्त्रिक शक्ति का दुरुपयोग ही तो इसे कहेंगे।
Ø ४.सुरक्षा कवच- व्यावहारिक दृष्टि से यह काफी कठिन लग रहा है,किन्तु प्रयोग है- सिंहनी के दूध में साधित गुञ्जामूल को पर्याप्त मात्रा में घिसकर,एकान्त में नग्न होकर पूरे शरीर पर लेप करके, पुनः कपड़े पहन कर युद्ध में जाये तो उस पर किसी प्रकार का शस्त्राघात सम्भव नहीं है।
Ø ५.विष निवारण-  साधित गुञ्जा-मूल को जल के साथ पीस कर पिलाने से विभिन्न प्रकार के विष का निवारण होता है,किन्तु ध्यान रहे यह प्रयोग सर्प-विष पर कारगर नहीं है।
Ø ६.सन्तान दायी- साधित गुञ्जा-मूल को तांबे के ताबीज में भरकर कमर में बांधने से निराश स्त्रियाँ भी सन्तान-लाभ कर सकती हैं।
Ø ७.ध्वजभंग-निवारक(पुन्सत्व-वर्धक)- भैंस के घी में साधित गुञ्जामूल को घिस कर पुरुषेन्द्रिय पर महीने भर लेप करने से विभिन्न इन्द्रिय विकार नष्ट होकर उत्तेजना आती है,और शुक्र-स्तम्भन भी होता है।
Ø ८. बल-वर्धक- मुलहठी का चूर्ण एक-एक चम्मच नित्य प्रातः-सायं गोदुग्ध के साथ सेवन करने से ओज- बल-वीर्य की अकूत वृद्धि होती है।तिल के तेल के साथ घिसकर पूरे वदन में लेप करने से भी कान्तिमय सुन्दर शरीर होता है।
Ø ९.ज्ञान-वर्द्धन- बकरी के दूध में मुलहठी(गुञ्जामूल) को घिसकर दोनों हथेलियों में लम्बे समय तक लेप करने से बौद्धिक विकास होकर धारणा शक्ति विकसित होती है।
Ø १०.शत्रु-दमन- रजस्वला के रज में गुञ्जामूल को घिसकर आंखों में अंजन कर जिस शत्रु के सामने जाये,वह निश्चित ही पराभूत हो,भाग खड़ा हो।वस्तुतः इस प्रयोग के प्रभाव से शत्रुभाव से दृष्टिपात करते ही देखने वाले को दृष्टिभ्रम हो जाता है।उक्त प्रभाव काले तिल के तेल में मुलहठी घिसकर अंजन करने से भी हो सकता है,किन्तु प्रभाव थोड़ा कम दीखेगा।
Ø ११. कुष्ट-निवारण- तीसी(अलसी)के तेल में गुञ्जामूल को घिसकर प्रभावित अंग में लेप करने से गलित कुष्ट में लाभ होता है।

Ø १२.मारण प्रयोग- साधित गुञ्जामूल को शुद्ध गोरोचन(एक अति दुर्लभ जांगम द्रव्य)के साथ पीस कर,अनार की लेखनी से भुर्ज पर मृत्यु-यंत्र (साध्य नाम युक्त) लिखकर श्मशान भूमि में स्थापित करके एक माला मारण-मंत्र का जप करने मात्र से ही शत्रु की बड़ी दर्दनाक मृत्यु होती है- ऐसा तन्त्रशास्त्रों का वचन है। पादपूर्तिक्रम में इन बातों की चर्चा मात्र किए दे रहा हूँ।आज के युग में आत्मनियंत्रण का सर्वदा अभाव सा है,अतः यंत्र और मंत्र को ईंगित भर कर देना ही उचित है।वैसे भी सच्चे साधक को इन सब प्रयोगों में अभिरुचि नहीं होती,और आडम्बरी के हाथ घातक हथियार देना बुद्धिमत्ता नहीं।अस्तु।
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