पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम्-30

      ८.एकाक्षी नारियल
         

       नारियल एक सुपरिचित फल है।इसका पौधा मुख्य रुप से समुद्रतटीय इलाकों में पाया जाता है, किन्तु आजकल विभिन्न क्षेत्रों में भी यदाकदा उगाया जा रहा है,भले ही उपलब्धि और विकास अति न्यून हो। भारत के दक्षिणी-पूर्वी प्रान्तों में यह बहुतायत से पाया जाता है।ताड़,खजूर,सुपारी और नारियल के पौधे आकार और वनावट की दृष्टि से काफी साम्य रखते हैं।हाँ,इनके फलों के आकार में पर्याप्त भिन्नता है,फिर भी गौर करें तो काफी कुछ समानता भी है- सुपारी और नारियल में तो और भी सामीप्य है।ये दोनों हमारे धार्मिक कर्मकांडों के विशिष्ट उपादेय हैं।किसी पूजा-कर्म में कलश-स्थापना का महत्त्व है।कलश के पूर्णपात्र पर नारियल या सुपारी को ही वस्त्रवेष्ठित कर रखने का विधान है।तन्त्र-शास्त्र में भी नारियल की महत्ता दर्शायी गयी है।
    यहाँ मेरा विवेच्य- सामान्य नारियल न होकर उसकी एक विशिष्ट फलाकृति है।नारियल का फल रेशेदार कवच में आवेष्ठित रहता है,जिसे बलपूर्वक उतारने के बाद एक और कठोर कवच मिलता है,और उसके
अन्दर सुस्वादु फल भाग होता है।ऊपरी जटा(रेशा) उतारने के बाद गौर करें तो मुख भाग में तीन किंचित गड्ढे (आँखनुमा)दिखाई पड़ेंगे- ये गड्ढे- शेष कवच-भाग की तुलना में कुछ कमजोर भाग होते हैं।इन्हीं भागों से भविष्य में अंकुरण होता है- जो नये पौधे का सृजन करता है।तन्त्र-शास्त्र में इन तीन गड्ढों में दो को आंख और एक को मुख का प्रतीक माना जाता है।नारियल का यह प्राकृतिक वनावट बड़ा ही आकर्षक है।आमतौर पर ये तीन की संख्या में ही होते हैं,किन्तु कभी-कभी तीन के वजाय दो ही निशान पाये जाते हैं।मेरा अभीष्ट यही है।तन्त्र-शास्त्र में इसे ही एकाक्षी नारियल कहा गया है- यानी एक मुख और एक आँख(एकाक्ष)।ऐसा फल बहुत ही दुर्लभ है;किन्तु ऐसा भी नहीं कि अलभ्य है।नारियल की मण्डियों में इसे तलाशा जा सकता है।और इस दुर्लभ वस्तु को धर लाने के लिए किसी मुहूर्त की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है- दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति ही अपने आप में शुभत्व-सूचक है।हाँ,सिर्फ इतना ध्यान अवश्य रखा जाय कि नारियल "श्री" का प्रतीक है,अतः "श्रीश" के स्मरण के साथ ही इसे ग्रहण करें-
      शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् , प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये।
      व्यासं वसिष्ठनप्तारं सक्तेः पौत्रमकल्मषम् , पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम्।।
      व्यासाय विष्णुरुपाय व्यासरुपाय विष्णवे , नमो वै ब्रह्मनिधये वासिस्ष्ठाय नमो नमः।
      अचतुर्वदनो ब्रह्मा द्विवाहुरपरो हरिः , अभाललोचनः शम्भुर्भगवान् वादरायणः ।।
श्री विष्णु के इस ध्यान-स्मरण के साथ प्राप्त एकाक्षी नारियल को उचित मूल्य देकर आदर पूर्वक ग्रहण करें, और घर लाकर पवित्र स्थान में रख दें।
     जैसा कि पहले भी अन्य प्रसंगो में कहा गया है- किसी भी तन्त्र-प्रयोज्य वस्तु को शुभ मुहूर्त में साधित करना चाहिए- अमृत सिद्धि,सर्वार्थ सिद्धि,रविपुष्य,गुरुपुष्य आदि किसी उपयुक्त योग का सुविधानुसार चयन करके एकाक्षी नारियल का स्थापन-पूजन करना चाहिए।गंगाजल से प्रक्षालित कर,लाल वस्त्र में आवेष्ठित कर पीतल या ताम्रपात्र में रख कर विधिवत(पूर्व अध्यायों में कथित विधि से)स्थापन पूजन करना चाहिए।पूजनोपरान्त श्री विष्णु और लक्ष्मी के द्वादशाक्षर मन्त्रों का कम से कम सोलह हजार जप,दशांश होमादि विधि सम्पन्न करने के बाद विप्र-भिक्षुक भोजन सदक्षिणा प्रदान कर अनुष्ठान समाप्त करना चाहिए।आगे पूजा स्थान में स्थायी स्थान देकर नित्य पंचोपचार पूजन करते रहना चाहिए।जिस घर में नित्यप्रति एकाक्षी नारियल की पूजा होती है,वहाँ लक्ष्मी का अखण्ड वास होता है।
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