पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम्-38

                 १६. सहदेई
सहदेई का एक और प्रचलित नाम सहदेवी भी है।क्षुप जातीय बलाचतुष्टय(बला,अतिबला,नागबला, और सहदेई) समूह की यह वनस्पति प्रायः ग्रामीण इलाकों में सर्व सुलभ है,भले ही अज्ञानता वस उपेक्षित    प्रायः है।घास-फूस के श्रेणी में माना जाने वाला सहदेई आयुर्वेद और तन्त्र में बहुत ही उपयोगी है।अनेक प्रकार के लोकोपकारी प्रयोग हैं इसके।
ग्रहण विधि- सर्वप्रथम किसी रविपुष्य योग का चयन करें,जो भद्रादि रहित हो।अब उसके पूर्व संध्या यानी शनिवार की संध्या समय जल-अक्षत और सुपारी लेकर श्रद्धा पूर्वक उक्त वनस्पति के समीप जाकर निवेदन करें - " कल प्रातः लोक-कल्याणार्थ मैं आपको अपने घर ले चलूंगा।" और अगले दिन प्रातःकाल शुचिता पूर्वक उसे उखाड़ कर घर ले आयें।ध्यातव्य है कि ग्रहण से लेकर घर पहुंचने पर्यन्त निम्नांकित मन्त्र का सम्यक् उच्चारण करते रहना चाहिए।मार्ग में किसी से बातचीत न हो।एकाग्रता और उद्देश्य-स्मरण सतत जारी रहे।
मन्त्र- ऊँ नमो रूपावर्ती सर्वप्रोतेति श्री सर्वजनरंजनी सर्वलोक वशकरणी सर्वसुखरंजनी महामाईल घोल थी कुरुकुरु स्वाहा। (यह एक का साबर मंत्र है,अतः भाषायी विचार में न उलझें)
घर आकर सहदेई पंचाग को पवित्र जल से धो कर पुनः पंचामृत स्नान,एवं शुद्ध स्नानादि क्रिया सम्पन्न करें, तथा पंचोपचार वा षोडशोपचार पूजनोपरान्त उक्त मंत्र का अष्टोत्तर सहस्र जप भी सम्पन्न करें। पूरी क्रिया बिलकुल एकान्त में, और गोपनीय ढंग से सम्पन्न करने का हर सम्भव प्रयास करें।क्रियात्मक तन्मयता के साथ-साथ दृष्टि-दोष से भी बचना जरुरी है।
सूर्य-चन्द्रादि ग्रहण,विभिन्न नवरात्रियाँ, खरमास रहित किसी भी महीने की आमावश्या आदि काल में रविपुष्य योग मिल जाये तो अति उत्तम,या फिर सूर्य के पुष्य नक्षत्र में आने पर जो शुद्ध रविवार मिले उसे भी सहदेई-साधना के लिए ग्रहण किया जा सकता है।
साधित सहदेई के विभिन्न तान्त्रिक प्रयोग-
v सहदेई के मूल भाग को लाल वस्त्र में वेष्ठित कर तिजोरी,आलमीरे या अन्नागार में स्थापित करने से अन्न-धनादि की वृद्धि होती है।पुराणों में विभिन्न अक्षय पात्रों की चर्चायें मिलती हैं। वहां भी कुछ ऐसा ही चमत्कार-योग है।
v सहदेई के मूल को गंगाजल में घिसकर नेत्रों में अञ्जन करने से प्रयोगकर्ता की दृष्टि में सम्मोहन-क्षमता आ जाती है।
v सहदेई के मूल को तिल तेल में घिस कर प्रसव-वेदना-ग्रस्त स्त्री की योनि पर लेप करने से शीघ्र ही प्रसव-पीड़ा सुख-प्रसव में बदल जाती है,यानी प्रसव हो जाता है।
v सहदेई के मूल को लाल धागे में बांध कर प्रसव-वेदना-ग्रस्त स्त्री के कमर में बांध देने से शीघ्र ही प्रसव-पीड़ा सुख-प्रसव में बदल जाती है,यानी प्रसव हो जाता है।ध्यातव्य है कि प्रसव होते ही कमर में बंधा मूल यथाशीघ्र खोल कर रख दें,और बाद में कहीं विसर्जित कर दें।
v साधित सहदेई-पंचाग को चूर्ण करके गोघृत के साथ मासिक धर्म से पांच दिन पूर्व से प्रारम्भ कर पांच दिन बाद तक(पांच-छः महीने तक) सेवन करने से सन्तान-सुख प्राप्त होता है।
v साधित सहदेई-पंचाग को चूर्ण करके पान में डाल कर गुप्त रुप से सेवन करा देने से अभीष्ट व्यक्ति साधक के वशीभूत हो जाता है।
v साधित सहदेई-पंचाग को चूर्ण करके जल-मिश्रित तिलक लगाने से प्रयोगकर्ता के मान-प्रतिष्ठा की बृद्धि होती है।सामाजिक-प्रतिष्ठा-लाभ के लिए यह अद्भुत प्रयोग है।
v साधित सहदेई-मूल को लाल धागे में बांध कर बालक के गले में ताबीज की तरह पहना देने से थोड़े ही दिनों में गण्डमाला रोग नष्ट हो जाता है।
v सहदेई को विधिवत ग्रहण कर घर के वायव्य वा ईशान क्षेत्र में जमीन वा गमले में स्थापित कर नित्य पूजन कर कम से कम एक माला पूर्व कथित मन्त्र का जप करते रहने से गृह-कलहादि की शान्ति होती है,और वास्तु दोषों का निवारण होता है।
v साधित सहदेई-पंचाग को चूर्ण करके गोदुग्ध अथवा जल के साथ नित्य सेवन करने से स्त्रियों के श्वेत प्रदर एवं रक्त प्रदर में अद्भुत लाभ होता है।
v सहदेई के अन्य आयुर्वेदिक प्रयोगों को आयुर्वेद-ग्रन्थों में देखना चाहिए।बस सिर्फ इस बात का ध्यान रखना है कि प्रयोग करने के लिए साधित सहदेई का ही उपयोग हो ताकि अधिक लाभार्जन हो।
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