चतुर्थ परिच्छेद
किंचित
अन्य- स्थावर-जांगम द्रव्यों का तान्त्रिक प्रयोग
१. शंख
शंख कोई वानस्पतिक द्रव्य नहीं,प्रत्युत जांगम
द्रव्य है।इसकी उत्पति "शंख" नामक एक कठोर काय समुद्री जीव से होती
है।वस्तुतः यह उसका ऊपरी कवच है,या कहें – उपयोग में आनेवाला शंख- शंख नामक कीट का
आवास है;किन्तु वैसा आवास जैसा कि आत्मा का आवास यह शरीर है। कछुआ,घोंघा,सीपी, कौड़ी
आदि जीव इसी वर्ग में आते हैं,और सब शंख की भांति ही अपना कवच छोड़ते हैं।आकार भेद
से शंख जौ-गेहूं के दाने से लेकर तीन-चार सौ वर्गईंच तक के पाये जाते हैं।साथ ही
गोलाकार,लम्बोतरा,चपटा आदि कई आकारों में दीख पड़ता है। वर्ण-भेद से यह चार प्रकार
का होता है- विलकुल सफेद,किंचित लालिमा युक्त, पीताभ और श्याम आभा वाला(विलकुल
काला नहीं)।शंख के रंग-भेद को सामाजिक वर्ण-व्यवस्था से भी जोड़ कर देखा जाता है।
क्रमशः, ब्राह्मणों के लिए श्वेत वर्णी शंख को उत्तम माना जाता है;क्षत्रियों के
लिए रक्त वर्ण, वैश्यों के लिए पीत,एवं शूद्रों के लिए श्याम आभावाला शंख उपयुक्त
है।
पौराणिक प्रसंगानुसार शंख और लक्ष्मी दोनों ही समुद्र से उत्पन्न हुए
हैं,अतः इन्हें भाई-बहन कहा गया है।शंख भगवान बिष्णु की पूजा में अनिवार्य है।इससे
उनकी प्रिया- लक्ष्मी अति प्रसन्न होती हैं।वासामि पद्मोत्पल शंख
मध्ये,वसामि चन्द्रे च महेश्वरे च..... लक्ष्मी के पौराणिक वचन हैं।शंख की
स्वतन्त्र रुप से पूजा भी की जाती है। भेदाभेद वर्णन क्रम में तो यहां तक कहा गया
है कि शंख और बिष्णु में अभेद है।
विभिन्न पूजाओं में शंखध्वनि का बड़ा ही महत्त्व है।वैसे एक पौराणिक
गाथानुसार शिव-मन्दिर में शंखध्वनि वर्जित है,ठीक वैसे ही जैसे कि देवी मन्दिर में
घंटा वर्जित है।किन्तु आजकल अज्ञानता वश इन दोनों बातों का उलंघन होता हुआ देखा
जाता है।शंख शुभारम्भ और विजय का प्रतीक है।यही कारण है कि किसी भी उत्सव,पर्व,पूजा-पाठ,हवन,प्रयाण,आगमन,युद्धारम्भ,विवाह,राज्याभिषेक
आदि अवसरों पर अनिवार्य रुप से शंखध्वनि की जाती है।शंख-घोष से वायुमंडल की शुद्धि
होती है।दैविक और भौतिक वाधाओं का शमन होता है।शंख ओज,तेज,साहस,पराक्रम,चैतन्यता,आशा,स्फूर्ति
आदि की वृद्धि करता है।कोई अज्ञानी(जिज्ञासु) यह प्रश्न उठा सकते हैं कि शंख तो एक
समुद्री कीट की अस्थि है,फिर पूजादि पवित्र कर्मों में इसे कैसे रखा जाय?
ज्ञात्व्य है कि शास्त्रों में कई ऐसी
वस्तुओं को पवित्र ही नहीं अति पवित्र की श्रेणी में रखा गया है, भले ही वो
जांगम(जीव-जन्तुओं से प्राप्त)क्यों न हों।दूध,दही,घी,मक्खन,मधु,मृगमद(कस्तूरी),गजमद,गोरोचन,
मृगचर्म, गोचर्म, व्याघ्रचर्म,हस्तिचर्म,हस्तिदंत,मोती,मूंगा,गजमुक्ता,मयूरपिच्छ
आदि अनेक ऐसे पदार्थ हैं, जिन्हें शास्त्रों ने मर्यादित किया है।शर्त सिर्फ यही
है कि इन्हें स्वाभाविक रुप से प्राप्त किया जाय।यानी जीवों की हत्या कर या
कृत्रिम विधि से नहीं।जैसा कि आजकल धनलोलुप व्यापारी किया करते हैं।ग्वाला वछड़े
को जान-बूझ कर मार देता है(दूध वचाने के लोभ से)और हार्मोनिक इन्जेक्शन देकर दूध
निकालता है।इस प्रकार निकाला गया दूध कदापि ग्रहण योग्य नहीं है।गाय को मार कर
गोपित्त प्राप्त किया जाय- यह कतयी ग्राह्य नहीं। मरी हुयी गाय से प्राप्त
गोपित्त,गोचर्म सर्वदा पवित्र है।इसी भांति सभी जांगम द्रव्यों के साथ नियम लागू
होता है। किन्तु कुछ अज्ञानी कुतार्किक एक ओर दूध को रक्त तुल्य मानते हैं तो
दूसरी ओर अण्डे को मांसाहार की श्रेणी से मुक्त करने का तर्क देते हैं।
सच्चाई यह है कि शंख सर्वथा अति पवित्र है-
कुछ खास वर्जनाओं को छोड़कर।यथा-
Ø किसी
कारण से शंख यदि टूट-फूट गया हो तो उसे त्याग देना चाहिए।
Ø शंख
में दरार आ गयी हो तो वह ग्रहण-योग्य नहीं है।
Ø बजाते
समय असावधानी से यदि हाथ से छूट कर गिर जाय(खंडित ना भी हो,तो भी)उसे त्याग देना
चाहिए।
Ø रुपाकृति
दूषित हो तो उसे ग्रहण न करें।
Ø निप्रभ(आभाहीन)
शंख ग्राह्य नहीं है।
Ø कीड़ों
से क्षतिग्रस्त शंख ग्राह्य नहीं है।
Ø किसी
प्रकार का दाग-धब्बा वाला शंख भी शुभ कार्यों में वर्जित है।
Ø शंख
के शिखर सुरक्षित हों तभी ग्रहण करें।भग्न शिखर शंख त्याज्य है।
Ø शास्त्र
की मान्यता है कि दो या तीन शंख एक घर में न रखे जायें।शेष संख्या वर्जित नहीं
है।यानी एक,चार,और उससे आगे की संख्यायें ग्राह्य हैं।यह नियम किसी भी अन्यान्य
देव-प्रतिमाओं – शिव, गणेश, शालग्राम आदि के लिए भी लागू होता है।
संरचना के विचार से शंख मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं- १.वामावर्त,और २.
दक्षिणावर्त। शंख में जो आन्तरिक आवर्तन और मुख होता है, उसी के आधार पर यह विभाजन
किया गया है।आमतौर पर प्राप्त शंख को सीधे नोक भाग को आगे कर हाथ में लेंगे तो
पायेंगे कि उसका मुख आपकी वांयी ओर है।अन्दर के आवर्तन भी वांयी ओर ही होंगे।कुछ
विशिष्ट प्रकार के शंख में ये दोनों बातें विलकुल विपरीत होती हैं- यानी दायीं ओर
होती हैं। इन्हें ही दक्षिणावर्त शंख कहा जाता है।ये शंख की अति दुर्लभ प्रजाति
है।रामेश्वरम्,और कन्याकुमारी में यदाकदा असली दक्षिणावर्त शंख सौभाग्य से प्राप्त
हो जाता है।सामान्यतः यह श्वेत वर्ण का ही होता है, किन्तु गौर से देखने पर इन पर
लाल-पीली या काली आभयुक्त धारियां नजर आयेंगी।शुद्ध श्वेत-दूधिया वर्ण- जिस पर
अन्य आभायें न हों- सर्वोत्तम माना जाता है।वस्तुतः यह बहुत ही दुर्लभ है। वैसे आजकल
टीवी प्रचार का युग है। वस्तुओं की महत्ता और दुर्लभता का लाभ धनलोलुप व्यक्ति पहले
से अधिक उठाने लगे हैं।अनेक महंगी और दुर्लभ वस्तुओं का नकली निर्माण धड़ल्ले से
हो रहा है।नकली दक्षिणावर्त शंख भी बाजार में प्रचुर संख्या में मिल जायेगा। अतः
सावधान- ठगी के शिकार न हों।
शंख के प्रकारों में एक हीरा शंख भी है।यह अति दुर्लभ है।हीरे जैसी
इन्द्रधनुषी किरणें निकलती रहती हैं,जिस कारण इसे यह नाम दिया गया है।यह भीतर से
ठोस होता है,यानी न तो इसमें जल भर सकते हैं, और न बजा सकते हैं।मूल शंख जीव के
मृत(नष्ट)हो जाने पर इसके उदर के रिक्त भाग में कुछ जीवाश्म आ बैठते हैं,जिसके
कारण यह अपेक्षाकृत वजनी भी हो जाता है।देखने में ऐसा लगेगा मानों शंख के उदर में
मिश्री का ढेला आ फंसा है।यह स्थिति प्राकृतिक रुप से लम्बे समय में होता है।
शंख का एक और प्रकार है- मोती-शंख।यह सर्वांग सप्तवर्णी आभा विखेरते रहता
है।इसकी आकृति भी सामान्य शंख से थोड़ी भिन्न होती है- मुंह की ओर अति संकीर्ण,और
पूंछ की ओर क्रमशः गोलाई में विस्तृत होकर लगभग छत्राकार और गोल होता है।मजबूत और
भारयुक्त भी होता है।इसे बजाया भी जा सकता है। देखने में यह बड़ा मनोहर लगता है।
किसी भी दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति हेतु शुभ मुहूर्त की बात बेमानी है-
वस्तु का प्राप्त हो जाना ही शुभत्व- सूचक है।दक्षिणावर्त शंख भी उसी तरह
है।प्राप्त हो गया- यही सौभाग्य है।हां,घर लाकर स्थापित-पूजित करने के लिए भद्रादि
रहित रविपुष्य योग का विचार अवश्य करेंगे,जैसा कि किसी भी वस्तु के तांत्रिक
प्रयोग के लिए किया जाता है।सम्भव हो तो चांदी के पात्र में,या फिर तांबा,पीतल जो
भी पात्र सम्भव हो उसमें नवीन वस्त्र बिछाकर,धो-पोंछ कर दक्षिणावर्त शंख(या अन्य
शंख)को स्थापित कर विधिवत पंचोपचार पूजन करें।
पूजन के लिए निम्नांकित मंत्रों में किसी
एक का चुनाव कर सकते हैं-
§ ऊँ
श्री लक्ष्मी सहोदराय नमः
§ ऊँ
श्री पयोनिधि जाताय नमः
§ ऊँ
श्री दक्षिणावर्त शंखाय नमः
§ ऊँ
श्रीँ ह्रीं क्लीँ श्रीधर करस्थाय,पयोनिधि जाताय,लक्ष्मी सहोदराय,दक्षिणावर्त
शंखाय नमः
§ ऊँ
ह्रीँ श्रीधर करस्थाय,लक्ष्मीप्रियाय,दक्षिणावर्त शंखाय मम चिन्तित फलं
प्राप्त्यर्थाय नमः
चयनित मंत्र से पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन
सम्पन्न करने के पश्चात् उक्त मंत्र का कम से कम सोलह माला जप भी अवश्य करें-
विधिवत दशांश होमादि कर्म सहित।इसके बाद ब्राह्मण एवं भिक्षु भोजन यथाशक्ति
दक्षिणा सहित सम्पन्न करके,पूजित शंख को आदर पूर्वक स्थायी स्थान पर सुरक्षित रख
दें,और नित्य यथासम्भव पंचोपचार पूजन और एक माला जप करते रहें।
वैसे यह नियम किसी भी ग्राह्य शंख के साथ लागू होता है,विशेष कर
दक्षिणावर्त के बारे में कहना ही क्या? एक और बात का सदा ध्यान रखना चाहिए कि किसी
भी शंख को खासकर जब सीधी अवस्था में रखते हों तो रिक्त न रहे,बल्कि जलपूरित रहे,और
उसके लिए शंखासन भी अनिवार्य है।क्यों कि शंखासन पर उसे जलपूरित सुरक्षित रखा जा
सकता है।पीतल या तांबे के बने-बनाये शंखासन पूजा सामग्री या बरतन की दुकानों में
मिल जाते हैं।खाली रहने पर उल्टा(औंधे मुंह) रख सकते हैं।किन्तु सही प्रभाव के लिए
सीधे मुंह और जलपूरित रहना अनिवार्य है।
Ø पूजित
दक्षिणावर्त शंख जहां कहीं भी रहेगा- अक्षय लक्ष्मी का वास होगा।
Ø किसी
भी पूजित शंख में जल भरकर व्यक्ति,वस्तु,स्थान पर छिड़क देने मात्र से दुर्भाग्य, अभिशाप,अभिचार,और
दुर्ग्रह के प्रभाव समाप्त हो जाते हैं।
Ø ब्रह्म-हत्यादि
महापातक दोषों से मुक्ति मिलती है- यदि दक्षिणावर्त शंख का जलपान कर लिया जाय।अभाव
में सामान्य(वामावर्त शंख-जल का प्रयोग भी श्रीविष्णुमंत्र से अभिमंत्रित करके कुछ
दिन तक करना चाहिए।
Ø शंख
जल-पान से जादू-टोना-नजरदोष आदि का निवारण होता है।वच्चों के लिए यह बड़ा ही लाभदायक
प्रयोग है।प्रयोग कर्ता की साधना में यदि गायत्री समाहित हो तो उसी मंत्र का
प्रयोग करना श्रेयष्कर है।अन्य इष्ट मंत्र(नवार्णादि) का प्रयोग भी किया जा सकता
है।
Ø दरिद्रता
निवारण के लिए अभाव में किसी भी उपलब्ध शंख का नियमित पूजन किया जा सकता है।समय लगेगा,किन्तु
लाभ अवश्य होगा।दक्षिणावर्त की तो बात ही और है।
Ø शंख
को हाथ में लेकर अभीष्ट शत्रु का नामोच्चारण करते हुए संकल्प पूर्वक जोर से बजाया
जाय तो शत्रु की गति-मति का स्तम्भन होता है।
Ø शंख
को हाथ में लेकर अभीष्ट संकल्प करते हुए वादन करने से ह्रिंसक जीव-जन्तुओं
(व्याघ्र, सर्पादि) से रक्षा होती है।
Ø रात्रि
में सोने से पूर्व संकल्प पूर्वक शंख-ध्वनि की जाय(पांच-सात बार)तो
चोर-डाकू-लुटेरों की गति-मति का भी स्तम्भन होता है।
Ø जलपूरित
शंख को हाथ में लेकर संकल्प पूर्वक किसी बालक को नियमित रुप से थोड़े दिनों तक
पिलाया जाय तो स्वरमंडल का शोधन होकर बालक शीघ्र बोलने लगता है।यह प्रयोग जन्मजात
स्वर-विकृति में भी लाभदायक है।मैंने इस प्रयोग को कई बार किया है,और आशातीत सफलता
भी मिली है।
Ø उक्त
विधि से दूध भी नियमित दिया जा सकता है(जल और दूध वैकल्पिक क्रम से),किन्तु यह
प्रयोग करने से पूर्व बालक की कुण्डली में चन्द्रमा की स्थिति का विचार अवश्य कर
लेना चाहिए- कहीं चन्द्रमा नीच राशि,अथवा शत्रुभाव गत तो नहीं हैं,अन्यथा लाभ के
वजाय हानि हो सकती है।
Ø आयुर्वेद
में शंख का भस्म बना कर अत्यल्प मात्रा में सेवन करने का विधान है।शंख-भस्म या शंख-वटी
के नाम से दवा की दुकान से इसे प्राप्त किया जा सकता है।अनेक उदर रोगों में इसका
प्रयोग होता है।बाजार से खरीद कर उक्त औषधी को ऊँ श्री महावृकोदराय नमः
मंत्र से अभिमंत्रित कर सेवन करने से जटिल उदर रोगों में चमत्कारिक लाभ होता है।
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