पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम्-52

                            ९. सिन्दूर 
         सिन्दूर किसी विशेष परिचय का मोहताज़ नहीं है- खास कर भारत जैसे देश में,जहां स्त्रियों के  सुहागरज के रुप में मान्यता है इसे।सधवा और विधवा की निशानी है - उसके मांग का सिन्दूर। कुआंरी कन्यायें माँग तो नहीं भरती,पर कंठ में या भ्रूमध्य में लगाने से परहेज भी नहीं करती।आजकल तरह-तरह के रंगों में सिन्दूर मिलते हैं,और अनजाने में स्त्रियां उन्हें अंगीकार भी करती हैं- उसी मर्यादा पूर्वक;किन्तु यह जान लें कि असली सिन्दूर सिर्फ दो ही रंगों का हो सकता है- पीला और लाल।इसके सिवा और कोई रंग नहीं।
        थोड़ा पीछे झांक कर अपनी संस्कृति को ढूढ़ने-देखने का प्रयास करें तो पायेंगे कि जिस सिन्दूर का व्यवहार करने का अधिकार पति द्वारा विवाह-मंडप में दिया जाता है,वह सिन्दूर सिर्फ पीले रंग का ही होता है (लाल भी नहीं),और वजन में भी अन्य सिन्दूर की अपेक्षा भारी होता है।
       ज्ञातव्य है कि असली सिन्दूर का निर्माण हिंगुल(सिमरिख) नामक एक स्थावर पदार्थ से होता है, जिसका रंग पीला और चमकीला होता है।चमक का मुख्य कारण है- इसके अन्दर पारद की उपस्थिति।इसी सिसरिख से उर्ध्वपातन क्रिया द्वारा पारा(Mercury) निकलता है।पारद के पातन के बाद जो अवशेष रहता है, उसी से सिन्दूर बनता है।इसका महंगा होना भी स्वाभाविक ही है।
            गुण-धर्म से सिन्दूर रक्तशोधक,रक्तरोधक,और व्रणरोपक है।आयुर्वेद के विभिन्न औषधियों में भी इसका प्रयोग होता है।कर्मकांड-पूजा-पाठ का विशिष्ट उपादान है सिन्दूर।सभी देवियों को सिन्दूर अर्पित किया जाता है। सिन्दूर के वगैर जैसे सुहागिन का श्रृंगार अधूरा है,उसी प्रकार देवी-पूजन भी अधूरा है।अपवाद स्वरुप, पुरुष देवताओं में हनुमानजी और गणेशजी की पूजा में भी सिन्दूर अत्यावश्यक है।गणेश जी का शिव द्वारा शिरोच्छेदन हुआ था, तब आतुर अवस्था में माता पार्वती सिन्दूर लेपन कर उन्हें रक्षित की थी।राम-दरवार में मुक्ता- माला को खंडित करने पर हँसी के पात्र बने हनुमान ने अपना वक्षस्थल चीर कर सभासदों को चकित कर दिया था- उर में राम-दरवार-दर्शन करा कर।तब सीता माता ने सिन्दूर-लेपन कर उन्हें रक्षित किया था।एक और पौराणिक प्रसंग में सीता के सिन्दूर लगाने के औचित्य और महत्व पर हनुमान द्वारा जिज्ञासा प्रकट की गयी। सीता के यह कहने पर कि "इससे स्वामी की आयु बढ़ती है",श्री हनुमान अपने सर्वांग में सिन्दूर पोत कर दरबार में पुनः हँसी के पात्र बने थे।उनका तर्क था कि सिर्फ शरीर के उर्ध्वांग में थोड़ी मात्रा में भरा गया सिन्दूर जब स्वामी की आयु में वृद्धि कर सकता है, तो क्यों न पूरे शरीर को सिन्दूर से भर लिया जाय।
     बात कुछ और नहीं, ये कथानक सिर्फ सिन्दूर की गरिमा को दर्शाते हैं।
     विवाह काल में वारात जब कन्या के द्वार पर पहुंचती है,उस समय मां-बेटी एकान्त कुलदेवी-कक्ष में बैठ कर गोबर के गौरी-गणेश पर निरन्तर पीला सिन्दूर चढ़ाती रहती हैं- जब तक कि मंडप से कन्या का बुलावा न आजाय।भले ही आज इस अति महत्वपूर्ण क्रिया को लोग महत्वहीन करार देकर पालन करने में भूल कर रहे हों,किन्तु है, यह एक रहस्यमय तान्त्रिक क्रिया,जिसका सम्बन्ध सीधे अक्षुण्ण सुहाग से है।
     सिन्दूर का तान्त्रिक महत्व अमोघ है।यहां कुछ विशिष्ट प्रयोगों की चर्चा की जा रही है-
ü कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को हनुमान जी का जन्मोत्सव होता है।दक्षिणात्य मत से चैत्र पूर्णिमा की मान्यता है।किसी अन्य मत से अन्य मास-तिथि भी मान्य है।उक्त दोनों दिन हनुमान जी की आराधना का विशेष महत्त्व है।आठ अंगुल प्रमाण के पत्थर की सुन्दर मूर्ति खरीद कर घर लायें।सामान्य प्राणप्रतिष्ठा-विधान से उसे प्रतिष्ठित करें।यथोपलब्ध पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन सम्पन्न करें।नैवेद्य में अन्य सामाग्री हो न हो,भुना हुआ चना और गूड़ अत्यावश्यक है। अब,एक पीतल, कांसा,या तांबा के पात्र में शुद्ध घी और शुद्ध सिन्दूर का मधुनुमा लेप तैयार करें,और उस प्रतिष्ठित मूर्ति की आंखें छोड़कर,शेष सर्वांग में लेपन कर दें।तत्पश्चात् ऊँ हँ हनुमतये नमः का ग्यारह माला जप रुद्राक्ष के साधित माला पर कर लें।यह क्रिया इक्कीश दिनों तक नित्यक्रम से,नियत समय पर करते रहें। इक्कीशवें दिन अन्य प्रसाद के साथ शुद्ध घी में बना गूड़-आंटे का चूरमा(ठेकुआं) अर्पित करें।कम से कम एक माला से उक्त मंत्र पूर्वक तिलादि साकल्य-होम भी कर लें।इस क्रिया से हनुमान जी अति प्रसन्न होते हैं।समस्त मनोकामनाओं की सिद्धि होती है।उक्त क्रिया को अन्य शुभ मुहूर्त में भी प्रारम्भ किया जा सकता है।
ü प्रत्येक महीने के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को संकष्टी गणेश चतुर्थी कहते हैं।अगहन महीने में उक्त तिथि से संकट निवारण के लिए गणपति की साधना प्रारम्भ की जा सकती है।सुविधानुसार कुछ पूर्व में सारी तैयारी कर लें- आठ अंगुल प्रमाण की गणेश की  सफेद पत्थर की मूर्ति खरीद लें। सामान्य प्राणप्रतिष्ठा-विधान से उसे प्रतिष्ठित कर लें।यथोपलब्ध पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन सम्पन्न करें।नैवेद्य में अन्य सामग्रियों के साथ-साथ मोदक(लड्डु) अवश्य हो।उधर दूर्वा भी अनिवार्य ही है- गणेश-पूजन में- इसे न भूलें। अब,एक पीतल, कांसा,या तांबा के पात्र में शुद्ध घी और शुद्ध सिन्दूर का मधुनुमा लेप तैयार करें,और उस प्रतिष्ठित मूर्ति की आंखें छोड़कर,शेष सर्वांग में लेपन कर दें।तत्पश्चात् पूर्व साधित रुद्राक्ष के माला पर ऊँ गं गणपतये नमः मंत्र का ग्यारह माला जप करें।जप समाप्ति के बाद एक माला से उक्त मंत्रोच्चारण पूर्वक तिलादि साक्लय-होम भी अवश्य कर लें।इस क्रिया को पूरे वर्ष भर इसी विधि से करते रहें- महीने में सिर्फ एक दिन की विशेष क्रिया है,शेष दिनों में सामान्य पूजन और घृत मिश्रित सिन्दूर लेपन तथा एक माला जप भी करते रहें।यह संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत समस्त विघ्नों को समाप्त कर मनोकामना की पूर्ति करने में सक्षम है।
ü अक्षय सौभाग्य की कामना प्रत्येक स्त्री को होती है।अतः इस कामना से सभी सौभाग्यकांक्षी स्त्रियां इस तान्त्रिक प्रयोग को कर सकती हैं,खास कर उन स्त्रियों को तो अवश्य ही करना चाहिए, जिनकी कुण्डली में मंगल,शनि,राहु आदि का दोष हो,तथा पति स्थान दुर्बल हो।किसी भी कारण से पति पर आये संकट को दूर करने में भी यह क्रिया सक्षम है।क्रिया विधि- गाय के गोबर से अंगुली के आकार की दो मूर्तियां पीले नवीन कपड़े पर स्थापित करें,और उन्हें गौरी और गणेश के रुप में प्रतिष्ठित कर सामान्य पंचोपचार पूजन करें।पूजन के पश्चात् आम या पान के पत्ते से ऊँ महागौर्यै नमः,ऊँ श्री गणेशाय नमः का उच्चारण करते हुए एक सौ आठ बार पीला सिन्दूर अर्पित करें।संख्या पूरी हो जाने पर कपूर की आरती दिखावें,और अपनी मनोवांछा निवेदन करें।तत्पश्चात् अक्षत छिड़क कर विसर्जन कर दें।यह क्रिया नित्य की है,कम से कम वर्ष भर तक करें।सामान्य स्थिति में तो अगहन महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी से प्रारम्भ करनी चाहिए।विशेष संकट की घड़ी में सामान्य पंचांग शुद्धि देख कर कभी भी किया जा सकता है।क्रिया थोड़ा उबाऊ जैसा प्रतीत हो रहा है,किन्तु है अद्भुत और अमोघ। मुख्य रहस्य है- गोबर के गौरी-गणेश को नियमित सुहागरज अर्पित करना।किसी अन्य पदार्थ की मूर्ति पर यही क्रिया उतनी करगर नहीं होगी- इसका ध्यान रखें।
ü शुद्ध सिमरिख से बने पीले सिन्दूर को पीले नवीन वस्त्र का आसन देकर,पंचोपचार पूजन करके,उसके समक्ष देवी नवार्ण का कम से कम नौ हजार जप कर सिद्ध कर लें- सुविधानुसार किसी नवरात्र या अन्य शुभ मुहूर्त में,और सुरक्षित रख लें।इस मन्त्राभिषिक्त सिन्दूर की एक चुटकी पुनः अभीष्ट नाम और मंत्र का मानसिक उच्चारण करते हुए जिसे प्रदान किया जायेगा वह वशीभूत होगा,किन्तु ध्यान रहे- किसी बुरे उद्देश्य से यह प्रयोग कदापि न करें।इस प्रकार साधित सिन्दूर का स्वयं भी तिलक के रुप में उपयोग कर, द्रष्टा को वशीभूत किया जा सकता है।
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