पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम् 56 (अन्तिमकड़ी)

                     अष्टम् परिच्छेद   
           
         उपसंहार
                                               
        विभिन्न तन्त्र एवं आयुर्वेद-ग्रन्थों का अवलोकन करने के पश्चात् आपके समक्ष मेरा यह क्षुद्र प्रयास- पुण्यार्कवनस्पतितन्त्रम् प्रस्तुत है।इसके अन्तर्गत जो भी प्रयोग बतलाये गये हैं पूर्णतः श्रद्धा और विश्वास के योग्य हैं।प्राक्कथन में ही निवेदन कर चुका हूँ कि मैं कोई महान साधक नहीं हूँ- वस यदाकदा प्रयोग-साधना करते रहता हूँ।विभिन्न विषयों को नियमित पढ़ते रहने की ललक है,और साथ ही अपने अनुभव को सुधी जनों तक साझा करने की भी।यही कारण है कि आवाध रुप से मेरी लेखनी प्रायः चलते रहती है- बहुविषयों की क्यारियों में।
       तन्त्र जैसे गूढ़ विषय में गुरु बनने की न तो मुझमें क्षमता है,और न लालसा। फिर भी एक अनुभवी प्रयोगकर्ता के नाते यदि आपको मुझसे कुछ अपेक्षायें हों,तो स्वागत है।मैं अहर्निश प्रस्तुत हूँ आपके मार्ग-दर्शन हेतु- जहां तक मार्ग मुझे दीख रहा है।
      एक आग्रह पुनः करना चाहूंगा कि पूरी श्रद्धा,विश्वास और लगन के साथ इस मार्ग में आगे बढ़ सकते हैं।महज कुतूहल से कुछ नहीं होता।
      इन वनस्पतियों पर किये गये किसी भी प्रयोग का कतई दुरुपयोग करने की चेष्टा न करें,अन्यथा लाभ के बदले हानि की अधिक आशंका है- निस्फलता तो निश्चित ही ।किसी के प्राण संकट में हों,किसी की
आबरु पर आ बनी हो, वैसी स्थिति में उक्त प्रयोगों को करें।अवांछित यश और धन-लोलुपता के शिकार न हों।
    आपका सामान्य जीवन एक साधक का जीवन हो- एक भटके हुए पथिक का जीवन हो- जिसे व्यग्रता हो – घर वापसी की।वस्तुतः हम सभी अपनी मंजिल से विछड़े हुए इनसान ही तो हैं।परम पिता परमेश्वर ने दश इन्द्रियों के साथ एक मन दिया है,उसके ऊपर बुद्धि का वर्चस्व है,और उससे भी ऊपर विवेक की "परियानी"।इन सबका सतर्कता पूर्वक प्रयोग करें।यह दुनियां एक सराय है- किसी का घर नहीं।कुछ लेकर नहीं आये थे।जाते वक्त भी कुछ लेकर जाना सम्भव नहीं। अकेले आये हैं।जाते वक्त भी किसी का साथ नहीं मिलने वाला है।अकेले यात्रा करनी है- अपने घर पहुँचने का प्रयास करना है।अस्तु।
                                  --------हरि ऊँ हरि ऊँ----

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