ऊँ वास्तोष्पते
प्रतिजानीह्यस्मान्त्स्वावेशोऽअनमीवो भवानः।
यत्वे महे प्रतितन्नो जुषस्व शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे।।
(ऋग्वेद
७-५४-१)
प्राक्कथन
वास्तुशास्त्र जैसे विशद और गहन विषय पर कुछ
कहना- मुझ जैसे अल्पज्ञ के लिये फतिंगे-द्वारा
आकाश नापने जैसा ही है।फिर भी विगत पच्चीस-तीस
वर्षों से अपने पैत्रिक सम्पदा स्वरूप प्राप्त, इस ज्ञान का व्यावहारिक जीवन में-
व्यावसायिक-गैर व्यावसायिक रूप से उपयोग और प्रयोग करते हुये- हमने जो कुछ
पाया,अनुभव किया, उसे सहज रूप से अपने प्रियजनों के बीच बाँट देना अपना कर्त्तव्य
समझता हूँ।मेरे अनुभव के मोती- हो सकता है आपको भी मोती ही लगे,या सीप-घोंघा भी लग
सकता है।क्यों कि प्रकाशन जगत में अनेकानेक पुस्तकें भरी पड़ी हैं- प्राचीन वैदिक और अरण्य काल से लेकर अत्याधुनिक महानगरीय
काल तक।फिर भी मेरी यह "वास्तुमंजूषा" किंचित प्रदीपन कर सके आपके
विचारों को,तो मैं स्वयं को धन्य समझूं।
इस पुस्तक की विषयवस्तुओं को सुव्यवस्थित करने
में परमादरणीय पितामह- पं. श्रीसुमंगल पाठक जी,पितृव्य श्री वालमुकुन्द पाठक जी,श्री
पुरुषोत्तम पाठक जी,पिता श्री श्रीवल्लभ पाठक जी द्वारा संग्रहित श्री गोपाल
पुस्तकालय,मैनपुरा,कलेर,अरवल(बिहार) के विशिष्ट पुस्तकों का विशेष सहयोग रहा,जिनके
लिए मुझे कहीं अन्यत्र भटकना न पड़ा।घर बैठे ही ज्ञानदाता और प्राचीन पुस्तकें सहज
ही उपलब्ध हो गयीं। संग्रहित सहस्राधिक पुस्तकों में से(विशेष कर विभिन्न पुराणों
के मंथन में) उपयुक्त विषयवस्तुगत नवनीत-संग्रह करने में मेरी अर्धांगिनी- पुष्पा
पाठक का विशेष सहयोग रहा,जो गृहकार्यों से किंचित समय चुराकर,सतत अध्ययनशीला होकर,
'काकचेष्टा वकोध्यानं' को चरितार्थ करती, वांछित विषयों को शलाकित करती
रही।इस प्रकार अपेक्षाकृत अतिसहज रुप से एक "असहज" का शिलान्यास हो गया।अन्यथा
वास्तुशास्त्र जैसे गहन विषय पर लेखनी उठाना मेरे लिए असम्भव ही था।
इस पुस्तिका के संकलन हेतु समय-समय पर अपने
शिष्य वर्ग से उत्प्रेरित होता रहा,जिनमें आर्किटेक्ट और बिल्डरों का विशेष योगदान
रहा।पत्नी के सहयोग,और शिष्यों की उत्पेरणा से समय पर पुस्तक का "वर्णन्यास"
तो कर लिया।टेक्टमैटर काफी पद तक कम्पोज भी हो गये,किन्तु चित्रों और चक्रों में
आकर मेरा कम्प्यूटरीय ज्ञान उलझ गया।एस.एस.ऑफिस में डिजायनिंक करने से
ब्लॉगपोस्टिंग में दिक्कत आरही थी,कोरलड्रॉ का अभ्यास नहीं।पेशेवर विशेषज्ञों से
काम लेने के लिए मोटी रकम चाहिए,जिसका सर्वथा अभाव है।कुल मिलाकर,परिणाम यह हुआ कि
वर्षों तक यह काम वाधित रहा।अब किसी तरह कुछ अभ्यास के बाद लेखनी आगे बढ पायी
है।अतः पाठकों से निवेदन है कि विषयवस्तु पर ध्यान देंगे,कलाकृति पर नहीं।इसका यह
भी अर्थ नहीं कि विषय- वस्तु सर्वथा त्रुटिहीन है।मैं कोई विद्वान तो हूँ नहीं,वस,
यूँ ही विद्याव्यसनी और संग्रही होने के कारण अपने अनुभव कुछ बाँट देना चाहता हूँ-
आप प्रियजनों के बीच।
इस संक्षिप्त भूमिका के बाद अब विषयगत बातों पर
आता हूँ-
व्यावहारिक जगत में आये दिन प्रायः लोग सवाल उठा
देते हैं कि प्राग्वैदिक काल और आधुनिक महानगरीय सभ्यता की कोई तुलना नहीं।दोनों
दो विपरीत ध्रुवीय स्थितियां हैं।पूर्व काल में स्थानाभाव नहीं था।आज तो १०० वर्गफीट में भी गगनचुम्बी इमारतें बनायी
जा रही हैं।दूसरी बात यह कि जो चीजें उन दिनों थी ही नहीं,उनके बारे में हम
वास्तु-सम्मत नियम निर्धारण करें तो कैसे ?
उक्त दोनों- तर्क और जिज्ञासा का सहज उत्तर है कि
हम वास्तु-सिद्धान्त और प्रयोजन के मूल तथ्य पर गौर करें तो सब कुछ स्पष्ट हो
जायेगा।
जनजीवनोपयोगी वैदिक विद्याओं में वास्तुविद्या का
महत्त्वपूर्ण स्थान है। पर्णकुटी से लेकर यज्ञशाला और राजभवन तक के निर्माण का
विशद वर्णन है- इस शास्त्र में।मूल उद्देश्य बस एक ही है- पुरुषार्थ चतुष्टय-
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की सम्यक् सिद्धि; और इसका मूलाधार भी वही है,जो इस अखिल
ब्रह्मांड का है। यानी पंचतत्त्वात्मक सृष्टि विधान की तरह वास्तु-विज्ञान भी
पंचतत्त्वों के संतुलन-व्यवस्था पर ही आधारित है।अतः वर्णित-अवर्णित,नये-पुराने का
प्रश्न ही नहीं उठता। उनका स्थान-चयन पूर्वोक्त पंचतत्त्व
सिद्धान्त से ही हो जाता है।यथा- कूलर,टीवी,कम्प्यूटर आदि पहले थे नहीं,मोटरकार भी
नहीं था।सेफ्टीटैंक का प्रश्न ही नहीं था-ग्राम्य और अरण्यजीवियों के लिए।अतः "तद्रूप"
विचार करने पर लगता है कि आज के आधुनिक भवनों में इनके स्थान का चयन कैसे हो?
किन्तु इसका सीधा सा जवाब है- तत्त्वों के
आधार पर।क्यों कि तत्त्व उतने ही हैं जितने थे,हैं,और सदा रहेंगे भी।
प्राणीमात्र की चिकित्सा के लिए प्रणीत
आयुर्वेद-शास्त्र इन पंचतत्त्वों के आधार पर ही नये-पुराने हर बीमारी की
चिकित्सा करता है।तद्भांति वास्तुशास्त्र
भी समस्त वास्तुदोषों का निवारण तत्त्व विचार से ही करता है।बस,आवश्यकता है-
सूक्ष्म दृष्टि से दोषों के परख और निवारण की।
वास्तुशास्त्र
का ज्योतिष से अंगांगीभाव-सम्बन्ध है।प्राचीन काल में तो इसका स्वरूप भी अलग नहीं
था।पूर्णतया समाहित था- ज्योतिष में ही।प्राचीन ज्योतिष-ग्रन्थों में वास्तु एक
अध्याय हुआ करता था, किन्तु अब धीरे-धीरे स्वतन्त्र रूप ग्रहण कर लिया है।फलतः
स्वतन्त्र रूप से इसकी पुस्तकें भी लिखी गयीं।फिर भी इसका यह अर्थ न लगा लिया जाय
कि ज्योतिष के बगैर भी काम चल जायेगा। जहाँ
तक मेरा अनुभव है,सिर्फ ज्योतिष ही नहीं,प्रत्युत् तन्त्र का भी गहन ज्ञान होना
अत्यावश्यक है,तभी वास्तुशास्त्र की आत्मा से साक्षात्कार हो सकता है। अन्यथा
मात्र बाहरी तल पर चहलकदमी करते हुये, हम स्वयं को वास्तु-विशेषज्ञ समझने का भ्रम
पाले रहेंगे, और इसके परिणाम स्वरूप एक ओर तो समाज का अहित होगा और दूसरी ओर
कल्याणकारी शास्त्र की बदनामी होगी- और आज अधिकतर यही हो रहा है।दो-चार
पत्र-पत्रिकाओं को पढ़-सुनकर ही हम इस गहन विषय में हाथ डाल देते हैं।नेत्र और
मस्तिष्क विहीन चिकित्सक कैसी चिकित्सा करेगा- यह सोचने वाली बात है।ऊपर प्रयुक्त "तन्त्र"
शब्द भी व्यापक अर्थ में है- यानी तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र,और इसमें परोक्ष रूप से
कर्मकाण्ड तो समाहित हो ही जाता है।प्रारम्भ में मुझे भी कुछ ऐसा ही भ्रम हुआ था,किन्तु
गुरूकृपा स्वरूप "अहिबल-चक्र" और "धराचक्र" तथा "भूमिविदारण"
तन्त्र आदि के गूढ़ प्रयोगों में डूबने पर भ्रमजाल टूटा,और एक नये आलोक की
रसानुभूति हुई।
अतः वास्तुशास्त्र को एक रहस्यमय साधना-शास्त्र के रूप में
देखने-समझने और प्रयोग करने की आवश्यकता है।अस्तु।
हरिशयनी
एकादशी,विक्रमाब्द २०७०
नम्र निवेदक - कमलेश पुण्यार्क
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