पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-12

    अध्याय ९. विभिन्न वास्तु-चक्र(६४पद,८१पद)
         
निर्माण के लिए विभिन्न वास्तु-चक्रों की योजना की गयी है।गृह-स्थापन के विभिन्न तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए विशेष कर दो प्रकार के वास्तु-चक्रों की आवश्यकता पड़ती है- एक में वास्तुमंडल को समान स्तर के चौंसठ खंडों में तथा दूसरे में एकाशी खंडों में विभाजित करने का निर्देश दिया गया है।पुनः इनमें रंग योजना,पद-योजना,अंग-योजना,कार्य-योजना,मर्म-योजना, उर्जा-प्रवाह-योजना,तत्त्व–योजना आदि की बातें आती हैं।
    व्यक्तिगत गृह निर्माण ही नहीं,बल्कि ग्राम/नगर स्थापन हेतु भी इन्हीं वास्तुमंडल-नियमों का पालन करना चाहिए।भवन भास्कर में कहा गया है कि ग्राम, नगर और राजगृह निर्माण के समय चौंसठ पद वास्तुमंडल का स्थापन-पूजन होना चाहिए।सामान्य व्यक्ति को गृह निर्माण करते समय इक्यासीपद वास्तुपुरुष की पूजा करनी चाहिए।देव-मन्दिर के निर्माण के समय शतपद(१००) वास्तुपुरूष का पूजन होना चाहिए,एवं पुराने गृहकार्य (जीर्णोद्धार) के समय उनचास(४९)पद वास्तु पुरूष का पूजन होना चाहिए।आधुनिक समय में तो चापाकल,और बोरिंग का चलन है।वस्तुतः यह प्राचीन कूप का ही आधुनिकी- करण है-तदनुसार नाम भी है- नलकूप।वास्तुशास्त्रों में जलस्रोत- वापी,कूप,तड़ाग आदि की स्थापना के समय भी पद-मंडल आदि का विचार करना आवश्यक कहा है।इसमें एक सौ छियानबे (१९६)पदवास्तुपुरूष के स्थापन-पूजन का विधान है।वाटिका,वन,उद्यान आदि के स्थापन हेतु भी एक सौ छियानबे पद का ही विधान किया गया है। वास्तुराजवल्लभ में ७×७ से १४×१४ कोष्टक-मंडल तक की चर्चा है।
    मत्स्य पुराण में स्पष्ट आदेश है कि सोने की शलाका से चयनित भूमि पर रेखांकन करे,तदुपरान्त पिष्टक-लेपित(चावल का आटा और हरिद्रा-चूर्ण)सूत्र के सहारे रेखांकन करे।पहले पूर्व से पश्चिम दस रेखाओं का अंकन करे,पुनः उत्तर से दक्षिण के दस रेखाओं का अंकन किया जाय,न कि कहीं से सूत्र-स्थापन(layout) शुरू कर दें।
     एकाशीतिविभागे दश-दश पूर्वोत्तरायता रेखाः।
     अन्तस्त्रयोदश सुरा द्वात्रिंशद्वाह्यकोणस्थाः।। (वाराहसंहिता-५२/४२)
पुनश्च- अष्टाष्टकपदमथवा कृत्वा रेखाश्च कोणगास्तिर्यक्।
      ब्रह्मा चतुष्पदोऽस्मिन्नर्द्धपदा ब्रह्मकोणस्थाः।।
     अष्टौ च बहिष्कोणेष्वर्द्धपदास्तदुभयस्थिताः सार्धाः।
     उक्तेभ्यो ये शेषास्ते द्विपदा विंशतिस्ते च।। (वाराहसंहिता-५२/५५,५६)
    ध्यातव्य है कि चौंसठ एवं एकाशी पदों में वास्तुखंडों की संख्या में अन्तर है- ६४और८१ का,फलतः विभाजित पदों(प्रत्येक को प्राप्त) का अन्तर हो जाना स्वाभाविक है;किन्तु दोनों ही प्रकार के मंडलों में स्थापित देवताओं की संख्या पैंतालिस(४५) ही है,जिनमें बत्तीश(३२)बाहरी क्षेत्र (किनारों पर),एवं शेष तेरह(१३) मध्य में हैं।खंड-भिन्नता के कारण पद-प्राप्ति में अन्तर है।जैसे-चौंसठ पद वास्तुमंडल में ब्रह्मा को चार पद ही मिले हैं,जब कि एकाशीपद वास्तुमंडल में ब्रह्मा को नौ पद मिले हैं।इसी भांति किसी को डेढ़,किसी को आधा आदि रुप से पद-विन्यास-भेद है।अतः इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं होना चाहिए।प्राप्त पदों को स्पष्ट रुप से आगे के चित्रों से समझने का प्रयास करना चाहिए।
    प्रसंगवश यहां सभी (पैंतालिस) पदों के क्रमशः नाम दिये जा रहे हैं।ये नामकरण उन देवताओं के स्थान को इंगित करते हैं।साथ ही यह भी जान लेना जरुरी है कि वास्तुमंडल से बाहर मुख्य आठ दिशाओं(आकाश,पाताल को छोड़कर) में सहायिका शक्तियां भी अपना स्थान ग्रहण किये हुये हैं।ये हैं- पूर्व में स्कन्ध,अग्नि में विदारिका,दक्षिण में अर्यमा,नैऋत्य में पूतना, पश्चिम में जम्बुक, वायव्य में पापराक्षसी,उत्तर में पिलिपिच्छ एवं ईशान में चरकी।
    अब पैंतालिस देवों के नाम-(ईशान से प्रादक्षिण(clockwise) क्रम में)-


१.     शिखी
२.   पर्जन्य
३.   जयन्त
४.   इन्द्र
५.  सूर्य
६.    सत्य
७.  भृश
८.   अंतरिक्ष
९.    अनिल(वायु)
१०.                  पूषा
११.वितथ
१२.                 बृहत्क्षत्
१३.                 यम
१४.                 गन्धर्व
१५.                भृंगराज
१६.                  मृग
१७.                पितृ
१८.                 दौवारिक
१९.                  सुग्रीव
२०.                पुष्पदन्त
२१.                 वरुण
२२.                असुर
२३.                शोष
२४.               पापयक्ष्मा
२५.               रोग
२६.                नाग(अहि)
२७.               मुख्य
२८.                भल्लाट
२९.                सोम
३०.                भुजग
३१.                 अदिति
३२.                दिति
३३.                आप
३४.               सविता
३५.               जय
३६.                रुद्र
३७.               अर्यमा
३८.                सविता
३९.                विवस्वान
४०.                इन्द्र
४१.                 मित्र
४२.               राजयक्ष्मा
४३.               पृथ्वीधर
४४.               आपवत्स
४५.              ब्रह्मा




   ऊपर के देव-शक्ति नामावली को देख कर किंचित संशय हो सकता है कि एक ही देवता के पर्यायवाची नाम अन्य पद में भी दिये गये हैं।जैसे--इन्द्र-मित्र, सूर्य-अर्यमा-विवस्वान आदि,किन्तु ध्यातव्य है कि संस्कृत में पाये जाने वाले तथाकथित (मान्य) पर्यायवाची शब्द मूलतः पर्यायवाची नहीं हैं- अलग-अलग कृत्य और चरित्र के हिसाब से स्थान भेद से, नाम भेद भी है।अल्पज्ञता में हम उन्हें पर्यायवाची समझ लेते हैं। उदाहरणार्थ- इन्दीवर और अम्बुज दोनों नाम कमल के ही हैं,किन्तु गहरे अर्थ में पर्याप्त भेद है।इन्दीवर का अर्थ होता है- स्वेत कमल और अम्बुज का अर्थ होता है लाल कमल।इसे स्पष्ट करता है- महाकवि कालिदास के श्रृंगारतिलक का यह श्लोक-
 इन्दीवरेण नयना,मुखम्मबुजेन,कुन्देन दन्तमधरं नव पल्लवेन्,
अंगानि चम्पक दलैः सविधाय वेधा,कान्ते कथित वानुपलेन चेतः।– में नायिका के सुन्दर नेत्रों की तुलना सफेद कमल से और मुखमंडल की तुलना लाल कमल से की गयी है......।अस्तु।



पूर्व अध्यायों में अलग-अलग प्रसंगों में,इस सम्बन्ध में काफी कुछ कहा जा चुका है।कुछ शेष हैं उन पर यहां प्रकाश डाला जा रहा है।कुछ चित्रों को क्रमवार व्यक्त करने के उद्देश्य से पुनरावृत भी करना पड़ा है।सर्वप्रथम दोनों प्रकार के(चौंसठ और इक्यासी खंड)वाले मंडल का सादा खाका प्रस्तुत कर रहे हैं- इन दो चित्रों के माध्यम से-



क्रमशः.....  अगले पोस्ट में (इस अध्याय में अभी बहुत कुछ शेष है)

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