पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-16

                  अध्याय ११ - वास्तु-भूमि-  
                                           
  (क)चयन
    
गेहारम्भात्प्राग्विचारणीया विषयाः-(वास्तुरत्नाकर-भूमिपरिग्रहप्रकरण-११)
      किसी भी वास्तुकार्य का आधार है- भूमि।भूमि पर ही तो किसी प्रकार का निर्माण कार्य किया जा सकता है।अतः इसका सम्यक् चयन सर्वप्रथम आवश्यक है।इस सम्बन्ध में वास्तुशास्त्रियों ने कई बातों पर ध्यानाकर्षित किया है। 'देश' शब्द के व्यापक अर्थ का प्रयोग किया गया है- किस व्यक्ति को किस स्थान पर, किस नगर/ग्राम के, किस दिशा में वास करना चाहिए- आदि बातों का ध्यान रखा गया है। इसके लिए व्यक्ति के नाम,राशि,वर्ण के साथ-साथ नगर/ग्राम आदि के नाम,राशि,वर्ण का भी विचार किया जाना चाहिए;साथ ही भूमि के रंग/वर्ण भेद का भी विचार किया जाना चाहिए।परिवेश,प्लवत्व(ढलान), पार्श्व,आकार,अन्तरिक्ष,भूगर्भ आदि सभी विन्दुओं पर गहराई से विचार करने की बात कही गयी है- वास्तुशास्त्रों में।
    परन्तु,वर्तमान परिवेश में इनमें बहुत सी बातें अप्रासंगिक,कठिन या व्यर्थ सी प्रतीत होती हैं।सर्वप्रथम उन्हीं बातों पर एक नजर डाल लें-
    भूमि-चयन सम्बन्धी उक्त वास्तु-नियमों के अनुपालन में व्यावहारिक कठिनाइयां कई विन्दुओं पर झलकती हैं।भवन-निर्माण के मूल उद्देश्यों में भी बदलाव  आ गया है।"जननी,जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयशी" की गरिमा-युक्त वास का महत्त्व था। इस विचार से मकान बनाये जाते थे कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुख-शान्ति से वास करेगी वहाँ; किन्तु,आज की स्थिति सर्वथा भिन्न है- दादा तो दूर,पिता के बनाये हुये मकान में पुत्र रहेगा ही- कोई जरुरी नहीं।मानव-जीवन अर्थ प्रधान हो गया है- जो सभी 'अनर्थों' का जड़ है।जीवन जीविका-प्रधान हो गया है।जीविका-प्रदाता के छांवतले ही बहुतों का अनमोल जीवन गुजर जाता है- क्वाटरों और फ्लैटों में,या फिर किराये के कबूतरखाने में।संयुक्त परिवार विखंडित हो चुका है- "हम दो हमारे दो के"  बुलडोजर से ध्वस्त होकर;तो दूसरी ओर जीवकोपार्जन में उलझी कितनी जिन्दगियाँ महानगरों के खाली पड़े गटरों (ह्यूमपाइप) में गुजर जाती हैं।उनके लिए 'वास्तु' महज मजाक बन कर रह जाता है।प्रायः देखा जाता है कि लोग जहां नौकरी करने जाते हैं, थोड़ी भी स्थिति अनुकूल हुयी तो वहीं बस जाते हैं। ऐसे में नगर/ग्राम, नाम/राशि का कहाँ औचित्य रह जाता है? रंग/वर्ण सब व्यर्थ। दिशा और क्षेत्र भी अर्थहीन हो जाते हैं।
    इन चार बातों (नगर/ग्राम,नाम/राशि,रंग/वर्ण,और दिशा) को जरा नजरअन्दाज कर सिर्फ शुद्ध भूमि की बात सोचें, तो भी अनेक समस्या सामने आती हैं- शहर के आसपास के व्यर्थ पड़े गड्ढों को शहर के कूड़े-कचरे से भर कर(जो सैकड़ों वर्षों में भी गलने-सड़ने वाले नहीं हैं) भूमाफियाओं और सरकारों द्वारा विक्रय/आवंटन किया जाना कहां तक उचित कहा जा सकता है वास्तु-नियमों से? क्या 'शल्योद्धार' करेंगे उस विकृत भूमि का? कदम-कदम पर खड़े विद्युतचुम्बकीय तरंगों (electromagnetic wave) का जहर उगलते लौह-दैत्यों से कहाँ तक बचेगा आज का मानव? आज से पचीस वर्ष पूर्व एक वास्तु-व्याख्यान में जब मैंने मोबाइल और विजली के हाई टेनशन खम्भों की चर्चा की थी, तो बहुतों ने हँसी उड़ायी थी मेरी बातों पर,भले ही अब विदेशियों को सूझ गया तब, दबी जुबान सभी स्वीकारने लगे हैं- इस तथ्य को।अब उन्हें भौंरों और मधुमक्खियों का रास्ता भटकना भी समझ में आने लगा है।
    इसी भांति, भूमि-चयन-परीक्षण के बाद पंचतत्त्वों के संतुलन की बात भी आती है।संयोग से १४×१० फीट के एक प्लॉट के वास्तु-परामर्श का प्रस्ताव आया- एक जानेमाने वास्तुकार(आर्किटेक्ट) ने पांच मंजिले इमारत का नक्शा बना कर भेजा था मेरे पास उस भूमि के लिए।पूरी जगह सेफ्टीटैंक से थोड़ा ही अधिक है।अब भला उसमें पंचतत्त्वों को कैसे और कितना संतुलित किया जाय- सिर्फ निर्माण की दृष्टि से ? आधुनिक फेंगशुयी के बेजान प्लास्टिक-पिरामिड और 'लाफिंगबुद्धा' कितना परिमार्जन करेंगे विकृति के पिटारे का? इसी भांति महानगरीय कंकरीट के जंगलों में एक अदना सा फ्लैट 'हीरे के मोल' खरीदकर पंचतत्त्व-संतुलन कितना बनाया जा सकता है- एक अहम सवाल है, और वास्तुशास्त्र में आस्था न रखने वालों के लिए एक तर्कपूर्ण करारा जबाब भी। अस्तु....।
    किन्तु यथासम्भव विचारणीय हैं- ऋषि-प्रणीत वे सारे नियम, इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता।मनीषियों ने लम्बे समय के ज्ञानानुभव से इन बातों को निश्चित किया है।अतः भले ही युगानुरुप न हो,फिर भी बिलकुल व्यर्थ कैसे कहा जा सकता है?
    ऊपर दर्शायी गयी कुछ समस्यायें- विशेषकर शहरी भूमियों के लिए,और अत्याधुनिक पाश्चात्य विचारधारा वाले लोगों के लिए है।आर्यावर्त की आत्मा- जो मुख्य रुप से गावों में बसती हैं,वहां वैसी समस्या नहीं है,और सबसे बड़ी बात यह है कि जिन्हें नियम-पालन में आस्था है,उनके लिए हजार रास्ते भी निकल जाते हैं,और नियम के खंडक-भंजकों को लाख बहाने भी मिलते रहते हैं।
    यहाँ हम पहले ऋषि-प्रणीत विधानों पर गहराई से सोच-विचार कर लें,पुनः यथास्थान असम्भव और कठिन विधानों का कोई सामयिक हल ढूढने का प्रयास करेंगे।इस लघु पुस्तिका में ऐसी कुछ ज्वलन्त समस्याओं का समाधान यथास्थान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

वास्तु-भूमि-चयन
                

भवन निर्माण के लिए सर्वप्रथम भूमि की व्यवस्था करनी होती है।भूमि कहाँ हो,कैसी हो आदि बातें, ध्यान देने योग्य हैं।वास्तु शास्त्र इस सम्बन्ध में कुछ विशेष बातों पर ध्यान दिलाता है।
कहाँ हो ? इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप निम्न विंदुओं पर विचार करना चाहिये:-                        
१.ग्राम/नगर विचार-
  (क) इसके लिए एक सूत्र सुझाया गया है- ग्रामाक्षर की गणना करके उसमें चार से गुणा कर दें,तत्पश्चात् नामाक्षर की भी गणना करके प्राप्त गुणनफल में जोड़ कर, सात से भाजित कर दें। लब्धि को त्याग दें।शेष पर विचार करें- १.सन्तान-लाभ, २.धन-लाभ, ३.धन-हानि, ४.आयु-नाश, ५.शत्रु-भय, ६. राज्य-लाभ,७ यानी शून्य शेष हो तो मृत्यु।
 उदाहरण- कमल नाम के व्यक्ति को पटना में भवन बनाने का विचार है।
अतः कमल = ३, पटना = ३
  इसलिए ३ × ४ = १२
 अब   १२ + ३ = १५
 अब   १५ ÷ ७ = २ लब्धि, १ शेष
 एक शेष यानी सन्तान-लाभ।इसी भांति स्थान विचार करना चाहिए।
  (ख) ज्योतिषीय गणना से अपने नाम और ग्राम की राशियों की गणना करें। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि व्यक्ति को अपने प्रचलित नाम की राशि का क्रमांक लेना चाहिए ,न कि जन्म कुण्डली की राशि का।यथा- कमल की राशि है- मिथुन यानी तीन, और पटना की राशि है- कन्या यानी छः।
          अब, नाम राशि से गिनती करके ग्राम राशि तक जाये।इस प्रकार मिथुन से कन्या- चौथी राशि हुयी।इसी भांति गणना करे।
राशि-गणना का फल- २,५,९,१०,११- अति उत्तम
                                    ४,८,१२-  रोग भय
                                          १,७-   शत्रु भय
                       ३,६-  हानि
मतान्तर से उक्त राशि गणना का फल-२,५,९,१०,११- उत्तम- प्रथम श्रेणी ग्राह्य
                                                       १,३,४,७- मध्यम- द्वितीय श्रेणी ग्राह्य
                                                         ६,८,१२- अधम -सर्वथा त्याज्य
     
उक्त नियम सम्बन्धी किंचित आर्ष-वचनः-
        ग्रामनामाक्षरं ग्राह्यं चतुर्भिगुणयोत्ततः।
       नरनामाक्षरं योज्यंसप्रतभिर्भागमाहरेत्।।(मुहूर्तरत्नाकर,वास्तुरत्नाकर)
       स्वनाराशितो ग्रामराशिद्वर्यङ्केषुदिक्शिवैः।
       सम्मितश्चेत्तदा तस्य तद्ग्रामे वास उत्तमः।।
      रोगोऽष्टद्वादशे तुर्ये वैरमाद्ये च सप्तमे।
      हानिः ष्ष्ठे तृतीये च ग्रामराशौ स्वनामभात्।।(मु.ग.१८-१,२)
        यद्ग्रामभं द्व्यङ्कसुतेशकाष्ठा-
      मितं भवेल्लाभमतः शुभः सः।
      यद्मम् शशाङ्काग्निनगाब्धितुल्यं,
      मध्योष्टषट्कार्कमितं निषिद्धः।। (वास्तुप्रदीप)

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