पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-2

                                   १.परिचयात्मक इतिवृत्त  
 वास्तु-प्रयोजन
    वास्तुशास्त्र के बारे में कुछ कहने-जानने से पूर्व वास्तु के औचित्य और महत्त्व का विहगावलोकन कर लें।क्षुद्र कीट से लेकर मानव पर्यन्त प्रकृति के नियमों से आवद्घ दुःख-निवृति, और आत्यन्तिक सुखोपलब्धि हेतु निरन्तर चेष्टित है।हर प्राणि अपने अनुकूल निवास बनाने का प्रयास करता है।मनुष्य प्रकृति का श्रेष्टतम प्राणी है,अतः उसकी वास-व्यवस्था भी श्रेष्टतम ही होगी।
मनुष्येत्तर, देवता भी इस आवश्यकता और आकांक्षा से परे नहीं।सुन्दर, विशाल,भव्य भवन के व्यसनी देवराज इन्द्र के सम्बन्ध में एक रोचक पौराणिक कथा है कि एक बार उन्होंने अपने दिव्य भवन निर्माण हेतु देवशिल्पी विश्वकर्मा को लम्बे समय तक कार्य-व्यस्त रखा। परिणामतः देवलोक का अन्य शिल्प- कार्य अति बाधित हो गया। विश्वकर्मा भी इन्द्र के इस व्यवहार से पीड़ित हो उठे।किन्तु, करें तो क्या ? शठ देवेन्द्र को कौन समझाये? अन्ततः साक्षात् ब्रह्मस्वरुप महर्षि लोमश को देवताओं ने उत्प्रेरित कर इन्द्र के मद-मर्दनार्थ प्रेषित किया।
एक प्रातः, इन्द्र जब अपने महल से बाहर आये, तब एक दिव्य महात्मा को सिर पर वटपत्रावली ओढ़े, ध्यानस्थ बैठे देखा।जुगुप्सा वश वहीं हाथ जोड़कर खड़े हो गये,और उनके समाधि-भंग की प्रतीक्षा करने लगे।काफी देर बाद जब महात्मा का ध्यान भंग हुआ,तब इन्द्र ने प्रणिपात पूर्वक परिचय पूछा,साथ ही सिर पर औढ़े वटपत्रावली का कारण भी जानना चाहा।एक और कौतूहल उन्हें व्यथित किये हुए था- महात्मा के पूरे शरीर पर तो काफी लम्बे-लम्बे रोयें थे,किन्तु वक्षस्थल के कुछ भाग रिक्त थे। इन्द्र ने आज तक कभी त्रिभुवन में कहीं भी ऐसा प्राणी नहीं देखा था।
इन्द्र की जिज्ञासा और कौतूहल का शमन करते हुए महात्मा ने कहा - " नाम से क्या काम? मेरा कोई नाम भी नहीं है,किन्तु लोकाचार वस मुझे लोमश कह सकते हो,क्यों कि शरीर रोये से आच्छादित है।"                 पुनः प्रणिपात पूर्वक इन्द्र ने कहा -"भगवन!आप तो दिव्यातिदिव्य हैं।
आपका वासस्थान कहाँ है?"
इन्द्र के इस प्रश्न पर महर्षि मुस्कुराते हुए बोले- " वास का क्या प्रयोजन? शीतातप-रक्षार्थ सिरपर पत्रावली है,और भूमण्डल वासस्थान। स्थायी स्थान बनाने में क्षणभंगुर जीवन का अनमोल समय क्यों नष्ट करना?"
इन्द्र ने संकोच पूर्वक पुनः प्रश्न किया- " भगवन ! आपका वक्षस्थल रोमावली-रहित है- इसका क्या रहस्य है? कृपया मुझे निःशंक करें।"
महात्मा ने गम्भीर भाव से कहा- " काल का परिमाण तो तुम्हें ज्ञात ही होगा- भूलोकिय गणनानुसार कलियुग का मान- ४,३२,०००वर्ष, द्वापरयुग का मान- ८,६४,००० वर्ष,त्रेतायुग का मान-१२,९६,०००वर्ष, एवं सतयुग का मान-१७,२८,०००वर्ष होता है।इस प्रकार ४३,२०,००० (तैंतालिस लाख,बीस हजार) वर्षों का एक चतुर्युगी होता है। ७१  चतुर्युगी का एक मन्वन्तर होता है,और इस प्रकार के चौदह मन्वन्तरों का एक कल्प होता है।प्रत्येक कल्प में मेरे शरीर का 'एक' रोमपात हो जाता है।इस तरह एक-एक करके रोम झड़ते गये,और वक्षस्थल रोम-रिक्त हो गया।"
महर्षि के काल वर्णन और निवास के अनौचित्य की गाथा ने इन्द्र के मन-मस्तिष्क को झकझोर दिया। प्रज्ञाचक्षु को उन्मीलित कर दिया। तत्काल ही उन्होंने अपना भवन-निर्माण कार्य स्थगित कर देवशिल्पी को मुक्त किया।
    भवन-निर्माण के अनौचित्य की यह कथा औचित्य को भी उद्घाटित किये देती है।विश्वकर्मादि पूर्वाचार्यों का कथन है-
स्त्रीपुत्रादिकभोगसौख्यजननं धर्मार्थकामप्रदं,जन्तूनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बुधर्मापहम्।वापीदेवगृहादिपुण्यमखिलं गेहात्समुत्पद्यते,गेहं पूर्वमुशन्ति तेन विबुधाः श्रीविश्वकर्मादयः।।
मत्स्य पुराण में गृहनिर्माण के औचित्य पर प्रकाश डाला गया है-
गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा न सिद्ध्यन्ति गृहं विना।
यतस्तस्माद् गृहारम्भप्रवेशसमयौ व्रुवे।।
परगेहे कृताः सर्वाः श्रौतस्मार्तक्रियाः शुभाः।
निष्फलाः स्युर्यतस्तासां भूमीशः फलमश्नुते।।
नूतन गृह-निर्माण तो महत्त्वपूर्ण है ही,पुरातन के जीर्णोद्धार को तो नवीन से भी आठगुणा फलदायी कहा गया है-
वापीकूपतड़ागेषु देवतायतनेषु च।जीर्णान्युद्धरते यस्तु पुण्यमष्टगुणं भवेत्।।
 इस प्रकार वास्तु का प्रयोजन सिद्ध होजाने पर उसके नियमादि की बात आती है,यानी वास्तुशास्त्र का प्रयोजन आन पड़ा।वास्तुदेव की परिकल्पना भी साकार हो उठी। ऋग्वेद ७-५४-१ में वास्तुदेव की प्रार्थना-
    ऊँ वास्तोष्पते प्रतिजानीह्यस्मान्त्स्वावेशोऽअनमीवो भवानः।
      यत्वे महे प्रतितन्नो जुषस्व शन्नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे।।
 (हे वास्तुदेव ! हम आपके सच्चे उपासक हैं- इस पर आप पूर्ण विश्वास करें,और हमारी स्तुति को सुन कर हम सभी उपासकों को आधि-व्याधि-मुक्त कर दें,और जो हम अपने धन-ऐश्वर्य की कामना करते हैं,आप उसे भी परिपूर्ण करें,साथ ही इस वास्तु क्षेत्र या गृह में वास करने वाले हमारे स्त्री-पुत्रादि परिजनों के लिए कल्याणकारी हों,तथा हमारे अधीनस्थ गौ,अश्वादि सभी चतुष्पद प्राणियों का भी कल्याण करें।)
                हमारी प्राचीनतम संहिता- ऋग्वेद की यह श्रद्धावनत प्रार्थना वास्तुदेव की प्राचीनता, प्रासंगिकता,प्रयोजन और महत्त्व पर प्रकाश डालने हेतु यथेष्ट है।सृष्टि के उद्भव और विकास के साथ-साथ अनेकानेक मानवोपयोगी सुख-सुविधा-साधन-प्रबन्ध हुए।उन सबका एकमात्र उद्देश्य रहा- पुरुषार्थ चतुष्टय की सम्यक् सिद्धि।वास्तुशास्त्र भी उन्हीं में एक है।
     ‘वस् वासे’ नाम धातु से बने शब्द वास्तु का अर्थ होता है-‘ वसति अस्मिन् इति वास्तु ’अर्थात् गृह,भवन,प्रासाद,ग्राम,मन्दिर,नगर आदि- जहाँ भी मनुष्य रहता है,अपना क्रिया-कलाप करता है- वह सब वास्तु कहलाता है। सामान्य अर्थ में "वास्तु" शब्द आवास हेतु ही प्रयुक्त है।पाणिनी ने भूमि और गृह दोनों अर्थों में इसका प्रयोग किया है। अमरकोश में वास्तु शब्द का प्रयोग "वासयोग्य भूमि" के अर्थ में सिर्फ किया गया है।किन्तु हलायुध कोश में थोड़ा विस्तार देते हुए पाणिनी के प्रयोग को स्वीकारा गया है।यहां स्पष्ट किया गया है कि वास्तु शब्द का पुलिंग प्रयोग वासयोग्य भूमि, और नपुंसक लिंग में प्रयोग वासयोग्य गृह को इंगित करता है।वात्स्यायन के कामसूत्र में वास्तुविद्या को चौंसठ कलाओं में एक कला माना गया है।वाराहमिहिर के वृहत्संहिता में वास्तुविद्या को सिर्फ आवासीय गृह-निर्माण तक ही रखा गया है।कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वास्तु की परिधि में वासयोग्य भूमि,गृह, वापी,सेतु,तड़ाग,उद्यान आदि सभी समाहित हो गये हैं; और तदर्थ भूमि-चयन से लेकर निर्माण और प्रवेश तक के सम्पूर्ण विधि-निषेध को प्रतिपादित करने वाले शास्त्र को "वास्तुशास्त्र" कहते हैं।
    वेदों में वास्तु के अधिष्ठाता (वास्तु देवता) को "वास्तोष्पति" कहा गया है। पौराणिक प्रसंगानुसार प्राचीन काल में अन्धक नामक एक असुर हुआ था,जिसके बध के लिए भगवान शिव ने विराट रुप धारण किया था।युद्ध काल में शिव के ललाट से स्रवित स्वेद विन्दु जब पृथ्वी पर गिरा तो एक विकराल दैत्य का रुप ले लिया।वह दैत्य क्षुधा-तृषातुर होकर त्रिलोकी को ही आत्मसात करने की चेष्टा करने लगा,तब संग्राम भूमि में उपस्थित सभी देवगण अति प्रयास पूर्वक धक्के देकर,उसे पृथ्वी पर औंधे मुंह गिरा दिये,और पुनः वह आतंक न मचावे- इस विचार से उसपर आरुढ़ हो गये।उसके विभिन्न अंगों पर विभिन्न दैवी शक्तियों का आरोहण पूर्वक वास होने के कारण उसका नाम "वास्तु" पड़ा।इस प्रकार देवादि से दबे हुए भयानक दैत्य ने जब निवेदन किया कि ऐसी अवस्था में मैं कब तक, कैसे,और क्यों पड़ा रहूँगा? तब,उसके इस निवेदन पर देवताओं ने वचन लिया- "तुम किसी को कष्ट नहीं दोगे- ऐसी प्रतिज्ञा करो,पृथ्वी पर वास करने वाले सभी मनुष्यों की तुम निरंतर रक्षा करो, और जो कोई भी गृह-प्रासाद-वापी-कूप-तड़ागादि निर्माण करेगा,उस समय सबसे पहले तुम्हें ही पूजा-बली आदि देकर संतुष्ट करेगा।जो व्यक्ति ऐसा नहीं करे उसे दण्डित करना भी तुम्हारा काम होगा।" देवताओं की इस बात से वह "वास्तुपुरुष"अति प्रसन्न हुआ,और उसके मुख से "तथास्तु" शब्द का उद्घोष होने लगा।स्थिर अवस्था में वास्तुपुरुष की स्थिति ऊपर के चित्र में दर्शायी गयी है,जिसका सिर ईशान कोण में और मुड़े हुए दोनों पैर नैऋत्य कोण में विराजमान हैं।  
          वैदिक साहित्य से लेकर पौराणिक,ऐतिहासिक,वौद्ध और जैन परम्परा से लेकर आधुनिक काल तक अनेकानेक बहुमूल्य ग्रन्थ इस जनोपयोगी सिद्धान्त पर प्रकाश डालते रहे हैं।दिनानुदिन इसका विकसित स्वरुप प्रस्फुटित होते रहा है। स्थापत्य वेद,मत्स्य पुराण,वाराह पुराण,ब्रह्मबैवर्त पुराण,स्कन्ध पुराण,अग्नि पुराण, देवीभागवत-श्रीमद्भागवत पुराण,भविष्य-भविष्योत्तरपुराण,गरुड़पुराण (कमोबेश लगभग सभी महापुराण और उप पुराण) से लेकर वाल्मीकि रामायण और महाभारत तक वास्तु विषयक प्रचुर सामग्रियों से भरा-पटा है।
     ऋग्वेद तो सभी वेदों का मूल  है।इसमें विशद रुप से वास्तु-वर्णन है। विभिन्न अभियन्त्रणाओं का सारगर्भित वर्णन अथर्ववेद में है,जिसमें वास्तुविज्ञान भी समाहित है। स्थापत्यवेद तो इसका अंग ही है। लौह और पाषाण निर्मित दुर्गों का वर्णन भी मिलता  है। ऋग्वेद २/४१/५ में कहा गया है कि राजा और मंत्री को सहस्र स्तम्भी भवन में वास करना चाहिए....इत्यादि। अथर्ववेद १/३ में पर्णकुटी से लेकर,यज्ञशाला,गोष्ठीशाला,अतिथिशाला, भण्डारगृह, आदि का वर्णन है।कुण्ड,मंडप,वेदिका,इष्टिका दैर्घ्य-विस्तार आदि दर्शाये गये हैं।ऐतरेय ब्राह्मण और तैतरेय उपनिषद् में भी वास्तु के महत्त्व और उपयोग पर प्रकाश डाला गया है। वौधायन, कात्यायन,आपस्तम्ब, आदि के शुल्वसूत्रों में वास्तुसिद्धान्त की विशद व्याख्या है।शेनचित,कंकचित,द्रोणचित आदि वेदियों और तदनुपातिक कुण्ड निर्माण की विधि का भी वर्णन मिलता है।  
     आगे पौराणिक काल में अठारह महापुराणों एवम् उपपुराणों में,जिनमें कुछ खास नाम ऊपर गिनाये गये हैं,वास्तु विषयक प्रचुर सामग्री है।
     मत्स्यपुराण में यत्र-तत्र(सिलसिलेवार नहीं) करीब आठ अध्याय विशेष कर वास्तु विषयक ही हैं।इसके २५२वें अध्याय में वास्तुशास्त्र के अठारह उपदेष्टाओं की चर्चा है।यथा-
   भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा,नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः।
  ब्रह्मा कुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च,वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रवृहस्पती।
 अष्टादशैते विख्याता शिल्पशास्त्रोपदेशिकाः।।
     (यथा- भृगु,अत्रि,वशिष्ठ,विश्वकर्मा,मय,नारद,नग्नजित,विशालाक्ष,पुरन्दर, ब्रह्मा, कार्तिक (कुमार), नन्दीश,शौनक,गर्ग,वासुदेव,अनिरुद्ध,शुक्र,और वृहस्पति- कुल अठारह प्रणेता) ध्यातव्य है कि देवशिल्पी विश्वकर्मा और असुर शिल्पी मय नाम से ख्यात हैं।इसी मय दानव ने युधिष्ठिर की राजसभा का निर्माण किया था,जहां दुर्योधन भ्रमित-चकित-अपमानित हुआ,और द्रौपदी की कुटिल परिहास ने महानाश का बीज बोया।उधर विश्वकर्मा निर्मित द्वारकापुरी – अपने समय के वास्तु कौशल का अद्भुत प्रमाण है।
      मत्स्य पुराण के अध्याय २५५ में स्तम्भ(पीलर)निर्माण का वर्णन है,जो कि किसी भी भवन का मूलाधार होता है।आज के विकसित अभियान्त्रिक युग में आधुनिक इंजीनियर तरह-तरह के पीलर बनाकर अपना पीठ ठोंकते हैं, जबकि मत्स्यपुराण में अनेक प्रकार के स्तम्भ निर्माण की कला बतलायी गयी है।कहा गया है कि भवन निर्माण का प्रारम्भ स्तम्भ-निर्माण से होना चाहिए,जो मुख्यतः पांच प्रकार के होते हैं- रुचक,वज्र,द्विपद,वृत और प्रलीनक।प्रसंगवश इनका विस्तृत निर्माण विधि भी बतलाया गया है। इनमें सौन्दर्य और स्थायित्व दोनों बातों पर ध्यानाकर्षित किया गया है।पुनः नवताल लक्षण,पीठिका लक्षण, लिंग लक्षण- इन तीन अध्यायों में पाषाण-कला और मूर्ति-निर्माण का विशद वर्णन है। आगे,मत्स्य पुराण के २९८वें अध्याय में प्रासाद वर्णन,तथा २९९वें अध्याय में मण्डल-लक्षण का वर्णन है।
     मत्स्य पुराण में ही गृहारम्भ के समयानुसार शुभाशुभ फल के साथ-साथ भूमि का चयन और परीक्षण,तथा चतुःषष्टिपद,एकाशीतिपद वास्तु-मंडल विन्यास का भी वर्णन है। विभिन्न देवताओं को भवन निर्माण के समय कैसे प्रसन्न करें- बलि आदि देकर- यह विधान भी बतलाया गया है।वास्तुपुरुष के मर्म स्थान,और उसके विभिन्न अंगों में देवताओं की अवस्थिति का वर्णन है। भवन के विभिन्न शालभेदों- एकशाल,द्विशाल,चतुश्शाल का भी उल्लेख है।गृह के क्षेत्रफल,ऊँचाई आदि का मान,स्तम्भों का मान,द्वारवेध,और उसके परिणाम, गृहाधिकरणक,आदि सभी आवश्यक बातें उल्लिखित हैं।
     अग्नि पुराण में कुल अठारह अध्याओं में वास्तु के विभिन्न विषयों पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है।अध्याय ४०,४१,४२,४३ के हयग्रीव-ब्रह्मा-संवाद में वास्तुमंडलदेवों की स्थापना,शिलान्यास,प्रासाद-लक्षणादि की चर्चा है।अध्याय ६४,६५,एवं ७० में उक्त संवादियों द्वारा कूप,वावली,पोखर,सभा,वृक्ष आदि के स्थापन विधान बतलाये गये हैं।आगे ७७वें अध्याय में गो,चूल्हा-चक्की,ओखल-मूसल,झाड़ू,स्तम्भ आदि की व्यवस्था का वर्णन है,जो माहेश्वर और स्कंध के संवादो में हैं।यहीं इन्हीं संवादो में ९२ से ९५ अध्यायों में क्रमशः प्रतिष्टांगभूत शिलान्यास,शिलान्यास-काल,वास्तु-पूजा-विधान,आदि का वर्णन है। अध्याय १००, १०१,१०२ में द्वार-स्थापन,प्रासाद-प्रतिष्ठा,एवं ध्वजारोपण का वर्णन है,तथा १०४वें अध्याय में उत्तम प्रासाद के लक्षण बतलाये गये हैं।आगे अध्याय १०५ में माहेश्वर-कार्तिकेय संवाद में नगर,गृहादि वास्तु प्रतिष्ठा के साथ-साथ ८१पद वास्तु मण्डल चक्र की चर्चा है,तथा अध्याय १०६ में पुनः नगर-वास्तु का वर्णन है।
      स्कन्ध पुराण के माहेश्वर खण्ड एवं वैष्णव खण्ड में वास्तु विद्या का विशद वर्णन है।नगर स्थापना,स्वर्णशाला,स्थपति-गृह,विवाह-मण्डप के साथ-साथ रथादि निर्माण तथा चित्रकर्म की चर्चा है।मूर्तिकला भी इसी में समाहित है। उन दिनों वस्तुतः इसे शिल्प विद्या के पर्याय के रुप में माना जाता था।
     गरुड़ पुराण के चार अध्यायों में वास्तुविद्या का निरुपण है।वहीं छियालिसवें एवं सैंतालिसवें अध्यायों में सभी प्रकार के भवन,दुर्ग,पुर,पत्तनादि के न्यास पर प्रकाश डाला गया है।इस पुराण में एक खास बात यह भी है कि पुरनिवेश के साथ ही उद्यान-निवेश की भी चर्चा है।एकाशीति पद वास्तु-चक्र, उनके देवता,तथा चतुष्षष्टि-पद वास्तु-चक्र और उनके देवता का स्थापन विधान भी दिया गया है। पैंतीसवें और अड़तालीसवें अध्याययों में प्रासाद के साथ-साथ प्रतिमा-निर्माण पर भी प्रकाश डाला गया है।
    भविष्य पुराण में भी तीन अध्यायों में वास्तुशास्त्रीय विषयों का विशद वर्णन है।
    पुराणों की चर्चा के बाद अब जरा आगम ग्रन्थों में भी झांक लें।वैसे आगम साहित्य अति विशाल है- सिर्फ शैवागम की संख्या ही बानवे है-ये चार पादों में विभक्त हैं- ज्ञान,योग, चर्या और क्रिया।इस क्रिया पाद में ही अन्यान्य विषयों के अलावा वास्तुशास्त्र और मूर्तिकला का प्रतिपादन है।पुराणों की अपेक्षा आगमों का विवेचन अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक,वैज्ञानिक,और पारिभाषिक प्रतीत होता है।
   "कामिकागम" को तो वास्तु विद्या का प्रतिनिधि ग्रन्थ ही माना जाता है। इसके पचहत्तर अध्यायों में बासठ अध्याय सीधे वास्तु विषयक ही हैं। भूमि- परीक्षण से लेकर गृहप्रवेश तक की विस्तृत चर्चा है इन अध्यायों में।करणागम में छः अध्यायों में वास्तु प्रकरण की चर्चा है,तो सुप्रभेदागम में पन्द्रह अध्याय वास्तु विषयक हैं।महर्षि कश्यप विरचित वैखानस आगम मुख्य रुप से वास्तु विषय पर ही आधारित है।इसमें गृह निर्माण से नगर निर्माण तक का विशद वर्णन है।मन्दिर निर्माण की भी पर्याप्त चर्चा है।
    देव-शिल्पी विश्वकर्मा के तीन उपलब्ध ग्रन्थ- वास्तुशास्त्र,विश्वकर्म प्रकाश,एवं विश्वकर्मीय शिल्प तथा दैत्य-शिल्पी मयदानव के सात ग्रन्थों के अलावे समरांगण सूत्रधार,मानसार आदि में वास्तु विषयक प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है।
   अस्तु ! वास्तु विद्या आर्यावर्त के मन-प्राणों में रचा-बसा है।
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