पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-6

     अध्याय५.वास्तुशास्त्र > ऊर्जा-प्रयोग एवं पञ्चतत्त्व संतुलन-शास्त्र
    
लोकोपयोगी वैदिक विद्याओं में वास्तुशास्त्र एक प्रमुख विद्या है। अनन्तशक्तियों के अक्षुण्ण भंडार- हमारी प्रकृति में सृष्टि,स्थिति और प्रलय की अजस्र क्रियायें अवाध रुप से संचालित होते रहती हैं,जिनमें प्रमुख तीन- गुरुत्व, चुम्बकीय और सौर शक्ति का प्रयोग कैसे और क्यों किया जाय, तथा सृष्टि के मूल घटक- पंचमहाभूतों में साम्यता कैसे बना रहे,ताकि वास करने वाले का जीवन सुखी हो, यही सिखलाता है -- वास्तुशास्त्र।इसका अर्थ यह कतई न लगाया जाय कि प्रकृति की अन्य शक्तियों को वास्तुशास्त्र अस्वीकार करता है। वस्तुतः प्रकृति की समस्त शक्तियों पर उसका ध्यान है।यहां मुख्य तीन को लक्षित कर आगे कुछ और स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा हैः-
१.     गुरुत्व शक्ति- हम पृथ्वी पर वास करते हैं।हमारी सारी क्रियायें यहां सम्पन्न होती हैं।इन क्रियाओं के होने में एक बहुत ही महत्वपूर्ण शक्ति का योगदान है, जिसे गुरुत्वबल कहते हैं।गुरुत्व यानी भार।नियम है कि जिस वस्तु में जितना भार होगा,पृथ्वी उसे उतनी ही शीघ्रता से अपने ओर आकृष्ट करेगी।एक सूखा हुआ पत्ता और एक पत्थर का टुकड़ा एक ही समय में यदि ऊपर से गिराया जाय, तो अपने भारानुसार दोनों अगल-अलग समय में पृथ्वी पर गिरेंगे।इसमें गरुत्व बल ही मुख्य कारण है।हमारे चलने-फिरने की गति में भी यही नियम लागू होता है।आज के अन्तरिक्षीय अनुसंधान युग में इन बातों को हम और भी आसानी से समझ सकते हैं।अलग-अलग ग्रहों पर गुरुत्व बल की भिन्नता है।तदनुसार वहां वास करने के तौर तरीके में भी भिन्नता होगी- इसी के अध्ययन-अन्वेषण में हमारे वैज्ञानिक लगे हुए हैं,और नित नयें रहस्य उद्घाटित हो रहे हैं।हम जिस भांति भवन बनाकर पृथ्वी पर वास कर रहे हैं,आने वाले समय में चांद और मंगल पर ठीक इसी तरह वास करना सम्भव नहीं होगा।भवन निर्माण के लिए वहां के नियम कुछ और होंगे,किन्तु मूल बातें वही होंगी।वास करने में गुरुत्वबल का सीधा सम्बन्ध स्थायित्वबल से है।यानी जिस वस्तु में गुरुत्वबल अधिक होगा,उस वस्तु में स्थायित्वबल भी अधिक ही होगा। इस प्रकार अलग-अलग वस्तुओं से निर्मित भवन का स्थायित्व भी भिन्न होगा- इस बात का ध्यान हमारे आचार्यों को रहा है,जैसा कि वृहद्वास्तुमाला का श्लोक स्पष्ट करता है-
कोटिघ्नं तृणजे पुण्यं,मृणमये दशसंगुणम्।
        ऐष्टिके शतकोटिघ्नं, शैलेङऽनन्तं फलं गृहे।।

२.   चुम्बकीय शक्ति- विदित है कि ब्रह्माण्ड अगणित हैं।अपने विराट रुप में श्रीकृष्ण ने अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों को दर्शाया है। अखिल ब्रह्माण्ड एक महा चुम्बकीय क्षेत्र है।समस्त ग्रह,नक्षत्र,तारिकादि आपस में इन्हीं चुम्बकीय तरंगों से पारस्परिक सम्बन्ध बनाये हुए हैं,और सबके अपने-अपने अक्ष-कक्ष का सुव्यवस्थित अनुपालन अजस्र जारी है।हमारी पृथ्वी भी एक ग्रह है। इसका अपना चुम्बकीय क्षेत्र है,अपनी कक्षा है,अपना अक्ष भी है,जिसे केन्द्रित कर निरंतर घूर्णनशील है।किसी भी चुम्बक में दो ध्रुव होते हैं। तदनुसार इसके भी दो ध्रुव हैं- उत्तरी और दक्षिणी। छड़नुमा लौह-चुम्बक को किसी धागे के सहारे यदि हम अधर में लटका दें,तो पायेंगे कि उसका एक शिरा सीधे उत्तर की ओर और दूसरा शिरा सीधे दक्षिण की ओर स्वयंमेव जाकर स्थिर हो जायेगा।इस प्रयोग से किसी स्थान विशेष का दिशा ज्ञान करने में सुविधा होती है।आजकल विभिन्न तरह के मैग्नेटिक कम्पास इस कार्य के लिए उपलब्ध हैं। ज्ञातव्य है कि पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्द्ध में,और पृथ्वी का दक्षिणी ध्रुव पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में होता है।यही कारण है कि याम्योत्तर रेखा में हम लौह चुम्बक को स्थिर देख पाते हैं।यह भी सर्वविदित तथ्य है कि विपरीत ध्रुवों के बीच आकर्षण,और समान ध्रुवों के बीच विकर्षण होता है।इन्हीं चुम्बकीय गुणों से सारा ब्रह्माण्ड संचालित (गतिशील) हो पाता है।ऐसे में यह सहज ही समझा जा सकता है कि जो ऊर्जा पूरे ब्रह्माण्ड को संचालित करने में सक्षम है, उससे हम क्षुद्र जीवों का जीवन कैसे नहीं संचालित होता होगा? वस्तुतः इस विराट प्रकृति में एक मानव की विसात ही क्या है?गौरतलब है कि सामान्य मानवीय बुद्धि को क्रमिक रुप से विकसित करते हुए अन्तश्चेतना(Intution)तक पहुँचाने की क्षमता रखने वाले हमारे मनीषियों ने प्रकृति की शक्ति और सृष्टि-रहस्यों का जान-समझ-साक्षात्कार करके जीवन को सुविधाजनक बनाने हेतु अनेकानेक उपयोगी नियमों का प्रतिपादन किया,जिसमें एक है- यह वास्तुशास्त्र। हमारे यहां यह सहज विदित है कि उत्तर दिशा में सिर कर सिर्फ मृत शरीर को ही रखा जाता है- जीवित को सोना सर्वथा वर्जित है। कारण स्पष्ट है- मानव शरीर के उत्तरी ध्रुव(सिर) को पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव से मिलाने पर आपस में विकर्षण होगा, यानी ऊर्जा का क्षरण होगा,जिसके परिणामस्वरुप अनिद्रा, सिरदर्द,मानसिक तनाव,दुःस्वप्न,या अन्य मानसिक व्याधियां हो सकती हैं- इस बात का सदा ध्यान रखा गया। इसी चुम्बकीय ऊर्जा को ध्यान में रखकर,उत्तर की ओर अधिक खुलापन,खिड़की-दरवाजे,टैरेस,कम ऊंचाई वाले निर्माण कार्य, वृक्षादि स्थापन का विधान किया गया है।
३.सौर शक्ति- मानव ही नहीं, सृष्टि के कण-कण के लिए सौरशक्ति का महत्त्व है।अपरम्पार सौरशक्ति का निस्सरण निरंतर हो रहा है,यदि यह क्षण भर के लिए भी बाधित हो जाय तो सब कुछ गड़बड़ हो जायेगा। सूर्य से ऊर्जा,उष्मा और प्रकाश तीनों मिल रहा है।इसके तीन वर्ग भी हैं- पराबैंगनी किरणें,रक्ताभ किरणें,और सप्तवर्णी(बैंगनी,नीला,आसमानी, हरा,पीला,नारंगी,और लाल) किरणें।बैंगनी से लाल तक के सप्तपादान क्रमशः शीत-मृदु से उष्णता की ओर हैं।यानी बैंगनी रंग की किरणें सर्वाधिक शीत और मृदु हैं,इसी प्रकार (क्रमानुसार अन्तिम) लाल किरणें सर्वाधिक उष्ण हैं।रंग चिकित्सक इन्हीं रंग-धर्मों का पालन कर आतुर की चिकित्सा करता है।ज्ञातव्य है कि प्रातःकालीन पराबैंगनी किरणों में जीवाणुनाशन की क्षमता है- रात्रिकालिक प्रदूषण को झाड़पोंछ कर ये किरणें स्वच्छ कर देती हैं।इनमें अन्य पोषक तत्व भी विद्यमान हैं।वेदों में सूर्य को आत्मा और जगत का चक्षु कहा गया है।भविष्योत्तर पुराण के श्री कृष्णार्जुन संवाद युक्त "आदित्यहृदय स्तोत्र" में सूर्य की विभूति का विशेष वर्णन है।भविष्यादि अन्य पुराणों में भी सूर्य की दूरी,गति, शक्ति,परिमिति आदि का विशद वर्णन मिलता है,जिसे आधुनिक वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं।सूर्य का व्यास आठ लाख पैंसठ हजार छःसौ अस्सी मील बतलाया जाता है।इसकी ज्वालायें निरन्तर दो सौ से तीन सौ मील प्रति सेकेन्ड की गति से लपलपा रही हैं।इसका विम्ब 12,960×1026  वाट प्रति घंटा ऊर्जा प्रदान कर रहा है, जिसका अत्यल्पांश (दो सौ करोड़वाँ भाग मात्र) ही पृथ्वी ग्रहण कर रही है। इससे सौर- शक्ति का सहज अनुमान लगाया जा सकता है;और हमारे आर्यावर्त के ऋषि-वैज्ञानिकों के ज्ञानानुभव का भी झलक मिल जाता है,जिन्होंने वास्तुनियमों का निर्धारण किया था।वास भूमि-भवन के पूर्व दिशा में पेड़ न लगाये जायें, पश्चिम दिशा में अवश्य लगाये जायें,पूरब में खुला भाग हो,पूर्वी द्वार श्रेष्टतम है,पूरब में खिड़की-दरवाजे अधिक हों- आदि बातें आंखिर क्या कहती हैं?और कुछ नहीं,बस,इस सौर-ऊर्जा के सदुपयोग का संकेत ही तो है।
       पञ्चमहाभूत-
तीनों मूल शक्तियों से परिचय के पश्चात् अब सृष्टि के मूल घटक के बारे में थोड़ी चर्चा करलें,ताकि इनके समानुपातिक सम्मिश्रण से उत्पन्न शक्ति के प्रभाव को समझने में आसानी हो।
स्थिति(सृष्टि) क्रम में पंचमहाभूतों का क्रम है- आकाश>वायु>अग्नि>जल>पृथ्वी।
प्रलय क्रम में ठीक इसका विपरीत हो जाना स्वाभाविक है- पृथ्वी<जल<अग्नि<वायु<आकाश।
यह स्पष्ट है कि सृष्टिक्रम सूक्ष्म से स्थूल की ओर,और प्रलय क्रम स्थूल से सूक्ष्म की ओर की यात्रा है।यानी सूक्ष्मतम आकाश और स्थूलतम पृथ्वी का आन्तरिक रुपान्तरण ही सृष्टि और प्रलय है।सृष्टि- और कुछ नहीं,बस ऊर्जा और पदार्थ का खेल मात्र है- ऊर्जा से पदार्थ,और पदार्थ से ऊर्जा का निरंतर हो रहा प्राकृतिक रुपान्तरण ही तो सृष्टि है।हमारे ऋषि-मुनियों ने इन सारी क्रियाओं का अन्तश्चेतना से साक्षात्कार किया था,और स्वास्थ्य,सुख,समृद्धि के द्वार खोले थे- वास्तुशास्त्र का नियमन किया था।
  एक बात और गौर करने योग्य है कि सबमें सब समाहित हैं- यानी आकाश में भी पृथ्वी है, और पृथ्वी में भी आकाश है।अन्तर है- सिर्फ अनुपात का।यह आनुपातिक अन्तर ही पदार्थों की भिन्नता को भाषित कराता है- अन्यथा सब तो एक ही हैं- "एकोऽहं,बहुःस्याम..." "एकोऽहं,द्वितीयोनास्ति..." आदि वचन कुछ ऐसे ही चिन्तन-मनन का संकेत देते हैं।यहां हम संक्षेप में इन पांचों पर अलग-अलग थोड़ा विचार कर लें-
१.     आकाश- यह महाभूतों में प्रथम है।शब्द यानी ध्वनि इसका विषय है। अपने आप में यह असीम है,अनन्त है।भवन निर्माण में इस असीम को ही सीमावद्ध करने का प्रयास करते हैं- ऊँची-ऊँची दीवारें खड़ी करके इस अनन्त को ही बांधने का क्षुद्र प्रयास करते हैं।दीवारें जितनी ऊँची होंगी- आकाश की मात्रा उतनी ही अधिक होगी।आकाश सर्वाधिक सूक्ष्म,सर्वाधिक अदृश्य महाभूत है,किन्तु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भी।एकशाला, द्विशाला.....बहुशाला, वरामदा,द्वार,खुली जगह,आंगन,ब्रह्मस्थान की रिक्तता और महत्ता इन बातों पर सर्वाधिक ध्यान दिये जाने के पीछे इस आकाशतत्व की महत्ता को स्वीकार-अंगीकार करना ही है।भवन में आकाशतत्व जितना शुद्ध और सही होगा,वास करने वाले के चित्त की दशा उतनी ही स्वस्थ होगी।मंदिरों के ऊत्तुंग गुम्बज तले आपार शान्ति की अनुभूति के पीछे अन्यान्य कारणों के साथ इस आकाश तत्व को सहेजने की अद्भुत क्षमता ही मूल हेतु कहा जा सकता है। वहां हम पिरामीडीय ऊर्जा का अधिग्रहण करने में सर्वाधिक सक्षम होते हैं।आकाश-तत्व-अधिग्रहण में इस आकृति का विशिष्ट महत्त्व और योगदान है।
२.   वायु- आकाशात् वायु...सूत्र से उत्पत्ति और महत्त्व को इंगित किया गया है।स्वर-विज्ञान में प्राणवायु को आत्मा कहा गया है।वायु ही जीवन का संकेत और आधार है।जीवित और मृत का भेद यह वायु ही कराता है।इसकी उपस्थिति-अनुपस्थिति ही जीवन और मौत का उद्घोष है।इससे पौरुष और प्राणशक्ति पुष्ट होती है।पृथ्वी के वायुमंडल में सर्वाधिक अंश(लगभग ७८%)नत्रजन(नाईट्रोजन) का है,जो वनस्पतियों का प्राण है।ऑक्सीजन की मात्रा लगभग २१% मानी गयी है,जो मनुष्य का प्राणाधार है। साथ ही कार्बन आदि अन्य 'वायुज' तत्व भी हैं।इन सबके संतुलन और तालमेल के लिए भवन-निर्माण काल में खुलेपन से सम्बन्धित सारी बातों का ध्यान रखना होता है, ताकि वायुतत्व का किंचित भी अवरोध न हो,सतत प्रवाह होता रहे। आस-पास पेड़-पौधों की मौजूदगी(दिशा-दशा के विचार सहित) वायु-संतुलन का अनिवार्य अंग है।वायु का विषय(तन्मात्रा) स्पर्श है,फलतः यह सिर्फ अनुभूति कराता है,दृश्यमान नहीं है।
३.   अग्नि- वायु के बाद अग्नि तत्व की बारी आती है।अपेक्षाकृत स्थूल होने के कारण यह दृश्यमान भी है।रूप इसकी तन्मात्रा(विषय) है। 'प्राण' जब भी संचरित होता है, तो उर्जा(उष्मा) को उत्पन्न करता है। दर्शन से लेकर पचन-पाचन तक- सारा खेल अग्नि का ही है। वास्तुशास्त्र इसके असंतुलन ही नहीं,बल्कि इसके आधिक्य पर भी ध्यान दिलाता है।अग्नितत्व का बढ़ना बहुत ही हानिकारक हो सकता है।मानसिक असंतुलन- तनाव,लड़ाई-झगड़े,उच्चरक्तचाप आदि इसके असंतुलन के परिणाम हैं।वास्तुमंडल में पूर्व-दक्षिण कोण को अग्निकोण कहा जाता है। भवन-निर्माण में इसकी रिक्ति या वृद्धि दोनों ही हानिकर हैं।अग्नितत्व से सम्बन्धित उपकरण(मीटर,हीटर, गीजर, भट्ठी,वॉयलर आदि) का प्रबन्धन भी अति महत्त्वपूर्ण है।
४.   जल- जल को जीवन कहा गया है।ऊपर वर्णित तीन तत्त्वों के बाद जल की बारी आती है।ज+ल=जल,यानी जिससे हम जन्म लेते हैं,और अन्त में जिसमें लय होजाते हैं।विज्ञान कहता है कि अग्नि और जल की मात्रा का संतुलन जब बिगड़ जाता है,यानी अग्नि तत्त्व की वृद्धि हो जाती है,तब प्रचन्ड सौर ऊर्जा से सारे वर्फ पिघलने लगते हैं। फलतः जलप्लावन हो जाता है।पृथ्वी जलमग्न होकर नष्ट होजाती है। कालान्तर में क्रमशः जल का वाष्पीकरण होता है,क्योंकि ऊष्मा बढ़ी रहती है।वाष्प के आकाश में उठ जाने के कारण पुनः पृथ्वी का आविर्भाव होता है,और सृष्टि स्रजित हो जाती है।जल,अग्नि,वायु के इस संतुलन को बनाये रखने का यथोचित ध्यान रखा जाता है वास्तु मंडल में।मंडल में जल तत्व का मुख्य स्थान ईशान- पूर्वोत्तर कोण पर है।भूगत जल- कुंआ,बोरवेल आदि इसी स्थान पर रखने का निर्देश देते हैं- वास्तुशास्त्री।ध्यातव्य है कि छत के ऊपर की पानी टंकी(Over head tank)के लिए ईशान कोण वर्जित है।जल का ग्रहण और विसर्जन भी इसी स्थान से होना चाहिए।जल का स्वाभाविक गुण है अधोगमन,यानी ढलान की ओर गमन करना।वास्तुमंडल का ढलान जलतत्त्व की दिशा(ईशान)की ओर होना भी जरुरी है।
५.  पृथ्वी- प़ञ्चमहाभूतों में अन्तिम महतत्त्व है- पृथ्वी।यह सर्वाधिक स्थूल तत्त्व है- पूर्णतः दृष्यमान,सर्वाधिक भार वाला।गन्ध इसकी तन्मात्रा है।यानी जहां कहीं भी गन्ध की उपस्थिति(अनुभूति)है,पृथ्वी तत्त्व विद्यमान है।पृथ्वी पर ही हम सब टिके हुए हैं- यही आधार है,इसने ही सबकुछ धारण कर रखा है।अतः इसे धरित्री भी कहते हैं। इस 'आधार-आधेय' सम्बन्ध के कारण ही वास्तुकार्य में सर्वप्रथम भूमि-परीक्षण,शोधन,पूजन आदि का विधान किया गया है।वास्तु-भूमि का आकार,प्लवन,परिवेश,भूगर्भीय और अन्तरिक्षीय स्थिति आदि सारी बातों का ध्यान रखना वास्तुशास्त्र का विषय है।
            ज्ञातव्य है कि यह सृष्टि पञ्च तत्वात्मक है।पाँचो तत्वों का संतुलन ही सुख-शान्ति-आरोग्य है,और इसके विपरीत स्थिति का परिणाम भी तदनुसार ही है।अतः वास्तुमण्डल में पञ्चतत्वों का संतुलन अत्यावश्यक है। पदार्थ-ऊर्जा-सम्बन्धों को ध्यान में रखते हुए भवन के अन्दर ही नहीं,बाहर भी (आसपास) उपयोगी वस्तुओं को सोच-समझ कर स्थापित करना चाहिए, ताकि तत्वों का असंतुलन न हो। उदाहरणार्थ- भवन से बाहर कोई वृक्ष,पहाड़, जलाशय,कब्रगाह, श्मशान आदि हैं,तो उसकी दूरी,दिशा आदि का विचार करते हुए भवन-परिसर-परिभ्रमण करके एक दक्ष वास्तुशास्त्री सहज ही ज्ञान कर लेगा कि कितना सुप्रभाव/दुष्प्रभाव पड़ रहा है।सही निदान कर लेने के बाद ही समुचित उपचार सम्भव है।

          आगे(नीचे) के चित्र में वास्तुमंडल में पंचतत्त्व–क्षेत्रों को दर्शाया गया है।गौरतलब है कि चारो दिशाओं को पुनः बांटा गया है,ताकि चारो कोणों का समुचित हिस्सा निकल सके।इस प्रकार चार दिशा और चार विदिशायें हुयी। इनमें प्रत्येक दो खण्ड को एक तत्व का क्षेत्र दर्शाया गया है।इस प्रकार चार तत्त्वों(पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु) का दो-दो खंड पर आधिपत्य हुआ,तथा केन्द्र (मध्यखण्ड)आकाश के प्रभाव क्षेत्र में आया। यथा- पूरब दिशा में मध्यपूर्व के बायें के अर्धांश से, दक्षिण दिशा के अर्धांश पर्यन्त अग्नि तत्त्व का अधिकार-क्षेत्र हुआ।दक्षिण दिशा के बायें के अर्धांश से लेकर दक्षिण दिशा के दायें के अर्धांश पर्यन्त पृथ्वी तत्त्व का अधिकार-क्षेत्र कहलाया।इसी भांति आगे-आगे विभाजन होता चला गया,जिसे आगे के चित्र से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। 


वास्तुमंडल में पंचतत्त्वों के ऊर्जा-प्रभाव को समझने के लिए इस चित्र पर ध्यान देते हुए कल्पना करें कि वास्तुमंडल तराजूके एक विशाल पलड़े की भांति है,जिसके चारो कोनों पर रस्सियां लगी हैं.और सभी रस्सियाँ केन्दीय भाग में जाकर,एकत्र होकर बँधी हुयी हैं।ध्यातव्य है कि इन चारो रस्सियों की लम्बाई(ऊँचाई) वास्तुमंडल के लम्बाई-चौड़ाई के समतुल्य ही होंगी।मान लिया कि ५०×५० फीट का वास्तु- मंडल है।ऐसी स्थिति में ५० फीट की ऊँचाई पर ही जाकर ये चारों रस्सियाँ आपस में मिलेगी- यही उस मण्डल का आकाश-तत्त्व निर्धारित हुआ।यानी उस ऊँचाई से ही आकाशीय ऊर्जा उस वास्तुमंडल को प्रभावित कर रही है। प्रसंगवश यहीं पर एक और ऊर्जा की परिकल्पना भी कर लें- पाताल ऊर्जा यानी भूगर्भीय ऊर्जा की।वह भी वैसी ही कल्पित रस्सियों से बंधा हुआ है। वस्तुतः पाताल ऊर्जा कुछ अलग नहीं,बल्कि आकाश का ही दूसरा पहलु है- सिक्के के दूसरे पहलु की भांति।इसे एक और चित्र के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है।यथा-

ऊपर के चित्र से स्पष्ट हो जाता है कि किस प्रकार आकाशतत्त्व दो भागों में बँटकर हमारे वास्तुमंडल को संतुलित किये रहता है।आधुनिक वास्तुविदों (इंजीनियरों और वास्तुकारों)को इस अति महत्त्वपूर्ण तथ्य पर ध्यान देना चाहिए, जो प्राचीन वास्तुनिर्देशों को अज्ञान वश या अविश्वास वस नजरअन्दाज करके, वास्तुमंडल में आंगन(खुले भाग)के औचित्य को नकारते हुए, या तो यहां पर लॉबी बना कर संतोष कर लेते हैं,या कमरे का रुप दे देते हैं।सबसे घातक तो तब हो जाता है, जब इस केन्द्रीय भाग में कोई पीलर(स्तम्भ) खड़ा हो जाता है।यानी वास्तुपुरुष की छाती में हम सीधे भाला चुभो देते हैं।वास्तु निर्देशों की इस अवज्ञा का कदापि क्षमा नहीं हैं।मैंने अपने अनुभव में सौकड़ों ऐसे मामले पाये-देखे हैं, जहां इस केन्द्रीय भाग का स्तम्भ(पीलर) गृहवास के थोड़े ही समय बाद अकारण ही स्वामी का नाश तक करा गया है।कुण्डली के ग्रह यदि बहुत बली हुए तो भी कम से कम हृदयरोगी तो बना ही देता है- इसमें कोई दो राय नहीं।अतः मैं आग्रह पूर्वक कहना चाहूंगा कि केन्द्रीय भाग (ब्रह्मस्थान) आकाशत्त्व की मर्यादा की रक्षा करें।वहाँ किसी तरह का निर्माण कार्य न किया जाय।साथ ही अधिकाधिक खुलेपन और स्वच्छता का सदा ध्यान रखा जाय।
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