अध्याय७.वास्तु
मण्डल में मर्म स्थान
ऊर्जा-प्रवाह-क्षेत्रों के सम्यक् ज्ञान के बाद
इसके समतुल्य ही मर्म स्थान की चर्चा भी आवश्यक है।सामान्य तौर पर देखने से ऐसा
प्रतीत होता है कि ये
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यहाँ इस छोटे से चित्र में एक
पुरुषाकृति दिखलायी गयी है।गौर से देखने पर पता चलता है कि कोई मनुष्य अपने दोनों
हाथ-पैर लगभग सिकोड़कर औंधेमुंह पड़ा हुआ है,जिसका सिर ईशान कोण में और पैर नैऋत्य
कोण में हैं।वायां हाथ मुड़ी हुयी स्थिति में वायुकोण में है,और दायां हाथ वैसी ही
स्थिति में अग्निकोण में, छाती,हृदय,उदर आदि भाग मध्य खण्डों में फैले हुए हैं।यही
परिकल्पना है- वास्तुपुरुष की,जो हमारे वास्तुमंडल की रक्षा के लिए वास्तुदेवता
के नाम से जाने जाते हैं।इनकी प्रतिष्ठा पूर्वक पूजा-बलि आदि किये बिना किसी भी
वास्तु-स्वामी को सुख नहीं मिल सकता।भवन-निर्माण के समय निश्चित किये गये
वास्तुमंडल में इनकी अवस्थिति की परिकल्पना वास्तुसूत्ररोपण(LAYOUT OF THE PLOT) के समय ही गहन
सोच-विचार पूर्वक कर लेनी होती है।वास्तु पुरुष के विभिन्न अंगों की परिकल्पना को
ध्यान में रखते हुए स्तम्भ आदि की योजना करनी चाहिये।यहां इस तथ्य को स्पष्ट करने
के लिए वास्तुपुरुष-अंगविन्यास को चौंसठ कोष्टक वाले वास्तुमंडल के चित्र में
प्रस्तुत किया जा रहा है,साथ ही विभिन्न मर्म स्थलों को और अधिक स्पष्ट करने के
लिए वास्तुमंडलमर्मकोष्टक को भी दर्शाया जारहा है।
अब
जरा इस दूसरे चित्र पर गौर करें-जैसे कि हम किसी बात को सामान्य कागज पर न
दिखलाकर,ग्राफपेपर पर दिखलाते हैं,ताकि अधिक स्पष्ट हो सके। ठीक वैसे ही
वास्तुमंडल को चौंसठ समान कोष्टकों में विभाजित कर दिखलाया गया है।ये विभाजन सिर्फ
वर्ग-खण्ड का ही नहीं,बल्कि रंग-योजना का भी है, और सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि
वास्तुपुरुष के अंग-विन्यास को भी प्रदर्शित करता है।
शरीरशास्त्रियों(आयुर्वेदज्ञों)ने मानव-शरीर
में एक सौ आठ मर्मों की चर्चा की है,जिन्हें अतिमर्म,सामान्य मर्म,न्यूनमर्म के
रुप में विश्लेषित किया गया है। हमारे मनीषियों ने वास्तुपुरुष की कल्पना की ।ऐसी
स्थिति में स्वाभाविक है कि पुरुष है तो उसके सभी अंग भी होंगे ही।वास्तुमंडल में
ये अंग जिस तरह परिकल्पित हैं,तदनुसार ही उनका उपयोग भवन निर्माण के समय करने का
विधान है।चित्र में स्पष्ट है कि मध्य में वास्तुपुरुष का हृदय है,यानी सर्वाधिक
कोमल और अति महत्वपूर्ण अंग।इसलिए इसकी मर्यादा-रक्षण पर विशेष बल दिया जा रहा है।
इसे रिक्त(खाली)खुला रखने का कारण भी स्पष्ट है- यदि हमारे वक्षस्थल या हृदय पर
कोई भारी चट्टान रख दे या तीर चुभो दे तो क्या स्थिति होगी?हम कितना सुखी और खुश
हो सकेंगे?और यदि खुश ही नहीं तो फिर मुंह से आशीष कैसे निकेलेगा?
अब यहां कोई अन्धतार्किक यह कहे कि वास्तुभूमि
तो खोदने हेतु ही चयन करते हैं,वास्तपुरुष को देवताओं ने धक्के देकर गिरा ही
दिया,ताकि उसके शरीर को काट-कूट किया जाय,फिर भी वह प्रस्न्नता पूर्वक "तथास्तु"
कहता रहे,जिसके एवज में समय-समय पर वास्तुपूजा और वलि का विधान है।
यहां तक बात यदि स्पष्ट है,तो यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि पैर में
भाला चुभोने और वक्ष में भाला चुभोने में क्या अन्तर हो सकता है- किसी मानव-शरीर
पर? अतः निर्विवाद है कि सभी मार्मिक खंडों की यथोचित रक्षा होनी चाहिए।यहां एक और
चित्र प्रस्तुत किया जा रहा है- एकासीपदवास्तुमंडल का,ताकि मर्मस्थान को और भी
सूक्ष्म तरीके से विश्लेषित कर सकें।
ऊपर
के चित्र में दिशा-निर्देश भूलसे छूटा हुआ नहीं हैं,प्रत्युत कोई खास आवश्यक नहीं
प्रतीत हुआ,क्यों कि लाल रंग में दर्शाये मर्मस्थान किसी भी दिशा से देखने पर समान
ही हैं। लाल रंग सिर्फ विशेष ध्यानाकर्षण, या कहें खतरे (सावधानी) का प्रतीक है।



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