पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-21

अध्याय ग्यारह का शेषांश..


वास्तु-भूमि कैसी हो
    
 वास्तु-भूमि कैसी हो- यह अगला विचार-विन्दु है;जो 'कहाँ हो' से भी अधिक महत्त्वपूर्ण और विचारणीय है।शहरीकरण के अन्धे दौड़ में बने-बनाये गगनचुम्बी अपार्टमेंट में फ्लैट्स खरीदने का चलन चल पड़ा है,जिसका सच पूछा जाय तो कोई ठोस कानून भी नहीं बना है- उन अपार्टमेन्ट और फ्लैटों का कोई लम्बा भविष्य भी स्पष्ट नहीं है।आप रह लेंगे- दस...बीस...पचास वर्ष;फिर क्या होगा? कोई सोचने-समझने का भी जहमत नहीं उठाता।ऐसी स्थिति में वास्तुभूमि कैसी है- सवाल ही बेमानी हो जाता है।किन्तु हमारे मनीषियों ने इस सम्बन्ध में कई नियम निर्देशित किये हैं।यहां हम उन्हीं विषयों पर थोड़ी चर्चा करेंगे।
     पंचमहाभूतों में पृथ्वी ही वह आधारभूत तत्व है, जिस पर निर्माण कार्य सम्पन्न होता है।अतः गृह-निर्माण से पूर्व उचित भूखंड का चुनाव करना आवश्यक है।इसके लिए भूमि के गुण-दोष- रंग,वर्ण,प्लवत्व(ढलान),अवस्थिति और आकृति के अनुसार निश्चित करने का विधान है।
    आजकल मिट्टी की जांच-परख के लिए मृदाअनुसंधानशालाओं की स्थापना की गयी है,जिसके तहत मिट्टी की गुणवत्ता का सही जांच हो जाता है- इसके लिए विभिन्न आधुनिक विधियों का प्रयोग किया जाता है; किन्तु प्राचीन भारतीय पद्धति में मिट्टी की परीक्षा- स्वाद,गंध,रंग आदि से की जाती थी,साथ ही आसपास की वनस्पतियों के आधार पर भी काफी कुछ निर्णय लिया जाता था।वाराहमिहिर के वृहत्संहिता में इस पर विशद वर्णन मिलता है।
    'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं,गुणकर्मविभागशः....'- गीता में कृष्ण के वचनानुसार मनुष्य के चार वर्ण निर्धारित किये गये हैं,जिनका आधार है- गुण और कर्म। तद्भांति ही भूमि के भी चार वर्ण- ठीक वैसे ही गुणकर्माधारित कहे गये हैं। भवन-निर्माण हेतु अपने गुण-कर्म-वर्णानुसार ही भूमि का चुनाव करना उचित कहा गया है।यथाः-
    श्वेता ब्राह्मणभूमिका च घृतवद्गन्धा शुभास्वादिनी,
    रक्ता शोणितगन्धिनी नृपतिभूः स्वादे कषाया च सा।
    स्वादेऽम्ला तिलतैलगन्धिरुदिता पीता च वैश्या मही,
    कृष्णा मत्स्यसुगन्धिनी च कटुका शूद्रेति भूलक्षणम्।। (वास्तुराजवल्लभ१३)
    स्वादे भवेद्या मधुरा सिताभा सर्वेषु वर्णेषु मही प्रशस्ता।
    स्नेहान्विता बभ्रुभजङ्गयोर्या सौहार्दवत्याखुविडालयोर्या।। (उक्त १४)
  श्वेतवर्णा,घृत-गन्धा,मधुर स्वाद वाली भूमि ब्राह्मणी होती है।रक्तवर्णा,रुधिर-गन्धा,काषाय स्वाद वाली भूमि क्षत्रिया कहलाती है।पीतवर्णा,तिलतैल-गन्धा,खट्टे स्वाद वाली भूमि वैश्या होती है,एवं कृष्णवर्णा,मत्स्यगन्धा,कटु स्वाद वाली भूमि शूद्रा कही गयी है।
    उसी प्रसंग में आगे कहते हैं कि जो भूमि स्वाद में मधुर,वर्ण में श्वेत हो और जिसमें नकुल-सर्प,मयूर,विडाल आदि सुख पूर्वक वास करते हों उसे सर्वग्राही भूमि समझना चाहिए।
    भूमि चयन-परीक्षण के सम्बन्ध में एक आश्चर्यजनक घटना की चर्चा करने का लोभ मैं यहां संवरण नहीं कर पा रहा हूँ- एक राजच्युत राजा गुप्तवास की योजना से पुरोहितादि के साथ भटक रहे थे।एक निर्जन प्रान्त में उन्होंने देखा कि एक बिल्ली को कई बलिष्ठ चूहे खदेड़ रहे हैं।वहीं पास में ही एक कुत्ता अपने चारों पैरों के सहारे खडें होकर मूत्र-त्याग कर रहा है।पुरोहित ने राजा से निवेदन किया कि इतना सुन्दर स्थान वास के लिए और कहां मिलेगा।राजा ने वहीं पर्णकुटी का निर्माण करवाया।पुरोहित के भूपरीक्षण से अकूत धन की प्राप्ति भी वहीं भूगर्भ से हो गयी,और कालान्तर में अपने खोये साम्राज्य को भी प्राप्त करने में सफल हुए।(यह वास्तुशास्त्र-ज्ञान की ही विशेषता है)
    वास्तुरत्नावली के भूपरिग्रहाध्याय में उपर्युक्त बातों को लक्षित कर वर्ण, रस, गन्ध और वनस्पति के आधार पर भूमि-परीक्षण की बात कही गयी है-
 (क)  शुक्लमृत्स्ना च या भूमिब्राह्मणी सा प्रकीर्तिता।
क्षत्रिया रक्तमृत्स्ना च हरिद्वैश्या प्रकीर्तिता।।
 (ख)  मधुरः कटुकस्तिक्तः कषायश्च रसाः क्रमात्।
      विप्रक्षत्रियवैश्यानां शूद्र्स्य च शुभप्रदाः।।           
 (ग)   घृतासृगन्नमद्यानां गन्धाश्च क्रमतः शुभाः।
      विप्रक्षत्रियविद्शूद्रजातीनां वास्तुभूमिषु।।
 (घ)  ब्राह्मणी भूः कुशोपेता क्षत्रिया स्याच्छाराकुला।
      कुशकासाकुला वैश्या शूद्रा सर्वतृणाकुला।।

ऊपर कहे गये आर्षवचनों को और अधिक स्पष्ट करने हेतु आगे एक सारणी प्रस्तुत की जा रही है,जिसमें एक नजर में ही सभी प्रकार के भूमियों के सम्बन्ध में जानकारी मिल जा सकती है।रंग,वर्ण,गन्ध,स्वाद आदि के आधार पर किसे किस प्रकार की भूमि में वास करना चाहिए,या कौन सा कार्य किस प्रकार की भूमि में करना चाहिए- सहज ही स्पष्ट हो जायेगा।भले ही आज के जमाने ये बातें बिलकुल अव्यावहारिक सी प्रतीत होंगी,किन्तु इनके महत्व को नकारा भी नहीं जा सकता।यह सच है कि मनोनुकूल भूमि की प्राप्ति बहुत कठिन है,फिर भी प्रयास तो करना ही चाहिए।
  

वर्गीकरण
ब्राह्मणीभूमि
क्षत्रियाभूमि
वैश्याभूमि
शूद्राभूमि
वनस्पति
तुलसी,कुशादि
शर,मूंज
कास,तृण
मिश्रित तृण
 गन्ध
घृतादि सुगन्ध
रक्त गन्ध
शहद(मधु)गन्ध
मद्य गन्ध
स्वाद
मधुर
कसैला
खट्टा
तीखा
वर्ण
श्वेत
रक्त
पीत
कृष्ण
प्रभाव
सर्वसुखदा
राज्यदायक
धन-धान्यकारी
निन्दित
निर्माण कार्य

देवालय,विद्यालय
जलाशय,उद्यान

आयुध,आरक्षी,
शासक

व्यावसायिक
विविध वैश्य-कार्य
गटर,कबाड़,
मलसंचयादि

वर्णानुसार
शुभत्व
बुद्धिजीवी,शिक्षक
वैज्ञानिक,साधक
राजपुरूष,सैनिक
प्रशासक,आरक्षी
विविध व्यापारी
कोषाध्यक्ष
मदिरा,मांस,
चर्म,विष
    
    ऊपर की सारिणी से स्पष्ट है कि कहाँ,किसे,क्या निर्माण करना चाहिए।अब यहां प्रसंगवश एक व्यावहारिक प्रश्न पर विचार कर लें- किसी ब्राह्मणी भूमि पर कोई 'बुद्धिजीवी' मदिरा का व्यवसाय प्रारम्भ कर(करा)दे तो कहां तक सफल हो सकता है?किसी प्राचीन देवस्थल को हथिया कर मॉल बना दिया जाय तो क्या होगा? भूमाफिया तो आजकल श्मशान और कब्रगाह को भी नहीं बकसते। जलाशय और चारागाह तो कबके हड़पे जा चुके हैं।इस तरह की घटनाओं को स्वार्थवस या लाचारी में- जाने-अनजाने अंजाम देने के दुष्परिणाम को मैंने कई बार देखा-परखा है।यहाँ उनकी चर्चा अप्रासंगिक न होगी।यथा-
    शहर से बाहर बना सुन्दर रमणीक सरोवर और देवस्थल, विकास के दौर में जब शहर के गर्भ में समाने लगा, तब भूमाफिआओँ के मुंह से लार टपकने लगी। धीरे-धीरे अतिक्रमण प्रारम्भ हुआ,और अन्त में एक जानेमाने चिकित्सक का निजी अस्पताल सह आवास में तबदील हो गया।शास्त्र-वचनों को दकियानूसी विचार कहने-मानने वाले डॉक्टर साहब की भी खूब चली।पूरा परिवार सकुटुम्ब प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से उनके कार्य-व्यवसाय से जुड़ कर फलने-फूलने लगा। अपने दो बेटों को भी डॉक्टर बना दिए।समय ने पलटा खाया- सड़क दुर्घटना में एक बेटे की मौत हो गयी,दूसरा बेटा मौत से भी बदतर स्थिति में पहुंच गया। थोड़े ही दिनों बाद अचानक, डॉक्टर साहब की भी असामयिकमौत हो गयी। सब छिन्न-भिन्न हो गया। डॉक्टर पिता की सारी कमाई डॉक्टर पुत्र के इलाज में चला गया। करोड़ों में खेलने वाले दाने-दाने को मुंहताज हो गये।
    कथन का अभिप्राय यह है कि स्वार्थान्ध होकर,विवेकहीन न हो जाए। ऋषियों की वाणी को ब्रह्मवाक्य मान कर यथासम्भव अनुशरण करने का प्रयास किया जाय।भवन का निर्माण सुख-सम्पन्नता-आरोग्य हेतु किया जाता है।भूमि की गुणवत्ता के साथ-साथ उसके इतिहास को भी जानना-परखना जरुरी है। देवस्थल,श्मशान,कब्रिस्तान,वीरान गड्ढे,सरोवर,पोखर आदि के जमीन पर वास करना कदापि सुखप्रद नहीं हो सकता।कुण्डली की बलिष्ठ ग्रहदशा भी लम्बे समय तक रक्षा नहीं कर सकती।
    वास्तुयोग्य प्रसस्त भूमि के सम्बन्ध में आचार्य वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ वृहत्संहिता में स्पष्ट कहा है-
  शस्तौषधिदुमलता मधुरा सुगन्धा स्निग्धा समा न सुषिरा च मही नराणाम्।
  अप्यध्वनिश्रमविनोदमुपागतानां धत्ते श्रियं किमुत शाश्वतमन्दिरेषु।। (५२-८६)
(नोट- अन्तिम पद में 'मन्दिरेषु' और 'मन्दिराणाम्' का पाठभेद है-वास्तुरत्नाकर में)
 अर्थात् जो भूमि दूर से ही आकर्षित करे,आरोग्यप्रद औषधि(तुलसी आदि वनस्पतियां) उदित हों जहाँ,उत्तम वृक्ष और लताओं से आक्षादित हो,मधुर, स्निग्ध, सुगन्धित एवं समतल हो,प्राकृतिक वातावरण से युक्त हो- पक्षि कलरव करते हों, जहाँ पहुँचते ही शान्ति मिलती हो- ऐसी भूमि वास के योग्य होती है। कुछ ऐसी ही बातें गर्गाचार्य ने भी कहीं हैं-
  मनश्चक्षुषोर्यत्र सन्तोषो जायते भुवि।तस्याङ्कार्यं गृहं सर्वैरति गर्गादिसम्मतम्।।

क्रमशः.....

Comments