अध्याय ग्यारह का शेषांश..(सात)
इस सम्बन्ध में वास्तुरत्नावली एवं वृहद्वास्तुमाला में कहा गया है-
तथाच- वारुणोच्चसमायुक्ता नीचमाहेन्द्रसंयुता।
तथाच- शम्भुकोणप्लवा भूमिःकर्तुः श्रीसुखदायिनी।
( यत्र-तत्र किंचित चरण भेद के साथ वृहद्दैवरंजन में भी इन्हीं श्लोकों की चर्चा है। )
वास्तुरत्नाकर एवं ज्योतिर्निबन्ध में भी ठीक यही श्लोक उद्धृत हैं।अब इन्हीं तथ्यों को सारणी में स्पष्ट किया जा रहा है-
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क्रमशः...
प्लवत्व(ढलान)
रंग,वर्णादि के पश्चात् अब भूमि के प्लवत्व की
चर्चा करते हैं।वास्तुशास्त्र में भूमि के ढलान को भी बहुत ही गम्भीरता से लिया
गया है।दिशा-विदिशाओं की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं।अब यहां उक्त आठ (चार
दिशा,चार विदिशा) को लक्षित कर वनने वाले प्लवत्व और उसके शुभाशुभ परिणाम की चर्चा
करेंगे। विभिन्न दिशाओं के ढलान को अलग-अलग वीथियों में विश्लेषित किया गया है। इन
वीथियों के प्रभाव स्वरुप सौर ऊर्जा और चुम्बकीय शक्ति भी प्रभावित होती है।अतः
इनके महत्व और उपयोग को नकारा नहीं जा सकता।
नारदपुराण(पूर्व.५६।५४२) में कहा गया है कि
पूर्व,उत्तर और ईशान दिशा में नीची भूमि सबके लिए श्रेष्ठ है,अन्य दिशाओं में नीची
भूमि सर्वथा त्याज्य है।
वाल्मीकि रामायण के किष्किंधाकांड में
प्रस्रवणगिरि के शिखर पर वास हेतु गुफा के चयन क्रम में श्रीराम ने लक्ष्मण को
सम्बोधित करते हुए कहा है-
प्रागुदक्प्रवणे देशे गुहा साधु
भविष्यति,पश्चाच्चैवोन्नता सौम्य निवातेयं भविष्यति। - हे सौम्य!
पूर्वोत्तरकोण की ओर नीची यह भूमि हमारे निवास के योग्य है।नैऋत्यकोण की ओर से
ऊँची यह गुफा वायु और वर्षा से रक्षा के लिए अनुकूल है।
आज किराये के मकानों में रहने वाले लोग भूमि-भवन
के शास्त्रीय निर्देशों के औचित्य और महत्त्व को सीधे नकार जाते हैं- किराये के
मकान में क्या सोचना- यह कहकर;किन्तु श्रीराम के उक्त वचन स्पष्ट संकेत करते हैं
कि भले ही थोड़े दिनों के लिए वास करना है,किन्तु स्थान का अनुकूल चयन होना चाहिए।
पर्णकुटी-निर्माण के समय भी श्रीराम ने लक्षण को वास्तु-नियमों को पालनीय
कहकर,तदनुसार कुटी निर्माण कराया था।अतः आवास की व्यवस्था करनी हो या प्रवास पर
हों,यथासम्भव वास्तु-नियम पालनीय हैं- इसमें दो राय नहीं।
आगे कुछ सारणियों के माध्यम से अष्टवीथियों को
स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है।ध्यातव्य है कि प्लवत्व और ऊँचाई (दोनों
स्थितियों को) सिर्फ समझने की सुविधा के लिए दिया गया है।स्वाभाविक है कि जो भूमि
पूरब में ऊँची होगी,विपरीत(पश्चिम)में नीची होगी।अतः इस ऊँचाई-कॉलम को दिये बिना
भी काम चल सकता था।अस्तु।
वीथिनाम
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प्लवत्त्व(ढलान)
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ऊँचाई
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परिणाम
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गोवीथि
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पूर्व
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पश्चिम
|
श्रीलाभ
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जलवीथि
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पश्चिम
|
पूर्व
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सुत-धन-क्षय
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यमवीथि
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दक्षिण
|
उत्तर
|
मृत्युदायक
|
गजवीथि
|
उत्तर
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दक्षिण
|
धनदायक
|
भूतवीथि
|
नैऋत्य
कोण
|
ईशान
कोण
|
धनहानि
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नागवीथि
|
वायव्य
कोण
|
अग्नि
कोण
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उच्चाटन
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वैश्वानरवीथि
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अग्नि कोण
|
वायव्य
कोण
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दाह
|
धनवीथि
|
ईशान कोण
|
नैऋत्य
कोण
|
विद्यालाभ
|
इस सम्बन्ध में वास्तुरत्नावली एवं वृहद्वास्तुमाला में कहा गया है-
श्रियं दाहं तथा मृत्युं धनहानि
सुतक्षयम्।
प्रवासं
धनलाभञ्च विद्यालाभं क्रमेण च।।
विदधात्यचिरेणैव
पूर्वादिप्लवतो मही।।
पूर्वप्लवा वृद्धिकरी उत्तरा धनदा स्मृता।
अर्थक्षयकरी
विद्यात् पश्चिमप्लवना ततः।।
दक्षिणप्लवना पृथ्वी नराणां मृतिदा भवेत्।।
तथाच- वारुणोच्चसमायुक्ता नीचमाहेन्द्रसंयुता।
सा
गोवीथिरिति ज्ञेया ऐन्द्रोच्चा नीचवारुणा।।
जलवीथिरिति
प्रोक्ता वास्तुज्ञानविशारदैः।
सोमोच्चयमनीचा
च यमवीथिति कथ्यते।।
यमोच्च
सोमनीचा च गजवीथिति कथ्यते।
ईशोच्चं
निऋतौ नीचम् भूतलं भूतवीथिकम्।।
आग्नेयोच्चं
वायुनीचं नागवीथि प्रशस्यते।
वायुच्चमग्निनीचं
यद् वीथिं वैश्वानरीं विदुः।
निऋत्युत्तमीशनीचं
धनवीथित्युदाहृता।।
तथाच- शम्भुकोणप्लवा भूमिःकर्तुः श्रीसुखदायिनी।
पूर्वप्लवा वृद्धिकरी धनदा तूत्तरप्लवा।।
मृत्युशोकप्रदानित्यं सर्वथा दक्षिणप्लवा।
गृहक्षयकरी सा च भूमिर्या नैऋतप्लवा।।
धनहानिकरी चैव कीर्तिता वरुणप्लवा।
वायुप्लवा तथा भूमि र्नित्यमुद्वेगकारिणी।।
मध्यप्लवा मही नेष्टा न शुभा प्लवतः पुरा।।
( यत्र-तत्र किंचित चरण भेद के साथ वृहद्दैवरंजन में भी इन्हीं श्लोकों की चर्चा है। )
प्लवत्व
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परिणाम
|
पूर्व
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यश,सुख-समृद्धि,लक्ष्मी-प्राप्ति
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अग्नि
|
नैऋत्य
कोण के अपेक्षा नीचा हो तो शुभ, अन्यथा अग्नि भय
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दक्षिण
|
रोग-व्याधि,भय,संकट,शोक,मृत्यु
आदि अनिष्ट
|
नैऋत्य
|
धन-नाश,व्याधि,रोग,नानाविध
क्षय
|
पश्चिम
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धन-हानि,पुत्र-हानि,रोग
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वायव्य
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नैऋत्य
और अग्नि से नीचा हो तो शुभ, अन्यथा उच्चाटन,वायुदोष
|
उत्तर
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धनलाभ
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ईशान
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सुख-शान्ति,समृद्धि,विद्यालाभ
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मध्य(केन्द्र)
|
विशेष
कर अशुभ
|
ध्यातव्य
है कि इस प्रसंग में ऊपर वर्णित आठ दिशाओं के अतिरिक्त मध्य प्लवत्व की भी बात कही
गयी है।इन्हीं तथ्यों को दो अन्य सारणियों में स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा
है-
ऊँचाई
की दिशा
|
परिणाम
|
पूर्व
|
संतान
हानि
|
अग्नि
|
वायव्य
व ईशान से ऊँची शुभ,अन्यथा अग्नि भय
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दक्षिण
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धन-वृद्धि
|
नैऋत्य
|
सुख-शान्ति
|
पश्चिम
|
धन एवं
यश वृद्धि
|
वायव्य
|
ईशान से
ऊँची हो तो शुभ,अन्यथा वायुदोष
|
उत्तर
|
दरिद्रता,नाना
विध कष्ट
|
ईशान
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चिन्ता,धन-हानि,देव-दोष
व पीड़ा
|
मध्य(केन्द्र)
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समृद्धि,ऐश्वर्य
प्राप्ति
|
वास्तुशास्त्रों में भूमि की विभिन्न दिशाओं में
प्लवत्व(ढलान) को आधार मानकर एक और प्रकार से वर्गीकृत किया गया है,जिसे पृष्ठत्व
कहते हैं।ध्यातव्य है कि इनमें विदिशाओं की चर्चा नहीं है।इस प्रकार मुख्य चार दिशाओं
के प्लवत्वाधार पर चार पृष्ठ कहे गये हैं।यथा-गजपृष्ठ,कूर्मपृष्ठ,दैत्यपृष्ठ
एवं नागपृष्ठ। अब आगे इन्हें चार श्लोकों में लक्षण और परिणाम सहित
व्याख्यायित किया जा रहा है-
१.गजपृष्ठ- दक्षिणे पश्चिमे चैव नैऋत्ये वायुकोणके,
एभिरुच्चा यदा भूमिर्गजपृष्ठाभिधीयते।
गजपृष्ठे भवेद्वासः स लक्ष्मीधनपूरितः,
आयुवृद्धिकरो नित्यम् जायते नात्र
संशयः।।
२.कूर्मपृष्ठ-
मध्येऽत्युच्चं भवेद् यत्र नीचं चैव चतुर्दिशम्,
कूर्मपृष्ठा भवेद् भूमिस्तत्र वासो
विधीयते।
कूर्मपृष्ठे भवेद्वासो
नित्योत्साहसुखप्रदः,
धनधान्यं भवेत्तस्य निश्चितं विपुलं धनम्।।
३.दैत्यपृष्ठ-
पूर्वाग्निशम्भुकोणेषु उन्नतिश्च यदा भवेत्,
पश्चिमे च यदा नीचं दैत्यपृष्ठोऽभिधीयते।
दैत्यपृष्ठे भवेद्वासो लक्ष्मीर्नायाति मन्दिरे,
धनपुत्रपशूनां च हानिरेव न संशयः।।
४.नागपृष्ठ-
पूर्वपश्चिमयोर्दीर्घो दक्षिणोत्तरउच्चकः,
नागपृष्ठम् विजानीयात् कर्तुरुच्चाटनम् भवेत्।
नागपृष्ठो यदा वासो मृत्युरेव न संशयः,
पत्नीहानिः पुत्रहानिः शत्रुवृद्धिः पदे-पदे।।(वृहद्वास्तुमाला-८२से८५)
वास्तुरत्नाकर एवं ज्योतिर्निबन्ध में भी ठीक यही श्लोक उद्धृत हैं।अब इन्हीं तथ्यों को सारणी में स्पष्ट किया जा रहा है-
पृष्ठ
|
ऊँचाई
|
परिणाम(प्रभाव)
|
गजपृष्ठ
|
दक्षिण,पश्चिम,नैऋत्य,वायु ऊँचा
|
धन,आयु वृद्धिकारी
|
कूर्मपृष्ठ
|
मध्य ऊँचा,शेष नीचा
|
सर्वश्रेष्ठ
|
दैत्यपृष्ठ
|
पूर्व,ईशान,आग्नेय ऊँचा,पश्चिम नीचा
|
धन,पुत्र,पशु हानि
|
नागपृष्ठ
|
पूर्व,पश्चिम ऊँचा,मध्य नीचा
|
पत्नी-पुत्र हानि,शत्रु-वृद्धि
|
भूमि की ढलान और ऊँचाई को आधार मान कर
विद्वानों ने एक और वर्गीकरण किया है।इसमें चौदह प्रकार के शुभाशुभ स्थितियों का
वर्णन है।यथा-
१. पितामह भूमि- पूर्व और अग्निकोण के मध्य ऊँची और
पश्चिम एवं वायु कोण के मध्य नीची भूमि पितामह वास्तु कहलाती है।यह सुखदायक भूमि
है।
२. सुपथ भूमि- दक्षिण व आग्नेय के मध्य ऊँची और उत्तर
एवं वायव्य के मध्य नीची भूमि सुपथ वास्तु कहलाती है।यह सभी कार्यों के लिए शुभद
है।
३. दीर्घायु भूमि- उत्तर व ईशान के मध्य नीची,और नैऋत्य व
दक्षिण के मध्य ऊँची भूमि दीर्घायु वास्तु कहलाती है।यह कुल-वृद्धि कारक है।
४. पुण्यक भूमि- पूर्व व ईशान में नीची,तथा पश्चिम-नैऋत्य
में ऊँची भूमि को पुण्यक भूमि कहते हैं।यह द्विजों के लिए उत्तम है।
५. अपथ भूमि- पूर्व व आग्नेय के बीच नीची तथा
वायव्य-पश्चिम के मध्य नीची अपथ वास्तु वैर और कलहकारी है।
६. रोग भूमि-दक्षिण और आग्नेय के मध्य नीची और
उत्तर-वायव्य के मध्य में ऊँची भूमि रोगवास्तु के नाम से जानी जाती
है।नामानुकूल ही इसका गुण है।
७. अर्गल भूमि- दक्षिण व नैऋत्य के बीच नीची और उत्तर व
ईशान के बीच ऊँची अर्गल नामक भूमि पापों का नाश करने वाली होती है।
८. श्मशान भूमि- पूर्व व ईशान के मध्य ऊँची,एवं
पश्चिम-नैऋत्य के मध्य नीची श्मशान नामक भूमि
नामानुकूल फलदायी है।ऐसी भूमि में कभी भी वास नहीं करना चाहिए।
९. शोक भूमि- आग्नेय कोण में नीची एवं नैऋत्य,ईशान और
वायुकोण में ऊँची भूमि शोक भूमि कहलाती है।यह असामयिक मृत्यु कारक है।इसका सर्वथा
त्याग करना चाहिए।
१०. श्वमुख भूमि- ईशान,आग्नेय एवं पश्चिम में ऊँची तथा नैऋत्य में नीची भूमि को श्वमुख
भूमि कहते हैं।यह अलक्ष्मी(दरिद्रा)दायी है।
११. ब्रह्मघ्न भूमि- नैऋत्य,आग्नेय एवं ईशान में ऊँची तथा
पूर्व एवं वायव्य में नीची ब्रह्मघ्न नामक भूमि सर्वथा त्याज्य है।
१२. स्थावर भूमि- आग्नेय में ऊँची और नैऋत्य,वायव्य तथा ईशान में नीची स्थावर नामक
भूमि स्थायित्व प्रदान करती है,यानी शुभ है।
१३. स्थण्डिल भूमि- नैऋत्य में ऊँची और आग्नेय,वायव्य,ईशान में नीची स्थण्डिल भूमि
सर्वदा शुभ और वास योग्य होती है।
** शाण्डुल भूमि- ईशान में ऊँची,और वायव्य,आग्नेय एवं नैऋत्य में
नीची शाण्डुल वास्तु नामक भूमि अशुभ और त्याज्य है।-----000-----
क्रमशः...
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