अध्याय ग्यारह का शेषांश...आठ
निषिद्ध भूमि के सम्बन्ध में कुछ और भी बातें कहीं गयी
हैं।यथासम्भव इन पर ध्यान देना चाहिए।वास्तुरत्नाकर में कहा गया है-
स्फुटिता च सशल्या च वल्मीकाऽऽरोहिणी
तथा,
दूरतः परिहर्तव्या कर्तुरायुर्धनापहा।।
स्फुटिता मरणं कुर्यादूषरा धननाशिनी।
सशल्या क्लेशदा नित्यं विषमा शत्रुवर्धिनी।।
अर्थात्
फटी हुयी,शल्य(हड्डी आदि)से युक्त,दीमक वाली,ऊबड़-खाबड़ भूमि को दूर से ही त्याग
देना चाहिए।क्यों कि फटी हुयी भूमि मृत्युदायी,ऊसर(वंजर)भूमि धन नाशक,शल्य युक्ता
सर्वदा क्लेशकारी,ऊँची-नीची भूमि शत्रु को बढ़ाने वाली होती है।किन्तु व्यावहारिक
रुप से देखा जाय तो समुचित उपचार के बाद इन भूमियों को ग्रहण योग्य कहा जा सकता
है।
जीवित-मृत भूमि-
जिस भूमि पर वृक्ष हरे-भरे हों,उपजाऊ
हो,उसे जीवित (जागृत) भूमि समझना चाहिए।इसके विपरीत स्थिति को मृत वा सुप्त जाने। यथा-
यत्र वृक्षाः प्ररोहन्ति शस्यं
हर्षात्प्रवर्धते,
सा भूमिर्जीविता ज्ञेया मृता वाच्याऽन्यथा
बुधैः।। (वास्तुरत्नाकर
६३)
इस परीक्षण के कुछ और भी प्रयोग कहे गये हैं।यथा-
भूम्यक्षरं चतुर्गुण्यं तिथिवारं च
मिश्रितम्।
त्रिभिर्भागः प्रदातव्यः शेषेण फलमादिशेत्।।
एकेन जीविता भूमिर्द्विशेषे भूः समा भवेत्।
त्रिशेषे च मृता भूमिरित्युक्तं चादिजामले।। (वास्तुरत्नाकर-६४,६५)
ध्यातव्य
है कि इस परीक्षण का आधार परीक्षार्थी का प्रश्न है,जो प्रश्नज्योतिष के सिद्धान्त
पर काम कर रहा है।उक्त विधि में भूमि के नामाक्षर(प्रायः जमीनों का भी नाम होता
है)को चार से गुणा करके प्रश्नकाल के तिथि-वारादि को जोड़कर तीन से भाग देने पर एक
शेष बचे तो जीवित,दो बचे तो सम,तीन यानी शून्य शेष हो तो मृत जाने।
उक्त प्रसंग में ही वास्तुशास्त्री ने एक और
सूत्र सुझाय है,जो अपेक्षाकृत अधिक व्यावहारिक प्रतीत हो रहा है,क्यों कि इसमें
भूमि के नाम के बजाय भूक्रेता के नाम और भूमि के आकार को निर्णय का आधार बनाया गया
है। यथा- व्योमविस्तारयोरैक्यं ग्रामाक्षरसमन्वितम्।
चतुर्गुणं नामयुक्तं शिवनेत्रेण भाजितम्।।
एकेन जिविता भूमिर्द्वाभ्यां च समता भवेत्।
शून्यशेषे तु शून्यं स्यादित्युक्तं
रुद्रयामले।।(वास्तुरत्नाकर-६६-६७)
अर्थात्-
भूमि की लम्बाई और चौड़ाई के योग में ग्रामाक्षर का योग कर,चार से गुणा करके
गुणनफल में वासकर्ता के नामाक्षर को जोड़कर तीन से भाजित करे।एक शेष बचे तो जीविता
भूमि,दो शेष बचे तो सम,और तीन वा शून्य शेष में मृत वा सुप्त जाने।
एक अन्य प्रयोग-
कर्ताग्रामदिशश्चैव स्वरयुक्तं तु
कारयेत्।
बह्निभिस्तु हरेद्भागं शेषांङ्के
फलमादिशेत्।।
एके जागर्ति भूमिश्च द्वितीये समता गतिः।
तृतीये राक्षसी चैव मृत्युरेव न संशयः।।(वास्तुरत्नाकर-६८-६९)
अर्थात्- वासकर्ता के
नाम,ग्राम,दिशा के स्वरों(व्यंजन नहीं)के योग में तीन का भाग देकर शेषानुसार फल
बिचार करे।एक शेष हो तो जाग्रत,दो बचे तो सम,एवं तीन बचे तो मृत वा सुप्त जाने।
वास्तु-भूमि कैसी हो- पर विचार क्रम
में अबतक मुख्य रुप से भूमि की
ढलान,रंग,स्वाद,गन्ध,पार्श्व,आदि को आधार बना कर विचार किया गया।अभी एक अहम्
मानदंड-विचार शेष रह गया है,वह
है- आकृति।भूखण्ड के आकार (पिण्ड मापन नहीं) का भूमि-चयन में काफी महत्त्व
है।हालाकि आजकल यह विलकुल अव्यावहारिक सा हो गया है,विशेषकर शहरी सभ्यता में,जहाँ
आवंटन और निष्पादन ही अपने हाथ में नहीं है।या तो सरकार के अधीन है,या भूमाफिआओं
के अधीन।मनोनुकूल भूखंड की प्राप्ति ईश्वर-प्राप्ति जैसा हो गया है। फिर भी
यथासम्भव प्रयास तो अपना कर्त्तव्य है।
आकृति के विचार से भूमि के अनेक प्रकार हो
सकते हैं;किन्तु वास्तुशास्त्र में सोलह और दस के दो वर्ग विभाजन करके,कुल छब्बीस
प्रकार की विशेष चर्चा मिलती है। पहले वसिष्ठसंहितानुसार सोलह
प्रकार की भूमि पर दृष्टिपात करलें-
विस्तीर्णं समभागञ्च संस्थितम् परिकीर्तितम्,
चतुरस्रं चतुष्कोणं समभागं विभागतः।
वृत्तमेतत् समाख्यातं वास्तुलक्षणकोविदैः,
चतुर्भिर्विभजेत्
कोणैस्तद्वास्तुवृत्तमुच्यते।
आयतं चतुरस्रं च मध्यकोष्ठे भवेत् फलम्,
यदि वर्तुलपीताभं स्थानं भद्रासनं विदुः।
चक्रवक्रसमाकारे विजयं निम्नतोन्नतम्,
निम्नता चापकृष्टा च शक्रचापस्य कीर्तिता।
त्रिकोणं शकटाकारं तद्ववास्तुकृदिहोच्यते,
दीर्घदण्डमिति ख्यातं पवनं पवनात्मकम्।
मुरजं मुरजाकारं वृहन्मध्यं प्रकीर्तितम्,
अश्वत्थपर्णवत् कुम्भो धनुः
कोणाकृतिर्धनुः।
शूर्प शूर्पनिभं ज्ञेयं गृहं
गणितकोविदैः।।
(वसिष्ठसंहिता)
उक्त
आकृतियों के फल कथनः-
आयते सिद्ध्यस्सर्वाश्चतुरस्रे धनागमः,
वृत्ते तु बुद्धिवृद्धिः स्याद्भद्रं
भद्रासनं भवेत्।
चक्रे दारिद्र्यमित्याहुर्विषमे शोकलक्षणम्,
राजभीतिस्त्रिकोणे स्याच्छकटे तु धनक्षयः।
दण्डे पशुक्षयं प्राहुः शूर्पे वासे गवां
क्षयः,
कूर्म्मे ते बन्धनं पीड़ा धनुः क्षेत्रे
भयं महत्।
कुम्भाकारे कुष्ठरोगो भवत्येव न संशयः,
पवने नश्यति नेत्रं धनञ्च बन्धुक्षयो
मुरजे। (वास्तुरत्नावली)
भूखण्डाकृति-----प्रभाव(फल)
१.आयत---सर्वसिद्धिप्रद
२.समचतुर्भुज----धनागम
३.विषमचतुर्भुज---सामान्य शुभ
४.वर्गाकार---विशेष
शुभ
५.भद्रासन---कल्याणकारी
६.वृत्ताकार---बुद्धिदायक
७.चक्राकार---दरिद्रता
८.वक्राकार-----शोक
दायक
९.त्रिकोणाकार---राजभीति
१०. शकटाकार---धनक्षय.शकटाकार---धनक्षय
११.दण्डाकार---गोधननाशक
१२.धनुषाकार---महानभय
१३.व्यजनाकार----नेत्र
व धनक्षय
१४.कूर्माकार----बन्धन,पीड़ा
१५कुम्भाकार---कुष्ठव्याधि
१६.मुरज(वाद्य)---बन्धुक्षय
उक्त सोलह के अतिरिक्त अन्य दस आकृतियों की चर्चा वास्तुरत्नावली में मिलती
है।यथा-
१. नक्षत्राकार---अशुभ
२. त्रिशूलाकार---अशुभ
३. विहगाकार---अशुभ
४. षड्भुजाकार---धनदायक
५. अष्टभुजाकार----शोककारक
६. अण्डाकार---बुद्धिनाशक
७. अर्धवृत्ताकार---चौर एवं विकास विघ्न
८. ध्वजाकार---अतिशुभ
९. गोमुखाकार---वासार्थ शुभ,व्यवसायार्थ अशुभ
१०.व्याघ्रमुखाकार---वासार्थ अशुभ,व्यवसायार्थ शुभ
क्रमशः....अगले पोस्ट में...
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