अध्याय ग्यारह का शेषांश नौ....
क्रमशः....
दिव्य ज्योतिर्विद वाराहमिहिर ने कुल उक्त
छब्बीसों भूमि-स्वरुपों की चर्चा की है।अब उक्त सभी आकृतियों की सचित्र व्याख्या
प्रस्तुत है-
१.आयताकार भूखण्ड दो प्रकार का होता है- समायत
और विषमायत। ये दोनों ही चतुर्भुज हैं- चार भुजायें हैं,चार कोण भी हैं;किन्तु कोणों
की समानता आवश्यक नहीं है।कोणों की विषमता ही दोनों में भेद करता है। तदनुसार फल
भेद भी स्वाभाविक है।इसमें थोड़े ही अन्तर से दो नयी संज्ञायें हो जाती हैं- सम
चतुर्भुज और विषम चतुर्भुज।सम का परिणाम उत्तम और विषम का परिणाम अपेक्षाकृत अधम(न्यून)
है।विषम चतुर्भुज में विशेष विचारणीय हो जाता कि किस कोण की वृद्धि हुयी है।यानी चारों
कोणों के अलग-अलग वृद्धि के परिणाम विलकुल ही अलग होंगे।यूँ तो कोई भी कोण-वृद्धि
उचित नहीं हैं,फिर भी अपेक्षाकृत न्यूनाधिक गुण-दोष का नियम लागू होगा ही।इसे
तत्वनिरुपण के आधार पर सहजता से समझा जा सकता है। इस प्रकार आयताकार का ही भेद हो
गया- २.समचतुर्भुज और ३.विषमचतुर्भुज।तदनुसार ही क्रमशः तीनों का फलान्तर हुआ- १.सर्वसिद्धप्रद,२.धनागम,३.सामान्य
शुभ।
इसी भांति ४.वर्गाकार और ५.भद्रासन में भी समानता
है,फिर भी असमानता है-भुजायें समान हैं।कोण भी समान हैं।अन्तर यह है कि मध्य समतल
हो तो वर्गाकार ही भद्रासन भूमि हो जाता है।तल में विषमता हो तो सिर्फ वर्गाकार
कहलायेगा।वर्गाकार तुलनात्मक रुप से अधिक उत्तम है।
अब,
६.वृत्ताकार की बात करते हैं।इस प्रकार की भूमि अति शुभ होती है, किन्तु शर्त
है कि निर्माण कार्य भी वृत्ताकार ही हो।यदि इस नियम की अवहेलना करेंगे तो शुभ
को अशुभ में बदलते देर नहीं लगेगी।इस प्रकार की भूमि आवास और व्यवसाय दोनों दृष्टि
से शुभ है।
७.चक्राकार- चक्राकार भूमि सीधे गाड़ी के चक्के
की तरह न होकर सुदर्शन चक्र की तरह होता है।यही कारण है कि कर्तन ही इसका
स्वभाव बन जाता है,और कर्तन भी विशेष कर धन का ही ।इस प्रकार स्वामी को दरिद्रता
की गर्त में ढकेल देता है।अतः ऐसी भूमि पर भूल से भी वास नहीं करना चाहिए;किन्तु यदि
इसका उपयोग सिर्फ व्यावसायिक रुप से किया जाय तो वह स्वामी (व्यवसायी)को उन्नति के
शिखर पर चढ़ा देता है,यानी तीब्रता से ग्राहकों का आकर्षण और कर्तन करता है।
८.वक्राकार को विकृत आकार कहने में दो राय
नहीं।ऐसी भूमि किसी भी प्रकार के निर्माण कार्य के योग्य नहीं कही जा सकती।यह
रोग,शोक,दारिद्र सब को आहूत करता है।
९.त्रिकोणाकर भूमि की तीन भुजायें,आकृति
भिन्नता से कोणों की भिन्नता लिये हुए होती हैं,जिनका फल एक सा ही है-
उर्ध्व,अधो,पार्श्व आदि का कोई खास अन्तर नहीं- सबका परिणाम है-त्रिकोणे
राजभीतिःस्यात्-राजभीति,जेल यात्रा,नाना विध दंड, अशान्ति,शोक आदि।
१०.शकटाकार यानी गाड़ी (खासकर बैलगाड़ी) के
आकार का भूखण्ड वास के योग्य कदापि नहीं है।धननाश के अनेक दरवाजे खोलता है ऐसा
भूखण्ड।
११.दण्डाकार यानी जिस भूखण्ड की लम्बाई बहुत
ज्यादा हो,चौड़ाई की तुलना में,जो सीधे डंडे की तरह प्रतीत हो, ऐसी भूमि पशुधन का
नाश कराने वाली होती है।लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि जिसे गाय-भैंस नहीं रखना
है,उसके लिए लाभदायक हो जायेगा।
१२.धनुषाकार और १३.अर्द्धवृत्ताकार भूआकृतियों
थोड़ी असमानता है।दोनों में अर्द्धवृत्त की प्रधानता है,किन्तु धनुषाकार का
अर्द्धवृत्त अपने मध्य भाग में भीतर की ओर थोड़ा दबा हुआ होता है।दोनों के वासफल
में किंचिंत अन्तर है- धनुषा कार भूमि पर वास करने से नानाविध भय की आशंका बनी
रहती है,एवं अर्द्धवृ- त्ताकार भूमि पर वास करने से चोरी-डकैती का विशेष भय रहता
है,साथ ही विकास वाधित होता है।
१४.व्यजनाकार(पंखे का आकार)भूमि ठीक, हाथ से
झलने वाले पंखे की तरह होती है।ऐसी भूमि में वास करने से धन हानि और नेत्रकष्ट
झेलना पड़ता है।
१५.कूर्माकार यानी कछुए की तरह-
पेट,गर्दन,सिर,पैर आदि अंगाकृति युक्त भूमि निर्माण कार्य के लिए अशुभ कही गयी है;किन्तु
ध्यातव्य है कि कूर्माकार और कूर्मपृष्ठ में आसमान-जमीन का फर्क है,दोनों दो बातें
हैं।कूर्मपृष्ठ भूमि अति शुभ है वास के लिए।यथा-
वास्तुरत्नावली की उक्ति है-
मध्येऽत्युच्चं भवेत्यत्र नीचं चैव
चतुर्दिशम्, कूर्मपृष्ठा भवेद्तत्र वासं विधीयते।
कूर्मपृष्ठे भवेद्वासो
नित्योत्साहसुखप्रदः,धनधान्यं भवेत्तस्य निश्चितं विपुलं धनम्।।
१६.कुम्भाकार भूमि वृत्ताकार से किंचित भिन्न
है- इसमें ग्रीवा और मुख भाग संयुक्त है- वृत्त से।घड़े के तीन भाग होते हैं- उदर,ग्रीवा
और मुख,जबकि वृत्त में सिर्फ उदरप्रान्त ही है।अतः वृत्त शुभ है और घट अशुभ।इस
श्रेणी में कलश, सुराही,मटका,घड़ा सभी को ग्रहण किया गया है।ऐसी भूमि में वास करने
से कुष्ठ-व्याधि का खतरा रहता है।अतः त्याज्य है ऐसी भूमि।
१७.मुरजाकार यानी मृदंग,ढोलक के आकार वाली
भूमि "मुरजे तु बन्धु क्षयः" आदेशानुसार वासयोग्य नहीं है।
१८.तारकाकार(नक्षत्र,तारे) भूमि अनेक भुजाओं
वाली होने के कारण मिश्रत प्रभाव वाली होती हैं।वास्तु के विचार से ऐसी भूमि
वासयोग्य नहीं है।
१९.त्रिशूलाकार यानी शिव के आयुध के आकार वाली
भूमि वासयोग्य नहीं है,भले ही त्रिशूल शुभ और रक्षा का प्रतीक है।धातु के बने
त्रिशूल का उपयोग वास्तुकार्य में रक्षार्थ किया जाता है,किन्तु इस आकार की भूमि
त्याज्य है।
२०.विहगमुखी(पक्षीमुखी) भूमि में कई खण्ड होते
हैं- कुछ-कुछ कूर्माकार की तरह ही। उदर,ग्रीवा,मुख,पाद,पुच्छ एवं पक्ष।इस तरह की
भूमि वासयोग्य नहीं कही गयी है।इसमें भी विशेष कर 'पक्षीमुख'
शब्द पर जोर है-यानी उसके मुखाकृति वाला खण्ड विशेष त्याज्य है।
२१.गोमुख,और २२.व्याघ्रमुख(सिंहमुख) भूमि
विलकुल एक ही है,अन्तर सिर्फ प्रवेश की स्थिति(दिशा) से किया जाता है।ध्यातव्य है
कि गाय का मुंह आगे छोटा और भीतर बड़ा होता जाता है,जब कि बाघ वा सिंह का मुख ठीक
इसके विपरीत स्थिति में होता है- आगे ही बड़ा और पीछे छोटा।इस प्रकार
प्रवेश(द्वार)भेद है सिर्फ।द्वार-भेद के अनुसार ही इनका परिणाम-भेद भी है।
वास्तुशास्त्र मर्मज्ञों ने गोमुख को आवास के लिए और व्याघ्रमुख को व्यापार के
लिए उत्तम कहा है।ध्यातव्य है कि यह दो कार्यों के लिए दो आदेश हैं।अब
यदि हम नीचे सड़क पर दुकान और ऊपर आवास रखना चाहें तो क्या यह उचित होगा?आये दिन
यह सवाल उठता है। इस विषय पर वास्तुशास्त्रियों का स्पष्ट मत मैंने अभी तक कहीं
पाया नहीं है।वैसे, शास्त्र अगाध है।जहां तक मेरी राय है- मैं इसे उचित नहीं
समझता।मेरे विचार से ये दोनों भूखण्ड दोषपूर्ण हैं।वैसे ही जैसे- सिर में उभर आये
ट्यूमर- एक आगे है,जो दीख रहा है दूसरों
को,और एक पीछे है,जिसे हम टोपी,पगड़ी आदि से ढक लेते हैं।किन्तु ट्यूमर तो ट्यूमर
है- कैंसर हो सकता है।आगे-पीछे से कोई फर्क नहीं पड़ना है।
२३.षडभुजाकार,२४.अष्टभुजाकार, (तथा अन्य-
पंचभुजा,सप्तभुजा,नौभुजा..)ये सभी प्रकार की भूआकृति, ध्यातव्य है कि सर्वश्रेष्ठ-
चारभुजा से अपेक्षाकृत या क्रमशः अशुभ होते गयी हैं।यानी चार से पांच का गुण न्यून
है,पांच से छः का,छः से सात का,सात से आठ का... आदि।उधर चार से नीचे तीन भुजा भी
त्याज्य ही है। विषमे शोक लक्षणम् के
अनुसार सभी त्याज्य ही हैं।किन्तु आमने-सामने की भुजाओं और कोणों का भली-भांति
निरीक्षण-परीक्षण करके यथासम्भव समानता लाकर इन्हें उपयोगी बनाया जा सकता है।
२५.अण्डाकार भूमि को वृत्ताकार भूमि के गुण से
ठीक विपरीत माना गया है।वृत्ताकार बुद्धिदायी है,तो अण्डाकार बुद्धिनाशक।अतः भवन
निर्माण कार्य में इसका त्याग करना चाहिए।
२६.ध्वजाकार- ध्वज शान का प्रतीक है,इसलिए
ध्वजाकार भूमि को यशदायी माना गया है।गौरतलब है कि ध्वज और पंखा में अन्तर है।पंखाकार
भूमि धननाशक है,जबकि ध्वजाकार यश और धन-वर्धक।
इस प्रकार विभिन्न भूआकृतियों की चर्चा की गयी।आगे, इन्हें चित्रों
के माध्यम से स्पष्ट किया जा रहा है।इन वर्णित आकृतियों के अतिरिक्त भी कई रुप
मिलते हैं।बुद्धिमान वास्तुकार को वर्णित आकृतियों के आलोक में हीं अन्य आकारों का
परिणाम(प्रभाव) विचार करना चाहिए।क्रमशः....
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