अध्याय ग्यारह का शेषांश ग्यारह...
अब यहां आकृति से ही सम्बन्धित एक और महत्त्वपूर्ण बात पर विचार किया जा रहा हैः-
भूखण्ड विस्तार-(प्रलम्ब
ऊपर के चित्र में भूमि-प्रलम्ब(विस्तार)
को चित्रांक क और ख में दर्शाया गया है।इन दोनों चित्रों को गौर से देखने पर हम
पाते हैं कि भूमि-विस्तार की क्रमशः आठ और आठ यानी सोलह स्थितियां बन रही हैं-
चित्रांक क में प्रत्येक दिशा-विदिशा (पू.प.उ.द.ई.अ.नै.वा.)में विदिशा से दिशा की
ओर विस्तार का क्रम है, तथा चित्रांक ख में दिशा से विदिशा की ओर विस्तार की
स्थिति है।इन सोलह स्थितियों को अलग-अलग सोलह चित्रों में न दिखलाकर सुविधा के लिए
एक ही जगह क्रमांकों और रंगों के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।आशा
है इससे पाठकों को किसी प्रकार की असुविधा न होगी। हम देखते हैं कि सामान्य विचार
से इनमें बहुत अन्तर नहीं प्रतीत होता,क्यों कि कोई सीधे यही कहेगा कि अमुख दिशा
का विस्तार हुआ है,और उस दिशा के प्रलम्ब-परिणाम पर विचार करते हुए ग्रहण
या त्याग का निर्णय ले लेगा; किन्तु गहराई से विचार करने पर हम पायेंगे कि
चित्रांक क और ख के परिणाम भले ही समान हों,प्रभाव की समानता कदापि
नहीं हो सकती।इसे यूँ समझें- वास्तुशास्त्र का आदेश है कि कोई भी प्रलम्ब उचित
नहीं है,सिवाय ईशान के,जिसके लिए तर्क है कि स्थायी(स्थिर)वास्तु में वास्तुदेव का
सिर ईशान में होता है।सिर की दिशा में वृद्धि का परिणाम है- बौद्धिक विकास,अतः यह
विस्तार ग्राह्य कहा गया।शेष किसी भी दिशा-विदिशा का प्रलम्ब किसी न किसी रुप में
हानिकारक ही है।यथा- अग्नि कोण का प्रलम्ब यानी अग्नि तत्त्व का असंतुलित
होना।इसके परिणाम स्वरुप मानसिक तनाव,रक्तचाप,आदि की वृद्धि हो सकती है।नैऋत्य कोण
का प्रलम्ब और भी घातक है।राक्षसी वाधा,प्रेत वाधा,अपमान,लड़ाई-झगड़े,धन-हानि,यहां तक कि मृत्युकारक भी हो सकता है।
अब यहां आकृति से ही सम्बन्धित एक और महत्त्वपूर्ण बात पर विचार किया जा रहा हैः-
भूखण्ड विस्तार-(प्रलम्ब

इस प्रकार,विकास और ग्राह्यता का यह सिद्धान्त
स्पष्ट हो गया,किन्तु प्रभाव का मूल्यांकन करेगें तो पायेंगे कि चित्रांक क
की अपेक्षा चित्रांक ख में विस्तार का बल अधिक मिल रहा है,इसी भांति सभी
दिशा-विदिशा में क की अपेक्षा ख का प्रभाव अधिक है- यह प्रभाव शुभ-अशुभ दोनों
स्थिति में समान है,यानी चित्रांक क का अग्नि विस्तार जितना अशुभ है,उसकी तुलना में
चित्रांक ख का अग्नि विस्तार अधिक अशुभ होगा।इसी भांति सभी दिशा-विदिशा का प्रभाव
समझना चाहिए।
अतः उचित यह है कि किसी भी प्रकार के प्रलम्ब
से बचा जाय।इसे हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ईशान के प्रलम्ब को ग्राह्य
कहना- बुरे में अपेक्षाकृत कम बुरे का चुनाव करना,या कहें बुरे के बीच से थोड़ा
अच्छा चुन लेना मात्र है।
आगे
के चित्रांक ग में चारो दिशाओं में दो-दो के हिसाब से आठ प्रकार के प्रलम्ब
की सम्भावना व्यक्त की गयी है।ग्रहण और त्याग का पुराना सिद्धान्त ही यहाँ भी
मान्य होगा,यानी चित्रांक ग में क्रमांक 8 और 7 ही ग्राह्य होंगें,शेष
त्याज्य हैं।
अब चित्रांक घ की बात करते हैं।यहाँ
भी वही बात होगी।ईशान अपेक्षाकृत सर्वाधिक बलवान है- क,ख,ग की तुलना में।अतः इसे
ग्रहण करेंगे,शेष का त्याग करना होगा।ठीक इसी तरह चित्रांक घ क्रमांक 2 का
प्रलम्ब सर्वाधिक अशुभ माना जायेगा।
अब अगले चित्रांक च और छ पर विचार करें- चित्रांक
च में क्रमांक 9,10, 11 ही सिर्फ ग्रहण योग्य कहे जा सकते हैं,शेष अग्राह्य
हैं।क्रमांक 12 विशेष परिस्थित में ग्रहण किया जा सकता है।क्रमांक 11 से आंशिक
समानता है(पूरब का बल) इसी कारण से इसे भी नीले रंग से समानता दिखलायी गई है।
ध्यातव्य है कि क्रमांक 3-4 जो काले रंगों में दिखलाया गया है- सर्वाधिक अशुभ
प्रलम्ब है।इसे भूल कर भी ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए।
चित्रांक छ में हम देखते हैं कि चारो दिशाओं में
भूखण्ड का प्रलम्ब दिखलाया गया है क्रमांक 1,2,3,4 से।पुनः याद दिला दें कि किसी
भी चित्रांक में सम्मिलित रुप से कई स्थितियां सुविधा के लिए एकत्र दिखला दी गई
हैं। पाठक इसे विलकुल अलग-अलग और स्वतन्त्र भूखण्ड की स्थितियां मान कर ही विचार
करें।ऐसा न समझ लें कि एक ही भूखण्ड पर इतने सारे प्रलम्ब हैं। अस्तु।प्रलम्ब के
इस अन्तिम चित्रांक छ में हम पाते हैं कि किसी भी दिशा में आद्योपान्त विस्तार
है,जैसे पूर्ब दिशा में ईशान से लेकर अग्नि पर्यन्त,दक्षिण दिशा में अग्नि से लेकर
नैऋत्य पर्यन्त।इसी भांति अन्य दोनों दिशाओं में भी विस्तार है।
ऊपर वर्णित क,ख,ग,घ,च,छ चित्रांकों के अतिरिक्त
भी प्रलम्ब की बहुत सी स्थितियाँ हो सकती हैं।वास्तुविशेषज्ञों को इस पर गहराई से
विचार करना चाहिए।
प्रलम्ब के सम्बन्ध में ऊपर जितना भी वर्णन किया
गया उसमें अपेक्षाकृत सबसे अधिक उत्तम
प्रलम्ब दीख पड़ता है- चित्रांक छ में,क्यों कि कोई भी हिस्सा
खंडित-बाधित नहीं है।पूरा का पूरा विस्तार है,चाहे जिस किसी भी दिशा में हो।अतः इस
विस्तार को विस्तार दोष से मुक्त रखने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।फिर भी यहां
कुछ अति महत्त्वपूर्ण बातों पर ध्यान देना आवश्यक है-
1.
वास्तु-विस्तार प्रसंग में(इस पर आगे के अध्याय में विशेष चर्चा होगी)
कहा गया है कि पूर्ब और उत्तर का विस्तार लाभप्रद है,शेष दो दिशायें- पश्चिम और
दक्षिण का विस्तार अशुभ है।इस प्रकार पूरब और उत्तर के प्रलम्ब क्रमांक 1 और 4 को
निःसंकोच ग्रहण करना चाहिए।तथा क्रमांक 2 कदापि ग्रहण न करें।हां, क्रमांक
3(पश्चिम) विशेष निरीक्षण-परीक्षण से ग्राह्य हो सकता है,किन्तु इसके लिए
तात्कालिक भूस्वामी के कुण्डली विचार का सहयोग लेना भी आवश्यक है।
2.
विस्तार का यह विचार आप कब कर रहे हैं- खाली भूखण्ड पर या कि मूल
भूखण्ड पर मकान पहले से बना हुआ है,और आगे प्रलम्ब का लाभ लेना चाहते हैं? ध्यातव्य
है कि ये दोनों भिन्न स्थितियाँ हैं।मूल भूखंड और प्रलम्ब खंड दोनों खाली है,तब तो
सिर्फ मंडल दीर्घ-विस्तार,आय-व्ययादि,तथा वेध विचार करके किसी भी दिशा के प्रलम्ब
को ग्रहण किया जा सकता है।ऐसी स्थिति में दक्षिण को भी सर्वथा त्याज्य नहीं कह
सकते।हां,सिर्फ इतना अवश्य करना होगा कि दोनों खंडों(बडे और छोटे)की अलग-अलग
परीक्षा करनी होगी।फिर दोनों को एक पिंड बना कर सभी परीक्षण किये जायेंगे।दोनों
भूखंडों के पूर्व स्वामी यदि दो हैं,तो बात और महत्त्वपूर्ण हो जायेगी।छानबीन और
गहरी करनी होगी।
3.
तीसरी बात प्रलम्ब के सम्बन्ध में सर्वाधिक चिन्तनीय है कि पुराने बने
हुए मकान को प्रलम्बित भूखण्ड से जोड़ रहे हैं यदि, तो स्पष्ट है कि पुराने वास्तुमंडल
के सारे खूंटे कम्पित हो रहे हैं। पहले(गत निर्माण-समय) आपने भवन को जितना
भी बल दिया था,वे सबके सब प्रभावित हो रहे हैं।अब गहराई से विचार करना है कि
वास्तु पुरूष का कौन का अंग,कौन सा मर्म,कौन सा तत्त्व,कौन की दिशा-विदिशा,कौन से
ग्रह,कौन से देवता इस नये प्रलम्ब से प्रभावित हो रहे हैं।और हो रहे हैं तो कितना
हो रहे हैं?
कहने का तात्पर्य यह है कि प्रलम्ब गम्भीरता पूर्वक विचारणीय
है।इसमें जरा भी लापरवाही नहीं वरतनी चाहिए।अन्यथा लाभ कम हानि की अधिक आशंका
है।इस नियम के अवहेलकों की दुर्दशा मैं कई बार देख चुका हूँ।धन-मान की क्षति,और
रोग-व्याधि तक तो थोड़ा सह्य है,किन्तु इससे भी आगे- विक्षिप्तता,पागलपन,उच्चाटन
और मृत्यु- कुछ भी झेलना पड़ सकता है।
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क्रमशः...
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