पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-27

अध्याय ग्यारह का शेषांश बारह..

भूखण्ड का संकोच(कटान)-
    
 भूखण्ड के प्रलम्ब के ठीक विपरीत स्थिति, या कहें प्रलम्ब से भी अधिक विचारणीय है- भूखण्ड का संकोच वा कटान।जिस प्रकार प्रलम्ब की अनेक स्थितियाँ होती हैं वैसे ही संकोच(कटान)की भी अनेक स्थितियाँ हो सकती हैं। इसका परिणाम और प्रभाव क्या-कितना होगा- गहन अध्ययन का विषय है। ठीक वैसे ही जैसे, मान लिया कि किसी मनुष्य के एक हांथ में पांच के वजाय छः या सात अंगुलियां हैं,और एक ऐसा भी मनुष्य है जिसके हांथ की एक या दो अंगुलियां कटी हुयी हैं,या एक हाथ पूरा का पूरा कटा हुआ है,या एक आँख या एक कान नहीं है।ऐसी स्थिति में उसके 'अभाव' का क्या प्रभाव होगा उस मनुष्य पर- अति विचारणीय है।
यहाँ कुछ चित्रों के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा हैः-चित्रांक क ख ग में ईशान और नैऋत्य के संकोच(कटान) को अलग-अलग क्रमांकों में दिखलाया गया है।दोनों कोणों की कुल दश-दश संभावित स्थितियाँ दिखलायी गयी हैं।इसके अतिरिक्त भी अनेक स्थितियाँ हो सकती हैं।ठीक इसी भांति अग्नि और वायु का कटान भी अनेक प्रकार का हो सकता है।


इन्हीं तथ्यों को कुछ और चित्रों के माध्यम से स्पष्ट करने का प्रयास किया जा रहा हैः-


  
चित्रांक दो में चारो दिशाओं के कटान को भी दिखलाया गया है।कटान की कोई भी स्थिति अशुभ ही होगी,भले ही प्रभाव(मात्रा)न्यूनाधिक हो।

   इस सम्बन्ध में आचार्य वाराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ वृहत्संहिता में स्पष्ट कहा है कि ईशान में शिर किये अधोमुख वाम करवट लेटे हुए वास्तुपुरूष का जो अंग संकोच-प्रभाव-ग्रस्त होगा,तदनुसार वास्तुमंडल में दोष उत्पन्न होगा, जिसका दुष्परिणाम गृहस्वामी को भोगना पड़ेगा।यथा-
          दक्षिणभुजेन हीने वास्तुनरेऽर्थक्षयोऽङ्गनादोषाः।
    वामेऽर्थधान्यहानिःशिरसि गुणैर्हीयते सर्वैः।।
    स्त्रीदोषाः सुतमरणं प्रेष्यत्वं चापि चरणवैकल्ये।
    अविकलपुरूषे वसतां मानार्थयुतानि सौख्यानि।। (वास्तुविद्याध्याय-६५-६६)
अर्थात् दक्षिण भुजा-हीन वास्तुपुरूष(भूखण्ड)धन हानि और स्त्रीदोष उत्पादक है। वाम भुजा-हीन वास्तु धन-धान्यादि की हानि कराता है।सिर से हीन वास्तु स्त्री-दोष,पुत्र-नाश(मृत्यु या अभाव)के साथ-साथ गुलामी और बन्धन दायक है।
    पुनः इन्हीं तथ्यों पर अन्य मत से भी विचार कर लें-
१.     ईशान कोण में उत्तर दिशा का संकोच(कटान)निर्धनता,शत्रुता,विवाद और कलह पैदा करता है।
२.    पूर्व दिशा से हीन(वाधित) भूखण्ड गरीबी,अशान्ति,स्त्री-दोष,व्यापार-हानि का कारक है।
३.    ईशान से प्रारम्भ होकर,पूर्व दिशा से अग्नि पर्यन्त की हीनता(ऊपर का चित्रांक- भू संकोच की आठ स्थितियां-क्रमांक 3)एक नजर ऐसा प्रतीत होता है कि इस कटान से ईशान-वृद्धि हो रही है- यानी शुभद है,किन्तु गौर करने की बात है कि कटान की मात्रा पूर्व दिशा को अत्यधिक वाधित कर रहा है,जिसके परिणाम स्वरुप वास्तु परुष की दक्षिण भुजा का क्षय हो रहा है।अतः धन-हानि,व्यापार हानि,स्त्री-दोष का कारक बनना स्वाभाविक है।
४.   दक्षिण दिशा में अग्नि कोण पर कटान अशान्ति,विश्वासघात,धन-नाश, आदि विषम स्थितयाँ पैदा करेगा।
५.   नैऋत्य कोण में पश्चिम का कटाव पृथ्वी तत्त्व को वाधित कर रहा है।यहां वास्तुपुरूष का दोनों पैर है,जो स्थिरता का भी प्रतीक है।किसी व्यक्ति का पैर काट दिया जाय तो लड़खड़ाकर गिरना स्वाभाविक है।अतः इस संकोच का परिणाम होता है- पदच्युति,राजभय,विकाश-अवरोध आदि।
६.    भूखण्ड पर नैऋत्य से दक्षिण पर्यन्त का संकोच असफलता,वाद-विवाद, कलह तो देगा ही;चूंकि यह स्थान पिता का है – अतः विपरीत क्रिया स्वरुप पुत्र को प्रभावित करेगा- संतति-हानि होगी।
७.   वास्तुमंडल के पश्चिम दिशा में वायव्य कोण का संकोच शरीर गत वायु तत्व को असंतुलित कर देगा।आरोग्यशास्त्र का कथन है- कफः पंगु,पितः पंगु,   पंगवो मलधातवः।वायुना यत्र नीयन्ते,तत्र वर्षन्ति मेघवत्।। अर्थात् वायु ही वह प्रधान तत्व है जो कफ-पित्तादि को नियंत्रित और चलायमान करता है।इसका असंतुलन नाना रोगों का जनक बन जायेगा,जिसके परिणाण स्वरुप भवन में वास करने वाले लोग सदा परेशान रहेंगे।आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा चिकित्सा में व्यय होगा,ऐसी स्थिति में आर्थिक असंतुलन भी सदा बना रहेगा।
८.    भूखंड में अर्ध पश्चिम से वायव्य,उत्तर,ईशान पर्यन्त(क्रमांक 8) में कटान से ईशान-वृद्धि- गुण-लाभ के कारण किंचित शुभत्व झलकता है।किन्तु इससे भी परहेज ही करें तो उत्तम है।
     इस प्रकार हम देखते हैं कि वास्तुपुरूष की किसी प्रकार की विकलता (हीनता)(कटान)अशुभ ही है।वास्तुपुरूष के सर्वांग-ज्ञान हेतु पिछले प्रसंग में दिए गये वास्तुपुरूष-अंगविन्यास का अवलोकन करना चाहिए।
                        ----000---
क्रमशः....

Comments