पुण्यार्कवास्तुमंजूषा-28

अध्याय ग्यारह का शेषांश तेरह...

भूखण्ड पर वेध-विचारः-

भवन-निर्माणार्थ भूखण्ड-चयन-क्रम में विभिन्न प्रकार के वेधों का भी विचार करना आवश्यक है।सूर्यवेध शब्द से सामान्य जन भी प्रायः परिचित हैं,जब कि अन्यान्य वेधों से अनभिज्ञ।अतः विचार से पूर्व प्रकार को ही जान लिया जायः-
१.     सूर्यवेध- भूखंड की लम्बाई पूरब से पश्चिम की ओर अधिक हो उत्तर से दक्षिण की अपेक्षा,तो इसे सूर्यवेध दोष युक्त कहा जायेगा।भवन निर्माण के लिए ऐसा भूखण्ड ग्राह्य नहीं है।इसके परिणाम स्वरुप प्रत्यक्षतः सौरऊर्जा का अभाव दीखता है,किन्तु अप्रत्यक्षतः सर्वविध-विकास में वाधक है।उचित है कि ऐसे भूखण्ड पर पूर्ब की ओर अधिक भाग रिक्त छोड़कर अनुकूल निर्माण किया जाय।
२.   चन्द्रवेध- सूर्यवेध के ठीक विपरीत होता है चन्द्रवेध- यानी उत्तर-दक्षिण अधिक हो,पूर्व-पश्चिम की तुलना में। भवन-निर्माण के लिए इसे उत्तम कहा है।जबकि जलाशय-निर्माण के लिए त्याज्य है। यदि ऐसे भूखण्ड पर जलाशय (तालाब,वापी) निर्माण करना हो तो अनुकूल सुधार कर ही करना चाहिए।नीचे के चित्र में दोनों वेधों को एकत्र दिखलाया गया है-
पूर्वपश्चिमतो दैर्घ्यं,सपादं दक्षिणोत्तरम्।शुभावहं चन्द्रविद्धं,सूर्यविद्धं न शोभनम्।।
गेहे ग्रामे तथा क्षेत्रे तड़ागाराम भूमिषु।
चन्द्रविद्धस्तु कर्तव्य सौरः कोष्ठाग्निजीविनाम्।।
चन्द्रविद्धं गृहं कुर्यात्सूर्यविद्धो जलाशयः।

वाटिकातूभयोविद्धादेवागारं तु वर्तुलम्।।



    ३.ध्वजावेध-किसी देवस्थल के गुम्बज,ध्वज आदि की छाया भवन पर यदि पड़ती हो, तो इसे ध्वजावेध कहते हैं।शिवपुराण में कहा गया है कि देवस्थल से सौ हाथ पर्यन्त गृहस्थ को वास नहीं करना चाहिए।पुनः अलग-अलग देवस्थलों की सीमा और पार्श्व का भी निर्धारण किया गया है। वृहद्वास्तुमाला में स्पष्ट कहा गया है- पार्श्वे कस्य हरे रवीशपुरतो जैनानु चण्ड्या क्वचित...ब्रह्मा के मन्दिर के बगल में,शिव और विष्णु मंदिर के सामने,जैन मन्दिर के पीछे एवं देवी मन्दिर के आसपास किसी भी दिशा में वास नहीं करना चाहिए।इसकी विशेष चर्चा भूमि-चयन प्रसंग में पहले भी की जा चुकी है।
    ४.वृक्षवेध- मकान के प्रवेश द्वार के सामने किसी वृक्ष का होना भी वेधदोष उत्पन्न करता है।अलग-अलग वृक्षों के वेध के प्रभाव भी अलग-अलग है।यथा-
·       पलाश का वृक्ष हो तो गृहस्वामी को हमेशा पराजय का मुख देखना पड़ता है।
·       इमली का वृक्ष हो तो अकस्मात मृत्यु का योग बनता है।
·       उदुम्बर(गूलर)का वृक्ष हो तो नेत्ररोग पैदा करता है।
·       पीपल का वृक्ष हो तो भूत-प्रेत वाधाओं को आहूत करता है।अकारण भय की स्थिति बनी रहती है।
·       दूध वाले(महुआ,वट,स्नूही,आक,मदार)वृक्ष धननाश और शत्रु-वर्धन कारक हैं।
·       कांटेदार वृक्ष(वेर,बबूल आदि)शत्रु-वर्धन करते हैं।
·       सेमल(शाल्मली)का वृक्ष सीधे यम का प्रतीक है।इसका प्रातः दर्शन भी हानि कारक है।
उक्त सिद्धान्तों के अतिरिक्त, दिशा-भेद पर वृक्ष-भेद का शुभाशुभत्व निर्भर करता है।इसकी चर्चा आगे वृक्षादि विचार क्रम में(सतरहवें अध्याय) किया जायेगा।
५.आकृतिवेध- भूखंड की आकृति पर विस्तृत चर्चा गत प्रसंग में हो चुकी है।अशुभ आकृति ही आकृति वेध(दोष)कहलाता है।
६.समवेध- भवन के भूमंजिल के समतुल्य ही ऊपरी मंजिल का निर्माण समवेध कहलाता है,जो विकास वाधित कर विनाश का कारण बनता है। नियम है कि ऊपरी मंजिल की ऊँचाई निचली मंजिल से  भाग कम होना चाहिए।
७.दिशावेध- संदिग्ध दिशा(दिशा का शोधन किये वगैर),और अप्रसस्त दिशा में भवन नहीं बनाना चाहिए।इसकी चर्चा दिशा विचार में पहले ही की जा चकी है।
८.कोणवेध- इसकी चर्चा भी प्लवत्व और संकोच वर्णन क्रम में की जा चुकी है।
    ९.द्वारवेध- भवन के प्रवेश द्वार पर समीप में स्थित कई चीजें अपने-अपने              ढंग से वेध उत्पन्न करती हैं।इस सूची में कई प्रकार के वेध आजाते हैं। यथा-
v वृक्षवेध- इसकी चर्चा अभी इसी प्रसंग में की गयी है।
v कीलवेध- मुख्य द्वार के सामने पशु बांधने का खूंटा एक प्रकार का वेध ही है।वह मुख्य द्वार के किस खंड में,और किस काष्ठ का है,इस पर भी उसका प्रभाव निर्भर करता है।आजकल लोग सुविधा के लिए पुराने टायरों को मिट्टी में आधा दबाकर शेष ऊपरी भाग को पशु बांधने केलिए उपयोग करते हैं।यह सीधे राहु-शनि को आमंत्रित करने के तुल्य है।घर से निकलते समय गौ का दर्शन-स्पर्शन अति शुभ है,किन्तु उसके खूंटे का विचार भी जरुरी है।आम का खूंटा भले ही बहुत टिकाऊ नहीं होता,फिर भी सर्वाधिक शुभ है।लोहे आदि धातुओं का खूंटा भी अति अशुभ ही है।बांस का खूंटा मजबूत और टिकाऊ तो होता है,पर वंश के लिए घातक है।संतति को रोगी बनाता है।कीलवेध अग्नि भय भी उत्पन्न करता है,खास कर यदि अग्निकोण में हो।
v स्तम्भवेध- मुख्य द्वार के सामने विजली,टेलीफोन आदि का खंभा बहुत ही हानिकारक है।ट्रान्सफर्मर तो और भी घातक है।अन्य प्रकार के स्तम्भ(सीमेंट या लकड़ी)भी दासत्व और स्त्रीरोग-कारक होते हैं।
v चैत्यवेध- मुख्यद्वार के सामने छोटा या बड़ा चबूतरा प्रायः लोग बनवा देते हैं- बैठकी के लिए,जो कि अति हानिकारक है।इसके दुष्प्रभाव से गृहस्वामी की असामयिक मौत भी हो सकती है।
v पादवेध-ऊँची कुर्सी(प्लिंथ) रख कर मकान बनाने पर स्वाभाविक है कि ऊपर चढ़ने के लिए सीढियां बनानी पड़ेंगी।इसे भी सोच विचार कर बनाना चाहिए,अन्यथा पादवेध पैदा करेगा।
v अन्यवेध-धोबीघाट या पाट,कोल्हू(तैल यन्त्र),आटा चक्की इत्यादि किसी प्रकार का यन्त्र-संचालन भी अपने रुप-गुण के अनुसार वेध पैदा करता है।अतः इन बातों का भी ध्यान रखना जरुरी है।कुम्हार का चाक होने से हृदयरोग तथा विवशता पूर्वक परदेशवास की स्थिति बनती है।कुम्हार का आवाँ(मिट्टी के वरतन पकाने का विशेष प्रकार का भट्ठा)हो तो संतति-नाश-कारक होता है।दीमक की बॉबी होने से भी विवशता पूर्वक परदेश गमन होता है।राख या कूड़े-कर्कट का ढेर हो तो मलद्वार की व्याधि(अर्श,भगन्दर) सताती है।
१०.छिद्रवेध- मुख्यद्वार,या अन्य दरवाजों के कपाट में छिद्र का होना हानिकारक है।इससे व्यावहारिक नुकसान भी है- बाहरी व्यक्ति आन्तरिक स्थिति का गुप्तरुप से अवलोकन कर सकता है।शास्त्रीय विचार से कहा गया है कि छिद्रयुक्त कपाट से अशुभ ऊर्जा का प्रवेश होता है।अतः किवाड़ों में(घर के किसी भी किवाड़)कारीगरी की भूल से रह गये छोटे से छोटे छेद के बन्द कर देना चाहिए।
११.दृष्टिवेध- मकान में घुसते के साथ ही सामान्य व्यक्ति को भी कुछ अशान्ति का आभास होने लगता है,विशेषज्ञ की तो बात ही और है।सब कुछ ठीक-ठाक दीखने पर भी मकान में अजीब सी सनसनाहट प्रतीत होती है।भरा-पूरा होने पर भी सूनापन सा लगता है।इसे दृष्टिवेध कहते हैं। इसका गम्भीरता पूर्वक विचार कराकर निवारण करना चाहिए।
१२.शिल्पवेध- भवन की शोभा हेतु मुख्य द्वार या आन्तरिक खंडों में भी अवांछित शिल्प- मॉडल,मूर्तियाँ आदि रखने या उत्कीर्ण कराने का चलन है।इसपर विशेष विचार जरुरी है।देवी-भक्तों के घर में देवी की धड़ रहित (मुखमात्र)मूर्ति प्रायः दीवारों पर टंगी मिलती हैं।यह अशुभ फलदायी है।
इसी भांति सिंह,वाघ,वारहसिंघा,हिरण आदि की आकृति(मॉडल)बैठक की शोभा भले बढ़ाता हो,किन्तु स्वामी के लिए अशुभ ऊर्जा को भी निरंतर आहुत करते रहता है।अतः इससे बंचना चाहिये।
१३.चित्रवेध- शिल्प की तरह ही विभिन्न प्रकार के चित्रों का भी अपना वेध प्रभाव है।मांस-भक्षी(सिंह,व्याघ्र,तेंदुआ,उल्लू,कौआ,गिद्ध,वाज,कबूतर, वगुला,गोह,बिल्ली आदि) पशु-पक्षियों के चित्र,दैत्य-राक्षस,भूत-प्रेत,जादू-टोने (इन्द्रजालिक चित्र),भयंकर मूर्तियाँ या चित्र,रोते हुए मनुष्य का चित्र वा मूर्ति,पृदाकु(सर्प)रामायण-महाभारत आदि युद्ध के चित्र घर के अन्दर न लगाये जायें।दम्पति के शयन-कक्ष में कबूतरों का युग्म चित्र भी न लगाया जाय।इससे पति-पत्नी के आपसी सम्बन्धों में दरार आती है।ऊपर के सभी वर्जित चित्रों का प्रयोग बाहरी दीवारों पर भी कदापि न किया जाय।इस सम्बन्ध में वास्तुरत्नाकर गृहोपकरण प्रकरण में कहा गया है-
गृहे न रामायणभारताहवं चित्रं कृपाणाहवमिन्द्रजालिकम्।
शिलोच्चयारण्यमयं सदासुरं भीष्मं कृताक्रन्दनरं त्वनम्बरम्।
वाराहशार्दूलशिवापृदाकवो गृद्धाभिधोलूककपोतवायसाः।
सश्येनगोधादिवकादिपत्रिणो विचित्रिता नो शरणे शुभावहाः।।(६-७७,७८)
१४.कूप-तड़ादिवेध- गृह के सामने कुआँ होने से मृगी,अतिसार,सन्निपात, आदि रोग,तथा दरिद्रता और अकारण भय की स्थिति उत्पन्न होती है। (पूर्व दिशा में हो तो ऐश्वर्यदायी होता है)किन्तु अन्य प्रकार का जलाशय पुत्रहंता है।घर के पूर्व में विवर या गड्ढा,दक्षिण में कुण्ड,पश्चिम में कमल युक्त जलाशय(पोखर),उत्तर में खाई हो तो शत्रु पीड़ा सदा सताते रहेगी
१५.रथ्यावेध- रथ्या यानी मार्ग(सड़क) का विभिन्न दिशाओं या कोणों से भूखण्ड का सीधे स्पर्श भी गहरा प्रभाव डालता है।अन्य कारणों से शुभ भूखण्ड भी रथ्या-वेध के कारण अशुभ प्रभावकारी हो जाता है। आगे कुछ चित्रों के माध्यम से इसे स्पष्ट किया जा रहा है।किन्तु इससे पूर्व किंचित आर्षवचनों  पर दृष्टिपात कर लें-
रथ्याविद्धं द्वारं नाशाय कुमार दोषदं तरुणा।
पङ्कद्धारे शोको व्ययोऽम्बुनिः साविणि प्रोक्तः।।
कूपेनापस्मारो भवति विनाशश्च देवताविद्धे।
स्तम्भेन स्त्रीदोषाः कुलनाशो ब्रह्मणोऽभिमुखे।।
                   (वृहत्संहिता वास्तुविद्याध्याय७५,७६)(वास्तुरत्नाकर-८-५३,५४)
समस्या बताकर,उसका परिहार भी दिया गया है-
पृष्ठतःपार्श्वयोश्चापि न वेधं चिन्तयेद् बुधः।
प्रासादे वा गृहे वापि वेधमग्रे विनिर्दिशेत्।। (वृहद्वास्तुमाला १६०)
मार्गतरुकोणकूपस्तम्भभ्रमविद्धमशुभदं द्वारम्।
उच्छ्रायाद् द्विगुणमितां त्यक्त्वा भूमि न दोषाय।।
                            (वृहत्संहिता वास्तुविद्याध्याय७४)

ध्यातव्य है कि किसी भी भूखंड में पीछे या बगल से होने वाले शूल का विचार नहीं किया जाता।दूसरी बात ध्यान में रखने योग्य यह है कि निर्माण-योजना (या निर्मित भवन)की ऊँचाई से दुगनी दूरी पर वेध हो तो वेध अवैध हो जाता है।भवन और वेध के बीच सार्वजनिक मार्ग(सड़क) हो तो वेध दोष प्रभावी नहीं होता।कुछ परिस्थितियों में वेध शुभ भी होता है।यथा- उत्तर और पूर्व दोनों दिशाओं में एक साथ वेध हो, तो वेध अवैध हो जाता है;किन्तु किसी भी दिशा में किसी ओर से कोई मार्ग आकर सीधे चयनित भूखण्ड को मध्य क्षेत्र में(किसी दिशा के मध्य क्षेत्र)शूल की तरह वेधित करता हो तो ऐसा वेध अति दोषपूर्ण हो जाता है। यहां एक और तथ्य ज्ञातव्य है कि शूलवेध दिशाओं में तो समान रुप से लागू होता है,किन्तु विदिशाओं(कोणों)में अशुभ और शुभ दोनों प्रकार का प्रभाव डालता है।इसकी स्पष्टी दिये गये चित्रों से हो सकती है—

                       शुभवेध

ऊपर के दोनों चित्रों में क्रमशः शुभ एवं अशुभ मार्गवेध को अलग-अलग रूप से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया।अब इस पूरे तथ्य को इस प्रकार समझा जायः-
शुभवेध-(क) जिस भूमि पर ईशान वेध हो और पूर्व या उत्तर,अथवा दोनों ओर से आने वाले मार्ग भूखण्ड के ईशान को स्पर्श करे,तो इसका प्रभाव शुभ होगा।
      (ख) जिस भूमि पर वायव्य कोण पर वेध हो,और मार्ग पश्चिम से आकर भूखण्ड को स्पर्श करता हो,तो इसका प्रभाव शुभ होगा।
      (ग) जिस भूमि पर अग्नि कोण में वेध हो और मार्ग दक्षिण से आकर भूखण्ड को स्पर्श करता हो,तो इसका प्रभाव शुभ होगा।
अशुभ वेध- (क) जिस भूमि पर नैऋत्य कोण पर वेध हो,और मार्ग पश्चिम और दक्षिण दोनों ओर से आते हों,तो इसका प्रभाव अशुभ होगा।
         (ख) जिस भूमि पर वायव्य कोण पर वेध हो,और मार्ग उत्तर से आकर भूखण्ड को स्पर्श करता हो, तो इसका प्रभाव अशुभ होगा।
        (ग) जिस भूमि पर आग्नेय कोण पर वेध हो,और मार्ग पूरब से आकर भूखण्ड को स्पर्श करता हो, तो इसका प्रभाव अशुभ होगा।
अब इस पूरे(शुभाशुभ) वेध प्रकरण को एकत्र दर्शाया जा रहा हैः-

ऊपर के तीन चित्रों- शुभ,अशुभ,एवं शुभाशुभ(एकत्र) के माध्यम से मार्ग वेधों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया।आशा है इससे पाठकों को समझने में सुविधा होगी।
    भूमि-चयन के इस विस्तृत प्रसंग में अब तक जिन-जिन बातों पर विचार किया गया,उनसे हम इस निश्चय पर पहुँचे कि भूखण्डों को कई श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।यथा-
१.      उत्तम श्रेणी के भूखण्ड
२.       मध्यम श्रेणी के भूखण्ड
३.    सामान्य श्रेणी के भूखण्ड
४.   निम्न श्रेणी के भूखण्ड
५.   अधम वा त्याज्य श्रेणी के भूखण्ड
अब इन पर एक सरसरी निगाह डाल ली जाय-
उत्तम श्रेणी के भूखण्ड-
१.     आकृति वर्गाकार या आयताकार हो।चारों तरफ मार्ग हों।भूमि का प्लवत्व पूरब या उत्तर की ओर हो।वेधशूल न हो।पश्चिम दिशा में पहाड़,ऊँचे टीले,चट्टान,उपत्यका,ऊँचे भवन,ऊँचे वृक्ष हों।पूरब या उत्तर में जलाशय हो।आसपास अनुकूल हो।
२.   जिस भूमि की आकृति वर्गाकार,वृत्ताकार,आयताकार हो उसके पूर्व-उत्तर-पश्चिम में मार्ग हो,ईशान में विस्तार या वेध हो,वातावरण सुरम्य हो।
३.   जिस भूखण्ड का आकार शुभ हो,पूर्व या उत्तर में मार्ग हो,पूर्वोत्तर में वेध हो,दक्षिण-पश्चिम ऊँचा हो,पूर्व-उत्तर में कोई जलाशय हो,पूर्व ढाल हो।
४.   जिस भूमि का आकार शुभ हो,उत्तर-पश्चिम में मार्ग हो,उत्तर में ढलान हो, पश्चिम की भूमि ऊँची हो,उत्तर-पश्चिम कोण पर वेध हो,पश्चिम में ऊँचे भवन या पहाड़,वक्ष आदि जनित ऊँचाई हो।
मध्यम श्रेणी के भूखण्ड-
१.    जिस भूमि का आकार भद्रासन,चतुष्कोण,षट्कोण हो,जिसके पूर्व या पश्चिम में मार्ग हो,पश्चिमी मार्ग थोड़ा ऊँचा हो,भूमि का ढलान पूर्व की ओर हो,पूर्व में नदी-तालाब हो।
२.   जो आवासीय भूखण्ड गोमुखी हो,व्यावसायिक भूखण्ड व्याघ्रमुखी हो,उत्तर- दक्षिण मार्ग हो,दक्षिणी मार्ग कुछ ऊँचा हो,उत्तर में खुलापन हो,दक्षिण में ऊँचे भवन या वृक्ष हो।
३.   जो भूमि षड्भुज या अष्टभुज हो,उत्तर या पूर्व में मार्ग हो,ढलान वा वेध ईशान में हो,पश्चिम में ऊँचे वृक्ष हो।
४.  जिस भूखण्ड का आकार शुभ हो,ईशान में प्रलम्ब(विस्तार)या खुलापन हो, पूरब,पश्चिम,या उत्तर में मार्ग हो,वायव्य कोण पर पश्चिमी दिशा से या आग्नेय कोण पर दक्षिणी दिशा से वेध हो,सामने की ओर खुला मैदान हो।
सामान्य श्रेणी के भूखण्ड-
१.     जिस भूमि का आकार शुभ हो,पश्चिम में मार्ग हो,पूरब में ढलान हो,उत्तर में ऊँचे भवन,पहाड़,वृक्ष आदि हो।
२.    जिस भूमि के अग्नि कोण पर पूरब की ओर या वायव्य कोण पर उत्तर की ओर कटान हो,पूर्व,उत्तर या दक्षिण में मार्ग हो।
३.    जिस भूमि के पूर्व में मार्ग हो,दक्षिण-पश्चिम में ऊँचे भवन,पहाड़ या वृक्ष हों।
४.   जिस भूमि के उत्तर में मार्ग हो,ईशान में प्रलम्ब(विस्तार)हो,आकार शुभ हो, समीप में मन्दिर-मस्जिद,गरुद्वारा,चर्च आदि कोई धार्मिकस्थल हो।
निम्न श्रेणी के भूखण्ड-
१.    जिस भूमि के दक्षिण और पूर्व में सड़क हो,और प्लवत्व दक्षिण की ओर हो।
२.   जिस भूमि के दक्षिण में मार्ग हो और प्लवत्व दक्षिण की ओर हो।
३.   जिस भूमि की आकृति व्यजनाकार(पंखे जैसा)हो,पूर्व में सड़क हो,उत्तर में ढलान हो,वातावरण मनोरम हो।
४.   जिस भूमि के उत्तर और दक्षिण या पूर्व में मार्ग हो,कोई कोण संकुचित (कटा हुआ)हो।

अधम वा त्याज्य श्रेणी के भूखण्ड-
आकार चयन में कहे गये सभी विषमाकृति-त्रिभुज,चक्र,शूर्प,अण्ड,अर्द्धवृत्त, शकट,धनुष,कूर्म,तारा,खग,सर्प,कुम्भादि;प्लवत्त्व में दक्षिण-नैऋत्य;श्मशान, कब्रगाह,दरगाह आदि,भूकम्प प्रभावी,दलदली,निर्जन,यमवीथी,भूतवीथी, नागपृष्ठ, दैत्यपृष्ठ,उच्च शक्ति विद्युतीय वा चुम्बकीय ऊर्जा प्रवाह क्षेत्र, बूचड़खाना,चमड़े हड्डीमिल आदि के समीप की भूमि को सर्वथा त्याज्य श्रेणी में रखा गया है।ऐसी भूमि पर वास करना अति अशुभ परिणाम दायी है।किन्तु कुछ खास तरह के व्यवसाय जो उस भूमि और पार्श्व के समतुल्य हों वैसी ही भूमि पर निर्मित किये जाने चाहिए।
नोटः- वास्तुभूमि अध्याय के (क) चयन खण्ड के अबतक के लम्बे प्रसंग में भूमि चयन की हर सम्भावित विन्दुओं पर गहराई से विचार किया गया। अब आगे खण्ड (ख) में परीक्षण-शोधन की चर्चा की जायेगी।
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            (अध्याय ग्यारह का खण्ड क समाप्त)

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